Monday, December 4, 2017

उ. प्र. के निकायों के चुनाव से संदेश

उ.प्र. के नगर निकायों के चुनावों के नतीजे आ गये हैं। लोकतंत्र की ये विशेषता है कि नेता को हर पाँच साल में मतदाता की परीक्षा में खरा उतरना होता है। ऐसा कम ही होता है कि एक व्यक्ति लगातार दो या उससे ज्यादा बार उसी क्षेत्र से चुनाव जीते। अगर ऐसा होता है, तो स्पष्ट है कि उस व्यक्ति ने अपने क्षेत्र में काम किया है और उसकी लोकप्रियता बनी हुई है। अलबत्ता अगर कोई माफिया हो और वो अपने बाहुबल के जोर से चुनाव जीतता हो, तो दूसरी बात है।

उ.प्र. के अधिकतर महापौर भाजपा के टिकट पर जीते हैं। इसके दो कारण है। एक तो केंद्र और राज्य में भाजपा की सरकार होने के नाते मतदाता को ये उम्मीद है कि अगर जिले से केंद्र तक एक ही दल की सत्ता होगी, तो विकास कार्य तेजी से होंगे और साधनों की कमी नहीं आयेगी। दूसरा कारण यह है कि योगी सरकार को बने अभी 6 महीने ही हुए हैं। उ.प्र. के मतदाताओं को अपेक्षा है कि सरकार व्यवस्था में बुनियादी परिवर्तन करेगी। इसलिए उसको इतना भारी समर्थन मिला है।

पर साथ ही जिन सीटों पर कार्यकर्ताओं की छवि और क्षमता को दरकिनार कर किन्हीं अन्य कारणों से सिफारशी उम्मीदवारों को टिकट मिले, वहां उनकी पराजय हुई है। ये चुनावी गणित का एक पेचीदा सवाल होता। दल के नेता का लक्ष्य होता है कि किसी भी तरह चुनाव जीता जाए। इसीलिए अक्सर ऐसे उम्मीदवारों को भी टिकट दे दिये जाते हैं, जिन्हें बाहरी या ऊपर से थोपा हुआ मानकर, कार्यकर्ता गुपचुप असहयोग करते हैं। जबकि इन्हें टिकट इस उम्मीद में दिया जाता है कि वे जीत सुनिश्चित करेंगे। नैतिकता का तकाजा है कि जिसने दल के सामान्य कार्यकर्ता बनकर, लंबे समय तक, समाज और दल के हित में कार्य किया हो, जिसकी छवि साफ हो और जिसमें नेतृत्व की क्षमता हो, उसे ही टिकट दिया जाए। पर अक्सर ऐसा नहीं होता और इससे कार्यकर्ताओं में हताशा फैलती है और वे बगावत कर निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में खड़े होकर, कड़ी चुनौती देते हैं। जो भी हो अब तो चुनाव हो गये। हर दल अपने तरीके से परीणामों की समीक्षा करेगा।

सवाल है कि स्थानीय निकायों की प्रमुख भूमिका क्या है और क्या जीते हुए उम्मीदवार अब जन आकांक्षाओं को पूरा करने में जी जान से जुटेंगे? देखने में तो ये आता है कि चुनाव जीतने के बाद ज्यादातर उम्मीदरवार उन कामों में ही रूचि लेते हैं, जिनमें उन्हें ठेकेदारों से अच्छा कमीशन मिल सके। चूंकि स्थानीय निकायों का काम सड़क, नाली, खड़जे, पार्क, रोशनी आदि की व्यवस्था करना होता है और इन मदों में आजकल केंद्र सरकार अच्छी आर्थिक मदद दे रही है, इसलिए छोटे-छोटे ठेकेदारों के लिए काफी काम निकलते रहते हैं। पर इस कमीशन खोरी की वजह से इन कार्यों की गुणवत्ता संदेहास्पद रहती है। इसीलिए उ.प्र. के ज्यादातर नगरों में आप सार्वजनिक सुविधाओं को भारी दुर्दशा में पाऐंगे। टूटी-फूटी सड़के, अवरूद्ध और उफनती नालियां, बिजली के खम्भों से लटकते तार, हर जगह कूड़े के अंबार और गंदे पानी के पोखर,उ.प्र. के नगरों के चेहरों पर बदनुमा दाग की तरह हर ओर दिखाई देते हैं। फिर वो चाहे प्रदेश की राजधानी लखनऊ हो या प्रधानमंत्री का संसदीय क्षेत्र बनारस या तीर्थराज प्रयाग हो और या राम और कृष्ण की भूमि अयोध्या व मथुरा। हर ओर आपको इन नगरों की ऐसी दयनीय दशा दिखाई देगी कि आप यहां आसानी से दोबारा आने की हिम्मत न करें।

नगरों की साफ सफाई के लिए एक कुशल ग्रहणी की मानसिकता चाहिए। एक की घर की दो बहुऐं अपने-अपने कमरों को अलग-अलग तरह से रखती हैं। एक का कमरा आपको 24 घंटे सजा-संवरा दिखेगा। जबकि दूसरी के कमरे में जहां-तहां कपड़े और सामान बिखरे मिलेगें। ठीक इसी तरह जिस वार्ड का प्रतिनिधि अपने वार्ड की साफ-सफाई और रख-रखाव को लेकर लगातार सक्रिय रहेगा, उसका वार्ड हमेशा चमकता रहेगा। जो निन्यानवे के फेर में रहेगा, उसका वार्ड दयनीय हालत में पड़ा रहेगाा। अब ये जिम्मेदारी मतदाताओं की भी है कि वो अपने पार्षद पर कड़ी निगाह रखे और उसे वह सब करने के लिए मजबूर करें, जिसके लिए उन्होंने वोट दिया था।

एक समस्या और आती है, वह है विकास के धन का दुरूपयोग। चूंकि अनुदान मिल गया है और पैसा खर्च करना है, चाहे उसकी जरूरत हो या न हो, तो ऐसे-ऐसे काम करवाये जाते, जिनमें सीधे जनता के धन की बरबादी होती है। इसलिए मैने हाल ही अपनी दो बैठकों में मुख्यमंत्री योगी जी से साफ कहा कि महाराज एक तो काम करवाने में भ्रष्टाचार होता ही है और दूसरा योजना बनाने में उससे बड़ा भ्रष्टाचार होता है। उदाहरण के तौर पर आपके वार्ड की सड़क अच्छी-खासी है। अचानक एक दिन आप देखते हैं कि उस कॉन्क्रीट की सड़क को ड्रिल मशीन से काट-काटकर उखाड़ा जा रहा है। फिर कुछ दिन बाद वहां रेत बिछाकर इंटरलॉकिंग के टाइल्स लगावाये जा रहे हैं। जिनको लगवाने का उद्देश्य केवल अनुदान को ठिकाने लगाना होता है। लगने के कुछ ही दिनों बाद ये टाइल्स जगह-जगह से उखड़ने लगते हैं। फिर कभी कोई उन्हें ठीक करने या उनका रखरखाव करने नहीं आता। इस तरह एक अच्छी खासी सड़क बदरंग हो जाती है। मतदाता तो अपनी रोजी-रोटी में मशगूल हो जाता है और प्रतिनिधि पैसे बनाने में। अगर उ.प्र. के नगरों की हालत को सुधारना है, तो इन जीते हुए प्रतिनिधियों, महापौरों और योगी सरकार को कमर कसनी होगी कि कुछ ऐसा करके दिखायें कि संसदीय चुनाव से पहले उ.प्र. के नगर बिना फिजूल खर्चे के दुल्हन की तरह सजे दिखे। हां इस काम में नागरिकों को भी सक्रिय भूमिका निभानी होगी। तभी इन चुनावों की उपलब्धि सार्थक हो पायेगी।

Monday, November 13, 2017

न्यायपालिका के पतन के लिए प्र्रशांत भूषण कैसे जिम्मेदार?

उ. प्र. के मेडिकल कॉलेज दाखिले के घोटाले को लेकर चल रहे एक मामले में पिछले हफ्ते सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका के वकील प्रशांत भूषण ने भारत के मुख्य न्यायाधीश पर अनैतिकता का  सीधा आरोप लगाकर हंगामा खड़ा कर दिया। जिसकी देश में काफी चर्चा है। प्रशांत भूषण के इस साहस की मैं भी प्रशंसा करता हूं। क्योंकि मैं इस बात से सहमत नहीं हूं कि अगर कोई व्यक्ति सर्वोच्च न्यायपालिका का सदस्य बन जाता है, तो वह भगवान (मी लॉर्ड) के समान हो जाता है। ये कोई भावनात्मक बयान नहीं है। मैंने स्वयं सर्वोच्च न्यायालय के तीन मुख्य न्यायाधीशों और एक न्यायाधीश के अनैतिक आचरण की खोज करके 1997-2002 के बीच बार-बार यह सिद्ध किया कि सर्वोच्च न्यायपालिका के भी कुछ सदस्य भ्रष्टाचार से अछूते नहीं है। अपने आरोपों के समर्थन में मैंने तमाम प्रमाण प्रकाशित किये थे और तत्कालीन पदासीन उन न्यायाधीशों के विरूद्ध अकेले वर्षों लंबा संघर्ष किया। विनम्रता से कहना चाहूंगा कि अब तक के भारत के इतिहास में किसी पत्रकार, वकील, आई ए. एस अधिकारी, सांसद व समाजिक कार्यकर्ता ने ऐसा संघर्ष नहीं किया।

अगर उस संघर्ष में प्रशांत भूषण और इनके स्वनामधन्य पिता शांति भूषण मेरे साथ धोका नहीं करते, तो भारत की न्यायपालिका के सुधार की ठोस शुरूआत आज से 20 वर्ष पहले ही हो गई होती। इसलिए मैं प्रशांत भूषण के हर साहसिक कदम का प्रंशसक होते हुए भी उनके पक्षपातपूर्णं व अनैतिक आचरण के कारण इन पिता-पुत्रों को न्यायपालिका के पतन के लिए जिम्मेदार मानता हूं।

इतने से संकेत भर से सरकार, न्यायपालिका और मीडिया से जुडे़ 40 बरस से ऊपर की आयु के हर व्यक्ति को वह दिन याद आ गया होगा। जब 14 जुलाई 1997 को भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जे.एस. वर्मा ने हमारी याचिका पर सुनवाई करते समय भरी अदालत में कहा था कि, ‘जैन हवाला मामले में हाथ खींचने के लिए हम पर जबरदस्त भारी दबाव है। लेकिन हम में से कोई पीछे नहीं हटेगा। लोग हम तक पहुंचने की कोशिश कर रहे हैं। एक व्यक्ति ने मुझसे मिलने की कोशिश की। वहीं व्यक्ति मेरे साथी न्यायमूर्ति श्री एस सी सेन से मिला। श्री सेन काफी नर्वस हैं। मैंने उनसे इस बात को भूल जाने को कहा है। हम साफ कर देना चाहते हैं कि हवाला कांड की जांच की निगरानी जारी रहेगी। जिससे निष्पक्षता सुनिश्चित हो सके।’ मुख्य न्यायाधीश ने यह भी कहा कि वह व्यक्ति उस समय अदालत में भी बैठा हुआ था।

मुख्य न्यायाधीश का यह खुलासा देशवासियों को सुनने में काफी बहादुरी भरा लगा। देश के टेलीविजन चैनलों और अखबारों ने इसे मुख्य खबर बनाया। पर जो बात सबको खटकी वो ये कि न्यायमूर्ति वर्मा ने भारत के इतिहास में देश की सर्वोच्च अदालत की सबसे बड़ी अवमानना करने वाले उस व्यक्ति का नाम नहीं बताया और न ही उसे काई सजा दी। यह आश्चर्यजनक ही नही चिंताजनक व्यवहार था। इस प्रकार की स्वीकारोक्ति करने के लिए चूंकि मुख्य न्यायाधीश को मैंने 12 जुलाई 1997 को प्रमाण सहित एक चेतावनी भरा पत्र भेजकर मजबूर किया था, इसलिए मैं हर मंच पर मुख्य न्यायाधीश से उस अपराधी का नाम बताने की मांग करता रहा। बाद में यह मांग संसद से लेकर बार काउंसिल तक में उठाई गई। मीडिया में भी खूब शोर मचा। क्योंकि हवाला मामला आतंकवादियों के अवैध धन की आपूर्ति और भारत के सभी प्रमुख दलों के बड़े राजनेताओं और देश के उच्च अधिकारियों के अनैतिक आचरण से जुड़ा था। इसलिए ये मामला अत्यंत संवेदनशील था। इसलिए मुझे उस व्यक्ति का नाम उजागर करना पड़ा। बाद में न्यायमूर्ति वर्मा और न्यायमूर्ति सेन ने भी यह माना कि मेरा रहस्योद्घाटन सही था। पर फिर भी उस अपराधी को सजा नहीं दी गई। कारण स्पष्ट था कि वह व्यक्ति न्यायमूर्तियों पर दबाव नहीं डाल रहा था। बल्कि हवाला कांड के आरोपियों के हित में इन न्यायधीशों के साथ ‘डील’ कर रहा था।

देश की न्यायपालिका को पहली बार इतनी बुरी तरह झकझोरने वाले मेरे इस विनम्र प्रयास पर मेरा साथ देने की बजाय मेरे सहयाचिकाकर्ता प्रशांत भूषण और इनके पिता ने उन न्यायमूर्तियों का साथ दिया और मेरी पीठ में छुरा भोंक दिया। क्योंकि ये दोनों खुद उस समय राम जेठमलानी के साथ मिलकर लालकृष्ण आडवाणी व कांग्रेस के दर्जनों बड़े नेताओं को हवाला कांड से बरी कराने की साजिश कर रहे थे। 

अगर अपने स्वार्थों को पीछे छोड़कर इन पिता पुत्रों ने उस समय इस लड़ाई में साथ दिया होता, तो इस देश की राजनीति और न्यायपालिका का इतना पतन न हुआ होता। मैंने तो फिर भी हिम्मत नहीं हारी और फिर भारत के अगले मुख्य न्यायधीश बने डा. ए. एस. आनंद के 6 जमीन घोटाले अपने अखबार ‘कालचक्र’ में छापे और तमाम यातनाऐं भोगते हुए, बिना किसी की मदद के, न्यायपालिका में सुधार के लिए एक लंबा संघर्ष किया। तब से मेरा यही अनुभव रहा है कि राम जेठमलानी और उनके खास सहयोगी शांति भूषण और प्रशांत भूषण जो भी करते हैं, उसके पीछे कुछ न कुछ निहित स्वार्थ का ऐजेंडा जरूर होता है। हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और।

मैं आज भी यह मानता हूं कि सवा सौ करोड़ भारतीयों को न्याय की गारंटी देने वाली न्यायपालिका में भारी सुधार की जरूरत है। पर ये सुधार प्रशांत भूषण के पक्षपातपूर्णं रवैये से कभी नहीं आयेगा। अगर वाकई वे न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार को दूर करना चाहते हैं, तो उन्हें 1997 में मेरे साथ की गई गद्दारी के लिए सार्वजनिक प्रयाश्चित करना होगा। साथ ही उन जैसे तमाम उन बड़े वकीलों को जिन्होंने हवाला कांड के कंधों पर चढ़कर अपनी राजनैतिक हैसियत बना ली, इस कांड की ईमानदार जांच की मांग करनी होगी। क्योंकि आतंकवाद और देशद्रोह से जुड़े, देश के इस सबसे राजनैतिक घोटाले को बिना जांच के ही, इन सब की साजिश से दबा दिया गया था और मैं अकेला अभिमन्यु कौरवों की सेना से लड़ते हुए, जिंदा शहीद करार कर दिया गया। जबकि इस केस के तमाम सबूत सीबीआई, सर्वोच्च न्यायालय और कालचक्र के कार्यालय में आज भी सुरक्षित हैं। क्या प्रशांत भूषण या आतंकवाद और भ्रष्टाचार के विरूद्ध डंका पीटने वाले कोई वकील, सांसद या राजनेता बिल्ली के गले में घंटी बांधने को तैयार हैं? मैं तो 62 वर्ष की उम्र में भी 26 वर्ष के नौजवान की तरह, खम ठोकने को तैयार हूं।

Monday, November 6, 2017

ऐसे नहीं होगी ब्रज धाम की सेवा योगी जी

केंद्र और राज्य की सरकारें, हमारे धर्मक्षेत्रों को सजाए-संवारे तो सबसे ज्यादा हर्ष, हम जैसे करोड़ों धर्म प्रेमियों को होगा। पर धाम सेवा के नाम पर, अगर छलावा, ढोंग और घोटाले होंगे, तो भगवान तो रूष्ट होंगे ही, भाजपा की भी छवि खराब होगी। इसलिए हमारी बात को ‘निंदक नियरे राखिए’ वाली भावना से अगर उ.प्र. के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी जी सुनेंगे, तो उन्हें लोक और परलोक में यश मिलेगा। यदि वे निहित स्वार्थों की हमारे विरूद्ध की जा रही लगाई-बुझाई को गंभीरता से लेंगे तो न सिर्फ ब्रजवासियों और ब्रज धाम के कोप भाजन बनेंगे बल्कि परलोक में भी अपयश ही कमायेंगे।

वर्तमान संदर्भ में यह चिंता वृंदावन के विश्व प्रसिद्ध श्री बांके बिहारी जी के मंदिर को लेकर व्यक्त की जा रही है। पिछले हफ्ते अखबारों में पढ़ा कि उ.प्र.  प्रदेश पर्यटन विभाग, मथुरा-वृंदावन विकास प्राधिकरण और ब्रज तीर्थ विकास परिषद् मिलकर विश्व बैंक के  27 करोड़ रूपये के कर्ज से बिहारी जी की तीन गलियां सजायेंगे। यह सब ब्रज की गरीबी दूर करने के नाम पर, ‘प्रो-पूअर टूरिज्म’ योजना के तहत होगा। उल्लेखनीय है कि 27 करोड़ रूपया उ.प्र. की जनता पर कर्ज होगा, अनुदान नही, जो उसे भविष्य में बढे़ हुए टैक्स देकर चुकाना पड़ेगा। यह समाचार हर धर्मप्रेमी को विचलित करने के लिए काफी है। 

पहली बात तो ये कि विश्व बैंक के कर्ता-धर्ता गोमांसभक्षी और ईसाई धर्म के सर्वोच्च केंद्र वैटिकन से संचालित होते हैं। जो शुद्ध रूप से हमारे हिंदू धर्म को नष्ट कर ईसाईयत फैलाने के काम पर लगा रहता है। ऐसे हिंदू धर्म विरोधी लोग, हिंदू धर्म की आस्था के केंद्रों पर क्यों कब्जा करना चाहते हैं? क्या उन्हें हिंदू मंदिर ही गरीबी दूर करने के लिए सबसे उपयुक्त स्थान लगे? या उनकी निगाह बैंकों में जमा बिहारी जी के 100 करोड़ रूपये और भविष्य की आमदनी पर है? क्या इसीलिए वे पिछले दरवाजों से घुसकर, हमारे धर्मक्षेत्रों पर कब्जा करना चाहते हैं? क्या बांके बिहारी जी के भक्त इतने दरिद्र हो गये कि उन्हें बिहारी जी की गलियां सजाने के लिए भी इन ईसाइयों से कर्ज लेगा पड़ेगा? क्या तीन गलियों के सजाने के लिए 1 करोड़ रूपया काफी नहीं है? चूंकि मैं 2003-05 में बांके बिहारी मंदिर का रिसीवर रहा हूं, इसलिए मुझे खूब पता है कि कितने कम पैसों में कितना काम हो सकता है और अंतिम प्रश्न यह है कि साधन संपन्न लोगों से युक्त इन गलियों पर 27 करोड़ रूपया खर्च करके ब्रजवासियों की गरीबी कैसे दूर होगी? क्या इस रूपये से ब्रज के गांवों में हजारों बेरोजगार नौजवानों को रोजगार मिलेगा या गरीबों को मुफ्त शिक्षा और स्वास्थ सेवाऐं मिलेंगी?

दुनिया की समझ रखने वाला हर व्यक्ति जानता है कि विश्व बैंक जहां भी गया, उसने उस क्षेत्र को लूटा और बर्बाद किया है। अफ्रीका के तमाम देश इसका उदाहरण हैं, जो दशकों से विश्व बैंक के चंगुल में फंसकर अपनी प्राकृतिक संपदा लुटवा रहे हैं और उनकी लाखों जनता भुखमरी और अकाल झेल रही है। इस ज्ञान में हमें ताजा वृद्धि तब हुई, जब खुद हमारा विश्व बैंक से समाना हुआ। हमने सबूतों के साथ इस बात को पकड़ा कि विश्व बैंक किस तरह प्रो-पूअर टूरिज्म के नाम पर उ.प्र. शासन में भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रहा था। ब्रज के प्राचीन 9 कुंडों के जीर्णोंद्धार के लिए विश्व बैंक की इसी योजना के तहत 77 करोड़ रूपये के ठेके इसी वर्ष उठा दिये गये थे। पर जब हमारी ब्रज फाउंडेशन की तकनीकी टीम के प्रबुद्ध प्रोफेशनल्स ने शोर मचाया, तो ये ठेका रूका और अब हमने जो योजना बनाकर सरकार को दी है, वह कहीं बेहतर, आकर्षक और मात्र 27 करोड़ रूपये की है। मतलब 50 करोड़ रूपया विश्व बैंक नाहक स्वीकृत करने जा रहा था। जो केवल भ्रष्टाचार की बलि चढ़ जाता। जिसे हमने रोका और हम निहित स्वार्थों के आखों की किरकिरी बन गये।

बिहारी जी की गलियों की दुर्दशा के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार मथुरा-वृंदावन विकास प्राधिकरण के वे अधिकारी हैं, जो गत 20 वर्षों से इस ऐजेंसी के मुखिया रहे हैं। फिर भी उन्होंने इन तंग गलियों में पुराने छोटे मकानों को तोड़कर बनने वाले बहुमंजलिय व्यवसायिक भवनों को अवैध रूप से बनने दिया और इन गलियों में आना जाना और भी कठिन कर दिया। विश्व बैंक की हिंदू धर्म क्षेत्रों में अवैध दखल की साजिश का पर्दा फाश हमने इसी कॉलम 24 अप्रैल 2017 को किया था। जिसे हमारी वेबसाइट पर ऑनलाइन पढ़ा जा सकता है।

आश्चर्य है कि कुछ महीनों की शांति के बाद निहित स्वार्थों ने फिर उस साजिश को अंजाम तक पहुंचाने की खुराफात शुरू कर दी है। जिसका कड़ा विरोध बिहारी जी के भक्तों, सेवायतों, ब्रजवासियों द्वारा किया जाना चाहिए। इस विरोध को प्रखर करने में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद् की अहम भूमिका होनी चाहिए। इन सशक्त संस्थाओं के रहते और मोदी और योगी जैसे शासकों की मौजूदगी में भी अगर हिंदू धर्म क्षेत्रों में विश्व बैंक दखल देने में सफल हो जाता है, तो ये हम सब हिंदुओं के लिए चुल्लू भर पानी में डूब मरने की स्थिति होगी। विश्व बैंक पूरी दुनियां में हमारा मजाक उड़ायेगा कि हिंदू धर्म का डंका पीटने वाले अपने तीर्थों तक को नहीं सजा सकते। इसके लिए भी ईसाईयों से कर्ज मांग रहे हैं। क्या हम विश्व बैंक के हाथों लुटने और अपमानित होने को तैयार हैं?

Monday, October 30, 2017

किसानों के साथ धोखाधड़ी


हमारे देश में अगर कोई सबसे अधिक मेहनत करता है, तो वो इस देश के किसान हैं, जो दिन-रात, जाड़ा, गर्मी और बरसात झेलकर फसल उगाते हैं और 125 करोड़ देशवासियों का पेट भरते हैं। लेकिन सबसे ज्यादा उपेक्षा भी उनकी ही होती है। चुनावों के माहौल में हर राजनैतिक दल किसानों के दुख-दर्द का रोना रोता है और ये जताने की कोशिश करता है कि मौजूदा सरकार के शासन में किसानों का बुरा हाल है और वो आत्महत्या करने पर मजबूर हैं। जबकि हकीकत यह है कि वही राजनैतिक दल जब सत्ता में होते हैं, तो ऐसी नीतियां बनाते हैं, जिनसे किसान की तरक्की हो ही नहीं सकती। चाहे वह बिजली की आपूर्ति हो या सिंचाई के जल की, चाहे वह समर्थन मूल्य की बात हो या खाद के दाम की। हर नीति की नींव में एक बड़ा घोटाला छिपा होता है। जिसका खामियाजा, इस देश के करोड़ों किसानों को झेलना पड़ता है। जबकि इन नीतियों को बनाने वाले नेता और अफसर, मोटी चांदी काटते हैं।


दरअसल किसानों के प्रति उपेक्षा का ये भाव सत्ताधीशों का ही नहीं होता, हम सब शहरी लोग भी इसके लिए जिम्मेदार हैं। अब मीडिया को ही ले लीजिए, अखबार हो या टी.वी., कुल खबरों की कितनी फीसदी खबर, किसानों की जिंदगी पर केंद्रित होती हैं? सारी खबरें औद्योगिक जगत, बहुर्राष्ट्रीय कंपनियां, सिनेमा या खेल पर केंद्रित होती है। किसानों पर खबर नहीं होती, किसान खुद खबर बनते हैं, जब वे भूख से तड़प कर मरते हैं या कर्ज में डूबकर आत्महत्या करते है।


ये कैसा समाजवाद है? कहने को श्रीमती गांधी ने भारतीय संविधान में संशोधन करके समाजवाद शब्द को घुसवाया। पर क्या यूपीए सरकार की नीतियां ऐसी थीं कि किसानों की दिन-दूगनी और रात-चैगुनी तरक्की होती? अगर ऐसी हुआ होता, तो किसानों की हालत इतनी खराब कैसे हो गयी कि वे आत्महत्या करने पर मजबूर हो गये? ये रातों-रात तो हुआ नहीं, बल्कि वर्षों की गलत नीतियों का परिणाम है। हमारी सरकारों ने किसानों को आत्मनिर्भर बनाने की बजाए, याचक बना दिया। ताकि वो हमेशा सत्ताधीशों के सामने हाथ जोड़े खड़ा रहे। छोटे-छोटे कर्जों में डूबा किसान तो अपनी इज्जत बचाने के लिए आत्महत्या करता आ रहा है, पर क्या किसी उद्योगपति ने बैंकों का कर्जा न लौटाने पर आत्महत्या की? लाखों-करोडों का कर्जा उद्योग जगत पर है। पर उन्हें आत्महत्या करने की जरूरत नहीं पड़ती। क्योंकि वे मंहगे वकील खड़े करके, बैंकों को मुकदमों में उलझा देते हैं। जिसमें दशकों का समय यूं ही निकल जाता है।


प्रधानमंत्री मोदी पर आरोप लग रहा है कि उनकी परोक्ष मदद के कारण अंबानी और अडानी की प्रगति दिन-दूनी और रात-चैगुनी हो रही है। पर क्या ये बात किसी से छिपी है कि पूर्ववर्ती सरकारों के कार्यकाल में भी अंबानी समूह की बेइंतहां वृद्धि हुई? सारा औद्योगिक जगत ये तमाशा देखता रहा कि कैसे सरकार से निकटता का लाभ लेकर, धीरूभाई अंबानी ने ये विशाल साम्राज्य खड़ा कर लिया था।  इसमें नया क्या है?


मैं पूंजीवाद के खिलाफ नहीं हूं। मैं मानता हूं कि व्यक्तिगत पुरूषार्थ के बिना, आर्थिक प्रगति नहीं होती। सरकारों की सहायता पर पलने वाला समाज कभी आत्मविश्वास से नहीं भर सकता। वह हमेशा परजीवि बना रहेगा। साम्यवादी देश इसका स्पष्ट उदाहरण है। जबकि पूंजीपति बुद्धि लगाता है, मेहनत करता है, खतरे मोल लेता है और दिन-रात जुटता है, तब जाकर उसका औद्योगिक साम्राज्य खड़ा होता है। इसलिए पूंजीपतियों की प्रगति का विरोध नहीं है। विरोध है, उनके द्वारा गलत तरीके अपनाकर धन कमाना और टैक्स की चोरी करना। इससे समाज का अहित होता है। इसलिए प्रधानमंत्री मोदी ऐसी व्यवस्था लाना चाह रहे हैं, जिससे टैक्स की चोरी भी न हो और लोग अपना आर्थिक विकास भी कर सकें। इस तरह सरकार के पास, सामाजिक कार्यों के लिए पर्याप्त साधन उपलब्ध हो जायेंगे।

 
हर परिवर्तन कुछ आशंका लिए होता है। ढर्रे पर चलने वाले लोग, हर बदलाव का विरोध करते हैं। परंतु बदलाव अगर उनकी भलाई के लिए हो, तो क्रमशः उसे स्वीकार कर लेते हैं। आज देश के समझदार लोगों को किसानों और देश की आर्थिक स्थिति पर मंथन करना चाहिए और ये तय करना चाहिए कि भारत का आर्थिक विकास किस माडल पर होगा? क्या देश का केवल औद्योगिकरण होगा या किसानों मजदूरों के आर्थिक उत्थान को साथ लेकर चलते हुए औद्योगिक विकास होगा? क्योंकि समाज के बहुसंख्यक लोगों को अभावों में रखकर मुट्ठीभर लोग वैभव पर एकाधिकार नहीं कर सकते। उन्हें गांधी जी के ‘ट्रस्टीशिप’ वाले सिद्धांत को मानना होगा। जिसका मूल है कि धन इसलिए कमाना है कि हम समाज का भला कर सकें। ऐसी सोच विकसित होगी, तो किसान भी खुश होगा और शेष समाज भी।



भारत के आर्थिक विकास के माडल पर बहुत कुछ सोचा-लिखा जा चुका है। उसी पर अगर एकबार फिर मंथन कर लिया जाए, तो तस्वीर साफ हो जायेगी। जरूरत है कि हम विकास के पश्चिमी माडल से हटकर देशी माडल को विकसित करें, जिसमें सबका साथ हो-सबका विकास हो।

Monday, October 23, 2017

अयोध्या में दीपावली: प्रतीकों का भी महत्व होता है

उ.प्र. के मुख्यमंत्री  आदित्यनाथ योगी ने इस बार अयोध्या में भव्य दीपावली का आयोजन किया। पुष्पक विमान के प्रतीक रूप हैलीकाप्टर से, जब भगवान श्रीराम,सीता व लक्षमण जी सरयू के घाट पर उतरे तो, पूरा अयोध्या उल्लासमय हो गया। लाखों दीपों से सरयू के घाट को सजाया गया। हजारों वर्ष बाद अयोध्यावासियों को वही अनुभूति हुई जो त्रेता युग में हुई होगी। इसके साथ ही अयोध्या के सौंदर्यीकरण के लिए योगी जी ने अनेक घोषणाऐं की।

भाजपा के राजनैतिक आलोचक कहते हैं कि जब से भाजपा सरकार आई है, तब से प्रधानमंत्री मोदी और उनके मुख्यमंत्री हिंदू धर्म को अनावश्यक रूप से महत्व देकर, अपना वोट बैंक पक्का कर रहे हैं। हो सकता है कि उनकी इस बात में तथ्य हो। पर प्रश्न उठता है कि क्या इस तरह के भव्य आयोजन पूर्व सरकारें नहीं करती थीं? राजीव गांधी के समय में कई देशों में जाकर भारत के जो उत्सव किये गये, जिसमें करोड़ों रूपया खर्च किया गया, उनका उद्देश्य था भारतीय संस्कृति से विश्व का परिचय कराना, उसमें कुछ गलत नहीं था।

जो लोग योगी जी की निंदा कर रहे हैं क्या उन्होंने पिछले 70 वर्षों में इस बात की निंदा की कि हमारी धर्मनिरपेक्ष सरकारों में रमजान के महीने में रोज क्यों प्रधानमंत्री, राज्यपाल व मुख्यमंत्रियों के यहां इफ्तार दावत होती थी ? उनका जवाब होगा कि शासक को समाज के हर वर्ग का प्रतिनिधित्व करना होता है। तो फिर नवरात्रि पर व्रत के भोज क्यों नहीं अयोजित किये गए ?

पिछले लगभग 1500 वर्ष का इतिहास है कि  हिंदू धर्म के जो प्रतीक थे उनका या तो उपहास किया गया या उन्हें दबाया गया या उनको सह लिया गया। पर प्रोत्साहित नहीं किया गया। कारण स्पष्ट है कि अगर शासक विधर्मी या नास्तिक  होंगे तो उन्हें हिंदू धर्म व संस्कृति में, उसकी आस्थाओं में और  पर्वों में क्यों रूचि होगी ? अब जब पहली बार ऐसी स्थिति बनी है कि केंद्र में पूर्णं बहुमत से और अनेक राज्यों में हिंदू मानसिकता की सरकार हैं, तो अगर हर्षोंल्लास से हिंदू पर्व मनाए जा रहे है, तो इसमें किसी को क्यों तकलीफ होनी चाहिए ?

जिस समय इलाहाबाद उच्च न्यायालय का अयोध्या पर निर्णय आ रहा था, तो एक टीवी चैनल पर लाइव चर्चा पर मैं भी बैठा हुआ टिप्पणी कर रहा था। उसके तुरंत बाद मैं सीधा अडवाणी जी के घर गया, तभी वहां वैंकेया नायडू, नजमा हैप्दुल्लाह, राजनाथ सिंह व अरूण जेटली भी आ गए। वहां चर्चा चली कि अब राम जन्मभूमि को लेकर आगे क्या किया जाए। सबके अलग-अलग विचार थे। चूंकि ये भाजपा  का राजनैतिक मामला था, इसलिए मैं कुछ देर ही बैठा और उन सबके साथ जलपान कर वहां से निकल लिया। लेकिन एक बात मैंने जरूर उन सबके सामने रखी और वो ये कि पिछले 20 वर्षों से या यूं कहिए जब से राम जन्मभूमि आंदोलन चला में अटल जी, आडवाणी जी और मुरली मनोहर जोशी जी से लगातार कहता रहता था कि मंदिर जब बनेगा बन जायेगा, तब तक अयोध्या का तो कायाकल्प कर लिया जाय। अगर ऐसा किया गया होता तो आज टीवी चैनलों पर अयोध्या की दुर्दशा दिखाकर भाजपा का उपहास नहीं हो रहा होता। जो उस दिन टीवी चैनलों पर जम कर किया गया।

उल्लेखनीय है कि अपनी कालचक्र विडियो पत्रिका में 1990 में राम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन के कारसेवकों पर हुई बर्बर हिंसा पर मैने बहुत हृदयविदारक प्रभावशाली टीवी रिर्पोट तैयार की थी। उस वक्त देश में कोई प्राइवेट टीवी चैनल नहीं थे, तो अपने किस्म की ये अकेली रिर्पोट दी जिसे भाजपा ने पूरे देश मे खूब दिखाया। तभी से मैं अयोध्या में सरयू के घाटों, वहां के कुंडों- सरोवरों, जीर्ण-शीर्ण पड़े भवनो पर काम किया जाना चाहिए ऐसा भाजपा के शीर्ष नेतृत्व से लगातार कहता रहा। विनम्रता से कहना चाहूंगा कि बिना सरकारी पैसे के, पिछले 15 वर्षों में जिस निष्ठा से हमारी ब्रज फाउंडेशन ने ब्रज का अध्ययन करने में, ब्रज के सम्पूर्ण विकास का माडल तैयार करने में और भगवान कृष्ण की दर्जनों लीलास्थलीओ का कलात्मक जीर्णोद्धार करने में जो निपुणता हासिल की है, उसकी आज सर्वत्र प्रशंसा हो रही है। जहां चाह, वहां राह। फिर अयोध्या ही क्यों, काशी हो, जगन्नाथपुरी हो या भारत का कोई भी अन्य तीर्थ स्थल हो, सबका कायाकल्प हो सकता है। बशर्ते हमारे अनुभवों का लाभ लिया जाय और करोड़ो रूपये की मोटी फीस ऐंठने वाले हाई-फाई प्रोफेशनल्स से बचा जाय। जिनके ब्रज में कई घोटाले हम पहले ही उजागर कर चुके हैं।

ऐसा नहीं हैं कि पिछली सरकारें चाहें वह कांग्रेस की हों या समाजवादी या बसपा की हों या किसी अन्य दल की हों, उन्होंने प्रतीको का सहारा लेकर विभिन्न धर्मों को संतुष्ठ करने का प्रयास नहीं किया, जरूर किया। सोमनाथ, तिरूपति बालाजी और वैष्णो देवी का विकास कांग्रेस के शासनकाल में हुआ और बहुत अच्छा हुआ। ऐसे दूसरे बहुत से कार्य अन्य दलों द्वारा भी हुए, जिनको नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। लेकिन जिस भक्ति भावना से या जिस ऐलानियत से यह कार्य किये जाने चाहिए थे, वे नहीं हुए।आज जब इस हो रहा है, तो उसकी निंदा न करें, उनका आंनंद ले, उनका रस लें। हाँ अगर इनसे पर्यावरण का या समाज का कोई अहित हो रहा हो तो उस पर टिप्पणी करने में कोई संकोच न किया जाय। मैं समझता हूं कि योगी जी ने अयोध्या में जो कुछ भी किया, उससे पूरे विश्व में हिंदू समाज को बहुत सुखद अनुभूति हुई है। जिसके लिए वे और उनकी सरकार बधाई के पात्र हैं।

Monday, October 16, 2017

दीपावली कैसे मनाऐं?


आतिशबाजी’ सनातन धर्म के शब्दकोश में कोई शब्द नहीं है। यह पश्चिम ऐशिया से आयातित है, क्योंकि गोला-बारूद भी भारत में वहीं से ‘मध्ययुग’ में आया था। इसलिए दीपावली पर राजधानी दिल्ली में पटाखों को प्रतिबंधित करके, सर्वोच्च न्यायालय ने उचित निर्णंय लिया। हम सभी जानते हैं कि पर्यावरण, स्वास्थ, सुरक्षा व सामाजिक कारणों से पटाखे हमारी जिंदगी में ज़हर घोलते हैं। इनका निर्माण व प्रयोग सदा के लिए बंद होना चाहिए। यह बात पिछले 30 वर्षों से बार-बार उठती रही है।



हमारी सांस्कृतिक परंपरा में हर उत्सव व त्यौहार, आनंद और पर्यावरण की शुद्धि करने वाला होता है। दीपावली पर तेल या घी के दीपक जलाना, यज्ञ करके उसमें आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियां डालकर वातावरण को शुद्ध करना, द्वार पर आम के पत्तों के तोरण बांधना, केले के स्तंभ लगाना, रंगोली बनाना, घर पर शुद्ध पकवान बनाना, मिल बैठकर मंगल गीत गाना, धर्म चर्चा करना, बालकों द्वारा भगवान की लीलाओं का मंचन करना, घर के बहीखातों में परिवार के सभी सदस्यों के हस्ताक्षर लेकर, समसामयिक अर्थव्यवस्था का रिकार्ड दर्ज करना जैसी गतिविधियों में दशहरा-दीपावली के उत्सव आनंद से संपन्न होते थे। जिससे समाज में नई ऊर्जा का संचार होता है।



बाज़ार के प्रभाव में आज हमने अपने सभी पर्वों को विद्रूप और आक्रामक बना दिया है। अब उनको मनाना, अपनी आर्थिक सत्ता का प्रदर्शन करना और आसपास के वातावरण में हलचल पैदा करने जैसा होता है। इसमें से सामूहिकता, प्रेम-सौहार्द और उत्सव के उत्साह जैसी भावना का लोप हो गया है। रही सही कसर चीनी सामान ने पूरी कर दी। त्यौहार कोई भी हो, उसमें खपने वाली सामग्री साम्यवादी चीन से बनकर आ रही है। उससे हमारे देश के रोजगार पर भारी विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। इस वर्ष चीन की सीमा पर दबाव बनाने के विरोध में सोशल मीडिया पर चीनी माल के बहिष्कार का खूब प्रचार हुआ है। देखना होगा कि हमारे उपभोक्ताओ पर उसका कितना असर पड़ रहा है? क्या हम वास्तव में खरीददारी करते समय, चीनी माल का बहिष्कार करने को तैयार है?



गनीमत है कि भारत के ग्रामों में अभी बाजारू संस्कृति का वैसा व्यापक दुष्प्रभाव नहीं पड़ा, जैसा शहरों पर पड़ा है। अन्यथा सब चैपट हो जाता। ग्रामीण अंचलों में आज भी त्यौहारों को मनाने में भारत की माटी का सोंधापन दीखता है। यह स्थिति बदल रही है। जिसे ग्रामीण युवाओं को रोकना है।



आज भारतीय जनमानस कई तरह की मानसिक उथल-पुथल से गुजर रहा है। कुछ तो मोदी जी की नई आर्थिक नीतियों के कारण ऐसा हो रहा है और कुछ सदियों बाद हिंदू मानसिकता को मिली राजनैतिक सत्ता के कारण है। एक तरफ बहुसंख्यक समाज अपनी दबी भावनाओं की खुली अभिव्यक्ति के लिए बैचेन है, तो दूसरी तरफ इससे कुछ लोगों की तीखी प्रतिक्रियाऐं भी है। पर इतना जरूर है कि यह समय आत्मविश्लेषण और अपनी जीवन शैली पर पुनः विचार करने का है।



हम अपने बच्चों का ‘हैपी बर्थ डे’ केक काटकर मनाए, जिसका हमारी मान्यताओं और संस्कृति से कोई नाता नहीं है या उनका तिलक कर, आरती उतार कर या आर्शीवाद या मंगलाचरण करके करें, यह हमें सोचना होगा। अगर हम चाहते हैं कि हमारी आने वाली पीढ़ियां अपनी भारतीय संस्कृति पर गर्व करे, परिवार में प्रेम को बढ़ाने वाली गतिविधियां हों, बच्चे बड़ों का सम्मान करें, तो हमें अपने समाज में पुनः पारंपरिक मूल्यों की स्थापना करनी होगी। वो जीवन मूल्य, जिन्होंने हमारी संस्कृति को हजारों साल तक बचाकर रखा, चाहे कितने ही तूफान आये। पश्चिमी देशों में जाकर बस गए, भारतीय परिवारों से पूछिऐ-जिन्होंने वहां की संस्कृति को अपनाया, उनके परिवारों का क्या हाल है और जिन्होंने वहां रहकर भी भारतीय सामाजिक मूल्यों को अपने परिवार और बच्चों पर लागू किया। वे कितने सधे हुए, सुखी और संगठित है। तनाव, बिखराव तलाक, टूटन ये आधुनिक जीवन पद्धति के ‘प्रसाद’ है। इनसे बचना और अपनी जड़ों से जुड़ना, यह भारत के सनातनधर्मियों का मूलमंत्र होना चाहिए।



पिछले कुछ वर्षों से टेलीविजन चैनलों पर साम्प्रदायिक मुद्दों को लेकर आऐ दिन तीखी झरपें होती रहती है। जिनका कोई अर्थ नहीं होता। उनसे किसी भी सम्प्रदाय को कोई भी लाभ नहीं मिलता, केवल उत्तेजना बढ़ती है। जबकि हर धर्म और संस्कृति में कुछ ऐसे जीवन मूल्य होते हैं, जिनका यदि अनुपालन किया जाए, तो समाज में सुख, शांति और समरसता का विस्तार होगा। अगर हमारे टीवी एंकर और उनकी शोध टीम ऐसे मुद्दों को चुनकर उन पर गंभीर और सार्थक बहस करवाऐं, तो समाज को दिशा मिलेगी। हर धर्म के मानने वालों को यह स्वीकारना होगा कि दूसरों के धर्म में सब कुछ बुरा नहीं है और उनके धर्म में सब कुछ श्रेष्ठ नहीं है। चूंकि हम हिंदू बहुसंख्यक हैं और सदियों से इस बात से पीड़ित रहे हैं कि सत्ताओं ने कभी हमारे बुनियादी सिद्धांतों को समझने की कोशिश नहीं की। या तो उन्हें दबाया गया या उनका उपहास किया गया या उन्हें अनिच्छा से सह लिया गया। नये माहौल में इन सवालों पर खुलकर बहस होनी चाहिए थी। जो नहीं हो रही। निरर्थक विषयों को उठाकर समाज में विष घोला जा रहा है। इस बार दीपावली पर 5 दिन का अवकाश है। इसलिए सब मिल बैठकर सोचें, कौन थे हम, क्या हो गये और होंगे क्या अभी।

Monday, October 2, 2017

हिंदू राष्ट्र का सपना क्या अधूरा रहेगा?


2014 में जब नरेन्द्र मोदी पूर्णं बहुमत लेकर सत्ता में आऐ, तो सारी दुनिया के हिंदुओं ने खुशी मनाई कि लगभग 1000 साल बाद भारत में हिंदू राज की स्थापना हुई है। नरेन्द्र भाई का व्यक्तिगत जीवन आस्थावान रहा है। हिमालय में तप करने से लेकर भारत की सनातन परंपराओं के प्रति उनकी आस्था ने भारत को हिंदू राष्ट्र बनने की संभावनाओं को बढ़ा दिया। पर आज हिंदू राष्ट्र का सपना संजोने वाले बहुत से गंभीर वृत्ति के लोग भारत के विकास की दशा और दिशा को देखकर चिंतित हैं। इनमें राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की विचारधारा से सहानुभूति रखने वालों से लेकर, संघ से अलग रहने वाले हिंदूवादी तक शामिल हैं। उन्हें लगता है कि जिस दिशा में मोदी जी बढ़ रहे हैं, ये वो दिशा नहीं, जिसका सपना उन्होंने देखा था। इन लोगों की मजबूरी ये है कि ये स्वयं राजनैतिक सत्ता हासिल करने में न तो सक्षम है और न ही उनकी महत्वाकांक्षा है।  ये तो वो लोग हैं, जो इस बात की प्रतीक्षा करते हैं, कि कोई सत्ताधीश इनकी पीडा को समझकर, अपने बलबूते पर, इनके विचारों को नीतिओं में लागू करें। ऐसी परिस्थितियां प्रायः नहीं बना करतीं, अब बनी हैं, तो समय निकला जा रहा है और कोई दूरगामी ठोस परिणाम आ नहीं रहे। इसलिए इनकी चिंता स्वभाविक है।

दूसरी तरफ प्रधानमंत्री के पद की भी कुछ सीमाऐं होती हैं। राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय दबाव, सामाजिक, आर्थिक और भौगोलिक परिस्थितियां चाहकर भी प्रधानमंत्री को बहुत से कदम नहीं उठाने देतीं। समस्या तब खड़ी होती है, जब जो संभव है, वो भी नहीं होता और जो कुछ हो रहा होता है, वह अपेक्षाओं के विपरीत होता है। उदाहरण के तौर पर दिल्ली की एक जानीमानी महिला बुद्धिजीवी जो अंगे्रजी में अपने लेख और शोधपत्रों के माध्यम से गत 35 वर्षों से हिंदू विचारधारा की प्रबल प्रवक्ता रही हैं, उनके स्वनामधन्य पिता देश के सबसे प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक के वर्षों संपादक रहे और वे भी जीवन के अंतिम दशक में कट्टर हिंदूवादी हो गये थे, आज ये महिला मौजूदा सरकार से खिन्न है।

इनकी शिकायत है कि हिंदूत्व के नाम पर मोदी सरकार में ऐसे लोगों को महत्वपूर्णं पदों पर बिठाया जा रहा है, जिनकी योग्यता सामान्य से भी निचले स्तर की है। ऐसे अयोग्य लोग उन संस्थाओं का तो भट्टा बैठा ही रहे हैं, हिंदू हित का भी भारी अहित कर रहे हैं। इन विदुषी महिला का आरोप है कि कई मंत्रालयों ने उनसे ऐसे पदों पर चयन करने के पूर्व कुछ नाम सुझाने को कहा। इन्होंने अपनी ओर से देखे परखे, ऐसे लोगों के नाम सुझाये, जिनकी योग्यता और हिंदू संस्कृति के प्रति आस्था उच्चकोटि है।  पर उन्हें हर बार निराशा हुई, क्योंकि जिन्हें चुना गया, वे इनके सामने खड़े होने के भी लायक नहीं थे। उनका कहना था कि ऐसा नहीं है कि जो नाम उन्होंने सुझाये, वे उनके परिचितों या मित्रों के थे। उनमें से कई लोगों को तो वे व्यक्तिगत रूप से कभी मिली भी नहीं थीं। केवल उनकी योग्यता ने उन्हें प्रभावित किया। कम्युनिस्टों की घोर विरोधी रही, ये विदुषी महिला कहतीं हैं कि हमसे गलती हुई, जो हम सारी जिंदगी कम्युनिस्टों को कोसते रहे। भाजपा से तो कम्युनिस्ट कहीं बेहतर थे, कि उन्होंने ऐसे चयन में योग्यता की उपेक्षा प्रायः नहीं की। यही कारण है कि भारत की राजनीति में वे अल्पसंख्यक होते हुए भी आज तक इतने प्रभावशाली रहे हैं कि उन्होंने भारत के मीडिया व अकादमिक क्षेत्र को प्रभावित किया। जबकि मौजूदा सरकार द्वारा नियुक्त हिंदूवादी व्यक्ति, जिस संस्था में भी जा रहे हैं, अपने अधकचरे ज्ञान और अपरिपक्व स्वभाव के कारण संस्थाओं को बिगाड़ रहे हैं और अपना मखौल उड़वा रहे हैं।

हिंदू संस्कृति के क्षेत्रों को विकास के मामले में, मेरा भी अनुभव ऐसा ही रहा है। कई बार मैंने इस सवाल को, इस कॉलम  माध्यम से उठाया है। मोदी जी ने अच्छी भावना से अनेक योजनाओं की घोषणा की, पर उनकी नीतियां बनाने और क्रियान्वयन करने का काम उसी नौकरशाही पर छोड़ दिया, जो आज तक औपनिवेशिक मानसिकता के बाहर नहीं निकल पाई है। नतीजतन हिंदू संस्कृति से जुड़े मुद्दों पर जो भी योजनाऐं बन रही हैं, उनसे न तो व्यापक समाज का भला हो रहा है और न ही हिंदू संस्कृति का। पता नहीं क्यों हम जैसे राष्ट्रप्रेमी और सनातन धर्मप्रेमियों के अच्छे सुझाव भी प्रधानमंत्री के कानों तक नहीं पहुंचते। हमारी समस्या यह है कि पिछली सरकारों से हम हिंदू संस्कृति के लिए इसलिए बहुत कुछ ठोस नहीं करवा पाए, क्योंकि वे धर्मनिरपेक्षता की चश्मे के बाहर देखने को तैयार नहीं थीं। जबकि भाजपा की मौजूदा सरकारें अपनी लक्ष्मण रेखा के बाहर नहीं देखना चाहतीं। लक्ष्मण रेखा के भीतर माने भाजपा व संघ परिवार के बाहर उन्हें न तो कोई हिंदूवादी दिखता है और न ही कोई योग्य। सत्ता और पद के लिए हम, न तो पहले झुके और न आगे झुकने की इच्छा है। झुके होते तो कब के सत्ता पर काबिज हो गये होते। क्योंकि सत्ता ने कई बार हमारा दरवाजा खटखटाया, पर हमने उसे घर में घुसने नहीं दिया। हमारे जैसे लोग देश में लाखों की संख्या में हैं, जो किसी की राजनीति का मोहरा बनने को तैयार नहीं है। पर देश व सनातन धर्म के लिए अपना जीवन खपाते आऐ हैं और अगर मोदी सरकार, हमारे सुझावों को गंभीरता से ले तो  हिंदू संस्कृति के हित में निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं। क्योंकि इन सब लोगों के पास अनुभव का लंबा खजाना है, विचारों की स्पष्टता है और लक्ष्य हासिल करने का जुनून भी।