उ. प्र. के
मेडिकल कॉलेज दाखिले के घोटाले को लेकर चल रहे एक मामले में पिछले हफ्ते सर्वोच्च
न्यायालय में जनहित याचिका के वकील प्रशांत भूषण ने भारत के मुख्य न्यायाधीश पर
अनैतिकता का सीधा आरोप लगाकर
हंगामा खड़ा कर दिया। जिसकी देश में काफी चर्चा है। प्रशांत भूषण के इस साहस की मैं
भी प्रशंसा करता हूं। क्योंकि मैं इस बात से सहमत नहीं हूं कि अगर कोई व्यक्ति
सर्वोच्च न्यायपालिका का सदस्य बन जाता है, तो वह भगवान (मी लॉर्ड)
के समान हो जाता है। ये कोई भावनात्मक बयान नहीं है। मैंने स्वयं सर्वोच्च न्यायालय
के तीन मुख्य न्यायाधीशों और एक न्यायाधीश के अनैतिक आचरण की खोज करके 1997-2002
के बीच बार-बार यह सिद्ध किया कि सर्वोच्च न्यायपालिका के भी कुछ
सदस्य भ्रष्टाचार से अछूते नहीं है। अपने आरोपों के समर्थन में मैंने तमाम प्रमाण
प्रकाशित किये थे और तत्कालीन पदासीन उन न्यायाधीशों के विरूद्ध अकेले वर्षों लंबा
संघर्ष किया। विनम्रता से कहना चाहूंगा कि अब तक के भारत के इतिहास में किसी
पत्रकार, वकील, आई ए. एस अधिकारी,
सांसद व समाजिक कार्यकर्ता ने ऐसा संघर्ष नहीं किया।
अगर उस संघर्ष में
प्रशांत भूषण और इनके स्वनामधन्य पिता शांति भूषण मेरे साथ धोका नहीं करते, तो भारत की न्यायपालिका के सुधार की ठोस
शुरूआत आज से 20 वर्ष पहले ही हो गई होती। इसलिए मैं प्रशांत
भूषण के हर साहसिक कदम का प्रंशसक होते हुए भी उनके पक्षपातपूर्णं व अनैतिक आचरण
के कारण इन पिता-पुत्रों को न्यायपालिका के पतन के लिए जिम्मेदार मानता हूं।
इतने से संकेत भर
से सरकार, न्यायपालिका और
मीडिया से जुडे़ 40 बरस से ऊपर की आयु के हर व्यक्ति को वह
दिन याद आ गया होगा। जब 14 जुलाई 1997 को
भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जे.एस. वर्मा ने हमारी याचिका पर सुनवाई करते
समय भरी अदालत में कहा था कि, ‘जैन हवाला मामले में हाथ
खींचने के लिए हम पर जबरदस्त भारी दबाव है। लेकिन हम में से कोई पीछे नहीं हटेगा।
लोग हम तक पहुंचने की कोशिश कर रहे हैं। एक व्यक्ति ने मुझसे मिलने की कोशिश की।
वहीं व्यक्ति मेरे साथी न्यायमूर्ति श्री एस सी सेन से मिला। श्री सेन काफी नर्वस
हैं। मैंने उनसे इस बात को भूल जाने को कहा है। हम साफ कर देना चाहते हैं कि हवाला
कांड की जांच की निगरानी जारी रहेगी। जिससे निष्पक्षता सुनिश्चित हो सके।’ मुख्य
न्यायाधीश ने यह भी कहा कि वह व्यक्ति उस समय अदालत में भी बैठा हुआ था।
मुख्य न्यायाधीश
का यह खुलासा देशवासियों को सुनने में काफी बहादुरी भरा लगा। देश के टेलीविजन
चैनलों और अखबारों ने इसे मुख्य खबर बनाया। पर जो बात सबको खटकी वो ये कि
न्यायमूर्ति वर्मा ने भारत के इतिहास में देश की सर्वोच्च अदालत की सबसे बड़ी
अवमानना करने वाले उस व्यक्ति का नाम नहीं बताया और न ही उसे काई सजा दी। यह
आश्चर्यजनक ही नही चिंताजनक व्यवहार था। इस प्रकार की स्वीकारोक्ति करने के लिए
चूंकि मुख्य न्यायाधीश को मैंने 12 जुलाई 1997 को प्रमाण सहित एक चेतावनी भरा पत्र भेजकर
मजबूर किया था, इसलिए मैं हर मंच पर मुख्य न्यायाधीश से उस
अपराधी का नाम बताने की मांग करता रहा। बाद में यह मांग संसद से लेकर बार काउंसिल
तक में उठाई गई। मीडिया में भी खूब शोर मचा। क्योंकि हवाला मामला आतंकवादियों के
अवैध धन की आपूर्ति और भारत के सभी प्रमुख दलों के बड़े राजनेताओं और देश के उच्च
अधिकारियों के अनैतिक आचरण से जुड़ा था। इसलिए ये मामला अत्यंत संवेदनशील था। इसलिए
मुझे उस व्यक्ति का नाम उजागर करना पड़ा। बाद में न्यायमूर्ति वर्मा और न्यायमूर्ति
सेन ने भी यह माना कि मेरा रहस्योद्घाटन सही था। पर फिर भी उस अपराधी को सजा नहीं
दी गई। कारण स्पष्ट था कि वह व्यक्ति न्यायमूर्तियों पर दबाव नहीं डाल रहा था।
बल्कि हवाला कांड के आरोपियों के हित में इन न्यायधीशों के साथ ‘डील’ कर रहा था।
देश की न्यायपालिका को पहली बार इतनी बुरी तरह झकझोरने वाले मेरे इस विनम्र प्रयास पर मेरा साथ देने की बजाय मेरे सहयाचिकाकर्ता प्रशांत भूषण और इनके पिता ने उन न्यायमूर्तियों का साथ दिया और मेरी पीठ में छुरा भोंक दिया। क्योंकि ये दोनों खुद उस समय राम जेठमलानी के साथ मिलकर लालकृष्ण आडवाणी व कांग्रेस के दर्जनों बड़े नेताओं को हवाला कांड से बरी कराने की साजिश कर रहे थे।
अगर अपने स्वार्थों को पीछे छोड़कर इन पिता पुत्रों ने उस समय इस लड़ाई में साथ दिया होता, तो इस देश की राजनीति और न्यायपालिका का इतना पतन न हुआ होता। मैंने तो फिर भी हिम्मत नहीं हारी और फिर भारत के अगले मुख्य न्यायधीश बने डा. ए. एस. आनंद के 6 जमीन घोटाले अपने अखबार ‘कालचक्र’ में छापे और तमाम यातनाऐं भोगते हुए, बिना किसी की मदद के, न्यायपालिका में सुधार के लिए एक लंबा संघर्ष किया। तब से मेरा यही अनुभव रहा है कि राम जेठमलानी और उनके खास सहयोगी शांति भूषण और प्रशांत भूषण जो भी करते हैं, उसके पीछे कुछ न कुछ निहित स्वार्थ का ऐजेंडा जरूर होता है। हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और।
मैं आज भी यह
मानता हूं कि सवा सौ करोड़ भारतीयों को न्याय की गारंटी देने वाली न्यायपालिका में
भारी सुधार की जरूरत है। पर ये सुधार प्रशांत भूषण के पक्षपातपूर्णं रवैये से कभी
नहीं आयेगा। अगर वाकई वे न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार को दूर करना चाहते
हैं, तो उन्हें 1997
में मेरे साथ की गई गद्दारी के लिए सार्वजनिक प्रयाश्चित करना होगा।
साथ ही उन जैसे तमाम उन बड़े वकीलों को जिन्होंने हवाला कांड के कंधों पर चढ़कर अपनी
राजनैतिक हैसियत बना ली, इस कांड की ईमानदार जांच की मांग
करनी होगी। क्योंकि आतंकवाद और देशद्रोह से जुड़े, देश के इस
सबसे राजनैतिक घोटाले को बिना जांच के ही, इन सब की साजिश से
दबा दिया गया था और मैं अकेला अभिमन्यु कौरवों की सेना से लड़ते हुए, जिंदा शहीद करार कर दिया गया। जबकि इस केस के तमाम सबूत सीबीआई, सर्वोच्च न्यायालय और कालचक्र के कार्यालय में आज भी सुरक्षित हैं। क्या
प्रशांत भूषण या आतंकवाद और भ्रष्टाचार के विरूद्ध डंका पीटने वाले कोई वकील,
सांसद या राजनेता बिल्ली के गले में घंटी बांधने को तैयार हैं?
मैं तो 62 वर्ष की उम्र में भी 26 वर्ष के नौजवान की तरह, खम ठोकने को तैयार हूं।
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