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Monday, January 7, 2019

कैसे मुक्त हों अंग्रेजी दवाओं के षड्यंत्र से ?

विश्व स्वास्थ्य संगठन की 1997 की एक रिर्पोट के अनुसार बाजार में बिक रही चैरासी हजार दवाओं में बहत्तर हजार दवाईओं पर तुरंत प्रतिबंध लगना चाहिए। क्योंकि ये दवाऐं हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं। लेकिन प्रतिबंध लगना तो दूर, आज इनकी संख्या दुगनी से भी अधिक हो गई है। 2003 की रिर्पोट के अनुसार भारत में नकली दवाओं का धंधा लगभग डेढ़ लाख करोड़ रूपये प्रतिवर्ष हो गया था, जो अब और भी अधिक बढ़ गया है। भारत में मिलने वाली मलेरिया, टीबी. या एड्स जैसी बीमारियों की पच्चीस फीसदी दवाऐं नकली हैं। कारण स्पष्ट है। जब दवाओं की शोध स्वास्थ्य के लिए कम और बड़ी कंपनियों की दवाऐं बिकवाने के लिए अधिक होने लगे, कमीशन और विदेशों में सैर सपाटे व खातिरदारी के लालच में डॉक्टर, मीडिया, सरकार और प्रशासन ही नहीं, बल्कि स्वयंसेवी संस्थाऐं तक समाज का ‘ब्रेनवॉश’ करने में जुटे हों, तब हमें इस षड्यंत्र से कौन बचा सकता है? कोई नहीं। केवल तभी बच सकते हैं, जब हम अपने डॉक्टर खुद बन जाऐं।

जिस वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति का प्रत्येक क्रांतिकारी आविष्कार 10-15 वर्षों में ही नऐ आविष्कार के साथ अधूरा, अवैज्ञानिक व हानिकारक घोषित कर दिया जाता है। उसके पांच सितारा अस्पतालों, भव्य ऑपरेशन थियेटरों, गर्मी में भी कोट पहनने वाले बड़े-बड़े डिग्रीधारी डॉक्टरों से प्रभावित होने की बजाय यह अधिक श्रेष्ठ होगा कि हजारों वर्षों से दादी-नानी के प्रमाणित नुस्खों व परंपराओं में बसी चिकित्सा को समझकर हम अपने डॉक्टर स्वयं बनें।

जब अपनी खंडित दृष्टि के कारण डॉक्टर औषधि देकर एक नऐ रोग को शरीर में घुसा दें या शरीर में भयंकर उत्पाद पैदा कर दें और शास्त्र की अवैज्ञानिकता को छिपाने के लिए साइड इफैक्ट, रिऐक्शन जैसे शब्द जाल रचें, तब तक अपने आप ‘गिनी पिग’ बनने से बचाने के लिए जरूरी है कि हम अपने डॉक्टर स्वयं बनें। जब पैथोलॉजिस्ट-डॉक्टर की सांठ-गांठ से बात-बेबात रक्त-जांच, एक्स-रे, सोनोग्राफी, एमआरआई, ईसीजी आदि के चक्कर में फंसा हमसे रूपये ऐंठे जाने लगे, तब मानसिक तनाव से बचने और समय व धन की बर्बादी को रोकने के लिए जरूरी हो जाता है कि हम अपने डॉक्टर स्वयं बनें।

जिस व्यवस्था में लाखों रूपये खर्च करने पर डॉक्टर बना जाता हो और विशेषज्ञ के रूप में स्थापित होते-होते आयु के 33-34 वर्ष निकल जाते हों, उस व्यवस्था में डॉक्टरों को नैतिकता का पाठ- ‘मरीज को अपना शिकार नहीं भगवान समझें’ पढ़ाने के बजाय यह अधिक जरूरी हो जाता है कि हम अपने डॉक्टर स्वयं बनें। जब चारों ओर इस प्रकार का वातावरण हो कि डॉक्टर भय मनोविज्ञान का सहारा ले रोगी के रिश्तेदारों की भावनाओं का शोषण करने लगे, तब भय के सौदागरों से बचने के लिए जरूरी हो जाता है कि हम अपने डॉक्टर स्वयं बनें। जिस व्यवस्था में डॉक्टरों को ऐसी भाषा सिखायी जाऐ, जो आम जनता समझ न सके और इस कारण उन्हें रोगी के अज्ञान का मनमाना लाभ उठाने का भरपूर मौका मिले या दूसरे शब्दों में जिस व्यवस्था में धन-लोलुप भेड़ियों के सामने आम जनता को लाचार भेड़ की तरह जाना पड़ता हो, उस व्यवस्था में खूनी दांतों से आत्मरक्षा के लिए यह बहुत जरूरी है कि हम अपने डॉक्टर स्वयं बनें।

जिस देश में यूरोपीय-अमरीकी समाज की आवश्यक्ताओं के अनुसार की गई खोजों को पढ़कर डॉक्टर बनते हों और जिन्हें अपने देश के हजार वर्षों से समृद्ध खान-पान और रहन-सहन में छिपी वैज्ञानिकता का ज्ञान न हों, उस देश में स्वास्थ्य के संबंध में डॉक्टरों पर विश्वास करने के बजाय यह अधिक जरूरी हो जाता है कि हम अपने डॉक्टर स्वयं बनें। जिस दुनिया में कभी डेंगू, कभी एड्स, कभी हाइपेटेटिस बी, कभी चिकनगुनिया, कभी स्वाइन फ्लू के नाम पर आतंक फैलाकर लूटा जाता हो। वहां षड्यंत्रों के चक्रव्यूह से बचने के लिए यह जरूरी हो जाता है कि हम अपने डॉक्टर स्वयं बनें।

जब स्वास्थ्य विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति के साथ-साथ रोग बढ़ने लगे, बुढ़ापे में होने वाले हृदय रोग 30-35 वर्ष की आयु में होने लगे, सामान्य प्रसव चीरा-फाड़ी वाले प्रसव में बदलने लगे, उक्त रक्तचाप, मधुमेह (डायबिटीज), कमर व घुटनों में दर्द घर-घर में फैलने लगे, तब इसका तथाकथित विज्ञान से स्वयं की सुरक्षा के लिए यह जरूरी है कि हम अपने डॉक्टर स्वयं बनें। जब कोई चिकित्सा मानव प्रेम या सेवा के आधार पर न कर धंधे के लिए करे, तब भी ठीक है। क्योंकि धंधे में एक नैतिकता होती है। लेकिन यदि कोई नैतिकता छोड़ इसे लूट, ठगी, शिकार आदि का स्रोत बना ले, तब बजाय सिर धुनने के समझदारी इसी में है कि हम अपने डॉक्टर स्वयं बनें।

बात अजीब लगेगी। अगर स्वस्थ्य रहने के लिए डॉक्टर बनना पड़ेगा, तो बाकी व्यवसाय कौन चलायेगा? ऐसा नहीं है जिस डॉक्टरी की बात यहां की जा रही है, उसके लिए किसी मेडीकल कॉलेज में दाखिला लेकर 10 वर्ष पढ़ाई करने की जरूरत नहीं है। केवल अपने इर्द-गिर्द बिखरे पारंपरिक ज्ञान और अनुभव को खुली आंखों और कानों से देख-समझकर अपनाने की जरूरत है। टीवी सीरियलों, फिल्मों, मैकाले की शिक्षा पद्धति, उदारीकरण व बाजारू संस्कृति ने हमें हमारी जड़ों से काट दिया है। इसलिए भारत की बगिया में खिलने वाले फूल समय से पहले मुरझाने लगे हैं। इस परिस्थिति को पलटने का एक अत्यंत सफल और प्रभावी प्रयास किया है मुबंई के उत्तम माहेश्वरी जी ने अपनी एक पुस्तक लिखकर, जिसका शीर्षक है ‘अपने डॉक्टर स्वयं बनें’। मैंने यह रोचक, सरल व सचित्र पुस्तक पढ़ी, तो लगा कि हम पढ़े-लिखे लोग कितने मूर्ख हैं, जो स्वयं अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं। goseva.rogmukti@gmail.com पर इमेल भेजकर आप उनसे मार्गदर्शन ले सकते हैं। जब ज्ञान बेचा जाए, तो वह धंधा होता है और जब बांटा जाऐ, तो वह परमार्थ होता है। आपको लाभ हो, तो इसे दूसरों को बांटियेगा।

Monday, November 12, 2018

खेमों में न बँटें बुद्धिजीवी और समाज के पहरूआ

जब भी देश में लोकतांत्रिक मूल्यों के पतन की बात होती है, तो एक से बढ़कर एक विद्वान, विचारक, समाज सुधारक और पत्रकार ये कहते नहीं थकते कि हमारी राजनैतिक व्यवस्था पर अपराधी हावी हो गऐ हैं। चुनाव ईमानदारी के पैसे से नहीं जीता जा सकता। चुनाव जीतने के लिए धनबल, बाहुबल और छलबल की आवश्यक्ता होती है। राजनेताओं में वैचारिक प्रतिबद्धता नहीं है। वे बेपैंदी के लोटे हो गऐ हैं। मोटे पैसे लेकर दल बदलना आम बात हो गई है। भ्रष्टाचार के मामलों पर कोई भी दल या सरकार ठोस कदम नहीं उठाना चाहती। भ्रष्टाचार के बड़े घोटालों में तो पक्ष और विपक्ष की साझेदारी रहती है। सत्तारूढ़ दल मोटा कमीशन खाता है और विपक्षी दल पहले शोर मचाते हैं, फिर अपनी कीमत वसूल कर चुप हो जाते हैं। इसलिए भ्रष्टाचार सुरसा की जीभ की तरह बढ़ता जा रहा है और कोई राजनैतिक दल इसे रोकना नहीं चाहता। हर चुनाव के पहले सभी विपक्षी दल सत्तारूढ़ दल पर भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े आरोप लगाते हैं, पर खुद सत्ता में आते ही वही सब करने लगते हैं, जिसे खत्म करने का वायदा करके वो चुनाव जीतते हैं। कोई भी राजनैतिक दल इसका अपवाद नहीं है।


देश के विश्वविद्यालयों में और पढ़े-लिखे लोगों की बैठकों में अक्सर देश की दुर्गति पर चिंता व्यक्त की जाती है। बड़ी उत्तेजक बहसें होती हैं। कभी-कभी तनातनी भी हो जाती है। पर इन्हीं लोगों को जब विपरीत परिस्थिति का सामना पड़ता है, तो उनके नैतिक मूल्य धरे रह जाते हैं। वे वही करते हैं, जिसकी वे आम जीवन में निंदा करते नहीं थकते। किसी एक विचारधारा पर समर्पित बुद्धिजीवी, अपनी विचारधारा को मानने वाले नेताओं में दोष नहीं देखना चाहते और हर बात का ठीकरा विपक्षी दलों के माथे पर थोंप देते हैं।

अक्सर सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय देश की गिरती स्थिति पर कठोर और बेबाक टिप्पणियां  करते हैं और केंद्रीय व प्रांतीय सरकारों को लताड़ते हैं। जबकि न्यायपालिका में नीचे से ऊपर तक व्याप्त भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए वे कोई सख्त कदम नहीं उठाते। अगर न्यायपालिका ही पूरी तरह ईमानदार और निष्पक्ष हो जाए, तो देश की आधी समस्याऐ तो बिना प्रयास के हल हो सकती है। प्रश्न है कि जब इन न्यायधीशों को सारी सुविधाऐं और सुरक्षा सहज उपलब्ध हैं, तो फिर ये कड़े निर्णंय लेने से क्यों डरते हैं? क्यों नहीं यही ठोस पहल करके समाज के लिए आर्दश स्थापित करते हैं? आखिर इस देश की सवा सौ करोड़ जनता उन्हें न्यायमूर्ति नहीं बल्कि न्याय देने वाला भगवान मानती है। फिर भगवान ही अगर राज्यपाल या सांसद बनने के मोह में न्यायमूर्ति पद की गरिमा का ध्यान न रखे, तो समाज के पतन के लिए कौन दोषी है?

समाज के हर वर्ग की गतिविधियों पर नजर रखने वाले और प्रशासकों को हमेशा सवालों के घेेरे में लपेटने वाले मीडियाकर्मी क्या किसी से कम हैं? आज देश में कितने मीडियाकर्मी हैं, जो दावे से यह सिद्ध कर सकें कि उन्होंने कभी किसी नेता या अफसर की दी हुई मंहगी शराब नहीं पी? उनकी दावतें नहीं उड़ाई? उनसे किसी खास विषय पर रिर्पोट लिखने की एडवांस रकम नहीं मांगी? सत्ता पक्ष के साथ मिलकर कोई दलाली नहीं की? किसी की ब्लैकमेलिंग नहीं की? और एक व्यक्ति को लाभ पंहुचाने के लिए उसके विरोधी का चरित्र हनन करने की फीस लेकर इकतरफा रिपोर्टिंग नहीं की?

कितने व्यापारी और उद्योगपति हैं, जो ये दावे से कह सकते हैं कि उनकी आर्थिक प्रगति के पीछे उनकी कड़ी मेहनत और वर्षों बहाया गया खून-पसीना है? कितने व्यापारी और उद्योगपति यह दावे से कह सकते हैं कि उन्होंने अपने कारोबार को आगे बढ़ाने के लिए नाजायज तरीकों को इस्तेमाल नहीं किया?

कितने प्रशासनिक व पुलिस अधिकारी हैं, जो ये दावा कर सकते हैं कि उन्होंने ताकतवर पद पाने के लिए अपने राजनैतिक आकांओं की चप्पल नहीं उठाई? कितने दावे से कह सकते हैं कि उन्होंने अपने राजनैतिक आकांओं के हित के लिए सरकारी संसाधनों का दुरूपयोग नहीं किया? कितनों ने अपने कर्मचारियों का शोषण नहीं किया?

कितने शिक्षक ऐसे हैं, जिन्होंने तन और मन से अपने विद्वार्थियों को ज्ञान देने और उनका चरित्र निर्माण करने के लिए जीवन में बलिदान किऐ हैं ? कितने शिक्षक ऐसे हैं, जो ये दावा कर सकते हैं कि उन्होंने अपने विद्यार्थियों के साथ शिक्षा का व्यवसाय नहीं किया?

अगर हर ओर उत्तर हताशा करने वाले हैं, तो समाज और देश कैसे सुधरेगा? कोई डोनाल्ड ट्रंप या इमरान खान तो हमारी दशा, अर्थव्यवस्था, राजनीतिक, प्रशासनिक, शिक्षा व स्वास्थ्य व्यवस्था सुधारने आयेगा नहीं। यह काम हमें ही करना होगा। जैसे हम अपने घर का कूड़ा साफ करने में हिचकते नहीं, वैसे ही अपने देश को अपना परिवार मानकर, यदि हम अपने क्षेत्र को सुधारने का संकल्प ले लें, तो हमें आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता। अन्यथा ये सारी चिंता घड़ियाली आँसू से ज्यादा कुछ नहीं है। हमें अपने मन में झांककर यह सोचना होगा कि हमारे लिए जीवन में क्या बड़ा है, स्वार्थ या परमार्थ?

Monday, September 17, 2018

छात्रों की किसे चिन्ता है ?

पिछले दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में छात्रा संघ के चुनाव भारी विवादों के बीच संम्पन्न हुए है। छात्र समुदाय दो खेमों में बटा हुआ था। एक तरफ भाजपा समर्थित अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और दूसरी तरफ वामपंथी, कांग्रेस और बाकी के दल थे। टक्कर कांटे की थी। वातावरण उत्तेजना से भरा हुआ था और मतगणना को लेकर दोनो जगह काफी विवाद हुआ। विश्वविद्यालय के चुनाव आयोग पर आरोप-प्रत्यारोपों का दौर चला।
छात्र राजनीति में उत्तेजना,हिंसा और हुडदंग कोई नई बात नहीं है। पर चिन्ता की बात यह है कि राष्ट्रीय राजनैतिक दलों ने जबसे विश्वविद्यालयों की राजनीति में खुलकर दखल देना शुरू किया है तब से धनबल और सत्ताबल का खुलकर प्रयोग छात्र संघ के चुनावों में होने लगा है, जिससे छात्रों के बीच अनावश्यक उत्तेजना और विद्वेष फैलता है।
अगर समर्थन देने वाले राष्ट्रीय राजनैतिक दल इन छात्रों के भविष्य और रोजगार के प्रति भी इतने भी गंभीर और तत्पर होते तो भी इन्हें माफ किया जा सकता था । पर ऐसा कुछ भी नहीं है। दल कोई भी हो छात्रों को केवल मोहरा बना कर अपना खेल खेला जाता है। जवानी की गर्मी और उत्साह में हमारे युवा भावना में बह जाते हैं और एक दिशाहीन राजनीति में फंसकर अपना काफी समय और ऊर्जा बर्बाद कर देते हैं, यह चिन्ता की बात है।
इसका मतलब यह नहीं कि विश्वविद्यालय के परिसरों में छात्र राजनीति को प्रतिबंधित कर दिया जाए। वह तो युवाओं के व्यक्तित्व के विकास में अवरोधक होगा । क्योंकि छात्र राजनीति से युवाओं में अपनी बात कहने, तर्क करने, संगठित होने और नेतृत्व देने की क्षमता विकसित होती है। जिस तरह शिक्षा के साथ खेलकूद जरूरी है, वैसे ही युवाओं के संगठनों का बनना और उनमें आपस में प्रतिस्पर्धा होना स्वस्थ्य परंपरा है। मेरे पिता जो उत्तर प्रदेश के एक सम्मानीत शिक्षाविद् और कुलपति रहे, कहा करते थे, "छात्रों में बजरंगबली की सी ऊर्जा होती है, यह उनके शिक्षकों पर है कि वे उस ऊर्जा को किस दिशा में मोड़ते हैं।"
जरूरत इस बात की है कि भारत के चुनाव आयोग के अधीनस्थ हर राज्य में एक स्थायी चुनाव आयोगों का गठन किया जाए।  जिनका दायित्व ग्राम सभा के चुनाव से लेकर , नगर-निकायों के चुनाव और छात्रों और हो सके तो किसानों और मजदूर संगठनों के चुनाव यह आयोग करवाए। ये चुनाव आयोग ऐसी नियमावली बनाए कि इन चुनावों में धांधली और गुडागर्दी की संभावना ना रहे। प्रत्याशियों के चयन से लेकर प्रचार और मतदान तक का काम व्यवस्थित और पारदर्शित प्रक्रिया के तहत हो और उसका संचालन इन चुनाव आयोगों द्वारा किया जाए। लोकतंत्र के शुद्धिकरण के लिए यह एक ठोस और स्थायी कदम होगा। इस पर अच्छी तरह देशव्यापी बहस होनी चाहिए।
इस छात्र संघ के चुनावों में दिल्ली विश्वविद्यालय के ईवीएम मशीनों के संबंध में छात्रों द्वारा जो आरोप लगाए गए हैं, वह चिन्ता की बात है। प्रश्न यह उठ रहा है कि जब इतने छोटे चुनाव में ईवीएम मशीनें संतोषजनक परिणाम की बजाए शंकाएं उत्पन्न कर रही हैं, तो 2019 के आम चुनावों में ईवीएम मशीनों की विश्वसनीयता पर जिस प्रकार राजनैतिक पार्टियां अभी से आरोप-प्रत्यारोप लगा रही हैं, इससे क्या उनकी आशंकाओं को बल मिलता नहीं दिख रहा है? मजे कि बात यह है कि ईवीएम की बात आते ही चुनाव आयोग द्वारा मीडिया के सामने आकर सफाई दी गई कि वह दिल्ली विश्वविद्यालय के चुनाव के लिए ईवीएम मशीनें मुहैया नहीं करवाई गईं  थी। छात्र संघ के चुनाव के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय ने स्वयं ईवीएम मशीनों का इत्जाम किया था।
बात यह नहीं है कि ईवीएम मशीनें कहां से आई, कौन लाया, पर आनन-फानन में जिस प्रकार जब चुनाव आयोग पर दिल्ली छात्र संघ के चुनावों में ईवीएम में गड़बड़ी के आरोप लगने लगे तो उसे सामने आकर सफाई देनी पड़ी। यह कौनसी बात हुई, कोई चुनाव आयोग पर तो आरोप लगा नहीं रहा था पर चुनाव आयोग प्रकट होता है और दिल्ली चुनाव में ईवीएम पर सफाई दे देता है। यानी चुनावा आयोग अभी से बचाव की मुद्रा में दिखने लगा है।
चुनाव कोई हो पर लोकतांत्रिक व्यवस्था की मजबूती में पारदर्शिता प्रथम बिन्दु हैं और जब चुनावों में धांधली के आरोप जोर-शोर से लगने लगे तो यह लोकतंत्र के लिए अत्यंत घातक है। समय रहते छोटे चुनाव हों या बड़े स्वच्छ और निष्पक्ष चुनाव के लिए आशंकाओं का समाधान कर लेना सबसे विश्व के बड़े लोकतंत्र के लिए महत्वपूर्ण कदम होगा। देश की राजधानी दिल्ली में हुए इन छात्र संघ के चुनावों के परिणाम देश की राजनीति में अभी से दूरगामी परिणाम परिलक्षित कर रहे हैं इसलिए हर किसी को अपनी जिम्मेदारियों को निष्पक्षता के साथ वहन कर इस महान् लोकतंक को और मजबूत बनाना चाहिए।

Monday, February 5, 2018

राजपूतों की शान है ‘पद्मावत’ फिल्म


इतने शोर शराबे के बाद पद्मावत फिल्म देखी, तो तबियत बाग-बाग हो गई। राजपूतों की संस्कृति, उनके संस्कार, उनका वैभव, उनके सिद्धांत, उनकी मान-मर्यादा, हर बात का इतना भव्य प्रर्दशन संजय लीला भंसाली ने किया है कि देखने वाला देखता ही रह जाता है। समझ में नहीं आता कि किन लोगों की मूर्खता के कारण इस पर इतना बवाल मचा।
मीडिया के बाजार में चर्चा है कि भाजपा ने गुजरात चुनाव के पहले राजपूत स्वाभिमान के नाम पर हिंदू ध्रुवीकरण की मंशा से इस आंदोलन को हवा दी। पर इस अफवाह का हमारे पास कोई प्रमाण नहीं है।

दूसरी अफवाह यह है कि संजय लीला भंसाली समय पर इस फिल्म को पूरा नहीं कर पाये थे और उन पर वितरकों का भारी दबाव था। अगर वे समय पर इसे रिलीज न कर पाते, तो बहुत लंबे कानूनी लफड़े में फंस जाते। इसलिए उन्होंने ये सब होने दिया। इस अफवाह का भी कोई प्रमाण हमारे पास नहीं है।
अब एक नया विवाद खड़ा किया जा रहा है कि फिल्म में सती प्रथा को गौरवान्वित किया गया है। इस विवाद को खड़ा करने वाली वे महिलाऐं हैं, जो महिला मुक्ति आंदोलन के आधुनिक संदर्भों को लेकर उत्साहित रहती हैं। मुझे उनकी विचारधारा पर कोई टिप्पणी नहीं करनी। पर यह जरूर कहना है कि राजस्थान में सती प्रथा को भारी सामाजिक मान्यता प्राप्त रही है। रानी पद्मावती का जौहर हुआ था या नहीं, पर लोकगाथाओं में खूब लोकप्रिय रहा है। यहां तक कि 64 साल पहले बनी फिल्म जागृति का मशहूर गाना ‘आओ बच्चों तुम्हें दिखाए, झांकी हिंदुस्तन की, इस मिट्टी से तिलक करो, यह धरती है बलिदान की, वंदे मातरम्-वंदे मातरम', की आगे एक पंक्ति है ‘कूद पड़ी थीं यहां हजारों पद्मिनियां अंगारों में’। इन 64 साल में महिला मुक्ति की झंडाबरदार महिलाओं ने कभी इस गाने का विरोध नहीं किया।

दरअसल इतिहास अच्छा हो या बुरा, एक कलाकार का, साहित्यकार का या फिल्मकार का कर्तव्य होता है कि उसे प्रभावशाली रूप् में प्रस्तुत करें। समय के साथ जीवन मूल्य बदलते रहते हैं। पहले सती प्रथा गौरान्वित होती थी, आज नहीं होती। इसका मतलब ये इतिहास के पन्नों से थोड़े ही गायब हो गई ? इसलिए एक बार फिर मैं संजय लीला भंसाली को बधाई देना चाहूंगा कि उन्होंने बड़ी खूबसूरती से राजपूत महिलाओं के दृढ़ चरित्र को दर्शाया है। जिसे देखकर हर दर्शक के मन में राजपूतों के प्रति सम्मान बढ़ा है।
जिन लोगों ने इसके नाम पर हिंसा या तोड-फोड़ की, फिल्म देखने के बाद वे मुझे मानसिक रूप से दिवालिये नजर आते हैं। यह हमारे देश का दुर्भाग्य है कि हम बिना पड़ताल के भावनाओं के अतिरेक में भड़क कर राष्ट्रीय सम्पत्ति का नुकसान करने लगते हैं और बाद में यह पता चलता है कि हमारे उत्पात मचाने का कोई ठोस कारण ही नहीं था। तो क्या माना जाए के उत्पात मचाने वाले किसी प्रलोभनवश ऐसा करते हैं?

जो भी हो यह दुखद स्थिति है। समाज की हर जाति, धर्म व सम्प्रदाय के लोगों को इस तालिबाना प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना चाहिए। लोकतंत्र में सबको अपना दृष्टिकोण रखने की आजादी सुनिश्चित की गई है। हमारा देश एक लोकतंत्र है। जहां विभिन्न भौगोलिक परिस्थितियों में, विभिन्न धर्मों के मानने वाले, विभिन्न प्रजातियों के लोग रहते हैं। उनके अपने रस्मों-रिवाज हैं, पहनावा है, खानपान है, मान्यताऐं हैं, इतिहास है और यहां तक कि उनके रूप, रंग और नाक-नक्श भी अलग-अलग तरह के हैं। नागालैंड, बंगाल, कश्मीर, हिमाचल, पंजाब, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल, उड़ीसा जैसे राज्यों में जाकर देखिए, तो ये विभिन्नता स्पष्ट नजर आती है। पर इस विभिन्नता में एकता ही भारत की खूबसूरती है। यह बात हमें भूलनी नहीं चाहिए। मैं बृजवासी हूं, शाकाहारी हूं, तामसी भोजन से परहेज करता हूं, गोवंश के प्रति भारी श्रद्धा रखता हूं, तो इसका अर्थ ये बिल्कुल नहीं कि मेरी इच्छा और मेरे संस्कारों को नागालैंड के लोगों पर थोपा जाए।
बहुत पुरानी बात नहीं है जब 1960 के दशक में पश्चिमी पाकिस्तान ने पूर्वी पाकिस्तान पर अपनी भाषा और संस्कृति थोपनी चाही, तो एक ही इस्लाम धर्म के मानने वाले होकर भी, वहां के लोग विरोध में उठ खड़े हुए। हिसंक क्रांति हुई और बांग्लादेश का जन्म हो गया।

हम भारतवासी कभी नहीं चाहेंगे कि 1947 की पीड़ा फिर से भोगी जाए। भारत और पाकिस्तान का बंटवारा दुनिया के इतिहास की सबसे दर्दनाक घटना थी। दूसरों के विचारों, कलाओं और संस्कृति के प्रति अहिसहिष्णुता प्रगट कर, हम सामाजिक विघटन की जमीन तैयार करते हैं और वहीं बाद में राजनैतिक विघटन का कारण बनती है। इसलिए पद्मावत के तर्कहीन विरोध से जो दुखद स्थिति पैदा हुई वैसी भविष्य में न हो, इसका हम सबको प्रयास करना चाहिए।
बात पद्मावत फिल्म की करें, तो अब यह तथ्य सबके सामने है कि पूरी दुनिया में जहां भी यह फिल्म रिलीज हुई है, दर्शकों ने इसे खूब सराहा है। दीपिका पादुकोण, शाहिद कपूर और रणवीर सिंह तीनों का अभिनय बहुत प्रभावशाली है और फिल्म में जान डालता है। जहां तक फिल्म के सैट की बात है, संजय लीला भंसाली अति प्रभावशाली सैट निर्माण के लिए मशहूर हैं। इस फिल्म में उन्होंने सिंहल (श्रीलंका), राजपूताना और खिलजी वंश की संस्कृति के अनुरूप भव्य सैटों का निर्माण कर फिल्म के कैनवास को बहुत आकर्षक बना दिया है। हर दृश्य एक पेंटिंग की तरह नजर आता है। आप फिल्म देखकर प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगे।

Monday, January 8, 2018

शिक्षा में क्रांतिः राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की क्रन्तिकारी पहल

भगवान श्रीकृष्ण के गुरू संदीपनि मुनि के गुरूकुल की छत्रछाया में आगामी 28 अप्रैल से ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ उज्जैन से विद्यालयी शिक्षा के क्षेत्र में ऐतिहासिक क्रांति का शंखनाद् करने जा रहा है। मैकाले की ‘गुलाम बनाने वाली शिक्षा’ ने गत 200 वर्षों से भारत को इतनी बुरी तरह जकड़ रखा है कि हम उससे आज तक मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा के बोर्ड शिक्षा व्यवस्था में कोई नवीनता लाने को तैयार नहीं है। सब लकीर के फकीर बने हैं। पिछले 70 साल में हर शिक्षाविद् ने ये बात दोहराई कि मौजूदा शिक्षा प्रणाली के कारण हमारी युवा पीढ़ी परजीवी बन रही है। उसमें जोखिम उठाने, हाथ से काम करने, उत्पादक व्यवसाय खड़ा करने, अपने शरीर और परिवेश को स्वस्थ रखने व अपने अतीत पर गर्व करने के संस्कार नहीं हैं। उस अतीत पर, जिसने भारत को सोने की चिड़िया बनाया था। वे आज भी औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त होकर, सरकार की बाबूगिरी को जीवन का लक्ष्य मानते हैं। ये बात दूसरी है कि सरकारी नौकरियाँ नगण्य है और आवेदकों की संख्या करोड़ों में। इससे युवाओं में हताशा, कुंठा, हीन भावना और हिंसा पनप रही हैं।
संघ से जुड़े बुद्धिजीवियों का लंबे समय से यह मानना रहा है कि जब तक भारत की शिक्षा व्यवस्था भारतीय परिवेश और मानदंडों के अनुकूल नहीं होगी, तब तक माँ भारती अपना खोया हुआ वैभव पुनः प्राप्त नहीं कर पायेंगी। इसके लिए एक समानान्तर शिक्षा व्यवस्था खड़ी करने की आवश्यक्ता है। जो आत्मनिर्भर, स्वाभिमानी, उत्पादक, संस्कारवान व प्रखर प्रज्ञा के युवाओं को तैयार करे।
इस दिशा में अहमदाबाद के उत्तम भाई ने अभूतपूर्व कार्य किया है। हेमचंद्राचार्य संस्कृत पाठशाला, साबरमती में विशुद्ध गुरूकुल शिक्षा प्रणाली से शिक्षण और विद्यार्थियों का पालन पोषण कर उत्तम भाई ने विश्व स्तर की योग्यता वाले मेधावी छात्रों को तैयार किया है। जिसके विषय में इस कालम में गत वर्षों में मैं दो लेख पहले लिख चुका हूं। जिन्हें पढ़कर, देशभर से अनेक शिक्षाशास्त्री और अभिाभावक साबरमती पहुंचते रहे हैं।
उज्जैन के सम्मेलन में इस गुरूकुल के प्रभावशाली अनुभवों और उपलब्धियों के अलावा देश के अन्य हिस्सों में चल रहे, ऐसे ही दूसरे गुरूकुलों के साझे अनुभव से प्रेरणा लेकर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पूरे देश में लाखों गुरूकुलों की स्थापना की तैयारी कर रहा है। जिसका एक अलग शिक्षा बोर्ड सरकारी स्तर पर भी बने, ऐसा लक्ष्य रखा गया है। जिससे इस गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था में औपनिवेशिक शिक्षा व्यवस्था के घालमेल की संभावना न रहे। इस अनुष्ठान में वेद विज्ञान गुरूकुलम् (बंगलुरू), प्रबोधिनी गुरूकुलम्, हरिहरपुर (कर्नाटक), मैत्रेयी गुरूकुलम् (मंगलुरू), सिद्धगिरि ज्ञानपीठ (महाराष्ट्र), आदिनाथ संस्कार विद्यापीठ (चेन्नई), श्री वीर लोकशाह संस्कृत ज्ञानपीठ गुरूकुल (जोधपुर), महर्षियाज्ञवल्क्यज्ञानपीठ (गुजरात) व नेपाल के 6 गुरूकुल भी भाग ले रहे हैं। उज्जैन में इस सागर मंथन के बाद, जो अमृत कलश निकलेगा, वह पुनः स्थापित होने जा रही, भारत की गुरूकुल शिक्षा प्रणाली का आधार बनेगा।
अनादिकाल से भारतीय शिक्षा पद्धति नालंदा, तक्षशिला, वल्लभी व विक्रमशिला जैसे गुरूकुलों के कारण विश्वविख्यात रही हैं। जहां सहस्त्रों छात्र और सैकड़ों आचार्य एक साथ रहकर, अध्ययन व शिक्षण करते थे। वैदिक सनातन परंपरा के साथ ही बौद्ध और जैन मतों के गुरूकुलों का भी प्रचलन रहा। 1823 तक देश के प्रत्येक ग्राम में बड़ी संख्या में पाठशालाऐं होती थीं, जिनमें सभी वर्गों के लोगों को जीवनोपयी शिक्षा दी जाती थी। आवासीय व्यवस्था व समग्र शिक्षा से मजे हुए युवा तैयार होते थे। जो जीवन के हर क्षेत्र में अपना श्रेष्ठ योगदान करते थे।
बाद में लार्ड मैकाले ने यह अनुभव किया कि भारत की इस सशक्त शिक्षा व्यवस्था को नष्ट किये बिना भारतीयों को गुलाम नहीं बनाया जा सकता। इसलिए उसने एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था हम पर थोपी, जिसने हमें हर तरह से अंग्रेज़ियत का गुलाम बना दिया और हम आज तक उस गुलामी से मुक्त नहीं हुए।
'भारतीय शिक्षण मंडल' शिक्षा के भारतीय प्रारूप को पुनर्स्थापित करने का कार्य कर रहा है। जिससे एक बार फिर भारत के गांवों में ही नहीं, नगरों में भी, गुरूकुल शिक्षा पद्धति स्थापित हो जाऐ। जिससे बालकों का सर्वांगीर्णं विकास हो। उज्जैन में होने जा रहे गुरूकुल शिक्षा के इस कुंभ में देशभर से शिक्षाविद् और आचार्यगण भाग लेंगे। अगर इस मंथन में गुरूकुल शिक्षा व्यवस्था के प्रारूप पर आम सहमति बनती है, तो भारतीय शिक्षण मंडल इस प्रस्ताव को माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के पास लेकर जायेगा और उनसे गुरूकुल शिक्षा का एक अलग निदेशालय या बोर्ड गठित करने को कहेगा।
चूंकि मैंने स्वयं कई बार साबरमती में हेमचंद्राचार्य संस्कृत पाठशाला की गतिविधियों को वहां रहकर निकट से देखा है और उसके छात्रों के प्रदर्शन को भी देखा है, इसलिए मुझे इस सम्मेलन से बहुत आशा है। काश इसमें सहमति बने, जो शायद वहां सरसंघाचलक डा. मोहन भागवत जी की उपस्थिति और सदिच्छा  के कारण संभव होगी। इससे भारत की किशोर आबादी को बहुत लाभ होने वाला है। क्योंकि आज शिक्षा का इतना व्यवसायीकरण हो गया है कि अब शिक्षा संस्थानों में छात्रों का भविष्य नहीं बनता बल्कि उनका वर्तमान भी उनसे छीन लिया जाता है। बिरले ही हैं, जो अपनी मेधा और पुरूषार्थ से आगे बढ़ पाते हैं। जो शिक्षा संस्थान आज भी देश में अच्छी शिक्षा देने का दावा करते हैं, उनके  छात्र भी भौतिक दृष्टि से भले ही सफल हो जाऐं, पर उनके व्यक्तित्व का विकास समग्रता में नहीं होता।