Monday, March 27, 2023

राजनैतिक बयानबाज़ी और मानहानि


 
राहुल गांधी के ताज़ा विवाद पर पक्ष और विपक्ष तलवारें भांजे आमने-सामने खड़ा है। इस विवाद के क़ानूनी व राजनैतिक पक्षों पर मीडिया में काफ़ी बहस चल रही है। इसलिए उसकी पुनरावृत्ति यहाँ करने की आवश्यकता नहीं है। पर इस विवाद के बीच जो विषय ज़्यादा गंभीर है उस पर देशवासियों को मंथन करने की ज़रूरत है। चुनाव के दौरान पक्ष और प्रतिपक्ष के नेता सार्वजनिक रूप से एक दूसरे पर अनेक आरोप लगाते हैं और उनके समर्थन में अपने पास तमाम सबूत होने का दावा भी करते हैं। चुनाव समाप्त होते ही ये खूनी रंजिश प्रेम और सौहार्द में बदल जाती है। न तो वो प्रमाण कभी सामने आते हैं और न ही जनसभाओं में उछाले गये घोटालों को तार्किक परिणाम तक ले जाने का कोई गंभीर प्रयास सत्ता पर काबिज हुए नेताओं द्वारा किया जाता है। कुल मिलाकर ये सारा तमाशा मतदान के आख़िरी दिन तक ही चर्चा में रहता है और फिर अगले चुनावों तक भुला दिया जाता है। 


हमारे लोकतंत्र की परिपक्वता का यह एक उदाहरण है जो हम आज़ादी के बाद से आजतक देखते आए हैं। हालाँकि चुनावों में धन तंत्र, बल तंत्र व हिंसा आदि के बढ़ते प्रयोग ने लोकतंत्र की अच्छाइयों को काफ़ी हद तक दबा दिया है। पिछले चार दशकों में लोकतंत्र को पटरी में लाने के अनेक प्रयास हुए पर उसमें विशेष सफलता नहीं मिली। फिर भी हम आपातकाल के 18 महीनों को छोड़ कर कमोवेश एक संतुलित राजनैतिक माहौल में जी रहे थे। दुर्भाग्य से पिछले कुछ वर्षों में राजनीति की भाषा में बहुत तेज़ी से गिरावट आई है और इस गिरावट का सूत्रपात्र सत्तापक्ष के दल और संगठनों की ओर से हुआ है। ‘ट्रॉल आर्मी’ एक नया शब्द अब राजनैतिक पटल पर हावी हो गया है। किसी भी व्यक्ति को उसके पद, योग्यता, प्रतिष्ठा, समाज और राष्ट्र के लिए किए गये योगदान आदि की उपेक्षा करके ये ‘ट्रॉल आर्मी’ उस पर किसी भी सीमा तक जा कर अभद्र टिप्पणी करती है। माना जाता है कि हर क्रिया की विपरीत और समान प्रक्रिया होती है। परिणामत: अपने सीमित संसाधनों के बावजूद विपक्षी दलों ने भी अपनी-अपनी ‘ट्रॉल आर्मी’ खड़ी कर ली है। कुल मिलाकर राजनैतिक वातावरण शालीनता के निम्नतर स्तर पर पहुँच गया है। हर वक्त चारों ओर उत्तेजना का वातावरण पैदा हो गया है जो राष्ट्र के लिए बहुत अशुभ लक्षण है। इससे नागरिकों की ऊर्जा रचनात्मक व सकारात्मक दिशा में लगने की बजाय विनाश की दिशा लग रही है। पर लगता है कि राष्ट्रीय नेतृत्व को इस पतन की कोई चिंता नहीं है। 

जिस आरोप पर सूरत कि अदालत ने राहुल गांधी को इतनी कड़ी सज़ा सुनाई है उससे कहीं ज़्यादा आपराधिक भाषा का प्रयोग पिछले कुछ वर्षों में सत्ताधीशों के द्वारा सार्वजनिक मंचों पर बार-बार किया गया है। मसलन किसी भद्र महिला को ‘जर्सी गाय’ कहना, किसी राज्य की मुख्य मंत्री को उस राज्य के हिंजड़ों की भाषा में संबोधन करना, किसी बड़े राजनेता की महिला मित्र को ‘50 करोड़ को गर्ल फ्रेंड’ बताना, किसी बड़े राष्ट्रीय दल के नेता का बार-बार उपहास करना और उसे समाज में मूर्ख सिद्ध करने के लिए अभियान चलाना, किसी महिला सांसद को सांकेतिक भाषा में सूर्पनखा कह कर मज़ाक़ उड़ाना। ये कुछ उदाहरण हैं ये सिद्ध करने के लिए कि ऊँचे पदों पर बैठे लोग सामान्य शिष्टाचार भी भूल चुके हैं। 


यहाँ 1971 के भारत-पाक युद्ध के समय की एक घटना का उल्लेख करना उचित होगा। जब पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधान मंत्री ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने भारत के संदर्भ में घोषणा की थी कि वे भारत से एक हज़ार साल तक लड़ेंगे। इस पर भारत कि प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने रामलीला मैदान की एक विशाल जनसभा में बिना पाकिस्तान या भुट्टो का नाम लिये बड़ी शालीनता से ये कहते हुए जवाब दिया कि, वे कहते हैं कि हम एक हज़ार साल तक लड़ेंगे, हम कहते हैं कि हम शांतिपूर्ण सहअस्तित्व से रहेंगे। ऐसे तमाम उदाहरण हैं जब भारत के प्रधान मंत्रियों ने अपने ऊपर तमाम तरह के आरोपों और हमलों को सहते हुए भी अपने पद की मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया। चाहे वे किसी भी दल से क्यों न आए हों। क्योंकि प्रधान मंत्री पूरे देश का होता है, किसी दल विशेष का नहीं। इस मर्यादा को पुनः स्थापित करने की आवश्यकता है। भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं कि ‘यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः। स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।(3.21)’ अर्थात् श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण करता है, अन्य लोग भी वैसा ही अनुकरण करते हैं।

इस संदर्भ में सबसे ताज़ा उदाहरण जम्मू कश्मीर के उप-राज्यपाल श्री मनोज सिन्हा का है जिन्होंने पिछले हफ़्ते ग्वालियर के एक शैक्षिक संस्थान में छात्रों को संबोधित करते हुए कहा कि, गांधी जी के पास कोई लॉ की डिग्री नहीं थी। क्या आप जानते हैं कि उनके पास एक भी यूनिवर्सिटी की डिग्री नहीं थी। उनकी एकमात्र योग्यता हाई स्कूल डिप्लोमा थी। बीएचयू वाराणसी के इंजीनियरिंग ग्रेजुएट का गूगल युग में ऐसा अहमक बयान किसके गले उतरेगा? जबकि सारा विश्व जानता है कि गांधी जी कितने पढ़े लिखे थे और उनके पास कितनी डिग्रियाँ थी? श्री सिन्हा के इस वक्तव्य से करोड़ों देशवासियों की भावनाएँ आहत हुई हैं। क्या देशभर की अदालतों में श्री सिन्हा के ख़िलाफ़ मानहानि के मुकदमें दायर किए जायें या राष्ट्रपति महोदया से, अपने अधिकार का प्रयोग करते हुए,  उन्हें पद मुक्त किए जाने की अपील की जाए? क्योंकि श्री मनोज सिन्हा कोई बेपढ़े-लिखे आम आदमी नहीं हैं बल्कि वे एक संवैधानिक पद को सुशोभित कर रहे हैं। 

जब शासन व्यवस्था में सर्वोच्च पदों पर बैठे व्यक्तियों की भाषा में इतना हल्कापन आ चुका हो तो ये पूरे देश के लिए ख़तरे की घंटी है। इसे दूर करने के लिए बिना राग द्वेष के समाज के हर वर्ग और राजनैतिक दलों के नेताओं को सामूहिक निर्णय लेना चाहिए कि ऐसी ग़ैर ज़िम्मेदाराना शब्दावली के लिए भारतीय लोकतंत्र में कोई स्थान नहीं होगा। अन्यथा अभद्र भाषा की परिणीत निकट भविष्य में पारस्परिक हिंसा के रूप में हर जगह दिखने लगेगी। यदि ऐसा हुआ तो देश में अराजकता फेल जाएगी जिसे नियंत्रित करना किसी भी सरकार के बस में नहीं होगा।    

Monday, March 13, 2023

भीषण गर्मी की आहट डरा रही है

पिछले कुछ हफ़्तों से, मौसम वैज्ञानिकों के हवाले से, ये खबर आ रही है कि इस साल भीषण गर्मी पड़ने वाली है। इसके संकेत तो पिछले महीने ही मिलने शुरू हो गये थे जब दशकों बाद फ़रवरी के महीने में तापमान काफ़ी ऊँचा चला गया। इस खबर से सबसे ज़्यादा चिंता कृषि वैज्ञानिकों और किसानों को है। ऐसी भविष्यवाणियाँ की जा रही हैं कि अभी से बढ़ती जा रही गर्मी आने वाले हफ़्तों में विकराल रूप ले लेगी। जिससे सूखे जैसे हालत पैदा हो सकते हैं। ख़रीब की फसल पर तो इसका बुरा असर पड़ेगा ही पर रवि की उपज पर भी विपरीत प्रभाव पड़ सकता है।

वैज्ञानिकों का मानना है कि इस बढ़ती गर्मी के कारण गेहूं का उत्पादन काफ़ी कम रहेगा। इसके साथ ही फल और सब्ज़ियों के उत्पादन पर भी विपरीत प्रभाव पड़ेगा। नतीजतन खाद्य पदार्थों के दामों में काफ़ी बढ़ौतरी कि संभावना है। कितना असर होगा ये तो अप्रैल के बाद ही पता चल पाएगा पर इतना तो साफ़ है कि कम पैदावार के चलते किसान बुवाई भी कम कर देंगे। जिसका उल्टा असर ग्रामीण रोज़गार पर पड़ेगा। दरअसल गर्मी बढ़ने का एक प्रमुख कारण सर्दियों में होने वाली बारिश का लगातार कम होते जाना है। मौसम वैज्ञानिकों के अनुसार दिसंबर, जनवरी और फ़रवरी में औसत तापमान से एक या दो डिग्री ज़्यादा दर्ज किया गया है। इतना सा तापमान बढ़ने से बारिश की मात्रा घट गई है। 


ये तो रही कृषि उत्पादनों की बात, लेकिन अगर शहरी जीवन को देखें तो ये समस्या और भी बड़ा विकराल रूप धारण करने जा रही है। हमारा अनुभव है कि गर्मियों में जब ताल-तलैये सूख जाते हैं और नदियों में भी जल की आवक घट जाती है तो सिंचाई के अलावा सामान्य जन-जीवन में भी पानी का संकट गहरा जाता है। नगर पालिकाएँ आवश्यकता के अनुरूप जल की आपूर्ति नहीं कर पाती। इसलिए निर्बल वर्ग की बस्तियों में अक्सर सार्वजनिक नलों पर संग्राम छिड़ते हुए देखे जाते हैं। नलों में पानी बहुत कम देर के लिए आता है। मध्यम वर्गीय परिवारों को भी अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप पानी एकत्र करने के लिए काफ़ी मशक़्क़त करनी पड़ती है। राजनेताओं, अधिकारियों और संपन्न लोगों को इन विपरीत परिस्थितियों में भी जल संकट का सामना नहीं करना पड़ता। क्योंकि ये लोग आवश्यकता से कई गुना ज़्यादा जल जमा कर लेते हैं। असली मार तो आम लोगों पर पड़ती है। 

भीषण गर्मी पड़ने के साथ अब लोग कूलर या एयर कंडीशनर की तरफ़ भागते हैं। इससे जल और विद्युत दोनों का संकट बड़ जाता है। हाइड्रो पावर प्लांट में जल आपूर्ति की मात्रा घटने से विद्युत उत्पादन गिरने लगता है। जैसे-जैसे समाज पारंपरिक तरीक़ों को छोड़ कर बिजली से चलने वाले उपकरणों की तरफ़ बढ़ रहा है वैसे-वैसे वातावरण और भी गर्म होता जा रहा है। एयर कंडीशनरों से निकलने वाली गैस भी वातावरण को प्रदूषित करने और गर्मी बढ़ाने का काम कर रही है। 1974-76 के बीच मैं एक स्वयंसेवक के रूप में मुरादाबाद के निकट अमरपुरकाशी गाँव में समाज सेवा की भावना से काफ़ी समय तक रहा। इस दौरान हर मौसम में गाँव के जीवन को जिया। मुझे याद है कि मई जून की तपती गर्मी और लू के बावजूद हम सब स्वयंसेवक दोपहर में खुले दालान पर नीम के पेड़ की छाया में सोया करते थे। तब वो छाया ही काफ़ी ठण्डी लगती थी। गर्म लू जब पसीना सुखाती थी तो शरीर में ठंडक महसूस होती थी। इसी तरह रात में छत पर पानी छिड़क कर सब सो जाते थे। रात के ग्यारह-बारह बजे तक तो गर्म हवा चलती थी, फिर धरती की तपिश ख़त्म होने के बाद ठण्डी हवा चलने लगती थी। सूर्योदय के समय की बयार तो इतनी स्फूर्तिदायक होती थी कि पूरा शरीर नई ऊर्जा से संचालित होता था। वहाँ न तो फ्रिज का ठण्डा पानी था, न कोई और इंतज़ाम। लेकिन हैंडपम्प का पानी या मिट्टी के घड़े का पानी शीतलता के साथ सौंधापन लिये शरीर के लिए भी गुणकारी होता था। जबकि आज आरओ के पानी ने हम सबको बीमार बना दिया है। क्योंकि आरओ की मशीन जल के सभी प्राकृतिक गुणों को नष्ट कर देती है। कुएँ से एक डोल पानी खींच कर सिर पर उड़ेलते ही सारे बदन में फुरफुरी आ जाती थी। जिस से दिन भर के श्रमदान की सारी थकावट क्षणों में काफ़ूर हो जाती थी। 


आजकल हर व्यक्ति, चाहे उसकी हैसियत हो या न हो शरीर को कृत्रिम तरीक़े से ठण्डा रखने के उपकरणों को ख़रीदने की चाहत रखता है। हम सब इसके शिकार बन चुके हैं और इसका ख़ामियाज़ा मौसम के बदले मिज़ास और बढ़ती गर्मी को झेल कर भुगत रहे हैं। इस आधुनिक दिनचर्या का बहुत बुरा प्रभाव हमारे शरीर पर पड़ रहा है। हर शहर में लगातार बढ़ते अस्पताल और दवा की दुकानें इस बात का प्रमाण हैं कि ‘सुजलाम् सुफलाम् मलय़जशीतलाम्, शस्यश्यामलाम्’ वाले देश के हम सब नागरिक बीमारियों से घिरते जा रहे हैं। न तो हमें अपने भविष्य की चिंता है, न ही सरकारों को। समस्याएँ दिन प्रतिदिन सुलझने के बजाए उलझती जा रही हैं।

दूसरी तरफ़ हर पर्यावरणविद् मानता है कि पारंपरिक जलाशयों को सुधार कर उनकी जल संचय क्षमता को बढ़ा कर और सघन वृक्षावली तैयार करके मौसम के मिज़ाज को कुछ हद तक बदला भी जा सकता है। प्रधान मंत्री मोदी का जल शक्ति अभियान और बरसों से चले आ रहे वृक्षारोपण के सरकारी अभियान अगर ईमानदारी से चलाए जाते तो देश के पर्यावरण की हालत आज इतनी दयनीय न होती। सभी जानते हैं कि सरकार द्वारा जहां एक ओर तो वृक्षारोपण व तालाब खोदने को बढ़ावा दिया जा रहा है, वहीं जमीनी स्तर पर कथनी और करनी में काफ़ी अंतर है। मिसाल के तौर पर जालौन क्षेत्र में 400 छोटे बांध बनाए गए थे। इनमें से आधे से ज्यादा तबाह हो चुके हैं। ललितपुर जिले में जल संरक्षण के लिए तीन करोड़ रुपये से चल रहा काम निरर्थक हो चुका है। इसी इलाके में बादहा और रसिन बांध के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च हुए, लेकिन इनका भी नतीजा शून्य ही रहा। उधर मथुरा में 2019 दावा किया गया कि सरकार द्वारा 1086 कुंड गहरे खोद कर जल से लबालब भर दिए गए हैं जबकि जमीनी हकीकत इसके बिलकुल विपरीत पाई गई। 

Monday, March 6, 2023

मज़बूत लोकतंत्र में सांविधानिक संस्थाएँ निष्पक्ष हों !


भारत के चुनाव आयोग में चुनाव आयुक्तों और मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति को लेकर सुप्रीम कोर्ट की 5 सदस्यीय संवैधानिक बेंच ने पिछले गुरुवार को ऐतिहासिक फैसला सुनाया। इस फ़ैसले के बाद केंद्रीय चुनाव आयोग में आयुक्तों की नियुक्ति पर केंद्र का सीधा हस्तक्षेप घटेगा। कोर्ट ने इस फ़ैसले को सुनाते समय इस बात पर ज़ोर डाला कि संविधानिक संस्थाओं का निष्पक्ष होना लोकतंत्र के लिए बहुत आवश्यक है। सभी राजनैतिक दलों द्वारा इस फ़ैसले का स्वागत किया जा रहा है।
 

सुप्रीम कोर्ट के 378 पन्नों के इस ऐतिहासिक फैसले के पीछे 1997 का ‘विनीत नारायण बनाम भारत सरकार’ का फ़ैसला है। इस फ़ैसले में प्रवर्तन निदेशालय, सीबीआई व सीवीसी के निदेशकों की नियुक्ति और उनके कार्यकाल को लेकर दिशा निर्देश दिये गये थे। जिससे जाँच एजेंसियों को सरकारी दख़ल से अलग रख कर निष्पक्ष व स्वायत्त रूप से कार्य करने की छूट दी गई थी। परंतु सवाल उठता है कि क्या जाँच एजेंसियाँ सरकार के दबाव से मुक्त हुई? ऐसा क्या हुआ कि उसी सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को ‘पिंजरे का तोता’ कहा? 

दरअसल पिछले कुछ वर्षों से चुनाव आयोग की कार्यशैली को लेकर विपक्षी दलों में ही नहीं बल्कि लोकतंत्र में आस्था रखने वाले हर जागरूक नागरिक के मन में भी अनेक प्रश्न खड़े हो रहे थे। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयुक्त अरुण गोयल की नियुक्ति की फाइल माँग कर भारत सरकार की स्थिति को असहज कर दिया था। पर इसका सकारात्मक संदेश देश में गया। सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग की विवादास्पद भूमिका पर टिप्पणी करते हुए 1990-96 में भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त रहे टी एन शेषन को याद किया और कहा है, देश को टी एन शेषन जैसे व्यक्ति की ज़रूरत है। 


सर्वोच्च न्यायालय ने यह टिप्पणी 2018 से लंबित कई जनहित याचिकाओं की संवैधानिक पीठ के सामने चल रही सुनवाई के दौरान की। इन याचिकाओं में माँग की गई है कि चुनाव आयोग के सदस्यों का चयन भी एक कॉलोजियम की प्रक्रिया से होना चाहिये। इस बहस के दौरान पीठ के अध्यक्ष न्यायमूर्ति जोसेफ ने कहा कि ये चयन सर्वोच्च न्यायालय के ‘विनीत नारायण बनाम भारत सरकार’ फ़ैसले के अनुरूप भी क्यों नहीं हो सकता है? जिससे चयनकर्ता समिति में तीन सदस्य हों, भारत के मुख्य न्यायाधीश, प्रधान मंत्री व लोक सभा में नेता प्रतिपक्ष। यह माँग सर्वथा उचित है क्योंकि चुनाव आयोग का वास्ता देश के सभी राजनैतिक दलों से पड़ता है। अगर उसके सदस्यों का चयन केवल सरकार करती है तो जाहिरन ऐसे अधिकारियों को चुनेगी जो उसके इशारे पर चले। इस फ़ैसले के आधार पर जब तक संसद द्वारा क़ानून पास नहीं हो जाता तब तक इसी फ़ैसले के दिशा निर्देशों के अनुसार चुनाव आयुक्तों की नियुक्तियाँ होंगी। 

पिछले कुछ वर्षों से सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की अवहेलना करते हुए जिस तरह मुख्य जाँच एजेंसियों के निदेशकों की नियुक्ति व सेवा विस्तार किए जा रहे हैं उससे इन जाँच एजेंसियों की स्वायत्ता और निष्पक्षता पर स्वाल उठ रहे हैं। यदि किसी जाँच एजेंसी के निदेशक को इस बात का पता है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के तहत उसकी नियुक्ति पारदर्शिता से हुई है तो उसे उसके दो साल के निश्चित कार्यकाल से कोई नहीं हटा सकता। ऐसी स्थित में वो बिना किसी सरकारी दखल या दबाव के अपना काम निष्पक्षता से कर सकता है। परंतु यदि उस निदेशक के नियुक्ति पत्र में कुछ ऐसा लिखा जाए कि उस निदेशक का कार्यकाल एक निश्चित अवधी ‘या अगले आदेश तक’ वैध है तो उस पर अप्रत्यक्ष रूप से सरकारी दबाव बना रहता है। ऐसे में वो निदेशक कितना स्वायत्त या निष्पक्ष रहेगा कहा नहीं जा सकता। 


भाजपा के वरिष्ठ नेता स्व॰ अरुण जेटली ने राज्यसभा में दिए एक बयान में कहा था, ये ख़तरा बड़ा है, रिटायर होने के बाद सरकारी पद पाने की इच्छा रिटायर होने से पहले के जज के फ़ैसलों को प्रभावित करती है, ये न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए ख़तरा है। एक अन्य बयान में जेटली ने कहा था, रिटायर होने से पहले दिए जाने वाले फ़ैसले रिटायर होने के बाद मिलने वाले पद के प्रभाव में दिए जाते हैं। जेटली का ये बयान न सिर्फ़ जजों पर लागू होता है बल्कि जाँच एजेंसियों और कुछ संविधानिक पदों पर नियुक्त लोगों पर भी लागू होता है। ऐसे में यदि सुप्रीम कोर्ट ने इन नियुक्तियों को लेकर एक ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाया है तो ये एक अच्छी पहल है जिसका स्वागत किया जाना चाहिए। 

परंतु सरकार जिस भी दल की हो वो ऐसी नियुक्तियों के लिए भेजे जाने वाले नामों के पैनल में केवल अपने चहेते अधिकारियों के ही नाम भेजती है। ऐसे में नियुक्त करने वाली समिति के पास इन्हीं नामों में से एक का चयन करने का विकल्प रहता है। यदि महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त होने वाले व्यक्तियों की सूची को सार्वजनिक किया जाए और बेदाग़ छवि वाले सेवानिवृत अधिकारियों की राय को भी लिया जाए तो ऐसी नियुक्तियों को निष्पक्ष माना जा सकता है। इस दिशा में व्यापक दिशा निर्देशों की भी आवश्यकता है। यदि ऐसा होता है तो आम जनता का विश्वास न सिर्फ़ नियुक्ति की प्रणाली में बढ़ेगा बल्कि इन संस्थाओं की कार्यशैली पर भी बढ़ेगा। 


जाँच एजेंसियाँ हो या चुनाव आयोग या कोई अन्य सांविधानिक संस्था यदि वो निष्पक्ष और स्वायत्त रहती है तो लोकतंत्र मज़बूत रहता है। यदि ऐसा नहीं होता तो लोकतंत्र ख़तरे में आ सकता है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का स्वागत करते हुए इस क़ानून का रूप दिया जाना चाहिए और इसे सुनिश्चित किया जाए कि सभी नियुक्तियों को पारदर्शिता से किया जाए न कि पक्षपात के साथ। 

प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी अपने हर चुनाव अभियान में इस बात पर ज़ोर देते हैं कि सभी विपक्षी दल भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हैं। जबकि भाजपा ईमानदार सरकार देने का वायदा करती है। पिछले हफ़्ते कर्नाटक के भाजपा विधायक के बेटे को किसी ठेकेदार से 40 लाख की रिश्वत लेते लोकायुक्त ने गिरफ़्तार करवाया। बाद में उसी विधायक के बेटे के घर से 8 करोड़ रुपये भी बरामद हुए। इसी राज्य में पिछले वर्ष एक ठेकेदार ने सार्वजनिक रूप से यह आरोप लगाया था कि भाजपा सरकार का मंत्री उससे 40 प्रतिशत कमीशन माँग रहा है। दावा तो हर राजनैतिक दल यही करता है कि वो एक ईमानदार सरकार देगा पर सत्ता में आते ही हर दल भ्रष्टाचार में आकंठ डूब जाता है। कर्नाटक का तो यह एक उदाहरण है पर क्या जनता ये कह सकती है कि उनके राज्य में भाजपा के सत्ता के आने बाद भ्रष्टाचार ख़त्म हो गया या कम हो गया? ऐसा दावा कोई नहीं कर सकता। तो क्या वजह है कि पिछले वर्षों में सीबीआई और ईडी के छापे केवल विपक्षी दलों के नेताओं पर ही पड़े हैं, सत्तारूढ़ नेताओं पर नहीं? इन विवादों से बचने के लिए ये ज़रूरी है कि मोदी जी जाँच एजेंसियों और संविधानिक संस्थाओं की पारदर्शिता और स्वायत्ता सुनिश्चित करें।   

Monday, February 27, 2023

राहुल गांधी की नई भूमिका क्या हो?


पंडित नेहरू से लेकर नरेंद्र मोदी तक हर प्रधान मंत्री वैश्विक मंच पर गर्व से घोषणा करते आए हैं कि भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। किसी भी सफल लोकतंत्र का प्रमाण यह होता है कि उसमें पक्ष और विपक्षी दल सबल भूमिका में सक्रिय रहें। कमज़ोर विपक्ष या विपक्षहीन पक्ष लोकतंत्र के पतन का रास्ता तैयार करता है। इसके साथ ही न्यायपालिका, मीडिया, चुनाव आयोग, महालेखाकार व जाँच एजेंसियों की स्वतंत्रता सुनिश्चित हो और वे निडर होकर काम कर सकें। अनुभव ये बताता है कि हमारा देश में सत्ता पक्ष विपक्ष को कमज़ोर करने का हर संभव प्रयास करता है। पर स्विट्ज़रलैंड, इंग्लैंड या अमरीका जैसे देशों में सत्तापक्ष की ओर से ऐसे अलोकतांत्रिक प्रयास प्रायः नहीं किए जाते। इसलिए उनका लोकतंत्र आदर्श माना जाता है।
 


किसी देश की अर्थव्यवस्था के स्थायित्व के लिए ज़रूरी होता है कि देश की गृह नीति ऐसी हो जिससे समाज में शांति व्यवस्था बनी रहे। सामुदायिक भेद-भाव या सांप्रदायिकता को बढ़ने का मौक़ा न दिया जाए। तभी आर्थिक प्रगति भी संभव होती है। विदेश नीति, रक्षा नीति, आर्थिक नीति और सामाजिक कल्याण की नीतियों में निरंतरता बनी रहे इसके लिए विपक्ष को भी सरकार के साथ मिलकर रचनात्मक भूमिका निभानी होती है। 

भारत में मौजूदा राजनैतिक माहौल ऐसा बन गया है, मानो पक्ष और विपक्ष एक दूसरे के पूरक न हो कर शत्रु हों। इस पतन की शुरुआत इंदिरा गांधी के ज़माने से हुई जब उन्होंने चुनी हुई प्रांतीय सरकारों को गिरा कर अपनी सरकारें बैठाना शुरू कर दिया। इससे पारस्परिक वैमनस्य भी बढ़ा और राजनीति का नैतिक पतन भी हुआ। पर यूपीए-1 और यूपीए-2 के दौर में ये काम नागालैंड, गोवा व मेघालय जैसे छोटे राज्य छोड़ कर और कहीं नहीं हुआ। इसी कारण उस दौर में देश की आर्थिक प्रगति भी तेज़ी से हुई। 


मौजूदा दौर में भाजपा के नेतृत्व ने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा देकर हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था को बहुत अस्थिर कर दिया है। ये हर हथकंडा अपना कर चुनी हुई सरकारों को गिराने का काम कर रहा है। इससे न तो समाज में स्थायित्व आ रहा है और ना ही उमंग। हर ओर हताशा और असुरक्षा फैलती जा रही है। जिसका विपरीत प्रभाव उद्यमियों, सरकारी कर्मचारियों, युवाओं और महिलाओं पर पड़ रहा है। सरकार पर एक आरोप जाँच एजेंसियों के दुरुपयोग का भी लग रहा है, जो वह हर चुनाव के पहले कर रही है। ऐसे में जहां भाजपा 2024 के चुनावों में 360 संसदीय सीटें जीतने का लक्ष्य रख कर अपनी रणनीति बना रही है वहीं, विपक्ष में भी भारी हलचल है। भाजपा की तरफ़ से एक आरोप यह लगाया जाता है कि विपक्ष के पास प्रधान मंत्री के पद के लिए कोई एक सर्वमान्य व्यक्ति नहीं है। 2004 में कांग्रेस ने चुनाव बिना प्रधान मंत्री के चेहरे के लड़ा था। पर बाद में डॉ मनमोहन सिंह के रूप में, 10 बरस तक एक ज्ञानी, शालीन, बेदाग़ प्रधान मंत्री दिया जिसने भारत की अर्थव्यवस्था को बिना प्रचार के चुपचाप काम करके नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया। मुख्यतः ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, केसीआर व अरविंद केजरीवाल जैसे दावेदारों की चर्चा अक्सर होती रहती है। उधर कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने यह कह कर कि विपक्षी एकता का प्रधान मंत्री चेहरा राहुल गांधी ही होंगे, विपक्षी दलों के सामने एक चुनौती खड़ी कर दी है। जबकि राहुल गांधी ने आजतक ऐसा कोई संकेत नहीं दिया है कि वे भी प्रधान मंत्री पद के दावेदार हैं। 


विपक्ष के हर दल के नेता और उसके कार्यकर्ता अपने दिल में ये बात अच्छी तरह जानते हैं कि यदि वे एकजुट हो कर भाजपा के विरुद्ध खड़े नहीं होते तो 2024 में सरकार बनाने का उनका मंसूबा अधूरा रह जाएगा और तब उन्हें 2029 तक इंतज़ार करना होगा। इस बीच में प्रवर्तन निदेशालय, सीबीआई व आयकर विभाग इन नेताओं और उनके परिवारों के साथ क्या सलूक करेंगे इसका ट्रेलर वो गत आठ वर्षों से देख ही रहे हैं। फिर भी अगर वे नहीं चेते तो अपनी तुच्छ महत्वाकांक्षाओं के कारण भारत के लोकतंत्र को समाप्ति की ओर बढ़ता हुआ देखेंगे। इसलिए अब उनके पास सोचने विचारने का समय नहीं है। विपक्ष के लिये तो यह ‘करो या मरो’ की स्थिति है। जैसे भाजपा और संघ परिवार बारह महीने चुनावी मोड में रहता है और साम, दाम, दंड या भेद से सरकार बनाते हैं। आज भले ही प्रांतीय चुनावों के संदर्भ में कांग्रेस, समाजवादी दल, भारत राष्ट्र समिति के नेता एक दूसरे पर बयानों के हमले कर रहे हों पर 2024 के चुनावों के लिए उनके ये बयान आत्मघाती हो सकते हैं। इसलिए इस दौर में राहुल गांधी की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो गई है।

भारत जोड़ो यात्रा में राहुल गांधी के साथ रहे कुछ लोगों ने बताया कि इस यात्रा से राहुल गांधी के व्यक्तित्व में भारी बदलाव आया है। भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में आजतक एक भी नेता ऐसा नहीं हुआ जिसने राहुल गांधी के बराबर इतनी लंबी पदयात्रा की हो और उसमें भी वह पूरी आत्मीयता के साथ समाज के हर वर्ग से दिल खोल कर मिला हो। इस ज़मीनी सच्चाई को देखने और समझने के बाद सुना है, राहुल गांधी निर्णय कर चुके हैं उन्हें प्रधान मंत्री नहीं बनना बल्कि समाज के आम आदमी को हक़ दिलाने के लिए एक संवेदनशील भूमिका में रहना है। जहां वे जनता का दुख-दर्द सरकार तक पहुँचा सकें। अगर यह सच है तो ये राहुल गांधी की बहुत बड़ी उपलब्धि है। इसलिए अब लोकतंत्र मज़बूत करने में उनकी नयी भूमिका बन सकती है।  

जहां कांग्रेस ये मानती है कि वो देश की सबसे पुरानी और सबसे बड़ी पार्टी है इसलिए उसे वरीयता दी जानी चाहिये वहीं ज़मीनी हक़ीक़त यह है कि देश के बड़े हिस्से में कांग्रेस का नाम है ही नहीं। अनेक राज्यों में प्रांतीय सरकारें बहुत मज़बूत हैं और वहाँ कांग्रेस का वजूद लुप्तप्रायः है। जिन राज्यों में कांग्रेस का जनाधार है उन राज्यों में भी उसकी स्थिति अकेले अपने बूते पर सरकार बनाने की नहीं है। इसके अपवाद भी हैं पर कमोवेश यही स्थिति है। इस हक़ीक़त को समझ और स्वीकार करके अगर राहुल गांधी एक बड़ा दिल दिखाते हैं और देश के हर बड़े विपक्षी नेता से आमने-सामने बैठ कर देश की राजनैतिक स्थिति पर खुली चर्चा करते हैं, इस वायदे के साथ, कि वे प्रधान मंत्री पद के दावेदार नहीं हैं, तो सभी विपक्षी दलों को जोड़ने में वे बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभा  सकते हैं। यही भाव ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, केसीआर, अखिलेश यादव, अरविंद केजरीवाल और स्टैलिन को भी रखना होगा। तब ही विपक्ष उन गंभीर मुद्दों पर भाजपा को चुनौती दे पायेगा जिन पर वो विफल रही है। मसलन रोज़गार, महंगाई, किसानों व मज़दूरों की दशा, लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्वायत्तता का पतन आदि। जहां तक बात भ्रष्टाचार की है, भाजपा सहित कोई भी दल बेदाग़ नहीं है। इसलिए उस मुद्दे को छोड़ कर अगर बाक़ी सवालों पर भाजपा को घेरा जाएगा तो उसके लिये चुनौती तगड़ी होगी। पर इसी प्रक्रिया से लोकतंत्र मज़बूत होगा और आम जनता को कुछ राहत मिलेगी। 

Monday, February 20, 2023

स्वरा भास्कर की शादी पर इतना शोर क्यों?


अपने क्रान्तिकारी विचारों के लिये हमेशा चर्चा में रहने वाली सिने तारिका स्वरा भास्कर ने फहाद से शादी करके भक्तों और अभक्तों को बयानबाजी के लिये नया मसाला दे दिया है। जहाँ भक्त अपनी भड़ास निकालने के लिये सोशल मीडिया पर निहायत नीचे दर्जे की फब्तियां कस रहे है वहीं अभक्त स्वरा को इस साहसी कदम के लिये बधाई दे रहे है। पहले भक्तों की बात कर लें। हिन्दू, मुसलमान के बीच शादी कोई नयी या अनहोनी बात नहीं है। 

लव जिहाद का तूफान मचाने वाले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ व भाजपा के नेताओं के परिवारों में भी ऐसी बहुत शादियां हुई हैं। भाजपा के महासचिव रामलाल की भतीजी श्रिया गुप्ता की शादी हाल ही में लखनऊ में कांग्रेस नेता के बेटे फेजान करीम से हुई तो देश और प्रदेश के भाजपा व संघ के बड़े-बड़े नेता बधाई देने पहुँचे। प्रखर हिन्दूवादी नेता व भाजपा के सांसद डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी की बेटी सुहासिनी ने विदेश सचिव के बेटे नदीम हेदर से निकाह किया और वे सुखी जीवन जी रहे हैं। 1957 में जन्में भाजपा के केन्द्रीय मंत्री व उपाध्यक्ष रहे मुख्तार अब्बास नकवी ने हिन्दू महिला सीमा से शादी की और आजतक सुखी जीवन जी रहे है। इसी तरह भाजपा के ही नेता सैयद शाहनवाज हुसैन ने हिन्दू महिला रेनू से शादी की और आजतक सुखी वैवाहिक जीवन जी रहे है। वर्तमान में केन्द्रिय मंत्री स्मृति मल्हरोत्रा अपनी सखी के पारसी पति से शादी करके स्मृति ईरानी बन गईं। बिहार के पूर्व उप-मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी की पत्नी जेसिस जॉर्ज ईसाई हैं। अटल जी की केबिनेट में मंत्री रहे सिकन्दर बख्त की पत्नी राज शर्मा थीं। 


ये कुछ उदाहरण काफी है ये बताने के लिये कि शादी दो इंसानों के बीच का मामला होता है। जो एक धर्म के भी हो सकते है और अलग-अलग धर्म के भी। इसलिए जो भक्त समुदाय स्वरा भास्कर को दहेज में फ्रिज ले जाने की सलाह देकर व्यंग कर रहा है उसे अपनी बुद्वि शुद्व कर लेनी चाहिये। अपनी पार्टनर श्रद्धा की हत्या करके उसके टुकड़े फ्रिज में रखने वाले अपराधी आफताब पूनावाला के इस जघन्य कृत्य पर देश में पिछले बरस मीडिया में खुब बवाल मचा। इसे मुसलमानों की लवजिहाद बताकर हिन्दू लड़कियों को मुसलमान लड़कों से दूर रहने की खूब सलाह दी गई। भक्तों का मानना है कि हर मुसलमान शौहर अपनी हिन्दू बीवी से ऐसा ही सलूक करता है। जबकि श्रद्धा की हत्या के बाद से भी दर्जनों मामले ऐसे सामने आ चुके है जब हिन्दू लड़के ने हिन्दू पत्नी की जघन्य हत्यायें की हैं। आश्चर्य है कि इसे न तो लव जिहाद कहा गया और न ही इस पर मीडिया उछला। पिछले हफ्ते ही साहिल गहलोत ने अपनी प्रेमिका निक्की यादव को काटकर फ्रिज में छुपा दिया। इसे भी कोई लव जिहाद नहीं कह रहा। साफ जाहिर है कि भक्तों के दिमाग में ही कचरा भरा है जो किसी अपराध को अपराध की तरह नही बल्कि लव जिहाद की तरह ही देखते है।


यह सही है कि भारतीय समाज अपनी परम्पराओं और धार्मिक अस्थाओं से बहुत गहरा जुड़ा है। इसलिए दो धर्मों के बीच के विवाह को समाज द्वारा जल्दी आम स्वीकृति नहीं मिलती। दूसरी तरफ ऐसा विवाह करने वाले युगल उगलियों पर गिने जा सकते है। स्वतंत्र और प्रगतिशील विचारों वाले ही ऐसा जोखिम उठाते है। रोचक बात ये है कि भाजपा व सघं के सबसे बड़े नेता सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत कहते है कि हिन्दूओं और मुसलमानों का डी.एन.ए. एक ही है तो फिर स्वरा और फहाद की शादी पर संघ परिवार में इतनी बेचेनी क्यों? डॉ. भागवत तो यहां तक कहते है कि ‘‘मुसलमानों के बिना नहीं बचेगा हिन्दुत्व।’’ जब सरसंघचालक के ये विचार है तो स्वरा भास्कर ने क्या गलत कर दिया जो कि संघ परिवार इतना उत्तेजित हो रहा है।

अभक्त स्वरा और फहाद की शादी से इसलिये खुश है कि इस समाचार ने भक्तों का दिल जला दिया है। बात ये भी नहीं है। स्वरा ने भक्तों का दिल जलाने के लिये फहाद से शादी नहीं की। बल्कि उसे फहाद का व्यक्तित्व आकर्षक लगा पर उसने ये कदम उठा लिया। महत्पूर्ण बात ये है कि इस शादी के लिये स्वरा ने अपना धर्म परिवर्तन नही किया। दोनों ने मजिस्ट्रेट के सामने शादी का पंजीकरण अपने परिवारों की उपस्थिति में करवाया। इसलिये मुल्ला इस शादी को शरियत के कानून से वैध नहीं माना है। उनका कहना है कि जब तक शादी करने वाले अल्लाह को समर्पित नहीं होते तब तक ये शादी उन्हें कबूल नही। पर स्वरा और फहाद इस नियम को नहीं मानते। इसलिये उन्होंने भारत के कानून के अर्न्तगत वैध विवाह किया है। आशा की जानी चाहिये कि समविचारों वाले ये दोनों युवा सुखी वैवाहिक जीवन जीयेंगे और अपने विचारों के अनुसार समाज की भलाई के लिये काम करेंगे। 

भारतीय समाज और संविधान की यही विशेषता है कि वो हर बालिग नागरिक को उसकी इच्छा के अनुसार जीवन जीने की छूट देता है। स्वरा और फहाद ने इसी छूट का लाभ उठाकर अपने वैवाहिक जीवन का फैसला लिया है तो इस पर इतना विवाद क्यों? अगर ये शादी इतनी ही गलत है तो संघ और भाजपा के बड़े नेताओं की अन्तरधर्मीय शादियों पर संघ ने ऐसा बवाल क्यों नही मचाया था? जाहिर है कि पिछले आठ वर्षों से संघ और भाजपा हर मुद्दे पर इसी तरह दो मुखोटे लगाये नजर आते हैं। इसीलिये आज देश में गम्भीर मुद्दों को छोड़कर सारी ऊर्जा ऐसे ही निरर्थक विषयों को उछालने पर बर्वाद हो रही है। जिससे समाज में वैमन्स्य पैदा हो रहा है। जिसे स्वरा और फहाद ने कम करने की दिशा में ये कदम उठाया है। जिस के लिये हम उन्हें शुभकामनायें देते है। 

Monday, February 13, 2023

भारतीयों को मॉरीशस क्यों प्रिय है?



अफ्रीकी महाद्वीप के दक्षिण-पूर्व तट से से लगभग 900 किलोमीटर दूर हिंद महासागर के तट पर और मेडागास्कर के पूर्व में स्थित द्वीपीय देश मॉरीशस भारतीयों के लिए काफ़ी आकर्षक स्थान है। अपने झील, झरनों, हरे भरे जंगलों व प्राकृतिक सुंदरता से भरपूर मॉरीशस हर नवविवाहित जोड़े के लिए बरसों से हनीमून मनाने का स्थान बन हुआ है। परंतु क्या आप जानते हैं कि इसके अलावा भी एक कारण है जिसके लिये मॉरीशस भारतीयों को बहुत प्रिय है। 

सुंदर पर्यटक स्थल होने के कारण मॉरीशस में केवल हनीमून मनाने वाले पर्यटक ही नहीं आते। बल्कि ‘टैक्स हैवन’ के नाम से मशहूर इस छोटे से द्वीप पर हर उस व्यक्ति की नज़र बनी रहती है जो किसी न किसी तरह से भारत में आयकर की चोरी करना चाहता है। चूँकि भारत और मॉरीशस के बीच हुए ‘दोहरे करारोपण संधि’ के तहत भारतीय कंपनियां मॉरीशस की किसी कंपनी से समझौता कर भारत में एफडीआई के द्वारा निवेश करवा लेती हैं।इस निवेश को निवेशकों की भाषा में ‘मॉरीशस रूट’ कहा जाता है। भारत में ‘मॉरीशस रूट’ के तहत हुए निवेश पर कोई टैक्स नहीं देना होता। ऐसा करने से वे सभी कंपनियाँ जो भारत में निवेश करवाती हैं कैपिटल गेन्स टैक्स देने से बच जाती हैं। 


कई वर्ष पहले इंटरनेशनल कंसोर्टियम ऑफ इनवेस्टीगेटिव जर्नलिस्ट्स (आईसीआईजे) की एक रिपोर्ट सार्वजनिक हुई थी। इस रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत की कई कंपनियों ने 1982 में हुए इस संधि का दुरुपयोग किया है। इस समझौते के मुताबिक भारतीय कंपनियों को मॉरीशस में टैक्स रेजीडेंसी की सुविधा मिल जाती है। जिस कारण वे  जीरो कैपिटल गेन्स वाली श्रेणी में आ जाती थीं। ज़ाहिर सी बात है कि ‘मॉरीशस रूट’ से अपना ही पैसा घुमा कर ये कंपनियाँ अपना निवेश वापिस भारत में ले आती हैं। इसी के चलते देश को करोड़ों के टैक्स का चूना लग जाता है। जबकि इस टैक्स के पैसे को देश के विकास कार्यों में लगाया जा सकता था। पर ऐसा नहीं हो रहा।  

‘मॉरीशस रूट’ हो या किसी अन्य ‘टैक्स हैवन’ देश से आने वाला निवेश, हमारे देश में ऐसा काफ़ी बड़ी मात्रा में हो रहा है। देश की कई नामी कंपनियाँ ऐसा कई बरसों से कर रही हैं। नियमों में इस कमी का फ़ायदा उठा कर ये लोग टैक्स चोरी कर देश में होने वाले विकास को पीछे धकेल रहे हैं। आम आदमी को सरकार द्वारा दी जाने वाली सुविधाएँ समय पर नहीं दी जाती तो इसके पीछे टैक्स में होने वाली चोरी ही मुख्य कारण होता है। सरकार चाहे केंद्र की हो या राज्य की, विकास कार्यों और सरकारी कर्मचारियों के वेतन के भुगतान के लिए टैक्स पर ही निर्भर करती है। यदि टैक्स में कमी आती है तो विकास कार्यों में भी बाधा आएगी।



‘मॉरीशस रूट’ से आने वाले निवेश केवल एफ़डीआई के ज़रिये ही नहीं होते। उद्योगपतियों के अलावा भ्रष्ट नेता व अफ़सर भी इसका फ़ायदा उठाते हैं। ये लोग भ्रष्टाचार के द्वारा कमाये गये अपने काले धन को हवाला के ज़रिये विदेशों में स्थित मॉरीशस जैसे ‘टैक्स हैवन’ देशों में भेजते हैं। वहाँ पर कुछ शैल कंपनियों की मदद से उसी पैसे को कुछ चुनिंदा कंपनियों के शेयरों को मन-माने दाम पर ख़रीदवाते हैं। भारत की कंपनियों के शेयरों का बढ़े हुए दाम पर बिकना शेयर मार्केट में अच्छा माना जाता है। यदि ऐसा नियमों के दायरों में हो तो ये सही होता है। परंतु ‘मॉरीशस रूट’ से होने वाले ऐसे निवेश नियम क़ानून की धज्जियाँ उड़ा कर होते हैं। जैसे ही किसी कंपनी के शेयर का दाम बढ़ता है, देश के भोले-भाले छोटे व मध्यम निवेशक भी मुनाफ़ा कमाने की नियत से इसमें निवेश करते हैं। परंतु असल में उस कंपनी के शेयर की असल क़ीमत इससे काफ़ी कम होती है। 



मिसाल के तौर पर देश के एक राज्य के पूर्व मुख्य मंत्री के बेटे की एक ठंडी पड़ी कंपनी के 10 रुपये प्रति शेयर को देश के एक भगोड़े ने 96,000 रुपये प्रति शेयर पर ख़रीदा। आरोप है कि ये अपने ही काले धन को घुमाकर किया गया। इसकी जाँच के लिये दिल्ली उच्च न्यायालय में एक याचिका भी दायर की गई। कोर्ट ने प्रवर्तन निदेशालय को नोटिस दे कर इसकी जाँच के आदेश भी दिये। परंतु जाँच को लंबा खींचने और ढुलमुल रवैये अपनाने से इस मामले की जड़ तक नहीं पहुँचा जा सका। ज़ाहिर है कि ऐसा होने पर लोगों का जाँच एजेंसियों पर से भरोसा भी डगमगाने लगता है। इसलिए जब भी कभी ऐसा विवाद खड़ा हो तो मामले की सघन जाँच होना ज़रूरी हो जाता है। 


ऐसे में अपनी ‘योग्यता’ के लिए प्रसिद्ध देश की प्रमुख जाँच एजेंसियाँ शक के घेरे में आ जाती हैं। इन एजेंसियों पर विपक्ष द्वारा लगाए गए ‘ग़लत इस्तेमाल’ के आरोप सही लगते हैं। मामला चाहे छोटे घोटाले का हो या बड़े घोटाले का, एक ही अपराध के लिए दो मापदंड कैसे हो सकते हैं? यदि देश का आम आदमी या किसान बैंक द्वारा लिये गये ऋण चुकाने में असमर्थ होता है तो बैंक की शिकायत पर पुलिस या जाँच एजेंसियाँ तुरंत कड़ी कार्यवाही करती हैं। उसकी दयनीय दशा की परवाह न करके कुर्की तक कर डालती हैं। परंतु बड़े घोटालेबाजों के साथ ऐसी सख़्ती क्यों नहीं बरती जाती?

 

जैसा कि इस कॉलम में पहले भी लिख चुके हैं, घोटालों की जाँच कर रही एजेंसियों का निष्पक्ष होना बहुत ज़रूरी है। एक जैसे अपराध पर, आरोपी का रुतबा देखे बिना, अगर एक सामान कार्यवाही होती है तो जनता के बीच ऐसा संदेश जाता है कि जाँच एजेंसियाँ अपना काम स्वायत्तता और निष्पक्ष रूप से कर रहीं हैं। सिद्धांत ये होना चाहिये कि किसी भी दोषी को बख्शा नहीं जाएगा। चाहे वो किसी भी विचारधारा या राजनैतिक दल का समर्थक क्यों न हो। क़ानून अपना काम क़ानून के दायरे में ही करेगा। मॉरीशस जैसे प्राकृतिक ख़ूबसूरती के लिए जाने जाने वाले द्वीपों को पर्यटन के लिए ही जाना जाए न कि वित्तीय घोटालों में लिए जाने जाने वाले ‘मॉरीशस रूट’ जैसे अलंकारों के लिए।  

Monday, February 6, 2023

शालिग्राम शिला तराशी नहीं जाती


अगर आस्था और श्रद्धा के बिना सत्ता पाने के उद्देश्य से व वोट बटोरने के लिए धर्म में राजनीति का प्रवेश हो तो ये कितना घातक हो सकता है इसके उदाहरण पिछले कुछ वर्षों से निरंतर देखने को मिल रहे हैं। जिससे संत और भक्त समाज बहुत व्यथित हैं। पर सत्ता के अहंकार में सत्ताधीश किसी की भावना और आस्था की कोई परवाह नहीं करते। फिर वो चाहे किसी भी धर्म के झंडाबरदार होने का दावा क्यों न करें।
 


ताज़ा विवाद अयोध्या के श्री राम मंदिर के लिए प्रभु श्री राम और सीता माता की मूर्ति निर्माण के लिए नेपाल से लाई गयीं विशाल शिलाओं के कारण पैदा हुआ है। वैदिक शास्त्रों को न मानने वाले राष्ट्रीय स्वयं संघ व भाजपा का नेतृत्व हिंदू भावनाओं का नक़दीकरण करने के लिये अपने मनोधर्म से नई-नई नौटंकियाँ करते रहते हैं। जिन शिलाओं को इतने ताम-झाम, ढोल-ताशे और मीडिया प्रचार के साथ नेपाल से अयोध्या लाया गया है उन शिलाओं को शालिग्राम बता कर उनका सारे रास्ते पूजन करवाया गया। पर अयोध्या पहुँचने पर अयोध्या का संत समाज इसके विरुद्ध खड़ा हो गया है। संत आहत हैं और आक्रोशित हैं। क्योंकि शास्त्रों के अनुसार शालिग्राम की शिला साक्षात विष्णु जी का स्वरूप मानी गई है। देवी भागवत पुराण, शिव पुराण व ब्रह्म वैयवर्त आदि पुराणों में शालिग्राम शिला की विधिवत सेवा व पूजा का विवरण आता है। इसलिए शालिग्राम शिला पर कभी भी छैनी-हथौड़ी नहीं चलाई जा सकती। ये घोर अपराध है। इसलिए अयोध्या के संतों ने घोषणा कर दी है कि वे इन शिलाओं पर छैनी-हथौड़ी नहीं चलने देंगे। 

दूसरी ओर एक विवाद यह है कि ये शिलाएँ शालिग्राम की हैं ही नहीं। क्योंकि शालिग्राम की शिलाओं का आकार प्रायः काफ़ी छोटा होता है। जिन्हें हथेली पर धारण किया जा सकता है। वैसे बड़ी शिलाएँ भी होती हैं। इन शिलाओं पर भगवान विष्णु से संबंधित अनेक चिन्ह अंकित होते हैं। जैसे शंख, चक्र, गदा व पद्म आदि। इसके अलावा इन शिलाओं के रूप, रंग और आकार-प्रकार के अनुरूप इनके विविध नाम भी होते हैं। जैसे दशावतार के नामों पर आधारित दस तरह की शालिग्राम शिलाएँ नेपाल की काली गण्डकी नदी के तल में पाई जाती  हैं। इसके अलावा इन शिलाओं के अन्य नाम व प्रकार भी होते हैं जैसे: केशव, हैयग्रीव, हिरण्यगर्भ, चतुर्भुज, गदाधार, नारायण, लक्ष्मीनारायण, रूपनारायण, माधव, गोविंद, विष्णु, मधुसूदन, त्रिविक्रम, श्रीधर, पद्मनाभ, दामोदर, सुदर्शन व वासुदेव आदि। अब जिन विशाल शिलाओं को शालिग्राम बता कर नेपाल से अयोध्या लाया गया है वे शास्त्रों के अनुसार किस श्रेणी के अन्तर्गत आती हैं यह बताने का दायित्व भी श्रीराम मंदिर निर्माण समिति के सदस्यों का है। 

अगर ये शिलाएँ शालिग्राम की नहीं हैं केवल गण्डकी नदी के किनारे उपलब्ध पत्थर मात्र ही हैं तो इन्हें शालिग्राम बता कर हिंदुओं को क्यों मूर्ख बनाया जा रहा है? अगर ये शालिग्राम हैं तो फिर इन्हें तराश कर मूर्ति बनाना घोर पाप कर्म होगा। 

गोवर्धन की तलहटी में पौराणिक संकर्षण कुंड पर संकर्षण भगवान के 34 फुट ऊँचे काले ग्रेनाइट के विशाल विग्रह के निर्माण का निर्णय 2016 में जब द ब्रज फाउंडेशन ने लिया तो उसके वरिष्ठ अधिकारी आंध्र प्रदेश में स्थित तिरूपति देवस्थान गये। वहाँ शास्त्रानुसार प्रशिक्षित 22 योग्य शिल्प-शास्त्रियों के नेतृत्व में तिरुमाला की पहाड़ियों पर विष्णुतत्व की 50 टन की एक विशाल शिला को खोज कर बड़ी-बड़ी क्रेनों की मदद से उसे पहाड़ों से नीचे लाए। वहाँ तिरूपति में उन योग्य शिल्प शास्त्रियों ने संकर्षण भगवान या बलराम जी के दिव्य विग्रह का एक वर्ष तक निर्माण किया। जिन्हें फिर ट्रेलर पर लाद कर तिरूपति से गोवर्धन (मथुरा) लाया गया। 

यहाँ ये  उल्लेख इसलिए आवश्यक है क्योंकि तिरुमाला की पहाड़ियों पर लक्ष्मी तत्व और विष्णु तत्व की विशाल शिलाएँ पाई जाती हैं। उन्हीं को तराश कर लक्ष्मी-नारायण, सीता-राम या राधा-कृष्ण के विग्रहों का निर्माण किया जाता है। श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के सदस्यों को शायद इस तथ्य की जानकारी नहीं थी। अगर होती तो नाहक ये विवाद न खड़ा होता। क्योंकि तब सही शिलाएँ तिरूपति से आ जाती। 

वृंदावन के 500 वर्ष पुराने सुप्रसिद्ध श्री राधारमण मंदिर में भगवान राधा-रमण जी का जो छोटा सा सुंदर विग्रह है वो श्री चैतन्य महाप्रभु के शिष्य गोपाल भट्ट गोस्वामी जी की अर्चित शालिग्राम शिला से स्वप्रकट विग्रह है। उसे छैनी-हथौड़ी से तराशा नहीं गया है। मंदिर के सेवायत गोस्वामीगण बताते हैं कि शालिग्राम जी की शिला पर अगर छैनी-हथौड़ी चले तो वह फ़ौरन टूट कर बिखर जाती है। अगर ये बात सही है तो फिर नेपाल से आई उन विशाल शिलाओं पर जब छैनी-हथौड़ी चलेगी तो वे टूट कर बिखर जाएँगी। यदि ऐसा नहीं होता तो फिर ये दावा ग़लत सिद्ध होगा कि वे शालिग्राम की शिलाएँ हैं। 

श्री राम मंदिर निर्माण की पूरी यात्रा भाजपा की सत्तालोलुपता से गुथी रही है। पिछले तीन दशकों में भाजपा और संघ परिवार ने नये-नये शगूफ़े छोड़ कर हिंदू भावनाओं को भड़काने और वोट भुनाने का बार-बार काम किया है। चाहे वो शिला पूजन हो और चाहे मंदिर के लिए चंदा उघाने का। 

जबकि दूसरी तरफ़ तेलंगाना के मुख्य मंत्री के चंद्रशेखर राव ने मात्र चार वर्षों में, बिना किसी से चंदा उगाहे, शास्त्रानुसार, यादगिरी गुट्टा में पौराणिक लक्ष्मी-नरसिंह देव गुफा पर तिरूपति बाला जी जैसा विशाल मंदिर और उसके चारों ओर वैदिक नगर बसा दिया। मुख्य मंत्री केसीआर का हर काम चाहे निजी हो या सार्वजनिक बड़े भव्य स्तर पर शास्त्र पारंगत पुरोहितों और आचार्यों के निर्देशन में वैदिक अनुष्ठानों से प्रारंभ होता है। पर इसका वे कोई प्रचार नहीं करते। उनका कहना है कि भगवान के प्रति श्रद्धा और धार्मिक अनुष्ठानों में विश्वास, दिखावे की, प्रचार की या राजनैतिक लाभ लेने की क्रिया नहीं होती। ये तो भगवत कृपा प्राप्त करने और अपनी आध्यात्मिक चेतना को विकसित करने के लिये आस्था होती है। पर संघ और भाजपा ने धर्म का ऐसा राजनीतीकरण किया है कि न तो उन्हें प्राण प्रतिष्ठित देव विग्रहों पर अयोध्या और काशी में बुलडोज़र चलाने में कोई संकोच होता है और न ही गोवर्धन (मथुरा) संकर्षण भगवान के प्राण प्रतिष्ठित विग्रह को पाँच वर्षों से मल-मूत्र से घिरे जलाशय में उपेक्षित खड़ा रखने में। फिर भी दावा यह कि ‘गर्व से कहो हम हिंदू हैं’।