Monday, September 17, 2018

छात्रों की किसे चिन्ता है ?

पिछले दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में छात्रा संघ के चुनाव भारी विवादों के बीच संम्पन्न हुए है। छात्र समुदाय दो खेमों में बटा हुआ था। एक तरफ भाजपा समर्थित अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और दूसरी तरफ वामपंथी, कांग्रेस और बाकी के दल थे। टक्कर कांटे की थी। वातावरण उत्तेजना से भरा हुआ था और मतगणना को लेकर दोनो जगह काफी विवाद हुआ। विश्वविद्यालय के चुनाव आयोग पर आरोप-प्रत्यारोपों का दौर चला।
छात्र राजनीति में उत्तेजना,हिंसा और हुडदंग कोई नई बात नहीं है। पर चिन्ता की बात यह है कि राष्ट्रीय राजनैतिक दलों ने जबसे विश्वविद्यालयों की राजनीति में खुलकर दखल देना शुरू किया है तब से धनबल और सत्ताबल का खुलकर प्रयोग छात्र संघ के चुनावों में होने लगा है, जिससे छात्रों के बीच अनावश्यक उत्तेजना और विद्वेष फैलता है।
अगर समर्थन देने वाले राष्ट्रीय राजनैतिक दल इन छात्रों के भविष्य और रोजगार के प्रति भी इतने भी गंभीर और तत्पर होते तो भी इन्हें माफ किया जा सकता था । पर ऐसा कुछ भी नहीं है। दल कोई भी हो छात्रों को केवल मोहरा बना कर अपना खेल खेला जाता है। जवानी की गर्मी और उत्साह में हमारे युवा भावना में बह जाते हैं और एक दिशाहीन राजनीति में फंसकर अपना काफी समय और ऊर्जा बर्बाद कर देते हैं, यह चिन्ता की बात है।
इसका मतलब यह नहीं कि विश्वविद्यालय के परिसरों में छात्र राजनीति को प्रतिबंधित कर दिया जाए। वह तो युवाओं के व्यक्तित्व के विकास में अवरोधक होगा । क्योंकि छात्र राजनीति से युवाओं में अपनी बात कहने, तर्क करने, संगठित होने और नेतृत्व देने की क्षमता विकसित होती है। जिस तरह शिक्षा के साथ खेलकूद जरूरी है, वैसे ही युवाओं के संगठनों का बनना और उनमें आपस में प्रतिस्पर्धा होना स्वस्थ्य परंपरा है। मेरे पिता जो उत्तर प्रदेश के एक सम्मानीत शिक्षाविद् और कुलपति रहे, कहा करते थे, "छात्रों में बजरंगबली की सी ऊर्जा होती है, यह उनके शिक्षकों पर है कि वे उस ऊर्जा को किस दिशा में मोड़ते हैं।"
जरूरत इस बात की है कि भारत के चुनाव आयोग के अधीनस्थ हर राज्य में एक स्थायी चुनाव आयोगों का गठन किया जाए।  जिनका दायित्व ग्राम सभा के चुनाव से लेकर , नगर-निकायों के चुनाव और छात्रों और हो सके तो किसानों और मजदूर संगठनों के चुनाव यह आयोग करवाए। ये चुनाव आयोग ऐसी नियमावली बनाए कि इन चुनावों में धांधली और गुडागर्दी की संभावना ना रहे। प्रत्याशियों के चयन से लेकर प्रचार और मतदान तक का काम व्यवस्थित और पारदर्शित प्रक्रिया के तहत हो और उसका संचालन इन चुनाव आयोगों द्वारा किया जाए। लोकतंत्र के शुद्धिकरण के लिए यह एक ठोस और स्थायी कदम होगा। इस पर अच्छी तरह देशव्यापी बहस होनी चाहिए।
इस छात्र संघ के चुनावों में दिल्ली विश्वविद्यालय के ईवीएम मशीनों के संबंध में छात्रों द्वारा जो आरोप लगाए गए हैं, वह चिन्ता की बात है। प्रश्न यह उठ रहा है कि जब इतने छोटे चुनाव में ईवीएम मशीनें संतोषजनक परिणाम की बजाए शंकाएं उत्पन्न कर रही हैं, तो 2019 के आम चुनावों में ईवीएम मशीनों की विश्वसनीयता पर जिस प्रकार राजनैतिक पार्टियां अभी से आरोप-प्रत्यारोप लगा रही हैं, इससे क्या उनकी आशंकाओं को बल मिलता नहीं दिख रहा है? मजे कि बात यह है कि ईवीएम की बात आते ही चुनाव आयोग द्वारा मीडिया के सामने आकर सफाई दी गई कि वह दिल्ली विश्वविद्यालय के चुनाव के लिए ईवीएम मशीनें मुहैया नहीं करवाई गईं  थी। छात्र संघ के चुनाव के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय ने स्वयं ईवीएम मशीनों का इत्जाम किया था।
बात यह नहीं है कि ईवीएम मशीनें कहां से आई, कौन लाया, पर आनन-फानन में जिस प्रकार जब चुनाव आयोग पर दिल्ली छात्र संघ के चुनावों में ईवीएम में गड़बड़ी के आरोप लगने लगे तो उसे सामने आकर सफाई देनी पड़ी। यह कौनसी बात हुई, कोई चुनाव आयोग पर तो आरोप लगा नहीं रहा था पर चुनाव आयोग प्रकट होता है और दिल्ली चुनाव में ईवीएम पर सफाई दे देता है। यानी चुनावा आयोग अभी से बचाव की मुद्रा में दिखने लगा है।
चुनाव कोई हो पर लोकतांत्रिक व्यवस्था की मजबूती में पारदर्शिता प्रथम बिन्दु हैं और जब चुनावों में धांधली के आरोप जोर-शोर से लगने लगे तो यह लोकतंत्र के लिए अत्यंत घातक है। समय रहते छोटे चुनाव हों या बड़े स्वच्छ और निष्पक्ष चुनाव के लिए आशंकाओं का समाधान कर लेना सबसे विश्व के बड़े लोकतंत्र के लिए महत्वपूर्ण कदम होगा। देश की राजधानी दिल्ली में हुए इन छात्र संघ के चुनावों के परिणाम देश की राजनीति में अभी से दूरगामी परिणाम परिलक्षित कर रहे हैं इसलिए हर किसी को अपनी जिम्मेदारियों को निष्पक्षता के साथ वहन कर इस महान् लोकतंक को और मजबूत बनाना चाहिए।

Monday, September 10, 2018

पेट्रोल के दाम घटते क्यों नहीं ?

हमेशा से पेट्रोल की कीमत को मुद्दा बनाने वाली भाजपा की सरकार पेट्रोल की कीमत पर ही फंस गई है। ऐसा नहीं है कि पेट्रोल की कीमत सरकार नियंत्रित नहीं कर सकती है। सच तो यह है कि पेट्रोल पर इस समय लगभग 85 प्रतिशत टैक्स वसूला जा रहा है और इसके लिए पेट्रोलियम उत्पादों को जीएसटी से बाहर रखा गया है। सरकार अगर ऐसा कर रही है तो इसका कारण मजबूरी के अलावा कुछ और नहीं हो सकता है।
ऐसा नहीं है कि पेट्रोल की कीमत कम करने के लिए उस पर दबाव नहीं है । सरकार ने जब खुद इसे मुद्दा बनाया था तो कोई कारण नहीं है वह विपक्ष को भी इसे मुद्दा बनाने का मौका दे। इसलिए कोई भी संभावना होती तो सरकार पेट्रोल की कीमत इतना नहीं बढ़ने देती। इसका कारण यह समझ में आता है कि नोटबंदी के बाद जीएसटी ही नहीं, गैर सरकारी संगठनों पर नियंत्रण, छोटी-मोटी हजारों कंपनियों पर कार्रवाई आदि कई ऐसे कारण हैं जिससे देश में काम धंधा कम हुआ है और टैक्स के रूप में पैसे कम आ रहे हैं। इनमें कुछ कार्रवाई तो वाजिब है और सरकार इसका श्रेय भी ले सकती थी । पर पैसे कम आ रहे हैं – यह स्वीकार करना मुश्किल है। इसलिए सरकार अपने अच्छे काम का श्रेय भी नहीं ले पा रही है।
दूसरी ओर, बहुत सारी कार्रवाई एक साथ किए जाने से आर्थिक स्थिति खराब हुई है, इसमें कोई शक नहीं है। इसलिए सरकार को अपने खर्चे पूरे करने का सबसे आसान विकल्प यही मिला है। इसलिए पेट्रोल की कीमत कम नहीं हो रही है।
सरकार माने या न माने यह नीतिगत फैसला है । तभी पेट्रोलियम पदार्थों को जानबूझकर जीएसटी से अलग रखा गया है वरना जीएसटी में इसके लिए एक अलग और सबसे ऊंचा स्लैब रखना पड़ता और यह बात सार्वजनिक हो जाती कि सरकार पेट्रोल पर सबसे ज्यादा टैक्स ले रही है। पेट्रोलियम पदार्थों को जीएसटी में लाने की मांग होती रही है पर सरकार इसे टाल जाती है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि मंदी के कारण भूसंपदा बाजार की हालत भी खराब है। यही नहीं, सरकार ने अभी तक पेट्रोल पर इतना ज्यादा टैक्स वसूलने का कोई संतोषजनक कारण नहीं बताया है। इससे भी लगता है कि सरकार नोटबंदी के भारी खर्च से उबर नहीं पाई है। 
दिल्ली में रहने वाले पुराने लोग जानते हैं कि कैसे मोहल्ले के मोहल्ले दो-चार साल में बस जाते थे। पर अभी हालत यह है कि नोएडा और गुड़गांव में हजारों बिल्डिंग और फ्लैट बनकर तैयार खड़े हैं। वर्षों से बसे नहीं हैं। कॉमनवेल्थ गेम्स विलेज तकनीकी तौर पर भले बिक गया हो पर इलाका अभी ठीक से बसा नहीं है। वहां निवेशकों का पैसा लगा था और डीडीए के हिस्से का एक फ्लैट एक सरकारी बैंक ने नीलामी में सात करोड़ रुपए में खरीदा था जो अब लगभग तीन करोड़ में उपलब्ध है। खरीदार नहीं है। सैकड़ों फ्लैट अभी खाली हैं यानी निवेशकों का पैसा फंसा हुआ है। असली उपयोगकर्ता नहीं खरीद पाए हैं।
ऐसी हालत में जाहिर है, सरकार को टैक्स और राजस्व भी कम आएंगे और इन सबकी भऱपाई जीएसटी से तो हो नहीं सकती। क्योंकि जीएसटी को अच्छा बनाने के लिए हर मांग पर टैक्स कम करना पड़ता है। ऐसे में पेट्रोल सबसे आसान विकल्प है। बिक्री होगी ही और संयोग से अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमतें कम होने से सरकारी राजस्व की अच्छी भरपाई हुई। अब जब कीमतें बढ़ रही हैं तो पुरानी नीतियों के कारण सरकार उसपर लगाम नहीं लगा सकती और विरोध बढ़ रहा है। समस्या तब आएगी जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमतें लगातार बढ़ती जाए। वैसी हालत में सरकार को टैक्स कम करके दाम कम करने ही पड़ेंगे। पर वो स्थिति क्या होगी, कब आएगी या आएगी भी कि नहीं अभी कुछ कहा नहीं जा सकता।
सरकार की मंशा ठीक हो सकती है। पर देश की सामाजिक और आर्थिक दशा की नब्ज पर उंगली रखने वाले विद्वान उससे सहमत नहीं है। उनका कहना है कि बुलेट ट्रेन और स्मार्ट सिटी जैसी महत्वाकांक्षी और मोटी रकम खर्च करने वाली योजनाओं से न तो गरीबी दूर होगी, न देशभर में रोजगार का सृजन होगा और न ही व्यापार में बढ़ोत्तरी होगी। चीन इसका जीता-जागता उदाहरण है। जिसने अपने पुराने नगरों को तोड़-तोड़कर अति आधुनिक नए नगर बसा दिए। उनमें हाईवे और मॉल जैसी सारी सुविधाएं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सर्वश्रेष्ठ दर्जे की बनाई गईं। पर जिस गति से चीन का आधुनिकरण हुआ, उस गति से वहां की आमजनता की आमदनी नहीं बढ़ी। नतीजा यह है कि चीन की तरक्की कागजी बनकर रह गई।
पिछले 6 महीने में जिस तेजी से चीन की अर्थव्यवस्था का पतन हुआ है, उससे पूरी दुनिया को झटका लगा है। फिर भी अगर भारत सबक न ले और अपने गांवों की बुनियादी समस्याओं को दूर किए बिना बड़ी छलांग लगाने की जुगत में रहे, तो मुंह की खानी पड़ सकती है। कुल मिलाकर जरूरत धरातल पर उतरने की है। यह सब देखकर लगता है कि भारत की आर्थिक स्थिति इतनी बुरी नहीं कि आमआदमी को अपना जीवनयापन करना कठिन लगे। पर जाहिर है कि पुरानी व्यवस्थाओं के कारण काफी कुछ अभी भी पटरी नहीं आया है। जिसका खामियाजा आमजनता भुगत रही है।

Monday, September 3, 2018

असली संन्यासिन सुधा भारद्वाज


पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने लोकतंत्र के हित मे एक बड़ा फैसला लिया जब सुधा भारद्वाज की पुणे पुलिस द्वारा गिरफ्तारी को नाजायज ठहरा दिया।

मैं सुधा को 1995 से जनता हूँ, जब वे जिद करके मुझे दिल्ली से छत्तीसगढ़ ले गई थीं। जहां उनके संगठन ने अनेक शहरों और गांवों में मेरी जन सभाएं करवाईं थीं। जिसका उल्लेख मेरी पुस्तक में भी है। उनका अत्यंत  सादगी भरा मजदूरों जैसा  झुग्गी झोपड़ी का रहन सहन देखकर मैं हिल गया था। हालांकि मेरी विचारधारा सनातन धर्म पर आधारित है और उनकी वामपंथी। पर मेरा मानना है कि  मनुष्य अपने सतकर्मों, सेवा व त्याग  के प्रभाव से ही संत कोटि को प्राप्त करता है। सुधा भारद्वाज को असली संत की उपाधि देना अनुचित नहीं होगा। उनके जैसा होना हमारे आपके बस में शायद ही संभव हो। आगे जो लिख रहा हूँ वो साथी महेंद्र दुबे ने भेजा है और मैं इससे शतप्रतिशत सहमत हूँ इसलिये ज्यों का त्यों जोड़ रहा हूँ।

सुधा भारद्वाज कोंकणी ब्राह्मण परिवार की इकलौती संतान हैं। जोकि पेशे से एक यूनियनिस्ट, एक्टिविस्ट और वकील हैं। मजदूर बस्ती में रहने वाली सुधा भारद्वराज 1978 की आईआईटी कानपुर की टॉपर हैं। जो जन्म से अमेरिकन सिटीजन थीं और इंगलैंड में उनकी प्राइमरी शिक्षा हुई है। कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है कि इस ‘बैक ग्राउंड’ का कोई शख्स मजदूरों के साथ उनकी बस्ती में रहते हुए बिना दूध की चाय और भात सब्जी पर गुजारा करता होगा। जीवन के इस पड़ाव में भी अत्यंत साधारण लिबास में माथे पर एक बिंदी लगाये मजदूर, किसान और कमजोर वर्ग के लोगों के लिये छत्तीसगढ़ के शहर और गांव की दौड़ लगाती यह महिला अपनी असाधारण प्रतिभा, बेहतरीन अकादमिक योग्यता के विषय में बताना और अपने काम का प्रचार करना कभी पसन्द नहीं करती हैं।

सुधा की मां कृष्णा भारद्वाज जेएनयू में इकोनामिक्स डिपार्टमेंट की डीन हुआ करती थी। जो एक बेहतरीन शास्त्रीय गायिका थीं और नोबेल पुरुस्कार प्राप्त अमर्त्य सेन की समकालीन भी थी। आज भी सुधा की मां की याद में हर साल जेएनयू में ‘कृष्णा मेमोरियल लेक्चर’ होता है। जिसमे देश के नामचीन शिक्षाविद् और विद्वान शरीक होते है।

आईआईटी से टॉपर होकर निकलने के बाद भी सुधा को कैरियर का आकर्षण खूंटे से बांधे नहीं रख सका और अपने वामपंथी रुझान के कारण वह 80 के दशक में छत्तीसगढ़ के ‘करिश्माई यूनियन लीडर’ शंकर गुहा नियोगी के संपर्क में आयी और फिर उन्होंने छत्तीसगढ़ को अपना कार्यक्षेत्र बना लिया।

पिछले 35 साल से अधिक समय से छत्तीसगढ़ में मजदूर, किसान और गरीबों की लड़ाई सड़क और कोर्ट में लड़ते लड़ते इन्होंने अपनी मां के ‘प्रोविडेंट फंड’ का सारा पैसा तक उड़ा दिया। उनकी मां ने दिल्ली में एक मकान खरीद रखा था, जो आजकल उनके नाम पर है मगर बस नाम पर ही है। मकान किराए पर चढ़ाया हुआ है जिसका किराया मजदुर यूनियन के खाते में जमा करने का फरमान उन्होंने किरायेदार को दिया हुआ है। जिस अमेरिकन सिटीजनशीप को पाने के लिये लोग कुछ भी करने को तैयार रहते है ‘बाई बर्थ’ हासिल उस अमेरिकन नागरिकता को वो बहुत पहले अमेरिकन एम्बेसी में फेंक कर आ चुकी है।

हिंदुस्तान में सामाजिक आंदोलन और सामाजिक न्याय के बड़े से बड़े नाम सुविधा सम्पन्न हैं और अपने काम से ज्यादा अपनी पहुंच और अपने विस्तार के लिए जाने जाते हैं। मगर जिनके लिए वो काम कर रहे होते हैं, उनकी हालत में सुधार की कीमत पर अपनी विलासिता छोड़ने को कभी तैयार नहीं दिखते हैं। इधर सुधा हैं जो ‘अमेरिकन सिटिजनशीप’ और ‘आईआईटी टॉपर’ होने के गुमान को त्याग कर, गुमनामी में गुमनामों की लड़ाई लड़ते हुए अपना जीवन होम कर चुकी है। बिना फीस के गरीब, गुरबों की वकालत करने वाली और हाई कोर्ट जज बनाये जाने का ऑफर विनम्रतापूर्वक ठुकरा चुकी सुधा का शरीर अब जवाब देना चाहता है। 35-40 साल से दौड़ते-दौड़ते उनके घुटने घिस चुके है। उनके मित्र डॉक्टर उन्हें बिस्तर से बांध देना चाहते है। मगर गरीब, किसान और मजदूर की एक हलकी सी चीख सुनते ही उनके पैरों में चक्के लग जाते हैं और फिर वो अपने शरीर की सुनती नहीं।
मगर यह कहा जा सकता है कि यदि उन्होंने अपने काम का 10 प्रतिशत भी प्रचार किया होता तो दुनिया का कोई ऐसा पुरुस्कार न होगा जो उन्हें पाकर खुद को सम्मानित महसूस न कर रहा होता। सुधा होना मेरे आपके बस की बात नहीं है। सुधा सिर्फ सुधा ही हो सकती थीं और कोई नही।

Monday, August 27, 2018

अलविदा कुलदीप नैय्यर - पत्रकारिता का स्तंभ ढह गया

95 वर्ष की उम्र में आखिरी दिन तक भी अपना साप्ताहिक कॉलम लिखने वाले पत्रकारिता के स्तंभ कुलदीप नैय्यर अब नहीं रहे। उनकी अन्तेष्टि में तीन पीढ़ियों के राजनेता, पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता मौजूद थे। जो इस बात का प्रमाण है कि वे पूरे जीवन सामाजिक सरोकार से जुडे़ रहे। दक्षिणी एशियाई मूल के उनके पाठक और प्रशंसक पूरे विश्व में फैले हैं। क्योंकि दुनियाभर के तमाम अखबारों में अनेक भाषाओं में उनके लेख छपते थे।
मुझे पत्रकारिता में दिल्ली लाने वाले वही थे। 1984 में मैंने उन्हें एक सार्वजनिक व्याख्यान के लिए मुरादाबाद बुलाया। चूंकि वे मेरे मामा-मामी के बहुत घनिष्ठ मित्र थे, इसलिए हमारे परिवार से भावनात्मक रूप से जुड़े थे। भाषण देने के बाद, जब वो मेरे घर लंच पर आए, तो मेरे माता-पिता से बोले कि विनीत में बहुत संभावनाऐं हैं,  इसलिए इसे दिल्ली आकर पत्रकारिता करनी चाहिए। 1978 से 82 के बीच जब मैं जेएनयू में पढ़ता था, तब लगभग हर शनिवार को कुलदीप अंकल और भारती आंटी से इंडिया गेट के पास अपने मामा के निवास पर भेंट होती थी। जहां अक्सर गिरिलाल जैन, अरूण शौरी और निखिल चक्रवर्ती जैसे नामी पत्रकार भी आया करते थे। रात्रि भोजन पर राष्ट्रीय मुद्दों पर चर्चा होती थी। गिरि अंकल ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ के एडिटर थे। उनका व्यक्तित्व, व्यवहार, चिंतन और लेखन एक संपादक जैसा ही था। जबकि कुलदीप अंकल अंत तक एक संवाददाता की भूमिका में रहे। जिन्हें हर खास-ओ-आम व्यक्ति से बात करने में रूचि होती थी। इस तरह वह समाज की नब्ज पर हमेशा अपनी अंगुलियां रखते थे। हालांकि वे भी ‘इंडियन एक्सप्रेस’ जैसे बड़े अखबार के संपादक रहे थे, पर उन्हें कुर्सी पर बैठकर सोचना और लिखना पसंद नहीं था।
वे हर सामाजिक आंदोलन से भी जुड़े रहते थे। यात्रा की तकलीफ की परवाह न करते हुए, देश के किसी भी कोने, में कभी भी जाने को तैयार रहते थे, जहां उन्हें सुनने वाले लोग मौजूद हों।
जब मैंने भारत में पहली बार ‘स्वतंत्र हिंदी टीवी पत्रकारिता’ को ‘कालचक्र विडियो मैगज़ीन’ के माध्यम से 1989 में शुरू किया, तो विडियो समाचारों पर सैंसर लगता था। मैंने इसके विरूद्ध एक लंबी लड़ाई लड़ी। जिसमें हर मौके पर कुलदीप नैय्यर साहब बुलाने पर मेरे साथ खड़े होते थे।
उनमें शायद धार्मिक आस्था नहीं थी। जबकि भारती आंटी में यह कूट-कूट कर भरी है। मुझे याद है कि 1988 में भारती आंटी और मेरे मामा-मामी मेरे साथ ‘स्वामी हरिदास संगीत सम्मेलन’ सुनने वृंदावन गये। जब हम बांके बिहारी जी के दर्शन करके निकल रहे थे, तब आंटी ने बताया कि किसी भी देवालय में दर्शन के बाद कुछ देर बैठना चाहिए। जिससे वहां की ऊर्जा हमारे शरीर में प्रवेश कर जाए।
जिन दिनों कुलदीप अंकल लंदन में भारत के राजदूत थे, तब भी वे एक सामान्य व्यक्ति की तरह रहे। बड़ी सहजता से लंदन के ‘साउथ हॉल’ इलाके में रहने वाले सिक्ख समुदाय से उन्होंने अंतरंग व्यवहार बनाने का सफल प्रयास किया। ये ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ के बाद का वक्त था। जब सिक्ख समुदाय भारत की मुख्य धारा से भावनात्मक रूप में कुछ अलग-थलक पड़ गया था। हालांकि ‘कैरियर डिप्लोमेट्स’ को कुलदीप अंकल का ये सहज व्यवहार गले नहीं उतरा। पर मैं समझता हूं कि किसी भी राजदूत के लिए अपने देश के लोगों के साथ भावनात्मक स्तर पर संबंध स्थापित करना जरूरी होता है।
उनकी विचारधारा धर्मनिरपेक्षता और वामपंथ की तरफ झुकी हुई थी। पर आपातकाल में उन्होंने कांग्रेस का घोर विरोध किया था। जिसके कारण उन्हें जेल में भी रहना पड़ा था। पर जब कांग्रेस के समर्थक से जनता पार्टी की सरकार बनी, तो उन्हें भारत का राजदूत बनाया गया। चूंकि वे दिल्ली के उस बौद्धिक पंजाबी समूह का प्रतिनिधित्व करते थे, जो विभाजन के बाद पाकिस्तान से दिल्ली आया था इसलिए उनके साथ उनकी घनिष्ठता गहरी थी। उनके स्वसुर भीमसेन सच्चर जी पंजाब के मुख्यमंत्री भी रहे थे। इस संबंध का उन्हें जीवनभर लाभ मिला। समाचार पत्र-पत्रिकाओं के पंजाबी संपादक हमेशा उनकी प्रतिष्ठावृद्धि में सहयोग करते रहे। जब इंद्र कुमार गुजराल भारत के प्रधानमंत्री बने, तो उन्होंने अपने घनिष्ठ मित्र नैय्यर साहब को राज्यसभा में मनोनीत करवा दिया।
राज्यसभा के सांसद रहते हुए, उनसे मेरा एक बार मन मुटाव हो गया। कारण यह था कि ‘जैन हवाला कांड’ को लेकर जो जोखिम भरा युद्ध में लड़ रहा था, उस पर उन्होंने बहुत सतही लेख लिखा। जिसका कारण था कि हवाला कांड में अनेक आरोपी नेता उनके घनिष्ठ मित्र थे। दूसरा मन मुटाव का कारण यह था कि जब मैंने भारत के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जे.एस. वर्मा के उस अनैतिक आचरण का तथ्यों के साथ खुलासा किया कि कैसे उन्होंने ‘जैन हवाला कांड’ को इतनी ऊँचाई तक ले जाकर फिर से दबाने की अनुचित भूमिका निभाई, तो देश के मीडिया और संसद में तूफान मच गया था। उस वक्त कुलदीप अंकल ने जस्टिस वर्मा से मिलकर उनकी प्रशस्ति में जो कॉलम लिखा, वह जस्टिस वर्मा की गिरती साख का ‘डैमेज कंट्रोल’ करने वाला था। ऐसा करने का उनका एक निजी कारण था। जिसे मेरी मामी ने भारती आंटी से पूछकर मुझे बताया। इसलिए मैं उसका यहां उल्लेख नहीं करूंगा।
इसके बावजूद मेरे मन में उनके प्रति सम्मान में कभी कोई कमी नहीं रही। वे मुझे जहां कहीं भी देश में दिखे, फिर वो चाहे सार्वजनिक समारोह ही क्यों न हो, मैंने बिना हिचके तुरंत उनके चरण स्पर्श किये। क्योंकि हमारी सनातन संस्कृति में हमें अपनो से बड़ों का सम्मान करना सिखाया जाता है। चाहे उनके उस आचरण से मेरे मन को काफी ठेस लगी थी। उनको शत-शत नमन। वे पत्रकारों की आने वाली पीढ़ियों के लिए सदैव प्ररेणा स्रोत बने रहेंगे।

Monday, August 20, 2018

करनी ऐसी कर चलो, तुम हंसो जग रोए ..... अलविदा अटल जी

अटल जी को जो पूरे देश और दुनिया का प्यार मिला, वो उनके पद के कारण नहीं है। मेरा मानना है कि कोई व्यक्ति अपने पद, यश, ज्ञान या वैभव से बड़ा नहीं होता बल्कि उसके संस्कार उसे बड़ा और सम्माननीय बनाते हैं। अटल जी में ऐसे संस्कार थे। पत्रकारिता, साहित्य और राजनीति से जुड़े हर उस व्यक्ति के साथ अटल जी का आत्मीय संबंध होता था, जो उन्हें जानता था।
मेरे परिवार का एक नाता और भी था। अटल जी की बेटी नमिता, जिसने उन्हें मुखाग्नि दी, वो हमेशा बड़े स्नेह से मुझे विनीत भैया कहती है। उसकी बेटी निहारिका, हमारे छोटे बेटे ईशित नारायण के साथ सरदार पटेल विद्यालय, दिल्ली में सहपाठी थी और अभिभावकों की बैठकों में हम अक्सर मिलते थे। अटल जी के दामाद रंजन भट्टाचार्य भी हमारे प्रिय रहे हैं। क्योंकि इन तीनो से हमारा तीन दशकों का संबंध रहा है।
अटल जी से जुड़े इतने संस्मरण हैं कि सबको याद करूं, तो एक पुस्तक लिख जाऐगी। 1989 में जब मैंने भारत की पहली हिंदी टीवी पत्रिका ‘कालचक्र’ जारी की, तो पूरे मीडिया जगत में हलचल मच गई। सरकारी नियंत्रण वाले दूरदर्शन के मुकाबले स्वतंत्र टीवी समाचार के मेरे प्रयास से विपक्ष के नेता बहुत उत्साहित थे। जिनमें से रामविलास पासवान, अजीत सिंह, जार्ज फर्नाडीज और अटल बिहारी बाजपेयी ने हृदय से प्रयास किया कि मुझे आर्थिक मदद दिलवाई जाए। पर अपनी सम्पादकीय स्वतंत्रता को सुरक्षित रखने के लिए मैंने उनके प्रस्ताव स्वीकार नहीं किये। हलांकि उनका ये भाव बहुत अच्छा लगा।
1999 में प्रकाशित मेरी पुस्तक ‘भ्रष्टाचार, आतंकवाद और हवाला कारोबार’ में अटल जी के साथ हवाला कांड के दौर में 1993 से 2000 के बीच हुई वार्ताओं और घटनाओं का खट्टा मीठा विस्तृत ब्यौरा है। जो vineetnarain.net   पर ऑनलाइन किताब में पढा जा सकता है।
1995 में जिन दिनों हवाला कांड में राजनेताओं के घर सीबीआई के छापे पड़ने शुरू हुए, उन्हीं दिनों एक दिन अखबार में खबर छपी कि अटल बिहारी बाजपेयी का नाम भी जैन डायरी में है। उस दिन बाजपेयी जी के कई फोन मुझे आए। मैं जब मिलने पहुंचा, तो कुछ चिंतित थे, बोले, ‘‘ क्या तुम मेरे घर भी छापा डलवाओगे?’’ मैंने हंसकर पूछा- क्या आपने जैन बंधुओ से पैसे लिए थे, चिंता मत कीजिए, आपका नाम जैन डायरी में नहीं है। तब वे मुस्कुराए और गरम-गरम जलेबी और पकौड़ी के साथ नाश्ता करवाया।
अटल जी अपने विरोधी विचारधारा के राजनेताओं और लोगों का पूरा सम्मान करते थे और उनके सुझावों को गंभीरता से लेते थे। विनम्रता इतनी कि हम जैसे युवा पत्रकारों को भी वे हमारी कार तक छोड़ने के लिए चलकर आते थे। जो राजनैतिक कार्यकर्ता आज अटल जी के गुणगान में एक दूसरे को पीछे छोड़ने में जुटे हैं,क्या वे अटल जी के व्यक्तित्व से अपने विरोधियों का भी सम्मान करना और सबके प्रति सदभाव रखने का गुण सीखेंगे या आत्मश्लाघा और अहंकार में डूबे रहकर लोकतंत्र को रसातल में ले जाएंगे ?
अटल जी ने प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए, देश के लिए कई बड़े काम किये। उनका चलाया सर्व शिक्षा अभियान  एक ऐसी ही पहल थी, जिसे 2001 में लॉन्च किया गया था। इस योजना में 6 से 14 वर्ष उम्र के बच्चों को मुफ्त प्राथमिक शिक्षा देने का प्रावधान किया गया था। इस योजना की बदौलत 4 साल में ही स्कूल नही जाने वाले बच्चों की संख्या में 60 फीसदी की कमी आई। आज भी सर्व शिक्षा अभियान के तहत देश के करोड़ों बच्चों को मुफ्त में बेसिक शिक्षा दी जा रही है।
प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना उनकी ऐसी ही दूसरी पहल थी। इस योजना में देश के दूर-दराज के गावों को सड़कों से जोड़ने का काम किया गया। पूर्व प्रधानमत्री अटल बिहारी वाजपेयी की प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना ने गावों तक सड़क पहुंचाने का काम किया। इसके अलावा अटल जी द्वारा शुरू की गई स्वर्णिम चतुर्भुज योजना ने चेन्नई, कोलकाता, दिल्ली और मुंबई को हाइवेज के नेटवर्क से जोड़ने में मदद की।
संचार क्रांति के क्षेत्र में भी उन्होंने क्रांति की। उन्होने ही टेलिकॉम फर्म्स के लिए फिक्स्ड लाइसेंस फीस को हटा कर रेवेन्यू-शेयरिंग की व्यवस्था लाए थे। जिसके बाद भारत संचार निगम लिमिटेड (BSNL) का गठन किया गया था।
अटल बिहारी वाजपेयी ने सरकार का दखल कम करने के लिए निजीकरण को अहमियत दी। जिसके बाद सरकार ने एक अलग विनिवेश मंत्रालय का गठन किया था। इसी के तहत भारत एल्युमीनियम कंपनी (Balco), हिंदुस्तान जिंक, इंडिया पेट्रोकेमिकल्स कॉरपोरेशन लिमिटेड और वीएसएनएल का विनिवेश किया गया था।
वायपेजी सरकार वित्तिय उत्तरदायित्व अधिनियम भी लेकर आई थी। इस अधिनियम में देश का राजकोषीय घाटा कम करने का लक्ष्य रखा गया था। इस कदम के जरिए ही पब्लिक सेक्टर में सेविंग्स को बढ़ावा दिया गया।
कविता और साहित्य के क्षेत्र में उनके योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता। कहते हैं कि' वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान'। कवि भावुक हृदय होता है। ऐसे अच्छे इंसान को भी डॉ सुब्रमनियन स्वामी ने धोखा दिया, जब भाजपा सरकार को उन्होंने गिरवा दिया। जिससे वाजपेयी जी को बहुत धक्का लगा। अपनी लिखी पुस्तक में डा. स्वामी ने बाजपेयी जी को खूब गरियाया है। दुश्मन की भी मौत पर संवेदना प्रकट करने वाली हिंदू संस्कृति के रक्षक होने का दावा करने वाले डा. स्वामी के मुंह से अटल जी के निधन पर श्रद्धाजंलि का एक भी शब्द नहीं निकला।
ऐसे धोखेबाज व्यक्ति को भाजपा क्यों ढो रही है? अगले चुनावों में जब वाजपेयी जी भाजपा का ब्रांड बनकर मतदाता को दिखाये जाऐंगे, तब मतदाता और विपक्षी दल ये सवाल करेंगे कि अगर वाजपेयी जी को भाजपा और संघ इतना मान देता है, तो उन्हें धोखा देने वाले और उनसे घृणा करने वाले डा. स्वामी को अपने साथ कैसे खड़ा रख सकता है?

Monday, August 13, 2018

योगी आदित्यानाथ जी ध्यान दें!

पिछले दिनों जब उ.प्र. में निर्माण संबंधी हुई अनेक दुर्घटनाओं के बाद उ.प्र. के सिविल इंजीनियरों ने एक खुला पत्र मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी को संबोधित करते हुए लिखा। जिसका मसौदा निम्न प्रकार है-‘‘आज उत्तर प्रदेश में एक्सप्रेसवे धंस रहे हैं। बनारस में ब्रिज के बीम डिस्प्लेसड हो रहे हैं। सड़कों पर गढ्ढो के कारण दुर्घटनाएं हो रही हैं। नहरें टूट रही हैं। खेतों को समुचित पानी नहीं मिल पा रहा। बाँध पानी से लबालब भर नहीं पा रहे। किसी शहर का भी ड्रेनेज सही नहीं हैं। इन प्रोजेक्ट्स का पूरा फायदा लोगों को नहीं मिल पा रहा। शहरों के सीवर जाम हैं।  आखिर क्यों ? कभी किसी इंजीनयर से पूछा जाएगा या उन्हें केवल दण्डित किया जाएगा ? बच्चा भी 9 माह  पेट में पलता है तभी स्वस्थ पैदा होता है और आगे जीवन में स्वस्थ रहने की संभावना ज्यादा होती है। यहां तो इंजिनीयरों को बस डेट दी जाती है और फिर शुरू होता है समीक्षा - समीक्षा का टी 20 खेल। यह नही पूछा जाता की प्रोजेक्ट कब तक पूरा हो सकता है। दबाव होता है कि फलां तारीख तक प्रोजेक्ट पूरा हो जाए। ना तो मैनपावर मिलेगी ना आवश्यक सुविधाएं।

महाराज जी यह निर्माण का कार्य है। विध्वंस की तरह मत करवाइये। समय दीजिये। डी.पी.आर. बनाने में बहुत समय चाहिए होता है। एस्टीमेट बनाने में बहुत सारी जानकारियां चाहिए। दरों की एनालिसिस करना आसान काम नही है। कोई भी स्ट्रक्चर एक इंजीनयर के लिए उसकी कलात्मक अभिव्यक्ति है। उसका निर्माण एक सुखद पर पीड़ादायक घटना है। समय पूर्व प्रसव की तरह का व्यवहार किसी भी संरचना के साथ मत कीजिये। इंजिनीयरों ने राष्ट्र के विकास में बहुत योगदान दिया है। उनको पार्टी कार्यकताओं की हठधर्मिता के सहारे मत छोड़िये। नहीं तो कोई भी निर्माण मात्र विध्वंस का कारण ही बनेगा। विकास की आड़ में ठेकेदारी और जेब भरने का उपक्रम नही चलना चाहिए न।  ना तो भारत रत्न विश्वशरैया जी ने ना ही श्रीधरन जी ने दबाव में काम किया था। तभी उन्होंने मेट्रो जैसी धरोहरों का निर्माण किया।

हर राजनैतिक दल सत्तारूढ दल को भ्रष्टाचारी बताकर अपना चुनाव अभियान चलाता है और जनता से भ्रष्टाचारमुक्त शासन देने का वायदा करता है। पर हकीकत यह है कि हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और। ऐसा कभी नहीं सुना जाता कि किसी निर्माण कंपनी को उसके अनुभव और गुणवत्ता के आधार पर योनजाओं के क्रियान्वयन के लिए चुना जाए। यों चुनने की प्रक्रिया अब काफी पारदर्शी बना दी गई है। जिसमें ऑनलाईन निविदाऐं भरी जाती है और टैक्निकल व फायनेंसियल बिडिंग का तुलनात्मक अध्ययन करके ठेके आवंटित किये जाते हैं। पर ये सब भी एक नौटंकी से ज्यादा कुछ नहीं है। सरकार किसी भी दल की क्यों न हो, उसके मंत्री सत्ता में आते ही मोटी कमाई के तरीके खोजने लगते हैं और नौकरशाही के भ्रष्ट अधिकारियों की मिलीभगत से सभी परियोजनाऐं अपने चहेतों को दिलवाते हैं।’’

मंत्री के चहेते का मतलब होता है, जो मंत्री के घर जाकर निविदा दाखिल करने से पहले ही मंत्री को अग्रिम रूप से मोटी रकम देकर, इस बात को सुनिश्चित कर ले कि जो भी ठेका मिलेगा, वो उसे ही मिलेगा। इसके बाद निविदा की सारी प्रक्रिया एक ढकोसला मात्र होती है। और वही होता है जो, ‘जो मंजूरे मंत्री जी होता है’।

योगी जी जब सत्ता में आए थे, तो उन्होंने भी बहुत कोशिश की कि भ्रष्टाचारविहीन शासन दें। पर आज तक कुछ भी नहीं बदला। जो कुछ पहले चल रहा था। उससे और ज्यादा भ्रष्टाचार आज सार्वजनिक निर्माण के क्षेत्र में अनुभव किया जा रहा है। मैंने कई बार इस मुद्दे उठाया है कि भ्रष्टाचार का असली कारण ‘करप्शन इन डिजाईन’ होता है। यानि योजना बनाते समय ही मोटा पैसा खाने की व्यवस्था बना ली जाती है। जैसा उ.प्र. के पर्यटन विभाग में हमें अनुभव हुआ। जब उसने पिछले वर्ष ब्रज के 9 कुंडों के जीर्णोंद्धार का ठेका 77 करोड़ रूपये में उठा दिया। हमने इसका पुरजोर विरोध किया और परियोजना में तकनीकी खामिया उजागर की, तो अब यही काम मात्र 27 करोड़ रूपये में होने जा रहा है। यानि 50 करोड़ रूपया सीधे किसी की जेब में जाने वाले थे। इतना ही नहीं योगी जी ने बड़े प्रचार के साथ जिस ‘ब्रज तीर्थ विकास परिषद्’ की स्थापना की है, उसके मूल संविधान में छेड़छाड़ करके वर्तमान उपाध्यक्ष शैलजाकांत मिश्र ने उसे भारी भ्रष्टाचार करने के लिए सुगम बना दिया है। मूल संविधान में परिषद् में पर्यटन से संबंधित अनेक विशेषज्ञों को लेने का प्राविधान था, जिसे श्री मिश्रा ने बड़े गोपनीय तरीके से हटवाकर, ऐसी व्यवस्था बना ली कि अब किसी भी साधारण सामाजिक कार्यकर्ता या दलालनुमा व्यक्ति को बोर्ड में लाया जा सकता है। इसी तरह ‘सी.ई.ओ’ की ताकत भी इतनी बढ़ा दी कि अब कोई उन्हें ब्रज को बर्बाद करने से नहीं रोक सकता। केवल दो लोगों के अहमकपन से भगवान श्रीकृष्ण के ब्रज का विकास नियंत्रित हो गया है। जिसके निश्चित रूप से घातक परिणाम सामने आऐंगे और तब ये योगी सरकार के लिए ‘ताज कोरिडोर’ जैसा घोटाला खुलेगा।

अभी पिछले दिनों बनारस में निर्माणाधीन पुल की बीम गिरी और 18 लोग मर गऐ। आगरा में ‘रिंग रोड’ धंस गई। मथुरा के गोवर्धन रेलवे स्टेशन का नवनिर्मित चबूतरा बैठ गया। बस्ती जिले में पुल गिर गया। ऐसी दुर्घटनाऐं आए दिन हो रही है, पर सरकार कोई सबक नहीं ले रहीं। इससे उ.प्र. के मतदाताओं की जान जोखिम में पड़ गई है। पता नहीं कब, कहां, क्या हादसा हो जाऐ?