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Monday, November 12, 2018

खेमों में न बँटें बुद्धिजीवी और समाज के पहरूआ

जब भी देश में लोकतांत्रिक मूल्यों के पतन की बात होती है, तो एक से बढ़कर एक विद्वान, विचारक, समाज सुधारक और पत्रकार ये कहते नहीं थकते कि हमारी राजनैतिक व्यवस्था पर अपराधी हावी हो गऐ हैं। चुनाव ईमानदारी के पैसे से नहीं जीता जा सकता। चुनाव जीतने के लिए धनबल, बाहुबल और छलबल की आवश्यक्ता होती है। राजनेताओं में वैचारिक प्रतिबद्धता नहीं है। वे बेपैंदी के लोटे हो गऐ हैं। मोटे पैसे लेकर दल बदलना आम बात हो गई है। भ्रष्टाचार के मामलों पर कोई भी दल या सरकार ठोस कदम नहीं उठाना चाहती। भ्रष्टाचार के बड़े घोटालों में तो पक्ष और विपक्ष की साझेदारी रहती है। सत्तारूढ़ दल मोटा कमीशन खाता है और विपक्षी दल पहले शोर मचाते हैं, फिर अपनी कीमत वसूल कर चुप हो जाते हैं। इसलिए भ्रष्टाचार सुरसा की जीभ की तरह बढ़ता जा रहा है और कोई राजनैतिक दल इसे रोकना नहीं चाहता। हर चुनाव के पहले सभी विपक्षी दल सत्तारूढ़ दल पर भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े आरोप लगाते हैं, पर खुद सत्ता में आते ही वही सब करने लगते हैं, जिसे खत्म करने का वायदा करके वो चुनाव जीतते हैं। कोई भी राजनैतिक दल इसका अपवाद नहीं है।


देश के विश्वविद्यालयों में और पढ़े-लिखे लोगों की बैठकों में अक्सर देश की दुर्गति पर चिंता व्यक्त की जाती है। बड़ी उत्तेजक बहसें होती हैं। कभी-कभी तनातनी भी हो जाती है। पर इन्हीं लोगों को जब विपरीत परिस्थिति का सामना पड़ता है, तो उनके नैतिक मूल्य धरे रह जाते हैं। वे वही करते हैं, जिसकी वे आम जीवन में निंदा करते नहीं थकते। किसी एक विचारधारा पर समर्पित बुद्धिजीवी, अपनी विचारधारा को मानने वाले नेताओं में दोष नहीं देखना चाहते और हर बात का ठीकरा विपक्षी दलों के माथे पर थोंप देते हैं।

अक्सर सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय देश की गिरती स्थिति पर कठोर और बेबाक टिप्पणियां  करते हैं और केंद्रीय व प्रांतीय सरकारों को लताड़ते हैं। जबकि न्यायपालिका में नीचे से ऊपर तक व्याप्त भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए वे कोई सख्त कदम नहीं उठाते। अगर न्यायपालिका ही पूरी तरह ईमानदार और निष्पक्ष हो जाए, तो देश की आधी समस्याऐ तो बिना प्रयास के हल हो सकती है। प्रश्न है कि जब इन न्यायधीशों को सारी सुविधाऐं और सुरक्षा सहज उपलब्ध हैं, तो फिर ये कड़े निर्णंय लेने से क्यों डरते हैं? क्यों नहीं यही ठोस पहल करके समाज के लिए आर्दश स्थापित करते हैं? आखिर इस देश की सवा सौ करोड़ जनता उन्हें न्यायमूर्ति नहीं बल्कि न्याय देने वाला भगवान मानती है। फिर भगवान ही अगर राज्यपाल या सांसद बनने के मोह में न्यायमूर्ति पद की गरिमा का ध्यान न रखे, तो समाज के पतन के लिए कौन दोषी है?

समाज के हर वर्ग की गतिविधियों पर नजर रखने वाले और प्रशासकों को हमेशा सवालों के घेेरे में लपेटने वाले मीडियाकर्मी क्या किसी से कम हैं? आज देश में कितने मीडियाकर्मी हैं, जो दावे से यह सिद्ध कर सकें कि उन्होंने कभी किसी नेता या अफसर की दी हुई मंहगी शराब नहीं पी? उनकी दावतें नहीं उड़ाई? उनसे किसी खास विषय पर रिर्पोट लिखने की एडवांस रकम नहीं मांगी? सत्ता पक्ष के साथ मिलकर कोई दलाली नहीं की? किसी की ब्लैकमेलिंग नहीं की? और एक व्यक्ति को लाभ पंहुचाने के लिए उसके विरोधी का चरित्र हनन करने की फीस लेकर इकतरफा रिपोर्टिंग नहीं की?

कितने व्यापारी और उद्योगपति हैं, जो ये दावे से कह सकते हैं कि उनकी आर्थिक प्रगति के पीछे उनकी कड़ी मेहनत और वर्षों बहाया गया खून-पसीना है? कितने व्यापारी और उद्योगपति यह दावे से कह सकते हैं कि उन्होंने अपने कारोबार को आगे बढ़ाने के लिए नाजायज तरीकों को इस्तेमाल नहीं किया?

कितने प्रशासनिक व पुलिस अधिकारी हैं, जो ये दावा कर सकते हैं कि उन्होंने ताकतवर पद पाने के लिए अपने राजनैतिक आकांओं की चप्पल नहीं उठाई? कितने दावे से कह सकते हैं कि उन्होंने अपने राजनैतिक आकांओं के हित के लिए सरकारी संसाधनों का दुरूपयोग नहीं किया? कितनों ने अपने कर्मचारियों का शोषण नहीं किया?

कितने शिक्षक ऐसे हैं, जिन्होंने तन और मन से अपने विद्वार्थियों को ज्ञान देने और उनका चरित्र निर्माण करने के लिए जीवन में बलिदान किऐ हैं ? कितने शिक्षक ऐसे हैं, जो ये दावा कर सकते हैं कि उन्होंने अपने विद्यार्थियों के साथ शिक्षा का व्यवसाय नहीं किया?

अगर हर ओर उत्तर हताशा करने वाले हैं, तो समाज और देश कैसे सुधरेगा? कोई डोनाल्ड ट्रंप या इमरान खान तो हमारी दशा, अर्थव्यवस्था, राजनीतिक, प्रशासनिक, शिक्षा व स्वास्थ्य व्यवस्था सुधारने आयेगा नहीं। यह काम हमें ही करना होगा। जैसे हम अपने घर का कूड़ा साफ करने में हिचकते नहीं, वैसे ही अपने देश को अपना परिवार मानकर, यदि हम अपने क्षेत्र को सुधारने का संकल्प ले लें, तो हमें आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता। अन्यथा ये सारी चिंता घड़ियाली आँसू से ज्यादा कुछ नहीं है। हमें अपने मन में झांककर यह सोचना होगा कि हमारे लिए जीवन में क्या बड़ा है, स्वार्थ या परमार्थ?

Monday, September 3, 2018

असली संन्यासिन सुधा भारद्वाज


पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने लोकतंत्र के हित मे एक बड़ा फैसला लिया जब सुधा भारद्वाज की पुणे पुलिस द्वारा गिरफ्तारी को नाजायज ठहरा दिया।

मैं सुधा को 1995 से जनता हूँ, जब वे जिद करके मुझे दिल्ली से छत्तीसगढ़ ले गई थीं। जहां उनके संगठन ने अनेक शहरों और गांवों में मेरी जन सभाएं करवाईं थीं। जिसका उल्लेख मेरी पुस्तक में भी है। उनका अत्यंत  सादगी भरा मजदूरों जैसा  झुग्गी झोपड़ी का रहन सहन देखकर मैं हिल गया था। हालांकि मेरी विचारधारा सनातन धर्म पर आधारित है और उनकी वामपंथी। पर मेरा मानना है कि  मनुष्य अपने सतकर्मों, सेवा व त्याग  के प्रभाव से ही संत कोटि को प्राप्त करता है। सुधा भारद्वाज को असली संत की उपाधि देना अनुचित नहीं होगा। उनके जैसा होना हमारे आपके बस में शायद ही संभव हो। आगे जो लिख रहा हूँ वो साथी महेंद्र दुबे ने भेजा है और मैं इससे शतप्रतिशत सहमत हूँ इसलिये ज्यों का त्यों जोड़ रहा हूँ।

सुधा भारद्वाज कोंकणी ब्राह्मण परिवार की इकलौती संतान हैं। जोकि पेशे से एक यूनियनिस्ट, एक्टिविस्ट और वकील हैं। मजदूर बस्ती में रहने वाली सुधा भारद्वराज 1978 की आईआईटी कानपुर की टॉपर हैं। जो जन्म से अमेरिकन सिटीजन थीं और इंगलैंड में उनकी प्राइमरी शिक्षा हुई है। कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है कि इस ‘बैक ग्राउंड’ का कोई शख्स मजदूरों के साथ उनकी बस्ती में रहते हुए बिना दूध की चाय और भात सब्जी पर गुजारा करता होगा। जीवन के इस पड़ाव में भी अत्यंत साधारण लिबास में माथे पर एक बिंदी लगाये मजदूर, किसान और कमजोर वर्ग के लोगों के लिये छत्तीसगढ़ के शहर और गांव की दौड़ लगाती यह महिला अपनी असाधारण प्रतिभा, बेहतरीन अकादमिक योग्यता के विषय में बताना और अपने काम का प्रचार करना कभी पसन्द नहीं करती हैं।

सुधा की मां कृष्णा भारद्वाज जेएनयू में इकोनामिक्स डिपार्टमेंट की डीन हुआ करती थी। जो एक बेहतरीन शास्त्रीय गायिका थीं और नोबेल पुरुस्कार प्राप्त अमर्त्य सेन की समकालीन भी थी। आज भी सुधा की मां की याद में हर साल जेएनयू में ‘कृष्णा मेमोरियल लेक्चर’ होता है। जिसमे देश के नामचीन शिक्षाविद् और विद्वान शरीक होते है।

आईआईटी से टॉपर होकर निकलने के बाद भी सुधा को कैरियर का आकर्षण खूंटे से बांधे नहीं रख सका और अपने वामपंथी रुझान के कारण वह 80 के दशक में छत्तीसगढ़ के ‘करिश्माई यूनियन लीडर’ शंकर गुहा नियोगी के संपर्क में आयी और फिर उन्होंने छत्तीसगढ़ को अपना कार्यक्षेत्र बना लिया।

पिछले 35 साल से अधिक समय से छत्तीसगढ़ में मजदूर, किसान और गरीबों की लड़ाई सड़क और कोर्ट में लड़ते लड़ते इन्होंने अपनी मां के ‘प्रोविडेंट फंड’ का सारा पैसा तक उड़ा दिया। उनकी मां ने दिल्ली में एक मकान खरीद रखा था, जो आजकल उनके नाम पर है मगर बस नाम पर ही है। मकान किराए पर चढ़ाया हुआ है जिसका किराया मजदुर यूनियन के खाते में जमा करने का फरमान उन्होंने किरायेदार को दिया हुआ है। जिस अमेरिकन सिटीजनशीप को पाने के लिये लोग कुछ भी करने को तैयार रहते है ‘बाई बर्थ’ हासिल उस अमेरिकन नागरिकता को वो बहुत पहले अमेरिकन एम्बेसी में फेंक कर आ चुकी है।

हिंदुस्तान में सामाजिक आंदोलन और सामाजिक न्याय के बड़े से बड़े नाम सुविधा सम्पन्न हैं और अपने काम से ज्यादा अपनी पहुंच और अपने विस्तार के लिए जाने जाते हैं। मगर जिनके लिए वो काम कर रहे होते हैं, उनकी हालत में सुधार की कीमत पर अपनी विलासिता छोड़ने को कभी तैयार नहीं दिखते हैं। इधर सुधा हैं जो ‘अमेरिकन सिटिजनशीप’ और ‘आईआईटी टॉपर’ होने के गुमान को त्याग कर, गुमनामी में गुमनामों की लड़ाई लड़ते हुए अपना जीवन होम कर चुकी है। बिना फीस के गरीब, गुरबों की वकालत करने वाली और हाई कोर्ट जज बनाये जाने का ऑफर विनम्रतापूर्वक ठुकरा चुकी सुधा का शरीर अब जवाब देना चाहता है। 35-40 साल से दौड़ते-दौड़ते उनके घुटने घिस चुके है। उनके मित्र डॉक्टर उन्हें बिस्तर से बांध देना चाहते है। मगर गरीब, किसान और मजदूर की एक हलकी सी चीख सुनते ही उनके पैरों में चक्के लग जाते हैं और फिर वो अपने शरीर की सुनती नहीं।
मगर यह कहा जा सकता है कि यदि उन्होंने अपने काम का 10 प्रतिशत भी प्रचार किया होता तो दुनिया का कोई ऐसा पुरुस्कार न होगा जो उन्हें पाकर खुद को सम्मानित महसूस न कर रहा होता। सुधा होना मेरे आपके बस की बात नहीं है। सुधा सिर्फ सुधा ही हो सकती थीं और कोई नही।