पिछले दिनों सर्वोच्च
न्यायालय ने लोकतंत्र के हित मे एक बड़ा फैसला लिया जब सुधा भारद्वाज की पुणे पुलिस
द्वारा गिरफ्तारी को नाजायज ठहरा दिया।
मैं सुधा को 1995 से जनता हूँ, जब वे जिद करके मुझे दिल्ली से
छत्तीसगढ़ ले गई थीं। जहां उनके संगठन ने अनेक शहरों और गांवों में मेरी जन सभाएं
करवाईं थीं। जिसका उल्लेख मेरी पुस्तक में भी है। उनका अत्यंत सादगी भरा मजदूरों जैसा झुग्गी झोपड़ी का रहन सहन देखकर मैं हिल गया था।
हालांकि मेरी विचारधारा सनातन धर्म पर आधारित है और उनकी वामपंथी। पर मेरा मानना
है कि मनुष्य अपने सतकर्मों, सेवा व त्याग के प्रभाव से ही संत
कोटि को प्राप्त करता है। सुधा भारद्वाज को असली संत की उपाधि देना अनुचित नहीं
होगा। उनके जैसा होना हमारे आपके बस में शायद ही संभव हो। आगे जो लिख रहा हूँ वो
साथी महेंद्र दुबे ने भेजा है और मैं इससे शतप्रतिशत सहमत हूँ इसलिये ज्यों का
त्यों जोड़ रहा हूँ।
सुधा भारद्वाज कोंकणी
ब्राह्मण परिवार की इकलौती संतान हैं। जोकि पेशे से एक यूनियनिस्ट, एक्टिविस्ट और वकील हैं। मजदूर बस्ती में रहने वाली सुधा भारद्वराज 1978 की आईआईटी कानपुर की टॉपर हैं। जो जन्म से अमेरिकन सिटीजन थीं और इंगलैंड
में उनकी प्राइमरी शिक्षा हुई है। कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है कि इस ‘बैक
ग्राउंड’ का कोई शख्स मजदूरों के साथ उनकी बस्ती में रहते हुए बिना दूध की चाय और
भात सब्जी पर गुजारा करता होगा। जीवन के इस पड़ाव में भी अत्यंत साधारण लिबास में
माथे पर एक बिंदी लगाये मजदूर, किसान और कमजोर वर्ग के लोगों
के लिये छत्तीसगढ़ के शहर और गांव की दौड़ लगाती यह महिला अपनी असाधारण प्रतिभा,
बेहतरीन अकादमिक योग्यता के विषय में बताना और अपने काम का प्रचार
करना कभी पसन्द नहीं करती हैं।
सुधा की मां कृष्णा
भारद्वाज जेएनयू में इकोनामिक्स डिपार्टमेंट की डीन हुआ करती थी। जो एक बेहतरीन
शास्त्रीय गायिका थीं और नोबेल पुरुस्कार प्राप्त अमर्त्य सेन की समकालीन भी थी।
आज भी सुधा की मां की याद में हर साल जेएनयू में ‘कृष्णा मेमोरियल लेक्चर’ होता
है। जिसमे देश के नामचीन शिक्षाविद् और विद्वान शरीक होते है।
आईआईटी से टॉपर होकर
निकलने के बाद भी सुधा को कैरियर का आकर्षण खूंटे से बांधे नहीं रख सका और अपने
वामपंथी रुझान के कारण वह 80 के दशक में छत्तीसगढ़ के
‘करिश्माई यूनियन लीडर’ शंकर गुहा नियोगी के संपर्क में आयी और फिर उन्होंने
छत्तीसगढ़ को अपना कार्यक्षेत्र बना लिया।
पिछले 35 साल से अधिक समय से छत्तीसगढ़ में मजदूर, किसान और
गरीबों की लड़ाई सड़क और कोर्ट में लड़ते लड़ते इन्होंने अपनी मां के ‘प्रोविडेंट फंड’
का सारा पैसा तक उड़ा दिया। उनकी मां ने दिल्ली में एक मकान खरीद रखा था, जो आजकल उनके नाम पर है मगर बस नाम पर ही है। मकान किराए पर चढ़ाया हुआ है
जिसका किराया मजदुर यूनियन के खाते में जमा करने का फरमान उन्होंने किरायेदार को
दिया हुआ है। जिस अमेरिकन सिटीजनशीप को पाने के लिये लोग कुछ भी करने को तैयार
रहते है ‘बाई बर्थ’ हासिल उस अमेरिकन नागरिकता को वो बहुत पहले अमेरिकन एम्बेसी
में फेंक कर आ चुकी है।
हिंदुस्तान में सामाजिक
आंदोलन और सामाजिक न्याय के बड़े से बड़े नाम सुविधा सम्पन्न हैं और अपने काम से
ज्यादा अपनी पहुंच और अपने विस्तार के लिए जाने जाते हैं। मगर जिनके लिए वो काम कर
रहे होते हैं, उनकी हालत में सुधार की कीमत पर अपनी
विलासिता छोड़ने को कभी तैयार नहीं दिखते हैं। इधर सुधा हैं जो ‘अमेरिकन सिटिजनशीप’
और ‘आईआईटी टॉपर’ होने के गुमान को त्याग कर, गुमनामी में
गुमनामों की लड़ाई लड़ते हुए अपना जीवन होम कर चुकी है। बिना फीस के गरीब, गुरबों की वकालत करने वाली और हाई कोर्ट जज बनाये जाने का ऑफर
विनम्रतापूर्वक ठुकरा चुकी सुधा का शरीर अब जवाब देना चाहता है। 35-40 साल से दौड़ते-दौड़ते उनके घुटने घिस चुके है। उनके मित्र डॉक्टर उन्हें
बिस्तर से बांध देना चाहते है। मगर गरीब, किसान और मजदूर की
एक हलकी सी चीख सुनते ही उनके पैरों में चक्के लग जाते हैं और फिर वो अपने शरीर की
सुनती नहीं।
मगर यह कहा जा सकता है कि
यदि उन्होंने अपने काम का 10 प्रतिशत भी प्रचार किया होता तो दुनिया का कोई ऐसा पुरुस्कार
न होगा जो उन्हें पाकर खुद को सम्मानित महसूस न कर रहा होता। सुधा होना मेरे आपके
बस की बात नहीं है। सुधा सिर्फ सुधा ही हो सकती थीं और कोई नही।
No comments:
Post a Comment