Monday, August 27, 2018

अलविदा कुलदीप नैय्यर - पत्रकारिता का स्तंभ ढह गया

95 वर्ष की उम्र में आखिरी दिन तक भी अपना साप्ताहिक कॉलम लिखने वाले पत्रकारिता के स्तंभ कुलदीप नैय्यर अब नहीं रहे। उनकी अन्तेष्टि में तीन पीढ़ियों के राजनेता, पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता मौजूद थे। जो इस बात का प्रमाण है कि वे पूरे जीवन सामाजिक सरोकार से जुडे़ रहे। दक्षिणी एशियाई मूल के उनके पाठक और प्रशंसक पूरे विश्व में फैले हैं। क्योंकि दुनियाभर के तमाम अखबारों में अनेक भाषाओं में उनके लेख छपते थे।
मुझे पत्रकारिता में दिल्ली लाने वाले वही थे। 1984 में मैंने उन्हें एक सार्वजनिक व्याख्यान के लिए मुरादाबाद बुलाया। चूंकि वे मेरे मामा-मामी के बहुत घनिष्ठ मित्र थे, इसलिए हमारे परिवार से भावनात्मक रूप से जुड़े थे। भाषण देने के बाद, जब वो मेरे घर लंच पर आए, तो मेरे माता-पिता से बोले कि विनीत में बहुत संभावनाऐं हैं,  इसलिए इसे दिल्ली आकर पत्रकारिता करनी चाहिए। 1978 से 82 के बीच जब मैं जेएनयू में पढ़ता था, तब लगभग हर शनिवार को कुलदीप अंकल और भारती आंटी से इंडिया गेट के पास अपने मामा के निवास पर भेंट होती थी। जहां अक्सर गिरिलाल जैन, अरूण शौरी और निखिल चक्रवर्ती जैसे नामी पत्रकार भी आया करते थे। रात्रि भोजन पर राष्ट्रीय मुद्दों पर चर्चा होती थी। गिरि अंकल ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ के एडिटर थे। उनका व्यक्तित्व, व्यवहार, चिंतन और लेखन एक संपादक जैसा ही था। जबकि कुलदीप अंकल अंत तक एक संवाददाता की भूमिका में रहे। जिन्हें हर खास-ओ-आम व्यक्ति से बात करने में रूचि होती थी। इस तरह वह समाज की नब्ज पर हमेशा अपनी अंगुलियां रखते थे। हालांकि वे भी ‘इंडियन एक्सप्रेस’ जैसे बड़े अखबार के संपादक रहे थे, पर उन्हें कुर्सी पर बैठकर सोचना और लिखना पसंद नहीं था।
वे हर सामाजिक आंदोलन से भी जुड़े रहते थे। यात्रा की तकलीफ की परवाह न करते हुए, देश के किसी भी कोने, में कभी भी जाने को तैयार रहते थे, जहां उन्हें सुनने वाले लोग मौजूद हों।
जब मैंने भारत में पहली बार ‘स्वतंत्र हिंदी टीवी पत्रकारिता’ को ‘कालचक्र विडियो मैगज़ीन’ के माध्यम से 1989 में शुरू किया, तो विडियो समाचारों पर सैंसर लगता था। मैंने इसके विरूद्ध एक लंबी लड़ाई लड़ी। जिसमें हर मौके पर कुलदीप नैय्यर साहब बुलाने पर मेरे साथ खड़े होते थे।
उनमें शायद धार्मिक आस्था नहीं थी। जबकि भारती आंटी में यह कूट-कूट कर भरी है। मुझे याद है कि 1988 में भारती आंटी और मेरे मामा-मामी मेरे साथ ‘स्वामी हरिदास संगीत सम्मेलन’ सुनने वृंदावन गये। जब हम बांके बिहारी जी के दर्शन करके निकल रहे थे, तब आंटी ने बताया कि किसी भी देवालय में दर्शन के बाद कुछ देर बैठना चाहिए। जिससे वहां की ऊर्जा हमारे शरीर में प्रवेश कर जाए।
जिन दिनों कुलदीप अंकल लंदन में भारत के राजदूत थे, तब भी वे एक सामान्य व्यक्ति की तरह रहे। बड़ी सहजता से लंदन के ‘साउथ हॉल’ इलाके में रहने वाले सिक्ख समुदाय से उन्होंने अंतरंग व्यवहार बनाने का सफल प्रयास किया। ये ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ के बाद का वक्त था। जब सिक्ख समुदाय भारत की मुख्य धारा से भावनात्मक रूप में कुछ अलग-थलक पड़ गया था। हालांकि ‘कैरियर डिप्लोमेट्स’ को कुलदीप अंकल का ये सहज व्यवहार गले नहीं उतरा। पर मैं समझता हूं कि किसी भी राजदूत के लिए अपने देश के लोगों के साथ भावनात्मक स्तर पर संबंध स्थापित करना जरूरी होता है।
उनकी विचारधारा धर्मनिरपेक्षता और वामपंथ की तरफ झुकी हुई थी। पर आपातकाल में उन्होंने कांग्रेस का घोर विरोध किया था। जिसके कारण उन्हें जेल में भी रहना पड़ा था। पर जब कांग्रेस के समर्थक से जनता पार्टी की सरकार बनी, तो उन्हें भारत का राजदूत बनाया गया। चूंकि वे दिल्ली के उस बौद्धिक पंजाबी समूह का प्रतिनिधित्व करते थे, जो विभाजन के बाद पाकिस्तान से दिल्ली आया था इसलिए उनके साथ उनकी घनिष्ठता गहरी थी। उनके स्वसुर भीमसेन सच्चर जी पंजाब के मुख्यमंत्री भी रहे थे। इस संबंध का उन्हें जीवनभर लाभ मिला। समाचार पत्र-पत्रिकाओं के पंजाबी संपादक हमेशा उनकी प्रतिष्ठावृद्धि में सहयोग करते रहे। जब इंद्र कुमार गुजराल भारत के प्रधानमंत्री बने, तो उन्होंने अपने घनिष्ठ मित्र नैय्यर साहब को राज्यसभा में मनोनीत करवा दिया।
राज्यसभा के सांसद रहते हुए, उनसे मेरा एक बार मन मुटाव हो गया। कारण यह था कि ‘जैन हवाला कांड’ को लेकर जो जोखिम भरा युद्ध में लड़ रहा था, उस पर उन्होंने बहुत सतही लेख लिखा। जिसका कारण था कि हवाला कांड में अनेक आरोपी नेता उनके घनिष्ठ मित्र थे। दूसरा मन मुटाव का कारण यह था कि जब मैंने भारत के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जे.एस. वर्मा के उस अनैतिक आचरण का तथ्यों के साथ खुलासा किया कि कैसे उन्होंने ‘जैन हवाला कांड’ को इतनी ऊँचाई तक ले जाकर फिर से दबाने की अनुचित भूमिका निभाई, तो देश के मीडिया और संसद में तूफान मच गया था। उस वक्त कुलदीप अंकल ने जस्टिस वर्मा से मिलकर उनकी प्रशस्ति में जो कॉलम लिखा, वह जस्टिस वर्मा की गिरती साख का ‘डैमेज कंट्रोल’ करने वाला था। ऐसा करने का उनका एक निजी कारण था। जिसे मेरी मामी ने भारती आंटी से पूछकर मुझे बताया। इसलिए मैं उसका यहां उल्लेख नहीं करूंगा।
इसके बावजूद मेरे मन में उनके प्रति सम्मान में कभी कोई कमी नहीं रही। वे मुझे जहां कहीं भी देश में दिखे, फिर वो चाहे सार्वजनिक समारोह ही क्यों न हो, मैंने बिना हिचके तुरंत उनके चरण स्पर्श किये। क्योंकि हमारी सनातन संस्कृति में हमें अपनो से बड़ों का सम्मान करना सिखाया जाता है। चाहे उनके उस आचरण से मेरे मन को काफी ठेस लगी थी। उनको शत-शत नमन। वे पत्रकारों की आने वाली पीढ़ियों के लिए सदैव प्ररेणा स्रोत बने रहेंगे।

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