Monday, November 19, 2012

बाला साहब के भगवा स्वरूप को क्यों भूल रहा है अंगे्रजी मीडिया

महाराष्ट्र के दिवंगत नेता बाला साहब ठाकरे को श्रृद्धान्जलि देने में अंगे्रजी टी वी और प्रिन्ट मीडिया पीछे नहीं रहा। उनकी भडकाऊ राजनीति, तानाशाही और हिंसक बयानबाजी का आलोचक रहा देश का अंगे्रजी मीडिया बाला साहब की मौत पर उनका गुणगान करता नजर आया। इसमें कोई अस्वभाविक बात नहीं है। मरणोपरान्त हर जाने वाले की प्रशस्ति में कसीदे काढ़े जाते हैं । पर महत्वपूर्ण बात यह है कि केसरिया चोगा पहनकर, गले में रूद्राक्ष की माला लटकाकर, छत्रपति शिवाजी महाराज की वैदिक ध्वजा फहराकर और सिंह के चित्र को दर्शाते हुए सिंहासन पर आरूढ़ होने वाले बाला साहब देवरस ने एक प्रखर हिन्दूवादी छवि का निर्माण किया और उसे अन्त तक निभाया। इस छवि के बावजूद महाराष्ट्र की राजनीति को अपने इशारों पर नचाया। सत्ता में हों या बाहर अपना रूतबा कम नहीं होने दिया। पर उनके व्यक्तित्व के इस हिन्दूवादी पक्ष को अंग्रेजी मीडिया ने दिखाने की कोशिश नहीं की।
 
अंग्रेजी मीडिया अमूमन अपनी छवि धर्मनिरपेक्षता की बनाकर रखता है। इसलिए जब-जब बाला साहब ने  प्रखर हिन्दूवादी तेवर अपनाया तब तब मुख्यधारा का मीडिया बाला साहब के पीछे पड़ गया। पर अब उनकी मौत पर उनके व्यक्तित्व का यह पक्ष क्यों भुला दिया गया ? यह सही है कि बाला साहब का व्यक्तित्व व वक्तव्य विरोधाभासों से भरे होते थे। पर उनकी इस हिन्दूवादी छवि ने उन्हें देशभर के उन हिन्दुओं का  चहेता बनाया जो प्रखर हिन्दुवादी नेतृत्व देखना चाहते हैं। छोटी छोटी घटनाओं से बाला साहब ने ऐसे कई संदेश दिये ।  जब मुंबई के मुसलमान जुम्मे की नमाज अदा करने के लिए हर शुक्रवार मुंबई की सड़कों पर मुसल्ला बिछाने लगे और मुंबई पुलिस इस नई मुसीबत से निपट नहीं पा रही थी तो बाला साहब ने हर शाम, हर मन्दिर के सामने, सड़क पर भीड़ जमा कर महाआरती करने का ऐलान कर दिया। नतीजतन दोनों पक्षों ने बिना हीलहुज्जत किये अपना फैलाव समेट लिया। बांग्लादेशी शरणार्थियों के आकर बसने पर सबसे पहला विरोध बाला साहब ने ही किया था।
 
दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी का नेतृत्व रहा है जिसने हिन्दु वोट बैंक को भुनाने का कोई मौका नहीं छोड़ा। लेकिन हमेशा इस तरह के सख्त कदम उठाने से परहेज किया। इतना ही नहीं पूरे देश में रामजन्मभूमि मुक्ति आंन्दोलन चलाने के बाद जब अयोध्या में विवादास्पद ढाँचा गिरा तो अटलबिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी ने इसे शर्मनाक हादसा कहा। जबकि बालासाहब से जब पूछा गया कि इस ढ़ांचे को गिराने में शिवसैनिकों का हाथ था, तो उन्होंने तपाक से कहा कि उन्हें अपने सैंनिको पर गर्व है। दूसरी तरफ हिन्दू हक के हर मुद्दे पर कड़े तेवर अपनाने वाले बाला साहब ने आपातकाल से लेकर राष्ट्रपति के चुनाव तक के मुद्दों पर कांग्रेस के साथ खड़े रहने में संकोच नहीं किया। इंका के वरिष्ठ नेता सुनील दत के फिल्मी सितारे बेटे संजय दत को रिहा कराने में वे आगे आये। इससे यह तो साफ है कि बाला साहब ने जो ठीक समझा उसे ताल ठोक कर किया़। चाहें किसी को ठीक लगे या गलत। इसलिए उनकी छवि एक प्रखर हिन्दुवादी नेता की बनी।
 
मुसलमानों को लुभाने की नाकाम कोशिशों में जुटा भाजपा नेतृत्व आज भी ऐसी हिम्मत नहीं जुटा पा रहा हैं। इसलिए दुविधा कायम हैं ? दूसरी तरफ गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने काफी हद तक बाला साहब का अनुसरण करने की सफल कोशिश की है और उसका फल भी उन्हें मिला है। नरेन्द्र मोदी को भी मुख्यधारा के मीडिया ने धर्मनिरपेक्षता के तराजू में तोलकर बार-बार अपराधी करार दिया है। पर हर बार मीडिया के आंकलन से बेपरवाह मोदी ने अपना रास्ता खुद तय किया है।
 
बाला साहब को श्रद्धान्जली देने गये भाजपा के नेताओं को इस मौके पर आत्म मंथन करना चाहिए। क्या वे इसी तरह भ्रम की स्थिति में रहकर आगे बढ़ेंगें या अपनी विचारधारा में स्पष्टता लाकर अपनी रणनीति साफ करेंगे। आज तो वे कांग्रेस की दसवीं कार्बन कॉपी से ज्यादा कुछ नजर नहीं आते। उधर मीडिया को भी यह सोचना पडेगा कि इस लोकतांत्रिक देश में समाज के हर हिस्से और विभिन्न विचारधाराओं को एक रंग के चश्मों से देखना सही नहीं है। धर्मनिरपेक्ष से लेकर सांम्प्रदायिक लोगो तक और गांधीवादियों से लेकर नक्सलवादियों तक को अपनी बात कहने और अपनी तरह जीने का मौका भारत का लोकतंत्र देता है। इसलिए मीडिया की निष्पक्षता तभी स्थापित होगी जब वो समाज के विभिन्न रंगों की प्रस्तुति पूरी ईमानदारी से करे। एक कार्टून पत्रकार से महाराष्ट्र के शेर बनने तक की बाला साहब की यात्रा हममें से बहुतों की विचारधारा के अनुरूप नहीं थी पर इस यात्रा के ऐसे आयामों के महत्व को कम करके आंका नहीं जा सकता।

Monday, October 29, 2012

गडकरी और वडेरा

भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी और कांग्रेस की अध्यक्ष के दामाद राबर्ट वडेरा पर अपनी कम्पनियों में आर्थिक अनियमितताएं बरतने का आरोप है। आरोप अभी सिद्ध होने बाकी है। पर मीडिया में छवि दोनों की खराब हो चुकी है। सार्वजनिक जीवन में कहावत है ‘बद अच्छा बदनाम बुरा‘ जो कुछ इन दोनों ने किया है वह देश का लगभग हर व्यापारी करता है। जिससे उसका मुनाफा बढ सकें या कालाधन सफेद हो सके। वैसे कानूनी मापदंडो पर दोनो के ही खिलाफ कोई जघन्य अपराध बनेगा इसकी सम्भावना विशेषज्ञ अभी नही देख पा रहे है। इसलिए दोनों के पक्षधर अपने-अपने मंचो से इनका बचाव करने में जुटे है। अगर अनियमितताएं पायी गयी तो कानून के मुताबिक दोनों को सजा भुगतनी पड सकती है। पर अगर  अनियमितताएं नही पायी जाती तो भी छवि तो बिगड ही चुकी। अन्तर इतना है कि राबर्ट वडेरा अपनी सास के बल पर सत्ता का लाभ लेने के आरोपी है। जबकि नितिन गडकरी उस राष्ट्रीय दल के अघ्यक्ष है जिसका घोषित लक्ष्य सार्वजनिक जीवन में शुचिता लाना है। इसलिए उन पर त्यागपत्र देने का नैतिक दबाब बनाया जा रहा है।
 
दरअसल पूर्वी व उत्तरी भारत और पश्चिमी व दक्षिणी भारत की राजनैतिक संस्कृति में बुनियादी अन्तर है। जहां पश्चिमी व दक्षिणी भारत में ज्यादातर राजनेता व्यापार के साथ राजनीति करते हैं ? उनके कारखाने, कॉलेज, विश्वविद्यालय, अस्पताल, होटल और कृषि सम्बन्धी बडे- बडे व्यवसाय होते हैं, वहीं पूर्वी व उत्तरी भारत में राजनेताओं को केवल राजनीति के काम में लिप्त पाया जाता है। इसलिए यहां के समाज में व्यापारी को राजनेता स्वीकारने की प्रथा नहीं है। इसीलिए देश के अब तक के सभी प्रधानमंत्री भी गैर-व्यवसायी हुए हैं। जब नितिन गडकरी को संघ के दबाव में भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया था तो उत्तर भारत में काफी नाक भौं सिकोंड़ी गयीं। यहां यह उल्लेख करना महत्वपूर्ण है कि राजनितिज्ञ का सार्वजनिक जीवन हो या निजी जीवन, दोनों के लिए धन की जरूरत होती है। अगर सीधे रास्ते धन नहीं आयेगा तो गलत तरीके से कमाया जायेगा। बिना इस समस्या का हल निकाले राजनीति इसी तरह बदनाम होती रहेगी। अब वो जमाने चले गये जब राजनीति में केवल त्याग और सेवा की भावना से आया जाता था।
 
अब अगर व्यापार की दृष्टि से देखें तो नितिन गडकरी की बेनामी कम्पनियां वही कर रही है जो सारे देश मे हो रहा है। इसे करवाने वाले चार्टर्ड एकाउटेन्ट है। जो अपने ग्राहक को इस तरह घुमाकर काला धन सफेद करने की सलाह देते हैं। गडकरी के मामले में सवाल उठाया जा सकता है कि उन्हें काला धन सफेद करने की क्या जरूरत आन पड़ी ? ऐसा कौन-सा काम था जो वे काले धन से नहीं कर सकते थे ? जहां तक राबर्ट वडेरा का प्रश्न है असुरक्षित ऋण लेना कोई अपराध नहीं है। मित्रों के बीच ऐसा लेन देन अक्सर हुआ करता है। जब ब्याज भी नहीं लिया जाता और कभी कभी तो उसे ‘बैड डैट‘ बताकर अपनी ‘बैलेन्स शीट‘ से हटा दिया जाता है। हाँ अगर राबर्ट वडेरा ने राजनैतिक सम्बन्धों का दुरूपयोग कर अनुचित लाभ कमाया है तो उसे भ्रष्टाचार ही माना जायेगा।
 
देश के सामने बडी विचित्र स्थिति पैदा हो गयी है। कुछ ‘स्वयंभू जननेताओं‘ के नित्य नये नाटकों को देखकर मध्यम वर्ग के मन में सत्ता वर्ग के खिलाफ घृणा और आक्रोश बढाता जा रहा है। जबकि राजनेता और अफसरशाही मोटी चमड़ी किए बैठे हैं और अपने आचरण को पारदर्शी और जवाबदेह बनाने को तैयार नहीं हैं। ऐसे में देश में अराजकता फैलने का पूरा खतरा है। आवश्यकता इस बात की है कि जागरूक जनता सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों के प्रति सजग और सतर्क रहे। साथ ही प्रशासनिक व्यवस्था को जवाबदेह बनाने के लिए सतत दबाव डाले। कोई एक अन्ना या केजरीवाल या बाबा रामदेव या वी पी सिंह या जयप्रकाश नारायण देश से भ्रष्टाचार के कैंसर को खत्म नहीं कर सकता, इसके लिए हर स्तर पर उठकर खडे होना होगा। अपना मसीहा खुद बनना होगा।
 
अगर हम अपने जीवन, अपने परिवार व अपने समाज से भ्रष्टाचार, प्राकृतिक संसाधनों का दुरूपयोग और सार्वजनिक धन की बर्बादी नहीं रोक सकते तो हम कैसे उम्मीद करते हैं कि कोई मीडिया का मसीहा देश को सुधार देगा ? इससे तो हताशा ही हाथ लगेगी। संघर्ष के साथ ही हमें जमीनी हकीकत को भी ध्यान में रखना होगा। रस्सी को इतना ही खीचें कि गांठ लग जाये पर रस्सी न टूटे। कल तक कांग्रेस पर तोपें दागने वाले अन्ना और केजरीवाल हतप्रभ रह गये जब उन पर नितिन गडकरी के खिलाफ सबूत छिपाने का आरोप लगा। जब टाईम्स नाउ टी वी ने गडकरी पर हमला बोला तो टीम केजरीवाल ने तोपों का रूख अपने आप भाजपा की तरफ मुडा पाया। खिसियाकर अब वे दावा कर रहे हैं कि उन्होनें जनता के सामने सिद्ध कर दिया कि भ्रष्टाचार के मामलें में कांग्रेस और भाजपा एक से है। कितना हास्यादपद दावा है ? यह बात तो 1993 में जैन हवाला कांड उजागर कर हम 20 वर्ष पहले ही सिद्ध कर चुके थे। टीम केजरीवाल के प्रमुख साथियों ने षडयंत्र नहीं किया होता तो आज भ्रष्टाचार इतना न बढता। इसलिए पहले यह समझना होगा  कि जब दूसरों पर उंगली उठाने वालों के ही दामन साफ नहीं हैं तो वे देश को साफ नेतृत्व कैसे देगें ? फिर गडकरी और वडेरा को दोष देने से क्या हासिल होगा ? 

Monday, October 8, 2012

क्या होगा रॉबर्ट वाड्रा के खुलासे का असर

पिछले दो सालों से एसएमएस और इंटरनेट पर यह संदेश बार-बार प्रसारित किये जा रहे थे कि रॉबर्ट वाड्रा ने डीएलएफ के मालिक, हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हूडा व अन्य भवन निर्माताओं से मिलकर दो लाख करोड़ रुपये की सम्पत्ति अर्जित कर ली है। पर जो खुलासा शुक्रवार को दिल्ली में किया गया उसमें मात्र 300 करोड़ रुपये की सम्पत्ति का ही प्रमाण प्रस्तुत किया गया। उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले दिनों में बाकी की सम्पत्ति का भी खुलासा होगा। अगर नहीं होता है तो यह चिन्ता की बात है कि बिना प्रमाणों के आरोपों को इस तरह पूरी दुनिया में प्रचारित कर दिया जाता है। इसके साथ ही यह भी महत्वपूर्ण है कि अगर राबर्ट वाड्रा ने अपनी सास श्रीमती सोनिया गांधी के सम्बंधों का दुरुपयोग करके अवैध सम्पत्ति अर्जित की है तो उसकी जांच होनी चाहिए। पर यहां कुछ बुनियादी सवाल उठते हैं जिनपर ध्यान दिया जाना जरूरी है। पहली बात, पिछले दस सालों में हर शहर में प्रापर्टी डीलरों की हैसियत खाक से उठकर सैंकड़ों करोड की हो चुकी है। दूसरी बात यह है कि राजनेता ही नहीं हर नागरिक कर चोरी के लिए अपनी सम्पत्ति का पंजीकरण बाजार मूल्य से कहीं कम कीमत पर करवाता है। इस तरह सम्पत्ति के कारोबार में भारी मात्रा में कालेधन का प्रयोग हो रहा है। तीसरी बात रोबर्ट वाड्रा इस धंधे में अकेले नहीं। किसी भी राज्य के किसी भी राजनैतिक दल के नेता के परिवारजन प्रायः सम्पत्ति के कारोबार में पाये जायेंगे। अरबों रुपयों की अकूत दौलत नेता अफसर और पूँजीपति बनाकर बैठे हैं। सम्पत्ति का कारोबार कालेधन का सबसे बडा माध्यम बन गया है। इसलिए इसका राजनीति में दखल बढ़ गया है। इसलिए एक रॉबर्ट वाड्रा का खुलासा करके समस्या का कोई हल निकलने नहीं जा रहा।

दरअसल पिछले बीस वर्षों में भ्रष्टाचार के इतने काण्ड उजागर हुए हैं कि जनता में इससे भारी हताशा फैल गई है। इस हताशा की परिणिति अराजकता और सिविल वार के रूप में हो सकती है। क्योंकि सनसनी तो खूब फैलायी जा रही है पर समाधान की तरफ किसी का ध्यान नहीं। अन्ना के आन्दोलन ने समाधान की तरफ बढने का कुछ माहौल बनाया था। पर उनकी कोर टीम की व्यक्तिगत महत्वकांक्षाओं ने सारे आन्दोलन को भटका दिया।

अरविन्द केजरीवाल जो अब कर रहे हैं वो एक राजनैतिक दल के रूप में शोहरत पाने का अच्छा नुस्खा है। पर इससे भ्रष्टाचार की समस्या का समाधान नहीं होगा। बल्कि हताशा और भी बढ़ेगी। दरअसल अरविन्द केजरीवाल जो कर रहे हैं वो काम अब तक मीडिया का हुआ करता था। घोटाले उजागर करना और आगे बढ़ जाना। समाधान की तरफ कुछ नहीं करना। अब जब मीडिया टीआरपी के चक्कर में या औद्योगिक घरानों के दबाव में जोखिम भरे कदम उठाने से संकोच करता है तो उस खाई को पाटने का काम केजरीवाल जैसे लोग कर रहे हैं। मगर यहीं इस टीम का विरोधाभास सामने आ जाता है। अगर सनसनी फैलाना मकसद है तो समाज को क्या मिलेगा और अगर समाज को फायदा पहुंचाना है तो इस सनसनी के आगे का कदम क्या होगा घ् आप हर हफ्ते एक घोटाला उजागर कर दीजिए और भ्रष्टाचार के कारणों को समझे बिना जनलोकपाल बिल का ढिढ़ोरा पीटते रहिए। तो आप जाने अजनाने कुछ राजनैतिक दलों या लोगों को फायदा पहुंचाते रहेंगे। पर देश के हालात नहीं बदलेंगे। क्योंकि जिन्हें आप फायदा पहंुचायेंगे वे भी कोई बेहतर विकल्प नहीं दे पायेंगे।

तो ऐसे में क्या किया जाए ? भ्रष्टाचार कोई नया सवाल नहीं है। सैकड़ों सालों से यह सिलसिला चला आ रहा है। सोचा भी गया है प्रयोग भी किये गये हैं पर हल नहीं निकले। अब नये हालात में फिर से सोचने की ज़रूरत है और सोचे कौन यह भी तय करने की जरूरत है। भ्रष्टाचार को नैतिकता का प्रश्न माना जाये या अपराध का। अगर हम नैतिकता का प्रश्न मानते हैं तो समाधान होगा सदाचार की या अध्यात्म की शिक्षा देना। व्यक्ति के सात्विक गुणों को प्रोत्साहित करना और तामसी गुणों को दबाना। अगर भ्रष्टाचार को हम अपराध मानते हैं तो उसका समाधान कौन देगा ? इतिहास बताता है कि अपराध के विरूद्ध जब-जब कोई व्यवस्था बनाई गई है तब-तब उसको बनाने वाला अपराधी से भी बडा खौफनाक तानाशाह सिद्ध हुआ है। दरअसल भ्रष्टाचार का मामला नैतिकता के और अपराध के बीच का है। इतिहास यह भी बताता है कि कोई एक जनलोकपाल या उससे भी कड़ा कानून इसका समाधान नहीं कर सकता। इसके लिए जरूरत है कि इन क्षेत्रों के विशेषज्ञ बैठकर अध्ययन करें और समाधान खोजें। उदाहरण के तौर पर ऐसा कैसे होता है कि त्याग, बलिदान और सादगी की शिक्षा देने वाले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यकर्ता जब भाजपा में मंत्री बनते हैं तो नैतिकता के सारे पाठ भूल जाते हैं। इसी तरह महात्मा गांधी के आदर्शों को अपने जीवन में अपनाने का संकल्प लेकर कांग्रेस में घुसने वाले मंत्री पद पाकर गांधी की आत्मा को दुःख पहुंचाते हैं। मजदूरों के हक की लडाई लडने वाले साम्यवादी नेता चीन और रूस में सत्ता पाने के बाद भ्रष्टाचार करते हैं। इसलिए बिखरी टीम अन्ना मीडिया में छाये रहने के लिए हर हफ्ते जो नये शगूफे छोड़ रही है या छोड़ने वाली है उससे हंगामा तो बरपाये रखा जा सकता है पर भ्रष्टाचार का इलाज नहीं कर पायेंगे। नतीजतन रही-सही व्यवस्था भी ध्वस्त हो जायेगी। ऐसे विचारों को पढ़कर या टीवी चैनल पर सुनकर कुछ भावुक पाठक नाराज हो जाते हैं। उन्हें लगता है कि मैं इन लोगों के प्रयासों का विरोध कर रहा हूं। जबकि हकीकत यह है कि शान्ति भूषण और प्रशान्त भूषण जैसे लोगों ने बीस वर्ष पहले भ्रष्टाचार के विरूद्ध सबसे बड़ी लडाई में अगर गद्दारी न की होती तो शायद हालात आज इतने न बिगडते। इसलिए इनकी कमजोरियों को समझकर और यथार्थ को देखते हुए परिस्थितयों का मूल्यांकन करने की जरूरत है। कहीं ऐसा न हो कि भावना में बहकर हम अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार लें।

Tuesday, October 2, 2012

अब अन्ना ने पकड़ी सही राह



अपनी टीम की राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं से आहत होकर अन्ना ने जन आन्दोलनों के रास्ते भ्रष्टाचार से लड़ने का निर्णय लिया है. जो सही है. दरअसल हमें तो शुरू से ही इस बात का एहसास था कि जिन लोगों ने अन्ना को पिछले वर्ष पकड़ा था उन सबका छिपा एजेंडा अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करना था. अन्ना को तो केवल मोहरा बनाया जा रहा था. इसलिए पिछले वर्ष के शुरू में ही जब मीडिया और मध्यम वर्ग के लोग टीम अन्ना के दीवाने हो रहे थे तब हमने हर टीवी चैनल, अखबार और पर्चों के माध्यम से देश को आगाह किया था. तब हमारे शुभचिंतकों को आश्चर्य हुआ कि सारी जिंदगी भ्रष्टाचार से लड़ने वाले लोग इस वक्त टीम अन्ना के साथ क्यूँ नहीं खड़े ? आज सबको याद आ रही है हमारी चेतावनी. खैर देर आयद दुरुस्त आयद.
पर अभी भी अन्ना पर खतरा टला नहीं है. इंका और भाजपा से अलग एक नया राजनैतिक विकल्प बनाने कि फ़िराक में जुटे कुछ थके मांदे लोग भी अब अन्ना को अपने जाल में फसाने में जुटे हैं. उन्हें पता है कि अब भी अन्ना कि देश भर में साख है, तो क्यूँ न उसे भुना लें? पर अन्ना को सोचना चाहिए कि आज देश में ऐसा एक भी नेता या दल नहीं है जो भ्रष्टाचार के सवाल पर सख्त कदम उठाने को तैयार हो. अन्ना का प्रयोग करके उन्हें गड्ढे में फेंक दिया जायेगा. फिर वे कहीं के नहीं रहेंगे.
ज़रूरत इस बात की है कि अन्ना ऐसे किसी भी तरह के राजनैतिक जाल में ना फंसे. बिना किसी दल का समर्थन या विरोध किए देश भर में निष्पक्ष लोगों का एक संगठन तैयार करें. जिसके उद्देशय बिलकुल साफ़ हो. भ्रष्टाचार से लड़ना. आम जनता के हक में विकास नीतियां बनवाना और उन्हें ईमानदारी से लागू करवाना. इसके लिए उन्हें पहले एक ऐसी कोर टीम बनानी चाहिए जिसमें सभी सदस्य ऐसे हों जो लंबे समय तक बिना समझौते किए व्यवस्था से लड़ते रहे हों. बिके न हों. झुके न हों. वही लंबे समय तक चल पाएंगे. इसके बाद इस कोर टीम कि मदद से हर प्रांत, जिले और गाँव में भी ऐसे लोगों कि टीम खड़ी हो जायें. इन सभी को इनके स्तर पर लड़ने के लिए कार्यक्रम दिये जाए. शुरू में छोटी छोटी लड़ाई लड़ी जाएँ. जिससे लोगों में लड़ने कि हिम्मत आए और हताशा न फैले. राजनैतिक विद्वेष, हिंसा और अराजकता को बिलकुल हावी न होने दिया जाए.
सरकार और प्रशासन पर हमला करने का जो तरीका टीम अन्ना ने अपनाया था उससे देश भर में अराजकता का माहौल बन रहा है. समाधान तो निकले नहीं और देश के दुश्मनों को देश को कमज़ोर करने का मौका मिले, इससे ज्यादा आत्मघाती बात क्या हो सकती है? इस खतरे कि ओर इन्हीं कॉलमों में हम देश को आगाह करते आए हैं.
उधर अन्ना कि मुश्किल यह है कि वे एक गाँव या महाराष्ट्र की राजधानी तक सीमित रहे हैं. उन्हें देश के योद्धाओं कि न तो जानकारी है और न ही उनसे परिचय. नतीजतन वे सबको शक कि नज़र से देखते हैं. इसलिए इस पूरे अभियान में अभी एकदम तेज़ी नहीं आ सकती. पहले अन्ना को देश भर में घूम कर इन लोगों समझना होगा. विश्वास का रिश्ता कायम करना होगा. यह धीमी मगर ठोस प्रक्रिया है. नतीजा इससे ही आएगा.
आज के माहौल में कांग्रेस, भाजपा, या कोई भी क्षेत्रिय दल क्यूँ न हो भ्रष्टाचार से लड़ने की स्थिति में नहीं है. इसलिए किसी भी दल को लक्ष्य न बना कर व्यवस्था के दोषों को दूर करने कि लड़ाई लड़नी चाहिए. राजनेताओं को लक्ष्य बनाकर गाली देना आसान है. इसीलिए फिल्म हो या जनसभा तालियाँ तभी बजती हैं जब नेताओं को गाल पड़ती हैं. पर भ्रष्टाचार के लिए नेताओं के अलावा जो वर्ग जिम्मेदार है उसकी जकड व्यवस्था पर इतनी मज़बूत है कि मीडिया से लेकर हर संस्था उनके शिकंजे में है. ऐसे में यह लड़ाई आसान नहीं है. पर हिम्मत, सही निर्णय, सही सोच और पक्का इरादा हमें इस देश को सही राह पर ले जाने में मदद करेगा.

Monday, September 17, 2012

कीमत वृद्धि या साधनो का सही बंटवारा

डीजल और गैस के दामो को बढाकर सरकार अपने सहयोगियों और विरोधियो का हमला झेल रही है। सोचने वाली बात यह है कि भ्रष्टाचार पर मच रहे शोर से घिरी सरकार ने इतनी विपरीत परिस्थितियो मे भी ऐसा जोखिम भरा कदम क्यो उठाया ? क्या उसे नही पता कि विपक्षी दल इसका भरपूर लाभ उठायेंगे? फिर भी अगर यह फैसला किया गया है तो जाहिर है कि इसके पीछे सरकार मे काफी सोच-विचार किया है। दरसल सब्सिडी के चलते 33,000 करोड रूपये का घाटा झेलना सरकार को भारी पड़ रहा था। यह सब्सिडी इस उम्मीद मे दी गयी थी कि इसका फायदा गरीब किसान मज़दूरो को होगा। पर ऐसा नही हो रहा था। सब्सिडी का फायदा बडे पैसे वालो, डीलरों और कालाबाजारियों को हो रहा था। इसलिए इसे बन्द किया गया। शायद यह सोचा गया कि इस तरह अप्रत्यक्ष रूप से राहत जरूरतमंदो तक नही पहुंचती। इसलिए इसे जरूरतमंदो तक सीधा पहुंचाने की व्यवस्था की जाए। इसलिए डीजल और गैस के दामो मे बढ़ोतरी की घोषणा को लेकर मच रहा शोर बेमानी है।
अब देखना यह होगा कि आने वाले महीनो मे सरकार ऐसी कौन सी योजनाए लाती है जिससे सब्सिडी मे जा रहा 33000 करोड रूपया सीधे आम आदमी की जेब मे जाए। गौर करने वाली बात यह है कि एक तरफ तो घोटालो को लेकर सरकार मीडिया और विपक्ष की लगातार मार झेल रही है। दूसरी तरफ वह लगातार ऐसे कार्यक्रमो को ला रही है जिनसे बडे बिचैलियो की जगह पैसा नीचे के तबके के पास पहुंचे। नरेगा जैसी योजनाए इसी का प्रमाण है। जिनसे, कुछ कमियो के बावजूद, देश के देहातो मे आम आदमी तक आर्थिक मदद पहुंचना शुरू हो गयी है। इसका मतलब यह नही है कि सरकार को शहरी मध्यम वर्ग की चिन्ता नही है। पर उसे पता है कि देश की आर्थिक प्रगति का ज्यादा लाभ इन्ही वर्गो को पहुंचा है। फिर भी यही वर्ग ज्यादा शोर मचाता है क्योकि उसकी अपेक्षाए असीम है और उसके पास शोर मचाने का समय और साधन है। यह वह वर्ग है जो कभी भी देश के गरीब किसान मजदूरो की बदहाली पर उत्तेजित नही होता। गांवो मे कितनी आरूषियो की हत्या रोज हो जाती है पर उनके लिए महीनो तक ऐसा बवंडर मचना तो दूर, उनकी खबर तक नही ली जाती।
जहां तक मुलायम सिंह यादव या ममता बनर्जी जैसे सहयोगी दलो की बयानबाजी का सवाल है तो यह साफ है कि ऐसे सभी दल असमंजस की स्थिति मे है। सबकी निगाह 2014 के चुनाव पर है। इसलिए हर मौके का फायदा उठाना ही होता है। इसमे कुछ गलत नही। पर इनकी मुश्किल यह है कि अगर ये भाजपा के संग जाते है तो इनका वोट बैक बिखर जाता है। कांग्रेस का भविष्य अभी स्पष्ट नही दिखता। ऐसे मे ये बयानबाजी करके अपनी पहचान बनाये रखना चाहते है पर विरोध इतना भी तीखा नही करते कि सरकार गिर जाए। सरकार के सामने बडी चुनौती है। अपनी खोयी साख को वापस लाना और विरोध के इस माहौल मे आम जनता तक अपनी नीतियो का लाभ पहुंचाना। एक आग का दरिया है और कूद के जाना है। डीजल और गैस के दामो मे बढोतरी एक ऐसी ही छलांग है। गिर पडे तो खाक मे मिल जायेगे और पार हो गये तो लोग देखते रह जायेगे।
दरअसल साझी सरकार की सबसे बडी विवशता यह होती है कि वो गरीब की जोरू और गांव की भाभी की तरह होती है। राह चलता उससे मजाक करता है। डां मनमोहन सिह काम करे तो अमेरिका के ऐजेंट। न काम करे तो नाकारा प्रधानमंत्री। सहयोगी दलो की सुने तो कोई निर्णय न ले सके। न सुने तो समर्थन वापस लेने की धमकी। सहयोगी दल अगर देशहित में दबाव बनायें तो समझ मे आता है। पर हर धमकी की परिणिति ज्यादा से ज्यादा पैसा खींचने की होती है। हर धमकी के बाद अपने राज्य के लिए  बडे़-बड़े पैकेज मांगे जाते हैं। मिल जाते है तो सारा विरोध ठंडा पड़ जाता है। नहीं मिलता तो शोर मचाया जाता है। इस सब का परिणाम यह हो रहा है कि देश कि आर्थिक प्रगति की गाड़ी पटरी से उतरती जा रही है। एक तो वैसे ही दुनिया में मंदी का दौर है। दूसरा चीन हमारे बाजारो पर कब्जा कर चुका है। तीसरा आतंकवादी संगठन नकली नोटो का जाल बिछा चुके हैं। ऐसे में इस तरह की राजनैतिक अस्थिरता देश के लिए बडी घातक सिद्ध हो रही है।
पर इसमें दोष सरकार का भी है। भ्रष्टाचार के मामलो में सरकार की कोताही जनता की नाराजगी का कारण बन रही है। पर सोचने वाली बात यह है कि सरकार के भ्रष्टाचार पर हल्ला बोलने वाला मीडिया और विपक्ष क्या यह नहीं जानता कि सरकार के विकल्प के तौर पर जो भी दल खड़े हैं उनका दामन भ्रष्टाचार के दागों से अछूता नहीं है। ऐसे मे जल्दी चुनाव कराने की अधीरता मे जो दल जुटे हैं वे जनता को यह आश्वासन नहीं दे सकते कि मौजूदा सरकार को हटाकर जो सरकार बनेगी वह देश को भ्रष्टाचार से मुक्त कर देगी। ऐसे में यह साफ है कि यदि चुनाव होते है और मौजूदा सत्ताधारी दल सत्ता खो देता है तो भी देश में लूट, सत्ता के लिए आपसी संघर्ष और साझी सरकारों का जल्दी-जल्दी पतन ही होगा। वैसे तो दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के चुनावों को कोई राष्ट्रीय मूड का पैमाना नहीं माना जा सकता, पर एक संकेत जरूर है कि इतने हमलो से घिरे सत्ताधारी दल के प्रति दिल्ली के युवाओं मे विश्वास है। इसे अपनी उपलब्धि न मानकर कांग्रेस को आत्मविश्लेषण करना चाहिए। अपनी कमियों पर ध्यान देकर आम जनता का विश्वास जीतना चाहिए। अपने केन्द्रीय मंत्रिमंडल से लेकर विधानसभाओं तक के दागी सदस्यों को पद से हटाकर नैतिक सुधार के कामो मे लगाना चाहिए। दल के भीतर या दल से बाहर से योग्य और साफ लोगों को सामने लाकर बड़ी जिम्मेदारी सौंपनी चाहिए। यदि ऐसा होता है तो जनता उसका साथ देगी अन्यथा उसे सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा देगी। चाहे उसे और भी ज्यादा भ्रष्ट सरकार को क्यों न झेलना पड़े। यह देश के हित मे नही होगा।     
 

Monday, September 3, 2012

संसद अवरुद्ध कर देश का भला नहीं होगा

कोयला घोटाले पर संसद के सत्र को रोककर सियासी गलियारों में राजनैतिक पार्टियां आगामी लोकसभा चुनाव के लिए अपने-अपने गणित बिठा रही हैं। हो सकता है कि संसद का यह सत्र कोयला घोटाले की भेंट चढ़ जाए। वैसे अभी सत्र समाप्त होने में एक सप्ताह बाकी है। यह भी हो सकता है कि कोई समझौता हो जाए या बिना समझौता हुए ही चुनाव की तैयारी की जाए और संसद भंग हो जाए। लेकिन यह कोई नई घटना नहीं है। स्वतंत्र भारत के इतिहास में आजादी से लेकर आजतक तमाम घोटाले हुए हैं। उन घोटालों को लेकर भी विपक्ष द्वारा संसद को ठप्प किया जाता रहा है। पर उन घोटालों की न तो कभी ईमानदारी से जांच हुई और न किसी को कभी सज़ा मिली। क्योंकि हमाम में सभी नंगे हैं। फिर भी इस बार भाजपा और उसके सहयोगी दल अपने-अपने राजनैतिक गणित के अनुसार अलग-ठलग बैठे हुए हैं। भाजपा के बड़े नेता लालकृष्ण आडवाणी ने तो यह कहा ही है कि अगला प्रधानमंत्री गैर कांग्रेसी होगा। उनका यह बयान भी आगामी लोकसभा चुनाव की रणनीति को ही दर्शाता है। यदि इस शोर के पीछे वाकई मुद्दा भ्रष्टाचार का है तो ऐसा महौल नहीं बनाया जाता। क्योंकि भ्रष्टाचार के मामले को तो आसानी से हल किया जा सकता था। पर पिछले 65 वर्षां में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर शोर चाहे जितना मचा हो, इसका हल ढूंढने की कोशिश नहीं की गई। इसीलिए जब अन्ना हजारे या बाबा रामदेव जैसे लोग अनशन करने बैठते हैं, तो शहरी पढ़े-लिखे लोगों को लगता है कि रातोरात क्रांन्ति हो जायेगी। भ्रष्टाचार मिट जायेगा। देश सुधर जायेगा। पर भ्रष्टाचार की जड़े इतनी गहरी और इतनी व्यापक हैं कि अन्ना हजारे और बाबा रामदेव जैसे आन्दोलन बुलबुले की तरह समाप्त हो जाते हैं । कुछ नहीं बदलता। इसलिए मौजूदा माहौल में भ्रष्टाचार के विरूद्व शोर मचाने वाले दलों का एजेंडा भ्रष्टाचार खत्म करना नहीं बल्कि सत्तापक्ष पर करारा हमला करके आगमी चुनाव के लिए अपनी राह आसान करना है। मैं आजकल अमेरिका के कुछ शहरों में व्याख्यान देने आया हूं। यहां के अप्रवासी भारतीय जो भाजपा को पहले राष्ट्रभक्त और ईमानदार दल मानते थे, अब उससे इनका मोह भंग हो गया है। संसद में मच रहे शोर पर यह लोग यही कहते हैं कि सब एक थैली के चट्टे-बट्टे हैं।
यदि वाकईं तमाम विपक्षी दल, सत्ताधारी दल, नौकरशाह एवं बुद्धिजीवी वर्ग भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए दृढ़ संकल्पित हैंए तो इस माहौल में एक ठोस शुरूआत आज ही की जा सकती है। बोफोर्स घोटाला, हवाला घोटाला, चारा घोटाला, तेलगी कांड, 2जी घोटाला आदि जैसे दस प्रमुख घोटालों की सूची बना ली जाए। सर्वोच्च न्यायालय के ईमानदार जज, सी.बी.आई. के कड़े रहे अफसर, अपराध कानून के विशेषज्ञ व वित्तीय मामलों के विशषज्ञों को लेकर एक स्वतंत्र निगरानी समिति बने, जो इन घोटालो की जांच अपनी निगरानी में, समयबद्व तरीके से करवाये। तो दूध का दूध और पानी का पानी सामने आ जायेगा। शर्त यह है कि इस समिति के सदस्यो का चयन उनके आचरण के बारे में सार्वजनिक बहस के बाद हो। इस पर सरकार का नियंत्रण न हो व उसे स्वतत्रं जांच करने की छूट दे दी जाए। तो एक भी दल ऐसा नहीं बचेगा जिसके नेता किसी न किसी घोटाले में न फंसे हों। अगर ऐसे ठोस कदम उठाए जाते हैं तो संसद को बार-बार ठप्प करने की जरुरत नहीं पडेगी और भष्टाचार के विरुद्ध एक सही कदम की शुरूआत होगी। पर जनता जानती है कि कोई कभी राजनैतिक दल इसके लिए राजी नहीं होगा। इसलिए जो शोर आज मच रहा है उसका कोई मायना नहीं ।
चूँकि भारत में लोकतांत्रिक पंरपरा है और हर पांच साल में लोकसभा के चुनाव होते हैं, इसलिए सभी दलों को चाहे वे सत्ताधारी हों या विपक्ष में हो, जनता को अपने-अपने कार्य दिखाने होते हैं। इसलिए विपक्ष इस प्रकार के हंगामे खड़े करके संसद ठप्प करता है। पर दूसरी तरफ वह भी जानता है कि हमारा चुनावी तंत्र ऐसा है जिसमें भारी पैसे की जरूरत पड़ती है। इसलिए भ्रष्टाचार मिटाने के लिए कोई भी दल आन्तरिक तौर पर तैयार नहीं दिखता। चूंकि जनता में शासन पद्धति को लेकर हताशा बढ़ती जा रही है, इसलिए संसद से लेकर अखबार, टीवी चैनल और सिविल सोसायटी तक में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर खूब शोर मचाया जा रहा है। पर यह शोर स्टीराइड दवा की तरह काम करता है। जो तत्कालीन फायदा करती है, पर ये लम्बा नुकसान कर देती है। यह शोर भी भ्रष्टाचार को हल करने की बजाए ऐसा माहौल बनाने जा रहा है जिससे राजनैतिक अराजकता और अस्थिरता बढे़गी पर भ्रष्टाचार दूर नहीं होगा।
वैसे देश के सामने और भी तमाम मुद्दे हैंए जो देश के शासन, प्रशासन व अन्य क्षेत्रों को दुरूस्त कर सकते हैं। उनपर संसद में कोई सार्थक बहस कभी नहीं होती। 120 करोड़ की आबादी वाले देश में कभी भी स्वास्थ्य (मिलावट खोरी), जल प्रबंधन, भूमि प्रबंधन, कानून व्यवस्था, न्याय व अन्य मुददो पर, जिनसे जनता का हित जुड़ा है, पर कभी ऐसा शोर नहीं मचता। जहां एक तरफ लोगों के रहने के लिए झोपड़ी नसीब नहीं हैं, वहां इस देश के पटवारी, करोडों की जमीन यूंही मुफ्त में, भवन निर्माताओं के नाम चढ़ा देते है। उन्हें उपर से संरक्षण मिलता है। इस देश में आजतक कितने मिलावटखोरों को सजा हुई हैं ? नदी, कुँए, जमीन के भीतर के पानी में जहर घोलने वाले उद्योगपतियों में से कितने जेल गये हैं ? देश की अदालतों में करोड़ों मुकदमें लटके हुए हैं। एक आदमी को कई पीढ़ियों तक न्याय नहीं मिल पाता है। ऐसे तमाम मुद्दे हैं जिन पर ये राजनेता चर्चा ही नहीं करते। यदि करते भी हैं तो खानापूर्ति करते हैं। इसलिए संसद में आ रहे अवरोध से देश का कोई भला नहीं होगा।

Monday, August 27, 2012

क्या देश में आपातकाल जैसे हालात बन रहे हैं ?

दक्षिण भारत के कुछ राज्यों में ई-मेल और एसएमएस के जरिए पूर्वोत्तर राज्यों के नौजवानों को दहशतगर्द मुसलमानों द्वारा जिस तरह डराया-धमकाया गया, उससे वहां अफरा-तफरी मच गई। जिस पर देशभर के मीडिया में खूब शोर मचा। मजबूरन सरकार को कुछ सोशल नेटवर्किंग साइट्स  पर प्रतिबन्ध लगाना पड़ा। जिससे अफवाहों को फैलने से रोका जा सके। इसका कुछ सामाजिक संगठनों ने विरोध किया तो उनको नेतृत्व देने के लिए गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी मैदान में उतर पड़े। उन्होंने अपने ट्व्टिर पर अपनी फोटो पर खुद ही स्याही पोतकर लिखा कि यह आदेश आपातकाल के काले दिनों की याद दिलाने वाला है। गत दो वर्ष से जो माहौल देश में बनाया जा रहा है उसे अंग्रेजी के एक शब्द मे यदि समेटा जाये तो कहा जायेगा कि यह ’रिकैपुचुलेशन’ जैसा है। मतलब यह कि पहले आपातकाल जैसे हालात बनाये जाये और फिर यह कहा जाये कि देखो देश की हालत किस तरह आपातकाल के पूर्व की हो रही है।
बाबा रामदेव और अन्ना हजारे की भ्रष्टाचार विरोधी मुहीम तो अब कहीं हाशिये पर धकेल दी गई। अब तो यह लड़ाई कांग्रेस और भाजपा के बीच लड़ी जा रही है। हर मुददे पर शोर मचाकर सरकार को घेरा जा रहा है। इस उम्मीद में कि 2013 तक चुनाव हो जायें और कंाग्रेस विरोधी लहर बनाकर भाजपा व उसके सहयोगी दल सत्ता में आ जायें। यह पूरी परिस्थिति 1971 की याद दिलाती है। जब बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद इन्दिरा गांधी के विरूद्व देशव्यापी माहौल खड़ा किया गया। हालात ऐसे बन गये कि श्रीमति गांधी को कोई रास्ता नहीं सूझा। स्थिति को नियंत्रण में करने के लिए उन्होंने आपातकाल लागू कर दिया। नतीजतन 1977 के चुनाव में उनकी भारी पराजय हुई। राजनैतिक दृष्टिकोण से और लोकतंत्र के नजरिये से यह एक उपलब्धि मानी गई। पर क्या जय प्रकाश नारायण का सम्पूर्ण क्रांन्ति का सपना सच हो पाया ?
1980 में जनता ने पुनः श्रीमति गांधी को देश की बागडोर सौंप दी। इसी तरह पिछले दिनों अन्ना हजारे को जय प्रकाश नारायण बनाने की असफल कोशिश की गई। अन्ना हजारे और रामदेव दोनों के समर्थन में भाजपा और संघ ने अपनी ताकत झौंक दी। पर जब लगा कि इन दोनों का पूरा उपयोग हो गया तो इनके नीचे से चादर खींच ली गई। अब चाहे अन्ना के लोग कितना ही निष्पक्ष दिखने का प्रयास करें, उनका असली स्वरूप, जो छिपाकर रखने की नाकाम कोशिश की जा रही थी, खुलकर सामने आ गया है। ऐसे में यह लोग हों या बाबा रामदेव, कांग्रेस के विरूद्व भाजपा के हाथ में शतरंज के मौहरे बनकर रह गये हैं। जिनका काम कांग्रेस की छवि खराब करना व उसके वोट काटना ही रह गया है।
इस मामले में भाजपा ने कुशल राजनैतिक चाल चली और आज वह उसमें सफल होती दीख रही है। इसमें भाजपा का कोई दोष नहीं। राजनीति सत्ता के लिए जब की जाये तो साम-दाम दंड-भेद कुछ भी अपनाकर सत्ता हासिल करनी होती है। जब कांग्रेस अपनी रक्षा खुद नहीं कर पा रही तो भाजपा उसका फायदा क्यों न उठाये ? पर अभी यह कहना जल्दीबाजी होगी कि लोकसभा के चुनाव 2013 में होंगे और उसमें भाजपा बढ़त हासिल कर सरकार बनायेगी। कारण साफ है कि दावा चाहे जितना करें भाजपा की कमीज कांग्रेस की कमीज से ज्यादा साफ नहीं है।
तो क्या यह माना जाये कि सभी क्षेत्रिय दलों को जोड़कर और भाजपा व कांग्रेस के नेताओं को तोड़कर विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसा तीसरा मोर्चा बनाने की जो छुटपुट कोशिश की जा रहीं है, वह सफल होगी ? कहा नहीं जा सकता। क्योंकि इस गुट के पास न तो विश्वसनीय नेता है और न ही इसके घटकों के नेताओं की ऐसी छवि है कि लोग उन्हें आंख मीचकर गददी सौंप दें। यूं राजनीति में मतदान के आखिरी दिन तक क्या होगा, किसी को पता नहीं होता। जहां तक सवाल अन्ना के लोगों के नये बनने वाले राजनैतिक दल का है, तो अभी तो ऊंट पहाड़ के नीचे आया ही नहीं, ऐसे में क्या भविष्यवाणी की जाये ? उन्हें शुभकामनाएं दी जा सकती है कि वे सभी प्रमुख राजनैतिक दलों को हराकर सत्ता हासिल करें और अपनी मान्यता के अनुसार नये कानून बनाकर देश की तस्वीर बदले। पर उनके अबतक के कारनामे और बयान उनसे ऐसे किसी गम्भीर काम की सम्भावना का संकेत नहीं देते।
इस तरह बात वहीं लोकतंत्र में राजनैतिक दलों की भूमिका पर आ जाती है। मान लें कि भाजपा अपने लक्ष्य को 2013 या 2014 में पाने में सफल हो जाती है तो क्या इस बात की गारंटी है कि मौजूदा हालात में सरकार की जो भी कमियां और गल्तियां बताई जा रही हैं उनसे भाजपा की नई सरकार मुक्ति दिला देगी और देश के हालातों में क्रांन्तिकारी परिवर्तन कर देगी। उसका अबतक का रिकार्ड, केन्द्र या राज्यों में, ऐसे प्रमाण प्रस्तुत नहीं करता। फिर उस मतदाता की क्या दुर्दशा होगी जो इन बदलावों के लिए सड़कों पर उतरा है या उतरने को तैयार था ? कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि हम एक नाजुक दौर से गुजर रहे हैं। चीन घात लगाये बैठा है। पाकिस्तान भारत में कटटरपन्थी माहौल बनवाकर और दहशतगर्दी फैलाकर देश को कमजोर करने की कोशिश में जुटा है। पर कांग्रेस व भाजपा सहित किसी भी दल को इस खतरनाक परिस्थिति का या तो एहसास नहीं है या यह दोनों ही दल हालात पूरी तरह बिगड़ने देना चाहते हैं, जिससे इनके नेता अपनी राजनैतिक रोटियां सेकते रहे। देश के करोड़ों नौजवानों की महत्वाकांक्षा की उपेक्षा कर अगर राजनीति इसी तरह आरोप प्रत्यारोप की कीचड़ फैंकती रहेगी और समाधान नहीं देगी, तो वास्तव में देश के हालात बेकाबू हो सकते हैं। वह भयावह स्थिति होगी।