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Monday, July 6, 2015

हवाला की याद दिलाता ललित मोदी कांड

ललित मोदी कांड का बवंडर थमने का नाम नहीं ले रहा है। संसद के मानसून सत्र में विपक्ष इस मामले को जोरदारी से उठाने के लिए कमर कसे है। हालांकि भाजपा ने अपनी तरफ से वसुंधरा राजे की बेगुनाही का हवाला देते हुए इस मामले को ठंडा कर दिया था और बात आई गई होने की हालत में पहुंच गई थी। लेकिन आडवाणी की छोटी सी टिप्पणी से इस कांड को जिंदा रहने के लिए कुछ सांसें और मिल गईं।
 आडवाणी ने इस कांड में सुषमा स्वराज और वसुंधरा राजे का नाम लेकर कुछ नहीं कहा, लेकिन राजनेताओं की विश्वसनीयता बरकरार रखने की बात कहते हुए हवाला कांड ने अपने इस्तीफे की याद दिलाई है। उनका कहना है कि बिना मांगे ही उन्होंने हवाला कांड में इसलिए इस्तीफा दे दिया था, ताकि जनता के बीच एक राजनेता की विश्वसनीयता को कोई चोट न पहुंचे।
 जिन्हें हवाला कांड याद होगा, उन्हें यह भी याद होगा कि देश की राजनीति में भूचाल लाने वाले उस कांड में बिना जांच हुए ही राजनेताओं को अदालत ने बरी करवा दिया था। हालांकि भारत के मुख्य न्यायाधीश ने इस मामले को लेते वक्त यह कहा था कि इस कांड में इतने सुबूत हैं कि अगर हम दोषियों को सजा न दिला पाए तो हमें देश की अदालतें बंद कर देनी चाहिए। यहां याद दिलाने की बात यह है कि जब आडवाणी और दूसरे दसियों नेता अपने-अपने इस्तीफे दे रहे थे, तब उनमें से किसी ने भी हवाला कांड की निष्पक्ष जांच करवाने की मांग नहीं की। आडवाणी ने भी हवाला कांड की जांच की मांग नहीं थी। जब वे सुबूतों को दबवाकर बरी हो गए, तो उन्होंने यह कहना शुरू कर दिया कि हम तो निर्दोष थे, हमें जान-बूझकर फंसाया गया है। इस तरह इतने बड़े कांड को सर्वोच्च न्यायालय में ले जाने की मेरी कोशिश पूरी तरह कामयाब नहीं रही। हां, इतना जरूर हुआ कि भारत के इतिहास में पहली बार 115 राजनेता और अफसर चार्जशीट हुए और उन्हें अपने पद छोड़ने पडे़।
 हवाला के अपने इस अनुभव के आधार पर ललित मोदी कांड की जांच की मांग उठायी जा सकती थी, लेकिन यहां गौर करने की बात यह है कि मीडिया जिस तरह खोजी पत्रकारिता कर रहा था, उसमें किसी को भी किसी भी क्षण नहीं लगा कि जांच-पड़ताल की बात उठा दे और अदालत के रास्ते पर चल पड़े। हो सकता है कि यह बात अब इसलिए न उठाई जाती हो कि न्यायालय के रास्ते ऐसे मामालों को सिल्टाने में यकीन कम होता जा रहा है। धारणा यह बन रही है कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की स्थिति कमोवेश एक जैसी होती जा रही है और फिर बड़े नेताओं या बड़े अधिकारियों के मामले में न्याय को अंजाम न पहुंचाने में हमेशा ही मुश्किल आती रही है। अपराधशास्त्री तो इस मुश्किल का इतिहास पिछली कई सदियों से बताते हैं। अपराधशास्त्र पाठ्यक्रम में श्वेतपोश अपराध शीर्षक से पढ़ाए जाने वाले इस विषय को बड़ी बारीकि से समझा जाता है।
 ललित कांड में वसुंधरा का मामला देखें, तो बात यहां आकर गुम हो गई कि वसुंधरा और सुषमा स्वराज ने प्रत्यक्ष रूप से ऐसा क्या किया कि भाजपा उन्हें हटाने को मजबूर हो जाए। दो हफ्ते तक मीडिया में इन दोनों नेताओं और उनके परिवारों के व्यक्तिगत और व्यापार संबंधों को लेकर तथ्य सामने आए और इन दो नेताओं की पार्टी यानि भाजपा के प्रवक्ताओं को मीडिया के सामने मुस्तैदी से बैठे रहना पड़ा - उससे जो छवि मटियामेट होती है, वह तो हो ही गई। हालांकि छवि बिगड़ने से जितनी रोकी जा सकती थी, वह भी रोकी गई। आखिर यही तय हुआ होगा कि इतनी देर बाद अब इस्तीफों से या उन्हें हटाए जाने का क्या फायदा। फायदा यानि राजनीति नफा-नुकसान।
 कुल मिलाकर हवाला कांड में जिस तरह सभी संबंधित नेताओं को फिर से जनता के बीच स्थापित होने में कोई ज्यादा देर नहीं लगी यानि ज्यादातर नेता जनता की अदालत से जीतकर आ गए। उसी तरह ललित मोदी कांड में हम क्यों न मानकर चलें कि सारी बातें आयी गई हो जाएंगी और फिर वसुंधरा के मामले में तो यह बिल्कुल साफ ही है कि वे विपक्ष की नेता थीं। बच्चा-बच्चा ललित मोदी से उनके पारिवारिक मेलजोल के बारे में जानता था। वसुंधरा चुनाव जीती और फिर से पूरे धड़ल्ले से मुख्यमंत्री बन गईं। उन्हें यह मानने में न पहले कोई हिचक थी और न आज कोई हिचक है कि ललित मोदी से उनका बहुत पुराने समय से पारिवारिक मेलजोल है। यानि जनता के बीच यह धारणा बनाने में वसुंधरा सफल रहीं कि ललित मोदी कांड कोई सनसनीखेज या अपराध या घोटाले का बड़ा मामला नहीं और फिर भाजपा के प्रवक्ताओं ने और पार्टी के बड़े नेताओं ने घंटे-दर-घंटे टीवी चैनलों में बैठकर इस कांड को सामान्य घटना साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अब ऐसे मुद्दे पर शोर मचाकर क्या हासिल किया जा सकता है। लोकतंत्र में सबसे बड़ा फैसला जनता का माना जाता है। अब अगर जनता ही वसुंधरा राजे को माफ कर देती हो और उन्हें दोबारा कुर्सी पर बैठने का अवसर देती है, तो फिर किसी को क्या गुरेज हो सकता है।

Monday, September 3, 2012

संसद अवरुद्ध कर देश का भला नहीं होगा

कोयला घोटाले पर संसद के सत्र को रोककर सियासी गलियारों में राजनैतिक पार्टियां आगामी लोकसभा चुनाव के लिए अपने-अपने गणित बिठा रही हैं। हो सकता है कि संसद का यह सत्र कोयला घोटाले की भेंट चढ़ जाए। वैसे अभी सत्र समाप्त होने में एक सप्ताह बाकी है। यह भी हो सकता है कि कोई समझौता हो जाए या बिना समझौता हुए ही चुनाव की तैयारी की जाए और संसद भंग हो जाए। लेकिन यह कोई नई घटना नहीं है। स्वतंत्र भारत के इतिहास में आजादी से लेकर आजतक तमाम घोटाले हुए हैं। उन घोटालों को लेकर भी विपक्ष द्वारा संसद को ठप्प किया जाता रहा है। पर उन घोटालों की न तो कभी ईमानदारी से जांच हुई और न किसी को कभी सज़ा मिली। क्योंकि हमाम में सभी नंगे हैं। फिर भी इस बार भाजपा और उसके सहयोगी दल अपने-अपने राजनैतिक गणित के अनुसार अलग-ठलग बैठे हुए हैं। भाजपा के बड़े नेता लालकृष्ण आडवाणी ने तो यह कहा ही है कि अगला प्रधानमंत्री गैर कांग्रेसी होगा। उनका यह बयान भी आगामी लोकसभा चुनाव की रणनीति को ही दर्शाता है। यदि इस शोर के पीछे वाकई मुद्दा भ्रष्टाचार का है तो ऐसा महौल नहीं बनाया जाता। क्योंकि भ्रष्टाचार के मामले को तो आसानी से हल किया जा सकता था। पर पिछले 65 वर्षां में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर शोर चाहे जितना मचा हो, इसका हल ढूंढने की कोशिश नहीं की गई। इसीलिए जब अन्ना हजारे या बाबा रामदेव जैसे लोग अनशन करने बैठते हैं, तो शहरी पढ़े-लिखे लोगों को लगता है कि रातोरात क्रांन्ति हो जायेगी। भ्रष्टाचार मिट जायेगा। देश सुधर जायेगा। पर भ्रष्टाचार की जड़े इतनी गहरी और इतनी व्यापक हैं कि अन्ना हजारे और बाबा रामदेव जैसे आन्दोलन बुलबुले की तरह समाप्त हो जाते हैं । कुछ नहीं बदलता। इसलिए मौजूदा माहौल में भ्रष्टाचार के विरूद्व शोर मचाने वाले दलों का एजेंडा भ्रष्टाचार खत्म करना नहीं बल्कि सत्तापक्ष पर करारा हमला करके आगमी चुनाव के लिए अपनी राह आसान करना है। मैं आजकल अमेरिका के कुछ शहरों में व्याख्यान देने आया हूं। यहां के अप्रवासी भारतीय जो भाजपा को पहले राष्ट्रभक्त और ईमानदार दल मानते थे, अब उससे इनका मोह भंग हो गया है। संसद में मच रहे शोर पर यह लोग यही कहते हैं कि सब एक थैली के चट्टे-बट्टे हैं।
यदि वाकईं तमाम विपक्षी दल, सत्ताधारी दल, नौकरशाह एवं बुद्धिजीवी वर्ग भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए दृढ़ संकल्पित हैंए तो इस माहौल में एक ठोस शुरूआत आज ही की जा सकती है। बोफोर्स घोटाला, हवाला घोटाला, चारा घोटाला, तेलगी कांड, 2जी घोटाला आदि जैसे दस प्रमुख घोटालों की सूची बना ली जाए। सर्वोच्च न्यायालय के ईमानदार जज, सी.बी.आई. के कड़े रहे अफसर, अपराध कानून के विशेषज्ञ व वित्तीय मामलों के विशषज्ञों को लेकर एक स्वतंत्र निगरानी समिति बने, जो इन घोटालो की जांच अपनी निगरानी में, समयबद्व तरीके से करवाये। तो दूध का दूध और पानी का पानी सामने आ जायेगा। शर्त यह है कि इस समिति के सदस्यो का चयन उनके आचरण के बारे में सार्वजनिक बहस के बाद हो। इस पर सरकार का नियंत्रण न हो व उसे स्वतत्रं जांच करने की छूट दे दी जाए। तो एक भी दल ऐसा नहीं बचेगा जिसके नेता किसी न किसी घोटाले में न फंसे हों। अगर ऐसे ठोस कदम उठाए जाते हैं तो संसद को बार-बार ठप्प करने की जरुरत नहीं पडेगी और भष्टाचार के विरुद्ध एक सही कदम की शुरूआत होगी। पर जनता जानती है कि कोई कभी राजनैतिक दल इसके लिए राजी नहीं होगा। इसलिए जो शोर आज मच रहा है उसका कोई मायना नहीं ।
चूँकि भारत में लोकतांत्रिक पंरपरा है और हर पांच साल में लोकसभा के चुनाव होते हैं, इसलिए सभी दलों को चाहे वे सत्ताधारी हों या विपक्ष में हो, जनता को अपने-अपने कार्य दिखाने होते हैं। इसलिए विपक्ष इस प्रकार के हंगामे खड़े करके संसद ठप्प करता है। पर दूसरी तरफ वह भी जानता है कि हमारा चुनावी तंत्र ऐसा है जिसमें भारी पैसे की जरूरत पड़ती है। इसलिए भ्रष्टाचार मिटाने के लिए कोई भी दल आन्तरिक तौर पर तैयार नहीं दिखता। चूंकि जनता में शासन पद्धति को लेकर हताशा बढ़ती जा रही है, इसलिए संसद से लेकर अखबार, टीवी चैनल और सिविल सोसायटी तक में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर खूब शोर मचाया जा रहा है। पर यह शोर स्टीराइड दवा की तरह काम करता है। जो तत्कालीन फायदा करती है, पर ये लम्बा नुकसान कर देती है। यह शोर भी भ्रष्टाचार को हल करने की बजाए ऐसा माहौल बनाने जा रहा है जिससे राजनैतिक अराजकता और अस्थिरता बढे़गी पर भ्रष्टाचार दूर नहीं होगा।
वैसे देश के सामने और भी तमाम मुद्दे हैंए जो देश के शासन, प्रशासन व अन्य क्षेत्रों को दुरूस्त कर सकते हैं। उनपर संसद में कोई सार्थक बहस कभी नहीं होती। 120 करोड़ की आबादी वाले देश में कभी भी स्वास्थ्य (मिलावट खोरी), जल प्रबंधन, भूमि प्रबंधन, कानून व्यवस्था, न्याय व अन्य मुददो पर, जिनसे जनता का हित जुड़ा है, पर कभी ऐसा शोर नहीं मचता। जहां एक तरफ लोगों के रहने के लिए झोपड़ी नसीब नहीं हैं, वहां इस देश के पटवारी, करोडों की जमीन यूंही मुफ्त में, भवन निर्माताओं के नाम चढ़ा देते है। उन्हें उपर से संरक्षण मिलता है। इस देश में आजतक कितने मिलावटखोरों को सजा हुई हैं ? नदी, कुँए, जमीन के भीतर के पानी में जहर घोलने वाले उद्योगपतियों में से कितने जेल गये हैं ? देश की अदालतों में करोड़ों मुकदमें लटके हुए हैं। एक आदमी को कई पीढ़ियों तक न्याय नहीं मिल पाता है। ऐसे तमाम मुद्दे हैं जिन पर ये राजनेता चर्चा ही नहीं करते। यदि करते भी हैं तो खानापूर्ति करते हैं। इसलिए संसद में आ रहे अवरोध से देश का कोई भला नहीं होगा।