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Monday, January 18, 2016

अमित जोगी, छत्तीसगढ़ और स्टिंग ऑपरेशन

    हाल ही के दिनों में छत्तीसगढ़ में वरिष्ठ कांग्रेसी नेता अजीत जोगी के सुपुत्र अमित जोगी के एक राजनैतिक स्टिंग ऑपरेशन में शामिल होने से बवाल मचा हुआ है। देश की राजनीति में स्टिंग ऑपरेशन राजनैतिक लड़ाई में एक शस्त्र बनता जा रहा है। जबकि इसकी खोज खोजी पत्रकारिता के एक औजार के रूप में हुई थी। जब देश में निजी टीवी चैनल नहीं थे, मात्र दूरदर्शन था, जो सरकारी प्रचारतंत्र का हिस्सा था। उस समय टीवी पर स्टिंग ऑपरेशन जैसी विधा का कोई नाम तक नहीं जानता था। उस समय 1989 में हमने भारत में पहली बार स्वतंत्र हिंदी टीवी पत्रकारिता की नींव डाली। कालचक्र वीडियो मैग्जीन में हर महीने खोजी रिपोर्ट तैयार कर हम देशभर की वीडियो लाइब्रेरियों के माध्यम से दर्शकों तक पहुंचा देते थे। जिन्हें उस वक्त की याद है, उन्हें खूब याद होगा कि कालचक्र ने टीवी पत्रकारिता के क्षेत्र में क्रांति कर दी थी। इसी समय हमने भारत में पहली बार स्टिंग ऑपरेशन की भी शुरूआत की। जिस पर तीखी प्रतिक्रियाएं आयीं। बड़े-बड़े अखबारों में हमारे पक्ष या विपक्ष में संपादकीय लिखे गए। देश में कई जगह इस पर गोष्ठियां हुईं और सेंसर बोर्ड से हमारा गला घोंटने की कोशिशें की गईं।

उस समय दिल्ली के पत्रकारों की भी आधी जमात हमारे खिलाफ थी, जिन्हें लगता था कि हमारी इस विधा से उनके आका राजनेता कभी भी बेनकाब हो सकते हैं। ऐसे सभी हमलों का जवाब देने के लिए 1990 के शुरू में दिल्ली के प्रेस क्लब में मैंने एक संवाददाता सम्मेलन बुलाया। जिसमें लगभग 250 पत्रकारों ने शिरकत की और हम पर सवालों की छड़ी लगा दी। पर हम टस से मस नहीं हुए। हमारा ध्येय स्पष्ट था। हम स्टिंग ऑपरेशन के माध्यम से समाज की बुराइयों को उजागर करना चाहते थे। हमने ऐसा किया भी। पूरे देश ने देखा और माना। लेकिन बाद के दौर में जब निजी टीवी चैनलों की भरमार हो गई। टीआरपी के लिए जद्दोजहद होने लगी। चैनल चलाना आर्थिक रूप से भारी घाटे का काम हो गया, तो वही स्टिंग ऑपरेशन, जिसका लक्ष्य स्वस्थ पत्रकारिता करना और समाज की मदद करना था, ब्लैकमेलिंग का माध्यम बन गया।

    मैं किसी खास पत्रकार या किसी टीवी चैनल पर आक्षेप नहीं कर रहा। पर जो मैं कहने जा रहा हूं, उससे आप सभी पाठक सहमत होंगे। वह यह कि जितने स्टिंग ऑपरेशन आज आपको टीवी चैनलों पर दिखाई देते हैं, उनमें से बहुत थोड़े ऐसे होते हैं, जिनका उद्देश्य वास्तव में जनहित होता है। दरअसल, बहुत सारे स्टिंग ऑपरेशन तो कभी सामने दिखाए ही नहीं जाते। क्योंकि जिनके विरूद्ध यह आॅपरेशन किए जाते हैं, उनसे मोटी रकम लेकर इन्हें दबा दिया जाता है। जाहिरन इनका उद्देश्य पत्रकारिता करना नहीं, बल्कि पत्रकारिता के नाम पर ब्लैकमेलिंग करना होता है।

    जो स्टिंग ऑपरेशन दिखाए भी जाते हैं, वे हमेशा निष्पक्ष नहीं होते। उनके पीछे किसी राजनैतिक दल या व्यक्ति का निहित स्वार्थ छिपा होता है। जो उस पत्रकार या टीवी चैनल को अच्छी खासी रकम देकर अपने हित में खड़ा कर देता है। ताकि उसकी लड़ाई को जनहित की लड़ाई का आवरण पहनाया जा सके। ऐसा स्टिंग ऑपरेशन करने वाले जिस मुद्दे पर किसी खास राजनैतिक दल को अपना शिकार बनाते हैं। पर जब उनके राजनैतिक आकाओं के ऐसे ही कारनामे सामने आते हैं, तो वही पत्रकार स्टिंग ऑपरेशन करना तो दूर, उसकी चर्चा तक करने से बचते हैं। यह कोई पत्रकारिता नहीं हुई, ये तो सीधी-सीधी कुछ लोगों के हितों की लड़ाई हुई, जो पत्रकारिता के नाम पर की जाती है।

    कई बार यह बहस होती है कि आज जब स्टिंग ऑपरेशन एक सामान्य सी बात हो गया है, तो इसे कानूनी जामा पहनाया जाना चाहिए। मतलब ये कि स्टिंग ऑपरेशन करने के कुछ नियम और निर्देश बनाए जाने चाहिए। जिसके तहत स्टिंग ऑपरेशन किया जाय। इसको करने से पहले कुछ निष्पक्ष लोगों की समिति हो, जो उस रिपोर्ट के मसौदे को देखकर स्टिंग ऑपरेशन करने की छूट दे या न दे। इस तरह का आत्मानुशासन हर टीवी चैनल को अपनाना चाहिए, अन्यथा एक वक्त ऐसा आएगा कि जबकि अदालत ही स्टिंग ऑपरेशन पर प्रतिबंध लगा देगी।

    पहली बात तो ये कि स्टिंग ऑपरेशन केवल जनहित में किया जाए, किसी राजनैतिक दल या व्यक्ति के हित में नहीं। दूसरा जिसके खिलाफ स्टिंग ऑपरेशन किया जाता है, उसे बाद में बिना छिपे कैमरे के सामने लाना भी लाजमी होता है। उससे उन्हीं सवालों को दोबारा कैमरे के सामने पूछना चाहिए, जिन्हें छिपे कैमरे से रिकॉर्ड किया गया था। ताकि उसकी यह शिकायत न रहे कि मुझे सफाई देने का मौका नहीं दिया गया। अगर पत्रकारिता की सीमा में रहकर व्यापक जनहित में स्टिंग ऑपरेशन किया जाए, तो इसे गलत नहीं मानना चाहिए। पर जैसा कि हमने पहले कहा कि ब्लैकमेलिंग या निहित स्वार्थों के आपसी झगडेा निपटाने के लिए इसे हथियार की तरह इस्तेमाल करना सही नहीं है। इससे पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लग जाते हैं।

Tuesday, October 2, 2012

अब अन्ना ने पकड़ी सही राह



अपनी टीम की राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं से आहत होकर अन्ना ने जन आन्दोलनों के रास्ते भ्रष्टाचार से लड़ने का निर्णय लिया है. जो सही है. दरअसल हमें तो शुरू से ही इस बात का एहसास था कि जिन लोगों ने अन्ना को पिछले वर्ष पकड़ा था उन सबका छिपा एजेंडा अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करना था. अन्ना को तो केवल मोहरा बनाया जा रहा था. इसलिए पिछले वर्ष के शुरू में ही जब मीडिया और मध्यम वर्ग के लोग टीम अन्ना के दीवाने हो रहे थे तब हमने हर टीवी चैनल, अखबार और पर्चों के माध्यम से देश को आगाह किया था. तब हमारे शुभचिंतकों को आश्चर्य हुआ कि सारी जिंदगी भ्रष्टाचार से लड़ने वाले लोग इस वक्त टीम अन्ना के साथ क्यूँ नहीं खड़े ? आज सबको याद आ रही है हमारी चेतावनी. खैर देर आयद दुरुस्त आयद.
पर अभी भी अन्ना पर खतरा टला नहीं है. इंका और भाजपा से अलग एक नया राजनैतिक विकल्प बनाने कि फ़िराक में जुटे कुछ थके मांदे लोग भी अब अन्ना को अपने जाल में फसाने में जुटे हैं. उन्हें पता है कि अब भी अन्ना कि देश भर में साख है, तो क्यूँ न उसे भुना लें? पर अन्ना को सोचना चाहिए कि आज देश में ऐसा एक भी नेता या दल नहीं है जो भ्रष्टाचार के सवाल पर सख्त कदम उठाने को तैयार हो. अन्ना का प्रयोग करके उन्हें गड्ढे में फेंक दिया जायेगा. फिर वे कहीं के नहीं रहेंगे.
ज़रूरत इस बात की है कि अन्ना ऐसे किसी भी तरह के राजनैतिक जाल में ना फंसे. बिना किसी दल का समर्थन या विरोध किए देश भर में निष्पक्ष लोगों का एक संगठन तैयार करें. जिसके उद्देशय बिलकुल साफ़ हो. भ्रष्टाचार से लड़ना. आम जनता के हक में विकास नीतियां बनवाना और उन्हें ईमानदारी से लागू करवाना. इसके लिए उन्हें पहले एक ऐसी कोर टीम बनानी चाहिए जिसमें सभी सदस्य ऐसे हों जो लंबे समय तक बिना समझौते किए व्यवस्था से लड़ते रहे हों. बिके न हों. झुके न हों. वही लंबे समय तक चल पाएंगे. इसके बाद इस कोर टीम कि मदद से हर प्रांत, जिले और गाँव में भी ऐसे लोगों कि टीम खड़ी हो जायें. इन सभी को इनके स्तर पर लड़ने के लिए कार्यक्रम दिये जाए. शुरू में छोटी छोटी लड़ाई लड़ी जाएँ. जिससे लोगों में लड़ने कि हिम्मत आए और हताशा न फैले. राजनैतिक विद्वेष, हिंसा और अराजकता को बिलकुल हावी न होने दिया जाए.
सरकार और प्रशासन पर हमला करने का जो तरीका टीम अन्ना ने अपनाया था उससे देश भर में अराजकता का माहौल बन रहा है. समाधान तो निकले नहीं और देश के दुश्मनों को देश को कमज़ोर करने का मौका मिले, इससे ज्यादा आत्मघाती बात क्या हो सकती है? इस खतरे कि ओर इन्हीं कॉलमों में हम देश को आगाह करते आए हैं.
उधर अन्ना कि मुश्किल यह है कि वे एक गाँव या महाराष्ट्र की राजधानी तक सीमित रहे हैं. उन्हें देश के योद्धाओं कि न तो जानकारी है और न ही उनसे परिचय. नतीजतन वे सबको शक कि नज़र से देखते हैं. इसलिए इस पूरे अभियान में अभी एकदम तेज़ी नहीं आ सकती. पहले अन्ना को देश भर में घूम कर इन लोगों समझना होगा. विश्वास का रिश्ता कायम करना होगा. यह धीमी मगर ठोस प्रक्रिया है. नतीजा इससे ही आएगा.
आज के माहौल में कांग्रेस, भाजपा, या कोई भी क्षेत्रिय दल क्यूँ न हो भ्रष्टाचार से लड़ने की स्थिति में नहीं है. इसलिए किसी भी दल को लक्ष्य न बना कर व्यवस्था के दोषों को दूर करने कि लड़ाई लड़नी चाहिए. राजनेताओं को लक्ष्य बनाकर गाली देना आसान है. इसीलिए फिल्म हो या जनसभा तालियाँ तभी बजती हैं जब नेताओं को गाल पड़ती हैं. पर भ्रष्टाचार के लिए नेताओं के अलावा जो वर्ग जिम्मेदार है उसकी जकड व्यवस्था पर इतनी मज़बूत है कि मीडिया से लेकर हर संस्था उनके शिकंजे में है. ऐसे में यह लड़ाई आसान नहीं है. पर हिम्मत, सही निर्णय, सही सोच और पक्का इरादा हमें इस देश को सही राह पर ले जाने में मदद करेगा.

Monday, August 13, 2012

बाबा रामदेव ने क्या खोया क्या पाया ?

बाबा रामदेव का धरना मीडिया की निगाह में सफल भले ही ना हो पर इस बार बाबा टीम अन्ना पर भारी पडे़। जिस दौर में टीम अन्ना विफल होकर जंतर मंतर से उठी उस दौर में बाबा रामदेव ने अपनी शैली बदलकर राजनैतिक परिपक्वता का परिचय दिया। न तो उन्होंने टीम अन्ना की तरह राजनैतिक दलों को गाली दी और न ही अपनी मांगों पर अड़ने का बचपना दिखाया। इस तरह बाबा रामदेव ने राजनैतिक सागर की गहराई को सतह पर से मापने की कौशिश की। साधन सम्पन्न बाबा लम्बी पारी खेलने के लिए तैयार हैं इसलिए उन्होंने धीरता का यह नया रूप दिखाया। प्रश्न है कि बाबा की शैली में अचानक यह बदलाव कैसे आया ? क्या बाबा ने मजे हुए राजनैतिक सलाहकारों की मदद ली या फिर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के थिंक टैंक ने उनकी यह नई रणनीति तैयार की ? जो भी हो अगर वे इसी परिपक्वता का परिचय भविष्य में भी देते हैं तो निश्चित रूप से राजनीति के एक छोटे से हिस्से को ही सही, प्रभावित कर पायेंगे। अगर वे फिर पहले जैसा व्यवहार करते हैं तो हाशिये पर खड़े कर दिये जायेंगे।
वैसे बाबा रामदेव के धरने की शुरूआत एक विवादास्पद पोस्टर के कारण अच्छी नहीं रही। अपने सहयोगी आचार्य बालकृष्ण को राष्ट्र के सम्मानित नेताओं और शहीदों के साथ खड़ा करके बाबा ने नाहक मीडिया और देशवासियों की आलोचना झेली। इसके लिए उनकी टीम ने जो भी जिम्मेदार है उसे कान पकड़कर बाहर कर देना चाहिए। आचार्य बालकृष्ण के योगदान को महिमामण्डित करने के अनेक अवसर आये हैं और आयेंगे पर इस तरह का विचार बाबा के सलाहकारों के मानसिक दिवालियेपन का परिचय देता है।
टीम अन्ना ने बाबा की पूर्व घोषित तारीख से पहले अपना धरना शुरू कर बाबा को विफल करने की पूरी साजिश रची । यह बात दूसरी है कि टीम अन्ना अपनी उम्मीद के विपरीत बुरी तरह विफल होकर गई पर साथ ही वह बाबा के धरने की धार भी कुन्द कर गई। धरना शुरू करने से पहले बाबा का मुख्य मुद्दा था काला धन। पर टीम अन्ना की छाया में उन्हें लोकपाल, किसान, मजदूर व अन्य विषयों से जुडे मुद्दे भी उठाने पड़े। इससे उनका मूल मुद्दा पीछे छूट गया। इतने सारे मुद्दे एक साथ उठाने से बाबा के धरने की अहमियत कम हो गई।
मीडिया तो पहले की तरह ही बाबा के धरना स्थल पर मौजूद था। पर बाबा के भाषण में और मंच से जो कुछ बोला जा रहा था वह इस लायक नहीं था कि मीडिया उस पर ध्यान देता। बाबा के कार्यक्रम में खबर देने जैसा कुछ खास नहीं था।
बाबा के मंच पर न तो राष्ट्रीय ख्याति के व्यक्ति दिखाई दिये और न ही स्थानीय नेता। टीवी चैनलों पर टिप्पणीकार यही कहते रहे कि बाबा का आन्दोलन बौद्धिक क्षमता से शून्य है। बाबा के इर्द-गिर्द रहने वालों को यह बात शायद गले न उतरे पर सच है कि इन लोगों ने बाबा की छवि सुधारने का कोई काम नहीं किया, छवि गिरने का काम जरूर हुआ है। इसलिए बाबा को अगर भविष्य में ऐसा कोई राजनैतिक अभियान चलाना है तो उन्हें इस कमी को गम्भीरता से दूर करना होगा।
जहां तक स्थानीय नेतृत्व को मंच प्रदान करने का प्रश्न है तो यह कोई आसान काम नहीं। प्रचार के महत्वाकांक्षी बहुत से लोग इस तरह के आन्दोलनों में इसलिए सक्रिय हो जाते हैं क्योंकि उन्हें प्रचार मिलने की सम्भावना दिखाई देती है। ऐसे लोग मंच को मछली बाजार बना देते हैं पर इनके बिना राजनैतिक ताकत का पूरा प्रदर्शन भी नहीं होता। इस दिशा में बाबा की एक सीमा यह भी है कि उनके आन्दोलनों में शामिल होने वाले लोग उनके अनुयायी या वेतनभोक्ता कर्मचारी हैं, स्वयंसेवी आन्दोलित जनता जनार्दन नहीं। इसलिए इनसे कोई बड़ी राजनैतिक शक्ति बनने की उम्मीद नहीं की जा सकती।
जन आन्दोलनों से जुड़े अनुभवी लोगों का मानना है कि जब बाबा ने अपने तेवर इतने ठण्डे और लोचशील कर ही लिये तो उन्हें इस धरने की जगह तीन दिन का राष्ट्रीय चिन्तन शिविर रखना चाहिए था। जिसमें समाज के विभिन्न वर्गों के अनुभवी लोगों को बुलाकर, लोकतांत्रिक तरीके से देश के सवालों पर मुक्त चिन्तन किया जाता। इससे लोग भी जुटते और बाबा की साख और शक्ति दोनों बढती। ऐसा बाबा निकट भविष्य में भी कर सकते हैं। कुल मिलाकर बाबा का धरना जहां सनसनीखेज खबरों का मसाला नहीं बन पाया वहीं इसने बाबा के व्यक्तित्व में अचानक आये बदलाव का प्रदर्शन किया। यह बदलाव बाबा के लिए उपयोगी है या नहीं यह तो भविष्य बतायेगा। हां इस धरने का सरकार पर कोई असर नहीं पड़ा। उस दृष्टि से धरने को सफल नहीं कहा जा सकता।
बाबा युवा हैं, बालकृष्ण जेल में बंद हैं, मीडिया मुद्दों को उठाने के लिए तैयार हैं और 2014 का संसदीय चुनाव सिर पर है। ऐसे में बाबा का एक सही कदम उन्हें फिर से उनकी खोई प्रतिष्ठा लौटा सकता है या मौजूदा बची प्रतिष्ठा को भी गंवा सकता है।

Monday, July 23, 2012

अन्ना एण्ड कम्पनी का धरना

25 जुलाई को अन्ना एण्ड कम्पनी एक दिन के उपवास पर बैठने जा रही है। ऐसा वो ’देश जगाने’ के लिए कर रही है। यह बात दूसरी है कि पिछले डेढ़ साल से इस कम्पनी का दावा था कि देश की 120 करोड़ जनता उनके साथ है। जब देश की 100 फीसदी जनता अन्ना एण्ड कम्पनी के साथ है तो सो कौन रहा है, जिसे जगाने की जरूरत है ? वैसे अभी यह साफ नहीं हैं कि खुद अन्ना हजारे इस धरने पर बैठेंगे या नहीं। पिछले कुछ महीनों से अन्ना हजारे ने बाबा रामदेव की शरण ले ली है। वे अनेक सार्वजनिक मंचों पर बाबा के साथ ही नजर आते हैं। पिछले हफ्ते महाराष्ट्र में जब संवाददाता सम्मेलन के दौरान पत्रकारों ने अन्ना को घेर कर निरूत्तर कर दिया तो अन्ना बौखला गये और अन्ट-शन्ट बोलने लगे। पत्रकार उनके दोहरे आचरण को लेकर आक्रामक थे। आखिर बाबा रामदेव को अन्ना की रक्षा में उतरना पड़ा।
उधर गत 3 जून को बाबा रामदेव के सांकेतिक धरने के मंच से अरविन्द केजरीवाल ने जो कुछ कहा उससे बाबा के अनुयाइयों और अन्ना एण्ड कम्पनी के बीच मनमुटाव बढ़ा। बाबा के लोगों का मानना था कि अन्ना हजारे और बाबा के कंधे पर चढ़कर अरविन्द ने अपनी पहचान बना ली और अब उन्हें किसी की जरूरत नहीं है अन्ना की भी। शायद इसीलिए अभी तक अन्ना ने अपना रूख इस धरने को लेकर साफ नहीं किया है। इधर बाबा को शिकायत है कि दोनों टीमों के साथ आने के बावजूद क्या वजह है कि अरविन्द ने बाबा के पूर्व घोषित 9 अगस्त के धरने से पहले ही अपने धरने की घोषणा कर डाली ? इतनी छोटी बातों पर भी अगर इन दो समूहों में पारस्परिक विश्वास नहीं है तो देशवासी इनकी बात पर कैसे विश्वास करें ?
अन्ना एण्ड कम्पनी के पिछले डेढ़ वर्ष के कारनामों ने यह साफ कर दिया है कि भ्रष्टाचार खत्म करना उनका ऐजेण्डा नहीं है। इसलिए वे किसी न किसी बहाने चर्चा में रहना चाहते हैं। अन्ना एण्ड कम्पनी मानती है कि उनसे ज्यादा पवित्र और देश की सोचने वाला और कोई नहीं है। इसलिए इस कम्पनी को यह गुमान है कि हम जो भी कह रहे है ठीक है और सरकार को उसे फौरन मान लेना चाहिए। जबकि देशभर के वे लोग जो व्यवस्था के बाहर या भीतर रहकर भ्रष्टाचार से लड़ते रहे है, उनका साफ कहना है कि अन्ना एण्ड कम्पनी का लोकपाल एक मजाक है जिसे न तो वैधता दी सकती है और न ही उससे भ्रष्टाचार दूर होगा।
अन्ना एण्ड कम्पनी आजकल मध्य प्रदेश के दिवंगत क्रान्तिकारी दुष्यंत कुमार की कविताओं का पाठ कर रही है, ’’सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं’’ हालात बदलने की लड़ाई है। कोई पूछे कि जन्तर मन्तर के पहले धरने से लेकर आजतक जितने धरने अन्ना एण्ड कम्पनी ने किये और हिसार के चुनाव प्रचार से लेकर आजतक जो भी कार्यक्रम चलाये हैं, उससे क्या कहीं हालात बदलने का काम हुआ है या सिर्फ हंगामा खड़ा हुआ है। अन्ना एण्ड कम्पनी कहती है कि हम नींव हिलाना चाहते हैं। किसकी, क्या लोकतन्त्र की ? क्योंकि उनके अबतक के कारनामों से भ्रष्टाचार की नींव कहीं भी नहीं हिली। हां लोकतन्त्र को खतरा जरूर हो गया है।
वैसे अबतक के इनके कार्यकलाप भ्रष्टाचार के विरूद्व न होकर केवल सरकार के खिलाफ रहे हैं। यानी मकसद सरकार को बदलना है। पर किसे उसकी जगह बैठाना है इस पर अन्ना एण्ड कम्पनी रहस्यमयी तरीके से खामोश है। अब यह साफ हो जाना चाहिए कि यह मुहीम किस दल को सत्ता में बिठाने के लिए चलाई जा रही है ? अगर भ्रष्टाचार के खिलाफ होती तो भ्रष्टाचार जूझते रहे सभी योद्धा अन्ना एण्ड कम्पनी के साथ खड़े होते। पर ऐसा नहीं है। देशभर के ऐसे सभी योद्धाओं को शुरू से पता है कि इस कम्पनी के नाटक का असली मकसद क्या है।
वैसे इन्हें गम्भीरता से इनके साथ दिखने वाले प्रोफेशनल्स भी नहीं लेते। वे भी आपसे की चर्चा में यही कहते हैं कि अब अन्ना एण्ड कम्पनी का अगला फंक्शन कब होगा। इनका धरना बयान बाजी, टीवी कवरेज, सलीम-जावेद के लिखे फिल्मी डायलोगों की तरह आक्रामक तेवर दिखाते हुए हर मशहूर आदमी पर हमला, बढ़िया खान-पान और मनोरंजन का मिला-जुला रंग लिये होता है। इसलिए लोग मनोरंजन होगा यह सोचकर वहां पहुंच जाते हैं। वहां पहुंचने वालों में ज्यादा तादाद उनकी होती है जिन्होंने भ्रष्ट व्यवस्था का हिस्सा बनकर जिन्दगी का हर लुत्फ उठाया है। कभी भ्रष्टाचार के विरूद्व न तो संघर्ष किया, न तकलीफ झेली, न जान जोखिम में डाली और न हीं बड़े और ताकतवर लोगों से दुश्मनी ली और न ही इस सवाल पर किसी को नुकसान पहुंचाया।  गुल-गुले खाकर और मौज उड़ाकर गुलिस्तां के उजड़ने का रोना रोने वाले घड़ियाली आंसू बहाया करते हैं। इसलिए अन्ना एण्ड कम्पनी का धरना एक मजाक और गीदड़ भभकी बनकर रह गया है।

Monday, June 4, 2012

बाबा राम देव ने क्या खोया क्या पाया ?

जन्तर मन्तर पर बाबा रामदेव के नेतृत्व मे टीम अन्ना ने एक बार फिर दिन भर का धरना किया। इस धरने से बाबा ने क्या खोया क्या पाया इस पर अलग अलग विचार है। धरने की जरूरत इसलिए पड़ी कि पिछले छः महीने से भ्रष्टाचार के विरूद्व बाबा रामदेव व अन्ना हजारे की मुहीम ठण्डी पड़ रही थी। जनता इन आन्दोलनों के नेतृत्व लेकर, अनेक कारणों से, पहले की तरह उत्साहित नहीं थी। इधर मीडिया भी इन आन्दोलनों में अपनी रूचि खो चुका था। इसलिए आन्दोलन से जुड़े कार्यकर्ताओं में हताशा व्याप्त थी। उनको अपने नेतृत्व पर दबाव था कि कुछ ऐसा किया जाये जो आन्दोलन ठण्डा न पड़े। इसलिए बाबा ने इस धरने का फैसला किया और इसके लिए दो महीने तक देशभर में जी जान लगाकर लोगों को उत्साहित करने की कोशिश की। इस बीच अन्ना हजारे को अपनी ही टीम के बीच हो रहे रोज के झगड़ों ने परेशान कर दिया। अन्ना को लगा कि अगर टीम अन्ना के चक्कर में ही फंसे रहे तो रही सही साख भी जाती रहेगी। इसलिए उन्होनें बाबा की शरण ली। जो टीम अन्ना को नागवार गुजरा। उनके बयान इस फैसले के खिलाफ आये। इससे असमंजस की स्थिति पैदा हुई। अन्ततः टीम अन्ना को लगा कि बाबा के धरने में न जाकर उनका घाटा ही है इसलिए सब वहाँ जाकर खड़े हो गये।
बाबा रामदेव के मंच से जो कुछ कहा गया उसमें पुरानी बातो को ही दोहराया गया। काले धन को लाने और भ्रष्टाचार को रोकने के बारे में जो भी बयान दिये गये उनमें ऐसी रोशनी दिखाई नहीं दी जिससे इन समस्याओं का हल निकाला जा सके। आगे का जो आव्हान किया गया है उसमें राजनैतिक दलों के अध्यक्षों और सासंदो का समर्थन जुटाने की बात की गई है। साथ ही आन्दोलन और धरनों के दौर को बनाये रखने का भी संकल्प लिया गया है। जोकि लोकतान्त्रिक व्यवस्था में जायज तरीका है। पर क्या इस प्रक्रिया से हल निकल पायेगा?
इस पूरे आन्दोलन की आधार रेखा यह है कि सरकार ही भ्रष्टाचार के लिए पूरी तरह जिम्मेदार है। सरकार काला धन बाहर नहीं निकालना चाहती। सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़े कानून नहीं बनाना चाहती। पर यह बात पूरी तरह से सही नही है। निश्चित रूप से सरकार की ज्यादा जिम्मेदारी होती है। पर क्या यह सही नही है कि किसी भी दल की सरकार क्यों न हो उसका रवैया एक सा ही रहता है। अगर आन्दोलनकारी सरकार का मतलब केवल केन्द्र सरकार मानते है और दावा करते है कि उन्हें अनेक विपक्षी दलों का समर्थन हासिल है तो सोचने वाली बात है कि इन विपक्षी दलों की इन प्रान्तों में सरकारे हैं, क्या वे प्रान्त भ्रष्टाचार से मुक्त है ? दरअसल भ्रष्टाचार का कारण हमारी चुनाव व्यवस्था, न्याय प्रणाली, औद्यौगिक हित, हमारा मूल चरित्र व इस देश का प्रशासनिक ढांचा है। जिसमें बुनियादी बदलाव की जरूरत है। कोई एक दल की सरकार अकेले इस काम को नहीं कर सकती। इस बात को आन्दोलनकारी या तो समझते नहीं या जान बूझकर अनदेखा कर रहे है। अगर समझते नही तो वे इस आन्दोलन को कोई सकारात्मक दिशा नही दे पायेंगें और अगर समझते है फिर भी सार्वजनिक रूप से स्वीकारते नही, तो उनकी मंशा पर शक किया जायेगा।
निसंदेह बाबा रामदेव ने पिछले दो सालों में इन मुद्दों पर देशभर में जिज्ञासा जगाई है। यह उनकी सबसे बड़ी उपलब्धी है। अब उनका उदेश्य व्यवस्था परिवर्तन के लिए जमीन तैयार करना होना चाहिए। जो भी राजनैतिक दल बाबा को समर्थन का आश्वासन दे रहे है उनसे दो बातें कही जायें। पहली अपने दल द्वारा शासित राज्य को भ्रष्टाचार को मुक्त करके दिखायें। दूसरा संसद के मानसून सत्र में इन मुददों पर लगातार खुली बहस चलायें। केवल रस्म आदायगी न करें। उधर बाबा को जनजागरण का अपना अभियान जारी रखना चाहिए। पर उसका तेवर लोगो को समाधान देना होना चाहिए। समाधान ऐसा हो कि लोग उससे इतने सहमत हों कि उसके समर्थन में पूरी ताकत से उठ खड़े हों । इससे व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई को बल मिलेगा। यह एक धीमी पर सतत प्रक्रिया होगी। जिसके परिणाम जल्दी तो नही आयेंगे पर दूरगामी होंगे।
पिछले कुछ महीनों से देशभर के अनेक सामाजिक कार्यकर्ता बाबा रामदेव से जुड़े हैं। ये वो लोग हैं जो पिछले तीन दशकों से देश के अलग अलग हिस्सो में, अगल अलग विचारधारा से सामाजिक सरोकार के मुददों पर संघर्षशील रहे है। इन लोगों ने गांवों से जिलों तक व्यवस्था के प्रभाव को देखा है और व्यवस्था से भिड़े है। इसलिए उनकी जमीनी समझ अच्छी है। पर राष्ट्रीय स्तर की समझ सैद्वान्तिक तो है पर व्यवहारिक अनुभव की कमी है। इसलिए यह लोग कभी एकजुट होकर देश में कोई बड़ा आन्दोलन नहीं खडा़ कर पाये। अब बाबा के संसाधनों की छत्र छाया में इन्हें मौका मिला है। पर अभी तक इनकी बाबा के साथ पूरी जुगलबन्दी नहीं हुई है। इनका मानना है कि बाबा आत्मकेन्द्रित हैं। जबकि बाबा चाहते हैं कि यह सब उनके नेतृत्व में एक जुट हो जायें। इसलिए अन्दरूनी रस्साकशी जारी है। देखना होगा कि आने वाले समय में अन्ना, सामाजिक संगठन, बाबा रामदेव के अनुयायी कहां तक एकमत हो पाते हंै। देखना यह भी होगा कि बाबा और उनका कोरगु्रप काले धन और भ्रष्टाचार के मामले पर अपनी रणनीति को व्यवहारिक और दलनिपेक्ष बना पाते हैं या नहीं ? इस पर ही इस आन्दोलन का भविष्य निर्भर करेगा।