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Monday, May 2, 2022

मुख्य मंत्री योगी जी की भ्रष्टाचार के विरुद्ध क्रांतिकारी पहल


उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री योगी जी ने एक क्रांतिकारी घोषणा की है कि सभी अफ़सर, मंत्री व विधायक तीन महीने के अंदर अपनी चल-अचल सभी सम्पत्तियों की घोषणा सार्वजनिक करें। ज़ाहिर है कि इस घोषणा से अफ़सरशाही और मंत्रियों में हड़कम्प मचेगा। भ्रष्टाचार से जनता हमेशा त्रस्त रहती है। इसलिए जब भी कोई नेता इस मुद्दे को उठाता है तो उसकी लोकप्रियता सातवें आसमान पर चढ़ जाती है। योगी जी को भी इस घोषणा से ये लाभ मिल सकता है। बशर्ते वे इसे अपने बुलडोज़र वाले तेवर से लागू करें।
 


बोफ़ोर्स का मुद्दा उठाकर ही विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बन गए थे। इसी मुद्दे को उठाकर अरविंद केजरीवाल मुख्यमंत्री बन गए। ये बात दूसरी है कि दोनों के मुद्दे फुस्स रहे और जिनके ख़िलाफ़ इन्होंने अपना अभियान चलाया था और ढेरों सबूत सामने लाने का जन सभाओं में बार-बार आश्वासन दिया था, वो कभी सामने ही नहीं आए। 


दरअसल कोई भी नेता भ्रष्टाचार से ईमानदारी से लड़ना नहीं चाहता। सब इस पर शोर मचा कर कुर्सी हथियाते हैं और फ़िर मौन हो जाते हैं। पर योगी जी कुर्सी पाने के बाद भी अगर इस अभियान को शुरू कर रहे हैं तो उन्हें हल्के में नहीं लेना चाहिए। बाबा इरादे के पक्के हैं और जानते हैं कि प्रदेश के विकास का धन हुक्मरानों की तिजोरियों में चला जा रहा है। इसलिए वे इस मुहीम को कैसे आगे बढ़ाते हैं ये बात प्रदेश की ही नहीं देश भर की जनता देखेगी।


पर योगी जी को ये ध्यान रखना होगा कि उनके इर्द गिर्द के अफ़सरान ही उनके इस महत्वपूर्ण अभियान को पलीता न लगा दें। जैसा वे अभी तक लगाते आए हैं। इस कॉलम के पाठकों को याद होगा कि 29 जून 2020 और 20 जुलाई 2020 को हमने योगी जी के वीआईपी पाइलट कैप्टन प्रज्ञेश मिश्रा के भारी भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाया था। इस पाइलट के परिवार की 200 से ज़्यादा ‘शैल कम्पनियों’ में हज़ारों करोड़ रुपया घूम रहा है। जिसे सप्रमाण दिल्ली में मेरे सहयोगी, कालचक्र समाचार ब्युरो के प्रबंधकीय सम्पादक रजनीश कपूर ने उजागर किया था। कपूर की शिकायत पर ही प्रवर्तन निदेशालय ने प्रज्ञेश मिश्रा के ख़िलाफ़ जाँच करने का नोटिस उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव को 19 मई 2020 को जारी किया था। आश्चर्य है कि दो साल में भी इसकी जाँच क्यों नहीं हुई? 


रजनीश कपूर ने उत्तर प्रदेश की महामहिम राज्यपाल आनंदी बेन पटेल को भी इसकी जाँच न होने की लिखित शिकायत अप्रैल 2021 भेजी। राज्यपाल महोदया ने तुरंत 31 मई 2021 को उत्तर प्रदेश शासन को इस जाँच को करने के निदेश दिए। पर उस जाँच का क्या हुआ, आज तक नहीं पता चला। 


इस बीच यूपी के कई बड़े अफ़सरों व नेताओं ने रजनीश कपूर पर दबाव डालने की नाकाम कोशिश की जिससे वे इस जाँच को करवाने की अपनी ज़िद छोड़ दें। जाहिरन उन सबके सैकड़ों करोड़ रुपए कैप्टन प्रज्ञेश मिश्रा की कम्पनियों में लगे होंगे, तभी उन सब में आज तक इस मामले को लेकर इतनी बेचैनी है। 


रजनीश कपूर ने कैप्टन प्रज्ञेश मिश्रा की इन ‘शैल कम्पनियों’ की कई सूचियाँ भी योगी जी के कार्यालय को भेजी हैं। मैने भी ट्वीटर पर योगी जी का ध्यान कई बार इस ओर दिलाया है कि ये जाँच जानबूझकर दबाई जा रही है। उधर उत्तर प्रदेश शासन ने अपनी तरफ़ से आश्वस्त होने के लिए या कपूर का नैतिक बल परखने के लिए, उनसे शपथ पत्र भी लिया कि वे अपनी शिकायत पर क़ायम हैं और पूरी ज़िम्मेदारी से ये मामला जनहित में उठा रहे हैं। इसके बाद भी जाँच क्यों नहीं हुई ये चिंता का विषय है। अगर इन कम्पनियों में घूम रहे हज़ारों करोड़ रुपए का स्रोत कैप्टन प्रज्ञेश मिश्र या उनके परिवारजनों से कड़ाई से पूछा गया होता तो अब तक प्रदेश के कितने ही बड़े अफ़सर और नेता बेनक़ाब हो चुके होते। इसीलिए उन्होंने इस जाँच को आज तक आगे नहीं बढ़ने दिया और योगी जी को लगातार धोखे में रखा। अब योगी जी को इस जाँच का बुलडोज़र तेज़ी से चलाना चाहिए। इस से उनकी छवि तो बनेगी ही, भ्रष्टाचार के विरुद्ध उनके इस अभियान की ईमानदारी भी सिद्ध होगी। क्योंकि किसी मुख्यमंत्री के एक साधारण से पाइलट को कुछ लाख रुपए का ही वेतन मिलता है। उस पर इतनी अकूत दौलत कहाँ से आ गयी, ये योगी जी के लिए गहरी चिंता का कारण होना चाहिए। 


इस पाइलट पर यह भी आरोप था कि इसने अपने आपराधिक इतिहास की जानकारी छुपा कर अपने लिए ‘एयरपोर्ट एंट्री पास’ हासिल किया था। इसकी शिकायत भी रजनीश ने नागर विमानन सुरक्षा ब्यूरो (बीसीएएस) के महानिदेशक  राकेश अस्थाना से की और जाँच के बाद सभी आरोपों को सही पाए जाने पर इसका ‘एयरपोर्ट एंट्री पास’ भी रद्द किया गया। 


उत्तर प्रदेश सरकार में सूत्रों की मानें तो जब योगी जी को इस पाइलट की असलियत का पता चला तो कैप्टन प्रज्ञेश मिश्रा, जो कि उस समय उत्तर प्रदेश नागरिक उड्डयन विभाग का ऑपरेशन मैनेजर था, उसका प्रदेश के किसी भी हवाई अड्डे पर प्रवेश वर्जित कर दिया गया। रजनीश कपूर की शिकायत पर ही कैप्टन प्रज्ञेश मिश्रा का हवाई जहाज उड़ाने का लाईसेंस भी डीजीसीए से सस्पेंड कर दिया गया था। योगी जी के निर्देश पर मुख्यमंत्री कार्यालय और आवास पर भी उसका प्रवेश प्रतिबंधित कर दिया गया था। पर उसके महाघोटालों को देखते हुए ये सब बहुत सतही कार्यवाही है। उत्तर प्रदेश शासन के जो ताक़तवर मंत्री और अफ़सर उसके साथ अपनी अवैध कमाई को ठिकाने लगाने में आज तक जुटे रहे हैं, वो ही उसे आज भी बचाने में लगे हैं। क्योंकि कैप्टन प्रज्ञेश मिश्रा के विरुद्ध ईमानदारी से जाँच का मतलब उत्तर प्रदेश शासन में बीस वर्षों से व्याप्त भारी भ्रष्टाचार के क़िले का ढहना होगा। तो ये लोग क्यों कोई जाँच होने देंगे? 


इसी के साथ एक काम करना और ज़रूरी है जो योगी जी के इस अभियान को सफल बनाएगा। आज प्रदेश में विकास का काम करने के लिए सैंकड़ों करोड़ रुपए के बजट से खेलने वाले कुछ ऐसे अफ़सर हैं जो एक ही शहर में बीस बीस बरस से कुंडली मारे बैठे हैं। कोई भी सरकार आ जाए ये विभाग बदल बदल कर वहीं तैनात रहते हैं। इसका एक सबसे बड़ा उदाहरण तो मथुरा के ‘ब्रज तीर्थ विकास परिषद’ में ही देखा जा सकता है। किसी अफ़सर का एक शहर में तीन बरस से ज़्यादा रहना उसकी ईमानदारी पर सवाल खड़े करता है। इसलिए शुरू से ये प्रथा रही है कि अफ़सरों के तबादले हर तीन साल में कर दिए जाते हैं। योगी जी को पूरे प्रदेश में ये फेरबदल भी तुरंत करनी होगी वरना वे भ्रष्टाचार पर लगाम नहीं कस पाएँगे। अब देखना यह है कि भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ हिम्मत से छेड़ी इस मुहीम को योगी जी कितनी तेज़ी से आगे बढ़ाते हैं ?

Monday, March 28, 2022

योगी जी! ऐसे सुधरेंगी धर्मनगरियाँ

योगी सरकार उ. प्र. की धर्मनगरियों को सजाना-संवारना चाहती है। स्वयं मुख्यमंत्री इस मामले में गहरी रूचि रखते हैं। उनकी हार्दिक इच्छा है कि उनके शासनकाल में मथुरा, वाराणसी, अयोध्या और चित्रकूट का विकास इस तरह हो कि यहां आने वाले श्रद्धालुओं को सुख मिले। इसके लिए वे सब कुछ करने को तैयार हैं। योगी जी ने पिछले कार्यकाल में इन धार्मिक शहरों के विकास के लिए उदारता से बड़ी मात्रा में धन आवंटित किया। पर क्या जितना पैसा लगा उससे वैसे परिणाम भी सामने आए? ईसा से तीन सदी पूर्व पूरे भारत पर राज करने वाले मगध सम्राट अशोक अपने अफ़सरों की दी सूचनाओं पर ही निर्भर नहीं रहते थे। बल्कि भेष बदल कर ज़मीनी हक़ीक़त का जायज़ा लेने प्रायः खुद निकलते थे। योगी जी अगर मथुरा, वृंदावन, अयोध्या व काशी आदि में इसी तरह भेष बदल कर स्थानीय निवासियों, संत गणों और तीर्थयात्रियों की राय लें तो उनको सही स्थिति का पता चलेगा।  


धर्मनगरियों व ऐतिहासिक भवनों का जीर्णोंद्धार या सौन्दर्यीकरण एक बहुत ही जटिल प्रक्रिया है। जटिल इसलिए कि चुनौतियां अनंत है। लोगों की धार्मिक भावनाएं, पुरोहित समाज के पैतृक अधिकार, वहां आने वाले लाखों आम लोगों से लेकर मध्यम वर्गीय व अति धनी लोगों की अपेक्षाओं को पूरा करना बहुत कठिन होता है। सीमित स्थान और संसाधनों के बीच व्यापक व्यवस्थाऐं करना, इन नगरों की ट्रैफ़िक, सफ़ाई, कानून व्यवस्था और तीर्थयात्रियों की सुरक्षा को सुनिश्चति करना बड़ी चुनौतियाँ हैं। 


इस सबके लिए जिस अनुभव, कलात्मक अभिरूचि व आध्यात्मिक चेतना की आवश्यक्ता होती है, प्रायः उसका प्रशासनिक व्यवस्था में अभाव होता है। सड़क, खड़ंजे, नालियां, फ्लाई ओवर जैसी आधारभूत संरचनाओं के निर्माण का अनुभव रखने वाला प्रशासन तंत्र इन नगरों के जीर्णोंद्धार और सौन्दर्यीकरण में वो बात नहीं ला सकता, जो इन्हें विश्वस्तरीय तीर्थस्थल बना दे। कारण यह है कि सड़क, खड़जे की मानसिकता से टैंडर निकालने वाले, डीपीआर बनाने वाले और ठेके देने वाले, इस दायरे के बाहर सोच ही नहीं पाते। अगर सोच पात होते तो आज तक इन शहरों में कुछ कर दिखाते। पिछले इतने दशकों में इन धर्मनगरियों में विकास प्राधिकरणों ने क्या एक भी इमारत ऐसी बनाई है, जिसे देखा-दिखाया जा सके? क्या इन प्राधिकरणों ने शहरों की वास्तुकला को आगे बढाया है या इन पुरातन शहरों में दियासलाई के डिब्बों जैसे भवन खड़े कर दिये हैं। जिनमें लाल पत्थर के होटल, गेस्ट हाउस, दुकानें आदि बनाए गए हैं। जिनसे न तो तीर्थ विकास हुआ है और न ही उस तीर्थ का सौंदर्यकरण ही हुआ है। नतीजतन ये सांस्कृतिक स्थल अपनी पहचान तेजी से खोते जा रहे हैं। ये निर्माण तो व्यापारी समाज हर धर्म नगरी या पर्यटक स्थल में स्वयं ही कर लेता है। उसमें जनता के कर का दिया हुआ सरकारी धन बर्बाद करने की क्या आवश्यकता है? 


माना कि शहरीकरण की प्रक्रिया को रोका नहीं जा सकता। बढ़ती आबादी की मांग को भी पूरा करना होता है। मकान, दुकान, बाजार भी बनाने होते हैं, पर पुरातन नगरों की आत्मा को मारकर नहीं। अंदर से भवन कितना ही आधुनिक क्यों न हो, बाहर से उसका स्वरूप, उस शहर की वास्तुकला की पहचान को प्रदर्शित करने वाला होना चाहिए। भूटान एक ऐसा देश है, जहां एक भी भवन भूटान की बौद्ध संस्कृति के विपरीत नहीं बनाया जा सकता। चाहे होटल, दफ्तर, मकान, स्कूल, थाना, पेट्रोल पम्प या दुकान, कुछ भी हो। सबके खिड़की, दरवाजे और छज्जे बौद्ध विहारों के सांस्कृतिक स्वरूप को दर्शाते हैं। इससे न सिर्फ कलात्मकता बनीं रहती है, बल्कि ये और भी ज्यादा आकर्षक लगते हैं। दुनिया के तमाम पर्यटन वाले नगर, जैसे पिटर्सबर्ग (रूस), फ़्लोरेंस (इटली) या पेरिस (फ़्रांस) आदि इस बात का विशेष ध्यान रखते हैं। जबकि उ. प्र. में आज भी पुराने ढर्रे से सोचा और किया जा रहा है। फिर कैसे सुधरेगा इन नगरों का स्वरूप?


जुलाई 2017 में जब मैंने उ. प्र. के नए बने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी को उनके लखनऊ कार्यालय में मथुरा के तीर्थ विकास के बारे में ‘पावर पाइंट’ प्रस्तुति दी, तो मैंने उनसे स्पष्ट शब्दों में कहा कि महाराज! दो तरह का भ्रष्टाचार होता है, ‘करप्शन ऑफ डिजाईन’ व ‘करप्शन ऑफ इम्पलीमेंटेशन’। यानि नक्शे बनाने में भ्रष्टाचार और निर्माण करने में भ्रष्टाचार। निर्माण का भ्रष्टाचार तो भारतव्यापी है। बिना कमीशन लिए कोई सरकारी आदमी कागज बढ़ाना नहीं चाहता। पर डिजाईन का भ्रष्टाचार तो और भी गंभीर है। यानि तीर्थस्थलों के विकास की योजनाऐं बनाने में ही अगर सही समझ और अनुभवी लोगों की मदद नहीं ली जायेगी और उद्देश्य अवैध धन कमाना होगा, तो योजनाऐं ही नाहक महत्वाकांक्षी बनाई जायेंगी। गलत लोगों से नक्शे बनावाये जायेंगे और सत्ता के मद में डंडे के जोर पर योजनाऐं लागू करवाई जायेंगी। नतीजतन धर्मक्षेत्रों का विनाश  होगा, विकास नहीं।


पिछले तीन दशकों में, इस तरह कितना व्यापक विनाश धर्मक्षेत्रों का किया गया है कि उसके दर्जनों उदाहरण दिये जा सकते हैं। फिर भी अनुभव से कुछ सीखा नहीं जा रहा। सारे निर्णय पुराने ढर्रे पर ही लिए जा रहे हैं, तो कैसे सजेंगी हमारी धर्मनगरियां? मैं तो इसी चिंता में घुलता जा रहा हूं। शोर मचाओ तो लोगों को बुरा लगता है और चुप होकर बैठो तो दम घुटता है कि अपनी आंखों के सामने, अपनी धार्मिक विरासत का विनाश कैसे हो जाने दें? योगी जी पैसे कमाने के लिए सत्ता में नहीं आये हैं। मगर समस्या यह है कि उन्हें सलाह देने वाले तो लोग वही हैं ना, जो इस पुराने ढर्रे के बाहर सोचने का प्रयास भी नहीं करते। इसलिए अपने दूसरे कार्यकाल में उन्हें राग-द्वेष से मुक्त हो कर नए तरीक़े से सोचना होगा।


चूंकि धर्मक्षेत्रों का विकास करना आजकल ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ का भी उद्देश्य हो गया है, इसलिए संघ नेतृत्व को भी चाहिए कि धर्मक्षेत्रों के विकास पर स्पष्ट नीति निधार्रित करने के लिए अनुभवी और चुने हुए लोगों की गोष्ठी बुलाए और उनकी राय लेकर नीति निर्धारण करवाये। नीतियों में क्रांतिकारी परिवर्तन किये बिना, वांछित सुधार आना असंभव है। फिर तो वही होगा कि ‘चौबे जी गये छब्बे बनने और दूबे बनके लौटे’। यही काम योगी जी को अपने स्तर पर भी करना चाहिए। पर इसमें भी एक खतरा है। जब कभी सरकारी स्तर पर ऐसा विचार-विमर्श करना होता है, तो निहित स्वार्थ सार्थक विचारों को दबवाने के लिए या उनका विरोध करवाने के लिए, सत्ता के दलालनुमा लोगों को समाजसेवी या विशेषज्ञ बताकर इन बैठकों में बुला लेते हैं और सही बात को आगे नहीं बढ़ने देते। इसलिए ऐसी गोष्ठी में केवल वे लोग ही आएं, जो स्वयंसिद्ध हैं, ढपोरशंखी नहीं। योगी जी अपने दूसरे कार्यकाल में ऐसे क्रांतिकारी और लकीर से हट कर नई सोच वाले कदम उठा पायेंगे या नहीं, ये तो वक्त ही बताएगा। अगर वो ऐसा कर पाते हैं तो उनकी उपलब्धियाँ पिछले कार्यकाल की तुलना में ज़्यादा सराहनीय होंगी। क्योंकि वे विश्व भर के धर्म प्रेमियों को इन तीर्थों की ओर आकर्षित कर पाएँगी। बनारस में एक कहावत मशहूर है ‘रांड, सांड, सीढ़ी, सन्यासी, इनसे बचें तो सेवें काशी’, अर्थात् पुराने मकड़ जाल से निकल कर ही होगा तीर्थों का सही विकास।  

Monday, February 28, 2022

उत्तर प्रदेश में चुनावी भाषणों का गिरता स्तर


ज्यों-ज्यों उत्तर प्रदेश विधान सभा का चुनाव अपने अंतिम चरणों की ओर पहुँच रहा है, त्यों-त्यों राजनैतिक भाषणों का स्तर तेज़ी से गिरता जा रहा है। लोकतंत्र के लिए ये बहुत बड़ी ख़तरे की घंटी है। आज़ादी के बाद से दर्जनों चुनाव हो गए पर ऐसी भाषा पहले कभी नहीं सुनी गई जैसी आज सुनी जा रही है। प्रदेश के मुख्य मंत्री और गौरक्ष पीठ के महंत से अपेक्षा होती है कि वे अपनी उपलब्धियों का बखान करेंगे और धर्म शस्त्रों से उदाहरण लेकर सारगर्भित ऐसे भाषण देंगे जिसमें उनके केसरिया स्वरूप के अपरूप कुछ आध्यात्मिकता का पुट हो। इसके विपरीत योगी आदित्यनाथ का चुनावी जनसभाओं में खुलेआम यह कहना कि,
चर्बी निकाल दूँगा, जून महीने में शिमला बना दूँगा, सब बुलडोज़रों की मरम्मत के आदेश दे दिए हैं, 10 मार्च के बाद सब हरकत में आ जाएँगे, चुनाव आचार संहिता का तो खुला उलंघन है ही। उनके स्तर के व्यक्ति की गरिमा और पद के भी बिलकुल विपरीत है। 


योगी जी कैराना से लेकर आजतक बार-बार चुनावी लड़ाई को 80 फ़ीसद बनाम 20 फ़ीसद या अब्बाज़ान के भाईजान बता कर अखिलेश यादव का मज़ाक़ उड़ते हैं। यही भाषा भाजपा के राष्ट्रीय स्तर के नेता भी बाल रहे हैं। उन सब से मेरा प्रश्न है कि जब 1993 में देश में पहली बार हिज़बुल मुजाहिद्दीन को दुबई व लंदन से हवाला के ज़रिये आ रहे पैसे का मैंने भांडा फोड़ किया था तब आपकी भाजपा व आरएसएस ने क्यों नहीं उस लड़ाई में साथ दिया? अगर दिया होता तो देश में आतंकवाद कब का नियंत्रित हो जाता। पर तब तो आप लोग भाजपा के बड़े नेताओं को बचाने में जुट गये थे, जिन्होंने आतंकवादियों के इसी  स्रोत से खूब पैसे लिए थे। यानी राष्ट्र की सुरक्षा की आप लोगों को कोई चिंता नहीं है। अपने नेताओं को देशद्रोह के अपराध में फ़सने से बचाना ही क्या आपका राष्ट्रवाद है? फिर आप किस मुह से अपने विपक्षियों पर आतंकवादियों का साथ देने का आरोप लगाते हैं?


उधर तेलंगाना के भाजपा विधायक का खुलेआम धमकी देना कि, जो योगी को वोट नहीं देंगे, उन्हें उत्तर प्रदेश में रहने नहीं दिया जाएगा और यह भी कहना कि सारे देश से बुलडोज़र उत्तर प्रदेश की ओर चल दिए हैं, जो 10 मार्च के बाद विरोधियों को तबाह करेंगे। जो भाजपा सपा पर गुंडागर्दी का आरोप लगाते नहीं थकती उसके बड़े नेताओं की ऐसी बयानबाज़ी क्या हद दर्जे की गुंडागर्दी का प्रमाण नहीं है? हद तो तब हो गई जब देश के प्रधान मंत्री ने अहमदाबाद के बम धमाकों में साइकिल को घसीट कर सपा पर हमला बोला। मोदी जी ने कहा कि उस हमले में साइकिल का प्रयोग हुआ था और साइकिल समाजवादियों का चुनाव चिन्ह है। इसलिए समाजवादी आतंकवाद के समर्थक हैं। जबकि उस बम कांड की जाँच कर रहे डीसीपी अभय चूडास्मा ने स्पष्ट किया था, "लाल और सफ़ेद कारों में विस्फोटक फिट किया गया था। जाँच रिपोर्ट में कहीं साईकिल का ज़िक्र नहीं है। तब मोदी जी और मनमोहन सिंह घटनास्थल पर मुआयना करने गए थे। अभय चूडास्मा, हिमांशु शुक्ल, जीएल सिंघल तीनों आईपीएस अधिकारियों की यह रिपोर्टें अदालत में दाखिल हैं। 


साइकिल को इस तरह आतंकवाद से जोड़ कर मोदी जी क्या संदेश देना चाहते हैं? हर बच्चा जब चलना सीखता है तो सबसे पहले उसे साइकिल दिलवाई जाती है। यूरोप में अनेक देशों के प्रधानमन्त्री साईकिल चलाते हैं। ओलम्पिक खेलों में 1896 से साईकिल रेस होती है। प्रदूषण मुक्ति के लिए साइकिल का बड़ा  महत्व है। जब तक मोदी जी हवाई चप्पल पहनने वालों को (अपने चुनावी वायदे के अनुसार) हवाई जहाज़ में यात्रा ना करवा पाएँ, तब तक साईकिल करोड़ों आम भारतीयों की सवारी बनी रहेगी। वैसे भी भारत साइकिल का बड़ा निर्यातक है। अगर आडानी या अम्बानी साईकिल बनाते होते तब भी क्या साईकिल पर ये हमला होता, पूछता है भारत? 


उत्तर प्रदेश विधान सभा का चुनाव लड़ रहे भाजपा के सभी उम्मीदवार और नेता गरीब जनता को उलाहना दे रहे हैं कि हमने तुम्हें, नमक, तेल, आटा और चावल दिया तो तुम हमें वोट क्यों नहीं दोगे? इसकी जगह अगर ये नेता कहते कि हमने तुम्हें रोज़गार दिलवाया, तुम्हारी आमदनी बढ़वाई, तुम्हारे लिए बेहतर स्वास्थ्य और शिक्षा व्यवस्थाएँ दीं, तुम्हें फसल के वाजिब दाम दिलवाए, तब कुछ लगता कि इन्होंने जनता के लिए कुछ किया है। किंतु जनता के कर के पैसे से गरीब जनता को ख़ैरात बाँटना और उनके स्वाभिमान पर इस तरह चोट करना बहुत निंदनीय है। 


दूसरी तरफ़ भाजपा के विपक्ष में खड़े नेताओं जैसे, प्रियंका गांधी, बहन मायावती और जयंत चौधरी की भाषा में कहीं भी न तो हल्कापन है, न अभद्रता, न धमकी और न ही मवालीपन। ये सब नेता शिष्टाचार के दायरे के भीतर रहकर अपनी बात जनता के सामने रख रहे हैं। सबसे ज़्यादा क़ाबिले तारीफ़ आचरण तो सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव का रहा है। इस चुनावी दौर में वे अकेले भाजपा के महारथियों के हमलों को झेल रहे हैं। उन्हें अपमानित और उत्तेजित करने के भाजपा नेताओं के हर वार ख़ाली जा रहे हैं। क्योंकि अखिलेश यादव बड़ी शालीनता से मुस्कुरा कर हर बात का उत्तर शिष्टाचार के दायरे के भीतर रह कर दे रहे हैं। आजतक उन्होंने अपना मानसिक संतुलन नहीं खोया, जो उनके परिपक्व नेतृत्व का परिचायक है। 


वैसे भी आज के अखिलेश पिछले दौर के अखिलेश से बहुत आगे निकल आए हैं। उन्होंने बड़ी सावधानी से भाजपा के दुष्प्रचार को ग़लत सिद्ध कर दिया है। वे न तो सांप्रदायिक ताक़तों से घिरे हैं, न अराजक तत्वों को अपने पास भटकने दिया और न ही परिवार को खुद पर हावी होने दिया। एक शिक्षित और अनुभवी राजनेता होने के नाते वे केवल विकास के मुद्दों पर बात कर रहे हैं। जिसका भाजपा नेतृत्व जवाब नहीं दे पा रहा है। बरसाना के विरक्त संत श्रद्धेय विनोद बाबा किसी राजनैतिक या सामाजिक प्रपंच में नहीं फँसते। पिछले वर्ष जब अखिलेश यादव विनम्रता के साथ बाबा का दर्शन करने गये तो बाबा बहुत प्रसन्न हुए और बाद में अपने शिष्यों से कहा कि अखिलेश के विरुद्ध जो दुष्प्रचार किया जाता है उसके विपरीत अखिलेश का हृदय साफ़ है और वे एक आस्थावान युवा हैं जो सनातन धर्म की बड़ी सेवा करेंगे। अब प्रदेश की जनता किसे चुनती है ये तो 10 मार्च को ही पता चलेगा। 

Monday, January 17, 2022

योगी क्यों हुए अलोकप्रिय?


जिस तरह से उत्तर प्रदेश के नेता भाजपा छोड़ समाजवादी पार्टी की तरफ़ दौड़ रहे है उसे साधारण भगदड़ नहीं कहा जा सकता। इसका नुक़सान देश की सबसे शक्तिशाली पार्टी को हो रहा है जो केंद्र और राज्य में सरकार चला रही है। उत्तर प्रदेश में इस ‘डबल इंजन’ की सरकार का चेहरा बने योगी आदित्यनाथ की अलोकप्रियता ही इस पतन का कारण है। 





भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को भी यह समझ नहीं आ रहा कि उतर प्रदेश के चुनावों से ठीक पहले ऐसा क्यों हो रहा है? क्या योगी जी की कुछ कठोर नीतियाँ इसका कारण हैं? क्या उत्तर प्रदेश में दिल्ली हाई कमान के जासूस इस भगदड़ का अनुमान लगाने में नाकामयाब रहे? भाजपा और संघ का विशाल नेटवर्क भी इस सबका अनुमान नहीं लगा सका? क्या कारण है कि भाजपा के पास इतना बड़ा संगठन और तमाम संसाधन भी इन नेताओं का पलायन नहीं रोक पाए? क्या भाजपा ने इस बात का विश्वास कर लिया था कि जो नेता पिछड़ी जातियों से आए हैं वो उनके साथ लम्बे समय तक रहेंगे और पिछले पाँच सालों में योगी जी के कठोर रवैए से आहत नहीं होंगे?


दरअसल शुरू से योगी का रवैया उनकी ‘ठोको’ नीति के अनुरूप दम्भी और अतिआत्मविश्वास से भरा हुआ रहा है। जिसमें उनके चुनिंदा कुछ नौकरशाहों की भूमिका भी बहुत बड़ा कारण रही है। इस बात को इसी कॉलम में शुरू से मैंने कई बार रेखांकित किया। बार-बार योगी जी को सलाह भी दी कि कान और आँख खोल कर रखें और सही और ग़लत का निर्णय लेने के लिए अपने विवेक और अपने स्वतंत्र सूचना तंत्र का सहारा लें। सत्ता के मद में योगी कहाँ सुनने वाले थे। उनके चाटुकार अफ़सर उनसे बड़े-बड़े आयोजनों में फ़ीते कटवाते रहे और खुद चाँदी काटते रहे। 


जिस तरह से योगी सरकार ने पिछले पाँच सालों में उत्तर प्रदेश में अहम मुद्दों की परवाह किए बिना केवल हिंदुत्व के एजेंडे को ही सबसे ऊपर रखा शायद वह भी एक कारण रहा। मिसाल के तौर पर अयोध्या में पाँच लाख दिये जलाने के अगले ही दिन जिस तरह की तस्वीरें सामने आईं जहां लोग दियों के तेल को समेट रहे थे उससे यह बात तो साफ़ है लोग बढ़ती हुई महंगाई और युवा बेरोज़गारी से परेशान थे। लम्बे समय तक चले किसान आंदोलन ने सरकार की नीतियों उत्तर प्रदेश के किसानों के सामने बेनक़ाब कर दिया और किसानों ने भी सरकार का विरोध करना शुरू कर दिया। 


जिस तरह से उत्तर प्रदेश के कई छोटे दलों के नेता जो 2017 में भाजपा से जुड़े थे उन्हें जब योगी सरकार में मंत्री या अन्य पद मिले तो उन्हें लगा कि सरकार में उनकी सुनवाई भी होगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उन्हें केवल शो-पीस बना कर रखा गया। जब पानी सर से ऊपर चला गया और उनकी कहीं सुनवाई न हुई तो उन्होंने भाजपा का साथ छोड़ना ही बेहतर समझा। भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को इसका आभास शायद इसलिए नहीं हुआ क्योंकि उन्होंने सोचा कि किसी भी नेता के लिए सरकार में रुतबा और पद छोड़ना इतना आसान नहीं होता। इसलिए शीर्ष नेतृत्व ने भी उनकी शिकायतों को अनसुना कर दिया।


योगी सरकार के नौकरशाहों ने जिस तरह मीडिया को बड़े-बड़े विज्ञापन देकर असली मुद्दों से परे रखा वो भी एक बड़ा कारण रहा। ज़्यादातर मीडिया ने भी इन नौकरशाहों की बात सुनकर जनता के बीच दुष्प्रचार फैलाया और जनता को गुमराह करने का भी काम किया। फिर वो चाहे ज़ेवर हवाई अड्डे के विज्ञापन में चीन के हवाई अड्डे की तस्वीर हो या फिर बंगाल के फ़्लाईओवर की तस्वीर। इस तरह के झूठे विज्ञापनों से योगी सरकार की काफ़ी किरकिरी हुई। ग़नीमत है सोशल मीडिया ने इस सब की पोल खोल दी और जनता को भी समझ में आने लगा कि विज्ञापन की आड़ में क्या चल रहा है।


2017 से ही योगी और उनकी ‘टीम इलेवन’ ही सरकार चला रही थी। किसी भी विधायक की कहीं भी कोई सुनवाई नहीं थी। इतना ही नहीं योगी मंत्रीमंडल के एक मंत्री तो ऐसे हैं जो अपनी इच्छा से किसी अधिकारी नियुक्ति या निलम्बन भी नहीं करवा सकते थे। एक चर्चा तो यह भी आम हो चुकी है कि यदि किसी विधायक को दो किलोमीटर की सड़क भी बनवानी पड़ती थी तो उसे यह कह कर डाँट दिया जाता था कि ‘क्या सड़क बनवाने में कमीशन कमाना चाहते हो?’ इतना ही नहीं यदि किसी विधायक को कुछ काम करवाना होता था तो वह इस ‘टीम इलेवन’ के बैचमेट से कहलवाता था तब जा कर शायद वो काम होता। वो विधायक तो जन प्रतिनिधि केवल नाम का ही था। 


उत्तर प्रदेश में योगी सरकार की सफलता या विफलता के बारे में सरकारी तंत्र के अलावा संघ का एक बड़ा तंत्र है जो ज़मीनी हक़ीक़त का पता लगाता है। परंतु उत्तर प्रदेश में संघ के इस तंत्र का एक बड़ा हिस्सा वैश्य और ब्राह्मण समाज से आता है। पिछड़ी जातियों से बहुत कम लोग इस तंत्र का हिस्सा हैं। इसलिए पिछड़ी जातियों की पीड़ा संघ के शीर्ष नेतृत्व तक पहुँची ही नहीं। सवर्णों के प्रतिनिधियों ने संघ के शीर्ष नेतृत्व को योगी सरकार की बढ़ाई कर उन्हें असलियत से दूर रखा। संघ के नेतृत्व यह तो नज़र आया कि 2017 की उत्तर प्रदेश की सरकार में पिछड़ी जातियों के मंत्री व विधायक तो बड़ी मात्रा में हैं परंतु प्रचारक नहीं। यदि ऐसा होता तो संघ अपनी कमर कस लेता और शायद इस भगदड़ की नौबत न आती। इसके साथ ही जातिगत जनगणना पर जो यू टर्न भाजपा सरकार ने लिया है उसने आग में घी डालने का काम किया है। 


योगी जी तो भगवा धारण कर इतना भी नहीं समझे कि वो अब एक मठ के मठाधीश नहीं बल्कि सूबे के मुख्य मंत्री हैं। भगवा धारी या साधु तो अहंकार में रह सकते हैं। लेकिन एक मुख्य मंत्री को तो हर तरह के व्यक्ति से मुख़ातिब होना पड़ता है। फिर वो चाहे मीडिया हो, उनके अपने मंत्री मंडल के सदस्य हों, विधायक हों, केंद्र द्वारा भेजे गए विशेष दूत हों या फिर आम जनता। अगर आप सभी को अपने मठ का सहायक समझ कर उससे अपशब्द कहेंगे या उनको अहमियत नहीं देंगे तो इसका फल भी आपको भोगना पड़ेगा। अब देखना यह है कि आने वाली 10 मार्च को योगी जी को उत्तर प्रदेश की जनता कौनसा फल अर्पित करेगी। 

Monday, January 3, 2022

कानपुर छापा : काला धन या टर्नओवर?


पिछले दिनों कानपुर के इत्र व्यापारी पीयूष जैन के यहाँ जीएसटी का छापा बहुत चर्चा में रहा। इस छापे में क़रीब 300 करोड़ का ‘काला धन’, सोना, चाँदी, चंदन व अन्य सामान पकड़ा गया था। क्योंकि ये चुनाव का माहौल है और समाजवादी पार्टी का एक विधान परिषद सदस्य भी जैन है और इत्र का व्यापारी है इसलिए बिना तथ्यों को जाँचे सत्ता पक्ष के नेताओं, मीडिया व भाजपा की आईटी सेल ने सोशल मीडिया इस मामले को समाजवादी पार्टी का भ्रष्टाचार कहकर उछालने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इतना ही नहीं देश के प्रधान मंत्री तक ने कानपुर की जनसभा में इसे ‘भ्रष्टाचार का इत्र’ कह कर तालियाँ पिटवायीं ।



पीयूष जैन का मामला शायद सामने नहीं आता अगर गुजरात में कुछ दिनों पहले जीएसटी ने ‘शिखर पान मसाला’ ले जा रहे ट्रकों को न पकड़ा होता। इस ट्रक में पान मसाले के साथ करीब 200 फर्जी ई-वे बिल भी पकड़े गए। इसके बाद डायरेक्ट्रेट जनरल ऑफ जीएसटी इंटेलीजेंस (डीजीजीआई) के अधिकारियों ने कानपुर का रुख़ किया और वहाँ डेरा डाल दिया। जो ट्रक पकड़ा गया था वह प्रवीण जैन का था। जो की इत्र कारोबारी पीयूष जैन के भाई अंबरीष जैन का बहनोई है। प्रवीण जैन के नाम पर करीब 40 से ज्यादा फर्में हैं। 


ग़ौरतलब है कि प्रवीण जैन के यहां छापेमारी में ही पीयूष जैन का सुराग मिला। पीयूष जैन को जैसे ही छापे की खबर मिली तो वो भाग गया। परिजनों के दबाव के बाद ही वह वापस लौट कर आया। पीयूष जैन के घर में छिपे हुए नोटों के बंडलों को देखकर जीएसटी की छापामार टीम की आंखें फटी की फटी रह गई। शायद इन अधिकारियों ने इससे पहले ऐसी अकूत दौलत देखी नहीं थी। इस छापे के  ट्रेल को देखें तो यह एक सामान्य सा छापा ही प्रतीत होता है। शुरुआती दौर में इस छापे में कोई भी राजनैतिक नज़रिया नज़र नहीं आता। लेकिन जैसे ही ‘जैन’ और ‘इत्र कारोबारी’ को जोड़ा गया वैसे ही अतिउत्साह में इसे समाजवादी पार्टी से भी जोड़ दिया गया और खूब शोर मचाया गया। भाजपा के सरकार में केंद्रीय  मंत्रियों ने भी इस पर ट्वीट की झड़ी लगा दी। 


यहाँ बताना ज़रूरी है कि 1991 में जब दिल्ली में हिज़बुल मुजाहिद्दीन के आतंकी पकड़े गए थे, तो उनकी जाँच कर रही दिल्ली पुलिस व बाद में सीबीआई कई जगह छापे मारने के बाद ‘जैन बंधुओं’ के घर और फार्म हाउस पहुँची। वहाँ पर पड़े छापे से एक डायरी (नम्बर दो के खाते) भी मिली जिसमें आतंकवादियों के साथ-साथ हर बड़े दल के तमाम बड़े नेताओं और देश के कई नौकरशाहों के भी नाम के साथ भुगतान की तारीख़ और रक़म लिखा था। छापे में बरामद इतने बड़े मामले की भनक जब तत्कालीन सरकार को लगी तो उस मामले को वही दबा दिया गया। 1993 में जब यह मामला मेरे हाथ लगा तब मैंने इसे उजागर ही नहीं किया बल्कि इसे सर्वोच्च न्यायालय तक ले गया। जो आगे चल कर ‘जैन हवाला कांड’ के नाम से चर्चित हुआ। इस कांड ने भारत की राजनीति में इतिहास भी रचा और कई प्रभावशाली नेताओं और अफ़सरों को सीबीआई द्वारा चार्जशीट किया गया। 


चूँकि इस घोटाले में कई बड़े मंत्री, मुख्यमंत्री, विपक्ष के नेता और अफ़सर आदि शामिल थे इसलिए सीबीआई ने चार्जशीट में इनके बच निकलने का रास्ता भी छोड़ दिया। अब कानपुर के कांड में भी ऐसा ही होता दिखाई दे रहा है। 


दरअसल, जब जीएसटी के अधिकारियों को पीयूष जैन के यहाँ इतनी बड़ी मात्रा में नगदी और सोना-चाँदी मिला तो ज़ाहिर सी बात है की आयकर विभाग को भी सूचित करना पड़ा। जब और जाँच हुई और पीयूष जैन से पूछ-ताछ हुई तो कई और राज खुले। यहाँ एक बात का ज़िक्र करना रोचक है कि हमारे वृन्दावन को उत्तर भारत के व्यापारियों की सूचना का केंद्र माना जाता है। उत्तर भारत के अधिकतर व्यापारी श्री बाँके बिहारी जी के मंदिर लगातार आते हैं और व्यापार में तरक़्क़ी की भिक्षा माँगते हैं। इन सभी व्यापारियों के वृन्दावन में तीर्थ पुरोहित या पंडे होते हैं। जिस दिन से कानपुर में यह छापा पड़ा है उस दिन से बिहारीजी के पंडों से में लगातार ये बात-चीत हो रही है कि पीयूष जैन के बारे में कानपुर के अन्य व्यापारियों ने बताया कि पीयूष जैन तो एक लम्बे अरसे से भाजपा और संघ को बड़ी मात्रा में धन और साधन प्रदान करता आया है। इसके यहाँ तो छापा गलती से पड़ गया। 


यहाँ पर वो कहावत - ‘जो दूसरों के लिए कुआँ खोदता है वो खुद खाई में गिरता है’ सही साबित होती है। यदि अधिकारियों को समय रहते उसके भाजपाई होने का पता चल जाता तो शायद यह इतना ये  छापा ही न पड़ता।


जानकारों की मानें तो इस मामले को भी जल्दी दबाया जाएगा। अख़बारों से ऐसा पता चला है कि अब इस छापे में बरामद हुई भारी नकदी को अहमदाबाद के जीएसटी विभाग ने ‘टर्नओवर’ की रकम माना लिया है। हालाँकि इस बात की कोई औपचारिक पुष्टि नहीं हुई है लेकिन अगर ऐसा है तो टैक्स के जानकारों के मुताबिक यह भ्रष्टाचार के प्रति अधिकारियों की रहमदिली की पहली सीढ़ी है। 


इस ‘टर्नओवर’ में 31.50 करोड़ की टैक्स चोरी की बात कही जा रही है। टैक्स चोरी की पेनल्टी और उस पर ब्याज मिलाकर यह रकम क़रीब 52 करोड़ रुपये हो जाती है। ऐसे में पीयूष जैन केवल टैक्स व पेनल्टी की रकम अदा कर जमानत पर रिहा हो सकता है। पेनल्टी की रक़म जमा होने पर आयकर विभाग भी इस ‘काले धन’ के मामले में कार्रवाई नहीं कर पाएगा। पीयूष जैन का फिर सारा तथाकथित ‘काला धन’ पेनल्टी की गंगा नहा कर एक सफ़ेद हो जाएगा। जैसी चर्चा हो रही है कि यह सारा ‘काला धन’ जिन लोगों का है उनकी भी चाँदी हो जाएगी। मगर सोचने वाली बात यह है कि जब नोट बंदी से काले धन की समाप्ति का दावा किया गया था तो ये काला कहाँ से आ गया। भाजपा जिसे ‘भ्रष्टाचार का इत्र’ कहने लगी थी वह रातों-रात ‘टर्नओवर’ में कैसे बदल गया?

Monday, September 13, 2021

जब चिड़िया चुग गई खेत


आजकल एक प्रदेश के ताकतवर बताए जा रहे मुख्य मंत्री के मुख्य सलाहकार और वरिष्ठतम अधिकारियों पर हुए स्टिंग ऑपरेशन की भारी चर्चा है। मीडिया ही नहीं, प्रदेश के नौकरशाह और राजनेता चटखारे लेकर इन क़िस्सों को एक दूसरों को सुना रहे हैं। यूँ तो स्टिंग ऑपरेशन देश में लगातार होते रहते हैं। पहले ये काम मीडिया अपने जुनून में करता था। बाद में ये ब्लैकमेलिंग का हथियार बन गया। पिछले दो दशकों से राजनैतिक दल एक दूसरे के विरुद्ध और एक ही दल के बड़ी राजनेता, एक दूसरे के विरुद्ध करवाने लगे। जिसका मक़सद अपने राजनैतिक प्रतिद्वंदी की छवि ख़राब करके उसे रास्ते से हटाना होता है। जिसके ख़िलाफ़ सफल स्टिंग ऑपरेशन हो जाता है वो किसी भी क़ीमत पर उसे दबाने की जीतोड़ कोशिश करता है।
 



सुना है कि जिस स्टिंग ऑपरेशन की आजकल चर्चा है उसमें फँसा प्रदेश का वरिष्ठ अधिकारी, उसे दबाने के लिए, 20 करोड़ रुपए देने को राज़ी हो गया है। अब अगर ये डील हो जाती है तो ज़ाहिर है कि स्टिंग ऑपरेशन की खबर आम जनता तक नहीं पहुँच पाएगी। ये बात दूसरी है कि डील करने वाला पहले ही अपने हाथ काट चुका हो और सबूतों को अपनी टीम के किसी साथी के साथ साझा कर चुका हो। ऐसे में डील होने के बाद भी मामला प्रकाशित होने से नहीं रुकेगा। खबर यह भी है कि उक्त स्टिंग ऑपरेशन में कई आला अफ़सर बेनक़ाब हुए हैं। जिनमें चरित्र से लेकर भारी भ्रष्टाचार के प्रमाण जुटाए जा चुके हैं। जिसका जाहिरन उनके आका मुख्य मंत्री की छवि पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। विशेषकर उन राज्यों में जहां आने वाले समय में चुनाव होने वाले हैं। 

ऐसी स्थित ही क्यों आती है जब पानी सिर से गुजर जाता है। ‘अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत’। ऐसा तो नहीं है कि प्रदेश का शासन चलाने वाला कोई मुख्य मंत्री इतना अयोग्य हो कि उसे पता ही न चले कि उसकी इर्दगिर्द साये की तरह मंडराने वाले उसके खासमख़ास वरिष्ठतम अधिकारी दुकान खोल कर बैठे हैं और हर वर्ष सैंकड़ों करोड़ रुपया कमा रहे हैं। जब ये घोटाले सामने आएँगे तो ऐसे मुख्य मंत्री का दामन कैसे साफ़ रहेगा? हर तरफ़ यही शोर होगा की ये सब उस मुख्य मंत्री की मिलीभगत से हो रहा था। फिर अपनी क़मीज़ दूसरों की क़मीज़ से साफ़ बताने वाला दावा भी तो फुर्र से उड़ जाएगा।  


प्रश्न है कि उस मुख्य मंत्री ने समय रहते सही कड़े कदम क्यों नहीं उठाए? हम सभी पत्रकारों का चार दशकों से ये अनुभव रहा है कि, चुनाव जीतते ही, मुख्य मंत्री हो या प्रधान मंत्री, अपने चाटुकारों व चहेते अफ़सरों से ऐसे घिर जाते हैं, कि उन्हें सब ओर हरा ही हरा दिखाई देता है। क्योंकि वही उन्हें दिखाया जाता है। ऐसा नहीं है कि समय समय पर जागरूक नागरिक या पत्रकार उनको सचेत न करते हों। पर सत्ता का अहंकार उनके सिर चढ़ कर बोलता है। वे सही सलाह भी सुनना नहीं चाहते। इस तरह वे ज़मीन से भी कट जाते हैं और अपने मतदाताओं से भी। पर जो मुख्य मंत्री वास्तव में ईमानदार होते हैं और प्रदेश की जनता का भला करना चाहते हैं, वे सुरक्षा के घेरे तोड़ कर और अपने पुराने विश्वासपात्र मित्रों की मदद से अपनी छवि का जनता में मूल्यांकन करवाते रहते हैं। जिस इलाक़े में उनकी या उनकी सरकार की छवि गिरने का संकेत मिलता है, वहाँ जाहिरन लोगों की बहुत सारी शिकायतें होती हैं। जिन्हें दूर करना एक अनुभवी मुख्य मंत्री की प्राथमिकता होती है। पर जहां सार्थक व उचित प्रश्न करने वालों का मुँह बंद कर दिया जाए, उन पर झूठे आरोप लगा कर अवैध तरीक़ों से पुलिस कार्यवाही की जाए या उनके प्रतिष्ठानों पर आयकर के छापे डलवाए जाएं, वहाँ भीतर ही भीतर हालात इतने बगड़ जाते हैं कि बहुमत का दावा करने वाले नेता अपनी सत्ता छोड़, इज़्ज़त तक नहीं बचा पाते। 


पिछले तीस वर्षों में सत्ताधीशों को एक उदाहरण मैं अपने इसी कॉलम में कई बार पहले दे चुका हूँ। एक बार फिर दोहरा रहा हूँ, इस उम्मीद में कि शायद किसी को तो बुद्धि शुद्ध हो और वो अपने तौर-तरीक़े बदलने को राज़ी हों। ये उदाहरण वो है जो ईसा से तीन सदी पूर्व मगध सम्राट देवानाम पियदस्सी अशोक ने खोजा था। वे जादूगरों और बाजीगरों के वेश में अपने विश्वासपात्र लोगों को पूरे साम्राज्य में भेजकर जमीनी हकीकत का पता लगवाते थे और उसके आधार पर अपने प्रशासनिक निर्णय लेते थे। जमीनी सच्चाई जानने के लिए मुख्य मंत्रियों को गैर पारंपरिक साधनों का प्रयोग करना पड़ेगा। ऐसे में मौजूदा सरकारी खुफिया एजेंसियां या सूचना तंत्र उनकी सीमित मदद कर पाएँगे। प्रशासनिक ढांचे का अंग होने के कारण इनकी अपनी सीमाऐं होती हैं। इसलिए भी इन्हें गैर पारंपरिक ‘फीड बैक मैकेनिज्म’ या ‘सोशल ऑडिट’ का सहारा लेना पड़ेगा। अगर वे ऐसा कुछ करते हैं, तो उन्हें बहुत बड़ा लाभ होगा। पहला तो ये कि अगले चुनाव तक उन्हें उपलब्धियों के बारे में बढ़ा-चढ़ाकर आंकड़ें प्रस्तुत करने वाली अफसरशाही और खुफिया तंत्र गुमराह नहीं कर पाऐगा। क्योंकि उनके पास समानान्तर स्रोत से सूचना पहले से ही उपलब्ध होगी। 


‘सोशल ऑडिट’ करने का यह तरीका किसी भी लोकतंत्र के लिए बहुत ही फायदे का सौदा होता है। इसलिए जो प्रधान मंत्री या मुख्य मंत्री ईमानदार होगा, पारदर्शिता में जिसका विश्वास होगा और जो वास्तव में अपने लोगों की भलाई और तरक्की देखना चाहेगा, वो सरकारी तंत्र के दायरे के बाहर इस तरह का ‘सोशल ऑडिट’ करवाना अपनी प्राथमिकता में रखेगा। चूंकि आजकल ज़्यादातर नेता ‘जवाबदेही’ व ‘पारदर्शिता’ पर जोर देते हैं, इसलिए उन्हें यह सुझाव अवश्य ही पसंद आना चाहिए।

Monday, August 30, 2021

नंद घर आनंद भयो, जय कन्हैया लाल की


भादों के इस महीने में सारी दुनिया के हिंदुओं का मन मथुरा की ओर स्वतः ही आकर्षित हो जाता है। 5500 वर्ष पहले कंस के कारागार में जन्म लेने वाले ब्रह्मांड नायक का जन्मोत्सव हज़ारों वर्ष बाद भी उसी उत्साह से मनाया जाता है, मानो ये आज की ही घटना हो। हम ब्रजवासियों के लिए तो बालकृष्ण आज भी हमारे दैनिक जीवन का अभिन्न अंग हैं। वृंदावन में कोई अपनी कन्या का विवाह के लिए रिश्ता ले कर आएगा तो बेटे का पिता पहले बिहारी जी के मंदिर दौड़ेगा और ठाकुर जी के सामने खड़े हो कर कहेगा,
तुम कहो तौ हां कर दऊ और तुम कहो तो नाईं कर दऊ। तब आ कर कन्या के पिता से कहेगा कि, बिहारी जी ने हाँ कर दई है। 
ऐसी दिव्य है ब्रज की भूमि, जो बार -बार उजड़ी और कई बार सजी। जब भगवान धरा धाम को छोड़ कर अपने लोक चले गए तब उनके वियोग में उनके प्रपौत्र वज्रनाभ जी द्वारिका से मथुरा आए। यहाँ उन्हें उपदेश देते हुए शांडिल्य मुनि जी ने कहा, व्रज का अर्थ है व्यापक। सतो, रजो और तमो गुण से अतीत जो परब्रह्म है वही सर्वव्यापक है। कण-कण में व्याप्त है और उसी ब्रह्म का धाम है ये व्रज है जहां सगुण रूप में नंदनंदन भगवान श्री कृष्ण का नित्य वास है। यहाँ उनकी लीलाएँ हर क्षण होती रहती हैं। जो हमें इन भौतिक आँखों से दिखाई नहीं देती। केवल प्रेम रस में गहरे डूबे हुए रसिक संत जन ही उसका अनुभव करते हैं। तब शांडिल्य मुनि ने वज्रनाभ जी को भगवान श्री कृष्ण की लीलास्थलियाँ  प्रकट करने और उनको सजाने संवारने का आदेश दिया। मुनिवर ने कहा भगवान की लीलाएँ ब्रज के कुंडों, वनों, पर्वतों और यमुना के तटों पर हुई थी। इन्हें तुम सजाओ। वज्रनाभ जी ने इन सबको पुनः प्रकट किया और इनका जीर्णोद्धार किया।

उनके बाद हज़ारों वर्षों तक ब्रज प्रदेश उजड़ा पड़ा रहा। जहां सघन वन थे जिनमें जंगली पशु विचरण करते थे। फिर व्यापक स्तर पर ब्रज का जीर्णोद्धार श्री चैतन्य महाप्रभु के आदेश पर 16वीं सदी में तब शुरू हुआ, जब उन्होंने बंगाल से अपने दो शिष्यों लोकनाथ गोस्वामी व भूगर्भ गोस्वामी को ब्रज भेजा। इसी दौर में मुग़ल बादशाह अकबर ने ब्रज में जज़िया समाप्त कर दिया और देश भर के हिंदू राजाओं को यहाँ आकर यमुना के घाट, कुंड, वन या मंदिर आदि निर्माण करने की छूट दे दी। इस परिवर्तन के कारण देश भर के रसिक संत भी ब्रज में आकर बसने लगे। किंतु उसके बाद औरंगज़ेब की नीतियों का यहाँ विपरीत प्रभाव पड़ा। तब बहुत से मंदिर तोड़े गए।
 
पूरे ब्रज के विकास की एक विहंगम दृष्टि बीस बरस पहले बरसाना के विरक्त संत श्री रमेश बाबा ने दी। उन्होंने भी ब्रज के कुंडों, वनों, पर्वतों और यमुना घाटों को ही सजाने और संवारने का हम सबको आह्वान किया। उन्हीं की प्रेरणा से कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं ने इस दिशा में अभूतपूर्व कार्य किया। जिसका परिणाम ब्रजवासियों और दुनिया भर के कृष्ण भक्तों ने देखा और अनुभव किया। 
इसी दिशा में ब्रज की आध्यात्मिक चेतना और इसके माहात्म को केंद्र में रखते हुए हमने ब्रज के समेकित विकास के लिए एक संवैधानिक संस्था के गठन का प्रस्ताव उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्य मंत्री श्री अखिलेश यादव को दिया। जिन्होंने इस संस्था का संवैधानिक गठन किया। बाद में उसी संस्था का नाम बदल कर उत्तर प्रदेश के वर्तमान मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ ने ‘उत्तर प्रदेश ब्रज तीर्थ विकास परिषद’ रख दिया और बड़ी उदारता से बहुत बड़ी रक़म इस परिषद को सौंपी। पर यहाँ वे दो भारी भूल कर गए। पहली इस परिषद के संचालन का ज़िम्मा उन्होंने ऐसे सेवा निवृत अधिकारी को सौंपा जिन्हें न तो ब्रज संस्कृति की कोई समझ है और न ऐसे ऐतिहासिक कार्य करने का कोई अनुभव। इतना ही नहीं इस परिषद के कुल दो अधिकारियों ने इस परिषद के संविधान को भी उठाकर ताक पर रख दिया। परिषद का वैधानिक रूप से वांछित नियमों के तहत गठन किए बिना ही बड़े-बड़े निर्णय स्वयं ही लेने शुरू कर दिए। जिनमें पानी की तरह जनता का पैसा बहाया गया। बावजूद इसके, ये सरकारी संस्था ब्रज की धरोहरों व संस्कृति के संरक्षण की दिशा में कुछ भी उल्लेखनीय कार्य नहीं कर पाई। इसकी परियोजनाओं से ब्रज की संस्कृति का विनाश ही हुआ है, संरक्षण नहीं। इस परिषद के किए गए कामों और खर्च की गई रक़म की अगर निष्पक्ष खुली जाँच हो जाए तो सब घोटाला सामने आ जाएगा। 
आजकल चुनावी मूड में आ चुके उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ जनसभाओं में ताल ठोक कर इस परिषद की उपलब्धियाँ गिना रहे हैं। जबकि ब्रज के अनेक साधु संत, सामाजिक संस्थाएँ और खुद भाजपा व संघ के कार्यकर्ता तक गत 4 वर्षों में योगी जी से बार-बार विकास और संरक्षण के नाम पर परिषद द्वारा मथुरा में किए जा रहे विनाश की शिकायतें कर चुके हैं। पर योगी ने आज तक ईमानदारी से जाँच किए जाने का कोई आदेश जारी नहीं किया। इससे ब्रज में रह रहे संत और ब्रजवासी ही नहीं बल्कि यहाँ आने वाले लाखों तीर्थ यात्री भी बहुत व्यथित हैं। इसी कॉलम में 6 नवंबर 2017 को मैंने लिखा था ‘ऐसे नहीं होगी ब्रज धाम की सेवा योगी जी’। पर उन्होंने उसकी कोई परवाह नहीं की। होर्डिंग व विज्ञापनों के ज़ोर पर ही अगर विकास दिखाना है तो फिर कोई काम करने की ज़रूरत ही क्या है। दुःख और पीड़ा तो इस बात की है कि हिंदू धर्म के नाम पर बनीं योगी सरकार का सार ज़ोर विज्ञापनों पर है। न तो योजनाओं के निर्माण में पारदर्शिता और कल्पनाशीलता रही है और न ही उनके क्रियांवन में। इससे हल्ला चाहें कितना मचा लें, हिंदू धर्म का कोई हित नहीं हो रहा। पर किसे फ़ुरसत हैं सच को जानने और कुछ ठोस करने के लिए? जब बारहों महीने सबका लक्ष्य केवल चुनाव जीतना हो तो ऐसे में हम कब तक ब्रज के लिये आँसूँ बहाएँ? चलो आओ श्री कृष्ण का जन्मदिन मनाएँ।

Monday, July 12, 2021

चित्रकूट में संघ का चिंतन


उत्तर प्रदेश के चुनाव कैसे जीते जाएं इस पर गहन चिंतन के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सभी अधिकारियों और प्रचारकों का एक सम्मेलन चित्रकूट में हुआ। ऐसे शिविर में हुई कोई भी वार्ता या लिए गए निर्णय इतने गोपनीय रखे जाते हैं कि वे कभी बाहर नहीं आते। मीडिया में जो खबरें छपती हैं वो केवल अनुमान पर आधारित होती हैं, क्योंकि संघ के प्रचारक कभी असली बात बाहर किसी से साझा नहीं करते। इसलिए अटकलें लगाने के बजाए हम अपनी सामान्य बुद्धि से इस महत्वपूर्ण शिविर के उद्देश्य, वार्ता के विषय और रणनीति पर अपने विचार तो समाज के सामने रख ही सकते है।



जहां तक उत्तर प्रदेश के आगामी विधान सभा के चुनाव की बात है तो जिस तरह की अफ़रा-तफ़री संघ और भाजपा में मची है उससे यह तो स्पष्ट है कि योगी सरकार की फिर से जीत को लेकर गहरी आशंका व्यक्त की जा रही है, जो निर्मूल नहीं है। संघ और भाजपा के गोपनीय सर्वेक्षणों में योगी सरकार की लोकप्रियता वैसी नहीं सामने आई जैसी सैंकड़ों करोड़ के विज्ञापन दिखा कर छवि बनाने की कोशिश की गई है। ये ठीक वैसा ही है, जैसा 2004 के लोकसभा चुनाव में वाजपेयी जी के चुनाव प्रचार को तत्कालीन भाजपा नेता प्रमोद महाजन ने ‘इंडिया शाइनिंग’ का नारा देकर खूब ढिंढोरा पीटा था। विपक्ष तब भी बिखरा हुआ था। वाजपेयी जी की लोकप्रियता के सामने सोनिया गांधी को बहुत हल्के में लिया जा रहा था। सुषमा स्वराज और प्रमोद महाजन ने तो उन्हें विदेशी बता कर काफ़ी पीछे धकेलने का प्रयास किया। पर परिणाम भाजपा और संघ की आशा के प्रतिकूल आए। ऐसा ही दिल्ली, पंजाब और पश्चिम बंगाल आदि राज्यों के विधान सभा चुनावों में भी हुआ। जहां संघ और भाजपा ने हर हथकंडे अपनाए, हज़ारों करोड़ रुपया खर्च किया, पर मतदाताओं ने उसे नकार दिया। 


अगर योगी जी के शासन की बात करें तो याद करना होगा कि मुख्य मंत्री बनते ही उन्होंने सबसे पहले कदम क्या उठाए, रोमियो स्क्वॉड, क़त्लखाने और मांस की दुकानों पर छापे, लव जिहाद का नारा और दंगों में मुसलमानों को आरोपित करके उन पर पुलिस का सख़्त डंडा या उनकी सम्पत्ति कुर्क़ करना जैसे कुछ चर्चित कदम उठा कर योगी जी ने उत्तर प्रदेश के कट्टर हिंदुओं का दिल जीत लिया। दशकों बाद उन्हें लगा कि कोई ऐसा मुख्य मंत्री आया है जो हिंदुत्व के मुद्दे को पूरे दम-ख़म से लागू करेगा। पर यह मोह जल्दी ही भंग हो गया। योगी की इस कार्यशैली के प्रशंसक अब पहले की तुलना में काफ़ी कम हो गए हैं।


इसका मुख्य कारण है कि योगी राज में बेरोज़गारी चरम सीमा पर पहुँच गई है। महंगाई तो सारे देश में ही आसमान छू रही है तो उत्तर प्रदेश भी उससे अछूता नहीं है। इसके साथ ही नोटबंदी और जीएसटी के कारण तमाम उद्योग धंधे और व्यवसाय ठप्प हो गए हैं, जिसके कारण उत्तर प्रदेश की बहुसंख्यक जनता आर्थिक रूप से बदहाल हुई है। रही-सही मार कोविड काल में, विशेषकर दूसरे दौर में, स्वास्थ्य सेवाओं की विफलता ने पूरी कर डाली। कोई घर ऐसा न होगा जिसका परिचित या रिश्तेदार इस अव्यवस्था के कारण मौत की भेंट न चढ़ा हो। बड़ी तादाद में लाशों को गंगा में बहाया जाना  या दफ़नाया जाना एक ऐसा हृदयविदारक अनुभव था जो, हिंदू शासन काल में हिंदुओं की आत्मा तक में सिहरन पैदा कर गया। क्योंकि 1000 साल के मुसलमानों के शासन काल में एक बार भी ऐसा नहीं हुआ जब आर्थिक तंगी या लकड़ी की अनुपलब्धता के कारण हिंदुओं को अपने प्रियजनों के शवों को दफ़नाना पड़ा हो। इस भयानक त्रासदी से हिंदू मन पर जो चोट लगी है उसे भूलने में सदियाँ बीत जाएँगीं।

 

योगी सरकार के कुछ अधिकारी उन्हें गुमराह कर हज़ारों करोड़ रुपया हिंदुत्व के नाम पर नाटक-नौटंकियों पर खर्च करवाते रहे। जिससे योगी सरकार को क्षणिक वाह-वाही तो मिल गई, लेकिन इसका आम मतदाता को कोई भी लाभ नहीं मिला। बहुत बड़ी रक़म इन नाच-गानों और आडम्बर में बर्बाद हो गई। प्रयागराज के अर्ध-कुम्भ को पूर्ण-कुम्भ बता कर हज़ारों करोड़ रुपया बर्बाद करना या वृंदावन की ‘कुम्भ पूर्व वैष्णव बैठक’ को भी कोविड काल में पूर्ण-कुम्भ की तरह महिमा मंडित करना शेख़चिल्ली वाले काम थे। मथुरा ज़िले में तो कोरोना की दूसरी लहर वृंदावन के इसी अनियंत्रित आयोजन के बाद ही बुरी तरह आई। जिसके कारण हर गाँव ने मौत का मंजर देखा। कोविड काल में संघ की कोई भूमिका नज़र नहीं आई। न तो दवा और इंजेक्शनों की काला बाज़ारी रोकने में, न अस्पतालों में बेड के लिए बदहवास दौड़ते परिवारों की मदद करने में और न ही गरीब परिवारों को दाह संस्कार के लिए लकड़ी उपलब्ध कराने के लिए।   

 

मथुरा, अयोध्या और काशी के विकास के नाम पर दिल खोल कर धन लुटाया गया। पर दृष्टि, अनुभव, ज्ञान व धर्म के प्रति संवेदनशीलता के अभाव में हवाई विशेषज्ञों की सलाह पर ये धन भ्रष्टाचार और बर्बादी का कारण बना। जिसका कोई प्रशंसनीय बदलाव इन धर्म नगरियों में नहीं दिखाई पड़ रहा है। आधुनिकरण के नाम पर प्राचीन धरोहरों को जिस बेदर्दी से नष्ट किया गया उससे काशीवासियों और दुनिया भर में काशी की अनूठी गलियों के प्रशंसकों को ऐसा हृदयघात लगा है क्योंकि वे इसे रोकने के लिए कुछ भी नहीं कर पाए। सदियों की सांस्कृतिक विरासत को बुलडोजरों ने निर्ममता से धूलधूसरित कर दिया।

 

योगी सरकार ने गौ सेवा और गौ रक्षा के अभियान को भी खुले हाथ से सैंकड़ों करोड़ रुपया दिया। जो एक सराहनीय कदम था। पर दुर्भाग्य से यहाँ भी संघ और भाजपा के बड़े लोगों ने मिलकर गौशालाओं पर क़ब्ज़े करने का और गौ सेवा के धन को उर्र-फुर्र करने का ऐसा निंदनीय कृत्य किया है जिससे गौ माता उन्हें कभी क्षमा नहीं करेंगी । इस आरोप को सिद्ध करने के लिए तमाम प्रमाण भी उपलब्ध हैं।


इन सब कमियों को समय-समय पर जब भी पत्रकारों या जागरूक नागरिकों ने उजागर किया या प्रश्न पूछे तो उन पर दर्जनों एफ़आईआर दर्ज करवा कर लोकतंत्र का गला घोंटने का जैसा निंदनीय कार्य हुआ वैसा उत्तर प्रदेश की जनता ने पहले कभी नहीं देखा था। इसलिए केवल यह मान कर कि विपक्ष बिखरा है, वैतरणी पार नहीं होगी। क्या विकल्प बनेगा या नहीं बनेगा ये तो समय बताएगा। पर आश्चर्य की बात यह है कि जिस घबराहट में संघ आज सक्रिय हुआ है अगर समय रहते उसने चारों तरफ़ से उठ रही आवाज़ों को सुना होता तो स्थिति इतनी न बिगड़ती। पर ये भी हिंदुओं का दुर्भाग्य है कि जब-जब संघ वालों को सत्ता मिलती है, उनका अहंकार आसमान को छूने लगता है। देश और धर्म की सेवा के नाम फिर जो नौटंकी चलती है उसका पटाक्षेप प्रभु करते हैं और हर मतदाता उसमें अपनी भूमिका निभाता है। 

Monday, June 14, 2021

योगी ही क्यों रहेंगे उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री ?


पिछले दिनों भाजपा के अंदर और लखनऊ में जो ड्रामा चला उससे लगा कि मोदी और योगी में तलवारें खिंच गईं हैं। मीडिया में अटकलों का बाज़ार गर्म था। पर जो अपेक्षित था वही हुआ। ये सारी नूरा कुश्ती थी, जिसमें न तो कोई जीता, न ही कोई हारा। योगी और मोदी एक थे और एक ही रहेंगे। इस बात का
  मुझे पहले से ही आभास था। 


इस आभास की ऐतिहासिक वजह है। 1990 के दशक में जब आडवाणी जी की राम रथ यात्रा के बाद भाजपा ऊपर उठना शुरू हुई तो भी ऐसी रणनीति बनाई गई थी। जनता की निगाह में आडवाणी जी और वाजपई जी के बीच टकराहट के खूब समाचार प्रकाशित हुए। हद्द तो तब हो गई जब भाजपा के महासचिव रहे गोविंदाचार्य ने सार्वजनिक बयान में अटल बिहारी वाजपई को भाजपा का ‘मुखौटा’ कह डाला। चूँकि गोविंदाचार्य को आडवाणी जी का ख़ास आदमी माना जाता था इसलिए ये मान लिया गया कि ये सब आडवाणी की शह पर हो रहा है। इस विवाद ने काफ़ी तूल पकड़ा। लेकिन योगी मोदी विवाद की तरह ये विवाद भी तब ठंडा पड़ गया और रहे वही ढाक के तीन पात। 



दरअसल उस माहौल में भाजपा का अपने बूते पर केंद्र में सरकार बनाना सम्भव न था। क्योंकि उसके सांसदों की संख्या 115 के नीचे थी। इसलिए इस लड़ाई का नाटक किया गया। जिससे आडवाणी जी तो हिंदू वोटों का ध्रुविकरण करें और अटल जी धर्मनिरपेक्ष वोटरों और राजनैतिक दलों को साधे रखें। जिससे मौक़े पर सरकार बनाने में कोई रुकावट न आए। यही हुआ भी। जैन हवाला कांड के विस्फोट के कारण राजनीति में आए तूफ़ान के बाद जब 1996 में केंद्र में भाजपा की पहली सरकार बनी तो उसे दो दर्जन दूसरे दलों का समर्थन हासिल था। ये तभी सम्भव हो सका जब संघ ने वाजपई की छवि धर्मनिरपेक्ष नेता के रूप में प्रस्तुत की। 


अब उत्तर प्रदेश पर आ जाइए। पिछले चार साल में संघ और भाजपा ने लगातार योगी को देश का सर्वश्रेष्ठ मुख्य मंत्री और प्रशासक बताने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जबकि हक़ीक़त यह है कि देश के कई राज्यों के मुख्य मंत्रियों का शासन उत्तर प्रदेश से कहीं बेहतर रहा है। ये सही है कि योगी महाराज पर व्यक्तिगत भ्रष्टाचार के आरोप नहीं लगे किंतु उनके राज में पिछली सरकारों से ज़्यादा भ्रष्टाचार हुआ है। कितने ही बड़े घोटाले तो सप्रमाण हमारे कालचक्र समाचार ब्यूरो ने ही उजागर किए। पर उन पर आज तक कोई जाँच या कार्यवाही नहीं हुई। 


गोरखपुर में आक्सीजन की कमीं से सैंकड़ों बच्चों की मौत योगी शासन के प्रथम वर्ष में ही हो गई थी। कोविड काल में उत्तर प्रदेश शासन की नाकामी को हर ज़िले, हर गाँव और लगभग हर परिवार ने झेला और सरकार की उदासीनता और लापरवाही को जम कर कोसा। अपनी पीड़ा प्रकट करने वालों में आम आदमी से लेकर भाजपा के विधायक, सांसद, मंत्री और राज्य के वरिष्ठ आईएएस अधिकारी व न्यायाधीश भी शामिल हैं। जिन्होंने कोविड की दूसरी लहर में आक्सीजन, इंजेक्शन और अस्पताल के अभाव में बड़ी संख्या में अपने परिजनों को खोया है।

 

उत्तर प्रदेश में विकास के नाम पर जो लूट और पैसे की बर्बादी हो रही है, उसकी ओर तो कोई देखने वाला ही नहीं है। हम तो लिख लिख कर थक गये। मथुरा, काशी अयोध्या जैसी धर्म नगरियों तक को भी बख्शा नहीं गया है। यहाँ भी धाम सेवा के नाम पर निरर्थक परियोजनाओं पर पैसा पानी की तरह बहाया गया। प्रदेश में ना तो नए उद्योग लगे और न ही युवाओं को रोज़गार मिला। जिनके रोज़गार 2014 से पहले सलामत थे वे नोटबंदी और कोविड के चलते रातों रात बर्बाद हो गए।  


बावजूद इस सबके, उत्तर प्रदेश की राज्य सरकार ने अपनी छवि सुधारने के लिए अरविंद केजरीवाल की तरह ही, आम जनता से वसूला कर का पैसा, सैंकड़ों करोड़ के विज्ञापनों पर खर्च कर दिया। इतना ही नहीं सरकार की कमियाँ उजागर करने वाले उच्च अधिकारियों और पत्रकारों तक को नहीं बख्शा गया। उन्हें बात बात पर शासन की ओर से धमकी दी गई या मुक़द्दमें दायर किए गए। भला हो सर्वोच्च न्यायालय का जिसने हाल ही में ये आदेश दिया कि सरकार की कमियाँ उजागर करना कोई अपराध नहीं है। हमारे संविधान और लोकतंत्र में पत्रकारों और समाजिक कार्यकर्ताओं को इसका अधिकार मिला हुआ है और यह लोकतंत्र कि सफलता के लिए आवश्यक भी है। बावजूद इसके जिस तरह मोदी जी का एक समर्पित भक्त समुदाय है, वैसे ही योगी जी का भी एक छोटा वर्ग समर्थक है। ये वो वर्ग है जो योगी जी की मुसलमान विरोधी नीतियों और कुछ कड़े कदमों का मुरीद है। इस वर्ग को विकास, भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी, महंगाई जैसे मुद्दे उतने महत्वपूर्ण नहीं लगते जितना की मुसलमानों को सबक सिखाना। मुख्य मंत्री योगी जी इस वर्ग के लोगों के हीरो हैं। संघ को उनकी यह छवि बहुत भाती है। क्योंकि इसमें चुनाव जीतने के बाद भी जनता को कुछ भी देने की ज़िम्मेदारी नहीं है। केवल एक माहौल बना कर रखने का काम है जिसे चुनाव के समय वोटों के रूप में भुनाया जा सके। 


यह सही है कि पूर्ववर्ती सरकारों के दौर में मुसलमानों ने अपने व्यवहार से ग़ैर मुसलमानों को आशंकित और उद्वेलित किया। चाहे ऐसा करके उन्हें कुछ ठोस न मिला हो, पर भाजपा को अपनी ताक़त बढ़ाने के लिए एक मुद्दा ज़रूर ऐसा मिल गया जिसमें ‘हींग लगे न फ़िटकरी, रंग चोखे का चोखा’। इसलिए उत्तर प्रदेश में 2022 का चुनाव योगी जी के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा। चाहे परिणाम कुछ भी आएँ। 

Monday, March 22, 2021

केवल नारों से नहीं सजते धर्मक्षेत्र


चार बरस पहले जब योगी सरकार बनी तो हर हिंदू को लगा कि अब हमारे धर्मक्षेत्रों को बड़े स्तर पर सजाया -संवारा जाएगा। तब अपने इसी कॉलम में मैने लिखा था कि, ‘अगर धाम सेवा के नाम पर, छलावा, ढोंग और घोटाले होंगे, तो भगवान तो रूष्ट होंगे ही, सरकार की भी छवि खराब होगी। इसलिए हमारी बात को ‘निंदक नियरे राखिए’ वाली भावना से अगर उ.प्र. के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी जी सुनेंगे, तो उन्हें लोक और परलोक में यश मिलेगा। यदि वे निहित स्वार्थों की हमारे विरूद्ध की जा रही लगाई-बुझाई को गंभीरता से लेंगे तो न सिर्फ ब्रजवासियों और ब्रज धाम के कोप भाजन बनेंगे बल्कि परलोक में भी अपयश ही कमायेंगे।’ हमें विश्वास था कि योगी सरकार उ.प्र. की धर्मनगरियों को सजाना-संवारना चाहती है। स्वयं मुख्यमंत्री इस मामले में गहरी रूचि रखते हैं। उनकी हार्दिक इच्छा है कि उनके शासनकाल में मथुरा, वाराणसी, अयोध्या और चित्रकूट का विकास इस तरह हो कि यहां आने वाले श्रद्धालुओं को सुख मिले। इसके लिए वे सब कुछ करने को तैयार हैं।’


तब इस लेख में मैंने उन्हें आगाह किया था कि, ‘धर्मनगरियों व ऐतिहासिक भवनों का जीर्णोंद्धार या सौन्दर्यीकरण एक बहुत ही जटिल प्रक्रिया है। जटिल इसलिए कि चुनौतियां अनंत है। लोगों की धार्मिक भावनाएं, पुरोहित समाज के पैतृक अधिकार, वहां आने वाले आम आदमी से अति धनी लोगों तक की अपेक्षाओं को पूरा करना, सीमित स्थान और संसाधनों के बीच व्यापक व्यवस्थाऐं करना, इन नगरों की कानून व्यवस्था और तीर्थयात्रियों की सुरक्षा को सुनिश्चति करना।’


इस सबके लिए जिस अनुभव, कलात्मक अभिरूचि व आध्यात्मिक चेतना की आवश्यक्ता होती है, प्रायः उसका प्रशासनिक व्यवस्था में अभाव होता है। सड़क, खडंजे, नालियां, फ्लाई ओवर जैसी आधारभूत संरचनाओं के निर्माण का अनुभव रखने वाला प्रशासन तंत्र इन नगरों के जीर्णोंद्धार और सौन्दर्यीकरण में वो बात नहीं ला सकता, जो इन्हें विश्वस्तरीय तीर्थस्थल बना दे। कारण यह है कि सड़क, खड़जे की मानसिकता से टैंडर निकालने वाले, डीपीआर बनाने वाले और ठेके देने वाले, इस दायरे के बाहर सोच ही नहीं पाते। अगर सोच पात होते तो आज तक इन शहरों में कुछ कर दिखाते। पिछले इतने दशकों में इन धर्मनगरियों में विकास प्राधिकरणों ने क्या एक भी इमारत ऐसी बनाई है, जिसे देखा-दिखाया जा सके? क्या इन प्राधिकरणों ने शहरों की वास्तुकला को आगे बढाया है या इन पुरातन शहरों में दियासलाई के डिब्बों जैसे अवैध बहुमंजले भवन खड़े कर दिये हैं? नतीजतन ये सांस्कृतिक स्थल अपनी पहचान तेजी से खोते जा रहे हैं।


माना कि शहरी विकास की प्रक्रिया को रोका नहीं जा सकता। बढ़ती आबादी की मांग को भी पूरा करना होता है। मकान, दुकान, बाजार भी बनाने होते हैं, पर पुरातन नगरों की आत्मा को मारकर नहीं। अंदर से भवन कितना ही आधुनिक क्यों न हो, बाहर से उसका स्वरूप, उस शहर की वास्तुकला की पहचान को प्रदर्शित करने वाला होना चाहिए। भूटान एक ऐसा देश है, जहां एक भी भवन भूटान की बौद्ध संस्कृति के विपरीत नहीं बनाया जा सकता। चाहे होटल, दफ्तर या दुकान कुछ भी हो। सबके खिड़की, दरवाजे और छज्जे बुद्ध विहारों के सांस्कृतिक स्वरूप को दर्शाते हैं। इससे न सिर्फ कलात्मकता बनीं रहती है, बल्कि ये और भी ज्यादा आकर्षक लगते हैं। दुनिया के तमाम पर्यटन वाले नगर, इस बात का विशेष ध्यान रखते हैं। जबकि उ.प्र. में आज भी पुराने ढर्रे से सोचा और किया जा रहा है। फिर कैसे सुधरेगा इन नगरों का स्वरूप?


2017 में जब मैंने उ.प्र. के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी को उनके कार्यालय में तत्कालीन पर्यटन सचिव अवनीश अवस्थी की मौजूदगी में ब्रज के बारे में पावर पाइंट प्रस्तुति दी थी, तो मैंने योगी जी से स्पष्ट शब्दों में कहा कि महाराज! दो तरह का भ्रष्टाचार होता है, ‘करप्शन ऑफ डिजाईन’ व ‘करप्शन ऑफ इम्पलीमेंटेशन’। यानि नक्शे बनाने में भ्रष्टाचार और निर्माण करने में भ्रष्टाचार। निर्माण का भ्रष्टाचार तो भारतव्यापी है। बिना कमीशन लिए कोई सरकारी आदमी कागज बढ़ाना नहीं चाहता। पर डिजाईन का भ्रष्टाचार तो और भी गंभीर है। यानि तीर्थस्थलों के विकास की योजनाऐं बनाने में ही अगर सही समझ और अनुभवी लोगों की मदद नहीं ली जायेगी और उद्देश्य अवैध धन कमाना होगा, तो योजनाऐं ही नाहक महत्वाकांक्षी बनाई जायेंगी। गलत लोगों से नक्शे बनावाये जायेंगे और सत्ता के मद में डंडे के जोर पर योजनाऐं लागू करवाई जायेंगी। नतीजतन धर्मक्षेत्रों का विनाश होगा, विकास नहीं। जैसे अयोध्या के दर्जनों पौराणिक कुंडों की दुर्दशा सुधारने के बजाय अकेले सूर्य कुंड के सौंदरीयकरण पर शायद 140 करोड़ रुपए खर्च किए जाएँगे। जबकि यह कुंड सबसे सुंदर और दुरुस्त दशा में है और दो करोड़ में ही इसका स्वरूप निखारा जा सकता है।  


बहुत पीड़ा के साथ कहना पड़ रहा है कि योगी राज में ब्रज सजाने के नाम पर प्रचार तो बहुत हुआ, धन का आवंटन भी खुलकर हुआ, पर कोई भी उल्लेखनीय काम ऐसा नहीं हुआ जिससे ब्रज की संस्कृति और धरोहरों का संरक्षण या जीर्णोद्धार इस तरह हुआ हो जैसा विश्व स्तर पर विशेषज्ञों द्वारा किया जाता है। सबसे पहली गलती तो यह हुई है कि जिस, ‘उ प्र ब्रज तीर्थ विकास परिषद’ को ब्रज विकास के सारे निर्णय लेने के असीमित अधिकार दिए गए हैं, उसमें एक भी व्यक्ति इस विधा का विशेषज्ञ नहीं है। परिषद का आज तक क़ानूनी गठन ही नहीं हुआ। जबकि इसके अधिनियम 2015 की धारा 3 (त) के अनुसार, कानूनन इस परिषद में ब्रज की धरोहरों के संरक्षण के लिए किए गए प्रयत्नों के सम्बंध में ज्ञान, अभिज्ञता और ट्रैक रिकॉर्ड रखने वाले पाँच सुविख्यात व्यक्तियों को लिया जाना था। उनकी सलाह से ही प्रोजेक्ट और प्राथमिकताओं का निर्धारण होना था, अन्यथा नहीं। जबकि अब तक परिषद में सारे निर्णय, उन दो व्यक्तियों ने लिए हैं, जिन्हें इस काम कोई अनुभव ही नहीं है। इसीलिए ब्रज के प्रति सच्ची आस्था रखने वाले संत और भक्त परिषद के कार्यकलापों से और जनता के कर से जमा धन के भारी बर्बादी से बेहद क्षुब्ध हैं। अगर इन दो अधिकारियों को ही सारे निर्णय लेने थे तो फिर परिषद का इतना तामझाम खड़ा करने की ज़रूरत क्या थी? ज़िला पर्यटन अधिकारी ही इस काम के लिए काफ़ी था। 


इसी प्रकार इसके अधिनियम 2015 की धारा 6 (2) के अनुसार परिषद का काम मथुरा स्तर पर करने के लिए एक ज़िला स्तरीय समिति के गठन का भी प्रावधान है। जिसमें 6 मशहूर विशेषज्ञों की नियुक्ति की जानी थी। (1) अनुभवी लैंडस्केप डिज़ाइनर व इंटर्प्रेटिव प्लानर (2) ब्रज क्षेत्र का अनुभव रखने वाले पर्यावरणविद् (3) ब्रज के सांस्कृतिक और पौराणिक इतिहास के सुविख्यात विशेषज्ञ (4) ब्रज साहित्य के प्रतिष्ठित विद्वान (5) ब्रज कला के सुविख्यात मर्मज्ञ (6) ब्रज का कोई सुविख्यात वकील, सामाजिक कार्यकर्ता या जनप्रतिनिधि जिसने ब्रज के सांस्कृतिक विकास में कुछ उल्लेखनीय योगदान दिया हो। इन सबके मंथन के बाद ही विकास की परियोजनाएँ स्वीकृत होनी थी। पर जानबूझकर ऐसा नहीं किया गया ताकि मनमानी तरीक़े से निरर्थक योजनाओं पर पैसा बर्बाद किया जा सके। जिसकी लम्बी सूची प्रमाण सहित योगी जी को दी जा सकती है, यदि वे इन चार वर्षों में परिषद की उपलब्धियों का निष्पक्ष मूल्यांकन करवाना चाहें तो।        


अज्ञान और अनुभवहीनता के चलते ब्रज का जैसा विनाश इन चार वर्षों में हुआ है वैसा ही पिछले तीन दशकों में, हर धर्मक्षेत्रों का किया गया है। उसके दर्जनों उदाहरण दिये जा सकते हैं। फिर भी अनुभव से कुछ सीखा नहीं जा रहा। सारे निर्णय पुराने ढर्रे पर ही लिए जा रहे हैं, तो कैसे सजेंगी हमारी धर्मनगरियां? मैं तो इसी चिंता में घुलता जा रहा हूं। शोर मचाओ तो लोगों को बुरा लगता है और चुप होकर बैठो तो दम घुटता है कि अपनी आंखों के सामने, अपनी धार्मिक विरासत का विनाश कैसे हो जाने दें?

Monday, October 5, 2020

दामिनी के बाद कितनी और मनीषा दरिंदगी का शिकार बनेंगी ?

एक बार फिर भारत शर्मसार है। हाथरस पुलिस की लापरवाही और स्वर्णों की दरिंदगी की दास्तान आज सारे देश की ज़ुबान पर है। इस भयावय त्रासदी के लिए सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार देश का वो मीडिया है जो पिछले तीन महीने से सुशांत सिंह राजपूत और बॉलीवुड के ड्रग के मायाजाल से बाहर नहीं निकल पा रहा है। रिया चक्रवर्ती के पास कितने ग्राम ड्रग बरामद हुई, ये ढूँढने वाले खोजी पत्रकार आज डेढ़ साल बाद भी ये नहीं खोज पाए कि पुलवामा में 300 किलोग्राम आरडीएक्स कहाँ से और कैसे पहुँचा? जिसमें देश के 40 जाँबाज़ सिपाहियों के परखच्चे उड़ा दिए गए। क्या उनकी हत्या सुशांत सिंह राजपूत की तथाकथित हत्या से काम महत्वपूर्ण थी? अगर मीडिया ने निर्भया कांड की तरह हाथरस की मनीषा के सवाल को भी उसी तत्परता से उठाया होता तो शायद मनीषा की जान बच सकती थी।


जहां तक बलात्कार की समस्या का प्रश्न है तो कोई पुलिस या प्रशासन बलात्कार रोक नहीं सकता। क्योंकि इतने बड़े मुल्क में किस गांव, खेत, जंगल, कारखाने, मकान या सुनसान जगह बलात्कार होगा, इसका अन्दाजा कोई कैसे लगा सकता है? वैसे भी जब हमारे समाज में परिवारों के भीतर बहू-बेटियों के शारीरिक शोषण के अनेकों समाजशास्त्रीय अध्ययन उपलब्ध हैं, तो यह बात सोचने की है कि कहीं हम दोहरे मापदण्डों से जीवन तो नहीं जी रहे? उस स्थिति में पुरूषों के रवैये में बदलाव का प्रयास करना होगा। जो एक लम्बी व धीमी प्रक्रिया है। समाज में हो रही आर्थिक उथल-पुथल, शहरीकरण, देशी और विदेशी संस्कृति का घालमेल और मीडिया पर आने वाले कमोत्तेजक कार्यक्रमों ने अपसंस्कृति को बढ़ाया है। जहाँ तक पुलिसवालों के खराब व्यवहार का सवाल है, तो उसके भी कारणों को समझना जरूरी है। 1980 से राष्ट्रीय पुलिस आयोग की रिपोर्ट धूल खा रही है। इसमें पुलिस की कार्यप्रणाली को सुधारने के व्यापक सुझाव दिए गए थे। पर किसी भी राजनैतिक दल या सरकार ने इस रिपोर्ट को प्रचारित करने और लागू करने के लिए जोर नहीं दिया। नतीजतन हम आज भी 200 साल पुरानी पुलिस व्यवस्था से काम चला रहे हैं। 


पुलिसवाले किन अमानवीय हालतों में काम करते हैं, इसकी जानकारी आम आदमी को नहीं होती। जिन लोगों को वी.आई.पी. बताकर पुलिसवालों से उनकी सुरक्षा करवायी जाती है, ऐसे वी.आई.पी. अक्सर कितने अनैतिक और भ्रष्ट कार्यों में लिप्त होते हैं, यह देखकर कोई पुलिसवाला कैसे अपना मानसिक संतुलन रख सकता है? समाज में भी प्रायः पैसे वाले कोई अनुकरणीय आचरण नहीं करते। पर पुलिस से सब सत्यवादी हरीशचंद्र होने की अपेक्षा रखते हैं। हममें से कितने लोगों ने पुलिस ट्रेनिंग कॉलेजों में जाकर पुलिस के प्रशिक्षणार्थियों के पाठ्यक्रम का अध्ययन किया है? इन्हें परेड और आपराधिक कानून के अलावा कुछ भी ऐसा नहीं पढ़ाया जाता जिससे ये समाज की सामाजिक, आर्थिक व मनोवैज्ञानिक जटिलताओं को समझ सकें। ऐसे में हर बात के लिए पुलिस को दोष देने वाले नेताओं और मध्यमवर्गीय जागरूक समाज को अपने गिरेबां में झांकना चाहिए। 


इसी तरह बलात्कार की मानसिकता पर दुनियाभर में तमाम तरह के मनोवैज्ञानिक और सामाजिक अध्ययन हुए हैं। कोई एक निश्चित फॉर्मूला नहीं है। आठ वर्ष पहले मुम्बई के एक अतिसम्पन्न मारवाड़ी युवा ने 65 वर्ष की महिला से बलात्कार किया तो सारा देश स्तब्ध रह गया। इस अनहोनी घटना पर तमाम सवाल खड़े किए गये। पिता द्वारा पुत्रियों के लगातार बलात्कार के सैंकड़ों मामले रोज देश के सामने आ रहे हैं। अभी दुनिया ऑस्ट्रिया  के गाटफ्राइट नाम के उस गोरे बाप को भूली नहीं है जिसने अपनी ही सबसे बड़ी बेटी को अपने घर के तहखाने में दो दशक तक कैद करके रखा और उससे दर्जन भर बच्चे पैदा किए। इस पूरे परिवार को कभी न तो धूप देखने को मिली और न ही सामान्य जीवन। घर की चार दीवारी में बन्द इस जघन्य काण्ड का खुलासा 2011 में तब हुआ जब गाटफ्राइट की एक बच्ची गंभीर रूप से बीमारी की हालत में अस्पताल लाई गयी। अब ऐसे काण्डों के लिए आप किसे जिम्मेदार ठहरायेंगे? पुलिस को या प्रशासन को ? यह एक मानसिक विकृति है। जिसका समाधान दो-चार लोगों को फाँसी देकर नहीं किया जा सकता। इसी तरह एक प्रमुख अंग्रेजी टीवी चैनल के एंकरपर्सन ने अतिउत्साह में बलात्कारियों को नपुंसक बनाने की मांग रखी। कुछ देशों में यह कानून है। पर इसके घातक परिणाम सामने आए हैं। इस तरह जबरन नपुंसक बना दिया गया पुरूष हिंसक हो जाता है और समाज के लिए खतरा बन जाता है। 


बलात्कार के मामलों में पुलिस तुरत-फुरत कार्यवाही करे और सभी अदालतें हर दिन सुनवाई कर 90 दिन के भीतर सजा सुना दें। सजा ऐसी कड़ी हो कि उसका बलात्कारियों के दिमाग पर वांछित असर पड़े और बाकी समाज भी ऐसा करने से पहले डरे। इसके लिए जरूरी है कि जागरूक नागरिक, केवल महिलाऐं ही नहीं पुरूष भी, सक्रिय पहल करें और सभी राजनैतिक दलों और संसद पर लगातार तब तक दबाव बनाऐ रखें जब तक ऐसे कानून नहीं बन जाते। कानून बनने के बाद भी उनके लागू करवाने में जागरूक नागरिकों को हमेशा सतर्क रहना होगा। वरना कानून बेअसर रहेंगे। अगर ऐसा हो पाता है तो धीरे धीरे बलात्कार की समस्या पर कुछ क़ाबू पाया जा सकता है।


सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि हमारे देश की वो महिलाएँ जो राजनीति में सफल हैं, वो भी दामिनी या मनीषा जैसे कांडों पर अपने दल का रुख़ देख कर बयानबाज़ी करती हैं। जिस दल की सत्ता होती है उस दल की नेता, विधायक, सांसद या मंत्री ऐसे दर्दनाक कांडों पर भी चुप्पी साधे रखती हैं। केवल विपक्षी दलों की ही महिला नेता आवाज़ उठाती हैं। ज़ाहिर हैं कि इनमें अपनी ही जमात के प्रति संवेदनशीलता का अभाव है। महिलाओं के प्रति ऐसी दुर्दांत घटनाओं के बावजूद उनके हक़ में एक जुट हो कर आवाज़ न उठाना और ऐसे समय में अपने राजनैतिक जोड़-घटा लगाना बेहद शर्मनाक है। इसीलिए समाज के हर वर्ग को इस समस्या से निपटने के लिए सक्रिय होना पड़ेगा वरना कोई बहु बेटी सुरक्षित नहीं रह पाएगी।   

Monday, September 14, 2020

राज्यों के उड्डयन विभागों में हो रही कोताही को क्यों अनदेखा कर रहा है डीजीसीए?


जब से उत्तर प्रदेश सरकार के नागरिक उड्डयन के घोटाले सामने आएँ हैं तब से भारत सरकार का  नागर विमानन निदेशालय (डीजीसीए) भी सवालों के घेरे में आ गया है। कई राज्यों के नागरिक उड्डयन विभागों में हो रही ख़ामियों को जिस तरह डीजीसीए के अधिकारी अनदेखा कर रहे हैं  उससे वे न सिर्फ़ उस राज्य के अतिविशिष्ट व्यक्तियों की जान जोखिम में डाल रहे हैं। बल्कि राज्य की सम्पत्ति और वहाँ के नागरिकों की जान से भी खिलवाड़ कर रहे हैं। हाल ही में उत्तराखंड सरकार का नागरिक उड्डयन विकास प्राधिकरण (उकाडा) एक नियुक्ति को लेकर विवाद में आया। वहाँ हो रही पाइलट भर्ती प्रक्रिया में यूँ तो उकाडा ने भारत सरकार के नागर विमानन निदेशालय के सेवा निवृत उपमहानिदेशक को विशेषज्ञ के रूप में बुलाया गया था। लेकिन विशेषज्ञ की सलाह को दर किनार करते हुए चयन समिति ने एक संदिग्ध पाइलट को इस पद पर नियुक्त करना लगभग तय कर ही लिया था। 

ग़नीमत है कि समय रहते दिल्ली के कालचक्र समाचार ब्युरो के प्रबंधकीय सम्पादक रजनीश कपूर ने राज्य सरकार के नागरिक उड्डयन सचिव को इस विषय में एक पत्र लिख कर इस चयन में हुई अनियमित्ताओं की ओर ध्यान आकर्षित किया। कपूर के अनुसार जिस कैप्टन चंद्रपाल सिंह का चयन इस पद के लिए किया जा रहा था उनके ख़िलाफ़ डीजीसीए में पहले से ही कई अनियमित्ताओं की जाँच चल रही है, जिसे अनदेखा कर उकाडा के चयनकर्ता उसकी भर्ती पर मुहर लगाने पर अड़े हुए थे। कपूर ने अपने पत्र में नागरिक उड्डयन सचिव को इस चयन में हो रहे भ्रष्टाचार की जाँच की माँग भी की थी।  



विगत कुछ महीनों में राज्य सरकारों के उड्डयन विभागों के और विशिष्ट व्यक्तियों की सुरक्षा से जुड़े ऐसे कई मामले कालचक्र ब्यूरो द्वारा डीजीसीए में उठाए गए हैं। इसकी सीधी वजह यह रही कि यदि मामले नियम और सुरक्षा का आदर करने वाले उन राज्यों के पाइलट या कर्मचारी उठाते हैं, तो बौखलाहट में उन पर डीजीसीए झूठे आरोप ठोक कर और अकारण दंडात्मक कार्यवाही कर के उल्टे शिकायतकर्ता के ही पीछे पड़ जाता है। 


ग़ौरतलब है कि वीवीआईपी व्यक्तियों के विमानों को उड़ाने के लिए पाइलट के पास एक निश्चित अनुभव के साथ-साथ साफ़ सुथरी छवि का होना ज़रूरी होता है। उन पर किसी भी तरह की आपराधिक मामले की जाँच से मुक्त होना भी अनिवार्य होता है। पहाड़ी राज्य उत्तराखंड में मौसम के मिज़ाज और भौगोलिक स्थिति को देखते हुए यहाँ विशेष अनुभव वाले पाइलट ही उड़ान भर सकते हैं। 


संतोष की बात है कि इस भर्ती में हो रही अनियमित्ताओं की शिकायत को जब उत्तराखंड के मुख्यमंत्री के संज्ञान में लाया गया, उन्होंने इस गम्भीरता से लेते हुए उस संदिग्ध पाइलट की नियुक्ति पर रोक लगा दी। 


यहाँ सवाल उठता है कि भारत सरकार के नागर विमानन निदेशालय के अधिकारी राज्य सरकारों के नागरिक उड्डयन विभाग में हो रही ख़ामियों की ओर ध्यान क्यों नहीं देते? क्या वो तब जागेंगे जब फिर कोई बड़ा हादसा होगा? या फिर राज्यों के उड्डयन विभाग में हो रहे घोटालों में डीजीसीए के अधिकारी भी शामिल हैं?



उत्तराखंड के बाद अब बात हरियाणा की करें यहाँ के नागरिक उड्डयन विभाग में एक वरिष्ठ पाइलट द्वारा नियमों की धज्जियाँ उड़ाते हुए मार्च 2019 में एक नहीं दो बार ऐसी अनियमित्ताएं की जिसकी सज़ा केवल निलम्बन ही है। लेकिन क्योंकि इस पाइलट के बड़े भाई डीजीसीए में एक उच्च पद पर तैनात थे इसलिए उनपर किसी भी तरह की कार्यवाही नहीं की गई। ग़ौरतलब है कि हरियाणा राज्य सरकार के पाइलट कैप्टन डी एस नेहरा ने सरकारी हेलीकॉप्टर पर अवैध ढंग से टेस्ट फ्लाइट भरी। ऐसा उन्होंने सिंगल (अकेले) पायलट के रूप में किया और उड़ान से पहले के दो नियामक ब्रेथ एनालाइजर टेस्ट (शराब पीए होने का पता लगाने के लिए सांस की जांच) भी खुद ही कर डाली। एक अपने लिए और दूसरी, राज्य सरकार के एक पाइलट कैप्टन दिद्दी के लिए, जो कि उस दिन उनके साथ पिंजौर में मौजूद नहीं थे। आरोप है कि कैप्टन नेहरा ने कैप्टन दिद्दी के फर्जी दस्तखत भी किए। इस घटना के दो दिन बाद ही कैप्टन नेहरा ने एक बार फिर ग्राउंड रन किया और फिर से सिंगल पायलट के रूप में राज्य सरकार के हेलीकॉप्टर की मेनटेनेंस फ्लाइट भी की। इस बार उन्होंने उड़ान से पहले होने वाले नियामक और आवश्यक ब्रेथ एनालाइजर टेस्ट नहीं किया, बल्कि उस टेस्ट को उड़ान के बाद किया। जोकि नागरिक उड्डयन की निर्धारित आवश्यकताओं (सीएआर) का सीधा उल्लंघन है। इस बार भी उन्होंने फर्जीवाड़ा करते हुए, कैप्टन पी के दिद्दी के नाम पर प्री फ्लाइट ब्रेथ एनालाइजर एक्जामिनेशन किया और रजिस्टर पर उनके फर्जी हस्ताक्षर भी किए, क्योंकि उस दिन भी कैप्टन दिद्दी पिंजौर में नहीं थे। वे मोहाली में डीजीसीए के परीक्षा केंद्र में एटीपीएल की परीक्षा दे रहे थे।


इस गम्भीर उल्लंघन के प्रमाण को एक शिकायत के रूप में डीजीसीए को भेजा गया, लेकिन मार्च 2019 से इस मामले को डीजीसीए आज तक दबाए बैठी है। इसके पीछे का कारण केवल भाई भतीजावाद ही है। 



सवाल यह है की चाहे वो उत्तर प्रदेश की योगी सरकार की सुरक्षा में सेंध लगाने वाले और 203 शेल कम्पनियाँ चलाने वाले कैप्टन प्रज्ञेश मिश्रा हों या हरियाणा सरकार के कैप्टन नेहरा हों, भारत सरकार के नागर विमानन निदेशालय में तैनात उच्च अधिकारी, इनके द्वारा की गई अनियमत्ताओं को गम्भीरता से क्यों नहीं लेते? कहीं तो छोटी-छोटी अनियिमत्ताओं पर डीजीसीए तुरंत कार्यवाही करते हुए बेक़सूर पाइलटों या अन्य कर्मचारियों को कड़ी से कड़ी सज़ा देता है और कहीं कैप्टन नेहरा और कैप्टन मिश्रा जैसे ‘सम्पर्क’ वाले पाइलटों के ख़िलाफ़ कार्यवाही करने में महीनों गुज़ार देता है। ऐसा दोहरा मापदंड अपनाने के पीछे डीजीसीए के अधिकारी भी उतने ही ज़िम्मेदार हैं जितना कि एयरलाइन या राज्य सरकार के नागरिक उड्डयन विभाग पर नियंत्रण रखने वाले आला अफ़सर। मोदी सरकार के नागरिक उड्डयन मंत्री हों या राज्यों के मुख्यमंत्री उन्हें इस ओर ध्यान देते हुए इन दोषी अधिकारियों के ख़िलाफ़ कड़ी से कड़ी कार्यवाही करनी चाहिए। जिससे यह संदेश जा सके कि गलती करने और दोषी पाये जाने पर किसी को भी बख्शा नहीं जाएगा चाहे वो व्यक्ति कितना भी रसूखदार हो। क़ानून सबसे ऊपर है क़ानून से ऊपर कोई नहीं।