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Monday, January 15, 2018

सर्वोच्च न्यायालय में तूफान: तस्वीर का दूसरा पक्ष


सर्वोच्च न्यायालय के इतिहास में पहली बार 4 वरिष्ठतम् न्यायाधीशों ने भारत के मुख्य न्यायाधीश की कार्य प्रणाली पर संवाददाता सम्मेलन कर न्यायपालिका में हलचल मचा दी। उनका मुख्य आरोप है कि राजनैतिक रूप से संवेदनशील मामलों में उनकी वरिष्ठता को नजरअंदाज कर, मनचाहे तरीके से केसों का आवंटन किया जा रहा है। इस अभूतपूर्व घटना पर देश की न्याय व्यवस्था से जुड़े लोग, राजनैतिक दल और मीडिया अलग-अलग खेमो में बटे हैं। भारत सरकार ने तो इसे न्यायपालिका का अंदरूनी मामला बताकर पल्ला झाड़ लिया। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने इस पर टिप्पणी की है। उधर सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ता इस पर खुली बहस की मांग कर रहे है। जबकि उक्त चार न्यायाधीशों ने भारत के मुख्य न्यायाधीश पर महाअभियोग चलाने की मांग की है।

जाहिर है कि बिना तिल के ताड़ बनेगा नहीं। कुछ तो ऐसा है , जिसने इन न्यायाधीशों को 70 साल की परंपरा को तोड़कर इतना क्रांतिकारी कदम उठाने के लिए प्रेरित किया। चूंकि हमारी न्याय व्यवस्था में सबकुछ प्रमाण पर आधारित होता है। इसलिए इन न्यायाधीशों के मुख्य न्यायाधीश पर लगाये गये आरोपों की ‘सुप्रीम कोर्ट बार काउंसिल’ को निष्पक्षता से जांच करनी चाहिए। अगर यह सिद्ध हो जाता है कि उनसे जाने-अंजाने कुछ ऐसी गलती हुई है, जो सर्वोच्च न्यायालय की स्थापित परंपराओं और मर्यादा के विरूद्ध है, तो मुख्य न्यायाधीश को बिना प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाए, उसका सुधार कर लेना चाहिए।

पर इस तस्वीर का दूसरा पक्ष भी है। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पर मर्यादा के विरूद्ध आचरण करने का यह पहला मौका नहीं है। सन् 2000 में भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश डा. ए.एस. आनंद के 6 जमीन घोटाले मयसबूत मैंने ‘कालचक्र’ अखबार में प्रकाशित किये थे। उन दिनों भी केंद्र में राजग की सरकार थी। पर सर्वोच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश ने, किसी राजनैतिक दल के नेता ने और दो-तीन को छोड़कर किसी वकील ने डा. आनंद से सफाई नहीं मांगी। बल्कि अभिषेक सिंघवी व कपिल सिब्बल जैसे वकीलों ने तो टीवी चैनलों पर डा. आनंद का बचाव किया। मजबूरन मैंने भारत के राष्ट्रपति डा. के.आर नारायणन से मामले की जांच करने की अपील की। उन्होंने इसे तत्कालीन कानून मंत्री राम जेठमलानी को सौंप दिया। जब कानून मंत्री ने मुख्य न्यायाधीश से स्पष्टीकरण मांगा, तो तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने जेठमलानी से स्तीफा मांग लिया और उनकी जगह अरूण जेटली को देश का नया कानून मंत्री नियुक्त किया। जेटली ने भी इस मामले में डा. आनंद का ही साथ दिया। क्या अपने पद का दुरूपयोग कर जमीन घोटाले करने वाले मुख्य न्यायाधीश डा. आनंद को यह नैतिक अधिकार था कि वे दूसरों के आचरण पर फैसला करे? क्या उनके ऐसे आचरण से सर्वोच्च न्यायालय की गरिमा कम नहीं हुई?

इससे पहले जुलाई 1997 में भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जे.एस. वर्मा ने भरी अदालत में यह कहकर देश हिला दिया था कि उन पर हवाला कांड को रफा-दफा करने के लिए भारी दबाव है और आरोपियों की तरफ से एक ‘जेंटलमैन’ उनसे बार-बार मिलकर दबाव डाल रहा है। पर न्यायमूर्ति वर्मा ने सर्वोच्च अदालत की इतनी बड़ी अवमानना करने वाले अपराधी का न तो नाम बताया, न उसे सजा दी। जबकि बार काउंसिल, मीडिया और सांसदों ने उनसे ऐसा करने की बार-बार मांग की। चूंकि मुझे इसका पता चल चुका था कि न्यायमूर्ति वर्मा और न्यायमूर्ति एस.सी. सेन, हवाला कांड के आरोपियों से गोपनीय रूप से मिल रहे थे। इसलिए मैंने सीधा पत्र लिखकर सर्वोच्च न्यायालय के सभी न्यायाधीशों से इस मामले में कार्यवाही करने की मांग की। पर कोई नहीं बोला। उपरोक्त दोनों ही मामलों में अनैतिक आचरण करने वाले ये दोनों मुख्य न्यायाधीश सेवानिवृत्त होने के बाद भारत के मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष बना दिये गये। चूंकि ये नियुक्तियां सत्त पक्ष और विपक्ष की सहमति से होती हैं, इसलिए यह और भी चिंता की बात है कि सर्वोच्च न्यायालय का कोई भी न्यायाधीश या विभिन्न राजनैतिक दलों के नेता सर्वोच्च न्यायालय की प्रतिष्ठा पर लगे इस कलंक को धोने सामने नहीं आये।

इससे पहले भी सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश रामास्वामी पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे और उनके खिलाफ संसद में महाअभियोग प्रस्ताव लाया गया। पर कांग्रेस के सांसदों ने सदन से बाहर जाकर महाअभियोग प्रस्ताव को गिरवा दिया और रामास्वामी को बचा लिया। मौजूदा घटनाक्रम के संदर्भ में ये तीनों उदाहरण बहुत सार्थक है। अगर सर्वोच्च न्यायालय के इन चार वरिष्ठ न्यायाधीशों ने मौजूदा मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ महाअभियोग चलाने का प्रस्ताव रखा है, तो उन्हें यह भी बताना चाहिए के उपरोक्त दो मामलों में, जो चुप्पी साधी गई, उसके लिए जिम्मेदार लोगों को दोषी ठहराने के लिए, ये चारो न्यायाधीश, कानून के दायरे में, क्या पहल करने को तैयार हैं? अगर वे इसे पुराना मामला कहकर टालते हैं, तो उन्हें ये मालूम ही होगा कि आपराधिक मामले कभी भी खोले जा सकते हैं। यह बात दूसरी है कि श्री वर्मा और डा. आनंद, दोनों ही अब शरीर त्याग चुके हैं। पर जिन जिम्मेदार लोगों ने उनके अवैध कारनामों पर चुप्पी साधी या उन्हें बचाया, वे अभी भी मौजूद हैं। सर्वोच्च न्यायपालिका में सुधार के लिए मैं 1997 से जोखिम उठाकर लड़ता रहा हूं। क्या उम्मीद करूं कि सर्वोच्च न्यायालय की गरिमा को लेकर, जो चिंता आज व्यक्त की गई है, उसे बिना पक्षपात के हर उस न्यायाधीश पर लागू किया जायेगा, जिसका आचरण अनैतिक रहा है? जिससे देश की जनता को यह आश्वासन मिल सके कि उसके आचरण पर फैसला देने वाला न्यायाधीश अनैतिक नहीं है।

Monday, January 9, 2017

कहां चली गयी सिविल सोसाइटी



भ्रष्टाचार के विरूद्ध कुछ वर्ष पहले पूरे हिंदुस्तान में तूफान खड़ा करने वाली सिविल सोसाईटी अचानक कहां गायब हो गई। यह एक नई बात यह दिख रही है कि स्वयंसेवी सामाजिक संगठन अचानक निष्क्रिय हो गये हैं। यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि ये निष्क्रियता अस्थायी  है या किसी थकान का नतीजा है। दोनों स्थितियां एक साथ भी हो सकती हैं। क्योंकि देश में सामाजिक क्षेत्र में काम कर रही तमाम गैर सरकारी संस्थाएं पिछले दो दशकों से वाकई जबर्दस्त हलचल मचाए हुए थीं। आजकल वह हलचल लगभग ठप है। चाहे भ्रष्टाचार हो, चाहे पर्यावरण हो या दूसरी सामाजिक समस्याएं उन्हें लेकर आंदोलनों, विरोध प्रदर्शनों और विचार विमर्शो के आयोजन अब दुर्लभ हो गए हैं।

महंगाई, बेरोजगारी, बंधुआ मजदूरी, महिलाओं पर अत्याचार, प्रदूषण, भ्रष्टाचार को लेकर जंतर मंतर पर होने वाले प्रतीकात्मक धरनों प्रदर्शनों की संख्या में आश्चर्यजनक कमी आयी है। क्या ये सोच विचार का एक मुददा नहीं होना चाहिए। और अगर सोचना शुरू करेंगे तो देश में राजनीतिक और सामाजिक वातावरण में आए बदलावों को सामने रखकर ही सोचना पड़ेगा। खासतौर पर इसलिए क्योंकि दो-तीन साल में एक बड़ा बदलाव केंद्र में सत्ता परिवर्तन हुआ है। उसके पहले भ्रष्टाचार के खिलाफ एक लंबा जन जागरण अभियान चलाया गया था। ज्यादातर राजनीतिक विश्लेषक मानते ही हैं कि पूर्व सरकार की छवि नाश करने में उस अभियान ने सबसे बड़ी भूमिका निभाई थी। वह सामाजिक आंदोलन या जन आंदोलन सिर्फ विरोध करने के लिए भी नहीं था। उस आंदोलन में बाकायदा एक मांग थी कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल का कानून बनाया जाए। यानी सामाजिक संस्थाओं ने बाकायदा एक विशेषज्ञ के किरदार में आते हुए लोकपाल को सबसे कारगर हथियार साबित कर दिया था।

बहरहाल सत्ता बदल गई। नए माहौल में वह आंदोलन भी ठंडा पड़ गया। दूसरे छुटपुट आंदोलन जो चला करते थे वे भी बंद से हो गए। और तो और मीडिया का मिजाज भी बदल गया। यानी लोकपाल को लेकर बात आई गई हो गई।

इन तथ्यों के आधार पर क्या हम यह निष्कर्ष नहीं निकाल सकते कि सामातिक संस्थाएं और मीडिया इतना असरदार होता है कि वह जब चाहे जिस समस्या को जितना बड़ा बनाना चाहे उतना बड़ा बना सकता है। और जब चाहे उसी समस्या को उतना ही छोटा भी बना सकता है। इसका मतलब यह निकाला जा सकता है कि बिना लोकपाल का गठन हुए ही भ्रष्टाचार कम या खत्म हो गया है। इसीलिए शायद सामाजिक संगठनों ने अब आंदोलन करना बंद कर दिया है। पर ऐसा नहीं है। फिर इस निष्क्रियता से क्या सिविल सोसाइटी की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न नहीं लग जाता है। लेकिन मौजूदा माहौल ही कुछ इस तरह का है कि इन मुद्दों पर बात नहीं हो रही है।

लेकिन इतना तय है कि भ्रष्टाचार और कालेधन पर जितना कारगर आंदोलन तीन-चार साल पहले चला था, उस दौरान हम विरोध के नए और कारगर तरीके जान गए थे। अभी भले न सही लेकिन जब भी माहौल बनेगा वे तरीके काम में लाए जा सकते हैं। यह भी हो सकता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ उन तरीकों को एक बार अपनाए जाने के बाद उनकी धार कुंद पड़ गई हो। लेकिन दूसरे और मुददों के खिलाफ वैसे आंदोलन और हलचल पैदा करना सीखा जा चुका है। अब देखना यह होगा कि सामाजिक संगठन भविष्य में अगर फिर कभी सक्रिय होते हैं तो वे किस मुददे पर उठेंगे।

सामाजिक संगठनों के लिए बेरोजगारी और महंगाई और प्रदूषण जैसे मुददे आज भी कारगर हो सकते थे। लेकिन देश में पिछले दो महीने से नोटबंदी ने कामधंधे और खेती किसानी के अलावा और कोई बात करने की गुंजाइश ही नहीं छोड़ी है। देश में उत्पादन बढ़ाने के काम में सामाजिक संगठन ज्यादा कुछ कर नहीं सकते। कुछ भी करने के लिए अगर कुछ करना हो तो स्वयंसेवी संस्थाएं आर्थिक क्षेत्र में सरकारी नीतियों और कार्यक्रम बनवाने में हस्तक्षेप की भूमिका भर ही निभा सकती हैं। लेकिन यह काम इतनी विशेषज्ञता का काम है कि अपने देश में सामाजिक क्षेत्र की गैर सरकारी संस्थाएं ऐसे विशेषज्ञ कार्य में ज्यादा सक्षम नहीं हो पाई हैं। वैसे भी इस तरह के कामों में सामजस्यपूर्ण व्यवहार की दरकार होती है। जबकि पिछले दो दशकों में हमने अपनी स्वयंसेवी संस्थाओं को सिर्फ विरोध और संघर्ष के व्यवहार में अपना ही विकास करते देखा है।

देश के मौजूदा हालात में जब मीडिया ही अपने लिए सुरक्षित खबरों और चर्चाओं को ढूंढने में लगा हो तो इस मामले में स्वयंसेवी संस्थाओं के सामने तो और भी बड़ा संकट है। ये संस्थाएं अब प्रदूषण जैसी समस्या पर भी अपनी सक्रियता बढ़ाने से परहेज कर रही हैं। दरअसल नदियों की साफ-सफाई का काम शहर-कस्बों में गंदगी कम करने के काम से जुड़ा है। यानी प्रदूषण की बात करेंगे तो देश में चालू स्वच्छता अभियान में मीनमेख निकालने पड़ेंगे और किसी भी मामले में मीनमेख निकालने का ये माकूल वक्त नहीं है।

कुल मिलाकर स्वयंसेवी संस्थाओं को काम करने की गुंजाइश पैदा करना हो तो उन्हें उन क्षेत्रों की पहचान करनी होगी जिनमें मौजूदा सरकार से संघर्ष की स्थिति न बनती हो। आज की स्थिति यह है कि जो भी संघर्ष के किरदार में दिखता है वह सरकार के राष्ट्र निर्माण के काम में विघ्नकारी माना जाने लगा है। एक बार फिर दोहराया जा सकता है कि सामाजिक क्षेत्र में काम करने वाली संस्थाओं के सामने मुददों का संकट खड़ा हो गया है।