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Monday, August 15, 2022

आरसीपी सिंह की असलियत


राजनीति के मौजूदा दौर में अनैतिकता का सवाल अपना महत्व खोता जा रहा है। इसकी बिल्कुल नई मिसाल बिहार में आरसीपी सिंह की राजनीति है। इस बात का जिक्र करना जरूरी है कि आरसीपी एक नौकरशाह रहे हैं। भारतीय लोकतंत्र के चारों स्तंभों के अपने अपने दायरे हैं। इस लिहाज से यह जरूर देखा जाना चाहिए कि नौकरशाह रहे आरसीपी क्या क्या करते रहे हैं और आखिर राजनीति की बिसात पर एक मोहरे के तौर पर बिहार में उन्होंने क्या कर डालने की कोशिश की और आखिरकार उसकी क्या परिणति हुई।

वैसे देश की मौजूदा राजनीति में नैतिकता को बेकार की चीज़ साबित किया जाने लगा है। लेकिन देश की राजनीति अगर पूरी तौर पर गर्त में नहीं जा पाई है तो इसका एक कारण यह ही माना जाता है कि भारतीय लोकतंत्र के 75 साल के इतिहास में न्यूनतम नैतिकता ने ही उसे बचाए रखा है। इसीलिए सभ्य राजनीतिक समाज में नैतिकता की बात करने वालों का अभी लोप नहीं हुआ है। देश में बहुतेरे लोग अभी भी हैं जो किसी भी कीमत पर हासिल की गई सफलता को जायज़ नहीं ठहराते। इसीलिए आरसीपी बनाम नीतीश कुमार प्रकरण में हर सभ्य नागरिक को तय करना पड़ेगा कि वह किसके पक्ष में खड़ा है। सभ्य समाज को सर्वमान्य लोकतंत्र के पक्ष में उसे  साक्ष्यों के साथ अपने तर्क देने पड़ेंगे। एक जिम्मेदार नागरिक की हैसियत से मेरी भी यह ज़िम्मेदारी है।


आरसीपी सिंह मेरे जेएनयू में सहपाठी रहे हैं। उस नाते वे निरतंर मेरे संपर्क में रहे। उत्तर प्रदेश काडर के आईएस आरसीपी को मैंने नीतीश के संपर्क में आते भी देखा है। जब नीतीश रेल मंत्री बने तो आरसीपी को उन्होंने अपना विशेष अधिकारी बनाया। ये बात यह समझने के लिए काफी है कि आरसीपी किस हद तक नीतीश के विश्वासपात्र रहे होंगे। यहां तक तो फिर भी साफ था लेकिन जब नीतीश बिहार के मुख्यमंत्री हुए तो उन्होंने आरसीपी का उत्तर प्रदेश कैडर बदलवाकर बिहार बुलवा लिया। आरसीपी की विश्वासपात्रता की हद बताने के लिए मेरे पास एक व्यक्तिगत अनुभव भी है। जो यह बताने के लिए काफी है कि आरसीपी और नीतीश के बीच पारिवारिक प्रगाढता किस हद तक रही।

आरसीपी का मेरे पास फोन आया नीतीश की पत्नी मंजू जी और उनके बेटे निशांत और मंजू जी की मां वृंदावन तीर्थाटन पर आना चाहती हैं। आरसीपी ने मुझसे उनके वृंदावन प्रवास पर अपने घर ठहराने का अनुरोध किया। क्योंकि आरसीपी सिंह सपरिवार मेरे घर ठहरते रहे थे। तो मैंने उनका अनुरोध सहर्ष स्वीकार कर लिया। मंजु जी के साथ बिताए तीन दिन अच्छे रहे। लेकिन इससे मुझे यह अंदाजा हो गया कि नौकरशाह रहे आरसीपी और नीतीश के बीच विश्वास और सम्बन्धों का स्तर क्या है। बाद में तो जब आरसीपी को नीतीश ने अपने दल का राष्टीय अध्यक्ष तक बना दिया तो दोनों के बीच संबंधों को लेकर कोई शंका ही नहीं रह गई। 

अब अगर आरसीपी ने नीतीश के साथ जो व्यवहार किया उसे कोई विश्वासघात की पराकाष्ठा कहे तो बिल्कुल भी अतिश्योक्ति नहीं होगी।


बात यहीं खत्म नहीं होती। एक लोक सेवक होते हुए आरसीपी से नीतीश के चुनाव सम्बन्धी राजनीतिक कार्य में जिस तरह की खुलेआम हिस्सेदारी की थी वह खुद में अवैध और परले दर्जे की अनैतिकता कही जानी चाहिए। यह उसी तरह का मामला था जैसा पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के लिए उनके सचिव यशपाल कपूर पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय में आरोप लगे थे। यहां तक कि एक समय आर के धवन को भी इंदिरा गांधी के साथ विश्वासघात के आरोपों से घेरा गया था। लेकिन वह भी इतिहास में दर्ज है कि यशपाल कपूर या आर के धवन ने आखिर साँस तक अपने उपर विश्वासघात का लांछन लगने नहीं दिया। लेकिन आरसीपी ने जो किया उसके लिए भारतीय इतिहास में सार्वकालिक अनेकों कुख्यात विश्वासघातियों को याद किया जा सकता है। 

यह भी सही है कि दोनों ने एक दूसरे का उपयोग किया। पर आरसीपी सिंह को अब लग रहा होगा कि वे शिखर पर पहुंच चुके हैं अब नीतिश से उन्हें कोई और उम्मीद नहीं है। आरसीपी पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद अब भाजपा की शरण में जाना उनकी मजबूरी है। नीतिश और भाजपा के संबंध अपनी जगह। इसी के मद्देनजर वे अब और आगे जाने के लिए भी भाजपा के करीब जाना चाहते होंगे। हो सकता है आरसीपी का लक्ष्य हासिल न हुआ हो और आगे बढ़ने के लिए नीतिश के साथ रहना उन्हें बाधा लग रही हो। नीतिश कुमार ने लालू और पिछली बार तेजस्वी के मामले में जो किया उसके आलोक में यह उनके कर्मों का फल ही है। वैसे देश की राजनीति में आरसीपी सिंह का कद ऐसा नहीं है कि दिल्ली में बैठकर उनकी चर्चा भी की जाए।

उधर नीतीश कुमार के दो दशकों के राजनीतिक इतिहास का विश्लेषण किया जाएगा तो उसकी भी आलोचनात्मक समीक्षा हो सकती है। बहुत से राजनीतिक समीक्षक उन्हें विकट परिस्थितियों के हवाले से बरी भी कर सकते हैं। लेकिन आरसीपी के विश्वासघात प्रकरण ने नीतीश के लिए जो सहानुभूति उपजाई है वह उन्हें अचानक भारी लाभ पहुंचा सकता है। खासतौर पर आने वाले डेढ दो साल में देश की राजनीति जिस तरह की करवट लेती दिख रही है उस लिहाज से बिहार के इस राजनीतिक कांड ने उथल पुथल मचा दी है। बेशक  निराशाजनक राजनीतिक माहौल में बदलाव की गुंजाइश पैदा हुई है। अगर नीतीश कुमार समय पर नहीं चेतते और मप्र कर्नाटक महाराष्ट और पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों की सरकारों की तरह गच्चा खा सकते थे। इस आधार पर कहा जा सकता है कि आरसीपी के विश्वासघात से सबक लेते हुए नीतीश कुमार ने सही समय पर फैसला कर लिया और इस निराशाजनक धारणा को गलत साबित कर दिया है कि आयाराम गयाराम की राजनीति से बचने का कोई उपाय नहीं है।

बहरहाल हद से ज्यादा मुश्किल दौर से गुज़र रही राजनीति में जहां देश का सभ्य समाज तटस्थ हो जाने में ही भलाई समझ रहा है वहां मुझे खुलकर यह कहने में बिल्कुल भी संकोच नहीं है कि नीतीश और आरसीपी प्रकरण में मैं नीतीश के पक्ष में खड़ा हूं।

Monday, January 31, 2022

बेरोज़गार युवा और सरकारी तंत्र


पिछले दिनों बिहार और उत्तर प्रदेश में युवकों द्वारा रेलवे भर्ती बोर्ड की नॉन टेक्निकल पॉपुलर कैटेगरी (आरआरबी-एनटीपीसी) परीक्षा प्रक्रिया में कथित अनियमितताओं को लेकर उग्र प्रदर्शन हुए। सरकार ने छात्रों द्वारा रेल रोकने से लेकर रेल में आग लगाने जैसे प्रदर्शन की न सिर्फ़ निंदा की है बल्कि छात्रों पर बर्बरता से लाठियाँ भी चलाई। सोशल मीडिया पर इस लाठी चार्ज के विडीयो भी खूब वाइरल हुए। इस बवाल के बाद से विपक्ष इस मामले को लेकर एकजुट होता दिखाई दिया और न सिर्फ़ छात्रों के समर्थन में उतरा बल्कि केंद्र पर जमकर हमला भी बोला।
 


इसी दौरान बिहार के एक छात्र ने एक चैनल को दिए इंटरव्यू में कुछ बुनियादी सवाल उठाए हैं। चुनावों के मौसम में इन सवालों से केंद्र सरकार को काफ़ी दिक्कत आ सकती है। आज के दौर में अगर ‘मेनस्ट्रीम मीडिया’ किन्ही कारणों से ऐसे सवालों को जनता तक नहीं पहुँचती है तो इसका मतलब यह नहीं है कि जनता तक वह सवाल पहुँच नहीं पाएँगे। सोशल मीडिया पर यह इंटरव्यू काफ़ी देखा जा रहा है।       



इस विडियो में छात्र द्वारा रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव के एक बयान का ज़िक्र है जहां वो कहते हैं कि 1.27 करोड़ छात्रों ने भर्ती के लिए आवेदन दिए हैं तो परीक्षा कैसे हो सकती है? इस बयान पर सवाल उठाते हुए छात्रों ने पूछा कि, आप ने कहा है कि पिछली सरकारों के मुक़ाबले आपके शासन काल में ज़्यादा फ़ॉर्म भरे गये यानी कि आपकी नीतियों के चलते बेरोज़गारी बढ़ी है। इंटरव्यू के दौरान छात्र ने एक ऐसी बात कह दी जो सभी युवकों को छू गई। उस छात्र ने कहा कि, परीक्षा की तैयारी के दिनों में कभी-कभी ऐस भी हुआ जब घर से पैसा समय पे नहीं आता था तो हम लोग गर्म पानी पी कर सो जाते थे। अगर छात्र इतनी कठिन परिस्थितियों में रह कर नौकरी पाने की उम्मीद में परीक्षा की तैयारी कर रहे थे, और जब परीक्षा में धांधली की खबर मिलती है तो छात्र क्या करें? कैसे अपने ग़ुस्से को रोकें? सरकार को क्यों न कोसें? 


छात्रों के उग्र होने के सवाल पर छात्रों ने यह बताया कि 14 जनवरी को आए नतीजों का 10 दिनों तक विभिन्न डिजिटल माध्यमों से लगभग एक करोड़ बार विरोध किया गया। जब सरकार के पास कोई जवाब नहीं बचा तो डिजिटल विरोध के ‘हैश-टैग’ को बैन कर दिया गया। इसके बाद छात्र सड़कों पर उतरे और निहत्थे छात्रों पर सरकारी तंत्र ने लाठियाँ भांजी। किसान आंदोलन के बाद सरकार को सोचना चाहिए कि छात्रों की माँग को देखते हुए उनके प्रतिनिधि से बात कर कोई हाल ज़रूर निकाल सकता था। अगर युवाओं को सरकारी नौकरी मिलने की भी उम्मीद नहीं होगी तो हार कर उन्हें निजी क्षेत्र में जाना पड़ेगा और निजी क्षेत्र की मनमानी का सामना करना पड़ेगा। 


उल्लेखनीय है कि दक्षिण एशिया के देशों में अनौपचारिक रोज़गार के मामले में भारत सबसे ऊपर है। जिसका मतलब हुआ कि हमारे देश में करोड़ों मज़दूर कम मज़दूरी पर, बेहद मुश्किल हालातों में काम करने पर मजबूर हैं, जहां इन्हें अपने बुनियादी हक़ भी प्राप्त नहीं हैं। इन्हें नौकरी देने वाले जब चाहे रखें, जब चाहें निकाल दें। क्योंकि इनका ट्रेड यूनीयनों में भी कोई प्रतिनिधित्व नहीं होता। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के अनुसार भारत में 53.5 करोड़ मज़दूरों में से 39.8 करोड़ मज़दूर अत्यंत दयनीय अवस्था में काम करते हैं। जिनकी दैनिक आमदनी 200 रुपय से भी कम होती है। इसलिए मोदी सरकार के सामने दो बड़ी चुनौतियाँ हैं। पहली; शहरों में रोज़गार के अवसर कैसे बढ़ाए जाएं? क्योंकि पिछले 7 वर्षों में बेरोज़गारी का फ़ीसदी लगातार बढ़ता गया है। दूसरा; शहरी मज़दूरों की आमदनी कैसे बढ़ाएँ, जिससे उन्हें अमानवीय स्थित से बाहर निकाला जा सके।


इसके लिए तीन काम करने होंगे। भारत में शहरीकरण का विस्तार देखते हुए, शहरी रोज़गार बढ़ाने के लिए स्थानीय सरकारों के साथ समन्वय करके नीतियाँ बनानी होंगी। इससे यह लाभ भी होगा कि शहरीकरण से जो बेतरतीब विकास और गंदी बस्तियों का सृजन होता है उसको रोका जा सकेगा। इसके लिए स्थानीय शासन को अधिक संसाधन देने होंगे। दूसरा; स्थानीय स्तर पर रोज़गार सृजन वाली विकासात्मक नीतियाँ लागू करनी होंगी। तीसरा; शहरी मूलभूत ढाँचे पर ध्यान देना होगा जिससे स्थानीय अर्थव्यवस्था भी सुधरे। चौथा; देखा यह गया है, कि विकास के लिए आवंटित धन का लाभ शहरी मज़दूरों तक कभी नहीं पहुँच पाता और ऊपर के लोगों में अटक कर रह जाता है। इसलिए नगर पालिकाओं में विकास के नाम पर ख़रीदी जा रही भारी मशीनों की जगह अगर मानव श्रम आधारित शहरीकरण को प्रोत्साहित किया जाएगा तो शहरों में रोज़गार बढ़ेगा। पाँचवाँ; शहरी रोज़गार योजनाओं को स्वास्थ्य और सफ़ाई जैसे क्षेत्र में तेज़ी से विकास करके बढ़ाया जा सकता है। क्योंकि हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था की आज यह हालत नहीं है कि वो प्रवासी मज़दूरों को रोज़गार दे सके। अगर होती तो वे गाँव छोड़ कर शहर नहीं गए होते। 


मौजूदा हालात में यह सोचना कि पढ़े-लिखे युवाओं के लिए एक ऐसी योजना लानी पड़ेगी जिससे इनको भी रोज़गार मिल जाए। पर ऐसा करने से करोड़ों बेरोज़गारों का एक छोटा सा अंश ही संभल पाएगा। जबकि बेरोज़गारों में ज़्यादा तादाद उन नौजवानों की है जो आज देश में बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ लेकर भी बेरोज़गार हैं। उनका आक्रोश इतना बढ़ चुका है और सरकारी तंत्र द्वारा नौकरी के बजाए लाठियों ने आग में घी का काम किया है। कुछ वर्ष पहले सोशल मीडिया पर एक व्यापक अभियान चला कर देश के बेरोज़गार नौजवानों ने प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिवस को ही ‘बेरोज़गारी दिवस’ के रूप में मनाया था। उस समय इसी कॉलम में मैंने कहा था कि ये एक ख़तरनाक शुरुआत है जिसे केवल वायदों से नहीं, बल्कि बड़ी संख्या में शिक्षित रोज़गार उपलब्ध कराकर ही रोका जा सकता है। मोदी जी ने 2014 के अपने चुनावी अभियान के दौरान प्रतिवर्ष 2 करोड़ नए रोज़गार सृजन का अपना वायदा अगर निभाया होता तो आज ये हालात पैदा न होते जिसमें देश के रेल मंत्री को ही यह मानना पड़ा की पिछली सरकार के मुक़ाबले इस सरकार में ज़्यादा फ़ॉर्म भरे गए। इसका सीधा सा मतलब यह है कि पिछली सरकारों के मुक़ाबले बेरोज़गारी काफ़ी बढ़ी है। 

Monday, November 23, 2015

महागठबंधन और राजग को युवाओं की चुनौती

 संसद सत्र शुरू होने वाला है। पक्ष और विपक्ष खम ठोकने को तैयार है। खूब शोर मचेगा, कोई काम नहीं होगा और टीवी चैनल चोंचे लड़वाएंगे। पर राष्ट्र की सबसे गंभीर समस्या पर कोई ध्यान नहीं देगा। चैंकाने वाला आंकड़ा है कि 2020 तक भारत में 21 करोड़ युवा बेरोजगार होंगे। क्या किसी दल के नेता को इस बात की चिंता है कि देश की इतनी बड़ी युवा शक्ति हताशा और संताप में जी रही है। सर्वेक्षण से यह पता चला है कि उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में अपराधियों में अच्छी खासी तादाद ग्रेजुएट युवाओं की है। अभी तो दुनिया आईएसआईएस के आतंक से जूझ रही है। भारत पहले ही पंजाब, असम, नक्सलवाद जैसे अनेक हिंसक युवा आंदोलनों को झेल चुका है। भविष्य में ये 21 करोड़ नौजवान अगर हथियार उठा लें तो क्या हमारे हुक्मरान, उद्योगपति, व्यापारी और हम जैसे मध्यमवर्गीय लोग चैन और सुरक्षा से जी पाएंगे ?

 मेक इन इंडिया की बात हो या महागठबंधन के नेताओं का दलित शोषित समाज को लेकर किए जाने वाला प्रलाप हो - कोई भी युवाओं की बेरोजगारी के प्रश्न का हल नहीं दे रहा है, न हल देने की तरफ सोच रहा है। हर चुनाव से पहले इन युवाओं को महीने-दो महीने का रोजगार देकर इनसे प्रचार करवा लिया जाता है और शेष 5 वर्ष इन्हें नौकरी दिलाने का वायदा करके छलावे में रखा जाता है। अभी पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में चपरासी के पद के लिए 368 रिक्तियों के लिए 23 लाख आवेदन आए। जिनमें से अधिकतर युवा ग्रेजुएट, पोस्ट ग्रेजुएट, बी.टेक, एम.टेक एवं एमबीए थे। अगर इन सब युवाओं का साक्षात्कार भी लिया जाए, तो उसमें 4 वर्ष लग जाएंगे। जबकि चपरासी के पद की वांछित योग्यता 5वीं पास व साइकिल चलाना आता हो, यही थी। इसी तरह मध्य प्रदेश में चपरासी की 1333 रिक्तियों के लिए 4 लाख से अधिक बेरोजगारों ने परीक्षा दीं। जबकि इन पदों के लिए न्यूनतम योग्यता 8वीं पास थी, तो भी इस पद के लिए 62 हजार ग्रेजुएट, 15 हजार पोस्ट ग्रेजुएट और 1400 बी.टेक ने परीक्षा दी। यही हाल अन्य प्रांतों का भी है।

 देश के 527 शहरों के 5387 स्कूलों के शिक्षकों के माध्यम से उनके विद्यार्थियों की योग्यता का सर्वेक्षण करवाया गया, तो पता चला कि गुजरात के 62 फीसदी छात्र किसी भी नौकरी के योग्य नहीं है। उत्तर प्रदेश के 49 फीसदी छात्र किसी भी नौकरी के योग्य नहीं है। जबकि हरियाणा के 33 फीसदी छात्र इस श्रेणी में पाए गए। एक और दर्दनाक तथ्य यह है कि आज आत्महत्या करने वाले लोगों में 48 फीसदी युवा वर्ग के हैं, वे भी 18 से 30 आयु वर्ग के। युवा हताशा का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है ?

 कितने शर्म की बात है ? क्या हो गया है कि हमारे नेताओं और नीति निर्धारकों को ? लाखों किसान-मजदूरों ने अपना पेट काटकर अपने बच्चों को बड़ी उम्मीदों से ये डिग्रियां दिलवाई हैं। पर उसके बदले में उन्हें चपरासी तक की नौकरी नहीं मिल रही। ये कैसा विकास हो रहा है ? एक तरफ तो हम दावा करते हैं कि भारत तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था है और दूसरी तरफ हमारे बेरोजगार युवाओं की संख्या दिन दूनी और रात चैगुनी गति से बढ़ रही है। यह सब हुआ है हमारे गलत आर्थिक नीतियों के कारण। आजादी के बाद महात्मा गांधी बार-बार ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ और आत्मनिर्भर बनाने की बात कहते थे। पर पं.जवाहरलाल नेहरू से लेकर आज तक हर प्रधानमंत्री ने तीव्र औद्योगिक विकास का लक्ष्य रखकर बेरोजगारों को रोजगार देने के झूठे सपने दिखाए हैं। न तो औद्योगिक विकास उस तेजी से हुआ, न उस विकास से इतने रोजगार का सृजन हुआ। अगर गांव की अर्थव्यवस्था अंग्रेजों के आने से पहले जैसी कर दी गई होती तो न तो देश में बेरोजगारी होती, न गरीबी और न गांवों से शहर को पलायन। गांधीजी की समाधि पर श्रद्धांजलि देने का नाटक करने वालों ने कभी उनके विचारों का सम्मान नहीं किया। अगर किया होता तो गांधीजी की आत्मा ज्यादा प्रसन्न होती।

 आज हर शहर की गंदी बस्तियों में नारकीय दशा में जो करोड़ों लोग कीड़े-मकोड़ों की जिंदगी जी रहे हैं, उन्होंने खुशी से अपना गांव नहीं छोड़ा। गांव की बदहाली ने उन्हें शहर आने पर मजबूर कर दिया। गांवों के पारंपरिक व्यवसायों को नष्ट करके, उनके बदले खड़े होने वाले बड़े उद्योगों से नए रोजगार का सृजन होता है दर्जनों में। जबकि गांवों में बेरोजगारी फैलती है हजारों में। इस तरह का औद्योगिक विकास भारत की बेरोजगारी और गरीबी को कभी दूर नहीं कर सकता, बल्कि और बढ़ाता जाएगा।

हमारे गांवों का एक-एक कुटीर उद्योग इतना सक्षम था कि आज भी करोड़ों नौजवानों को नौकरी दे सकता है। चाहे वो तेलघानी का काम हो या कपड़ा बनने का या खेती करने का या ग्रामीण जीवन से जुड़े अन्य पारंपरिक व्यवसायों का। इस तरह कड़ी नीति बनाकर अगर ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पुर्नस्थापित किया जाता तो किसान-मजदूर कर्जदार भी नहीं होते। आज तो वो हर तरह से बर्बाद हैं और उनकी बर्बादी दूर होने के कोई आसार नजर नहीं आते। चाहे सरकार किसी भी दल की क्यों न बन जाए।

 इतनी गंभीर समस्या है कि सोचकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। जरा अनुमान कीजिए कि आपके घर में पढ़ा-लिखा नौजवान बेटा सुबह से रात तक हर दिन, महीनों, सालों अगर बेरोजगार घूमता है, तो वह कितना विध्वंसक बन सकता है ? ऐसे युवा परिवार के लिए कितना  बड़ा बोझ हैं ? देश के लिए यह कितनी बड़ी शर्म की बात है ? पर हमारे हुक्मरानों को कोई चिंता नहीं। बेरोजगारी और गरीबी की बात करना तो अब मध्यमवर्गीय समाज में भी ‘आउट आॅफ फैशन’ हो गया है। ड्राइंग रूम और टीवी स्टूडियो में बड़ी-बड़ी लच्छेदार बाते करो, संसद में कुर्ते की बांहें चढ़ाकर लंबे-लंबे बयान दो, मगर करोड़ों किसान-मजदूरों और उनके नौजवान बेटे-बेटियों को दर-दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दो। वाह रे मेरे हिंदुस्तान, क्या खूब तरक्की कर रहा है तू ?

Monday, November 16, 2015

बिहार के परिणामों से भाजपा में टीस भरी खुशी क्यों ?

    पूर्वोत्तर राज्य के एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी, जो कि कट्टर हिंदूवादी विचारधारा के हैं, ने बिहार चुनाव परिणाम पर फोन करके खुशी जाहिर की। पर फिर फौरन ही फोन आया कि यह खुशी बहुत दुखभरी है। यही विरोधाभास सारी भाजपा में दिखाई दे रहा है। यूं तो लोकतंत्र में चुनावी हार-जीत सामान्य बात है। पर बिहार चुनाव में प्रधानमंत्री ने जितनी रूचि ली, उसके अनुरूप परिणाम न आने पर हिंदूवादियों का खुशी मनाना सोचने पर मजबूर करता है। इसके कारण में जाने की जरूरत है। दरअसल, नरेंद्र भाई मोदी ने पिछले कुछ वर्षों में अपने दमदार वक्तव्यों में इतनी उम्मीद जगा दी थी कि हर आदमी सोच बैठा कि लोकसभा का चुनाव जीतकर मोदी के हाथ में अल्लादीन का चिराग आ गया। जबकि हकीकत इसके काफी विपरीत है। प्रधानमंत्री चाहकर भी बहुत कुछ नहीं कर सकते। क्योंकि बहुमत न होने के कारण उनके हाथ राज्यसभा में बंधे हैं। वे कोई कड़ा कानून नहीं ला सकते। दूसरी ओर संघीय ढांचा होने के कारण जनहित के जितने भी कार्यक्रम या नीतियां बनती हैं, उनका क्रियान्वयन करना प्रांतीय सरकार की जिम्मेदारी होती है। ऐसे में जिन राज्यों में भाजपा की सरकार नहीं है, वहां मोदी कुछ भी नहीं कर सकते और न जबर्दस्ती करवा सकते। राज्य सरकारों की कमियों का ठीकरा प्रधानमंत्री पर फोड़ना उचित नहीं। पर इसका मतलब यह नहीं कि मोदी जो कुछ कर रहे हैं, वो ठीक है। उन्होंने देशभक्तों को अभी तक कोई ऐसा संकेत नहीं दिया, जिससे लगे कि भारत अपनी सनातन सांस्कृतिक विरासत के अनुरूप विकसित होने जा रहा है। इसके विपरीत मोदी के वक्तव्यों से यह संदेश गया है कि वे अमेरिका के विकास माॅडल से भारी प्रभावित हैं। जिसका आम जनता के मन में कोई सम्मान नहीं है। वे इस माॅडल को शोषक और समाज में असंतुलन पैदा करने वाला मानते हैं, इसलिए उन्हें मोदी से बड़े बदलाव की उम्मीद थी। जो उन्हें आज देखने को नहीं मिल रहा।

    उदाहरण के तौर पर पश्चिमी शिक्षा पद्धति के प्रभाव में हम जैसे करोड़ों विद्यार्थियों से बचपन में जीव विज्ञान की कक्षा में केंचुए और मेढ़क कटवाए गए। उद्देश्य था हमें डाक्टर बनाना। डाक्टर तो हममें से आधा फीसदी भी नहीं बने, पर इन वर्षों में देशभर के करोड़ों विद्यार्थियों ने इन निरीह प्राणियों की थोक में हत्याएं कीं। जबकि एक किसान जानता है कि ये जानवर उसकी भूमि को उपजाऊ और पोला बनाने में कितने सहायक होते हैं। इस तरह पश्चिमी शिक्षा माडल ने हमारे पर्यावरण के संतुलन को बिगाड़ने के ऐसे अनेकों काम किए, जिनका हमारे जीवन में कोई उपयोग नहीं। इसके बदले अगर हमें योग, ध्यान और आयुर्वेद सिखा देते, तो हम सबको आज स्वस्थ जीवन जीने की कला आ जाती।

    समस्या यह है कि ये बात इंदिरा गांधी के योगगुरू धीरेंद्र ब्रह्मचारी कहें, तो उसे सांप्रदायिकता नहीं कहा जाता। पर यही बात अगर बाबा रामदेव कहें, तो उनके भाजपा के प्रति झुकाव को देखकर उन्हें सांप्रदायिक करार दे दिया जाता है। सोचने वाली बात यह है कि योग, ध्यान और आयुर्वेद को आज पूरी दुनिया श्रद्धा से अपना रही है, तो भारत के आत्मघोषित धर्मनिरपेक्ष लोग इससे क्यों परहेज करते हैं ? दरअसल, भारत की सनातन संस्कृति में स्वास्थ्य, समाज, पर्यावरण, शिक्षा, नीति, शासन जैसे सवालों पर जितनी वैज्ञानिक और लाभप्रद जानकारी उपलब्ध है, उतनी दुनिया के किसी प्राचीन साहित्य में नहीं। पर हमारी संस्कृति हमारे ही देश में उपेक्षा का शिकार हो रही है। पहले एक हजार वर्ष आतताइयों ने इसे कुचला और फिर धर्मनिरपेक्षता के नाम पर इसका मजाक उड़ाया गया। आजादी के बाद की सरकारों ने भी इन सवालों पर देशज ज्ञान और परंपरा को महत्व नहीं दिया। नतीजतन भारत का तेजी से पश्चिमीकरण हुआ।

    नरेंद्र मोदी ने पहली बार अपने को देश के सामने एक सशक्त हिंदूनेता के रूप में प्रस्तुत किया और बावजूद इसके चुनाव जीत लिया। इसलिए राष्ट्रवादियों और धर्मप्रेमियों को ऐसा लगने लगा था कि अब मोदी के कुशल और मजबूत नेतृत्व में देश की बड़ी समस्याओं के स्थाई समाधान निकलेंगे। जिसके लिए जरूरत थी विस्तृत कार्य योजना की। मोदीजी ने स्वच्छता अभियान जैसी कई दर्जन घोषणाएं तो कर दीं, पर वो कैसे पूरी होंगी, इस पर कुछ सोचा नहीं जा रहा है।

    जरूरत इस बात की है कि पूरे भारत के विद्वान एक साथ बैठकर इन सभी सवालों पर और इनसे जुड़ी समस्याओं पर गंभीरता से मंथन करें। शोध करें और समाधान प्रस्तुत करें। ऐसे समाधान जो सुलभ हों, निर्धन के लिए उन्हें पाना मुश्किल न हो। इस तरह राष्ट्र की हर महत्वपूर्ण नीति की सार्थकता और समाज के लिए उपयोगिता पर कुछेक बड़ी बैठकें या कार्यशालाएं होनी चाहिए। जहां इन सवालों पर विभिन्न पृष्ठभूमि के विद्वान व्यापक चिंतन और बहस करें और ठोस समाधान प्रस्तुत करें। इससे दो लाभ होंगे। एक तो प्रधानमंत्री मोदी को अपने नारों के समर्थन में ठोस सुझाव मिल जाएंगे और दूसरा जो तमाम लोग देशभर में इस उम्मीद में बैठे हैं कि राष्ट्र निर्माण में उनकी भी भागीदारी हो, उन्हें रचनात्मक काम मिल जाएगा। उन्हें राष्ट्र की मुख्यधारा से मिलकर चलने का मौका मिलेगा। इससे विरोध भी शांत होगा और मोदीजी को कुछ कर दिखाने का मौका मिलेगा। वरना तो बिहार के नतीजों से बमबम हुए लालू यादव लालटेन लेकर मोदीजी का मखौल उड़ाने का कोई मौका नहीं छोड़ेंगे। 

Monday, July 29, 2013

देश में क्यों हो रही हैं इधर-उधर की बातें ?

टी.वी. चैनल हों या राजनैतिक बयानबाजी ऐसा लगता है कि देश में मुद्दों का अभाव हो गया है। जिधर देखो उधर इधर-उधर की बातें की जा रही हैं। दर्शक, श्रोता और पाठक हैरान हैं कि इन बातों से उसकी रोजमर्रा की जिन्दगी का क्या ताल्लुक ? ये किसकी बातें हो रही हैं ? किसके लिये हो रही हैं ? इनसे किसे लाभ हो रहा है? अगर आम जनता को नही तो ये बातें क्यों हो रही हैं ? या तो इन मुद्दों का चयन असली मुद्दों से ध्यान हटाने के लिये किया जा रहा है या मुद्दों का चयन करने वालों को सूझ ही नहीं रहा कि किन मुद्दों का उठायें।

गरीब आदमी का खाना 5 रुपये में होता है, 12 रुपये में या 20 रुपये में। जब देश के अर्थशास्त्रियों ने अपने सर्वेक्षणों और अध्ययनों से बार-बार यह सिद्ध कर दिया है कि देश के 70 प्रतिशत आदमी की रोजाना आमनदनी औसतन 20 रु. प्रति व्यक्ति प्रतिदिन से ज्यादा नहीं है। तो सोचने वाली बात यह है कि वो एक बार में कितना रुपया अपने भोजन पर खर्च करने की हालत में होगा। जो लोग दिल्ली, मुम्बई और कलकत्ता के बाजारों में जाकर खाने की थाली के दाम पूछकर इन बयानों का मजाक उड़ा रहे हैं, लगता है उन्होंने देश के देहाती इलाकों में जाकर असली आम आदमी की हालत का जायजा ही नहीं लिया। अगर लिया होता तो वे ये समझ पाते कि देश का 70 प्रतिशत गरीब आदमी एक वक्त में 5 रु. - 7 रु. से ज्यादा अपने भोजन पर खर्च नहीं कर पाता।

इसी तरह यह देखकर सिर धुनने को मन करता है कि चुनाव का अभी कोई अता-पता नहीं, पर चुनावी परिणामों पर बहसें चालू हो चुकी हैं। चुनाव छः महिने में होंगे या साल भर में इसकी कोई गारण्टी नहीं। राजनैतिक दलों ने न तो अपने घोषणा पत्र जारी किये हैं, न ही उम्मीदवारों की सूची। न देश में कोई हवा बनी है और न ही आम जनता को अभी से चुनाव के बारे में सोचने की फुरसत है। ऐसे में बहसें की जा रही हैं कि सरकार किसकी बनेगी। इससे ज्यादा बे-सिर पैर का मुद्दा बहस के लिये क्या हो सकता है ? ऐसे विषयों का चुनाव करने वालों को तो छोड़ें, पर इन विशेषज्ञों को क्या हो गया जो आकर इन मुद्दों पर अपनी टिप्पणियाँ दर्ज करा रहे हैं? ‘सूत न कपास, जुलाहों में लट्ठम-लट्ठा’।

लगे हाथ अब बटला हाउस काण्ड को भी परख लें। जब सब कुछ तय हो चुका था। केवल अदालत का फैसला आना बाकी था। तो फिर इस काण्ड की शुरू से आखिर तक की कहानी दोहराने से क्या मकसद हासिल हो रहा था। पर ये कहानी दोहराई गई। एक-दो बार नहीं बल्कि बीसियों बार। जबकि अदालत का फैसला वही आया जो पुलिस के रिकॉर्ड में तथ्य दर्ज किये गये थे। फिर इस कहानी को बार-बार पेश करके क्या बताने की कोशिश की गई? अगर चर्चा ही करनी थी तो इस काण्ड के आरोपियों को मिलने वाली सजा और उसके कानूनी पेचों पर चर्चा की जा सकती थी। जैसी पिछले दिनों कसाब और अफजल गुरू की फांसी के दौरान चर्चायें की गईं। उससे इस तरह के अपराधों के कानूनी, सामाजिक और नैतिक पक्ष को समझने में दर्शकों और पाठकों को मदद मिलती।

पिछले दिनों बिहार में ‘मिड-डे मील’ में 23 बच्चों की मौत को लेकर एक बड़ा मुद्दा बना। बनना भी चाहिये था, आखिर गरीब के बच्चे जहरीला खाना खाने के लिये तो स्कूल भेजे नहीं जाते। अगर बिहार सरकार ने लापरवाही की तो उसे मीडिया में उछालना बिल्कुल वाज़िब बात थी। पर बात बिहार तक ही सीमित नहीं है। जब हमारा संवाददाता कैमरा या कलम लेकर देश के अलग-अलग प्रान्तों में मिड-डे मील कार्यक्रम की पड़ताल करने निकलता है, तो वह पाता है कि कमोबेश यही हाल पूरे देश के हर प्रान्त के मिड-डे मील का है। यानी बिहार को अकेला कठघरे में खड़ा नहीं किया जा सकता। जैसे ही इस बात का अंदाजा लगा, यह गम्भीर मुद्दा बहसों से गायब हो गया, क्यों? क्या इस मुद्दे पर बाकी प्रदेशों में गहरी पड़ताल कर शोर मचाने की जरूरत नहीं है?

बीच-बीच में कुछ मुद्दे बाढ़, भू-स्खलन व जमीन ध्ंसने जैसी प्रकृतिक आपदाओं के आते ही रहते हैं। उत्तराखण्ड की विपदा सामान्य आपदा से ज्यादा प्रलय जैसी घटना थी। इसलिये मीडिया को सक्रिय भी होना पड़ा और महीने भर तक उसका कवरेज भी करना पड़ा। क्योंकि इस प्रलय से देश के हर हिस्से का परिवार जुड़ा था और यह विजुअल्स की दृष्टि से दिल दहलाने वाला कवरेज था। जब यह मुद्दा उठा तो जाहिर है कि आपदा प्रबन्धन, प्रशासनिक अकुशलता व विनाशोन्मुख विकास के माॅडल पर चर्चा की जाती। की भी गई। पर इतनी बड़ी आपदा के बाद भी इस गम्भीर सवाल को हमारा मीडिया लम्बे समय तक टिकाये नहीं रख सका। इतना कि देश में इस पूरे प्रबंधन हीनता के खिलाफ एक माहौल बनता और देश भर से दबाव समूह सक्रिय होते, तो बदलाव की दिशा भी दिखने लगती। लगता है नये-नये मुद्दे तलाशने की हुलहुलाहट में हमने एक बड़ा मौका खो दिया।