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Monday, October 27, 2025

बिहार चुनाव: एक नया मोड़ या वही राह?

बिहार की राजनीति हमेशा से प्रयोगों, व्यक्तित्वों और गठबंधनों की धरती रही है। यहाँ सत्ता तक पहुँचने का रास्ता सिर्फ वोटों से नहीं, बल्कि समाजिक समीकरणों, जातीय गणित और जनभावनाओं से होकर गुजरता है। अब जब 2025 के विधानसभा चुनावों की दस्तक हो चुकी है, पूरा देश बिहार की ओर देख रहा है। यह चुनाव न केवल राज्य की राजनीति को बल्कि राष्ट्रीय समीकरणों को भी प्रभावित करने की क्षमता रखता है। 

इस बार मुकाबला दिलचस्प और चुनौतीपूर्ण इसलिए है क्योंकि मैदान में तीन धाराएँ साफ तौर पर दिखाई दे रही हैं। ‘इंडिया’ गठबंधन, जिसमें मुख्य भूमिका में राष्ट्रीय जनता दल (राजद) है। एनडीए, जिसमें जनता दल (यू) के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार फिर एक बार केंद्र में हैं। वहीं, तेजी से उभरती शक्ति के रूप में प्रशांत किशोर का ‘जन सुराज अभियान’।


राजद की अगुवाई वाला ‘इंडिया’ गठबंधन इस चुनाव को अपनी साख बचाने के साथ-साथ केंद्र की राजनीति पर असर डालने के अवसर के रूप में देख रहा है। तेजस्वी यादव पिछले कुछ वर्षों में अपनी राजनीतिक परिपक्वता दिखाने की कोशिश कर रहे हैं, चाहे वह बेरोजगारी का मुद्दा हो, युवाओं से संवाद हो या नीतीश सरकार की नीतियों की कड़ी आलोचना। 


राजद के पास एक ठोस सामाजिक आधार है, लेकिन उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती विश्वसनीयता की है। भ्रष्टाचार के पुराने मामलों और शासन की यादें आज भी मतदाताओं के दिमाग में ताजा हैं। कांग्रेस, वामदलों और अन्य सहयोगियों के बीच सीट बँटवारे को लेकर संभावित खींचतान भी गठबंधन की मजबूती पर सवाल उठाती है।फिर भी, तेजस्वी का युवा जोश और उनके प्रचार की डिजिटल समझबूझ उन्हें पहले से अलग बनाती है। ‘इंडिया’ गठबंधन यह भलीभाँति जानता है कि अगर बिहार में उसकी पकड़ मजबूत होती है, तो यह 2029 के लोकसभा समीकरणों में एक नई ऊर्जा भर सकता है।

एनडीए का चेहरा इस बार भी नीतीश कुमार ही हैं, जिनका राजनीतिक अनुभव किसी परिचय का मोहताज नहीं। वे सात बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुके हैं, लेकिन अब जनता उनसे बदलाव की बजाय जवाब चाहती है। उनकी सबसे बड़ी ताकत रही है साफ़ छवि और साझा सामाजिक आधार। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि पिछले कुछ सालों में उनके राजनीतिक पलटवारों, कभी महागठबंधन में, कभी एनडीए में आने-जाने ने उनकी विश्वसनीयता को काफ़ी कमजोर किया है।


भाजपा, जो एनडीए की दूसरी बड़ी ताकत है, नीतीश के साथ रहते हुए भी अपने संगठन को बढ़ाने की कोशिश कर रही है। उसे यह अंदाज़ा है कि बिहार में अगर उसे भविष्य में स्वतंत्र रूप से मज़बूत होना है, तो नीतीश के बाद का दौर भी ध्यान में रखना होगा। यही कारण है कि भाजपा अब स्थानीय नेताओं को उभारने और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के सहारे मैदान को अपने पक्ष में करने की योजना पर काम कर रही है।

एनडीए का सबसे बड़ा फायदा यह है कि उसके पास वोटों का एक स्थिर कोर आधार है और शासन की निरंतरता की छवि बनी हुई है। लेकिन एंटी-इनकम्बेंसी, बेरोजगारी और ग्रामीण ढाँचों में ठहराव जैसे मुद्दे उनके लिए सिरदर्द बन सकते हैं।

बिहार के इस राजनीतिक त्रिकोण में सबसे दिलचस्प और नया पैदा हुआ  कारक हैं प्रशांत किशोर (पीके)। उन्होंने रणनीतिकार से जननेता बनने की जो यात्रा शुरू की, वह अब निर्णायक दौर में पहुँची है। उनका जन सुराज अभियान पिछले दो वर्षों से गाँव-गाँव में सक्रिय रहा है। वे न तो स्वयं को किसी पारंपरिक पार्टी की तरह प्रस्तुत कर रहे हैं और न किसी गठबंधन का हिस्सा हैं। उनका संदेश सीधा है — "सिस्टम को बदलने के लिए राजनीति में साफ और नई सोच लानी होगी।" प्रशांत किशोर का यह प्रयोग बिहार की राजनीति की जमीनी सच्चाई को चुनौती देता है। वे युवाओं और शिक्षित तबके में धीरे-धीरे एक विकल्प के रूप में उभर रहे हैं।

हालाँकि यह कहना जल्दबाजी होगी कि वे बड़े पैमाने पर सीटें जीतेंगे, लेकिन उनका प्रभाव दो स्तरों पर होगा। वोट कटवा असर: कई क्षेत्रों में वे परंपरागत दलों का समीकरण बिगाड़ सकते हैं। विचारधारात्मक बदलाव: उनकी राजनीति भ्रष्टाचार विरोधी और विकास-केंद्रित विमर्श को चुनावी बहस के केंद्र में ला रही है। अगर उनका अभियान थोड़ा भी जनसमर्थन जुटाने में सफल रहता है, तो यह बिहार में तीसरी शक्ति के उदय की भूमिका लिख सकता है। 

गौरतलब है कि बिहार की राजनीति बिना जातीय समीकरणों के समझी ही नहीं जा सकती। यादव, कुशवाहा, भूमिहार, राजपूत और मुसलमानों के बीच सामंजस्य और टकराव हमेशा परिणामों को प्रभावित करते हैं। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में एक नया सामाजिक तबका, युवा और प्रवासी मजदूर वर्ग, निर्णायक बनकर उभर रहा है।

प्रशासन, कृषि संकट, रोजगार और शिक्षा की स्थिति इस बार मुख्य मुद्दे होंगे। डिजिटल मीडिया और सोशल प्लेटफॉर्मों के उदय ने इस बार चुनावी प्रचार के तरीके को भी बदल दिया है। अब गाँवों तक व्हाट्सऐप समूह और सोशल अभियानों के माध्यम से राजनीतिक विमर्श पहुँच रहा है और यहाँ पर प्रशांत किशोर जैसे नेताओं की रणनीतिक क्षमता का उन्हें फायदा हो सकता है।

इस चुनाव की सबसे बड़ी बहस विकास बनाम विश्वसनीयता की होगी। नीतीश कुमार कहेंगे कि उन्होंने राज्य को बुनियादी ढाँचे और शासन में सुधार दिया, जबकि विरोधी पक्ष यह पूछेगा कि इतने वर्षों में युवाओं के लिए अवसर क्यों नहीं बढ़े। तेजस्वी यादव रोजगार और सामाजिक न्याय का नारा देंगे; भाजपा मोदी के नाम और केंद्रीय योजनाओं की बदौलत वोट जुटाने की कोशिश करेगी और प्रशांत किशोर नई राजनीति की बात करेंगे। नतीजतन, यह चुनाव किसी एक मुद्दे या व्यक्ति पर निर्भर नहीं रहेगा — बल्कि यह आस्था, असंतोष और आकांक्षा के मिश्रण से तय होगा।

बिहार के 2025 के चुनाव इसलिए रोचक हैं क्योंकि तीन पीढ़ियाँ और तीन दृष्टिकोण आमने-सामने हैं। नीतीश कुमार, जिनकी राजनीति स्थिरता और अनुभवी शासन का प्रतीक है। तेजस्वी यादव, जो परिवर्तन और युवा आकांक्षाओं के वाहक हैं। प्रशांत किशोर, जो मौजूदा राजनीति को बदलने की चुनौती दे रहे हैं। यह चुनाव यह तय करेगा कि बिहार पुरानी राजनीति की सीमाओं में रहेगा या सोच के नए अध्याय की ओर कदम बढ़ाएगा। चाहे परिणाम कुछ भी हो, इतना तो तय है कि इस बार बिहार का जनादेश केवल सरकार नहीं, बल्कि देश की  राजनीति की दिशा भी तय करेगा। 

Monday, August 15, 2022

आरसीपी सिंह की असलियत


राजनीति के मौजूदा दौर में अनैतिकता का सवाल अपना महत्व खोता जा रहा है। इसकी बिल्कुल नई मिसाल बिहार में आरसीपी सिंह की राजनीति है। इस बात का जिक्र करना जरूरी है कि आरसीपी एक नौकरशाह रहे हैं। भारतीय लोकतंत्र के चारों स्तंभों के अपने अपने दायरे हैं। इस लिहाज से यह जरूर देखा जाना चाहिए कि नौकरशाह रहे आरसीपी क्या क्या करते रहे हैं और आखिर राजनीति की बिसात पर एक मोहरे के तौर पर बिहार में उन्होंने क्या कर डालने की कोशिश की और आखिरकार उसकी क्या परिणति हुई।

वैसे देश की मौजूदा राजनीति में नैतिकता को बेकार की चीज़ साबित किया जाने लगा है। लेकिन देश की राजनीति अगर पूरी तौर पर गर्त में नहीं जा पाई है तो इसका एक कारण यह ही माना जाता है कि भारतीय लोकतंत्र के 75 साल के इतिहास में न्यूनतम नैतिकता ने ही उसे बचाए रखा है। इसीलिए सभ्य राजनीतिक समाज में नैतिकता की बात करने वालों का अभी लोप नहीं हुआ है। देश में बहुतेरे लोग अभी भी हैं जो किसी भी कीमत पर हासिल की गई सफलता को जायज़ नहीं ठहराते। इसीलिए आरसीपी बनाम नीतीश कुमार प्रकरण में हर सभ्य नागरिक को तय करना पड़ेगा कि वह किसके पक्ष में खड़ा है। सभ्य समाज को सर्वमान्य लोकतंत्र के पक्ष में उसे  साक्ष्यों के साथ अपने तर्क देने पड़ेंगे। एक जिम्मेदार नागरिक की हैसियत से मेरी भी यह ज़िम्मेदारी है।


आरसीपी सिंह मेरे जेएनयू में सहपाठी रहे हैं। उस नाते वे निरतंर मेरे संपर्क में रहे। उत्तर प्रदेश काडर के आईएस आरसीपी को मैंने नीतीश के संपर्क में आते भी देखा है। जब नीतीश रेल मंत्री बने तो आरसीपी को उन्होंने अपना विशेष अधिकारी बनाया। ये बात यह समझने के लिए काफी है कि आरसीपी किस हद तक नीतीश के विश्वासपात्र रहे होंगे। यहां तक तो फिर भी साफ था लेकिन जब नीतीश बिहार के मुख्यमंत्री हुए तो उन्होंने आरसीपी का उत्तर प्रदेश कैडर बदलवाकर बिहार बुलवा लिया। आरसीपी की विश्वासपात्रता की हद बताने के लिए मेरे पास एक व्यक्तिगत अनुभव भी है। जो यह बताने के लिए काफी है कि आरसीपी और नीतीश के बीच पारिवारिक प्रगाढता किस हद तक रही।

आरसीपी का मेरे पास फोन आया नीतीश की पत्नी मंजू जी और उनके बेटे निशांत और मंजू जी की मां वृंदावन तीर्थाटन पर आना चाहती हैं। आरसीपी ने मुझसे उनके वृंदावन प्रवास पर अपने घर ठहराने का अनुरोध किया। क्योंकि आरसीपी सिंह सपरिवार मेरे घर ठहरते रहे थे। तो मैंने उनका अनुरोध सहर्ष स्वीकार कर लिया। मंजु जी के साथ बिताए तीन दिन अच्छे रहे। लेकिन इससे मुझे यह अंदाजा हो गया कि नौकरशाह रहे आरसीपी और नीतीश के बीच विश्वास और सम्बन्धों का स्तर क्या है। बाद में तो जब आरसीपी को नीतीश ने अपने दल का राष्टीय अध्यक्ष तक बना दिया तो दोनों के बीच संबंधों को लेकर कोई शंका ही नहीं रह गई। 

अब अगर आरसीपी ने नीतीश के साथ जो व्यवहार किया उसे कोई विश्वासघात की पराकाष्ठा कहे तो बिल्कुल भी अतिश्योक्ति नहीं होगी।


बात यहीं खत्म नहीं होती। एक लोक सेवक होते हुए आरसीपी से नीतीश के चुनाव सम्बन्धी राजनीतिक कार्य में जिस तरह की खुलेआम हिस्सेदारी की थी वह खुद में अवैध और परले दर्जे की अनैतिकता कही जानी चाहिए। यह उसी तरह का मामला था जैसा पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के लिए उनके सचिव यशपाल कपूर पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय में आरोप लगे थे। यहां तक कि एक समय आर के धवन को भी इंदिरा गांधी के साथ विश्वासघात के आरोपों से घेरा गया था। लेकिन वह भी इतिहास में दर्ज है कि यशपाल कपूर या आर के धवन ने आखिर साँस तक अपने उपर विश्वासघात का लांछन लगने नहीं दिया। लेकिन आरसीपी ने जो किया उसके लिए भारतीय इतिहास में सार्वकालिक अनेकों कुख्यात विश्वासघातियों को याद किया जा सकता है। 

यह भी सही है कि दोनों ने एक दूसरे का उपयोग किया। पर आरसीपी सिंह को अब लग रहा होगा कि वे शिखर पर पहुंच चुके हैं अब नीतिश से उन्हें कोई और उम्मीद नहीं है। आरसीपी पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद अब भाजपा की शरण में जाना उनकी मजबूरी है। नीतिश और भाजपा के संबंध अपनी जगह। इसी के मद्देनजर वे अब और आगे जाने के लिए भी भाजपा के करीब जाना चाहते होंगे। हो सकता है आरसीपी का लक्ष्य हासिल न हुआ हो और आगे बढ़ने के लिए नीतिश के साथ रहना उन्हें बाधा लग रही हो। नीतिश कुमार ने लालू और पिछली बार तेजस्वी के मामले में जो किया उसके आलोक में यह उनके कर्मों का फल ही है। वैसे देश की राजनीति में आरसीपी सिंह का कद ऐसा नहीं है कि दिल्ली में बैठकर उनकी चर्चा भी की जाए।

उधर नीतीश कुमार के दो दशकों के राजनीतिक इतिहास का विश्लेषण किया जाएगा तो उसकी भी आलोचनात्मक समीक्षा हो सकती है। बहुत से राजनीतिक समीक्षक उन्हें विकट परिस्थितियों के हवाले से बरी भी कर सकते हैं। लेकिन आरसीपी के विश्वासघात प्रकरण ने नीतीश के लिए जो सहानुभूति उपजाई है वह उन्हें अचानक भारी लाभ पहुंचा सकता है। खासतौर पर आने वाले डेढ दो साल में देश की राजनीति जिस तरह की करवट लेती दिख रही है उस लिहाज से बिहार के इस राजनीतिक कांड ने उथल पुथल मचा दी है। बेशक  निराशाजनक राजनीतिक माहौल में बदलाव की गुंजाइश पैदा हुई है। अगर नीतीश कुमार समय पर नहीं चेतते और मप्र कर्नाटक महाराष्ट और पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों की सरकारों की तरह गच्चा खा सकते थे। इस आधार पर कहा जा सकता है कि आरसीपी के विश्वासघात से सबक लेते हुए नीतीश कुमार ने सही समय पर फैसला कर लिया और इस निराशाजनक धारणा को गलत साबित कर दिया है कि आयाराम गयाराम की राजनीति से बचने का कोई उपाय नहीं है।

बहरहाल हद से ज्यादा मुश्किल दौर से गुज़र रही राजनीति में जहां देश का सभ्य समाज तटस्थ हो जाने में ही भलाई समझ रहा है वहां मुझे खुलकर यह कहने में बिल्कुल भी संकोच नहीं है कि नीतीश और आरसीपी प्रकरण में मैं नीतीश के पक्ष में खड़ा हूं।