Monday, July 29, 2024

लोक सभा अध्यक्ष विवादों में क्यों?

भारतीय लोकतंत्र की परंपरा काफ़ी सराहनीय रही है। लोक सभा भारत की जनता की सर्वोच्च प्रतिनिधि सभा है जहां देश के कोने-कोने से आम जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि अपने क्षेत्र, प्रांत व राष्ट्र के हित में समस्याओं पर विमर्श करते हैं। लोकतंत्र में सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच लगातार नोक-झोंक का चलना बहुत सामान्य व स्वाभाविक बात है। सत्तापक्ष अपनी छवि बढ़ा-चढ़ा कर पेश करता है तो विपक्ष उसे आईना दिखाने का काम करता है। इससे मुद्दों पर वस्तु स्थिति स्पष्ट होती है। इस नोक-झोंक का कोई बुरा नहीं मानता। क्योंकि आज जो सत्ता में हैं, कल तक वो विपक्ष में थे और तब वे भी यही करते थे जो आज विपक्ष कर रहा है। जो आज सत्ता में हैं कल वो विपक्ष में होंगे और फिर वे भी वही करेंगे। लेकिन इस नोक-झोंक की सार्थकता तभी है जब वक्ताओं द्वारा मर्यादा में रह कर अपनी बात रखी जाए। 



जब तक संसदीय कार्यवाही का टीवी पर प्रसारण नहीं होता था, तब तक देश की जनता को यह पता ही नहीं चलता था कि उनके चुने हुए प्रतिनिधि संसद में कैसा व्यवहार कर रहे हैं? उन्हें यह भी नहीं पता चलता था कि वे संसद में किन मुद्दों को उठा रहे हैं? अक्सर ऐसे मामले भी सामने आए हैं जब सांसदों ने आर्थिक लाभ की एवज़ में बड़े औद्योगिक घरानों के हित में सवाल पूछे। वरिष्ठ पत्रकार ए सूर्यप्रकाश ने तीस वर्ष पहले ऐसे लेखों की श्रृंखला छापी थी जिसमें सांसदों के ऐसे आचरण का खुलासा हुआ और देश ने पहली बार जाना कि ‘संसद में सवाल बिकते हैं’। पर जब से टीवी पर संसदीय कार्यवाही का प्रसारण होने लगा तब से आम देशवासियों को भी ये देखने को मिला कि हमारे सांसद सदन में कैसा व्यवहार करते हैं। बिना अतिशयोक्ति के ये कहा जा सकता है कि प्रायः कुछ सांसद जिस भाषा का प्रयोग आजकल करने लगे हैं उसने शालीनता की सारी सीमाएँ लांघ दी है। शोर-शराबा तो अब आम बात हो गई है। ऐसा नहीं है कि संसद में ये हुड़दंग केवल भारत में ही देखने को मिलता है। यूरोप सहित दुनिया के अनेक देशों से ऐसे वीडियो आते रहते हैं, जिनमें सांसद हाथापाई करने और एक दूसरे पर कुर्सियाँ और माइक फेंकने तक में संकोच नहीं करते। सोचिए इसका देश के बच्चों और युवा पीढ़ी पर क्या प्रभाव पड़ता होगा? 


सोचने वाली बात ये भी है कि संसद की कार्यवाही पर इस देश की ग़रीब जनता का अरबों रुपया ख़र्च होता है। एक आँकलन के अनुसार संसद चलने का प्रति मिनट खर्च ढाई लाख रुपये से थोड़ा अधिक आता है। इसका सदुपयोग तब हो जब गंभीर चर्चा करके जनता की समस्याओं के हल निकाले जाएँ। जिस तरह एक विद्यालय में शिक्षक कक्षा के सक्षम और योग्य छात्र को क्लास का मॉनिटर बना देते हैं, जिससे वो कक्षा में अनुशासन रख सके। उसी तरह लोक सभा के सांसद भी अपना मॉनिटर चुनते हैं जो लोक सभा की कार्यवाही का संचालन करता है। आजतक हमारी लोक सभा का यह इतिहास रहा है कि लोक सभा के अध्यक्षों ने यथा संभव निष्पक्षता से सदन की कार्यवाही का संचालन किया। उल्लेखनीय है कि 15वीं लोक सभा के तत्कालीन अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने अपने ही दल के विरुद्ध निर्णय दिये थे जिसका ख़ामियाजा भी उन्हें भुगतना पड़ा । उन्हें दल से निष्कासित कर दिया गया। पर उन्होंने अपने पद की मर्यादा से समझौता नहीं किया। लेकिन पिछले दस वर्षों से लोक सभा के वर्तमान अध्यक्ष ओम बिरला जी लगातार विवादों में रहे हैं। उन पर सत्तापक्ष के प्रति अनुचित झुकाव रखने का आरोप विपक्ष लगातार लगाता रहा है। 17वीं लोक सभा में तो हद ही हो गई जब सत्तापक्ष के एक सांसद ने विपक्ष के सांसद को सदन की कार्यवाही के बीच बहुत ही अपमानजनक गालियाँ दी। अध्यक्ष ने उनसे वैसा कड़ा व्यवहार नहीं किया जैसा वो लगातार विपक्ष के सांसदों के साथ करते आ रहे थे। तब तो और भी हद हो गई जब उन्होंने विपक्ष के 141 सांसदों को सदन से निष्कासित कर दिया। ऐसा आज़ाद भारत के इतिहास में पहली बार हुआ।



हाल ही में एक टीवी चर्चा में उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्य मंत्री व समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव से बातचीत करते हुए देश के नामी वकील, सांसद और पूर्व क़ानून मंत्री कपिल सिब्बल ने बताया कि, देश के संविधान के अनुच्छेद 105, संसद के सदस्यों को संसद में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होगी। परंतु क्या सांसदों को ऐसा करने दिया जाता है? जबकि इसी अनुच्छेद में या पूरे संविधान में यह कहीं नहीं लिखा है कि किसी भी सांसद का, संसद सदन में, अपनी बारी पर बोलते समय, माइक बंद किया जा सकता है। यह भी कहीं नहीं लिखा है कि किसी सांसद को बोलते समय, यदि वह नियम व मर्यादा के अनुसार बोल रहा हो तो उसे टोका जा सकता। इतना ही नहीं ये बात भी नहीं लिखी है कि यदि विपक्ष किसी मुद्दे पर सत्तापक्ष का विरोध करे तो उसे टीवी पर नहीं दिखा सकते। परंतु आजकल ऐसा होता है और यदि लोक सभा अध्यक्ष इस बात को नकार देते हैं कि वे किसी का माइक बंद नहीं करते तो फिर कोई तो है जो माइक को बंद करता है। यदि ऐसा है तो इसकी जाँच होनी चाहिए कि ऐसा कौन कर रहा है और किसके निर्देश पर कर रहा है?



इसके साथ ही एक और भी अजीब घटना हुई, अब तक परंपरा यह थी कि लोक सभा का अध्यक्ष सत्तापक्ष से चुना जाता था और उपाध्यक्ष विपक्ष से चुना जाते थे। इससे सदन में संतुलन बना रहता था। पर पिछली लोक सभा में इस परंपरा को तोड़ दिया गया और बिना उपाध्यक्ष के ही पिछली लोक सभा का कार्यकाल पूरा हो गया। 


18वीं लोक सभा की शुरुआत ही ऐसी हुई है कि नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी से लेकर अखिलेश यादव और अभिषेक बनर्जी तक अनेक दलों के सांसदों ने लोक सभा के वर्तमान अध्यक्ष ओम बिरला जी के प्रति पक्षपातपूर्ण रवैये का खुला आरोप ही नहीं लगाया, बल्कि अपने आरोपों के समर्थन में प्रमाण भी प्रस्तुत किए हैं। ये न सिर्फ़ लोक सभा अध्यक्ष के पद की गरिमा के प्रतिकूल है, बल्कि ओम बिरला जी के निजी सम्मान को भी कम करता है। ऐसे में आवश्यकता इस बात की है कि ओम बिरला जी मुंशी प्रेमचंद की कालजयी रचना ‘पंच परमेश्वर’ को गंभीरता से पढ़ें जो शायद उन्होंने अपने स्कूली शिक्षा के दौरान पढ़ी होगी। इस कहानी ये शिक्षा मिलती है कि न्यायाधीश की कुर्सी पर बैठे व्यक्ति को अपने सगे-संबंधियों का भी लिहाज़ नहीं करना चाहिए।लोकसभा की सार्थकता और अपने पद की गरिमा के अनुरूप ओम बिरला जी को किसी सांसद को ये कहने का मौक़ा नहीं देना चाहिये कि उनका व्यवहार पक्षपातपूर्ण है। 

Monday, July 22, 2024

आम आदमी की बजट से उम्मीद !


जहां एक तरफ़ केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण देश की आर्थिक प्रगति को लेकर लगातार अपनी पीठ थपथापती रही हैं, वहीं देश के बड़े अर्थशास्त्री, उद्योगपति और मध्यम वर्गीय व्यापारी वित्त मंत्री के बनाए पिछले बजटों से संतुष्ट नहीं हैं। अब नया बजट आने को है। पर जिन हालातों में एनडीए की सरकार आज काम कर रही है उनमें उससे किसी क्रांतिकारी बजट की आशा नहीं की जा सकती। नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू की लंबी चौड़ी वित्तीय माँगे, सत्तारूढ़ दल द्वारा आम जनता को आर्थिक सौग़ातें देने के वायदे और देश के विकास की ज़रूरत के बीच तालमेल बिठाना आसान नहीं होगा। वह भी तब जब भारत सरकार ने विदेशों से ऋण लेने की सारी सीमाएँ लांघ दी हैं। आज भारत पर 205 लाख करोड़ रुपए का विदेशी क़र्ज़ हैं। ऐसे में और कितना क़र्ज़ लिया जा सकता है? क्योंकि क़र्ज़ को चुकाने के लिए जनता पर अतिरिक्त करों का भार डालना पड़ता है। जिससे महंगाई बढ़ती है। जिसकी मार आम जनता पहले ही झेल रही है। 


दक्षिण भारत के मशहूर उद्योगपति, प्रधान मंत्री श्री मोदी के प्रशंसक और आर्थिक मामलों के जानकार डॉ मोहनदास पाइ ने देश की मौजूदा आर्थिक हालत पर तीखी टिप्पणी की है। देश की मध्यम वर्गीय आबादी में बढ़ते हुए रोष का हवाला देते हुए वे कहते हैं कि, पूरे देश में मध्यम वर्ग बहुत दुखी है क्योंकि वे अधिकांश करों का भुगतान कर रहे हैं। उन्हें कोई कर कटौती नहीं मिल रही है। मुद्रास्फीति अधिक है, लागत अधिक है, छात्रों की फीस बढ़ गई है व रहने की लागत बढ़ गई है। हालात में सुधार होने के बावजूद यातायात के कारण शहरों में जीवन की गुणवत्ता खराब बनी हुई है।वे करों की दर में कमी देखना चाहते हैं श्री पाइ उस टैक्स स्लैब नीति के पक्ष में नहीं हैं जो सरकार ने पिछले दो बजट में पेश की है। उनके अनुसार, आयकर संग्रह 20 से 22 प्रतिशत बढ़ रहा है, इसलिए देश के मध्यम वर्ग के लिए आयकर के कई नए स्लैब और केवल आवास निर्माण के लिए कारों में छूट देने की बजाय करों में कटौती करने की आवश्यकता है। 



मोहनदास पाइ का तर्क केवल देश के मध्यम वर्ग तक ही सीमित नहीं है, उन्होंने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि हमारी आबादी के निचले 50 प्रतिशत हिस्से की क्रय शक्ति बढ़ाने की आवश्यकता के साथ-साथ बुनियादी ढांचे के विकास जैसी चुनौतियों पर प्राथमिक ध्यान दिया जाए। इतना ही नहीं, वे मानते हैं कि रोज़गार क्षेत्र की वृद्धि को सुनिश्चित किया जाय।इसके लिये वे वर्तमान चुनौतियों पर काबू पाने पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता पर ज़ोर देते है। 80 प्रतिशत नौकरियों में 20,000 रुपये  से कम वेतन मिलता है, और यह एक समस्या है। वे आगे कहते हैं कि हमें कर आतंकवाद को रोकना होगा, पाइ ने प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) पर मामलों को पूरा करने और उन्हें निर्धारित समय सीमा में जवाबदेह ठहराने के लिए चार्ट शीट दाखिल करने पर ध्यान केंद्रित करने पर भी ज़ोर दिया। उनके अनुसार टैक्स आतंकवाद भारत के लिए बड़ा खतरा है।


आगामी बजट से देश को काफ़ी उम्मीदें हैं। हर कोई चाहता है कि बढ़ती हुई महंगाई के चलते उन पर अतिरिक्त  करों का भार न पड़े। 


उधर प्रसिद्ध अर्थसास्त्री प्रो अरुण कुमार ने सरकार के समानांतर किए गए देश के आर्थिक सर्वेक्षण के आधार पर देश की मौजूदा आर्थिक स्थिति को लेकर जो विश्लेषण किया है वह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। वे कहते हैं कि, सरकार का राजनीतिक निर्णय लोगों की आर्थिक जरूरतों से भिन्न है। बजट दस्तावेजों का एक जटिल समूह है जिसे अधिकांश नागरिक समझने में असमर्थ हैं। बजट में ढेर सारे आंकड़ों और लोकलुभावन घोषणाओं के पीछे असली राजनीतिक मंशा छिपी हुई है। तमाम समस्याओं के बावजूद नागरिकों की समस्याएँ साल-दर-साल बनी रहती हैं।


सरकार बजट का उपयोग यह दिखाने के लिए करती है कि कठिनाइयों के बावजूद अर्थव्यवस्था अच्छा प्रदर्शन कर रही है और नागरिकों की समस्याओं का ध्यान रखा जाएगा। इसके लिए डेटा को चुनिंदा तौर पर पेश किया जाता है. चूंकि पूरी तस्वीर सामने नहीं आई है, इसलिए विश्लेषकों को अर्थव्यवस्था की वास्तविक स्थिति बताने के लिए पेश किए गए आंकड़ों के पीछे जाना होगा। इसलिए, जहां स्थापित अर्थशास्त्री बजट की प्रशंसा करते हैं, वहीं आलोचक यथार्थवादी स्थिति प्रस्तुत करते हैं और इसमें वैकल्पिक व्याख्या का महत्व निहित है। 


यह समस्या, महत्वपूर्ण डेटा की अनुपलब्धता और इसके हेरफेर से और बढ़ गई है। उदाहरण के लिए, जनगणना 2021 का इंतजार है। 2022 की शुरुआत के बाद महामारी समाप्त हो गई और अधिकांश देशों ने अपनी जनगणना कर ली है, लेकिन भारत में यह प्रक्रिया शुरू नहीं हुई है। जनगणना डेटा का उपयोग डेटा संग्रह के लिए उपयोग किए जाने वाले अधिकांश अन्य सर्वेक्षणों के लिए नमूना तैयार करने के लिए किया जाता है। फ़िलहाल, 2011 की जनगणना का उपयोग किया जाता है, लेकिन उसके बाद से हुए बड़े बदलावों को इसमें शामिल नहीं किया जाता है। इसीलिए, परिणाम 2024 की स्थिति का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं।


प्रो कुमार के अनुसार, सरकार द्वारा प्रतिकूल समाचारों का खंडन भी एक अहम कारण है। क्योंकि यह आलोचना के उस बिंदु को भूल जाता है जो परिभाषा के अनुसार बड़ी तस्वीर और उसकी कमियों पर केंद्रित है। यह सच है कि जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था बढ़ती है, बहुत सी चीजें घटित होती हैं या बदलती हैं। वहाँ अधिक सड़कें, उच्च साक्षरता, अधिक अस्पताल, अधिक ऑटोमोबाइल आदि हैं। लेकिन, इनके साथ गरीबी, खराब गुणवत्ता वाली शिक्षा और स्वास्थ्य आदि भी हो सकते हैं। ये कमियाँ समाज के लिए चिंता का कारण हैं और आलोचक इसे उजागर करते हैं। महामारी ने उन्हें तीव्र फोकस में ला दिया। महामारी से उबरने के बाद स्थिति में ज्यादा बदलाव नहीं आया है क्योंकि यह असमान है। संगठित क्षेत्र असंगठित क्षेत्र की कीमत पर बढ़ रहा है जिससे गिरावट आ रही है और विशाल बहुमत की समस्याएं बढ़ रही हैं। कई अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग सापेक्ष हैं और पूर्ण नहीं हैं लेकिन भारत की रैंकिंग में कम रैंक या गिरावट यह दर्शाती है कि या तो स्थिति अन्य देशों की तुलना में खराब हो रही है या वास्तव में समय के साथ गिरावट आ रही है।


प्रो कुमार के अनुसार, आधिकारिक डेटा आंशिक है और प्रतिकूल परिस्थितियों को छुपाने के लिए इसमें हेरफेर किया गया है। इसीलिए एक वैकल्पिक तस्वीर तैयार करने की ज़रूरत है जो देश में बढ़ती आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक अस्थिरता और बढ़ते संघर्ष की वास्तविकता को दर्शाती हो। यह हाशिए पर मौजूद वर्गों की समस्याओं के समाधान के लिए नीतियों में व्यापक बदलाव की आवश्यकता को उजागर करता है। यह शून्य-राशि वाला खेल नहीं होगा बल्कि देश के लिए एक सकारात्मक-राशि वाला खेल होगा।


इन हालातों में आगामी आम बजट में देशवासियों को क्या राहत मिलती है ये तो बजट प्रकाशित होने के बाद ही पता चलेगा। लेकिन जाने-माने आर्थिक विशेषज्ञों के इस विश्लेषण को मोदी सरकार को गंभीरता से लेने की ज़रूरत है। 

Monday, July 8, 2024

अयोध्यावासियों का बहिष्कार क्यों?


जब से लोकसभा चुनावों के परिणाम आए हैं तब से सोशल मीडिया पर व अन्य माध्यमों से ऐसी बातें सुनने को मिल रही है कि भगवान श्रीसीताराम जी का दर्शन करने अयोध्या जाने वाले भक्त अयोध्यावासियों का बहिष्कार करें। वो वहाँ की दुकानों से कुछ भी सामान, भोग, माला, तस्वीर, ग्रंथ आदि न ख़रीदें। ऐसा इसलिए क्योंकि वहाँ के नागरिकों ने भाजपा को वोट नहीं दिया। यहाँ ये जानना बहुत ज़रूरी है कि अयोध्या जिसे अवध पुरी कहते हैं वो भगवान श्रीराम का नित्य धाम है और उन्हें अत्यंत प्रिय है। रामचरित् मानस के अनुसार भगवान श्री राम ने अयोध्या के विषय में कहा है कि -

‘अति प्रिय मोहि इहाँ के बासी। मम धामदा पुरी सुख रासी॥ 

हरषे सब कपि सुनि प्रभु बानी। धन्य अवध जो राम बखानी॥4॥’ 


इस चौपाई को हर राम भक्त ने अपने जीवन में कभी न कभी अवश्य पढ़ा होगा और पढ़ कर इसका अर्थ भी समझा होगा, जो इस प्रकार है कि, यहाँ के (अयोध्या के) निवासी मुझे बहुत ही प्रिय हैं। यह पुरी सुख की राशि और मेरे परमधाम को देने वाली है। प्रभु की वाणी सुनकर सब वानर हर्षित हुए (और कहने लगे कि) जिस अवध की स्वयं श्रीरामजी ने बड़ाई की, वह (अवश्य ही) धन्य है। इस चौपाई में भगवान श्रीराम अयोध्या पुरी का इतना बड़ा माहात्म्य बता रहे हैं कि इसमें हमें भगवान श्रीराम के परमधाम तक पहुँचाने की सामर्थ है।  


अब प्रश्न उठता है कि जो भी अपने को राम भक्त कहता है या राम भक्त होने का दावा करता है, क्या वो भगवान श्रीराम की प्रिय वस्तु का तिरस्कार करेगा? जब भगवान स्वयं कह रहे हैं कि मुझे ये अयोध्या पुरी प्रिय है और यहाँ रहने वाले अयोध्यावासी अतिप्रिय हैं, तो भगवान श्रीराम की अतिप्रिय वस्तु का अपमान करना, उसकी उपेक्षा करना, उसका बहिष्कार करना, उसके प्रति द्वेष भावना रखना, क्या ये भक्ति का लक्षण है या ये भक्ति के मार्ग में किया जा रहा धाम अपराध है? यह एक बहुत गंभीर प्रश्न है। हर संप्रदाय के आचार्यों ने भक्तों को बार-बार चेतावनी दी है कि वे धाम अपराध से बचें। उदाहरण के तौर पर ब्रह्म गौड़ीय माधव संप्रदाय के प्रमुख आचार्य इस विषय में क्या कहते हैं, यह जानकर हमारा भ्रम दूर हो जाएगा। वे कहते हैं कि, ‘जो भी भक्त तीर्थ यात्रा पर जाते हैं वे उन अपराधों से सावधानी से बचें जो पवित्र स्थान की आपकी यात्रा को बिगाड़ सकते हैं। महान आध्यात्मिक गुरु श्रील भक्तिविनोद ठाकुर धाम के साथ-साथ इसके निवासियों के प्रति भी अत्यंत सावधानीपूर्वक व्यवहार करने का निर्देश दे रहे हैं। 



वे कहते हैं कि तीर्थ यात्रा के समय जब आप अयोध्या पुरी या मथुरा पुरी जैसे किसी धाम में जाते हैं तो अपने आध्यात्मिक गुरु का अनादर न करें, क्योंकि ये धाम अपराध माना जाएगा। यह सोचना कि अयोध्या पुरी जैसा पवित्र धाम अस्थायी है, भी धाम के प्रति अपराध है। क्योंकि धाम भौतिक सिद्धांतों के परे होते हैं। वे शाश्वत होते हैं। यानी सदैव थे और सदैव रहेंगे। ऐसे पवित्र धाम के निवासियों में से किसी के प्रति हिंसा करना या उन्हें साधारण व्यक्ति समझकर उनका अनादर करना या उस धाम में कूड़ा-कचरा फैलाना भी धामवासियों के प्रति हिंसा ही है। वे आगे कहते हैं कि, पवित्र धाम में अन्य देवताओं की पूजा करना और धर्म का व्यवसायीकरण करके धाम का उपयोग व्यक्तिगत आर्थिक विकास के लिए करना भी धाम अपराध है। बाहरी लोगों का धाम में जाकर कालोनियाँ काटना, होटल बनाना या व्यापार करना भी धाम अपराध की श्रेणी में ही आता है। उन शास्त्रों की निन्दा करना जो पवित्र धाम की इस गौरवशाली स्थिति का ज्ञान देते हैं, भी धाम अपराध है। धाम की शक्ति के प्रति अविश्वासी होना और यह सोचना कि धाम की महिमा काल्पनिक है, भी धाम अपराध है। इसी प्रकार अन्य संप्रदायों के आचार्यों ने और अनेक शास्त्रों ने धाम और धाम के वासियों के प्रति अपराध न करने का निर्देश दिया है।  



अब ज़रा सोचिए कि जिन लोगों ने भी अयोध्यावासियों का बहिष्कार करने का आह्वान किया है, वे किस श्रेणी के लोग हैं? या तो वे मूर्ख और अज्ञानी हैं, जिन्होंने शास्त्रों का अध्ययन नहीं किया? या वे भक्त हैं ही नहीं और राम भक्त होने का झूठा दावा कर रहे हैं और अगर यह सब उन्होंने जानते-बूझते हुए किया है तो वे न सिर्फ़ ख़ुद घोर पाप कर रहे हैं, बल्कि अन्य भक्तों को भी पाप कर्म करने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। अतः पिछले दिनों जिस किसी ने भी अयोध्या यात्रा के दौरान उनके इस आह्वान पर अयोध्यावासियों का बहिष्कार या तिरस्कार किया है, या इस संदेश को प्रसारित करने में योगदान किया है, उसने भी घोर पाप किया है। इसलिए इस पाप का प्रायश्चित करने के लिए उन्हें पुनः अयोध्या जा कर अयोध्यावासियों और अयोध्या धाम से क्षमा माँगनी चाहिए।



चुनावी राजनीति से भगवत् भक्ति को जोड़ना आध्यात्मिक सिद्धांतों के सर्वथा विपरीत है। आज किसी दल का सांसद बना है, पहले किसी और दल का था और भविष्य में न जाने किस दल का बनेगा। सांसद और विधायक तो आते-जाते रहेंगे, पर अयोध्या और अयोध्यावासियों का महत्व हज़ारों वर्षों से रहा है और रहेगा। उल्लेखनीय है कि मोदी जी कोई अवसर नहीं छोड़ते जब वे तीर्थ स्थलों में जाकर श्रद्धा और आस्था के साथ पूजन न करते हों। फिर चाहे वो केदारनाथ हो, काशी विश्वनाथ हो, पशुपतिनाथ हो, मथुरा-वृंदावन हो, तिरूपति बालाजी हो, जगन्नाथ
  पुरी हो, उद्दुपि हो, रामेश्वरम हो, द्वारिका पुरी हो, कामख्या देवी हो या अयोध्या हो। माना जा सकता है कि मोदी जी सनातन धर्म और अन्य तीर्थों के प्रति अपनी आस्था का सार्वजनिक प्रदर्शन और व्यापक प्रचार इस उद्देश्य से करते हैं कि उनके प्रशंसक उनसे प्रेरणा लेकर धाम के प्रति सच्ची श्रद्धा का प्रदर्शन करें। ऐसे में नरेंद्र मोदी जी ये कभी स्वीकार नहीं करेंगे कि उनके आराध्य भगवान श्रीराम के अतिप्रिय अयोध्यावासियों और अयोध्या का तिरस्कार वे लोग करें जो स्वयं को मोदी जी का या भाजपा का समर्थक मानते हैं। चूँकि कुछ लोग इस तरह का आह्वान करके ये अपराध कर चुके हैं, इसलिए अपेक्षा की जानी चाहिए कि मोदी जी सार्वजनिक वक्तव्य जारी करके इसकी आलोचना करें और सभी देशवासियों से हर धर्म के तीर्थ स्थल के प्रति श्रद्धा और आस्था का भाव रखने की अपील करें ताकि भारतवासी धाम अपराध के पाप बचे रहें।  

Tuesday, July 2, 2024

धर्मगुरुओं के बीच यूट्यूब संग्राम


जब से सोशल मीडिया का प्रभाव तेज़ी से व्यापक हुआ है तब से समाज का हर वर्ग, यहाँ तक कि ग्रहणियाँ भी 24 घंटे सोशल मीडिया पर हर समय छाए रहते हैं। इसके दुष्परिणामों पर काफ़ी ज्ञान उपलब्ध है। सलाह दी जाती है कि यदि आपको अपने परिवार या मित्रों से संबंध बनाए रखना है, अपना बौद्धिक विकास करना है और स्वस्थ और शांत जीवन जीना है तो आप सोशल मीडिया से दूर रहें या इसका प्रयोग सीमित मात्रा में करें। पर विडंबना देखिए कि समाज को संयत और सुखी जीवन जीने का और माया मोह से दूर रहने का दिन रात उपदेश देने वाले संत और भागवताचार्य आजकल स्वयं ही सोशल मीडिया के जंजाल में कूद पड़े हैं। विशेषकर ब्रज में ये प्रवृत्ति तेज़ी से फैलती जा रही है। 


अभी पिछले ही दिनों वृंदावन के विरक्त संत प्रेमानंद महाराज और प्रदीप मिश्रा के बीच सोशल मीडिया पर श्री राधा तत्व को लेकर भयंकर विवाद चला। ऐसे ही पिछले दिनों वृंदावन में नये स्थापित हुए भगवताचार्य अनिरुद्धाचार्य के भी वक्तव्य विवादों में रहे। 



इसी बीच बरसाना के विरक्त संत श्री रमेश बाबा द्वारा लीला के मंचन में राधा स्वरूप धारण कर बालाकृष्ण से पैर दबवाने पर विवाद हुआ। ये सब ब्रज की विभूतियाँ हैं। हर एक के चाहने वाले भक्त लाखों करोड़ों की संख्या में हैं। जैसे ही कोई विवाद पैदा होता है इनका चेला समुदाय भी सोशल मीडिया पर खूब सक्रिय हो जाता है। ठीक वैसे ही राजनैतिक दलों की ट्रोल आर्मी, जो बात का बतंगड़ बनाने में मशहूर है, सक्रिय हो जाती है। ये सब सोशल मीडिया में अपनी पहचान बनाने का एक तरीक़ा बन गया है। अब प्रेमानंद जी वाले विवाद को ही लीजिए, कितने  ही कम मशहूर भागवताचार्य भी इस विवाद में कूद पड़े। जिनके फ़ॉलोवर्स चार-पाँच सौ ही थे पर जैसे ही वे इस विवाद में कूदे तो उनकी संख्या 20 हज़ार पार कर गई। यानी बयानबाज़ी भी फ़ायदे का सौदा है। 


परंपरा से शास्त्र ज्ञान का आदान-प्रदान गुरुओं द्वारा निर्जन स्थलों पर किया जाता था। जहां जिज्ञासु अपने प्रश्न लेकर जाता था और गुरु की सेवा कर ज्ञान प्राप्त करता था। यही पद्धति भगवान श्री कृष्ण ने कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन को बताई थी। भगवद् गीता के चौथे अध्याय का चौंतीसवाँ श्लोक इसी बात को स्पष्ट करता है। तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।4.34।।



परंतु सोशल मीडिया ने आकर ऐसी सारी सीमाओं को तोड़ दिया है। अब धर्म गुरु चाहें न चाहें पर उनके शिष्य, उनके प्रवचनों का सोशल मीडिया पर प्रसारण करने को बेताब रहते हैं और फिर अलग-अलग गुरुओं के शिष्य समूहों में आपसी प्रतिद्वंदता चलती है कि किस गुरु के कितने चेले या श्रोता हैं। जिस संत के फ़ॉलोवर्स की संख्या लाखों में होती है उन पर टिप्पणी करना या उन्हें विवाद में घसीटना लाभ का सौदा माना जाता है। क्योंकि वैसे तो ऐसा विवाद खड़ा करने वालों की कोई फॉलोइंग होती नहीं है। पर इस तरह उन्हें बहुत बड़ी तादाद में फॉलोवर और लोक प्रियता मिल जाती है। मतलब ये कि आप में योग्यता है कि नहीं, पात्रता है कि नहीं, आपको उस विषय का ज्ञान है कि नहीं, इसका कोई संकोच नहीं किया जाता। केवल सस्ती लोकप्रियता पाने के लालच में बड़े बड़े संतों के साथ नाहक विवाद खड़ा किया जाता है। आजकल ऐसे विवादों की भरमार हो गई है। 


वैसे तो तकनीकी के हमले को कोई चाह कर भी नहीं रोक सकता। पर कभी-कभी इंसान को लगता है कि उसने भयंकर भूल कर दी। 2003 की बात है जब मैंने बरसाना (मथुरा) के विरक्त संत श्री रमेश बाबा के प्रवचन नियमित रूप से हर सप्ताह बरसाना जा कर सुनना शुरू किया, बाबा की भक्ति और सरलता ने मुझे बहुत प्रभावित किया। और मुझे लगा कि बाबा के प्रवचन पूरी दुनिया के कृष्ण भक्तों तक पहुँचने चाहिए। तब ऐसा होना केवल टीवी चैनल के माध्यम से ही संभव था। क्योंकि तब तक सोशल मीडिया इतना लोकप्रिय नहीं हुआ था। मैंने इसके लिए प्रयास करके श्री मान मंदिर में टीवी रिकॉर्डिंग स्टूडियो की स्थापना कर दी। उस दौर में मान मंदिर के विरक्त साधुओं ने मेरा कड़ा विरोध किया। उनका कहना था कि बाबा की बात अगर इस तरह प्रसारित की जाएगी तो बरसाना में कलियुग का प्रवेश कोई रोक नहीं पाएगा। पर बाबा ने मुझे अनुमति दी तो काम शुरू हो गया। इसका लाभ मान मंदिर को यह हुआ कि उसके भक्तों की संख्या में देश विदेशों में तेज़ी से बढ़ौतरी हुई और वहाँ धन की वर्षा होने लगी। तब मुझे विरोध करने वाले अव्यवहारिक प्रतीत होते थे। पर आज जब मैं पलट कर देखता हूँ तो मुझे लगता है कि वाक़ई इस प्रयोग में मान मंदिर के पवित्र, शांत और निर्मल वातावरण को बहुत सारे झमेलों में फँसा दिया। अगर वहाँ टीवी का प्रवेश न हुआ होता तो वहाँ का अनुभव पारलौकिक होता था। जिसे अनुभव करने मेरे साथ नीतीश कुमार, अर्जुन सिंह, सुषमा स्वराज, लालू यादव, केंद्रीय सतर्कता आयुक्त और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश तक उस दौर में वहाँ गए और गदगद हो कर लौटे। 


हमने बात शुरू की थी सोशल मीडिया पर बाबाओं के संग्राम से और बात पहुँच गई अध्यात्म की एकांतिक अनुभूति से शुरू होकर उसके व्यवसायी करण तक। इस आधुनिक तकनीकी ने जहां श्री राधा-कृष्ण की भक्ति का और ब्रज की संस्कृति का दुनिया के कोने कोने में प्रचार किया वहीं इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि आज वृंदावन, गोकुल, गोवर्धन, बरसाना व मथुरा आदि अपना सदियों से संचित आध्यात्मिक वैभव व नैसर्गिक सौंदर्य तेज़ी से समेटते जा रहे हैं। हर ओर बाज़ार की शक्तियों ने हमला बोल दिया है। कहते हैं कि विज्ञान अगर हमारा सेवक बना रहे तो उससे बहुत लाभ होता है। पर अगर वो हमारा स्वामी बन जाए तो उसके घातक परिणाम होते हैं। एक ब्रजवासी होने के नाते और संतों के प्रति श्रद्धा होने के नाते मेरा देश भर के संतों से विनम्र निवेदन है कि वे सोशल मीडिया के संग्राम से बचें और अपने अनुयायियों को होड़ में आगे आकर अपना बढ़ा-चढ़ा कर प्रचार करने से रोकें। जिससे वे अपना ध्यान भजन साधन के अलावा तीर्थ स्थलों के सौंदर्यकरण और रख-रखाव में लगा सकें। ताकि तीर्थ यात्रियों को ब्रज जैसे तीर्थों में जाने पर सांस्कृतिक आघात न लगे।जो आज उन्हें लगने लगा है।