Monday, November 16, 2020

पर्यावरण के बचाव के लिए कुछ अनूठा करना होगा


नवम्बर आया नहीं कि दिल्ली का दम घुटना शुरू। दिल्ली में चलने वाले कारखानों और गाड़ियों का धुंआ पहले ही कम न था, कि अब पड़ोस के राज्यों से जलती हुई पराली का धुंआ भी उड़कर दिल्ली में घर करने लगा। एक वैज्ञानिक सर्वेक्षण की मानें तो इस प्रदुषण के कारण दिल्लीवासियों की औसतन आयु 5 वर्ष घट जाती है। हल्ला तो बहुत मचता है, पर ठोस कुछ नहीं किया जाता। देश के तमाम दूसरे शहरों में भी प्रदुषण का यही हाल है। रोजमर्रा की जिंदगी में कृत्रिम पदार्थ, तमाम तरह के रासायनिक, वातानुकुलन, खेतों में फर्टीलाइजर और पेस्टिसाईड, धरती और आकाश पर गाड़ियां और हवाईजहाज और कलकारखाने ये सब मिलकर दिनभर प्रकृति में जहर घोल रहे हैं। लॉकडाउन के दिनों में देशभर में आकाश एकदम साफ़ दिखाई दे रहा था। और तो और पंजाब के जालंधर में रहने वाले लोगों अपने घरों की छत से ही हिमालय की वादियां नजर आ रही थीं। यहां दशकों से रह रहे लोगों को पहले ये नजारा नहीं दिखा, बादल और प्रदूषण की वजह से हर तरफ धुआं-धुआं था लेकिन लॉकडाउन के कारण ये धुआं छंट गया। ग़ौरतलब है कि प्रदुषण के लिए कोई अकेला भारत जिम्मेदार नहीं है। दुनिया के हर देश में प्रकृति से खिलवाड़ हो रहा है। जबकि प्रकृति का संतुलन बना रहना अत्यंत आवश्यक है। स्वार्थ के लिए पेड़ों की अँधा-धुंध कटाई से ‘ग्लोबल वार्मिंग’ की समस्या बढ़ती जा रही है।


हाल ही के दिनों में ये देखने को मिला है कि भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, पूसा ने पराली से होने वाले प्रदूषण से निपटने के लिए ‘बायो डिकम्पोज़र’ को विकसित किया है। इस तकनीक के अनुसार पराली को खाद में बदलने के लिए 20 रुपये की कीमत वाली 4 कैप्सूल का एक पैकेट तैयार किया है। पूसा के वैज्ञानिकों के अनुसार 4 कैप्सूल से छिड़काव के लिए 25 लीटर घोल बनाया जा सकता है और इसका इस्तेमाल 1 हेक्टेयर में किया जा सकता है। सबसे पहले 5 लीटर पानी मे 100 ग्राम गुड़ उबालना है और ठंडा होने के बाद घोल में 50 ग्राम बेसन मिलाकर कैप्सूल घोलना है। इसके बाद घोल को 10 दिन तक एक अंधेरे कमरे में रखना होगा, जिसके बाद पराली पर छिड़काव के लिए पदार्थ तैयार हो जाता है। इस घोल को जब पराली पर छिड़का जाता है तो 15 से 20 दिन के अंदर पराली गलनी शुरू हो जाती है और किसान अगली फसल की बुवाई आसानी से कर सकता है। आगे चलकर यह पराली पूरी तरह गलकर खाद में बदल जाती है और खेती में फायदा देती है। दिल्ली सरकार ने इस तकनीक के आँकलन के लिए एक समिति का गठन भी किया है और इसकी रिपोर्ट दीपावली के बाद आने की सम्भावना है। अगर यह तकनीक कामयाब हो जाती है तो देशभर के किसानों को इसे अपनाना चाहिए। जिससे हर साल इन दिनों होने वाले प्रदूषण से मुक्ति मिल सकती है।      

जिस तरह देश के कई बड़े शहरों में पटाखों पर रोक लगा दी गई है उसी तरह पराली को जलने से भी रोकने पर ज़ोर देने की ज़रूरत है। एक जिले के अधिकारी के अधीन औसतन 500 से अधिक गाँव रहते हैं। जिनमें विभिन्न जातियों के समूह अपने-अपने खेमों में बंटे हैं। समय की माँग है कि ज़िला स्तर के अधिकारी सभी किसानों को जागरूक करें और ऐसी तकनीक का प्रयोग करने के लिए प्रेरित करें। सोचने वाली बात है कि अगर हम बैलगाड़ी के दिनों से मोटर गाड़ी की ओर बढ़ेंगे तो इससे होने वाले प्रदूषण और पर्यावरण के नुक़सान से निपटने के लिए भी कुछ आधुनिक तरीक़े ही खोजने होंगे। 

पर्यावरण के विषय में देश भर में चर्चा और उत्सुकता तो बड़ी है। पर उसका असर हमारे आचरण में दिखाई नहीं देता। शायद अभी हम इसकी भयावहता को नहीं समझे। शायद हमें लगता है कि पर्यावरण के प्रति हमारे दुराचरण से इतने बड़े देश में क्या असर पड़ेगा? इसलिए हम कुंए, कुण्डों और नदियों को जहरीला बनाते हैं। वायु में जहरीला धुंआ छोड़ते हैं। वृक्षों को बेदर्दी से काट डालते हैं। अपने मकान, भवन, सड़कें और प्रतिष्ठान बनाने के लिए पर्वतों को डायनामाईट से तोड़ डालते हैं और अपराधबोध तक पैदा नहीं होता। जब प्रकृति अपना रौद्ररूप दिखाती है, तब हम कुछ समय के लिए विचलित हो जाते हैं। संकट टल जाने के बाद हम फिर वही विनाश शुरू कर देते हैं। हमारे पर्यावरण की रक्षा करने कोई पड़ोसी देश कभी नहीं आयेगा। यह पहल तो हमें ही करनी होगी। हम जहाँ भी, जिस रूप में भी कर सकें, हमें प्रकृति के पंचतत्वों का शोधन करना चाहिए। पर्यावरण को फिर आस्था से जोड़ना चाहिए। तब कहीं यह विनाश रूक पायेगा।

पेयजल हमारे जीवन का एक अहम हिस्सा है। आजादी के बाद से आज तक हम पेयजल और सेनिटेशन के मद पर एक लाख करोड़ रूपया खर्च कर चुके हैं। बावजूद इसके हम पेयजल की आपूर्ति नहीं कर पा रहे। खेतों में अंधाधुंध रसायनिक उर्वरकों का प्रयोग भूजल में फ्लोराइड और आर्सेनिक की मात्रा खतरनाक स्तर तक बढ़ा चुका है। जिसका मानवीय स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ रहा है। सबको सबकुछ मालूम है। पर कोई कुछ ठोस नहीं करता। जिस देश में नदियों, पर्वतों, वृक्षों, पशु-पक्षियों, पृथ्वी, वायु, जल, आकाश, सूर्य व चंद्रमा की हजारों साल से पूजा होती आयी हो, वहाँ पर्यावरण का इतना विनाश समझ में न आने वाली बात है। पर्यावरण बचाने के लिए एक देशव्यापी क्रांति की आवश्यकता है। वरना हम अंधे होकर आत्मघाती सुरंग में फिसलते जा रहे हैं। जब जागेंगे, तब तक बहुत देर हो चुकी होगी और जापान के सुनामी की तरह हम भी कभी प्रकृति के रौद्र रूप का शिकार हो सकते हैं।


Monday, November 9, 2020

अमरीकी टीवी से सीखें भारतीय टीवी चैनल

अमरीका में चुनाव का जो भी नतीजा हो मतगणना के दौरान डॉनल्ड ट्रम्प ने जो जो नाटक किए उससे उनका पूरी दुनिया में मज़ाक़ उड़ा है। अपनी हार की आशंका से बौखलाए ट्रम्प ने कई बार संवाददाता सम्मेलन करके विपक्ष पर चुनाव हड़पने के तमाम झूठे आरोप लगाए और उनके समर्थन में एक भी प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया। उनके इस ग़ैर ज़िम्मेदाराना आचरण से दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र के राष्ट्रपति के पद की गरिमा को भारी ठेस लगी है। 

पर हमारा आज का विषय ट्रम्प नहीं बल्कि अमरीकी टीवी चैनल हैं। जिन्होंने गत शुक्रवार को ट्रम्प के संवाददाता सम्मेलन का सीधा प्रसारण बीच में ही रोक दिया। यह कहते हुए कि राष्ट्रपति ट्रम्प सरासर झूठ बोल रहे हैं और बिना सबूत के दर्जनों झूठे आरोप लगा रहे हैं। इन टीवी  चैनलों के एंकरों ने यह भी कहा ट्रम्प के इस ग़ैर ज़िम्मेदाराना आचरण से अमरीकी समाज में अफ़रातफ़री फैल सकती है और संघर्ष पैदा हो सकता है, इसलिए जनहित में हम राष्ट्रपति ट्रम्प के भाषण का सीधा प्रसारण बीच में ही रोक रहे हैं। 


अमरीका के समाचार टीवी चैनलों की इस बहादुरी और ज़िम्मेदाराना पत्रकारिता की सारी दुनिया में तारिफ़ हो रही है। दरअसल अपनी इसी भूमिका के लिए ही मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है। ये भारत के समाचार टीवी चैनलों के लिए बहुत बड़ा तमाचा है। दूरदर्शन तो अपने जन्म से ही सरकार का भोंपू रहा है। प्रसार भारती बनने के बाद उस स्थिति में थोड़ा बदलाव ज़रूर आया है। पर कमोबेश वो आज भी सरकार का भोंपू बना हुआ है। भारत में स्वतंत्र टीवी पत्रकारिता इंडिया टुडे समूह ने अंग्रेज़ी विडीओ न्यूज़ पत्रिका ‘न्यूज़ट्रैक’ से और मैंने ‘कालचक्र’ हिंदी विडीओ समाचार पत्रिका से 30 वर्ष पहले शुरू की थी। तब अंग्रेज़ी दैनिक पायनियर में मेरा और न्यूज़ट्रैक की संपादिका मधु त्रेहान का एक इंटरव्यू छपा था। जिसमें मधु ने कहा था, ‘हम मीडिया के व्यापार में हैं और व्यापार लाभ के लिए किया जाता है।’ और मैंने कहा था, ‘हम जनता के प्रवक्ता हैं इसलिए जो भी सरकार में होगा उसकी ग़लत नीतियों की आलोचना करना और जनता के दुःख दर्द को सरकार तक पहुँचाना हमारा कर्तव्य है और हम हमेशा यही करेंगे।’ 


जब से निजी टीवी चैनलों की भरमार हुई है तबसे लोगों को लगा कि अब टीवी समाचार सरकार के शिकंजे से मुक्त हो गए। पर ऐसा हुआ नहीं। व्यापारिक हितों को ध्यान में रखते हुए ज़्यादातर समाचार चैनल राजनैतिक ख़ेमों में बट गए हैं। ऐसा करना उनकी मजबूरी भी था। क्योंकि जितना आडम्बरयुक्त और खर्चीला साम्राज्य इन टीवी चैनलों ने खड़ा कर लिया है उसे चलाने के लिए मोटी रक़म चाहिए। जो राजनैतिक दलों या औद्योगिक घरानों के सहयोग के बिना मिलनी असम्भव है। फिर भी कुछ वर्ष पहले तक कुल मिलाकर सभी टीवी चैनल एक संतुलन बनाए रखने का कम से कम दिखावा तो कर ही रहे थे। पर पिछले कुछ वर्षों में भारत के ज़्यादातर समाचार चैनलों का इतनी तेज़ी से पतन हुआ कि रातों रात टीवी पत्रकारों की जगह चारण और भाटों ने ले ली। जो रात दिन चीख-चीख कर एक पक्ष के समर्थन में दूसरे पक्ष पर हमला करते हैं। 


इनकी एंकरिंग या रिपोर्टिंग में तथ्यों का भारी अभाव होता है या वे इकतरफ़ा होते हैं। इनकी भाषा और तेवर गली मौहल्ले के मवालियों जैसी हो गई है। इनके ‘टॉक शो’ चौराहों पर होने वाले छिछले झगड़ों जैसे होते हैं। और तो और कभी चाँद पर उतरने का एस्ट्रोनॉट परिधान पहन कर और कभी राफ़ेल के पाइलट बन कर जो नौटंकी ये एंकर करते हैं, उससे ये पत्रकार कम जोकर ज़्यादा नज़र आते हैं। इतना ही नहीं दुनिया भर के टीवी चैनलों के पुरुष और महिला एंकरों और संवाददाताओं के पहनावे, भाषा और तेवर की तुलना अगर भारत के ज़्यादातर टीवी चैनलों के एंकरों और संवाददाताओं से की जाए तो स्थिति स्वयं ही स्पष्ट हो जाएगी। भारत के ज़्यादातर समाचार टीवी चैनल पत्रकारिता के अलवा सब कुछ कर रहे हैं। यह शर्मनाक ही नहीं दुखद स्थिति है। गत शुक्रवार को अमरीका के राष्ट्रपति के झूठे बयानों का प्रसारण बीच में रोकने की जो दिलेरी अमरीका के टीवी एंकरों ने दिखाई वैसी हिम्मत भारत के कितने समाचार टीवी एंकरों की है? 


उधर अर्नब गोस्वामी की गिरफ़्तारी को लेकर भी जो विवाद हुआ है उसे भी इसी परिपेक्ष में देखने की ज़रूरत है। अगर आप यूट्यूब पर मेरे नाम से खोजें तो आपको तमाम टीवी शो ऐसे मिलेंगे जिनमें एंकर के नाते अर्नब ने हमेशा मुझे पूरा सम्मान दिया है और मेरे संघर्षों का गर्व से उल्लेख भी किया है। ज़ाहिर है कि मैं अर्नब के विरोधियों में से नहीं हूँ। टीवी समाचारों के 31 बरस के अपने अनुभव और उम्र के हिसाब से मैं उस स्थिति में हूँ कि एक शुभचिंतक के नाते अर्नब की कमियों को उसके हित में खुल कर कह सकूं। पिछले कुछ वर्षों में अर्नब ने पत्रकारिता की सीमाओं को लांघ कर जो कुछ किया है उससे स्वतंत्र टीवी पत्रकारिता कलंकित हुई है। अर्नब के अंधभक्तों को मेरी यह टिप्पणी अच्छी नहीं लगेगी। पर हक़ीक़त यह है कि अर्नब भारतीय टीवी का एक जागरूक, समझदार और ऊर्जावान एंकर था। लेकिन अब उसने अपनी वह उपलब्धि अपने ही व्यवहार से नष्ट कर दी। कहते हैं जब जागो तब सवेरा। हो सकता है कि अर्नब को इस आपराधिक मामले में सज़ा हो जाए या वो बरी हो जाए। अगर वो बरी हो जाता है तो उसे एकांत में कुछ दिन पहले ध्यान करना चाहिए और फिर चिंतन और मनन कि वो पत्रकारिता की राह से कब और क्यों भटका? यही चेतावनी बाक़ी समाचार चैनलों के एंकरों और संवाददाताओं के लिए भी है कि वे लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ का सदस्य होने की गरिमा और मर्यादा को समझें और टीवी पत्रकार की तरह व्यवहार करें, चारण और भाट की तरह नहीं।


Monday, November 2, 2020

प्रधान मंत्री का पुतला जलाना ठीक नहीं


इस दशहरे पर देश के कई हिस्सों में आक्रोशित किसानों, बेरोज़गार नौजवानों और उत्तेजित भीड़ ने रावण दहन के लिए बने पुतले पर प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी का चेहरा लगा कर रावण दहन किया और उत्तेजक नारे लगाए। किसी भी प्रधान मंत्री के साथ ऐसा दुर्व्यवहार आजाद भारत के इतिहास में पहली बार हुआ। इसका जितनी निंदा की जाए कम है। प्रधान मंत्री भारत सरकार का सर्वोच्च मुखिया होता है। उसका अपमान देश का अपमान है। इसलिए आजतक कभी आंदोलनकारियों ने या विपक्षी दलों ने ऐसा काम नहीं किया था। यह बड़ी चिंता की बात है और यह देश के लोकतंत्र के तेज़ी से पतनशील होने का बड़ा प्रमाण है। प्रधान मंत्री का पुतला जलाने वाले वास्तव में उनकी नीतियों से आहत थे या उन्हें किसी ने राजनैतिक मक़सद से उकसाया? जो भी हो इससे एक ग़लत परम्परा की शुरुआत हो गई जो और भी ज़्यादा चिंता की बात है।
 

दरअसल पिछले कुछ वर्षों में राजनीति का जो विमर्श बना है और जिस तरह की भाषा राजनैतिक कार्यकर्ता और उनके सहयोगी मीडिया कर्मी अपने विरोधियों के प्रति प्रयोग कर रहे हैं, उससे वो दिन दूर नहीं जब राजनीति में बातचीत से नहीं लाठी, गोली और डंडों से ही बात हुआ करेगी। फिर तो जिसकी लाठी उसकी भैंस। फिर न तो कोई विचारधारा बचेगी और न कोई सामाजिक सरोकार का मुद्दा। घोर अराजकता की स्थिति होगी। इस पतन की शुरुआत बहुत सीमित मात्रा में तीन दशक पहले हुई थी, जब राजनैतिक दलों ने अपराधियों को चुनावों में उम्मीदवार बनाना शुरू किया था। तब मैंने अपनी कालचक्र विडीओ मैगज़ीन में एक रिपोर्ट तैयार की थी ‘क्या भारत पर माफिया राज करेगा?’ पर तब हालत इतने बुरे नहीं थे जितने आज हो गए हैं। 



पिछले कुछ वर्षों से देश के स्तर से लेकर गाँव और क़स्बे तक राजनैतिक आक्रामकता बढ़ती जा रही है। कोई अपने विरोधी की बात न तो शांति से सुनने को तैयार है और न उस पर तर्क करने को। ज़रा सा विरोध भी किसी को बर्दाश्त नहीं है। बात बात पर अपने विरोधियों के प्रति अभद्र भाषा का प्रयोग करना, उन्हें धमकी देना या उन्हें देशद्रोही बताना आम बात हो गई है। इससे समाज में तनाव और असुरक्षा बढ़ रही है। यह भारत की सनातन संस्कृति नहीं हैं। ऐसा आचरण तो पश्चिम एशियाई देशों में देखने में आता है, जहां छोटी छोटी बातों पर मारकाट, गोली-बारी और सर कलम करने जैसे हादसे रोज़ होते रहते हैं। 


भारत की संस्कृति में तो राजा से भी एक आम नागरिक उसके दरबार में अपना विरोध प्रकट कर सकता था। पौराणिक गोवर्धन पर्वत की तलहटी में 500 वर्ष पहले एक प्रसिद्ध भजन गायक संत कुंभन दास जी रहते थे। बादशाह अकबर ने उनकी तारीफ़ सुनी तो उनका गायन सुनने के लिए सिपाही भेज कर उन्हें अपनी राजधानी फ़तेहपुर सीकरि बुलवा लिया। इससे कुंभन दास जी बहुत दुखी हुए। बादशाह के हुक्म पर उन्होंने दरबार में अपना प्रसिद्ध पद गाया, संत कू कहा सीकरी सों काम। आवत जात पनहैया टूटी, बिसर गयो हरि नाम। बादशाह अकबर ने उन्हें इनाम देना चाहा तो कुंभन दास जी बोले, आज के बाद अपना मनहूस चेहरा मुझे मत दिखाना, क्योंकि इसके चक्कर में आज मेरा भजन भंग हो गया। इस पर दरबारियों ने तलवारें खींच लीं, तो अकबर ने उन्हें रोका और कहा, ये सच्चे फ़क़ीर हैं, ये शहनशाहों के शहनशाह (भगवान श्री कृष्ण) के लिए गाते हैं, हमारे लिए नहीं। मतलब ये कि अगर शासक में अपनी आलोचना सुनने की उदारता होगी, तो जनता का आक्रोश इतना नहीं भड़केगा कि वो मर्यादा की सीमा लांघ जाए। 


आजकल थाईलैंड के राजतंत्र के ख़िलाफ़ भारी जन आक्रोश ने एक बड़े आंदोलन का रूप ले लिया है। जबकि थाईलैंड के क़ानून के अनुसार राजा की निंदा करना भी ग़ैर क़ानूनी है। ऐसा इसलिए हुआ कि पिछले राजा उदार थे और लोकप्रिय भी। जबकि वर्तमान राजा के आचरण और नीतियों से जनता त्रस्त है। वैसे सारी जनता को हर समय कोई भी शासक पूरी तरह संतुष्ट नहीं कर सकता। कुछ न कुछ लोग तो हमेशा असंतुष्ट होंगे ही। पर अगर शासक वर्ग आम जनता के प्रति सम्वेदनशील है और जनता को भी लगता है कि उसकी नीतियों से जनता को लाभ मिल रहा है, तो स्थिति इतनी नहीं बिगड़ती। किंतु अगर जनता को लगे कि शासक वर्ग की नीतियाँ और आचरण आम जनता के हितों के विरोध में हैं और केवल कुलीन या सम्पन्न लोगों के हित में हैं तो उसका आक्रोश बढ़ जाता है। जिसकी परिणिति हिंसक आंदोलन का रूप भी ले सकती है। 


मध्य युग की छोड़ दें तो भी आधुनिक युग में और इसी सदी में दुनिया के जिन-जिन देशों में शासकों ने तानाशाहीपूर्ण रवैया अपनाया, विरोध के स्वरों को दबाया और जनसंचार के माध्यमों से अपना झूठा प्रचार करवाया उन-उन तानाशाहों को खूनी क्रांति का सामना करना पड़ा। इसलिए लोकतंत्र में जो चार स्तंभ बनाए गए हैं - विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया, चारों की स्वायत्तता समविधान में सुरक्षित की गई है। इन चारों स्तंभों को एक दूसरे के ऊपर निगरानी रखने का दायित्व भी लोकतांत्रिक परम्पराओं ने प्रदान किया है। जिससे समाज में संतुलन बना रहे। 


इसलिए यह हम सब का दायित्व है कि हम देश की लोकतांत्रिक परम्पराओं में तजी से आई इस गिरावट को रोकने का काम तुरंत करें। इसमें ज़्यादा ज़िम्मेदारी स्वयं प्रधान मंत्री श्री मोदी जी की है। वे सत्ता के सिरमौर हैं और एक नए भारत का सपना देख रहे हैं। उन्हें इस परीस्थिति का निष्पक्ष मूल्यांकन कर इस गिरावट को रोकने के लिए ठोस और प्रभावी कदम उठाने चाहिएँ। जिससे हमारा समाज भयमुक्त हो, अनुशासित हो और ज़िम्मेदारी से व्यवहार करे, ऐसी ग़ैर ज़िम्मेदाराना हरकत न करे।

Monday, October 26, 2020

अदालत और मीडिया ही बचा सकते हैं लोकतंत्र को

पिछले दिनों जिस तरह मुंबई हाई कोर्ट ने, सुशांत सिंह राजपूत कांड को इकतरफ़ा कैम्पेन बना कर उत्तेजक और ग़ैर ज़िम्मेदाराना कवरेज करने के लिए कुछ मीडिया चैनलों को फटकार लगाई है, उससे एक आशा की किरण जागी है। सारा देश यह देखकर हैरान था कि सुशांत सिंह राजपूत की मौत का बेवजह कितना बड़ा बवंडर ये मीडिया चैनल मचा रहे थे। दर्शकों के कान और आँख इन्हें झेल-झेल कर पक गए थे। 

135 करोड़ के मुल्क में जहां लगातार गिरती अर्थव्यवस्था, बढ़ती बेरोज़गारी व महंगाई और ऊपर से कोरोना की मार से त्रस्त जनता त्राहि-त्राहि कर रही है, वहाँ इन चैनलों को रिया चक्रवर्ती से बड़ा कोई मुद्दा नहीं मिला? 


सोशल मीडिया पर एक देहाती क़िस्म का मज़ाक़ आया था । जिसमें पुलवामा के हत्या कांड की जाँच न करवा पाने के लिए, चीनियों की भारत में घुसपैठ के लिए, बेरोज़गारी दूर करने का समाधान न निकालने के लिए और कोरोना का वैकसीन न ईजाद कर पाने के लिए रिया चक्रवर्ती को ही दोषी बताया गया था। प्रस्तुतकर्ता ने इन अपराधों के लिए रिया चक्रवर्ती को कड़ी से कड़ी सज़ा देने की सिफ़ारिश की थी। वैसे तो ये एक मज़ाक़ था पर आम आदमी की पीड़ा व्यक्त कर रहा था। जो इस बात से परेशान था कि इन टीवी चैनलों ने रिया चक्रवर्ती का मुद्दा बेवजह इतना उछल कर देश के सारे महत्वपूर्ण मुद्दों पर झाड़ू फेर रखी है। 


कोरोना काल में अपनी फ़ेसबुक पोस्ट पर मैंने कई बार इस पर टिप्पणी भी की थी और इन टीवी पत्रकार साथियों को ट्विटर पर संदेश भेज कर भी सम्भालने की सलाह दी थी, जो शायद मेरा नैतिक हक़ बनता है। 


क्योंकि इस देश में हिंदी टीवी पत्रकारिता की शुरुआत मैंने ही 1989 में कालचक्र विडीओ  मैगजीन के मध्यम से की थी। उस वक्त देश में कोई प्राइवेट टीवी चैनल नहीं था।जितने मशहूर चेहरे आज टीवी चैनलों पर दिखाई दे रहे हैं ये सब मुझसे कई वर्ष बाद इस क्षेत्र में आए। तब बीएआरसी जैसी कोई नियामक संस्था भी नहीं थी। फिर भी हमने अपने ऊपर स्वयं अंकुश रखने के लिए कुछ नियम बनाए थे, जो आज भी उतने ही सार्थक हैं। 


हमारा पहला नियम था कि हम किसी भी बड़े औद्योगिक घराने के पैसे से टीवी पत्रकारिता नहीं करेंगे। क्योंकि उससे हमारी सम्पादकीय स्वतंत्रता उस घराने के आर्थिक लाभ के लिए गिरवी हो जाएगी। अगर मैं औद्योगिक घरानों का पैसा ले लेता तो कालचक्र देश का पहला हिंदी टीवी  समाचार चैनल होता। पर मैं दूसरों की बंदूक़ अपने कंधों पर चलाने को राज़ी न था। क्योंकि मुझे अपने देश और देशवासियों के हक़ में टीवी पत्रकारिता करनी थी, एकतरफ़ा रिपोर्टिंग, चारण या भांड़गिरी नहीं। इसलिये साधनहीनता के कारण मैंने बहुत कठिन संघर्ष किया पर अपनी निडर, निर्भीक और खोजी पत्रकारिता से कालचक्र ने देश में झंडे गाड़ दिये थे। 


मुझे याद है मुम्बई में अनिल अम्बानी की शादी में शामिल होकर लौटे तत्कालीन केंद्रीय मंत्री वसंत साठे ने मुझे बताया था कि वहाँ शादी में उद्योगपतियों और नेताओं के बीच तुम्हारे कालचक्र की ही चर्चा प्रमुखता से हो रही थी। 


निष्पक्ष रहने के इसी तेवर के कारण ही मैं कालचक्र में 1993 में ‘जैन हवाला कांड’ उजागर कर सका। जिसने देश की राजनीति को बुरी तरह हिलाकर रख दिया। जबकि इतने बड़े-बड़े मीडिया घराने 1947 से 1993 तक इतना बड़ा ऐसा एक भी घोटाला उजागर करने की हिम्मत नहीं कर पाये थे, जिसमें लगभग हर प्रमुख दल के बड़े नेता आरोपित हुए हों। 


हमारा दूसरा नियम था कि हमारी व्यक्तिगत विचारधारा कुछ भी हो पर कालचक्र विडीओ   समाचार में हर विचारधारा के लोगों को जनहित में अपने विचार रखने का मौक़ा दिया जाएगा। इसलिए हमने चाहे कांग्रेस की विचारधारा हो या समाजवादियों की, संघ की हो या नक्सलवादिओं की, सबको समान अवसर दिया, जिसे दर्शकों ने बहुत सराहा। 


हमारा तीसरा नियम था कि किसी भी व्यक्ति के ख़िलाफ़ हम तब तक आरोप नहीं लगाएँगे जब तक कि हमारे पास पुख़्ता सबूत न हों। इतना ही नहीं हम आरोप लगाने से पहले उस व्यक्ति को अपना स्पष्टीकरण देने का पूरा अवसर भी देंगे। यही कारण है कि इस देश में आज़ादी के बाद उच्च पदों पर बैठे मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और अफ़सरों की सबसे ज़्यादा नौकरियाँ मैंने ही ली हैं। लेकिन कोई भी मुझ पर मानहानि का मुक़द्दमा नहीं कर पाया। जबकि आज शहरों से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक छिछली मानसिकता के लोग ,जो ख़ुद को पत्रकार कहते हैं, बड़ी बेशर्मआई से इकतरफ़ा आरोप लगाकर अपनी पीठ थपथपाते हैं। पर जब मुंबई हाई कोर्ट की तरह कोई अदालत या कोई मानहानि का मुक़द्दमा करने वाला इन्हें अदालत में घसीट ले तो इनके पास बच कर भागने का रास्ता नहीं होता। 


हमारा अगला नियम था कि हम हमेशा जनता की बात को ही तरजीह देंगे, सत्ता में जो भी दल हो हम उसकी ग़लत नीतियों की बेख़ौफ़ आलोचना करेंगे। यह तभी सम्भव है जब आप सरकारी विज्ञापन, सरकारी आतिथ्य, सरकार द्वारा प्रदत्त पद्म अलंकरणो, सरकारी पदों, संसद की सदस्यता या मंत्रियों की दलाली करने का लोभ न करें। तब आप लोकतंत्र में चौथा खम्बा होने का दावा कर सकते हैं। अन्यथा आप खुद को जो भी माने, पत्रकार तो नहीं हो सकते। हाँ चारण या भाट ज़रूर हो सकते हैं। अब यह फ़ैसला पाठक स्वयं करें कि आज देश में कितने लोग इस कसौटी पर खरे उतरते हैं। 


उधर न्यायपालिका के सदस्यों को आजीवन वेतन या पेंशन और सेवाकाल में सारी सुविधाएँ मिलती हैं। वे न्यायमूर्ति कहलाते हैं। 135 करोड़ लोग उनकी ओर आशा से देखते हैं। फिर भी अगर वे व्यक्तिगत लाभ, लोभ या भय से अपने पद का दुरुपयोग करते हैं तो उनसे निकृष्ट कोई हो नहीं सकता। इसलिए मेरा मानना है कि मीडिया अगर ऋषि की तरह और न्यायाधीश अगर पंच परमेश्वर की तरह व्यवहार करें तो न केवल भारतीय लोकतंत्र सुदृढ़ होगा बल्कि आम हिंदुस्तानी भी सुखी व सम्पन्न होगा।  

Monday, October 19, 2020

हर किसान महर्षि फ़िल्म ज़रूर देखे

सरकार द्वारा पारित किए गए कृषि उत्पाद क़ानूनों को लेकर आज देश में भारी विवाद उठ खड़ा हुआ है। जहां मोदी सरकार का दावा है कि इन क़ानूनों से किसानों को फ़ायदा होगा। वहीं विपक्षी दल इसके नुक़सान गिनाने में जुटे हैं। देश के कई प्रांतों में इन मुद्दों पर आंदोलन भी चल रहे हैं। इसी दौरान ‘एमेज़ोन प्राइम’ टीवी चैनल पर 2019 में आई तेलगू फ़िल्म ‘महर्षि’ देखी। इससे पहले कि इस फ़िल्म के विषय में मैं आगे चर्चा करूँ, सभी पाठकों से कहना चाहूँगा कि अगर उनके टीवी में ‘एमेज़ोन प्राइम’ है तो उस पर अन्यथा उनके जिस मित्र के घर ‘एमेज़ोन प्राइम’ हो वहाँ जा कर ये फ़िल्म अवश्य देखें। ख़ासकर कृषि व्यवसाय से जुड़े परिवारों को तो यह फ़िल्म देखनी ही चाहिए। वैसे फ़िल्म थोड़ी लम्बी है, लगभग 3 घंटे की, लेकिन बिलकुल उबाऊ नहीं है। आधुनिक युवाओं को भी यह फ़िल्म आकर्षित करेगी, क्योंकि इसमें उनकी रुचि का भी बहुत कुछ है। 


मूल फ़िल्म तेलगू में है, पर हिंदी के ‘सबटाइटिल’ साथ-साथ चलते हैं, जिससे हिंदी भाषी दर्शकों को कोई दिक्कत नहीं होती। फ़िल्म का मुख्य किरदार ऋषि नाम का एक माध्यम वर्गीय युवा है जो लाखों अन्य युवाओं की तरह सूचना प्रौदयोगिकी की पढ़ाई करके अमरीका नौकरी करने जाता है और वहाँ अपनी कुशाग्र बुद्धि और मज़बूत इरादों से कुछ ही वर्षों में एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी का सीईओ बन जाता है। इसमें असम्भव कुछ भी नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में तमाम भारतीय अनेकों बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के सीईओ बन कर दुनिया में नाम और बेशुमार दौलत कमा चुके हैं। ऋषि भी उसी मंज़िल को हासिल कर लेता है और दुनिया का हर ऐशो-आराम उसके कदमों में होता है। तभी उसकी ज़िंदगी में एक नाटकीय मोड़ आता है। जब वो अचानक अपने निजी हवाई जहाज़ में बैठ कर हैदराबाद के पास एक गाँव में अपने सहपाठी से मिलने आता है, जो किसानों के हक़ के लिए मुंबई के एक बड़े औद्योगिक घराने से अकेला संघर्ष कर रहा होता है। 


यह औद्योगिक घराना उस ग्रामीण क्षेत्र में मिले प्राकृतिक तेल के उत्पादन का एक बड़ा प्लांट लगाने जा रहा है, जिसके लिए उस क्षेत्र के हरे भरे खेतों से लहलहाते पाँच दर्जन गाँवों को जड़ से उखाड़ा जाना है। मुआवज़ा भी इतना नहीं कि उजाड़े गए किसानों के परिवार दो वक्त की रोटी का जुगाड़ कर सकें। ऋषि इस समस्या का हल ढूँढने में जुट जाता है जिसमें उसका सीधा संघर्ष मुंबई के उसी औद्योगिक घराने से हो जाता है। पर अपनी बुद्धि, युक्ति, समझ और धन के बल पर ऋषि यह लड़ाई जीत जाता है। हालाँकि इससे पहले उसके संघर्ष में कई उतार चढ़ाव आते हैं। जैसे जिन किसानों के लिए ऋषि और उसका मित्र, जान जोखिम में डाल कर दिन-रात लड़ रहे थे, वही किसान उद्योगपति और नेताओं की जालसाज़ी में फँसकर इनके विरुद्ध खड़े हो जाते हैं। पर जब ऋषि अपनी सैंकड़ों करोड़ रुपए की आय का 90 फ़ीसदी इन किसानों की मदद के लिए खुले दिल से लुटाने को तैय्यार हो जाता है, तब किसानों को ऋषि की निष्ठा और त्याग की क़ीमत समझ में आती है। तब सारे इलाक़े के किसान ऋषि के पीछे खड़े हो जाते हैं। यह ऋषि की बहुत बड़ी ताक़त बन जाती है।

 

अपनी अकूत दौलत और राजनैतिक दबदबे के बावजूद मुंबई का वह उद्योगपति हाथ मलता रह जाता है। इस सफलता के बाद ऋषि अमरीका वापिस जाने को अपने जहाज़ में बैठ जाता है। पर तभी उसे पिछले दिनों के अनुभव चलचित्र की तरह दिखाई देने लगते हैं और तब वह क्षण भर में फ़ैसला लेकर बहुराष्ट्रीय कम्पनी के सीईओ पद से इस्तीफ़ा दे देता है। वह शेष जीवन किसानों के हक़ के लिए और उनकी मदद के लिए ख़ुद किसान बन कर जीने का फ़ैसला करता है। 



फ़िल्म का आख़िरी आधा घंटा बहुत गम्भीरता से देखने वाला है। इसमें देश के किसानों की दुर्दशा का व्यापक वर्णन हुआ है। ऋषि ने किसानों, नेताओं, अधिकारियों, मंत्रियों और मीडिया के सामने जिस प्रभावशाली किंतु सरल तरीक़े से किसानों की समस्या को बताया है उससे शहर में रहने वाले लोग, जिनका कृषि से कोई सम्बंध नहीं है, वे भी सोचने पर मजबूर होते हैं कि हम किसानों की ज़िंदगी के बारे में कितने अनपढ़ हैं। जबकि हम कार के बिना रह सकते हैं लेकिन भोजन के बिना नहीं। अन्नदाता की उपेक्षा करके या अपने औद्योगिक लाभ के लिए किसानों का हक़ छीनने वाले लोगों को भी यह फ़िल्म कुछ सोचने पर ज़रूर मजबूर करेगी। 


वैसे तो किसानों की समस्याओं पर बिमल राय की ‘दो बीघा ज़मीन’ या बॉलीवुड की ‘मदर इंडिया’ और ‘लगान’ जैसी दर्जनों फ़िल्में पिछले 73 सालों में आईं हैं। इन फ़िल्मों ने किसानों की दुर्दशा का बड़ी गहराई, संजीदगी और ईमानदारी से प्रस्तुतिकरण भी किया है। पर आंध्र प्रदेश के लोकप्रिय युवा फ़िल्मी सितारे और फ़िल्म निर्माता महेश बाबू ने इस फ़िल्म को इस तरह बनाया है कि हर वो आदमी जिसका किसानी से कोई नाता नहीं, वो भी इस फ़िल्म को बड़े चाव से अंत तक देखता है और उसे समाधान भी मिलता है। फ़िल्म में ऋषि का किरदार ख़ुद महेश बाबू ने बखूबी निभाया है। उनके खूबसूरत और आकर्षक व्यक्तित्व और जुनून ने इस फ़िल्म को बहुत प्रभावशाली बना दिया है। सामाजिक कार्यकर्ताओं को और ग्रामीण स्कूलों के शिक्षकों को प्रयास करके यह फ़िल्म हर गाँव में दिखानी चाहिए।       

       

Monday, October 12, 2020

अफ़सरशाही बनाम नौकरशाही

वैसे तो यह कोई नया विषय नहीं है। जबसे हमें अंग्रेजों की ग़ुलामी से मुक्ति मिली है, तबसे यह चर्चा का विषय रहा है कि देश का ‘स्टील फ्रेमवर्क’ मानी जाने वाली कार्यपालिका किसके प्रति जवाबदेह है? उस जनता के प्रति जिसके कर के पैसे से इसे वेतन और सुविधाएँ मिलती हैं या राजनेताओं के प्रति जो हर चुनाव में बदलते रहते हैं? 

आम व्यवहार में देखने में यह आता है कि जिस जनता की सेवा के लिए इस तंत्र को खड़ा किया गया है और पाला पोसा जाता है, उस जनता के प्रति इन तथाकथित जनसेवकों का व्यवहार बहुत निराशाजनक और सामंतवाद की दुर्गंध लिए होता है। ऐसा नहीं है कि इसके अपवाद नहीं हैं। पर उनका प्रतिशत लगातार घटता जा रहा है। 


कार्यपालिका के इस तंत्र को नौकरशाही कहा जाता है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, नौकर यानी सेवक, जो अपने मालिक की विनम्रता से और ईमानदारी से सेवा करे। इस परिभाषा के अनुसार हर नौकरशाह को आम जनता यानी गरीब से गरीब आदमी की सेवा करने, उसकी फ़रियाद सुनने और उसकी समस्याओं का हल करने के लिए 24 घंटे खुले दिल से तत्पर रहना चाहिए। जबकि होता इसका उल्टा है। नौकरशाहों के सरकारी बंगलों पर प्रायः गरीब या आम आदमी को फटकार, तिरस्कार या उपेक्षा मिलती है। जबकि भ्रष्ट, अपराधी या माफिया क़िस्म के लोगों को, उनके राजनैतिक सम्पर्कों के कारण, विशिष्ट व्यक्तियों का सा सम्मान मिलता है। जबकि दुत्कारा जाने वाला व्यक्ति अपने खून पसीने की कमाई से नौकरशाही का भरण पोषण करता है और सार्वजनिक संसाधनों और बेंकों को अवैध तरीक़े से लूटने वाला तथाकथित बड़ा आदमी समाज पर जोंक की तरह होता है। फिर भी नौकरशाही अपने असली मालिकों की उपेक्षा करके इन नक़ली मालिकों के आगे झुकती है। उसके इसी रवैय्ये के कारण देश तरक़्क़ी नहीं कर पा रहा और लुटता रहता है। 


जिन राजनैतिक आकाओं के सामने इस तंत्र को अफ़सरशाही दिखानी चाहिए, वहाँ ये दुम दबा कर नौकरशाह बन जाते हैं। अफ़सरशाही मतलब हर मुद्दे को क़ानून के दायरे में समझ कर और उसके व्यवहारिक हल ढूँढ कर मंत्री के आगे प्रस्तुत करना, अफ़सरशाही का कर्तव्य होता है। उससे अपेक्षा की जाती है कि बिना राग द्वेष के हर मुद्दे पर अफ़सर अपनी निष्पक्ष राय प्रस्तुत करेगा, जिससे मंत्री को सही निर्णय लेने में सुविधा होगी। इतना ही नहीं, अगर मंत्री अपने दल या स्वयं के लाभार्थ अफ़सर पर अनुचित दबाव डालकर कुछ अवैध या अनैतिक काम करवाना चाहता है तो अफ़सर का फ़र्ज़ होता है कि वो उसे ऐसा करने से रोके या उसे फ़ाइलों के पेचों में उलझाकर उसके इरादों को कामयाब न होने दे। जिससे जनता और देश का भला हो। 



पर होता इसका उल्टा है। अपने राजनैतिक आकाओं को खुश करने के लिए अफ़सरशाही झुकना तो छोटी बात है, उनके आगे साष्टांग लेटने में भी संकोच नहीं करती। स्पष्ट है कि ऐसा अनैतिक कृत्य करने के पहले अफ़सर को यह विश्वास होता है कि इस ‘सेवा’ का उसे अपेक्षा से ज़्यादा व्यक्तिगत लाभ मिलेगा। इसलिए वह लालच के अंधे कुएँ में डूबता चला जाता है। ऐसा कम ही होता है कि इस तरह का भ्रष्ट आचरण करने वाला अफ़सर कभी क़ानून के शिकंजे में फँसता हो। हास्य कवि काका हाथरसी की एक मशहूर कविता है, ‘क्यों डरता है बेटा रिश्वत लेकर - छूट जाएगा तू भी रिश्वत दे कर’। अच्छी और कमाऊ पोस्टिंग के लालच में अफ़सरशाही अपने राजनैतिक आकाओं के आगे दुम हिलती हुई नौकरशाह बनी सेवा को तत्पर खड़ी रहती है। इसीलिए देश में आए दिन हज़ारों बड़े-बड़े घोटाले होते रहते हैं। और किसी का कुछ नहीं बिगड़ता। 


एक बार फिर मध्य प्रदेश की आईएएस अधिकारी दीपाली रस्तोगी की इस स्वीकारोक्ति को यहाँ लाना सार्थक होगा। अपने एक लेख में दीपाली लिखती हैं :  

हम अपने बारे में, अपनी बुद्धिमता के बारे में और अपने अनुभव के बारे में बहुत ऊँची राय रखते हैं और सोचते हैं कि लोग इसीलिए हमारा सम्मान करते हैं। जबकि असलियत यह है कि लोग हमारे आगे इसलिए समर्पण करते हैं क्योंकि हमें फ़ायदा पहुँचाने या नुक़सान करने की ताक़त दी गई है। पिछले दशकों में हमने एक आदत डाल ली है कि हम बड़ी तादाद में ख़ैरात बाँटने के अभ्यस्त हो गाए हैं, चाहें वह वस्तु के रूप में हो या विचारों के रूप में। असलियत यह है कि जो हम बाँटते हैं वो हमारा नहीं होता। 

हमें वेतन और सुविधाएँ इसलिए मिलती हैं कि हम अपने काम को कुशलता से करें और ‘सिस्टम’ विकसित करें। सच्चाई यह है कि हम कुप्रबंध और अराजकता फैला कर पनपते हैं क्योंकि ऐसा करने से हम कुछ को फ़ायदा पहुँचाने के लिए चुन सकते हैं और बाक़ी की उपेक्षा कर सकते हैं। हमें भारतीय गणतंत्र का ‘स्टील फ्रेम’ माना जाता है। सच्चाई यह है कि हममें दूरदृष्टि ही नहीं होती। हम अपने राजनैतिक आकाओं की इच्छा के अनुसार औचक निर्णय लेते हैं। 

हम पूरी प्रशासनिक व्यवस्था का अपनी जागीर की तरह अपने फ़ायदे में या अपने चहेते लोगों के फ़ायदे में शोषण करते हैं। हम काफ़ी ढोंगी हैं क्योंकि हम यह सब करते हुए यह दावा करते हैं कि हम लोगों की ‘मदद’ कर रहे हैं। हम जानते हैं कि अगर हम ऐसी व्यवस्था बनाएँ जिसमें हर व्यक्ति आसानी से हमारी सेवाओं का लाभ ले सके, तो हम फ़ालतू हो जाएँगे। इसलिए हम अव्यवस्था को चलने देते हैं। 

हम अपने कार्यक्षेत्र को अनावश्यक विस्तार देते जाते हैं। बिना इस बात की चिंता किए कि हमारे द्वारा बनाई गई व्यवस्था में कुशलता है कि नहीं। सबसे ख़राब बात यह है कि हम बहुत दिखावटी, दूसरों को परेशान करने वाले और बिगड़ैल लोगों का समूह हैं। बावजूद इसके हम यह कहने में संकोच नहीं करते कि हम इस देश की जनता के लिए काम करते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि इस देश से हमें कोई लेना देना नहीं है क्योंकि हमारे बच्चे विदेशों में पड़ते हैं और हमने जो भी सुख सुविधाएँ, इस व्यवस्था में मिल सकती हैं उन्हें अपने लिए जुटा कर अपने सुखी जीवन का प्रबंध कर लिया है। हमें आम जनता के लिए कोई सहानुभूति नहीं होती हालाँकि हम सही प्रकार का शोर मचाने के लिए सतर्क रहते हैं।

अगर इस देश में न्याय किया जाता तो हम बहुत पहले ही लुप्त हो जाते। पर हम इतने ज़्यादा ताक़तवर हैं कि हम अपने अस्तित्व को कभी समाप्त नहीं होने देते। क्योंकि हम भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी हैं।

Monday, October 5, 2020

दामिनी के बाद कितनी और मनीषा दरिंदगी का शिकार बनेंगी ?

एक बार फिर भारत शर्मसार है। हाथरस पुलिस की लापरवाही और स्वर्णों की दरिंदगी की दास्तान आज सारे देश की ज़ुबान पर है। इस भयावय त्रासदी के लिए सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार देश का वो मीडिया है जो पिछले तीन महीने से सुशांत सिंह राजपूत और बॉलीवुड के ड्रग के मायाजाल से बाहर नहीं निकल पा रहा है। रिया चक्रवर्ती के पास कितने ग्राम ड्रग बरामद हुई, ये ढूँढने वाले खोजी पत्रकार आज डेढ़ साल बाद भी ये नहीं खोज पाए कि पुलवामा में 300 किलोग्राम आरडीएक्स कहाँ से और कैसे पहुँचा? जिसमें देश के 40 जाँबाज़ सिपाहियों के परखच्चे उड़ा दिए गए। क्या उनकी हत्या सुशांत सिंह राजपूत की तथाकथित हत्या से काम महत्वपूर्ण थी? अगर मीडिया ने निर्भया कांड की तरह हाथरस की मनीषा के सवाल को भी उसी तत्परता से उठाया होता तो शायद मनीषा की जान बच सकती थी।


जहां तक बलात्कार की समस्या का प्रश्न है तो कोई पुलिस या प्रशासन बलात्कार रोक नहीं सकता। क्योंकि इतने बड़े मुल्क में किस गांव, खेत, जंगल, कारखाने, मकान या सुनसान जगह बलात्कार होगा, इसका अन्दाजा कोई कैसे लगा सकता है? वैसे भी जब हमारे समाज में परिवारों के भीतर बहू-बेटियों के शारीरिक शोषण के अनेकों समाजशास्त्रीय अध्ययन उपलब्ध हैं, तो यह बात सोचने की है कि कहीं हम दोहरे मापदण्डों से जीवन तो नहीं जी रहे? उस स्थिति में पुरूषों के रवैये में बदलाव का प्रयास करना होगा। जो एक लम्बी व धीमी प्रक्रिया है। समाज में हो रही आर्थिक उथल-पुथल, शहरीकरण, देशी और विदेशी संस्कृति का घालमेल और मीडिया पर आने वाले कमोत्तेजक कार्यक्रमों ने अपसंस्कृति को बढ़ाया है। जहाँ तक पुलिसवालों के खराब व्यवहार का सवाल है, तो उसके भी कारणों को समझना जरूरी है। 1980 से राष्ट्रीय पुलिस आयोग की रिपोर्ट धूल खा रही है। इसमें पुलिस की कार्यप्रणाली को सुधारने के व्यापक सुझाव दिए गए थे। पर किसी भी राजनैतिक दल या सरकार ने इस रिपोर्ट को प्रचारित करने और लागू करने के लिए जोर नहीं दिया। नतीजतन हम आज भी 200 साल पुरानी पुलिस व्यवस्था से काम चला रहे हैं। 


पुलिसवाले किन अमानवीय हालतों में काम करते हैं, इसकी जानकारी आम आदमी को नहीं होती। जिन लोगों को वी.आई.पी. बताकर पुलिसवालों से उनकी सुरक्षा करवायी जाती है, ऐसे वी.आई.पी. अक्सर कितने अनैतिक और भ्रष्ट कार्यों में लिप्त होते हैं, यह देखकर कोई पुलिसवाला कैसे अपना मानसिक संतुलन रख सकता है? समाज में भी प्रायः पैसे वाले कोई अनुकरणीय आचरण नहीं करते। पर पुलिस से सब सत्यवादी हरीशचंद्र होने की अपेक्षा रखते हैं। हममें से कितने लोगों ने पुलिस ट्रेनिंग कॉलेजों में जाकर पुलिस के प्रशिक्षणार्थियों के पाठ्यक्रम का अध्ययन किया है? इन्हें परेड और आपराधिक कानून के अलावा कुछ भी ऐसा नहीं पढ़ाया जाता जिससे ये समाज की सामाजिक, आर्थिक व मनोवैज्ञानिक जटिलताओं को समझ सकें। ऐसे में हर बात के लिए पुलिस को दोष देने वाले नेताओं और मध्यमवर्गीय जागरूक समाज को अपने गिरेबां में झांकना चाहिए। 


इसी तरह बलात्कार की मानसिकता पर दुनियाभर में तमाम तरह के मनोवैज्ञानिक और सामाजिक अध्ययन हुए हैं। कोई एक निश्चित फॉर्मूला नहीं है। आठ वर्ष पहले मुम्बई के एक अतिसम्पन्न मारवाड़ी युवा ने 65 वर्ष की महिला से बलात्कार किया तो सारा देश स्तब्ध रह गया। इस अनहोनी घटना पर तमाम सवाल खड़े किए गये। पिता द्वारा पुत्रियों के लगातार बलात्कार के सैंकड़ों मामले रोज देश के सामने आ रहे हैं। अभी दुनिया ऑस्ट्रिया  के गाटफ्राइट नाम के उस गोरे बाप को भूली नहीं है जिसने अपनी ही सबसे बड़ी बेटी को अपने घर के तहखाने में दो दशक तक कैद करके रखा और उससे दर्जन भर बच्चे पैदा किए। इस पूरे परिवार को कभी न तो धूप देखने को मिली और न ही सामान्य जीवन। घर की चार दीवारी में बन्द इस जघन्य काण्ड का खुलासा 2011 में तब हुआ जब गाटफ्राइट की एक बच्ची गंभीर रूप से बीमारी की हालत में अस्पताल लाई गयी। अब ऐसे काण्डों के लिए आप किसे जिम्मेदार ठहरायेंगे? पुलिस को या प्रशासन को ? यह एक मानसिक विकृति है। जिसका समाधान दो-चार लोगों को फाँसी देकर नहीं किया जा सकता। इसी तरह एक प्रमुख अंग्रेजी टीवी चैनल के एंकरपर्सन ने अतिउत्साह में बलात्कारियों को नपुंसक बनाने की मांग रखी। कुछ देशों में यह कानून है। पर इसके घातक परिणाम सामने आए हैं। इस तरह जबरन नपुंसक बना दिया गया पुरूष हिंसक हो जाता है और समाज के लिए खतरा बन जाता है। 


बलात्कार के मामलों में पुलिस तुरत-फुरत कार्यवाही करे और सभी अदालतें हर दिन सुनवाई कर 90 दिन के भीतर सजा सुना दें। सजा ऐसी कड़ी हो कि उसका बलात्कारियों के दिमाग पर वांछित असर पड़े और बाकी समाज भी ऐसा करने से पहले डरे। इसके लिए जरूरी है कि जागरूक नागरिक, केवल महिलाऐं ही नहीं पुरूष भी, सक्रिय पहल करें और सभी राजनैतिक दलों और संसद पर लगातार तब तक दबाव बनाऐ रखें जब तक ऐसे कानून नहीं बन जाते। कानून बनने के बाद भी उनके लागू करवाने में जागरूक नागरिकों को हमेशा सतर्क रहना होगा। वरना कानून बेअसर रहेंगे। अगर ऐसा हो पाता है तो धीरे धीरे बलात्कार की समस्या पर कुछ क़ाबू पाया जा सकता है।


सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि हमारे देश की वो महिलाएँ जो राजनीति में सफल हैं, वो भी दामिनी या मनीषा जैसे कांडों पर अपने दल का रुख़ देख कर बयानबाज़ी करती हैं। जिस दल की सत्ता होती है उस दल की नेता, विधायक, सांसद या मंत्री ऐसे दर्दनाक कांडों पर भी चुप्पी साधे रखती हैं। केवल विपक्षी दलों की ही महिला नेता आवाज़ उठाती हैं। ज़ाहिर हैं कि इनमें अपनी ही जमात के प्रति संवेदनशीलता का अभाव है। महिलाओं के प्रति ऐसी दुर्दांत घटनाओं के बावजूद उनके हक़ में एक जुट हो कर आवाज़ न उठाना और ऐसे समय में अपने राजनैतिक जोड़-घटा लगाना बेहद शर्मनाक है। इसीलिए समाज के हर वर्ग को इस समस्या से निपटने के लिए सक्रिय होना पड़ेगा वरना कोई बहु बेटी सुरक्षित नहीं रह पाएगी।