Monday, January 19, 2015

किरण बेदी बनाम केजरीवाल



जिसका अंदाजा था वही हुआ | आखिर किरण बेदी भाजपा में शामिल हो ही गई | अब विरोधी हमला कर रहे हैं कि कल तक भाजपा पर आम आदमी पार्टी कि नेता बन कर भाजपा पर हमला बोलने वाली किरण बेदी ने उसी भाजपा का दामन क्यों थाम लिया ? यह हमला बेमानी है | अन्ना हजारे के आंदोलन के दौर से ही किरण बेदी भाजपा की तरफ अपना झुकाव दिखाती आ रही थी | नरेंद्र मोदी की प्रधानमन्त्री पद कि उम्मीदवारी की घोषणा के बाद तो किरण ने उनका खुल कर समर्थन किया | ज़रूरी नहीं कि पूरी जिंदगी एक व्यक्ति एक विचार और एक मूड को लेकर बैठा रहे | जिन शरद पवार ने सोनिया गांधी के विदेश मूल को लेकर पार्टी छोड़ी थी वे ही 10 बरस तक सोनिया गांधी के नेतृत्व में सप्रग की सरकार चलवाते रहे |

किरण बेदी के भाजपा में शामिल होते ही कई मीडिया कर्मियों ने मुझसे फोन पर इस घटना की प्रतिक्रिया पूछी | मेरा मानना है कि किरण बेदी जैसी कार्यकुशल अधिकारी की सक्रीय भूमिकाओं से दिल्ली की आम जनता हमेशा प्रभावित रही है | मुझे 1980 का वो दौर याद है जब किरण बेदी उत्तर पश्चिम दिल्ली की डीसीपी थी | तब मैंने दिल्ली दूरदर्शन के लिए एक टीवी सीरीज ‘पुलिस और लोग’ प्रस्तुत की थी | उन दिनों किरण युवा महिला होने के बावजूद आधी रात को घोड़े पर गश्त करती थी | बाद में दिल्ली की ट्रैफिक पुलिस में रहते हुए उन्होंने वीआइपी गाड़ियों को गलत पार्किंग से उठवा कर ‘क्रेन बेदी’ होने का खिताब हासिल किया |

जिन दिनों 1993 – 96 में मैंने जैन हवाला काण्ड उजागर किया और भ्रष्टाचार के विरुद्ध भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त टी एन शेषण और मैं देश भर में जन सभाएं सम्भोदित कर रहे थे उन्ही दिनों 1996 में किरण बेदी, के जे एल्फोंज़ और जी आर खैरनार भी हमारे साथ जुड़े और हमने कई जनसभाएं साथ साथ संबोधित करी | तब किरण के साथी अधिकारी किरण से बहुत जलते थे | वे कहते थे कि किरण जैसे लोग अपने छोटे से काम का बहुत ढिंढोरा पीटते हैं | दूसरी तरफ ये लोग बहुत महत्वाकांक्षी हैं सरकारी नौकरी में रह कर राजनैतिक भविष्य तैयार कर रहे है | पर महत्वाकांक्षी होना कोई गलत बात नहीं है | अनेक उदाहरण हैं जब अनुभवी प्रशासनिक अधिकारी राजनीति में भी कुशल प्रशासक सिद्ध हुए हैं | दूसरी तरफ मुकाबले में केजरीवाल जैसा व्यक्ति है जिसकी कथनी कुछ और - करनी कुछ और | इसी कॉलम में पिछले 4 वर्षों में बेहत हैं केजरीवाल के झूठ, फरेब और राजनैतिक महत्वाकांक्षा पर मैंने दर्जनों लेख लिखे हैं | तब भी जब अन्ना और केजरीवाल का भ्रष्टाचार के विरुद्ध तथाकथित जन आंदोलन अरबों रूपए की आर्थिक मदद से अपने शिखर पर था, मैंने राजघाट पर इनके खिलाफ खुले पर्चे तक बटवाए थे | क्योंकि मैं इनकी गद्दारी का धोखा खा चुका था और मुझे इन पर कटाई भरोसा नहीं था | किरण बेदी जाहिरान केजरीवाल से कई मामलों में बेहतर हैं | केजरीवाल तो हल्ला मचा कर, करोड़ों रुपया प्रचार में खर्च करके, एक मुद्दा उठाते हैं और फिर बड़ी बेहयाई से उसे छोड़ कर भाग जाते हैं | फिर वो चाहे बनारस का संसदीय क्षेत्र हो, जंतर मंतर का धरना, जनता दरबार या मुख्यमंत्री का पद | कहीं भी ठहर कर कोई भी काम नहीं किया | ऐसा ही मानना उनके टाटा स्टील व आयकर  विभाग के सहयोगियों का भी है | अब दिल्ली की जनता तय करेगी कि वो काम करने वाली किरण बेदी को चुनेगी या भगोड़े केजरीवाल को |

हो सकता है कि भाजपा के पुराने कार्यकर्ताओं में अमित भाई शाह के इस निर्णय को लेकर कुछ रोष हो | वे जाहिरान किरण बेदी को बाहरी उम्मीदवार मानते होंगे | पर उन्हें यह याद रखना चाहिए कि आज की भाजपा आडवानी जी की भाजपा से भिन्न है | आज नरेंद्र भाई मोदी एक मिशन लेकर देश बनाने निकले हैं | उन्हें हर उस कर्मठ व्यक्ति की ज़रूरत है जो उनके इस मिशन में सहयोग कर सके | अगर केवल संघ और भाजपा से जुड़ने का पुराना इतिहास मांगेगें तो वे देश के लाखों योग्य लोगों की सेवाएँ लेने से वंचित रह जायेंगे | उधर अमित भाई शाह उस नेपोलियन की तरह हैं जो फ़्रांस की सेना के सिपाही से उठ कर फ़्रांस का राजा बना | जिसके शब्दकोष में असंभव नाम का शब्द ही नहीं था | जो सोता भी घोड़े पर ही था | अमित भाई चुनाव के हर युद्ध को जीतने के लिए लड़ रहे हैं | वे श्रीराम के लक्ष्मण हैं जो अग्रज की सेवा में 14 वर्ष तक वनवास में खड़े रहे | अपना सुख त्यागा ताकि बड़े भईया को सुख दे सके | जब श्रीराम अवध के राजा बने तब भी लक्ष्मण उसी तरह से सेवा में जुटे रहे | अब नरेंद्र भाई को देश बनाने के लिए जो समय चाहिए वह तभी मिल पायेगा जब संगठन और चुनाव की समस्याओं से अमित भाई शाह उन्हें दूर रखें और खुद ही इनसे जूझते रहें | ऐसे में पार्टी कार्यकर्ताओं को अपने दल के नेता के निर्णय में पूर्ण विश्वास होना चाहिए, तभी लड़ाई जीती जायेगी |

Monday, January 12, 2015

चार्ली हेब्दो के पत्रकारों की हत्या

आज से लगभग 15 वर्ष पहले अमेरिका की मशहूर साप्ताहिक पत्रिका ‘टाइम’ ने दुनियाभर के व्यवसायों का सर्वेक्षण करके यह रिपोर्ट छापी थी कि दुनिया में सबसे तनावपूर्ण पेशा पत्रकारिता का है। फौजी या सिपाही जब लड़ता है, तो उसके पास हथियार होते हैं, नौकरी की गारंटी होती है और शहीद हो जाने पर उसके परिवार की परवरिश की भी जिम्मेदारी सरकारें लेती हैं। पर, एक पत्रकार जब सामाजिक कुरीतियों या समाज के दुश्मनों या खूंखार अपराधियों या भ्रष्ट शासनतंत्र के विरूद्ध अपनी कलम उठाता है, तो उसके सिर पर कफन बंध जाता है।

यह सही है कि अन्य पेशों की तरह पत्रकारिता के स्तर में भी गिरावट आयी है और निष्ठा और निष्पक्षता से पत्रकारिता करने वालों की संख्या घटी है, जो लोग ब्लैकमेलिंग की पत्रकारिता करते हैं, उनके साथ अगर कोई हादसा हो, तो यह कहकर पल्ला झाड़ा जा सकता है ‘जैसी करनी वैसी भरनी’। पर कोई निष्ठा के साथ ईमानदारी से अगर अपना पत्रकारिता धर्म निभाता है और उस पर कोई आंच आती है, तो जाहिर सी बात है कि न केवल पत्रकारिता जगत को, बल्कि पूरे समाज को ऐसे पत्रकार के संरक्षण के लिए उठ खड़े होना चाहिए।

फ्रांस की मैंगजीन चार्ली हेब्दो के पत्रकारों की हत्या ने पूरे दुनिया के पत्रकारिता जगत को हिला दिया है। फिर भी जैसा विरोध होना चाहिए था, वैसा अभी नहीं हुआ है। सवाल उठता है कि इस तरह किसी पत्रिका के कार्यालय में घुसकर पत्रकारों की हत्या करके आतंकवादी क्या पत्रकारिता का मुंह बंद कर सकते हैं ? वो भी तब जब कि आज सूचना क्रांति ने सूचनाओं को दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुंचाने में इतनी महारथ हासिल कर ली है और इतने विकल्प खड़े कर दिए हैं कि कोई पत्रिका न भी छपे, तो भी ई-मेल, एसएमएस, सोशल-मीडिया जैसे अनेक माध्यमों से सारी सूचनाएं मिनटों में दुनियाभर में पहुंचायी जा सकती हैं।

शायद, ये आतंकवादी दुनिया को यह बताना चाहते हैं कि जो भी कोई इस्लाम के खिलाफ या उसके बारे में आलोचनात्मक टिप्पणी करेगा, उसे इसी तरह मौत के घाट उतार दिया जाएगा। आतंकवादियों का तर्क हो सकता है कि उनका धर्म सर्वश्रेष्ठ है और उसमें कोई कमी नहीं। उनका यह भी तर्क हो सकता है कि दूसरे धर्म के अनुयायियों को, चाहें वे पत्रकार ही क्यों न हों, उनके धर्म के बारे में टिप्पणी करने का कोई हक नहीं है। पर सच्चाई यह है कि दुनिया का कोई धर्म और उसको मानने वाले इतने ठोस नहीं हैं कि उनमें कोई कमी ही न निकाली जा सके। हर धर्म में अनेक अच्छाइयां हैं, जो समाज को नैतिक मूल्यों के साथ जीवनयापन का संदेश देती हैं। दूसरी तरफ यह भी सही है कि हर धर्म में अनेकों बुराइयां हैं। ऐसे विचार स्थापित कर दिए गए हैं कि जिनका आध्यात्म से कोई लेना-देना नहीं है। ऐसे ही विचारों को मानने वाले लोग ज्यादा कट्टरपंथी होते हैं, चाहे वे किसी भी धर्म के मानने वाले क्यों न हों। इसलिए उस धर्म के अनुयायियों को इस बात का पूरा हक है कि वे अपने धर्मगुरूओं से सवाल करें और जहां संदेह हो, उसका निवारण करवा लें। उद्देश्य यह होना चाहिए कि उस धर्म के मानने वाले समाज से कुरीतियां दूर हों। ऐसी आलोचना को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। पर कोई धर्म ऐसा नहीं है कि जिसके ताकतवर धर्मगुरू अपनी कार्यप्रणाली के आचरण पर कोई टिप्पणी सुनना बर्दाश्त करते हों। जो भी ऐसी कोशिश करता है, उसे चुप कर दिया जाता है और फिर भी नहीं मानता, तो उसे आतंकित किया जाता है और जब वह फिर भी नहीं मानता, तो उसकी हत्या तक करवा दी जाती है। कोई धर्म इसका अपवाद नहीं है।

दूसरी तरफ यह भी सच है कि जिन धर्मों में मान्यताओं और विचारों के निरंतर मूल्यांकन की छूट होती है, वे धर्म बिना किसी प्रचारकों की मदद के लंबे समय तक पल्लवित होते रहते हैं और समयानुकूल परिवर्तन भी करते रहते हैं। सनातन धर्म इसका सबसे ठोस उदाहरण है। जिसमें मूर्ति पूजा से लेकर निरीश्वरवाद व चार्वाक तक के सिद्धांतों का समायोजन है। इसलिए यह धर्म हजारों साल से बिना तलवार और प्रचारकों के जोर पर जीवित रहा है और पल्लवित हुआ है। जबकि प्रचारकों और तलवार के सहारे जो धर्म दुनिया में फैले, उसमें बार-बार बगावत और हिंसा की घटनाओं के तमाम हादसों से इतिहास भरा पड़ा है।
 
रही बात फ्रांस के पत्रकारों की, तो देखने में यह आया है कि यूरोप और अमेरिका के पत्रकार आमतौर पर सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक पक्षों पर टिप्पणी करने में कोई कंजूसी नहीं बरतते। उन्हें जो ठीक लगता है, वह खुलकर हिम्मत से कहते हैं। ऐसे में यह मानने का कोई कारण नहीं कि फ्रांस के पत्रकारों ने सांप्रदायिक द्वेष की भावना से पत्रकारिता की है, क्योंकि यही पत्रकार अपने ही धर्म के सबसे बड़े धर्मगुरू पोप तक का मखौल उड़ाने में नहीं चूके थे। इसलिए इनकी हत्या की भत्र्सना की जानी चाहिए और पूरी दुनिया के पत्रकारिता जगत को और निष्पक्ष सोच रखने वाले समाज को ऐसी घटनाओं के विरूद्ध एकजुट होकर खड़े होना चाहिए।

Monday, December 22, 2014

यूं नहीं खत्म होगा आतंकवाद


पेशावर में आर्मी स्कूल के बच्चों की हत्या ने बर्बरता की सारी हदें पार कर दी | आतंकवादियों ने इसे सेना के खिलाफ बदले की कार्रवाई बाते है | पूरी दुनिया इस हमले से स्तब्ध है | अब तक आतंक का जो रूप देखा जाता था उससे यह हमला बहुत अलग है | अब तक बेकसूरों और मासूमों और साधारण नागरिकों की हत्याओं से ही भय और सनसनी फैलाई जाती थी | और आतंकवादियों की वैसी हरकतों पर राजनितिक व्यवस्था का जवाब या प्रतिक्रिया यही रहती थी यह आतंकवादियों की कायराना हरकत है | हालांकि आतंकवाद के खिलाफ सरकारी युद्ध में सेना और सुरक्षा बलों के सिपाहियों की हत्याएं भी कम नहीं होती हैं | लेकिन उन्हें हम सैनिकों की शहादत कहते हैं और आतंकवाद के खिलाफ निरंतर युद्ध का माहौल बनाये रखते आये हैं | लेकिन इस हमले में सबसे ज्यादा सुविचारित काम यह हुआ है कि सेना कर्मियों के बच्चों को निशाना बनाया गया है |

पूरी दुनिया के मीडिया ने इस हमले को वीभत्स और बर्बर कहते हुए इसे अब तक की सबसे सनसनीखेज हरकत बतया है | और खास तौर पर ज्यादा अमानवीय इस कारण बताया है क्योंकि हत्याएं बच्चों की की गई | उधर हमले पर प्रतिक्रिया के बाद आतंकवादियों का रुख और भी ज्यादा कडा और सनसनीखेज़ है | उनकी धमकी है कि अब वे नेताओं के बच्चों को निशाना बनाएंगे | शनिवार को जिस तरह से मीडिया में आतंकवादियों के धमकी वाले वीडियो टेप जारी किये गए और उन्हें बार बार दिखाया गया उससे यह भी साफ़ ज़ाहिर है कि आतंकवाद और राजनितिक व्यवस्थाओं के बीच यह लड़ाई केद्रिकृत हो चली है |

अगर आतंकवाद पर राजनीतिकों की दबिश की समीक्षा करें तो यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि सरकारें अब तक आतंकवाद के खिलाफ कोई कारगर उपाय कर नहीं पायी है | राजनितिक तबका आतंकवाद को व्यवस्था के खिलाफ एक अलोकतांत्रिक यंत्र ही मानता रहा है | और बेगुनाह नागरिकों की हत्याओं के बाद येही कहता रहा है कि आतंकवाद को बर्दाश्त नहीं किया जायेगा | होते होते कई दशक बीत जाने के बाद भी विश्व में आतंकवाद के कम होने या थमने का कोई लक्षण हमें देखने को नहीं मिलता |

बहरहाल आतंकवाद के नए रूप को देखें तो संकेत मिलता है कि नेताओं के बच्चों को निशाना बनाने की धमकी के बाद नेताओं के बच्चों की सुरक्षा का नया इन्तेजाम करना होगा | कुलमिलाकर सेना, पुलिस, सुरक्षाकर्मियों और राजनीतिकों के बच्चों व परिवारों की सुरक्षा को किस परिमाण में सुनिश्चित किया जा पाएगा यह हमारे सामने नई चुनौती है |

आज की तारीख तक आतंकवाद के कुछ और महत्वपूर्ण पहलुओं की समीक्षा करें तो यह भी कहा जा सकता है कि आतंकवाद अब और उग्र रूप में हमारे सामने है | यानी उसकी तीव्रता और बढ़ गयी | इतनी ज्यादा बढ़ गयी है कि वह बेख़ौफ़ हो कर खुलेआम राजनेताओं को चुनौती देने लगा है |

नए हालात में ज़रूरी हो गया है कि आतंकवाद के बदलते स्वरुप पर नए सिरे से समझना शुरू किया जाए | हो सकता है कि आतंकवाद से निपटने के लिए बल प्रयोग ही अकेला उपाए न हो | क्या उपाय हो सकते हैं उनके लिए हमें शोधपरख अध्ययनों की ज़रूरत पड़ेगी | अगर सिर्फ 70 के दशक से अब तक यानी पिछले 40 साल के अपने सोच विचार – अपनी कार्यपद्धति पर नज़र डालें तो हमें हमेशा तदर्थ उपायों से ही काम चलाना पड़ा है | इसका उदाहरण कंधार विमान अपहरण के समय का है जब विशेषज्ञों ने हाथ खड़े कर दिए थे कि आतंकवाद से निपटने के लिए हमारे पास कोई सुनियोजित व्यवस्था ही नहीं है |

सिर्फ भारतवर्ष ही नहीं बल्कि दूसरे देशों को भी देखें तो राजनितिक व्यवस्थाओं में जिस तरह बाहुबल और धनबल का दबदबा बढा है उससे येही लगता है कि हिंसा और शोषण को हम उतनी तीव्रता के साथ निंदनीय नहीं मानते | यदि वाकई ऐसा ही है तो राजनितिक व्यवस्था को चुनौती देने के लिए आतंकवाद सिर क्यों नहीं उठा लेगा | धर्म, जाति, धनबल और बाहुबल अगर राजनीति के प्रभावी यंत्र मने जाते हैं तो आतंकवाद के खिलाफ उपाय ढूँढने में हम कितने कारगर हो सकते हैं |

खैर जब तक हमें कुछ सूझता नहीं तब तक आतंकवाद के खिलाफ बल प्रयोग का उपाय करने के इलावा हमारे पास कोई चारा भी नहीं है | लेकिन इसी बीच साथ-साथ अप्राध्शास्त्रियों, मनोविज्ञानियों, समाजशास्त्रियों और दर्शनशास्त्रियों को इस काम के लिए सक्रीय किया जा सकता है | बहुत संभव है कि ऐसा करते हुए हम आतंकवाद के साथ भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता, शोषण और बेरोज़गारी जैसी समस्याओं का भी समाधान पा लें | इसके लिए विश्वभर के शीर्ष नेतृत्त्व को एकजुट हो कर कुछ ठोस कदम उठाने होंगे तभी कुछ होने की उम्मीद है |

Monday, December 8, 2014

तर्क वितर्क में उलझा साध्वी का बयान

हफ्ते भर से देश की राजनीति साध्वी के जुगुप्सापूर्ण और घृणित बयान में उलझी है | भ्रष्टाचार, काला धन, मेहंगाई और बेरोज़गारी की बातें ज़रा देर के लिए पीछे हो गयी हैं | वैसे सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच तकरार कालजई प्रकार की घटना है | यानी संसद के सत्र के दौरान व्यस्तता के लिए ऐसे मुद्दे से और ज्यादा सनसनीखेज़ बात मिल भी क्या सकती थी |

साध्वी ने खेद जता दिया है | प्रधानमंत्री ने सफाई भी दे दी है | सत्ताधारियों का तर्क है कि अब चर्चा बंद करो | विपक्ष का तर्क है कि यह मामला सिर्फ क्षमा मांग कर बारी हो जाने का नहीं है | बल्कि उसकी पुनरावृत्ति रोकने के लिए कारगार प्रतिकार होना चाहिए | इसी तर्क वितर्क में मामला जिंदा है |

आइये देखें कि एक हफ्ते से चल रहे इस काण्ड के किस पहलु पर चर्चा नहीं हुई | सिर्फ यही देखना काफी नहीं होगा बल्कि पलट कर यह भी देखना पड़ेगा की विगत में जब जब ऐसा हुआ है उसके बाद तब क्या हुआ | मसलन चुनाव के दौरान या चुनाव के पहले सत्ता के लिए जिस तरह के बयानों को सुनने की हमारी आदत पड़ गयी है उस लिहाज़ से साध्वी का ऐसा कुरुचिपूर्ण और आपत्ति जनक बयान बहुत बड़ी बात नहीं लगती | और अपनी आदत के मुताबिक़ हम प्रतिकार किये बगैर आगे भी बड़ लेते हैं | लेकिन काण्ड के उस महत्वपूर्ण पहलु को देख लें तो हो सकता है कि भविष्य में ऐसे जुगुप्सापूर्ण, घृणित, अशालीन और सांस्कृतिक कुरुचिपूर्ण माहौल को बनने से रोकने का कोई उपाय ढूंढ पायें |

इस सिलसिले में यहाँ ये बात उठाई जा सकती है कि साध्वी के मुंह से ऐसी बात किस मकसद से निकली होगी ? और अगर कोई निश्चित मकसद नहीं था यानी अगर सिर्फ जीभ फिसल जाने का मामला था तो यह देख लेना पड़ेगा कि जीभ फिसलने के बाद प्रतिकार कब और कैसे किया जाता है| पहले मकसद के बारे में सोचें | तो सभी जानते हैं कि भारतीय राजनीति में धार्मिक भावनाओं के सत्ताई पदार्थीकारण के लिए क्या क्या किया जाता है और वह किस हद तक स्वीकार भी समझा जाता है | वैसे तो यह तथ्यात्मक पड़ताल के बाद ही पता चल सकता है फिर भी पिछले तीस साल की भारतीय राजनीति में साम्प्रदाईयरकता स्वीकारीय बनाई जाती दीखती है | यानी कुछ लोग इसे उतना बुरा नहीं मानते | फिर भी उसके रूप को लेकर और उसके माध्यम को लेकर वे लोग भी संकोच बरतते हैं | लेकिन इस काण्ड में यह संकोच नहीं बरता गया | इस मामले में यही कहा जा सकता है कि राजनितिक अभीष्ट के लिए घृणा और जुगुप्सा के इस्तेमाल का प्रयोग नाकाम हुआ दीखता है | यह निष्कर्ष इस आधार पर है क्योंकि ऐसी बातों के कट्टर पक्षधरों को भी साध्वी का बचाव करने में संकोच होने लगा है |

दूसरी बात रही जीभ के फिसलने की | अगर यह वैसी कोई घटना होती तो वक्ता को तत्काल उसको बोध हो जाता है | सामान्य जनव्हार में यहाँ तक है कि किसी आपत्तिजनक या गन्दी सी बात कहने से पहले क्षमा मांगते हुए ही वह बात कही जाती है | और अगर आदत या प्रवृत्तिवश निकल जाए तो फ़ौरन माफ़ी मांग ली जाती है | और इस तरह वक्ता अपनी प्रतिष्ठा – गरिमा को बचाए रखता है | लेकिन साध्वी फ़ौरन वैसा नहीं कर पाई | शायद उन्होंने प्रतिक्रिया का अध्यन करने के लिए पर्याप्त से ज्यादा समय लगा दिया | बहराल वे पहली बार सांसद बनी और तेज़तर्रारी के दम पर पहली बार में ही केन्द्रीय मंत्री बना दी गयी | पर अब साध्वी कुलमिलाकर मुश्किल में हैं | वे ही नहीं उनकी वजह से उनकी पार्टी यानी सत्ताधारी पार्टी फिलहाल ज़रा दब के चलती दिख रही है |

जो हुआ अब उसके नफे नुक्सान की बात है | अगर बयान के मकसद की पड़ताल करें तो इस बात से कौन इनकार करेगा कि राजनीति में ऐसी बातों से मकसद पूरा हो जाता है | और नुक्सान की बात करें तो तात्कालिक नुक्सान सिर्फ इतना हुआ है कि राजनीति से निरपेक्ष रहने वाले नागरिकों के पास सन्देश पहुँचा है कि सत्ताधारी पार्टी इन बातों को पूरी तौर पर छोड़ नहीं पायी है | जबकि यह कई बार सिद्ध हो चुका है कि राजनितिक सफलता के लिए ऐसी बातें बहुत ज्याद उपयोगी नहीं होती| थोड़ी बहुत उपयोगिता को मानते हुए इस हद तक जाना कुलमिलाकर नुकसानदेह ही मालूम पड़ता है|

लेकिन जहाँ हमने राजनीति का विशेषण बनाने के लिए ‘राजनैतिक’ की बजाय ‘राजनितिक’ लिखना / कहना शुरू किया है | उससे बिलकुल साफ़ है कि हम ‘नैतिक’ की बजाय ‘नीतिक’ होते जा रहे हैं | इस बात से अपने उत्थान और पतन का आकलन करने के लिए हम निजी तौर पर मुक्त हैं – स्वतंत्र हैं |

Monday, December 1, 2014

यथार्थवादी हो भारत की पड़ौस नीति

बराक ओबामा गणतंत्र दिवस परेड के मुख्य अतिथि बनने आ रहे हैं | इसी से भारत में काफी उत्साह है | भावुक लोग यह मान बैठे हैं कि अमरीका ने अपनी विदेश नीति में आमूलचूल परिवर्तन करके पाकिस्तान की तरफ से मुंह मोड़ लिया है | अब वो केवल भारत का हित साधेगा | लेकिन ऐसा सोचना भयंकर भूल है | अमरीका की विदेश नीति भावना से नहीं ज़मीनी हकीकत से तय होती है | वह अपनी पाकिस्तान और अफगनिस्तान नीति में जल्दबाजी में कोई परिवर्तन नहीं करने जा रहा |

यही बात जापान पर भी लागू होती है | भारत मान बैठा था कि जापान चीन के मुकाबले भारत का साथ देकर भारत को मजबूत करेगा | पर अचानक जापान ने अपना रवैया बदल दिया | जापान ने आजतक भारत के पूर्वोतर राज्यों, जिनमे अरुणाचल शामिल है, को विवादित क्षेत्र नहीं माना | इसीलिए उसने पूर्वोतर राज्यों में आधारभूत ढांचा जैसे सीमा के निकट सड़क, रेल, पाईप लाइन डालने जैसे काम करने का वायदा किया था | भारत खुश था कि इस तरह जापान भारत की मदद करके अपने दुश्मन चीन से परोक्ष रूप में युद्ध करेगा | पर ऐसा नहीं हुआ | जापान ने अचानक अरुणाचल को विवादित क्षेत्र मान लिया है और यह कह कर पल्ला झाड लिया कि विवादित क्षेत्र में वह कोई विकास कार्य नहीं करेगा | दरअसल जापान को समझ में आया कि वह दूसरों की लड़ाई में खुद के संसाधन क्यों झोंके | जबकि उसके पास टापुओं के स्वामित्व को लेकर पहले ही चीन से निपटने के कई विवादित मुद्दे हैं | इस तरह हमारी उम्मीदों पर पानी फिर गया |

जबकि होना यह चाहिए था कि हम अपनी सीमाओं पर आधारभूत ढांचा खुद ही विकसित करते | जिससे हमें दूसरों पर निर्भर नहीं रहना पड़ता | उधर चीन ने यही किया | 1986-89 की अरुणाचल की घटना के बाद, जब हमारी फौजों ने 1962 में मैकमोहन लाइन के पास वाले छोड़ दिए गये क्षेत्रों पर पुनः कब्ज़ा कर लिया तो चीन को एक झटका लगा | यह कब्ज़ा अधिकतर वायु सेना की भारी मदद से हुआ और आर्थिक दृष्टि से देश को काफी महंगा पड़ा | जिसका प्रभाव हमारी अर्थवयवस्था पर पड़ा और हमारी विदेशी मुद्रा के कोष कम हो गए | चीन नहीं चाहता था कि भारत ऐसी क्षमता का पुनः प्रदर्शन करे | इसलिए उसने तिब्बत में सीमा के किनारे आधारभूत ढाँचा तेज़ी से विकसित किया | पठारी क्षेत्र होने के कारण उसके लिए यह करना आसान था | जबकि अरुणाचल का पहाड़ कमज़ोर होने के कारण वहां लगातार भूस्खलन होते रहते हैं जिससे सड़क मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं और वहां की भौगोलिक दशा भी हमारे जवानों के लिए बहुत आक्रामक हैं | जहां अरुणाचल की सीमा की दूसरी तरफ आधारभूत ढांचे के कारण चीनी सेना पूरे साल डटी रहते है वहीं हमारे जवानों को इस सीमा पर जाकर अपने को मौसम के अनुकूल ढालने की कवायत करनी होती है | जिससे हमारी प्रतिक्रिया धीमी पड़ जाती है | 

दरअसल हमारे राजनेता विदेश नीति को घरेलू राजनीति और मतदाता की भावनाओं से जोड़कर तय करते हैं, ज़मीनी हकीकत से नहीं | इसलिए हम बार-बार मात खा जाते हैं | प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी इस बात का विशेष ध्यान रखना होगा कि वे जो भी कहें उसमे ज़मीनी सच्चाई और कूटनीति का संतुलित सम्मिश्रण हो |
अब सीमा पर आधारभूत ढांचे के विकास की ही बात को लें तो हमारे नेताओं के हाल में आये बयान इस बात को और स्पष्ट कर देंगे | जहां चीन ने यही काम करते समय दुनिया के किसी मंच पर कभी यह नहीं कहा कि वह ऐसा भारत के खिलाफ अपनी सीमा को सशक्त करने के लिए कर रहा है| उसने तो यही कहा कि वह अपने सीमान्त क्षेत्रों का आर्थिक विकास कर रहा है | जबकि भारत सरकार के हालिया बयानों में यही कहा गया कि सीमा पर रेल या सड़कों का जाल चीन से निपटने के लिए किया जा रहा है | यह भड़काऊ शैली है जिससे लाभ कम घाटा ज्यादा होता है | 

हकीकत यह है कि हमारी सेनाओं के पास लगभग 2 लाख करोड़ रूपए के संसाधनों की कमी है | जिसकी ख़बरें अख्बारों में छपती रहती हैं | अपनी इस कमजोरी के कारण हम अपने पड़ौसीयों पर दबाव नहीं रख पाते | जिसका फायदा उठा कर वे हमारे यहां अराजकता फैलाते रहते हैं | जरूरत इस बात की है कि हमारी विदेश नीति केवल नारों में ही आक्रामक न दिखाई दे बल्कि उसके पीछे सेनाओं की पूरी ताकत हो | तभी पड़ौसी कुछ करने से पहले दस बार सोचेंगे | विदेश नीति का पूरा मामला गहरी समझ और दूरदृष्टि का है, केवल उत्तेजक बयान देने का नहीं |

Monday, November 24, 2014

ज़रूरत नई रोजगार नीति की


बेरोजगारों की भीड़ बढ़ती दिख रही है। अपने देश के लिए वैसे तो यह समस्या शाश्वत प्रकार की है, लेकिन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सनसनीखेज तथ्य यह है कि पढ़े लिखे बेरोजगारों की समस्या ज्यादा गंभीर है। अपने यहां इसका लेखा-जोखा रखने का कोई रिवाज नहीं है। शायद इसलिए नहीं है क्योंकि इस समस्या का जिक्र कोई सरकार नहीं सुनना चाहती। अगर किसी के मुंह से सुनने को मिलता है तो सिर्फ उनसे जो सत्ता में नहीं होते और जिन्हें युवा शक्ति को लुभाने की जरूरत होती है। अब चूंकि हाल फिलहाल कहीं बड़े चुनाव नहीं है, लिहाजा राजनीतिक या मीडियाई हलचल दिखाई नहीं देती। जबकि अपने आकार और प्रकार में यह समस्या दूसरी बड़ी से बड़ी कथित समस्याओं पर भारी पड़ती है। 

    जैसा पहले कहा गया है कि बेरोजगारी का नया रूप पढ़े लिखे युवकों की बेरोजगारी का है और ज्यादा भयावह है। इसके साथ यह बात बड़ी तीव्रता से जुड़ी है कि जिन युवकों या उनके माता-पिता ने इस उम्मीद पर पढ़ाई-लिखाई पर अपनी हैसियत से ज्यादा खर्च कर दिया कि उनका बच्चा सब भरपाई कर देगा, उनके निवेश की बात पर गौर जरूरी है। 

    देश के औसत जिले में औसतन डेढ़ लाख युवक या प्रौढ़ बेरोजगार की श्रेणी में अनुमानित हैं। गांव और शहर के बीच अंतर पढ़ाई का है। गांव के बेरोजगारों पर चूंकि प्रत्यक्ष निवेश नहीं हुआ, सो उनकी आकांक्षा की मात्रा कम है और उसके पास भाग्य या अपनी भौगोलिक परिस्थितियों का बहाना है। जिसके सहारे वह मन मसोस कर रह सकता है। लेकिन शहर का बेरोजगार ज्यादा बेचैन है। उधर गांव में न्यूनतम रोजगार के लिए ऐसा कुछ किया भी गया है कि कम से कम अकुशल और अर्धकुशल मजदूरों के बीच यह समस्या उतनी ज्यादा नहीं दिखती। उनकी मजदूरी की दर या उनके ज्यादा शोषण की बात हो, तो सोच विचार के लिए उसे किसी और समय के लिए छोड़ना पड़ेगा। यानी निष्कर्ष यही निकलता है कि पढ़े लिखे बेरोजगारों की फौज हमारे सामने चुनौती बनकर खड़ी है। आइए, लगे हाथ इस भीड़ या फौज के कुछ पहलुओं पर चर्चा कर लें। 

    पिछली सदी के अंतिम दशक में सूचना प्रौद्योगिकी का बोलबाला हुआ। उस दौर में यानी राजीव गांधी के फौरन बाद जब सूचना क्रांति का माहौल बना तो ऐसा माहौल बन गया कि आगा पीछा सोचे बगैर भारी भीड़ सूचना प्रौद्योगिकी में ही उमड़ पड़ी। बाद में जरूरत से ज्यादा पनपा दिए गए इस क्षेत्र में सूचना प्रौद्योगिकी के कुशल युवकों खासतौर पर डिप्लोमा या सर्टीफिकेटधारियों का क्या हो रहा है ? हमारे सामने है। इस सदी के पहले दशक में प्रबंधन प्रौद्योगिकों का दौर चला। शायद ही कोई जिला हो, जहां बीसीए, बीबीए और दूसरे ऐसे कोर्सों के लिए कालेज न खुल गए हों। इन निजी संस्थानों में दाखिले के लिए जो भीड़ उमड़ी वह सिर्फ रोजगार की सुनिश्चितता के लिए उमड़ी थी। परंपरागत रूप से बारहवीं के बाद, जिन्हें कुशल बनने के लिए चार या पांच साल और लगाने थे, वे सर्टीफिकेट कोर्स या डिप्लोमा करने लगे। और साल दो साल के भीतर मजबूरन बेरोजगारों की भीड़ में खड़े होने लगे। स्नातक के बाद जिनके पास दफ्तरों मंे लिपिकीय काम पर लग जाने की गुंजाइश थी, वे महंगे व्यवसायिक पाठ्यक्रमों में दाखिला लेने के लिए उमड़ पड़े। 

सामान्य अनुभव है कि थोड़े बहुत प्रशिक्षित बेरोजगार को अगर काम मिल भी रहा है, तो वह काम नहीं मिल पा रहा है, जिस काम का उन्होंने प्रशिक्षण लिया है। देश में अगर औद्योगिक उत्पादन संकट में है, तो चीन और दूसरे देश अपने माल की यहां खपत के लिए पहले से ही तैयार बैठे हैं। लिहाजा हर जगह माल बेचने वाले युवकों की मांग है। परेशानी यह है कि माल बेचने वाले यानी सैल्समेन कितनी संख्या में खपेंगे ? 

    यानी किन क्षेत्रों में कितने कुशल कामगारों की या प्रशिक्षित व्यवसायिक मानव संसाधनों की जरूरत है, इसका हिसाब ही नहीं लगाया जाता। अगर कहीं लगाया भी जाता हो तो उसका अता पता नहीं चलता। यह ठीक है कि हम अब तक मानव संसाधन विकास पर लगे रहे हैं, लेकिन जरा ठहर कर देखें तो समझ सकते हैं कि अब हमें मानव संसाधन विकास से ज्यादा मानव संसाधन प्रबंधन की जरूरत है। और अगर कहीं मानव संसाधन विकास की जरूरत है भी तो कम से कम प्रशिक्षित व्यवसायिक स्नातकों की तो उतनी नहीं ही है, जितनी कुशल कामगारों की है। इसके लिए याद दिलाया जा सकता है कि देश के एक बड़े प्रदेश उप्र में कौशल विकास केंद्र वाकई मन लगाकर यह काम कर रहे हैं और उनके परिणाम भी अपेक्षा से कहीं बेहतर नजर आ रहे हैं। लेकिन देश में इक्का-दुक्का जगह ऐसा होना समग्र स्थिति पर ज्यादा असर नहीं डाल सकता। और उससे भी ज्यादा गौर करने की यह बात है कि ऐसे प्रयासों की समीक्षा करने तक का कोई प्रबंध नहीं है। बहरहाल, अगर जरूरत है तो रोजगार नीति को नए परिप्रेक्ष्य में बनाने की जरूरत है? 

Monday, November 10, 2014

ऐसे नाटक ज्यादा घातक



दिल्ली भाजपा के अधयक्ष सतीश उपाध्याय और उनके साथ शाजिया इल्मी के स्वच्छता अभियान वाले नाटक से नरेन्द्र मोदी के महत्वाकांक्षी कार्यक्रम को बड़ी चोट पहुंची है | यह मामला वैसे तो कोई बड़े महत्त्व का नहीं है लेकिन नई सरकार के आने के बाद जिन कार्यक्रमों की जोर-शोर से शुरुवात करने की कोशिश हुई है उसकी कमज़ोर कड़ियाँ दिखने लगी हैं |
दिल्ली के चमचमाते इलाके में ऐसे आयोजन की आखिर ज़रूरत क्या आन पड़ी थी ? इस सिलसिले में कोई अगर यह कहे कि उपाध्याय को यह इलाका किसी ने अपने हिसाब सुझा दिया होगा और उपाध्याय ने महत्वाकांक्षी कार्यक्रम के तहत आने वाले किसी भी आयोजन के लिए बिना सोचे समझे हामी भर दी होगी तो यह बात गले नहीं उतरती | टीवी चैनलों पर जिस तरह से व्यंग और उपहास करते हुए पहले सूखे पत्ते और फूल बिखेरते हुए दिखाया गया और बाद में उपाध्याय के साथ इल्मी को झाड़ू लगाने के समारोह में भाग लेते हुए दिखाया गया उससे तो पूरे अभियान पर सवाल उठाना स्वाभाविक है | इतने महत्वपूर्ण और सार्थक अभियान के मकसद पर उठ रहे सवाल सभी को सोचने को मजबूर कर रहे हैं |
कोई ऐसा भी कह सकता है कि नरेंद्र मोदी की प्राथमिकता वाले इस अभियान का यह प्राथमिक चरण है | यानी यह सिर्फ योजना बनाने वाला चरण है | लिहाज़ा योजना बनाने में ऐसे अंदेशों का भी निराकरण कर लिया जायेगा | लेकिन यहाँ इस बात पर गौर ज़रूरी है कि दिल्ली अब विधान सभा चुनाव की तैयारियों के दौर में पहुँच चुकी है | ऐसे में दिल्ली भाजपा अधयक्ष की छीछालेदर होना छोटी बात नहीं है | अनुमान कर सकते हैं कि भाजपा के केन्द्रीय स्तर पर इसे ज़रूर ही लेखे में ले लिया गया होगा |
इस प्रकरण के बहाने हमारे पास स्वच्छता अभियान के कुछ और महत्वपूर्ण पहलुओं पर कहने का मौका है | वैसे महीने भर पहले 6 अक्टूबर को इसी कॉलम में इसी मुद्दे पर लिखा गया था | वह 2 अक्टूबर के 4 दिन बाद का समय था | यानी तब स्वच्छता के प्रति नई सरकार की गंभीरता के रुझान बताने की शुरुआत थी | तब इस कॉलम में लिखा गया था कि सडकों और गलियों में फैले कूड़े कचरे को समेट कर एक जगह ढेर बना देने से काम पूरा नहीं हो सकता | समस्या इलाके से निकले कूड़े को शहर या गाव से बाहर फेंकने की है और उससे भी बड़ी समस्या यह कि गाव या शहर के बाहर कहाँ फेंके ? पिछले तीस साल में हर तरह से सोच के देख लिया गया और पाया गया कि कूड़े के अंतिम निस्तारण के लिए कोई भी विश्वसनीय उपाय उपलब्ध नहीं हो पाया है | जितने भी निरापद उपाय सोचे गए वे इतने खर्चीले हैं कि बेरोज़गारी और महंगाई सी जूझता देश वह खर्चा उठा नहीं सकता | अब यदि स्वच्छता को नई सरकार की प्राथमिकता में रखा ही गया है तो सबसे पहले योजनाकारों को यह हिसाब लगाना होगा कि इतने महत्वपूर्ण अभियान के लिए हम कितने धन का प्रबंध कर सकते हैं ? हो सकता है कि पांच महीने पुरानी हो गयी नई सरकार के बड़े अफसरों ने बड़ी तेज़ी से काम करके यह हिसाब लगा लिया हो | लेकिन नई सरकार की पहल या उसके क़दमों का पल-प्रतिपल हिसाब रखने वाले मीडिया में इस बारे में कोई सूचना दिखाए नहीं दी |
लोगों के बीच होने वाली बातों को देखें तो नरेंद्र मोदी के इरादों पर लोग अभी भी यकीन कर रहे हैं | बहुमत के साथ बनी सरकार का अर्थ ही ये है कि ज्यादातर लोग मन से चाहते हैं कि नई सरकार की योजनाएं परीयोजनाएं सफल हों | और अगर वे ऐसा चाहते हैं तो अपने हिस्से की ज़िम्मेदारी निभाने में लोग पीछे क्यों रहेंगे ? और इस बात से उन पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि अभिनेता या बड़े नेता या दूसरे सेलिब्रिटी सड़कों पर झाड़ू लगाते दिख रहे हैं या नहीं दिख रहे | वैसे ये मनोविज्ञान का मामला है | प्रचार में अभिनेताओं – नेताओं के इस्तेमाल की बात ठीक भी हो सकती है | फिर भी यह सवाल अपनी जगह है कि जागरूकता का लक्ष्य हासिल करने के बाद हमें कूड़े कचरे के जो बड़े बड़े ढेर उपलब्ध होंगे उनका निस्तारण हम कैसे करेंगे ?
अभियान का औपचारिक एलान हुए महीना भर हुआ है | अगर अभियान वाकई जोर पकड़ गया तो हमें फ़ौरन ही ठोस कचरा प्रबंधन का कोई नवोनवेशी उपाय ढूंढना पड़ेगा | बेहतर हो कि कचरा प्रबंधन के क्षेत्र में शोध परियोजनाएं अभी से शुरू कर ली जाएँ और कचरा प्रबंधन के लिए संसाधनों के इंतज़ाम पर सोचना शुरू कर दिया जाए | अभी से हिसाब लगा लिया जाए कि स्वच्छता अभियान को प्राथमिकता सूची में कहाँ रखा जाए | इन सुझावों को अभियान के पूर्व की सतर्कता की श्रेणी में रखा जा सकता है वरना उपाध्याय और इल्मी जैसे और भी प्रकरण सामने आते रह सकते हैं | कूड़े कचरे के बड़े बड़े ढेरों के पास कोई भी नहीं फटकना चाहेगा |