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Monday, January 11, 2021

वॉशिंगटन से सबक़


हारे हुए अहमक राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रम्प के समर्थकों ने अमरीकी संसद भवन ‘कैपिटौल’ पर जो गुंडागर्दी की उसे देख कर सारी दुनिया दंग रह गई। हर दूसरे देश को लोकतंत्र का सबक़ सिखाने की आत्मघोषित ‘नैतिक ज़िम्मेदारी’ का दावा करने वाले दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र का यह विद्रूप चेहरा अमरीकी नागरिकों को ही नही ख़ुद ट्रम्प के चहेते उप-राष्ट्रपति माइकल पेंस, मंत्रियों व सांसदों को भी नागवार गुज़रा। अमरीकी संविधान के अनुसार राष्ट्रपति के चुनावी नतीजों पर संसद के दोनों सदनों को स्वीकृति की मुहर लगानी होती है। जिसके लिए वे गत बुधवार को कैपिटौल में जमा हुए थे। हार से बौखलाए ट्रम्प ने अपने उप-राष्ट्रपति, मंत्रियों व सांसदों पर भारी दबाव डाला कि वे इन नतीजों को अस्वीकार कर लौटा दें। ग़नीमत है कि इन लोगों ने अपने नेता और अमरीका के मौजूदा राष्ट्रपति के इस ग़ैर-संविधानिक आदेश को मानने से मना कर दिया और डेमोक्रेटिक पार्टी के जीते हुए उम्मीदवार जो बाइडेन की जीत पर स्वीकृति की मुहर लगा दी। उप-राष्ट्रपति ने तो ट्रम्प से साफ़-साफ़ कह दिया कि वे अमरीका के उप-राष्ट्रपति हैं ट्रम्प के नहीं। इसलिए वे संविधान की अपनी शपथ के अनुसार उसकी रक्षा का काम करेंगे, उसके विरुद्ध नहीं। ट्रम्प सरकार की शिक्षा मंत्री निक्की हेली ने सत्ता हस्तांतरण से 12 दिन पहले मंत्रीपद से यह कहते हुए इस्तीफ़ा दे दिया कि,
जो कुछ हुआ वो शर्मनाक है। सारे देश के विद्यार्थियों ने भीड़ के तांडव को देखा, जिसका उनके मन पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा होगा। मैं इस सब से व्यथित हो कर अपने पद से इस्तीफ़ा दे रही हूँ। 



रिपब्लिकन पार्टी के इन नेताओं का हृदय परिवर्तन अमरीकी जनता और लोकतंत्र के लिए शुभ लक्षण हैं। अगर यह लोग चुनाव नतीजे आने के बाद ही जाग जाते और ट्रम्प को वो सब हरकतें करने से रोक देते जो इस सिरफिरे राष्ट्रपति ने पिछले दो महीने में की हैं तो रिपब्लिकन पार्टी की ऐसी जग-हँसाई नहीं होती। अब जब पानी सिर से ऊपर गुज़र गया तो इस घबराहट में इन सब ने डॉनल्ड ट्रम्प से पल्ला झाड़ा क्योंकि इन्हें भविष्य में अपने राजनैतिक कैरियर पर ख़तरा नज़र आ गया। ‘देर आयद दुरुस्त आयद’। दुनिया भर के राष्ट्राध्यक्षों ने कैपिटौल पर हुए हमले के लिए ट्रम्प के समर्थकों की कड़े शब्दों में आलोचना की है। अब भविष्य में ट्रम्प के साथ जो भी खड़ा होगा वो अपनी कब्र खुद खोदेगा। 


भारत के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को भी ट्वीट करके अमरीका में सत्ता हस्तांतरण को शांतिपूर्ण ढंग से किए जाने की अपील करनी पड़ी। ज़ाहिर है मोदी जी को इस बात पर पछतावा हुआ होगा कि उन्होंने अमरीका में जा कर ऐसे अहमक आदमी के लिए चुनाव प्रचार किया। उनका दिया नारा, ‘अबकि बार ट्रम्प सरकार’ उल्टा पड़ गया। मोदी जी ने शायद अमरीका और भारत के सम्बन्धों को और प्रगाढ़ बनाने के उद्देश्य से ऐसा किया होगा। पर जब उन्होंने ये नारा दिया था तो न सिर्फ़ अमरीकी समाज और मीडिया बल्कि भारतीय समाज पर भी इस पर आश्चर्य व्यक्त किया गया था। इससे पहले भारत के या किसी अन्य देश के प्रधान मंत्री या राष्ट्रपति ने दूसरे देश में जाकर उसके राष्ट्रपति का चुनाव प्रचार कभी नहीं किया था। चूँकि अब अमरीका में डेमोक्रेटिक पार्टी की सरकार है तो ये शंका व्यक्त करना निर्मूल न होगा कि मोदी जी के इस कदम से अमरीका में सत्तरूढ होने जा रही पार्टी में मोदी सरकार के विरुद्ध तल्ख़ी हो। हालंकि अपने व्यावसायिक हितों को ध्यान में रख कर बाइडेन की नई सरकार इस बात की उपेक्षा कर सकती है। क्योंकि अमरीका के लिए अपने व्यावसायिक हित पहले होते हैं। उधर बाइडेन ने यह साफ़ कह दिया है कि वे वैचारिक, धार्मिक या सामाजिक दृष्टि से बटे हुए अमरीकी समाज को जोड़ने का काम करेंगे क्योंकि वे हर अमरीकी के राष्ट्रपति हैं न कि केवल उनके जिन्होंने उन्हें वोट दिया।

 

कैपिटोल की घटना से विचलित होकर मैंने भी एक ट्वीट किया था जिसे नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी, शरद पवार, सुखविंदर सिंह बादल, अखिलेश यादव, मायावती, जयंत चौधरी, ममता बनर्जी, उद्धव ठाकरे, नीतीश कुमार व शरद यादव आदि को भी टैग किया। जिसमें मैंने इन सभी राजनैतिक दलों के नेताओं को वाशिंगटन की इस निंदनीय घटना से सबक़ सीखने की सलाह दी। ये कहते हुए कि किसी भी मुद्दे पर अपने चहेतों को इस तरह उकसा कर भीड़ का हिंसक हमला करवाना बहुत ख़तरनाक प्रवृत्ति है। जिससे न केवल लोकतंत्र ख़तरे में पड़ेगा बल्कि गुंडे और मवाली सत्ता पर क़ाबिज़ हो जाएँगे। इसलिए भारत के हर राजनैतिक दल को इस ख़तरनाक प्रवृति को पनपने से पहले कुचलने का काम करना चाहिए। वरना भविष्य में स्थितियाँ उनके हाथ में नहीं रहेंगी। शांतिपूर्ण प्रदर्शन और धरना करना या क़ानून व्यवस्था को भंग किए बिना नारे, पोस्टर लगाना या हड़ताल करना लोकतंत्र का स्वीकृत अंग है। जिसे पुलिस के डंडे से कुचलना अमानवीय और लोकतंत्र विरोधी होता है। हाँ विरोध प्रदर्शन में हिंसा या तोड़फोड़ बर्दाश्त नहीं की जानी चाहिए। 


ग़नीमत है आज़ादी से आजतक भारतीय लोकतंत्र में सत्ता का परिवर्तन शांतिपूर्ण ढंग से होता आया है और होता रहना चाहिए। तभी लोकतंत्र सुरक्षित रह पाएगा। जो भारत जैसी भौगोलिक, सांस्कृतिक, आर्थिक व सामाजिक विषमता वाले देश के लिए बहुत ज़रूरी है। दो दशक पहले, अपने इसी कॉलम में मैंने लोकतंत्र को भीड़तंत्र कहकर केंद्रीयकृत सत्ता का समर्थन किया था। क्योंकि तब मुझे लगता था कि बहुत सारे विवादास्पद विषयों का कड़े नेतृत्व से ही समाधान हो सकता है, लोकतंत्र से नहीं। पर पिछले 20 वर्षों के अनुभव के बाद केंद्रीयकृत नेतृत्व के ख़तरे समझ में आने लगे हैं। शासक की जवाबदेही, विपक्ष के साथ लगातार संवाद और सामूहिक निर्णय लेने की प्रक्रिया को अगर निष्ठा से अपनाया जाए तो लोकतंत्र ही समाज का हित कर सकता है, अधिनायकवाद नहीं। डोनाल्ड ट्रम्प के अधिनायकवादी रवैए से इस मान्यता की पुनः पुष्टि हुई है। वाशिंगटन में जो कुछ हुआ, वो किसी भी देश में कभी न हो इसके लिए हर राजनैतिक दल को सजग और सचेत रहना चाहिए। 

Monday, September 14, 2020

राज्यों के उड्डयन विभागों में हो रही कोताही को क्यों अनदेखा कर रहा है डीजीसीए?


जब से उत्तर प्रदेश सरकार के नागरिक उड्डयन के घोटाले सामने आएँ हैं तब से भारत सरकार का  नागर विमानन निदेशालय (डीजीसीए) भी सवालों के घेरे में आ गया है। कई राज्यों के नागरिक उड्डयन विभागों में हो रही ख़ामियों को जिस तरह डीजीसीए के अधिकारी अनदेखा कर रहे हैं  उससे वे न सिर्फ़ उस राज्य के अतिविशिष्ट व्यक्तियों की जान जोखिम में डाल रहे हैं। बल्कि राज्य की सम्पत्ति और वहाँ के नागरिकों की जान से भी खिलवाड़ कर रहे हैं। हाल ही में उत्तराखंड सरकार का नागरिक उड्डयन विकास प्राधिकरण (उकाडा) एक नियुक्ति को लेकर विवाद में आया। वहाँ हो रही पाइलट भर्ती प्रक्रिया में यूँ तो उकाडा ने भारत सरकार के नागर विमानन निदेशालय के सेवा निवृत उपमहानिदेशक को विशेषज्ञ के रूप में बुलाया गया था। लेकिन विशेषज्ञ की सलाह को दर किनार करते हुए चयन समिति ने एक संदिग्ध पाइलट को इस पद पर नियुक्त करना लगभग तय कर ही लिया था। 

ग़नीमत है कि समय रहते दिल्ली के कालचक्र समाचार ब्युरो के प्रबंधकीय सम्पादक रजनीश कपूर ने राज्य सरकार के नागरिक उड्डयन सचिव को इस विषय में एक पत्र लिख कर इस चयन में हुई अनियमित्ताओं की ओर ध्यान आकर्षित किया। कपूर के अनुसार जिस कैप्टन चंद्रपाल सिंह का चयन इस पद के लिए किया जा रहा था उनके ख़िलाफ़ डीजीसीए में पहले से ही कई अनियमित्ताओं की जाँच चल रही है, जिसे अनदेखा कर उकाडा के चयनकर्ता उसकी भर्ती पर मुहर लगाने पर अड़े हुए थे। कपूर ने अपने पत्र में नागरिक उड्डयन सचिव को इस चयन में हो रहे भ्रष्टाचार की जाँच की माँग भी की थी।  



विगत कुछ महीनों में राज्य सरकारों के उड्डयन विभागों के और विशिष्ट व्यक्तियों की सुरक्षा से जुड़े ऐसे कई मामले कालचक्र ब्यूरो द्वारा डीजीसीए में उठाए गए हैं। इसकी सीधी वजह यह रही कि यदि मामले नियम और सुरक्षा का आदर करने वाले उन राज्यों के पाइलट या कर्मचारी उठाते हैं, तो बौखलाहट में उन पर डीजीसीए झूठे आरोप ठोक कर और अकारण दंडात्मक कार्यवाही कर के उल्टे शिकायतकर्ता के ही पीछे पड़ जाता है। 


ग़ौरतलब है कि वीवीआईपी व्यक्तियों के विमानों को उड़ाने के लिए पाइलट के पास एक निश्चित अनुभव के साथ-साथ साफ़ सुथरी छवि का होना ज़रूरी होता है। उन पर किसी भी तरह की आपराधिक मामले की जाँच से मुक्त होना भी अनिवार्य होता है। पहाड़ी राज्य उत्तराखंड में मौसम के मिज़ाज और भौगोलिक स्थिति को देखते हुए यहाँ विशेष अनुभव वाले पाइलट ही उड़ान भर सकते हैं। 


संतोष की बात है कि इस भर्ती में हो रही अनियमित्ताओं की शिकायत को जब उत्तराखंड के मुख्यमंत्री के संज्ञान में लाया गया, उन्होंने इस गम्भीरता से लेते हुए उस संदिग्ध पाइलट की नियुक्ति पर रोक लगा दी। 


यहाँ सवाल उठता है कि भारत सरकार के नागर विमानन निदेशालय के अधिकारी राज्य सरकारों के नागरिक उड्डयन विभाग में हो रही ख़ामियों की ओर ध्यान क्यों नहीं देते? क्या वो तब जागेंगे जब फिर कोई बड़ा हादसा होगा? या फिर राज्यों के उड्डयन विभाग में हो रहे घोटालों में डीजीसीए के अधिकारी भी शामिल हैं?



उत्तराखंड के बाद अब बात हरियाणा की करें यहाँ के नागरिक उड्डयन विभाग में एक वरिष्ठ पाइलट द्वारा नियमों की धज्जियाँ उड़ाते हुए मार्च 2019 में एक नहीं दो बार ऐसी अनियमित्ताएं की जिसकी सज़ा केवल निलम्बन ही है। लेकिन क्योंकि इस पाइलट के बड़े भाई डीजीसीए में एक उच्च पद पर तैनात थे इसलिए उनपर किसी भी तरह की कार्यवाही नहीं की गई। ग़ौरतलब है कि हरियाणा राज्य सरकार के पाइलट कैप्टन डी एस नेहरा ने सरकारी हेलीकॉप्टर पर अवैध ढंग से टेस्ट फ्लाइट भरी। ऐसा उन्होंने सिंगल (अकेले) पायलट के रूप में किया और उड़ान से पहले के दो नियामक ब्रेथ एनालाइजर टेस्ट (शराब पीए होने का पता लगाने के लिए सांस की जांच) भी खुद ही कर डाली। एक अपने लिए और दूसरी, राज्य सरकार के एक पाइलट कैप्टन दिद्दी के लिए, जो कि उस दिन उनके साथ पिंजौर में मौजूद नहीं थे। आरोप है कि कैप्टन नेहरा ने कैप्टन दिद्दी के फर्जी दस्तखत भी किए। इस घटना के दो दिन बाद ही कैप्टन नेहरा ने एक बार फिर ग्राउंड रन किया और फिर से सिंगल पायलट के रूप में राज्य सरकार के हेलीकॉप्टर की मेनटेनेंस फ्लाइट भी की। इस बार उन्होंने उड़ान से पहले होने वाले नियामक और आवश्यक ब्रेथ एनालाइजर टेस्ट नहीं किया, बल्कि उस टेस्ट को उड़ान के बाद किया। जोकि नागरिक उड्डयन की निर्धारित आवश्यकताओं (सीएआर) का सीधा उल्लंघन है। इस बार भी उन्होंने फर्जीवाड़ा करते हुए, कैप्टन पी के दिद्दी के नाम पर प्री फ्लाइट ब्रेथ एनालाइजर एक्जामिनेशन किया और रजिस्टर पर उनके फर्जी हस्ताक्षर भी किए, क्योंकि उस दिन भी कैप्टन दिद्दी पिंजौर में नहीं थे। वे मोहाली में डीजीसीए के परीक्षा केंद्र में एटीपीएल की परीक्षा दे रहे थे।


इस गम्भीर उल्लंघन के प्रमाण को एक शिकायत के रूप में डीजीसीए को भेजा गया, लेकिन मार्च 2019 से इस मामले को डीजीसीए आज तक दबाए बैठी है। इसके पीछे का कारण केवल भाई भतीजावाद ही है। 



सवाल यह है की चाहे वो उत्तर प्रदेश की योगी सरकार की सुरक्षा में सेंध लगाने वाले और 203 शेल कम्पनियाँ चलाने वाले कैप्टन प्रज्ञेश मिश्रा हों या हरियाणा सरकार के कैप्टन नेहरा हों, भारत सरकार के नागर विमानन निदेशालय में तैनात उच्च अधिकारी, इनके द्वारा की गई अनियमत्ताओं को गम्भीरता से क्यों नहीं लेते? कहीं तो छोटी-छोटी अनियिमत्ताओं पर डीजीसीए तुरंत कार्यवाही करते हुए बेक़सूर पाइलटों या अन्य कर्मचारियों को कड़ी से कड़ी सज़ा देता है और कहीं कैप्टन नेहरा और कैप्टन मिश्रा जैसे ‘सम्पर्क’ वाले पाइलटों के ख़िलाफ़ कार्यवाही करने में महीनों गुज़ार देता है। ऐसा दोहरा मापदंड अपनाने के पीछे डीजीसीए के अधिकारी भी उतने ही ज़िम्मेदार हैं जितना कि एयरलाइन या राज्य सरकार के नागरिक उड्डयन विभाग पर नियंत्रण रखने वाले आला अफ़सर। मोदी सरकार के नागरिक उड्डयन मंत्री हों या राज्यों के मुख्यमंत्री उन्हें इस ओर ध्यान देते हुए इन दोषी अधिकारियों के ख़िलाफ़ कड़ी से कड़ी कार्यवाही करनी चाहिए। जिससे यह संदेश जा सके कि गलती करने और दोषी पाये जाने पर किसी को भी बख्शा नहीं जाएगा चाहे वो व्यक्ति कितना भी रसूखदार हो। क़ानून सबसे ऊपर है क़ानून से ऊपर कोई नहीं।

Monday, September 7, 2020

संसद सत्र में ‘शून्य काल’ क्यों नहीं?


श्री नरेंद्र मोदी भारत के अकेले ऐसे प्रधान मंत्री हैं जिन्होंने जब पहली बार प्रधान मंत्री के रूप में संसद में प्रवेश किया तो उसकी सीढ़ियों पर माथा टेक कर प्रणाम किया। यह भावुक दृश्य देख कर देश विदेश में बैठा हर भारतीय गद गद हो गया था। श्री मोदी ने दुनिया की सबसे बड़ी लोकतंत्र के संसद को मंदिर मानते हुए यह भाव प्रस्तुत किया। स्पष्ट है कि संसदीय परम्पराओं के लिए उनके माँ में पूर्ण सम्मान है। वैसे भारत में लोकतंत्र की परम्परा केवल अंग्रेजों की देन नहीं है। ईसा से छह सदी पूर्व सारे भारत में सैंकड़ों गणराज्य थे जहां समाज के प्रतिनिधि इसी तरह खुली सार्वजनिक चर्चा के द्वारा अपने गणराज्यों का संचालन करते थे। मध्य युग के राजतंत्र में भी जो राजा चरित्रवान थे और जिनके हृदय में जनता के लिए स्नेह था और जनता को अपनी संतान समझते थे, वे आम आदमी की भी बात को बड़ी गम्भीरता से सुनते और उसका निदान करते थे।
 


भारत की मौजूदा संसद की प्रक्रिया में कई देशों के लोकतांत्रिक शिष्टाचार का सम्मिश्रण है। जिसमें सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच सार्थक संवाद से क़ानून बनते हैं और समस्याओं के हल भी निकलते हैं। 


हर संसदीय क्षेत्र के लाखों मत्तदाता टीवी पर ये देखने को उत्सुक रहते हैं कि उनके सांसद ने संसद में क्या बोला। संवाद की इस प्रक्रिया में शालीन नौक-झौंक और टीका-टिप्पणी का आनंद भी दोनो पक्ष लेते हैं। विपक्ष, जो सत्तापक्ष को कटघरे में खड़ा करता है और सत्तापक्ष, जो मुस्कुरा कर इन हमलों को झेलता है और अपनी बारी आने पर हर प्रश्न का जवाब देश के सामने रखता है। कोई किसी का बुरा नहीं मानता।



लोकसभा के सत्रों में ऐसी अनेक रोचक घटनाएँ हुई हैं, जैसे समाजवादी नेता डा राम मनोहर लोहिया जब प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू पर तीखे हमले करते थे तो लगता था कि दोनों में भारी दुश्मनी है। पर भोजन अवकाश में जब नेहरू जी सदन के बाहर निकलते तो लोहिया जी के कंधे पर हाथ रख कर कहते, लोहिया तुमने गाली तो बहुत दे दी अब मेरे घर चलो दोनों लंच साथ करेंगे। जब-जब देश पर संकट आया तो जो भी विपक्ष में था उसने सरकार का खुल कर साथ दिया। सरकारों की भी कोशिश रहती है कि संसद के हर सत्र से पहले विपक्षी दलों के नेताओं के साथ विचार विमर्श करके ख़ास मुद्दों पर सहमति बना लें।


शून्य काल सदन के सत्र का वह समय होता है जब सांसदों को सरकार से सीधे प्रश्न करने की छूट होती है। यही सदन का सबसे रोचक समय होता है। क्योंकि जो बात अन्य माध्यमों से सरकार तक नहीं पहुँच पाती, वह शून्य काल में पहुँच जाती है। फिर उन कमियों को सुधारना सरकार की ज़िम्मेदारी होती है। इसलिए संसद के सत्र में शून्य काल का स्थगन नहीं होना चाहिए। जैसा इस बार किया जा रहा है। ऐसा नहीं है कि कोरोना के कारण इस तरह के संवाद की परिस्थिति न हो। अगर सत्र चल रहा है तो शून्य काल भी चल ही सकता है। 

 

आज के दौर में जिस तरह मीडिया ने अपनी भूमिका का पतन किया है उससे आम जनता की बात सत्ता तक पहुँचना मुश्किल हो गया है। ऐसे में जनता में घुटन और आक्रोश बढ़ता है। जिससे हानि सत्तापक्ष की ही होती है। सुशांत सिंह राजपूत एक होनहार युवक था। उसकी हत्या या आत्महत्या की जाँच ईमानदारी से होनी चाहिए और जो कोई भी दोषी हो उसे सजा मिलनी चाहिए। पर क्या 135 करोड़ भारतवासियों के लिए आज यही सबसे बड़ा सवाल है? करोड़ों की बेरोजगारी, 40 साल में सबसे नीचे गिरती हुई जीडीपी और जनता के स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास आदि के शाश्वत प्रश्न क्या इतने गौड़ हो गए हैं कि उन पर कोई चर्चा की आवश्यकता ही नहीं है। सुशांत सिंह राजपूत की मौत की गुत्थी सुलझते ही क्या इन सारी समस्याओं का हल एक रात में हो जाएगा?



लोकतंत्र में बस संसद ही तो है जहां जनता के वैध प्रतिनिधि सवाल पूछते है। सवालों के जरिए ही जनता का दुख-दर्द कहा जाता है। जवाबों से पता चलता है कि जनता की समस्याओं से सरकार का सरोकार कितना है। सरकार की जवाबदेही दिखाने के लिए संसद के अलावा और कोई जगह हो भी क्या सकती है? हालांकि कहने को तो कोई कह सकता है कि किसी को कुछ जानना हो तो वह सूचना के अधिकार के तहत जानकारी मांग सकता है। लेकिन प्रशासकों की जवाबदेही की हालत सबके सामने उजागर है। सूचना देने में हीलाहवाली और आनाकानी इतनी ज्यादा बढ़ती जा रही है कि आम जनता को यह तरीका थकाउ लगने लगा है। यानी संसद में प्रश्नकाल ही इकलौती कारगर व्यवस्था है। एकदम पारदर्शी भी है। 


बेशक देश इस समय चौतरफा संकटों की चपेट में है। अर्थव्यवस्था हो या महामारी से निपटने के इंतजाम हों या सीमा पर बढ़ते संकट हों, इतने सारे सवाल खड़े हो गए हैं कि जनता में बेचैनी और दुविधाएं बढ़ रही है। देश के कारोबारी माहौल पर ये दुविधाएं खासा असर डालती हैं। जबकि संसद में उठे सवालों का जवाब देकर बहुतेरी दुविधाएं खुद ब खुद खत्म हो जाती हैं। 



इतना ही नहीं, संसद में प्रश्नकाल सरकार के लिए भी एक अच्छा मौका होता है। खासतौर पर जनता के भीतर विश्वास पैदा करने में जिस तरह मंत्रालयों के बड़े अफसर और प्रवक्ता नाकाम हो रहे हैं वैसे में संसद में सत्तारूढ दल ही मोर्चा संभाल पाता है। संसद की कार्यवाही को मीडिया में अच्छी खासी जगह मिलती है। सरकार अपने जवाबों के जरिए जैसा प्रचार चाहे मीडिया में प्रचार भी करवा सकती है। सरकार को सवालों से डरना नहीं चाहिए यानी उसे आपदा नहीं मानना चाहिए बल्कि प्रश्नकाल को वह अवसर में बदल सकती है। 

Monday, August 3, 2020

भारतीय राजनीति में ‘अमर सिंह’ बने रहेंगे

64 वर्ष की आयु में अमर सिंह का सिंगापुर में देहांत हो गया। अमर सिंह जैसे बहुत लोग भारतीय राजनीति में हैं पर उनकी खासियत यह थी कि वे खुद को राष्ट्रीय प्रसारण में भी दलाल घोषित करने में नहीं हिचकते थे। सिंधिया परिवार, भरतिया परिवार, अम्बानी परिवार, बच्चन परिवार या यादव परिवार में फूट डलवाने का श्रेय अमर सिंह को दिया जा सकता है। उन पर आरोप था कि वे इन सम्पन्न, मशहूर व ताकतवर परिवारों में कूटनीति से फूट डलवाते थे और एक भाई का दामन थाम कर दूसरे का काम करवाते थे। शायद इसमें अपना फ़ायदा भी उठाते हों। 


बड़ी तादाद में फ़िल्मी हिरोइनों को राजनीति में या राजनैतिक दायरों में महत्व दिलवाने का काम भी अमर सिंह बखूबी करते थे। इसको लेकर अनेक विवाद उठे और सर्वोच्च न्यायालय तक गए। उनकी महारथ इतनी थी कि केंद्र में भाजपा सरकार के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपयी तक अपने दल के नेताओं से ज़्यादा अमर सिंह को तरजीह देते थे। यह उस समय भाजपा के नेताओं में चिंता और चर्चा का विषय रहता था और इसी कॉलम में मैंने तब इस पर टिप्पणी भी की थी। 


सरकारें गिरने व बचाने में सांसदों व विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त करवाने में भी अमर सिंह की महत्वपूर्ण भूमिका रहती थी। पाठकों को अरुण जेटली के घर अमर सिंह की देर रात हुई वो गोपनीय बैठक याद होगी जो मीडिया की सक्रियता से चर्चा में आ गई थी। क्योंकि उस समय के राजनैतिक माहौल में दो विरोधी दलों के नेताओं का इस तरह मिलना बड़े विवाद का कारण बना था। 


पत्रकारिता में रहते हुए हम लोगों का हर क़िस्म के राजनेता से सम्पर्क हो ही जाता है। खबरों को जानने की उत्सुकता में ऐसे सम्पर्क महत्वपूर्ण स्रोत होते हैं। इस नाते अमर सिंह से मेरा भी ठीक-ठाक सम्पर्क था। पर 1995 में एक घटना ऐसी हुई जिसके बाद अमर सिंह ने मुझ से सम्बंध तो सौहार्दपूर्ण रखे पर यह समझ लिया कि मैं उनके मतलब का व्यक्ति नहीं हूँ। हालांकि यह भी उन्हीं की विशेषता थी। ‘जैन हवाला कांड’ में सर्वोच्च न्यायालय की सख़्ती के बाद सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय सक्रिय हुआ और अनेक दलों के बड़े राजनेताओं में हड़कम्प मच गया, तो अमर सिंह भी दूसरों की तरह करोड़ों रुपए की रिश्वत का प्रस्ताव लेकर मेरे पास आए ताकि मैं इस मुद्दे को छोड़ दूँ। मेरे रूखे और कड़े रवैए से वे हताश हो गए और बाद में जगह जगह कहते फिरे कि विनीत नारायण .…… (मूर्ख) हैं, 100 करोड़ रुपए मिलते और केंद्र में मंत्रिपद


जिन दिनों उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार थी तब वे ‘उत्तर प्रदेश विकास परिषद’ के अध्यक्ष थे। उस नाते मैंने उन्हें वृंदावन आने का न्योता दिया। क्योंकि तब मैं ब्रज सेवा में जुट गया था। सरकार व प्रशासन की मदद के बिना बड़े स्तर का कोई भी विकास कार्य आसानी से पूरा नहीं होता, उसमें बहुत बाधाएँ आती हैं, इसलिए मुझे लगा कि अमर सिंह को बुलाने से इन सेवा कार्यों में मदद मिलेगी। 


इस आयोजन के बाद मैं अमर सिंह से मिलने दिल्ली गया और कहा कि ब्रज (मथुरा) के विकास को लेकर मैंने कुछ ठोस योजनाएँ तैयार की हैं, उसमें आप मेरी मदद करें। अमर सिंह ने सत्कार तो पूरा किया पर टका सा जवाब दे दिया। आप अमिताभ बच्चन की तरह मेरी घनिष्ठ मित्र तो हैं नहीं। ‘हवाला कांड’ में मैं एक प्रस्ताव ले कर आपके पास आया था, पर आपने तो मुझे बैरंग लौटा दिया। तो अब आप मुझसे किसी मदद की उम्मीद कैसे कर सकते हैं? मैं समझता हूं कि अमर सिंह जैसी स्थिति में शायद ही कोई साफ-साफ ऐसे कहने की हिम्मत करेगा। यह खासियत उनमें ही थी। 


अमर सिंह की एक फ़ितरत थी वो पैसे वाले लोगों के या अपने मित्रों के बड़े से बड़े काम चुटकियों करवा देते थे। इसकी वो पहले कोई क़ीमत तय नहीं करते थे। जैसा कि प्रायः इस तरह की दलाली करने वाले लोग किया करते हैं। उनका सिद्धांत था कि ज़रूरत पर मदद करो और सामने वाले से ये अपेक्षा रखो कि इस मदद के बाद वो हमेशा हर तरह की मदद करने को तत्पर रहेगा। अगर कोई इसमें कोताही कर दे तो उसे सबक़ सिखाना भी अमर सिंह को आता था। इस कारण उनके कई मित्रों से विवाद भी बहुत गम्भीर हुए। पर वह अलग मामला है।  


अब यह राजनीति की स्तर है कि जो व्यक्ति सरेआम अपने को दलाल कहता था उसकी हर राजनैतिक दल को कभी न कभी ज़रूरत पड़ी। उत्तर प्रदेश के पिछले विधान सभा चुनाव में शिवपाल यादव और अखिलेश यादव के बीच जो सार्वजनिक लड़ाई हुई उसमें भी माना जाता है कि अमर सिंह ने यह सब भाजपा के इशारे पर किया। इस तरह वो पिछले तीन दशकों में भारतीय राजनीति में एक चर्चित चेहरा बने रहे। यह साधारण नहीं है कि सबकुछ सबको पता था फिर भी वे अपने काम या लक्ष्य में कामयाब थे। स्पष्ट है कि ईमानदारी के, पारदर्शिता के, जनता के प्रति जवाबदेही के दावे चाहे कोई भी दल करे पर सबको हर स्तर पर एक ‘अमर सिंह’की ज़रूरत होती है। ऐसे ‘अमर सिंह’ कांग्रेस के राज में भी खूब पनपे, जनता दल के राज में भी सफल रहे और भाजपा शासन में भी इनकी कमीं नहीं है। हां दलाली करने के स्वरूप और तरीक़ों में भले ही अंतर हो। सांसद और विधायक पहले भी ख़रीदे जाते थे और आज भी ख़रीदे जा रहे हैं। सरकारी ठेकों में पहले भी दलालों की भूमिका रहती थी और आज भी। 


ऐसे दलाल न तो जनता के हित में कभी कुछ करते हैं न तो देश के हित में कुछ करते हैं। वो जो कुछ भी करते हैं वो अपने या अपने दोस्तों के फ़ायदे के लिए ही करते हैं। फिर भी इन्हें राजनैतिक दल संसदीय लोकतंत्र के सर्वोच्च स्तर पर राज्य सभा का सदस्य बनवा देते हैं। उस राज्य सभा का जिसमें समाज के प्रतिष्ठित, अनुभवी, ज्ञानी और समर्पित लोगों को बैठ कर बहुजन हिताय गम्भीर चिंतन करना चाहिए। जबकि ऐसे लोगों को वहाँ अपना धंधा चलाने का अच्छा मौक़ा मिलता है। इसलिए जब तक हमारी राजनीति छलावे, झूठे वायदों, दोहरे चरित्र और जोड़-तोड़ से चलती रहेगी तब तक भारतीय राजनीति में ‘अमर सिंह’ कभी नहीं मरेंगे। उन्हें श्रद्धांजलि। 

Monday, July 13, 2020

पुलिसवालों की पीड़ा समझिए

कानपुर में जिस तरह विकास दुबे ने 8 पुलिसवालों की निर्मम हत्या की उससे प्रदेश की ही नहीं देश भर के पुलिसकर्मियों में आक्रोश है। इस पूरे घटनाक्रम में उत्तर प्रदेश शासन के कुछ वरिष्ठ  अधिकारियों और नेताओं की भूमिका पर तमाम सवाल उठ रहे हैं। जिन्होंने इस जघन्य कांड के पहले और बाद भी विकास दुबे की मदद की। अभी बहुत सारे तथ्य सामने आने बाक़ी हैं जिन्हें दबाने के उद्देश्य से ही विकास दुबे को मारा गया। 


इसी संदर्भ में पुलिसवालों की तरफ़ से ये विचरोतेजक पोस्ट सोशल मीडिया पर आई है। 

मैं पुलिस हूँ...

मैं जानता था कि फूलन देवी ने नरसंहार किया है। मैं जानता था कि शाहबुद्दीन ने चंद्रशेखर प्रसाद के तीन बेटों को मारा है। मैं जानता था कि कुलदीप सेंगर का चरित्र ठीक नही है और उसने दुराचार किया है। मैं जानता था कि मलखान सिंह बिशनोई ने भँवरी देवी को मारा है। मैं जानता हूँ की दिल्ली के दंगो में अमानतुल्लाह खान ने लोगों को भड़काया। मैं जानता हूँ कि सैयद अली शाह गिलानी, यासीन मालिक, मीरवाज उमर फारूक आंतंकवादियो का साथ देते हैं।  लेकिन संविधान ने बोला की चुप ये सभी नेता है इनके बॉडीगार्ड बनो में बना क्यूँकि मैं पुलिस हूँ। आपको भी पता था की इशरत जहाँ, तुलसी प्रजापति आतंकवादी थे लेकिन फिर भी आपने हमारे वंजारा साहेब को कई सालों तक जेल में रखा। मैं चुप रहा क्योंकि में पुलिस हूँ। कुछ सालों पहले हमने विकास दुबे जिसने एक नेता का ख़ून किया था को आपके सामने प्रस्तुत किया था लेकिन गवाह के अभाव में आपने उसे छोड़ दिया था, मैं चुप रहा क्योंकि में पुलिस हूँ।


लेकिन माईलॉर्ड विकास दुबे ने इस बार ठाकुरों को नही, चंद्रशेखर के बच्चों को नही, भँवरी देवी को नही किसी नेता को नही मेरे अपने 8 पुलिस वालों की बेरहमी से हत्या की थी, उसको आपके पास लाते तो देर से ही सही लेकिन आप मुझे उसका बॉडीगार्ड बनने पर ज़रूर मजबूर करते इसी उधेड़बुन और डर से मैंने रात भर उज्जैन से लेकर कानपुर तक गाड़ी चलायी और कब नींद आ गयी पता ही नही चला और ऐक्सिडेंट हो गया और उसके बाद की घटना सभी को मालूम है। 


माईलॉर्ड कभी सोचिएगा की अमेरिका जैसे सम्पन्न और आधुनिक देश में पाँच सालों में पुलिस ने 5511 अपराधियों का एंकाउंटर किया वहीं हमारे विशाल जनसंख्या वाले देश में पिछले पाँच साल में 824 एंकाउंटर हुए और सभी पुलिस वालों की जाँच चल रही है।  


माईलॉर्ड मैं यह नही कह रहा हूँ की एंकाउंटर सही है लेकिन बड़े बड़े वकीलों द्वारा अपराधियों को बचाना फिर उनका राजनीति में आना और फिर आपके द्वारा हमें उनकी सुरक्षा में लगाना अब बंद होना चाहिये, सच कह रहा हूँ अब थकने लगे हैं हम, संविधान जो कई दशकों पहले लिखा गया था उसमें अब कुछ बदलाव की आवश्यकता है यदि बदलाव नही हुए तो ऐसी घटनाएँ होती रहेंगी और हम और आप कुछ दिन हाय तौबा करने के बाद चुप हो जाएँगे।


मूल में जाइए और रोग को जड़ से ख़त्म कीजिए, रोग हमारी क़ानून प्रणाली में है जिसे सही करने की आवश्यकता है अन्यथा देर सवेर ऐसी घटनाएं को सुनने के लिए तैयार रहिये 


पुलिस को स्वायत्ता दीजिए। हमें इन नेताओं के चंगुल से बचाइये ताकि देश और समाज अपने आप को सुरक्षित महसूस कर सके।


प्रार्थी 

नेताओं की कठपुतली 

हिंदुस्तान की पुलिस


यह बड़े दुख और चिंता की बात है कि कोई भी राजनैतिक दल पुलिस व्यवस्था के मौजूदा स्वरूप में बदलाव नहीं करना चाहता। इसलिए न सिर्फ पुलिस आयोगों और समितियों की सिफारिशों की उपेक्षा कर दी जाती है बल्कि आजादी के 73 साल बाद भी आज देश औपनिवेशिक मानसिकता वाले संविधान विरोधी पुलिस कानून को ढो रहा है। इसलिए इस कानून में आमूलचूल परिवर्तन होना परम आवश्यक है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की पुलिस को जनोन्मुख होना ही पड़ेगा। पर राजनेता ऐसा होने दें तब न। 


आज हर सत्ताधीश राजनेता पुलिस को अपनी निजी जायदाद समझता है। नेताजी की सुरक्षा, उनके चारो ओर कमांडो फौज का घेरा, उनके पारिवारिक उत्सवों में मेहमानों की गाडि़यों का नियंत्रण, तो ऐसे वाहियात काम है ही जिनमें इस देश की ज्यादातर पुलिस का, ज्यादातर समय जाया होता है। इतना ही नहीं अपने मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए या उन्हें नियंत्रित करने के लिए पुलिस का दुरूपयोग अपने कार्यकर्ताओं और चमचों के अपराधों को छिपाने में भी किया जाता है। स्थानीय पुलिस को स्थानीय नेताओं से इसलिए भय लगाता है क्योंकि वे जरा सी बात पर नाराज होकर उस पुलिस अधिकारी या पुलिसकर्मी का तबादला करवाने की धमकी देते हैं और इस पर भी सहयोग न करने वाले पुलिस अधिकारी का तबादला करवा देते हैं। इसका नतीजा ये हुआ है कि अब निचले स्तर के पुलिसकर्मियों के बीच तेजी से जातिवाद फैलता जा रहा है। अपनी जाति के लोगों को संरक्षण देना और अपनी जाति के नेताओं के जा-बेजा हुक्मों को मानते जाना आज प्रांतीय पुलिस के लिए आम बात हो गई है। खामियाजा भुगत रही है वह जनता जिसके वोटों से ये राजनेता चुने जाते हैं। किसी शहर के बुजुर्ग और प्रतिष्ठित आदमी को भी इस बात का भरोसा नहीं होता कि अगर नौबत आ जाए तो पुलिस से उनका सामना सम्माननीय स्थिति में हो पाएगा। एक तरफ तो हम आधुनिकरण की बात करते हैं और जरा-जरा बात पर सलाह लेने पश्चिमी देशों की तरफ भागते हैं और दूसरी तरफ हम उनकी पुलिस व्यवस्था से कुछ भी सीखने को तैयार नहीं हैं। वहां पुलिस जनता की रक्षक होती है, भक्षक नहीं। लंदन की भीड़ भरी सड़क पर अक्सर पुलिसकर्मियों को बूढ़े लोगों को सड़क पार करवाते हुए देखा जा सकता है। पश्चिम की पुलिस ने तमाम मानवीय क्रिया कलापो से वहां की जनता का विश्वास जीत रखा है। जबकि हमारे यहां यह स्वप्न जैसा लगेगा।


पुलिस आयोग की सिफारिश से लेकर आज तक बनी समितियों की सिफारिशों को इस तरह समझा जा सकता है; पुलिस जनता के प्रति जवाबदेह हो। पुलिस की कार्यप्रणाली पर लगातार निगाह रखी जाए। उनके प्रशिक्षण और काम की दशा पर गंभीरता से ध्यान दिया जाए। उनका दुरूपयोग रोका जाए। उनका राजनीतिकरण रोका जाए। उन पर राजनीतिक नियंत्रण समाप्त किया जाए। उनकी जवाबदेही निर्धारित करने के कड़े मापदंड हों। पुलिस महानिदेशकों का चुनाव केवल राजनैतिक निर्णयों से प्रभावित न हों बल्कि उसमें न्यायपालिका और समाज के प्रतिष्ठित लोगों का भी प्रतिनिधित्व हो। इस बात की आवश्यकता महसूस की गई कि पुलिस में तबादलों की व्यवस्था पारदर्शी हो। उसके कामकाज पर नजर रखने के लिए निष्पक्ष लोगों की अलग समितियां हों। पुलिस में भर्ती की प्रक्रिया में व्यापक सुधार किया जाए ताकि योग्य और अनुभवी लोग इसमें आ सकें। आज की तरह नहीं जब सिफारिश करवा कर या रिश्वत देकर अयोग्य लोग भी पुलिस में भर्ती हो जाते हैं। जो सिपाही या इन्सपेक्टर मोटी घुस देकर पुलिस की नौकरी प्राप्त करेगा उससे ईमानदार रहने की उम्मीद कैसे की जा सकती है ? पुलिस जनता का विश्वास जीते। उसकी मददगार बनें। अपराधों की जांच बिना राजनैतिक दखलंदाज़ी के और बिना पक्षपात के फुर्ती से करे। लगभग ऐसा कहना हर समिति की रिपोर्ट का रहा है। पर लाख टके का सवाल यह है कि क्या हो यह तो सब जानते हैं, पर हो कैसे ये कोई नहीं जानता। राजनैतिक इच्छाशक्ति के बिना कोई भी सुधार सफल नहीं हो सकता।

Monday, April 20, 2020

कोरोना क़हर में पुलिस के जबाँजो का सहयोग करें

आज जब पूरा विश्व कोरोना की महामारी से जूझ रहा है, भारत में पुलिसवालों या कहें कोरोना के जाँबाज़ों को एक अलग ही तरह के समस्या का सामना करना पड़ रहा है। इंदौर हो, पटियाला हो, मुरादाबाद हो, या राजस्थान  जिस तरह से पुलिसकर्मियों को कुछ ख़ास इलाक़ों में जाहिल लोगों के ग़ुस्से का सामना करते हुए अपना फ़र्ज़ निभाना पड़ रहा है वो क़ाबिले तारिफ़ है।

सोशल मीडिया पर आपको ऐसे कई विडियो देखने को मिलेंगे जहां पुलिसकर्मी अपने घर भी नहीं जा पा रहे हैं। यदि वो अपनी ड्यूटी करने की जगह से दोपहर का भोजन करने भी घर जाते हैं तो परिवार से दूर, खुले आँगन में ही भोजन कर तुरंत ड्यूटी पर लौट जाते हैं। उनके छोटे बच्चे उन्हें घर पर कुछ देर और ठहरने के लिए फ़रियाद करते रह जाते हैं । 

विश्व के अन्य देशों के मुक़ाबले हमारे देश में अगर कोरोना के क़हर की रफ़्तार फ़िलहाल कम है तो वो केवल मोदी जी के लाक्डाउन के इस सख़्त कदम और उसे लागू करने में इन पुलिसकर्मियों की वजह से ही है । 

सड़कों पे तैनात इन पुलिसकर्मियों को कड़ी धूप में रह कर अपनी ड्यूटी करनी पड़ रही है। कई जगह तो इनके सर पर कनात तक नहीं है। लेकिन सिर्फ़ कनात होने से काम नहीं चलता। आने वाले दिनों में पारा और ऊपर जाएगा तो पूरी बाजू की वर्दी पहन कर ड्यूटी करना इनके लिये और कठिन हो जाएगा। आपने पढ़ा होगा कि कुछ ज़ाहिल लोगों ने किस बेदर्दी से पटियाला पुलिस के अफ़सर हरजीत सिंह का हाथ काटा। ज़रा सोचें इसका क्या असर पुलिस फ़ोर्स के मनोबल पर पड़ेगा? ये घोर निंदनीय कृत्य था, जिसका पूरे समाज को ताक़त से विरोध करना चाहिये। 

हमें सोचना चाहिए कि चाहे वो महिला पुलिसकर्मी हों या पुरुष इनका योगदान हमारे जीवन की रक्षा के लिये अतुल्य है। जहां ये पुलिसकर्मी न सिर्फ़ सड़कों पर तैनात हो कर दिन रात चौकसी से अपनी ड्यूटी कर रहे हैं वहीं  जरूरतमंदों को राशन व अन्य ज़रूरी सामान भी पहुँचा रहे हैं। महिला पुलिसकर्मी अपने अपने थानों में रहकर न सिर्फ़ अपनी सामान्य ड्यूटी कर रही हैं बल्कि ज़रूरतमंदो के लिए फ़ेस मास्क भी सिल रहीं हैं। कुछ शहरों से तो ये भी खबर आई है कि पुलिसकर्मी बेज़ुबान जानवरों को भी भोजन दे रहे हैं।

इसलिये प्रधान मंत्री हों, आम लोग हों या मशहूर हस्तियाँ, आज सभी लोग बढ़-चढ़ कर इन जाँबाज़ों की खुल कर तारीफ कर रहे हैं। यहाँ तक कि कोरोना से लड़ने वाले डाक्टर भी इन पुलिसकर्मियों के सहयोग के बिना कुछ नहीं कर पाएँगे। इसलिए हम सबको, चाहे हम किसी भी धर्म या जाति के हों बिना किसी के उकसाये में आए पुलिस विभाग के इन वीरों को सम्मान देना चाहिए। जहां तक संभव हो उनकी देखभाल भी करनी चाहिये। आपके घर के पास तैनात पुलिसकर्मी को चाय-पानी पूछना तो मानवता का सामान्य तक़ाज़ा है । 

आज अगर पुलिसकर्मी अपनी ड्यूटी ठीक से न करें तो लाकडाउन के बेअसर होने में देर नही लगेगी। कौन जाने फिर हमारे देश में भी कोरोना से संक्रमित होने वालों की संख्या अमरीका से कई अधिक हो जाए। इसलिये समय की माँग ये है कि हम सब जब अपने अपने घरों में आराम से बैठे हैं तो हम से जो भी बन पड़े इन पुलिसकर्मियों का सहयोग करना चाहिए। वो सहयोग किसी भी तरह से हो सकता है। युवा साथी स्वयमसेवकों कि तरह उनसे सहयोग करें। हर मोहल्ले में प्रवेश और निकासी पर कुछ ज़िम्मेदार नागरिक भी अपनी सेवाएँ भी दे सकते हैं। अगर आपके मोहल्ले में या आसपास में कुछ मज़दूर या कामगार लोग रहते हैं तो उन्हें भोजन बाँटने में भी आप पुलिस का सहयोग करें। 

इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि अगर ये पुलिसकर्मी, जो अपनी जान खतरे में डालकर हमारी जान बचा रहे हैं, तो इनका आभार प्रकट करने के लिए हमें प्रधान मंत्री जी की अपील का इंतेज़ार न करना पड़े बल्कि हम स्वयं ही ये कार्य करें।

आज जाहिल जमातियों ने अपने लोगों में ऐसा डर फैला दिया गया है कि जो भी डाक्टर इनकी जाँच के लिए इनके इलाक़े में आ रहा है वो इन्हें गिरफ़्तार करने आए हैं, जबकि ये सत्य नहीं है। इसलिये इसी समाज के चर्चित चेहरों  को अपने समाज के लोगों से ये अपील करनी चाहिए कि वो सभी पुलिसकर्मियों और डाक्टरों का सहयोग करें और जैसा सिनेस्टार सलमान खान ने भी कहा कि ऐसा न करके वे न सिर्फ़ अपनी ही मौत का कारण बन रहे हैं बल्कि समाज के लिए भी एक बड़ा ख़तरा बनते जा रहे हैं।

जिस तरह से समाज के कई वर्गों से ग़रीबों व जरूरतमंदों को भोजन व राशन मुहैया कराया जा रहा है ठीक उसी तरह सरकार और समाज सेवी संस्थाओं को कोरोना के युद्ध में जुटे इन सिपाहियों के बारे में भी कुछ ठोस कदम उठाने चाहिये। 

ग़ौरतलब है कि 1977 में बनी जनता पार्टी की पहली सरकार ने एक राष्ट्रीय पुलिस आयोग का गठन किया था जिसमें तमाम अनुभवी पुलिस अधिकारियों व अन्य लोगों को मनोनीत कर उनसे पुलिस व्यवस्था में वांछित सुधारों की रिपोर्ट तैयार करने को कहा गया। आयोग ने काफी मेहनत करके अपनी रिपोर्ट तैयार की पर बड़े दुख की बात है कि इतने बरस बीतने के बाद भी आज तक इस रिपोर्ट को लागू नहीं किया गया। इसके बाद भी कई अन्य समितियां बनी जिन्हें यही काम फिर-फिर सौंपा गया। आजतक भारतीय पुलिस की जो छवि है वो जनसेवी की नहीं अत्याचारी की रही है। लेकिन कोरोना के कहर के समय जिस तरह पुलिसकर्मी आज जनता के रक्षक के रूप में उभर के आए हैं, लगता है कि सरकार को अब पुलिस सुधार के लिए अवश्य कुछ करना चाहिए। पर लाख टके का सवाल यह है कि क्या हो यह तो सब जानते हैं, पर हो कैसे ये कोई नहीं जानता। राजनैतिक इच्छाशक्ति के बिना कोई भी सुधार सफल नहीं हो सकता। अनुभव बताता है कि हर राजनैतिक दल पुलिस की मौजूदा व्यवस्था से पूरी तरह संतुष्ट है। क्योंकि पूरा पुलिस महकमा राजनेताओं की जागीर की तरह काम कर रहा है। जनता की सेवा को प्राथमिकता मानते हुए नहीं। फिर बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे ?

Monday, April 13, 2020

शाबाश केरल: कमाल कर दिया

कोरोना वायरस का भारत में सबसे पहला मामला 30 जनवरी 2020 को केरल में पाया गया था। तब से आज तक कोरोना के कारण केरल में केवल 2 मौतें हुई हैं। इस दौरान 1.5 लाख लोगों की टेस्टिंग हो चुकी है, 7447 लोगों में संक्रमण पाया गया और 643 लोग इलाज के बाद ठीक हो कर चले गए। 

जहां भारत के मीडिया का एक बड़ा हिस्सा कोरोना को लेकर हड़बड़ाहट में, रात दिन साम्प्रदायिक ज़हर उगल रहा है, वहीं दुनिया भर के मीडिया में कोरोना प्रबंधन को लेकर केरल सरकार द्वारा समय रहते उठाए गए प्रभावी कदमों की जमकर तारीफ़ हो रही है। विशेषकर केरल की स्वास्थ्य मंत्री सुश्री शैलजा टीचर की, जो बिना डरे रात दिन इस माहमारी से लड़ने के सड़कों, घरों, अस्पतालों  में प्रभावशाली इंतजाम में जुटी रही हैं। 

अगर पूरे भारत की दृष्टि से देखा जाए तो केरल भारत का अकेला ऐसा राज्य है जिसके सामने कोरोना से लड़ने की चुनौती सबसे ज़्यादा थी। इसके तीन कारण प्रमुख हैं। भारत में  सबसे ज़्यादा विदेशी पर्यटक केरल में ही आते हैं और लम्बे समय तक वहाँ छुट्टियाँ मनाते हैं। चूँकि कोरोना विदेश से आने वाले लोगों के मध्यम से आया है इसलिए इसका सबसे बड़ा ख़तरा केरल को था। दूसरा; केरल का शायद ही कोई परिवार हो जिसका कोई न कोई सदस्य विदेशों में काम न करता हो और उसका लगातार अपने घर आना जाना न हो।  केरल की 17.5 फ़ीसदी आबादी विदेशों से रहकर आयी है। इसलिए इस बीमारी को केरल में फैलने ख़तरा सबसे ज़्यादा था। तीसरा; केरल भारत का सबसे ज़्यादा सघन आबादी वाला राज्य है। एक वर्ग किलोमीटर में रहने वाली आबादी का केरल का औसत शेष भारत के औसत से कहीं ज़्यादा है। इसलिए भी इस बीमारी के फैलने का यहाँ बहुत ख़तरा था। इसके बावजूद आज केरल सरकार ने हालात क़ाबू में कर लिए हैं। फिर भी स्वास्थ्य मंत्री सुश्री शैलजा टीचर का कहना है, हम चैन से नहीं बैठ सकते, क्योंकि पता नहीं कब ये माहमारी, किस रूप में फिर से आ धमके। 

आम तौर पर हम सनातन धर्मी लोग वामपंथी विचारधारा का समर्थन नहीं करते क्योंकि हम ईश्वरवादी हैं और वामपंथी नास्तिक विचारधारा के होते हैं। पर पिछले तीन महीनों के केरल की वामपंथी सरकार के इन प्रभावशाली कार्यों ने यह सिद्ध किया है कि नास्तिक होते हुए भी अगर वे अपने मानवतावादी सिद्धांतों का निष्ठा से पालन करें तो उससे समाज का हित ही होता है।

सबसे पहली बात तो केरल सरकार ने ये करी कि उसने बहुत आक्रामक तरीक़े से फ़रवरी महीने में ही हर जगह लोगों के परीक्षण करने शुरू कर दिए थे। इस अभियान में स्वास्थ्य मंत्री ने अपने 30 हज़ार स्वास्थ्य सेवकों को युद्ध स्तर पर झौंक दिया। नतीजा यह हुआ कि अप्रेल के पहले हफ़्ते में पिछले हफ़्ते के मुक़ाबले संक्रमित लोगों की संख्या में 30% की गिरावट आ गई। आज तक केरल में कोरोना से कुल 2 मौत हुई हैं और संक्रमित लोगों में से सरकारी इलाज का लाभ उठाकर 34% लोग स्वस्थ हो कर घर लौट चुके हैं। उनकी यह उपलब्धि भारत के शेष राज्यों के मुक़ाबले बहुत ज़्यादा और प्रभावशाली है। जबकि शेष भारत में लॉक्डाउन के बावजूद संक्रमित लोगों की संख्या व मरने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है। 

ये सही है कि इटली, स्पेन, जर्मनी, इंग्लेंड और अमरीका जैसे विकसित देशों के मुक़ाबले भारत का आँकड़ा प्रभावशाली दिखाई देता है। पर इस सच्चाई से भी आँखे नहीं मीचीं जा सकती कि शेष भारत में कोरोना संक्रमित लोगों के परीक्षण का सही आँकड़ा ही उपलब्ध नहीं है। मेडिकल उपकरणों की अनुपलब्धता, टेस्टिंग सुविधाओं का आवश्यकता से बहुत कम होना और कोरोना को लेकर जो आतंक का वातावरण मीडिया ने पैदा किया उसके कारण लोगों का परीक्षण कराने से बचना। ये तीन ऐसे कारण हैं जिससे सही स्थिति का आँकलन नहीं किया जा सकता। इसलिए पिछले हफ़्ते ही मैंने प्रधान मंत्री श्री मोदी जी को सोशल मीडिया के मध्यम से सुझाव दिया था कि वे हर ज़िले के ज़िलाधिकारी को निर्देशित करें कि वे अपने ज़िले में हर दिन  किए गए परीक्षणों की संख्या और संक्रमित लोगों की संख्या अपनी वेबसाइट पर पोस्ट करें। जिसकी गणना करके फिर नैशनल इन्फ़र्मैटिक्स सेंटर (NIC) सही सूचना जारी करता रहे। उल्लेखनीय है कि प्रधान मंत्री जी की पहल पर शुरू किया गया ‘आरोग्य सेतु’ ऐप इस दिशा में एक सराहनीय कदम है पर यह भी उस कमी को पूरा नहीं करता जो ज़िलाधिकारी कर सकते हैं। 

अमरीका के सबसे प्रथिष्ठित अख़बार ‘द वॉशिंगटन पोस्ट’ ने लिखा है कि केरल का उदाहरण भारत सरकार के लिए अनुकरणीय है। क्योंकि पूरे देश का लॉक्डाउन करने के बावजूद भारत में संक्रमित लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है और इस लेख के लिखे जाने तक लगभग 7.5 हज़ार लोग संक्रमित हो चुके हैं और क़रीब 240 लोग अकाल मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं। 

हालाँकि केरल में भी स्वास्थ्य सेवाओं की दशा बहुत हाई क्लास  नहीं थी पर उसने जो कदम उठाए, जैसे लाखों लोगों को भोजन के पैकेट बाँटना, हर परिवार से लम्बी प्रश्नावली पूछना और आवश्यकता अनुसार उन्हें सामाजिक सुरक्षा उपलब्ध कराना, संक्रमित लोगों को तुरंत अलग कर उनका इलाज करना जैसे कुछ ऐसे कदम थे जिनसे केरल को इस माहमारी को नियंत्रित करने में सफलता मिली है। केरल के हवाई अड्डों पर भारत सरकार से भी दो हफ़्ते पहले यानी 10 फ़रवरी से ही विदेशों से आने वालों यात्रियों के परीक्षण शुरू कर दिए गए थे। ईरान और साउथ कोरिया जैसे 9 देशों से आने वाले हर यात्री को अनिवार्य रूप कवारंटाइन में भेज दिया गया। पर्यटकों और अप्रवासी लोगों को कवारंटाइन में रखने के लिए, पूरे राज्य में भारी मात्रा में अस्थाई आवास ग्रह तैयार कर लिए गए थे। 

इसका एक बड़ा कारण यह है कि पिछले 30 सालों में केरल की सरकार ने ‘सबको शिक्षा और सबको स्वास्थ्य’ के लिए बहुत काम किया है। जबकि दूसरी तरफ़ शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं का व्यवसाईकरण करने के हिमायती विकसित पश्चिम देश अपनी इसी मूर्खता का आज ख़ामियाज़ा भुगत रहे हैं। अमरीका जैसे देश के राष्ट्रपति ट्रम्प का कहना कि अमरीका में इस महामारी से 1 से 2.5 लाख लोग मर सकते हैं, अगर 1 लाख से कम मरे तो हम इसे अपनी सफलता मानेंगे। ऐसा इसलिए है कि अमरीका में जनस्वास्थ्य सेवाओं का आभाव है और इसलिए वहाँ चिकित्सा बहुत महंगी होती है। केरल के इस अनुभव से सबक़ लेकर भारत सरकार को शिक्षा और स्वास्थ्य के व्यवसाईकरण पर रोक लगाने के लिए फिर  से सोचना होगा। क्योंकि पहले तो मौजूदा संकट से निपटना है फिर कौन जाने कौन सी विपदा फिर आ टपके ।

Monday, March 30, 2020

सड़कों पे दौड़ते बदहवास लोग

1918 में स्पैनिश फ़्लू से भारत में लगभग 2 करोड़ लोग मारे थे जबकि उस वक्त भारत की आबादी 20 करोड़ थी। कोरोना का असर कब तक, कितना घातक और किस किस इलाक़े में होगा उसका अभी कोई आँकलन नहीं है। कारण यह है कि जब से चीन में कोरोना फैला है तब से दुनिया भर से लगभग 15 लाख लोग भारत आ चुके हैं और ये पूरे भारत में फैल गए हैं। इनमें से कितने लोग कोरोना के पॉज़िटिव हैं कोई अंदाज़ा भी नहीं लगा सकता। क्योंकि कोरोना के परीक्षण करने की बहुत सीमित सुविधाएँ देश में उपलब्ध हैं। ऐसे में विभिन्न देशों के अलग अलग विशेषज्ञों द्वारा भारत में कोरोना के सम्भावित असर पर अनेकों तरह की भविष्यवाणियाँ की जा रही हैं। जो झकझोरने और आतंकित करने वाली हैं।

इन सब विशेषज्ञों का मानना है कि भारत बहुसंख्यक गरीब आबादी जिसके लिए  सामाजिक दूरी बना कर रहना असम्भव है, अगर वो इस बीमारी की चपेट में आ गई तो इस भयावक स्तिथि पर क़ाबू पाना दुष्कर हो जाएगा। जब मेडिकल सुविधाओं में दुनिया का अग्रणी देश इटली कोरोना के क़हर के आगे लाचार हो गया तो भारत जैसे देश की क्या बिसात है?

वहीं ज्योतिषों का नक्षत्रों के अध्ययन  के आधार पर यह दावा किया जा रहा है कि 14 अप्रेल के बाद कोरोना के क़हर से स्वतः ही मुक्ति मिल जाएगी। यहाँ यह दर्ज करना उल्लेखनीय है कि ऐसा कोई दावा वैज्ञानिकों द्वारा नहीं किया जा रहा, जब तक कि कोरोना को भगाने का वैक्सिन सहजता से सब के लिए उपलब्ध न हो। 

ऐसे में ‘लाक्डाउन’ ही सबसे कारगर तरीक़ा हो सकता था और वही प्रधान मंत्री मोदी जी ने देश भर में लागू किया। जहां ‘लाक्डाउन’ के फ़ायदे हैं वहाँ इसका जो दुष्प्रभाव अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है उससे उबरने में लम्बा समय लगेगा। इस ‘लाक्डाउन’ में उन लोगों को पर तो केवल मनोवैज्ञानिक दबाव है जिनके पास घर बैठ कर परिवार के पालन पोषण के लिए समुचित संसाधन हैं। उनकी समस्या तो फ़िलहाल केवल समय काटने की है या फिर उन्हें भविष्य की चिंता है। 

पर ‘लाक्डाउन’ का सबसे ज़्यादा असर आम आदमी पर पड़ा है। जो रोज़गार की तलाश में अपने गाँव और जंगल छोड़ कर करोड़ों की तादाद में शहरों की गंदी बस्तियों में दिहाड़ी मज़दूर की तरह रह रहा है। इनके पास न तो पेट भरने को पैसे हैं और न तो घर लौटने को साधन। मजबूरी में ऐसे हज़ारों लोग कई दिन भूखे रह कर, अपनी पोटली सिर पर लाद कर, अपने गाँवों के लिए सपरिवार पैदल ही निकल पड़े हैं। ऐसे में राज्य सरकारों को कुछ ऐसा करना चाहिए जैसा कि कांवड यात्रा के दौरान जगह जगह पड़ाव बनाए जाते हैं। इन पड़ावों में यात्रियों के लिए भोजन, आराम और कोरोना के जाँच की सुविधा भी होनी चाहिए जिससे कि संक्रमित व्यक्तियों को आगे जाने से रोका जाए और बचे हुए लोगों को उनके गंतव्य तक सुरक्षित भेजा जा सके। इसके लिए प्रशासन को सेवानिवृत स्वास्थ्य अधिकारी, जैसे कि नर्स, डाक्टर इत्यादि की मदद लेनी चाहिए। 

पर महानगरों से कई सौ मील दूर बसे अपने गाँव पहुँचने के लिए इनके पास न तो शरीर में ताक़त है न ऊर्जा। इस भीड़ में बदहवास महिलाएँ और बच्चे भी हैं। इस महापलायन के हृदयविदारक चित्रों को देख कर कलेजा मुँह को आ जाता है। ज़्यादा सम्भावना इस बात की है कि ये बेचारे कहीं रास्ते में ही दम न तोड़ दें। इनके लिए सरकार को व्यापक प्रबंध करने चाहिए। फ़ौज के ट्रक इन्हें इनके गंतव्य तक पहुँचा सकते हैं। 

केंद्र और राज्य सरकारें ऐसे लोगों की मदद के लिए अनेक कदम उठा रही हैं। पर हम जानते हैं जब कहीं प्राकृतिक विपदा जैसे बाढ़ या भूचाल आती है, तो राहत का ज़्यादातर पैसा भ्रष्टाचार की बलि चढ़ जाता है। गरीब तक तो पहुँचता ही नहीं। 

दरअसल इन लोगों की ये समस्या आज नई पैदा नहीं हुई है। इसकी जड़ में है भारत के आर्थिक विकास का वो मॉडल जिसे आज़ादी के बाद लागू किया गया। यह सही है कि इस मॉडल ने भारत में आधारभूत ढाँचा खड़ा करने में बड़ी भूमिका निभाई। परंतु इस दौड़ में गांधी जी का ग्राम स्वराज का मॉडल बहुत पीछे छूट गया। 

जबकि उस  मॉडल के अनुसार भारत के 5.5 लाख गाँवों को हर मामले में आत्मनिर्भर बनाना था। जैसे वे 200 साल की अंग्रेज़ी हुकूमत के पहले हुआ करते थे। पर यह नहीं हुआ। सारा ज़ोर उद्योगिकरण पर और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर दिया गया। जिसके कारण गाँवों में बेरोज़गारी की समस्या तेज़ी से बढ़ती गई। रोज़गार की तलाश में मजबूरन करोड़ों लोगों को अपने गाँवों से निकल कर शहर की गंदी बस्तियों में आ कर बसना पड़ा। जहां का जीवन तब भी नारकीय था और आज भी है। 

अगर गाँवो में रोज़गार मिल जाते तो बहुत कम संसाधनों में  लोग बिना सरकार पर बोझ बने रहते। गाँवों में शुद्ध हवा पानी व भोजन पा कर ये स्वस्थ और सुखी होते। तब न तो इन्हें नोटबंदी की मार पड़ती, न नारकीय बस्तियों में रहने की मजबूरी होती और न ही कोरोना के क़हर में बदहवास होकर पैदल गाँवों की ओर लौटना पड़ता। 

चिंता और दुःख की बात तो यह है कि हमारे नीति निर्माता आज भी चमक दमक वाले उसी विकास की ओर दौड़ रहे हैं जो आज बहुसंख्यक भारतीयों की बदहाली का कारण है।

हर देश का समझदार आदमी अपने घर में बंद बैठ कर आज ये महसूस कर रहा है कि हमारी जीवनशैली पृथ्वी के लिए ख़तरा बन चुकी है। इसमें अब पूरे बदलाव की ज़रूरत है। ऐसे में भारत के नीति निर्माताओं को गांधी जी की पुस्तक ‘ग्राम स्वराज्य’ को ध्यान से पढ़ कर, मनन करके, उस मॉडल की ओर सक्रिय हो जाना चाहिए। अन्यथा भविष्य में प्रकृति की मार फिर से बहुत भयावह हो सकती है। क्या हमारे हुक्मरान इस विषय पर गम्भीरता से चिंतन करेंगे?