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Monday, March 23, 2020

वैदिक जीवन पद्धति की ओर ढकेलेगा ‘करोना’

जब प्रधानमंत्री ने 22 मार्च को थाली या ताली बजाने का आवाह्न किया, तो मैंने सोशल मीडिया पर अपील जारी की कि ‘‘जिन घरों, मंदिरों, आश्रमों और संस्थाओं के पास शंख है वे 22 मार्च की शाम 5 बजे से, 5 मिनट तक, घर के बाहर आकर लगातार जोर से शंख ध्वनि करें। ऐसा वैज्ञानिक प्रयोगों से सिद्ध हो चुका है कि शंख ध्वनि करने से वातावरण में उपस्थित नकरात्मक ऊर्जा और बैक्टीरिया का नाश होता है। इसीलिए वैदिक संस्कृति में हर घर में सुबह शाम, पवित्रता के साथ, शंख ध्वनि करने की व्यवस्था हजारों वर्षों से चली आ रही है। जिसका हम, अपने घर में, आज भी पालन करते हैं। अगर देश की कुछ मेडिकल रीसर्च यूनिट्स चाहें तो तय्यारी कर लें। इस प्रस्तावित शंख ध्वनि के पहले और बाद में ये संस्थान अपने क्षेत्र में ‘करोना’ वाइरस पर इस ध्वनि के प्रभाव का अध्ययन भी कर सकते हैं। जिस तरह विश्व समुदाय ने मोदी जी की अपील पर योग दिवस और नमस्ते को अपनाया है वैसे ही इस प्रयोग के सफल होने पर शायद विश्व समुदाय सनातन धर्म की इस दिव्य प्रथा को भी अपना ले। तब हर घर से हर दिन सुबह शाम शंख ध्वनि सुनायी देने लगेगी’’।

आज पूरी दुनिया में हर वक्त हाथ धोने पर जोर दिया जा रहा है। जबकि वैदिक संस्कृति में ये नियम पहले से है कि जब कभी बाहर से घर पर आऐं, तो हाथ, मुँह और पैर अच्छी तरह धोऐं और अपने कपड़े धुलने डाल दें और घर के दूसरे वस्त्र पहनें। इसी तरह जन्म और मृत्यु के समय सूतक लगने की परंपरा है। जिस परिवार में ऐसा होता है, उसे अपवित्र माना जाता है और अगर बधाई देने या संवेदना प्रकट करने ऐसे घर में जाते हैं, तो उनके घर का पानी तक नहीं पीते और अपने घर आकर स्नान करके कपड़े धुलने डाल देते हैं। ऐसा इसीलिए किया जाता है, कि बाहर के वातावरण और ऐसे घरों में बीमारी के कीटाणुओं की बहुतायत रहती है। जिससे अपने बचाव के लिए यह व्यवस्था बनाई गई।

पश्चिमी देशों में हाथ धोने का कतई रिवाज नहीं है। चाहे वे जूते का फीता खोले या झाड़ू लगायें या बाहर से खरीदकर सामान घर पर लाऐं। वे लोग प्रायः हाथ नहीं धोते। उनके प्रभाव में हमारे देश में भी पढ़े-लिखे लोग इन बातों को दकियानुसी मानते हैं और इनका मजाक उड़ाते हैं। इतना ही नहीं अपनी संस्कृति में किसी का भी झूठा खाना वर्जित माना जाता है। प्रायः घरों में माता-पिता अपने अबोध बालकों का झूठा भले ही खाले लेकिन एक-दूसरे का झूठा कोई नहीं खाता। ठाकुरजी को भोग लगाने के पीछे भी यही विज्ञान है। जब आप ठाकुरजी को भोग लगाते हैं, तो स्वच्छ शरीर से ताजा भोजन पकाते हैं और उसमें औषधीय गुण वाला तुलसी का पत्ता डालकर भोग लगाते हैं। क्योंकि ठाकुरजी दोनों समय भोग लगता है, इसलिए घर में ताजा भोजन बनता है। जो स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है। दूसरी तरफ पश्चिमी सभ्यता में झूठे और बासी का कोई विचार नहीं है। जोकि स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त हानिकारक है। इसी तरह बाहर के जूते-चप्पल पहनकर घर में घुसना हमारी संस्कृति में वर्जित है और हम इसका पालन करते हैं। जबकि आधुनिक लोग इसका मजाक उड़ाते हैं।  बिना ये समझे कि सड़क पर फैले कीटाणुओं और बीमारियों का संग्रह करके लाते हैं, हमारे जूते-चप्पल।

1978 में जब मैं जेएनयू में पढ़ने आया, तो मेरे संस्कार ब्रजवासी संस्कृति के थे। क्योंकि उपरोक्त सभी बातों का हमारे परिवार में तब भी पालन होता था और आज भी हम उसी तरह पालन करते हैं। मुझे यूनिवर्सिटी में ये देखकर बहुत झटका लगा कि कोई भी साथी किसी भी मित्र का झूठा खाना, पानी, कोल्ड्रिंक या चाय बड़े आराम से चख लेते हैं। हमसे आज भी यह नहीं होता।

पिछले हफ्ते खबर छपी कि ‘करोना’ के भय से सुनसान पड़ी इटली के मशहूर शहर ‘वेनिस’ की लहरों में अचानक हजारों मछलियाँ यहाँ तक कि डॉल्फ़िन मस्ती से घूम रही है। नहरों के किनारे बसे इस ऐतिहासिक शहर में सारे साल दुनियाभर के पर्यटक आते हैं। जिनके कारण इन नहरों का पानी गंदला रहता था। आज वेनिसवासी नीला साफ पानी और रंग-बिरंगी मछलियाँ देखकर आल्हादित् हैं।

हजारों की तादात में उड़ने वाले हवाई जहाजों के कारण हर बड़े शहर के आकाश पर काली धुंध छाई रहती थी। मात्र दो हफ्ते में ये धुंध काफी छट गई है और नीला आकाश साफ दिखाई दे रहा है। अचानक सैंकड़ों किस्म के पक्षी शहरों की ओर लौट रहे है। जिनका कलरव सुना जा सकता है। 

कुछ लोग सोशल मीडिया पर मजाक में लिख रहे हैं कि ‘करोना’ वाइरस नहीं है, बल्कि वैक्सीन (टीका) है। वायरस तो मानव जाति है, जिसने पृथ्वी के स्वास्थ्य को बीमार कर दिया है। हम जरा अपने गिरेबां में झांके, अंधाधुंध तेल-पैट्रोल का प्रयोग, कारखानों से उगलता धुंआ, नदियों में गिरते नाले, कभी न नष्ट होने वाले पैकेजिंग मैटीरियल के भंडार जो पृथ्वी की सांस घोंट रहे हैं। निर्माण के लिए पहाड़ों की बेर्दद तुड़ाई अैर वृक्षों का अंधाधुंध काटा जाना, खेती में रासायनिक उरर्वकों का अधिक प्रयोग और प्रकृति व मौसम के प्रतिकूल हमारी दिनचर्या इस सबने इस खूबसूरत धरती को बीमार कर दिया है। आज तो केवल ‘करोना’ ने अपना भयावह रूप दिखाया है। अभी ‘ग्लोबल वाॅर्मिंग’ के परिणाम जब सामने आऐंगे, तो दुनिया के हर समुद्र तटीय शहर में हाहाकार मच जाऐगा। भगवान श्रीकृष्ण की द्वारिका की तरह मालद्वीप जैसे देश कहां डूब जाऐंगे, पता भी नहीं चलेगा। साढ़े चार करोड़ वन्य जन्तु औस्ट्रेलिया के जंगलों की आग में जल गऐ। जापान का सुनामी और केदारनाथ की जल प्रलय को हम भूले नहीं है।


इसलिए ‘करोना’ ‘करूणावतार’ बनकर आया है। भगवान कृपा करें और इससे फैलने वाली महामारी पर नियंत्रण पाया जा सके। पर ये समय एकबार फिर अपनी जीवन दृष्टि पर चिंतन करने का है। जितना हम प्रकृति से दूर रहेंगे, उतना ही हमारा जीवन अप्रत्याशित खतरों से घिरा रहेगा। इसलिए ‘जब जागों तभी सवेरा’।

Monday, March 9, 2020

क्या केवल यस बैंक पर ही आ सकता है ऐसा संकट ?

यस बैंक से धन निकासी की सीमा तय करने के बाद खाताधारकों में दहशत का माहौल है। देशभर में इस बैंक की हर शाखा पर खाताधारकों की लंबी-लंबी कतारें लगी हैं। लोग हड़बड़ाहट में हंै। किसी को बीमार बेटे के इलाज के लिए पैसे की जरूरत पड़ी, लेकिन उसे पैसा नहीं मिल सका। किसी का बैंक में करोड़ों रुपया है, ऐसे में उन्हें पैसों के सुरक्षित रहने की चिंता सता रही है। घबराए ग्राहकों गुस्से में हैं, बैंक में हंगामा होने लगा है। इसको लेकर पुलिस बुलानी पड़ रही है। देश के अलग-अलग हिस्सों से ब्रांचों में हंगामे की खबरें आ रही हैं।

14 नवंबर 2016 को हमने बैंकों की असलियत पर एक लेख लिखा था। जो आईआईटी दिल्ली के मेधावी छात्र रवि कोहाड़ के गहन शोध के बाद प्रकाशित एक सरल हिंदी पुस्तक ‘बैंकों का मायाजाल’ पर आधारित था। उस समय जो प्रश्न हमने उठाये थे, उन पर फिर से गौर करने की जरूरत है। इस पुस्तक में बड़े रोचक और तार्किक तरीके से यह सिद्ध किया गया है कि दुनियाभर में महंगाई, बेरोजगारी, हिंसा के लिए आधुनिक बैकिंग प्रणाली ही जिम्मेदार है। इन बैंकों का मायाजाल लगभग हर देश में फैला है। पर, उसकी असली बागडोर अमेरिका के 13 शीर्ष लोगों के हाथ में है और ये शीर्ष लोग भी मात्र 2 परिवारों से हैं। सुनने में यह अटपटा लगेगा, पर ये हिला देने वाली जानकारी है, जिसकी पड़ताल जरूरी है।

सीधा सवाल यह है कि भारत के जितने भी लोगों ने अपना पैसा भारतीय या विदेशी बैंकों में जमा कर रखा है, अगर वे कल सुबह इसे मांगने बैंक पहुंच जाएं, तो क्या ये बैंक 10 फीसदी लोगों को भी उनका जमा पैसा लौटा पाएंगे। जवाब है ‘नहीं’, क्योंकि इस बैंकिंग प्रणाली में जब भी सरकार या जनता को कर्ज लेने के लिए पैसे की आवश्यकता पड़ती है, तो वे ब्याज समेत पैसा लौटाने का वायदा लिखकर बैंक के पास जाते हैं। बदले में बैंक उतनी ही रकम आपके खातों में लिख देते हैं। इस तरह से देश का 95 फीसदी पैसा व्यवसायिक बैंकों ने खाली खातों में लिखकर पैदा किया है, जो सिर्फ खातों में ही बनता है और लिखा रहता है। भारतीय रिजर्व बैंक मात्र 5 प्रतिशत पैसे ही बनाता है, जो कि कागज के नोट के रूप में हमें दिखाई पड़ते हैं। इसलिए बैंकों ने 1933 में गोल्ड स्टैंडर्ड खत्म कराकर आपके रूपए की ताकत खत्म कर दी। अब आप जिसे रूपया समझते हैं, दरअसल वह एक रूक्का है। जिसकी कीमत कागज के ढ़ेर से ज्यादा कुछ भी नहीं। इस रूक्के पर क्या लिखा है, ‘मैं धारक को दो हजार रूपए अदा करने का वचन देता हूं’, यह कहता है भारत का रिजर्व बैंक। जिसकी गारंटी भारत सरकार लेती है। इसलिए आपने देखा होगा कि सिर्फ एक के नोट पर भारत सरकार लिखा होता है और बाकी सभी नोटों पर रिजर्व बैंक लिखा होता है। इस तरह से लगभग सभी पैसा बैंक बनाते हैं। पर रिजर्व बैंक के पास जितना सोना जमा है, उससे कई दर्जन गुना ज्यादा कागज के नोट छापकर रिजर्व बैंक देश की अर्थव्यवस्था को झूठे वायदों पर चला रहा है।

जबकि 1933 से पहले हर नागरिक को इस बात की तसल्ली थी कि जो कागज का नोट उसके हाथ में है, उसे लेकर वो अगर बैंक जाएगा, तो उसे उसी मूल्य का सोना या चांदी मिल जाएगा। कागज के नोटों के प्रचलन से पहले चांदी या सोने के सिक्के चला करते थे। उनका मूल्य उतना ही होता था, जितना उस पर अंकित रहता था, यानि कोई जोखिम नहीं था।

पर, अब आप बैंक में अपना एक लाख रूपया जमा करते हैं, तो बैंक अपने अनुभव के आधार पर उसका मात्र 10 फीसदी रोक कर 90 फीसदी कर्जे पर दे देता है और उस पर ब्याज कमाता है। अब जो लोग ये कर्जा लेते हैं, वे भी इसे आगे सामान खरीदने में खर्च कर देते हैं, जो उस बिक्री से कमाता है, वो सारा पैसा फिर बैंक में जमा कर देता है, यानि 90 हजार रूपए बाजार में घूमकर फिर बैंक में ही आ गए। अब फिर बैंक इसका 10 फीसदी रोककर 81 हजार रूपया कर्ज पर दे देता है और उस पर फिर ब्याज कमाता है। फिर वो 81 हजार रूपया बाजार में घूमकर बैंकों में वापिस आ जाता है। फिर बैंक उसका 10 फीसदी रोककर बाकी को बाजार में दे देता है और इस तरह से बार-बार कर्ज देकर और हर बार ब्याज कमाकर जल्द ही वो स्थिति आ जाती है कि बैंक आप ही के पैसे का मूल्य चुराकर बिना किसी लागत के 100 गुनी संपत्ति अर्जित कर लेता है। इस प्रक्रिया में हमारे रूपए की कीमत लगातार गिर रही है। आप इस भ्रम में रहते हैं कि आपका पैसा बैंक में सुरक्षित है। दरअसल, वो पैसा नहीं, केवल एक वायदा है, जो नोट पर छपा है। पर, उस वायदे के बदले (नोट के) अगर आप जमीन, अनाज, सोना या चांदी मांगना चाहें, तो देश के कुल 10 फीसदी लोगों को ही बैंक ये सब दे पाएंगे। 90 फीसदी के आगे हाथ खड़े कर देंगे कि न तो हमारे पास सोना-चांदी है, न संपत्ति है और न ही अनाज, यानि पूरा समाज वायदों पर खेल रहा है और जिसे आप नोट समझते हैं, उसकी कीमत रद्दी से ज्यादा कुछ नहीं है।

यह सारा भ्रमजाल इस तरह फैलाया गया है कि एकाएक कोई अर्थशास्त्री, विद्वान, वकील, पत्रकार, अफसर या नेता आपकी इस बात से सहमत नहीं होगा और आपकी हंसी उड़ाएगा। पर, हकीकत ये है कि बैंकों की इस रहस्यमयी माया को हर देश के हुक्मरान एक खरीदे गुलाम की तरह छिपाकर रखते हैं और बैंकों के इस जाल में एक कठपुतली की तरह भूमिका निभाते हैं। पिछले 70 साल का इतिहास गवाह है कि जिस-जिस राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री ने बैंकों के इस फरेब का खुलासा करना चाहा या अपनी जनता को कागज के नोट के बदले संपत्ति देने का आश्वासन चरितार्थ करना चाहा, उस-उस राष्ट्राध्यक्ष की इन अंतर्राष्ट्रीय बैंकों के मालिकों ने हत्या करवा दी। इसमें खुद अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन व जाॅन. एफ. कैनेडी, जर्मनी का चांसलर हिटलर, ईरान (1953) के राष्ट्रपति, ग्वाटेमाला (1954) के राष्ट्रपति, चिले (1973) के राष्ट्रपति, इक्वाडोर (1981) के राष्ट्रपति, पनामा (1981) के राष्ट्रपति, वैनेजुएला (2002) के राष्ट्रपति, ईराक (2003) के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन, लीबिया (2011) का राष्ट्रपति गद्दाफी शामिल है। जिन मुस्लिम देशों में वहां के हुक्मरान पश्चिम की इस बैकिंग व्यवस्था को नहीं चलने देना चाहते, उन-उन देशों में लोकतंत्र बहाली के नाम पर हिंसक आंदोलन चलाए जा रहे हैं, ताकि ऐसे शासकों का तख्तापलट कर पश्चिम की इस लहूपिपासु बैकिंग व्यवस्था को लागू किया जा सके। खुद उद्योगपति हेनरी फोर्ड ने एक बार कहा था कि ‘अगर अमेरिका की जनता को हमारी बैकिंग व्यवस्था की असलियत पता चल जाए, तो कल ही सुबह हमारे यहां क्रांति हो जाएगी।’

जब देशों को रूपए की जरूरत होती है, तो ये आईएमएफ या विश्व बैंक से भारी कर्जा ले लेते हैं और फिर उसे न चुका पाने की हालत में नोट छाप लेते हैं। जबकि इन नए छपे नोटों के पीछे सरकार के झूठे वायदों के अलावा कोई ठोस संपत्ति नहीं होती। नतीजतन, बाजार में नोट तो आ गए, पर सामान नहीं है, तो महंगाई बढ़ेगी। यानि महंगाई बढ़ाने के लिए किसान या व्यापारी जिम्मेदार नहीं है, बल्कि ये बैकिंग व्यवस्था जिम्मेदार है। ये जब चाहें महंगाई बढ़ा लें और जब चाहें उसे रातों-रात घटा लें। सदियों से सभी देशों में वस्तु विनिमय होता आया था। आपने अनाज दिया, बदले में मसाला ले लिया। आपने सोना या चांदी दिया बदले में कपड़ा खरीद लिया। मतलब ये कि बाजार में जितना माल उपलब्ध होता था, उतने ही उसके खरीददारों की हैसियत भी होती थी। उनके पास जो पैसा होता था, उसकी ताकत सोने के बराबर होती थी। आज आपके पास करोड़ों रूपया है और उसके बदले में आपको सोना या संपत्ति न मिले और केवल कागज के नोटों पर छपा वायदा मिले, तो उस रूपए का क्या महत्व है ? यह बड़ा पेचीदा मामला है। बिना इस लघु पुस्तिका को पढ़े, समझ में नहीं आएगा। पर, अगर ये पढ़ ली जाए, तो एक बड़ी बहस देश में उठ सकती है, जो लोगों को बैकिंग के मायाजाल की असलियत जानने पर मजबूर करेगी।



Monday, January 20, 2020

अमित शाह का बढ़ता ग्राफ

सीएए, एनआरसी और एनपीआर को लेकर जो भी प्रतिक्रिया देश में हो रही है, जो धरने और प्रदर्शन हो रहे हैं, उनका प्रभाव केवल मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों में है। जो हिंदू इन आन्दोलन से जुड़े हैं, वो या तो विपक्षी दलों से संबंधित हैं या धर्मनिरपेक्ष विचारधारा वाले है। बहुसंख्यक हिंदू समाज चाहे शहरों में रहता है या गाँवों में, गृहमंत्री अमित शाह के निर्णयओं से अभिभूत है क्योंकि उसे लगता कि सरदार पटेल के बाद देश में पहली बार एक ऐसा गृहमंत्री आया है जो अपने निर्णय दमदारी के साथ लेता और उन्हें लागू करता है ।जिस पर उसके विरोध का कोई फर्क नहीं पड़ता। 

पिछले कुछ महीनों में जिस तरह के निर्णंय अमित भाई शाह ने लिये है, उनसे एक संदेश साफ़ गया है कि मौजूदा सरकार, हिंदूओं के मन में पिछले 70 सालों से जो सवाल उठ रहे थे, उनके जबाव देने को तैयार है। फिर चाहे वो कश्मीर में धारा 370 हटाने का सवाल हो या नागरिकता का मामला हो या तीन तलाक का मामला हो या समान नागरिक कानून बनाने का मामला हो। हर मामले में अमित शाह के नेतृत्व में जो निर्णंय लिये जा रहे है और जिन पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की स्वीकृति की मोहर लगी है, वो वही  हैं जो अब तक आम हिंदू के मन में घुटे रहते थे। उनका सवाल था कि जब हमारा देश धर्मनिरपेक्ष है तो मुसलमानों के लिए अलग कानून क्यों ? अल्पसंख्यकों के लिए अलग मान्यता क्यों? कश्मीर अगर भारत का अभिन्न अंग है तो वहां विशेष राज्य का दर्जा क्यों? वहां के नागरिकों को विशेष सुविधाऐं क्यों? 

इसी तरह के सवाल थे कि जब पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिंदूओं की आबादी लगातार घट रही है, तो हिंदूओं के लिए भारत सरकार कुछ क्यों नहीं करती ? इन सारे सवालों का ग़ुबार हर हिंदु के मन में भरा था, उसको बड़ी तेजी से निकालने का काम अब अमित शाह कर रहे हैं। ये सही है कि अमित शाह के काम करने का तरीका कुछ लोगों  को कुछ हद तक अधिनायकवादी लग सकता है। लेकिन जिस तरह वो अपने तर्को को लोकसभा की बहसों में पेश करते हैं और जिस तरह कानूनी जानकारों को भी अपने तर्कों से निरूत्तर कर देते हैं, उससे ये लगता है कि वे जल्दीबाजी में या बिना कुछ सोचे-समझे ये कदम नहीं उठा रहे हैं । बल्कि उन्होंने अपने हर कदम के पहले पूरा चिंतन किया है और उसको संविधान के दायरे में लाकर लागू करने की रणनीति बनाई है, ताकि उसके रास्ते में कोई रुकावट आए। 

अगर हम आजाद भारत के इतिहास पर नजर डालें तो जैसा मैंने कई बार सोशल मीडिया पर भी लिखा है कि नक्सलवाद जैसी आतिवादी विचारधारा का जन्म बंगाल की वामपंथी दमनकारी नीतियों के विरूद्ध हुआ था। जो भी सरकार केंद्र या प्रांत में होती है, जब तक उसका विरोध प्रखर नहीं होता तब तक वो उसे बर्दाश्त कर लेती है। लेकिन देखने में आया है कि जब-जब विरोध प्रखर होता है और सत्ता में बैठा मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री या जो दल है वो मजबूत होता है तो उसकी प्रतिक्रिया प्रायः हिसंक होती है। इसके अपवाद बहुत कम मिलते हैं। जो लोग आज भारतीय जनता पार्टी की सरकार पर आतिवादी होने का आरोप लगा रहे हैं, उनको इस बात पर भी विचार करना चाहिए क्या पिछली सरकारों में ऐसी घटनाऐं नहीं हुई थी? मसलन जब बोफोर्स विवाद चल रहा था तब 1987 में इण्डियन एक्सप्रेसके पत्रकारों पर तेजाब किसने और क्यों फिकवाया था? ये बहुत ही गंभीर मामला था। लेकिन उसे आज हम भूल जाते हैं। 

इसी के साथ एक दूसरा विषय ये भी है कि जो योग्यता के सवाल को लेकर जैसे जवाहरलाल नेहरू विवि. में ही प्रश्न उठाये गये कि कुलपति के द्वारा अयोग्य लोगों की भर्तियां की जा रही है। क्या वामपंथी ये कह सकते हैं कि जब उनका प्रभाव था तब क्या सारी भर्तियां योग्यता के आधार पर ही हुई थी? तब क्या वामपंथियों ने अयोग्य लोगों की भर्तियां नहीं करी? 

इसी तरह एक प्रश्न और सामान्य भारतीय के मन में आता है वो ये कि आज बहुत बड़ी तादाद में मुसलमान सड़कों पर तिरंगा झण्डा लहरा रहे हैं और
जनगणमन गा रहे हैं और उन्हें इस बात की भी खुशी है कि बहुत सारे हिंदू भी उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर ये लड़ाई लड़ रहे हैं। पर क्या ये एकजुटता है वो हमेशा रहने वाली है? अगर हमेशा रहने वाली है, तो इसका अतीत क्या है ? कश्मीर में जब हिंदूओं को, खासकर जब कश्मीरी पण्डितों को आतंकित करके रातो-रात निकाला गया, पूरी कश्मीरी घाटी को हिंदूओं से खाली करवा लिया गया, उस वक्त इस तरह की एकजुटता क्यों नहीं दिखी? हिंदू और मुस्लिम एक साथ कश्मीरी पण्डितों के लिए सड़कों पर पिछले 30 सालों में कितनी बार निकले ? जिस वक्त श्रीनगर के लाल चौक  पर रोज़ तिरंगे झण्डे जलाऐ जा रहे थे, उस वक्त कितने मुसलमानों ने शेष भारत में सड़कों पर उतर कर इसका विरोध किया कि ये हमारा राष्ट्रीय ध्वज है, इसे न जलाया जाऐ? कितनी बार ऐसा हुआ है कि मोहर्रम के ताजिए या रामलीला की शोभायात्रा में बड़े-बड़े साम्प्रदायिक दंगे हुए हैं। ये सही कि दंगे भड़काने का काम राजनैतिक दल और स्वार्थीतत्व करते आऐ हैं। लेकिन समाज के स्तर पर अगर दोनों में इतनी सहानुभूति और समझ है तो फिर उसका प्रदर्शन सामान्य समय पर देखने को क्यों नहीं मिलता? इसलिए ऐसा लगता है क्योंकि इस समय मुसलमान असुरक्षित हैं महसूस कर रहे हैं इसलिए उनका देशप्रेम झलक रहा है।

भारत ही नहीं दुनिया के तमाम देशों में बसे हुए हिंदुओं का ये कहना है कि जब दुनिया में मुसलमानों के 58 देश हैं तो एक अकेला भारत हिंदू राष्ट्र क्यों न बने ? दुनिया के सबसे पुराने धर्म का एक भी देश दुनिया में नहीं है। क्योंकि हिंदू धर्म स्वभाव से ही उदारवादी होता है, इसलिए भारत में इतने सारे धर्म पनपते चले गये। वे ये प्रश्न भी करते हैं कि भारत में गैर हिंदूओं को जो छूट मिली है, वो क्या किसी मुसलमान देश में हिंदूओं को मिल सकती है ? 

इसके साथ ही एक भावना जो विश्व में फैल रही है, वो ये कि मुसलमान जिस देश में भी जाते हैं, वहां अपने धर्म का प्रभाव बढ़ाने मे ंजुट जाते हैं। जिससे समाज में अशान्ति पैदा होती है। इसलिए पश्चिम के देश ही नहीं बल्कि साम्यवादी चीन तक में मुसलमानों पर सरकार की पाबंदियाँ बढ़ाई जा रही हैं। इसलिए मुसलमानों के समझदार और उदारवादी वर्ग को आत्मचिंतन करना चाहिए कि ऐसा क्यों हो रहा है और इसे कैसे रोका जाऐ। तुर्की और इंडोनेशिया उदारवादी इस्लाम के बेहतरीन नमूने हैं। 

जहाँ तक धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए बल प्रदर्शन का आरोप है तो यह बात इसाई धर्म पर भी लागू होती है। जिसने मध्य युग में तलवार के जोर पर बाईबल का प्रचार किया और अपने उपनिवेशों पर तमाम अत्याचार किये। केवल हिंदू, बौद्ध, सिक्ख और जैन धर्म ही ऐसे है, जो भारत में जन्में और जिनका प्रचार-प्रसार अहिंसक तरीके से अपने दर्शन की गुणवत्ता के कारण हुआ। बावजूद इसके गत कुछ शताब्दियों में हिंदू धर्म का विधर्मियों ने जमकर मजाक उड़ाया और उसकी मान्यताओं को बिना परखे नकार दिया। हिंदू मन तो आहत हुआ ही समाज पर भी इसका दुष्प्रभाव पड़ा। अमित शाह की नीतियाँ इसीलिए दुनियाभर के हिंदूओं को प्रभावित कर रही है, क्योंकि उन्हें लगता है कि अंततः अब भारत हिंदू राष्ट्र बनेगा।

Monday, January 13, 2020

क्या भारतवासियों को जल्दी ही पाक अधिकृत कश्मीर में स्थित शारदापीठ के दर्शन होंगे ?

आज हमारे कार्यालय में शारदापीठ कश्मीर के शंकराचार्य स्वामी अमृतनंद देव तीर्थ  पधारे। उन्होंने इस विषय में निम्न जानकारी दी। 1947 में जब भारत आजाद हुआ था तब जम्मू-कश्मीर का कुल क्षेत्रफल था 2,22,236 वर्ग किलोमीटर जिसमें से चीन और पाकिस्तान ने मिलकर लगभग आधे जम्मू-कश्मीर पर कब्ज़ा किया हुआ है और भारत वर्ष के पास केवल 1,02,387 वर्ग किलोमीटर कश्मीर भूमि शेष है। जम्मू-कश्मीर के जो भाग आज हमारे पास नहीं हैं उनमें से गिलगिट, बाल्टिस्तान, बजारत, चिल्लास, हाजीपीर आदि हिस्से पर पाकिस्तान का सीधा शासन है और मुज़फ्फराबाद, मीरपुर, कोटली और छंब आदि इलाके हालांकि स्वायत्त शासन में हैं परंतु ये इलाके भी पाक के नियंत्रण में हैं।

पाक नियंत्रण वाले इसी कश्मीर के मुज़फ्फराबाद जिले की सीमा के किनारे से पवित्र "कृष्ण-गंगा" नदी बहती है। कृष्ण-गंगा नदी वही है जिसमें समुद्र मंथन के पश्चात् शेष बचे अमृत को असुरों से छिपाकर रखा गया था और उसी के बाद ब्रह्मा जी ने उसके किनारे माँ शारदा का मंदिर बनाकर उन्हें वहां स्थापित किया था।

जिस दिन से माँ शारदा वहां विराजमान हुई उस दिन से ही सारा कश्मीर "नमस्ते शारदादेवी कश्मीरपुरवासिनी / त्वामहंप्रार्थये नित्यम् विदादानम च देहि में" कहते हुये उनकी आराधना करता रहा है और उन कश्मीरियों पर माँ शारदा की ऐसी कृपा हुई कि आष्टांग योग और आष्टांग हृदय लिखने वाले वाग्भट वहीं जन्में,नीलमत पुराण वहीं रची गई, चरक संहिता, शिव-पुराण, कल्हण की राजतरंगिणी, सारंगदेव की संगीत रत्नकार सबके सब अद्वितीय ग्रन्थ वहीं रचे गये, उस कश्मीर में जो रामकथा लिखी गई उसमें मक्केश्वर महादेव का वर्णन सर्व-प्रथम स्पष्ट रूप से आया। शैव-दार्शनिकों की लंबी परंपरा कश्मीर से ही शुरू हुई। 

चिकित्सा, खगोलशास्त्र, ज्योतिष, दर्शन, विधि, न्यायशास्त्र, पाककला, चित्रकला और भवनशिल्प विधाओं का भी प्रसिद्ध केंद्र था कश्मीर क्योंकि उसपर माँ शारदा का साक्षात आशीर्वाद था। ह्वेनसांग के अपने यात्रा विवरण में लिखा है शारदा पीठ के पास उसने ऐसे-ऐसे विद्वान् देखे जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती कि कोई इतना भी विद्वान् हो सकता है। शारदापीठ के पास ही एक बहुत बड़ा विद्यापीठ भी था जहाँ दुनिया भर से विद्यार्थी ज्ञानार्जन करने आते थे।

माँ शारदा के उस पवित्र पीठ में न जाने कितने सहस्त्र वर्षों से हर वर्ष भाद्रपद शुक्ल पक्ष अष्टमी के दिन एक विशाल मेला लगता था जहाँ भारत के कोने-कोने से वाग्देवी सरस्वती के उपासक साधना करने आते थे। भाद्रपद महीने की अष्टमी तिथि को शारदा अष्टमी इसीलिये कहा जाता था। शारदा तीर्थ श्रीनगर से लगभग सवा सौ किलोमीटर की दूरी पर बसा है और वहां के लोग तो पैदल माँ के दर्शन करने जाया करते थे।

शास्त्रों में एक बड़ी रोचक कथा मिलती है कि कथित निम्न जाति के एक व्यक्ति को भगवान शिव की उपासना से एक पुत्र प्राप्त हुआ जिसका नाम उस दम्पति ने शांडलि रखा। शांडलि बड़े प्रतिभावान था। उनसे जलन भाव रखने के कारण ब्राह्मणों ने उनका यज्ञोपवित संस्कार करने से मना कर दिया। निराश शांडलि को ऋषि वशिष्ठ ने माँ शारदा के दर्शन करने की सलाह दी और उनके सलाह पर जब वो वहां पहुँचे तो माँ ने उन्हें दर्शन दिया उन्हें नाम दिया ऋषि शांडिल्य। आज हिन्दुओं के अंदर हरेक जाति में शांडिल्य गोत्र पाया जाता है।

हिन्दू धर्म का मंडन करने निकले शंकराचार्य जब शारदापीठ पहुँचे थे तो वहां उन्हें माँ ने दर्शन दिया था और हिन्दू जाति को बचाने का आशीर्वाद भी। उन्हीं माँ शारदा की कृपा से कश्मीर के शासक जैनुल-आबेदीन का मन बदल गया था जब वो उनके दर्शनों के लिये वहां गया था और उसने कश्मीर में अपने बाप सिकंदर द्वारा किये हर पाप का प्रायश्चित किया। इतिहास की किताबों में आता है कि माँ शारदा की उपासना में वो इतना लीन हो जाता था कि उसे दुनिया की कोई खबर न होती थी।

भारत के कई हिस्सों में जब यज्ञोपवीत संस्कार होता है तो बटु को कहा जाता है कि तू शारदा पीठ जाकर ज्ञानार्जन कर और सांकेतिक रूप से वो बटुक शारदापीठ की दिशा में सात कदम आगे बढ़ता है और फिर कुछ समय पश्चात् इस आशय से सात कदम पीछे आता है कि अब उसकी शिक्षा पूर्ण हो गई है और वो विद्वान् बनकर वहां से लौट आ रहा है।

एक समय था जब ये सांकेतिक संस्कार एक दिन वास्तविकता में बदलता था क्योंकि वो बटुक शिक्षा ग्रहण करने वहीं जाता था मगर आज दुर्भाग्य से हमारी "माँ शारदा" हमारे पास नहीं है और हम उनके पास जायें ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है तो शायद अब यज्ञोपवीत की ये रस्म सांकेतिक ही रह जायेगी सदा के लिये । संतों, भक्तों  कशमीरी पंडितों की भारत सरकार माँग है कि हमको शारदापीठ की मुक्ति चाहिये, हमको शारदा पीठ तक जाना है, हमें दुनिया को बताना है कि "केवल शारदा संस्कृति ही कश्मीरियत" है और इसलिये शारदापीठ पर भारत का पूर्ण नियंत्रण हो ऐसी मांग उठाई जा रही है।  

जब तक ये नहीं होता कम से कम तब तक करतारपुर साहिब कॉरिडोर की तर्ज़ पर "शारदादेवी कॉरिडोर" अविलम्ब आरंभ हो इसकी मांग की जा रही है।

शारदा पीठ मंदिर एक स्थानीय लाल बलुआ पत्थर से बना है, जिसे मंदिर की वास्तुकला की शास्त्रीय कश्मीरी शैली में बनाया गया है। यह एक पहाड़ी पर है और पत्थर की सीढ़ी के माध्यम से एक मोटी पत्थर की दीवार और खंडहर गेटवे के अवशेषों से यहाँ प्रवेश किया जाता है ।

खंडहर एक आयताकार क्षेत्र को घेरते हुए दिखाई देते हैं, जिसके एक बिंदु पर इसके कोनों को कम्पास के कार्डिनल बिंदुओं के साथ जोड़ दिया गया होगा। मंदिर योजना में वर्गाकार है, और एक चौकोर चबूतरा है, जिसका द्वार पश्चिम की ओर है। मैदान और प्रवेश द्वार के बीच पाँच चरण हैं, जो एक बिंदु पर एक अर्ध-छत वाली छत होती, जिसके पीछे एक ट्रेओफिल आर्क लगा होता था, जो आंतरिक गर्भगृह तक ले जाता था। आज, यह क्षेत्र आकाश के संपर्क में है। संभवत: इसलिए कि आर्किटेक्ट दीवारों के बाहर मैदान को नापसंद करते हैं या इसलिए कि अगर स्‍पायर ढह गया, तो भी एक आगंतुक यह बता सकेगा कि मंदिर मूल रूप से कैसा दिखता था। इसका डिजाइन सरल है । डिजाइन की सादगी का मतलब है कि स्थानीय उपासकों के लिए मार्तंड सूर्य मंदिर के लिए एक सादे वास्तुशिल्प के रूप में मंदिर को डिजाइन किया गया था (या अधिक संभावना है, बाद में पुनर्निर्माण किया गया)। मार्तंड सूर्य मंदिर और मालोट किले दोनों को समान रूप से डिजाइन किया गया है । जनरल परवेज़ मुशारफ़ ने इसके विकास के लिए धन स्वीकृत किया था । जिससे इसके आस पास का क्षेत्र विकसित किया गया । पर मूल मंदिर अभी भी ध्वस्त है । स्थानीय मुसलमान भी इसे शारदा माई का मंदिर कहते हैं और चाहते हैं कि ये पुनः आबाद हो और यहाँ साल भर हिंदू दर्शनार्थी आएँ और अपना सालाना उत्सव भी करें ।

Monday, January 6, 2020

बजट के पहले की दुविधा

2020 का बजट असाधरण परिस्थितियों में आ रहा है। सरकार पर चारों तरफ से दबाव हैं। अर्थव्यवस्था में मंदी या सुस्ती के दौर में चैतरफा दबाव होते ही हैं। वैसे सरकार ने अपने तईं हर उपाय करके देख लिए। हालात अभी भले ही न बिगड़े हों लेकिन अर्थव्यवस्था के मौजूदा लक्षण सरकार को जरूर चिंता में डाले होंगे। 

यह पहली बार हुआ है कि सरकार ने संजीदा होकर बजट के पहले हर तबके से सुझाव मांगे। हालांकि ज्यादातर सुझाव आर्थिक क्षेत्र में प्रभुत्व रखने वाले तबके यानी उद्योग व्यापार की तरफ से आए। अब देखना यह है कि इस बार के बजट में सरकार किस तरफ ज्यादा घ्यान देती है।

अर्थशास्त्र की भाषा में समझें तो अर्थव्यवस्था के तीन क्षेत्र हैं। एक विनिर्माण, दूसरा सेवा और तीसरा कृषि। उद्योग व्यापार का नाता सिर्फ विनिर्माण और सेवा क्षेत्र से ही ज्यादा होता है। जाहिर है कृषि को उतनी तवज्जो नहीं मिल पाती। क्योंकि कृषि को असंगठित क्षेत्र ही समझा जाता है। इसीलिए उस पर ध्यान देने की जिम्मेदारी सरकार की ही समझी जाती है। अर्थव्यवस्था में भारी सुस्ती के मौजूदा दौर में कृषि पर कुछ ज्यादा ध्यान देने की बात उठाई जा सकती है।

माना जाता रहा है कि कृषि की भूमिका आर्थिक वृद्धि दर बढ़ाने में ज्यादा नहीं होती है। उद्योग व्यापार की हिस्सेदारी जीडीपी में तीन चैथाई से ज्यादा है जबकि कृषि की एक चैथाई से कम है। मोटा अनुमान है कि जीडीपी में कृषि का योगदान सिर्फ सोलह से अटठारह फीसद ही बचा है। अब सवाल यह है कि जीडीपी में अपने योगदान की मात्रा के आधार पर ही क्या कृषि की अनदेखी की जा सकती है?

हम कृषि प्रधान देश इसलिए कहे जाते हैं क्योंकि देश की आधी से ज्यादा आबादी इसी में लगी है। जीडीपी में अपने योगदान के आधार पर न सही लेकिन लोकतांत्रिक राजव्यवस्था में अपने आकार के आधार पर उसे अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण न मानना समझदारी नहीं है। उस हालत में जब उद्योग व्यापार को ताबड़तोड़ राहत  पैकेज देकर देख लिए गए हों फिर भी मनमुताविक असर अर्थव्यवस्था पर न पड़ा हो तब कृषि को महत्वपूर्ण मानकर देख लेने में हर्ज नहीं होना चाहिए।

एक बहस हो सकती है कि कृषि की उपेक्षा कभी भी नहीं हुई। सरकार कृषि क्षेत्र पर होने वाले खर्च का हवाला दे सकती है । प्रश्न है कि कृषि पर जो खर्च किया जाता है वह क्या सीधे सीधे कृषि और कृषि उत्पादकों के तन को लगता है। महंगे उन्नत बीज, उर्वरक, कीटनाशक, कृषि यंत्रों के विनिर्माण और कृषि उत्पादों के व्यापार जैसी मदों पर खर्च को कृषि के खाते में जोड़कर कुल रकम बड़ी दिख सकती है। सिंचाई के पहले से बने आधारभूत ढांचे के रखरखाव या गांव की सड़कों पर खर्च को कृषि पर खर्च दिखाना भी इसमें शामिल है। जबकि इस समय की  जरूरत किसानों की जेब तक सीधे सीधे राहत पहुंचाने की है। अर्थव्यवस्था के लिहाज से देखें तो किसान अपनी बड़ी आबादी के कारण देश का सबसे बड़ा उपभोक्ता माना जा सकता है। अगर यह मान लिया गया है कि भारतीय बाजार मांग की कमी का शिकार हो गया है तो किसान को उपभोक्ता मानने से बचना समझदारी नहीं है।

तो क्या किसान को एक बड़ा उपभोक्ता मानकर बजट में कोई प्रावधान किया जा सकता है? बहस करने वाले यह तर्क भी दे सकते हैं कि किसानों को बड़ा राहत पैकेज देने से उनमें मुफतखोरी व राजकोषीय घाटा बढ़ेगा ।जवाब में किसान पक्ष के विशेषज्ञ सवाल पूछ सकते हैं कि चुनिंदा उद्योग व्यापार तबके को बड़े राहत पैकेज देने से क्या वह घाटा नहीं होता ? रही बात उद्योग व्यापार बढ़ाने के जरिए अर्थव्यवस्था को तेज भगाने की , तो पिछले तीन चार महीनों में ऐसा करके देखा चुका है। पता चल रहा है कि उत्पादन बढ़ाने में दिक्कत नहीं है बल्कि दिक्कत यह है कि बाजार में ग्राहक ही नहीं है। यानी इस रहस्य को समझा जाना चाहिए कि अर्थव्यवस्था में भारी सुस्ती का मुख्य कारण देश के उपभोक्ताओं की जेबें ख़ाली हो जाना है। 

उपभोक्ताओं का सबसे बड़ा तबका अगर गांव को मान लिया जाए तो अर्थव्यवस्था में सुधार की उम्मीद लगाई जा सकती है। आखिर किसानों, गांव के मजदूरों और गरीबों की जेब में अगर पैसा पहुंचा दिया जाए तो वह पैसा घूमफिर कर उद्योग व्यापार और शहरी बाजार में ही तो पहुंचता है। देश दुनिया के तमाम अर्थशास्त्री अपने अपने अंदाज में यही सुझाव दे रहे हैं।

खासतौर पर ग्रामीण बेराजगारी पर ध्यान टिकाकर चमत्कारी असर पैदा किया जा सकता है। वैसे इस सिलसिले में पहले से ही मनरेगा कानून बना रखा है। इस मद में ज्यादा सरकारी खर्च बढ़ाने पर किसी तरह का राजनीतिक एतराज भी नहीं किया जा सकता।सरकार के पक्ष के लोग कह सकते हैं कि किसान और गांव तक सीधे सीधे धन पहुंचाने का काम तो उसने किया तो है। वे जनधन खातों  के जरिए 500 रूप्ए महीना उनके खाते में पहुंचाने का हवाला दे सकते हैं। मौजूदा सरकार की इस योजना को साल भर हो चुका है। लेकिन इस भारीभरकम योजना के क्रियान्वयन में अब तक जितनी अड़चने आती रही हैं उससे ग्रामीण उपभोक्ताओं तक पर्याप्त धन पहुंचने पर सवाल उठ रहे हैं। सुपात्र किसानों की पहचान का कागजी काम परेशान कर रहा है।फिर लगता है इस योजना का एलान व उसके लिए प्रावधान सालभर के लिए ही हुआ था। अब जब अगले साल का बजट पेश होने को है तो इस बारे सरकार अगर कुछ नया सोच रही होगी तो उसे बहुत अच्छी बात कही जाएगी। 

दशकों बाद यह स्थिति बनी है जिसमें यह पता नहीं चल रहा है कि देश के मध्यवर्ग की क्या स्थिति है। महंगाई काबू में रहने की बात बार बार दोहराई जा रही है। सरकार का दावा सही भी हो सकता है कि इस समय महंगाई काबू में है। लेकिन इस बात का पता नही ं चल रहा है देश के मध्यवर्ग की आमदनी की क्या स्थिति है। मध्यवर्ग राजनीतिक तौर पर भी संवेदनशील होता है। लिहाज़ा इस बार के बजट में भी मध्यवर्ग पर ज्यादा गौर किए जाने की संभावनाएं तो बहुत ही ज्यादा हैं। लेकिन इस चक्कर में अंदेशा यही है कि  कहीं देश का बहुतायत उपभोक्ता यानी किसान और खेतिहर मजदूर न छूट जाएं।

Monday, December 30, 2019

जरा मुसलमान भी सोचें !

आज पूरे देश में उथल पुथल मची है। इसके केंद्र में है मुसलमानो को लेकर भाजपा की सोच। जो हिंदुओं के उस वर्ग प्रतिनिधित्व करती है जो मुसलमानों के सार्वजनिक आचरण से विचलित रहे हैं।

दरअसल धर्म आस्था और आत्मोत्थान का माध्यम होता है। इसका प्रदर्शन यदि उत्सव के रूप में किया जाए, तो वह एक सामाजिक-सांस्कृतिक घटना मानी जाती है। जिसका सभी आनंद लेते हैं। 

चाहे विधर्मी ही क्यों न हों। दीपावली, ईद, होली, बैसाखी, क्रिसमस, पोंगल, संक्रांति व नवरोज आदि ऐसे उत्सव हैं, जिनमें दूसरे धर्मों को मानने वाले भी उत्साह से भाग लेते हैं। अपने-अपने धर्मों की शोभायात्राएं निकालना, पंडाल लगाकर सत्संग या प्रवचन करवाना, नगर-कीर्तन करना या मोहर्रम के ताजिये निकालना, कुछ ऐसे धार्मिक कृत्य हैं, जिन पर किसी को आपत्ति नहीं होती या नहीं होनी चाहिए। बशर्ते कि इन्हें मर्यादित रूप में, बिना किसी को कष्ट पहुंचाए, आयोजित किया जाए। 

किन्तु हर शुक्रवार को सड़कों, बगीचों, बाजारों, सरकारी दफ्तरों, हवाई अड्डों और रेलवे स्टेशनों जैसे सार्वजनिक स्थलों पर मुसल्ला बिछाकर नमाज पढने की जो प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है, उससे आम नागरिकों को बहुत तकलीफ  होती है। यातायात अवरुद्ध हो जाता है। पुलिस, एम्बुलैंस और फायर ब्रिगेड की गाडियां अटक जाती हैं, जिससे आपातकालीन सेवाओं में बाधा पहुंचती है। इस तरह बड़ी संख्या में एक साथ बैठकर मस्जिद के बाहर नमाज पढने से रूहानियत नहीं फैलती, बल्कि एक नकारात्मक राजनीतिक संदेश जाता है। जो धर्म का कम और ताकत का प्रदर्शन ज्यादा करता है। 

जाहिर है कि इससे अन्य धर्मावलंबियों में उत्तेजना फैलती है। ऐसी घटना साल में एक-आध बार किसी पर्व पर हो, तो शायद किसी को बुरा न लगे। पर हर जुम्मे की नमाज इसी तरह पढना, दूसरे धर्मावलंबियों को स्वीकार नहीं है। बहुत वर्ष पहले इस प्रवृत्ति का विरोध मुम्बई में शिवसेना ने बड़े तार्किक रूप से किया था। मुम्बई एक सीधी लाइन वाला शहर है, जिसे अंग्रेजी में ‘लीनियर सिटी’ कहते हैं। उत्तर से दक्षिण मुम्बई तक एक सीधी सड़क के दोनों ओर तमाम उपनगर और नगर बसा है। ऐसे में मुम्बई की धमनियों में रक्त बहता रहे, यह तभी संभव है, जब इस सीधी सड़क के यातायात में कोई रुकावट न हो। 

लगभग दो दशक पहले की बात है, मुंबई के मुसलमान भाइयों ने मस्जिदों के बाहर मुसल्ले बिछाकर हर जुम्मे को नमाज पढना शुरू कर दिया। जाहिर है इससे यातायात अवरुद्ध हो गया। आम जनता में इसका विरोध हुआ। शिव सैनिक इस मामले को लेकर बाला साहेब ठाकरे के पास गए। बाला साहेब ने हिन्दुओं को आदेश दिया कि वे हर मंदिर के बाहर तक खड़े होकर प्रतिदिन सुबह और शाम की आरती करें। जुम्मे की नमाज तो हफ्ते में एक दिन होती थी। अब यह आरती तो दिन में 2 बार होने लगी। व्यवस्था करने में मुम्बई पुलिस के हाथ-पांव फूल गए। नतीजतन मुम्बई के पुलिस आयुक्त ने दोनों धर्मों के नेताओं की मीटिंग बुलाई। पूरे सद्भाव के साथ यह सामूहिक फैसला हुआ कि न तो मुसलमान सड़क पर नमाज पढ़ेंगे और न ही हिन्दू सड़क पर आरती करेंगे। दोनों धर्मावलंबी आज तक अपने फैसले पर कायम हैं। 

अब देश की ताजा स्थिति पर गौर कर लें। गत दिनों भाजपा व सहयोगी संगठनों के कार्यकत्र्ताओं ने देश में कई जगह सड़कों पर नमाज का खुलकर विरोध किया। नतीजा यह हुआ कि हरियाणा सरकार ने मस्जिदों के बाहर नमाज पढने पर पाबंदी लगा दी। इसका असर आस-पास के राज्यों में भी हुआ। पिछले साल 11 मई को शुक्रवार था, आमतौर पर दिल्ली की कई मस्जिदों के बाहर दूर तक नमाजी फैल जाया करते थे, पर इस बार ऐसा नहीं हुआ। लोगों ने राहत की सांस ली। एक साथी पत्रकार ने मुझसे प्रश्न किया कि आप तो आस्थावान व्यक्ति हैं। क्या आप सड़कों पर नमाज पढने को उचित मानते हैं? मेरा उत्तर था-बिल्कुल नहीं। इस पर वे उछल पड़े और बोले कि जिस हिन्दू से भी यह प्रश्न पूछ रहा हूं, उसका उत्तर यही है। इसका मतलब मोदी व अमित शाह का चुनावी एजैंडा तय हो गया। 

मैंने पूछा, ‘‘कैसे’’? तो उनका उत्तर था-भाजपा और उसके सहयोगी संगठनों ने सड़कों पर नमाज का विरोध शुरू ही इसलिए किया है कि इससे हिन्दू और मुसलमानों का राजनीतिक धु्रवीकरण हो जाए और भाजपा को, विशेषकर उत्तर भारत में, हिन्दू मत हासिल करना सुगम हो जाए। अब भाजपा वाले अगले लोकसभा चुनाव तक ऐसे ही मुद्दे उछालते रहेंगे। जैसे तिरंगा ले जाकर मुसलमानों के मोहल्लों में पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे लगाना, अलीगढ़ मुस्लिम विद्यालय से जिन्ना का चित्र हटवाना आदि। जिससे लगातार हिन्दू मत एकजुट होते जाएं। 

उन पत्रकार महोदय का यह मूल्यांकन सही हो सकता है। राजनीति में चुनाव जीतने के लिए नए-नए मुद्दे खोजने का काम हर दल करता है, इसमें कुछ गलत नहीं। अब यह तो मतदाता के विवेक पर है कि वह अपना मत प्रयोग करने से पहले किसी राजनीतिक दल का आकलन किस आधार पर करता है। केवल भावना के आधार पर या उसके द्वारा विकास कर पाने की संभावनाओं के आधार पर। चुनावी बहस को छोड़ दें, तो भी यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि धर्म का इस तरह राजनीतिक प्रयोग कहां तक उचित है। चाहे वह कोई भी धर्म को मानने वाला कहे। इसमें संदेह नहीं है कि अल्पसंख्यकों ने राजनीतिक दलों का मोहरा बनकर, अपने आचरण से लगातार, दूसरे धर्मावलंबियों को उत्तेजित किया है। 

चाहे फिर वह समान नागरिक कानून की बात हो, मदरसों में धार्मिक शिक्षा और राजनीतिक प्रवचनों की बात हो या फिर सड़क पर जुम्मे की नमाज पढने की बात हो। कुछ लोग मानते हैं कि हिन्दूवादियों का वर्तमान आक्रोश उनकी सदियों की संचित कुंठा का परिणाम है। दूसरे ऐसा मानते हैं कि अपनी राजनीति के लिए भाजपा इसे नाहक ही तूल दे रही है। पर हमारे जैसे निष्पक्ष नागरिक को फिर वह चाहे हिन्दू हो, मुसलमान हो, सिख हो, पारसी हो, जो भी हो, उसे सोचना चाहिए कि धर्म की उसके जीवन में क्या सार्थकता है? 

अगर धर्म के अनुसार आचरण करने से उसके परिवार में सुख, शांति और रूहानियत आती है, तो धर्म उसके लिए आभूषण है। पर अगर धर्म के ठेकेदारों, चाहे वे किसी भी धर्म के हों, के इशारों पर नाचकर हम अविवेकपूर्ण व्यवहार करते हैं., तो वह तथाकथित धर्म हमारे लिए सामाजिक वैमनस्य का कारण बन जाता है, जिससे हमें बचना है। भारत में सदियों से सभी धर्म पनपते रहे हैं। अगर हम पारस्परिक सम्मान और सहयोग की भावना नहीं रखेंगे, तो समाज खंड-खंड हो जाएगा, अशांति और वैमनस्य बढ़ेगा तथा विकास अवरुद्ध हो जाएगा।

अनुभव बताता है कि जो राजनीतिक दल धर्म की राजनीति करते हैं उनकी भी उस धर्म के मूल सिद्धांतों में कोई आस्था नहीं होती। वो भी धर्म के प्रतीकों का दुरुपयोग केवल अपने राजनीतिक लक्ष्य प्राप्ति के लिए ही करते हैं। अगर उनसे तर्क वितर्क किया जाय तो वो जल्दी ही मान लेते हैं कि उनकी निष्ठा कहीं और है । यही हाल अन्य राजनीतिक विचारधाराओं का ढिंढोरा पीटेने वालों का भी होता है। फिर वो चाहें गांधीवादी विचारधारा हो, साम्यवादी हो या समाजवादी हो। ये सब एक सब ढकोसला है और मतदाताओं को लुभाने की युक्ति मात्र है। 

समस्या तब उत्पन्न होती है जब विचारधारा का झंडा लेकर चलने वाले दल समाज के एक वर्ग को इतना सम्मोहित कर लेते हैं कि लोग अपना विवेक खोकर अंध भक्त बन जाते हैं । उन्हें होश तब आता है जब  वे लुटपिट चुके होते हैं । तब तक राजनीतिक दल अपना उल्लू सीधा कर चुके होते हैं। 

ये भारत की ही नहीं पूरी दुनिया में राजनीति करने वालों की कहानी है। इसलिए आम जनता को अपने विवेक, समझ व अनुभव पर निर्भर रहकर निर्णयकरने  चाहिये। इसी में उसकी भलाई है।

Monday, December 23, 2019

क्या युवाओं को राजनीति करनी चाहिए?

जब-जब छात्र राजनैतिक व्यवस्था के विरूद्ध सड़क पर उतरते हैं, तब-तब ये सवाल उठता है कि क्या छात्रों को राजनीति करनी चाहिए? इस सवाल के जबाव अपनी-अपनी दृष्टि से हर समुदाय देता है । जो राजनैतिक दल सत्ता में होते हैं, वे छात्र आन्दोलन की भर्त्सना  करते हैं। उसे हतोत्साहित करते हैं और जब छात्र काबू में नहीं आते, तो उनका दमन करते हैं। फिर वो चाहे अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ स्वतंत्रता आन्दोलन में कूंदने वाले छात्र हों या 70 के दशक में गुजरात के नवनिर्माण आन्दोलन से शुरू होकर जयप्रकाश नारायण के संपूर्णं क्रांति के आव्हान पर कूंदने वाले छात्र हों, जिन्होने इंदिरा गांधी की सत्ता पलट दी थी या फिर अन्ना हजारे के आन्दोलन में कूंदने वाले छात्र हों। 

रोचक बात ये है कि जो दल सत्ता में आकर छात्रों का दमन करते हैं, वही दल जब विपक्ष में होते हैं, तो छात्र आन्दोलनों को हवा देकर ही अपनी राजनैतिक रोटियां सेंकते हैं। इसमें कोई दल अपवाद नहीं हैं। अगर शिक्षा संस्थानों और अभिभावकों की दृष्टि से देखा जाऐ, तो भी दो मत हैं। जो संस्थान या अभिभावक चाहते हैं कि उनके निर्देशन में युवा केवल पढ़ाई पर ध्यान दें, डिग्री हासिल करें और नौकरी करे, वे नहीं चाहते कि उनके छात्र किसी भी तरह की राजनीति में हिस्सा ले। 

मगर एक दूसरा वर्ग उन शिक्षकों और अभिभावकों का है, जो अपने छात्रों में पूर्णं विश्वास रखते हैं और जानते हैं कि चाहे वे छात्र राजनीति में कितना ही हिस्सा क्यों न लें, उन्हें अपने भविष्य को लेकर पूरी स्पष्टता है । इसलिए वे पढ़ाई की कीमत पर आन्दोलन नहीं करेंगे। ऐसे संस्थान और अभिभावक छात्रों को रचनात्मक राजनीति करने से नहीं रोकते।

अगर निष्पक्ष मूल्यांकन करें, तो हम पाऐंगे कि जो छात्र केवल पढ़ाई पर ध्यान देते हैं और रट्टू तोते की तरह इम्तेहान पास करते जाते हैं, उनके व्यक्तित्व का संूपर्णं विकास नहीं होता। प्रायः ऐसे नौजवानें में समाजिक सारोकार भी नहीं होते। उनका व्यक्तित्व एकांगी हो जाता है और जीवन के संघर्षों में वे उतनी मजबूती से नहीं खड़े हो पाते, जितना कि वे छात्र खड़े होते हैं, जिन्होंने शिक्षा के साथ सामाजिक सरोकार को बनाऐ रखा हो। 

जो छात्र विज्ञान, शोध या तकनीकी के क्षेत्र में जाते हैं, उनकी बात दूसरी है। उनका ध्यान अपने विषय पर ही केंद्रित रहता है और वे अपने संपूर्णं अंगों को कछुऐ की तरह समेटकर एक ही दिशा में लगातार काम करते जाते हैं।

अपने जीवन में मैंने भी अलग-अलग तरह माहौल में अनुभव प्राप्त किये हैं। जब तक मैं कॉलेज में पढ़तो था, तो मेरा व्यक्तित्व दो  धुरियों में बटां था। मेरे पिता जो एक बड़े शिक्षाविद् थे, उनके विचार यही थे कि मैं पढ़ू और नौकरी करूं। जबकि मेरी मां जोकि संस्कृत की विद्वान थी और मथुरा के रमणरेती वाले महाराज श्रद्धेय गुरू शरणनानंद जी की लखनऊ वि0वि0 की सहपाठी थीं, वे छात्र जीवन से ही गांधीवादी विचारधारा और सामाजिक सरोकारों को लेकर बहुत सक्रिय रहीं थीं। उनका ही प्रभाव मुझ पर ज्यादा पड़ा और 18 वर्ष की आयु में एक स्वयंसेवक के रूप में पिछड़े गाँवों में सेवा कार्य करने घर छोड़कर चला गया। 1974 के उस दौर में मैंने गाँव की गरीबी और बदहाली में जीवन के अनूठे अनुभव प्राप्त किये। उसका ही परिणाम है कि आजतक मैं धन कमाने की दौड़ में न पड़कर समाज, राष्ट्र या सनातन धर्म के विषयों पर अपनी ऊर्जा पूरी निष्ठा से लगाता रहा हूं। अगर इसे अपने मुंह मियाँ  मिट्ठू न माना जाऐ, तो देश में जो लोग मुझे जानते हैं, वो ये भी जानते हैं कि मैंने प्रभु कृपा भारत में कई बार इतिहास रचा है। ये निर्भीकता और समाज के प्रति समर्पण का ये भाव इसीलिए आया क्योंकि मैंने पढ़ाई के साथ समाज का भी अध्ययन जारी रखा। अन्यथा मैं आज किसी तंत्र की नौकरी में जीवन बिताकर खाली बैठा होता। जैसा आईसीएस रहे श्री जेसी माथुर ने सेवानिवृृत्त होने के बाद एक सुप्रसिद्ध बौद्धिक पत्रिका दिनमानमें एक श्रृंखला लिखी थी । जिसका मूल था कि मैं आईसीएस में रहते हुए, एक मशीन का पुर्जा था, जिसका न दिल था, न दिमाग था। कल का आईसीएस ही आज का आईएएस है। पिछले 35 वर्षों में सैंकड़ों आईएएस अधिकारियों से संपर्क रहा है और मैं दावे से कह सकता हूं कि वही आईएसएस अधिकारी जीवन में कुछ ठोस और रचनात्मक कार्य कर पाते हैं, जो अपनी नौकरी के मायाजाल के बाहर, समाज से जुड़कर सहज जीवन जीते हैं और अपनी संवेदनशीलता को मरने नहीं देते। बाकी तो पूरी जिंदगी अच्छी पोस्टिंग और प्रमोशन के चक्कर में ही काट देते हैं। इसके कुछ अपवाद हो सकते हैं। पर आमतौर पर यही अनुभव रहा है। 

इसलिए मैं इस बात का समर्थक हूं कि छात्रों को राजनीति में सक्रिय रूप से भाग लेना चाहिए। फिर वो चाहे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्य हों, किसी समाजवादी आन्दोलन के सदस्य हों, किसी वामपंथी आन्दोलन के सदस्य हों या किसी गांधीवादी आन्दोलन के सदस्य हों। जो भी हो  उन्हें इस प्रक्रिया से बहुत कुछ सीखने को मिलता है। प्रांतीय और केंद्र सरकार का ये दायित्व है कि वे छात्र राजनीति पर तब तक अंकुश न लगायें, जब तक कि वह हिंसात्मक या विध्वंसात्मक न हो। ऐसी छात्र राजनीति समाज की घुटन को सेफ्टी वाल्वके रूप में बाहर निकालती है और ये राज सत्ता के हित में ही होता है।

Monday, November 18, 2019

सूचना के अधिकार पर सर्वोच्च न्यायालय की मोहर

सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का दफतर भी सूचना के अधिकार कानून के दायरे में है। यह बात खुद सुप्रीम कोर्ट ने कह दी है। इससे एक बार फिर पक्का हो गया है कि यह कानून कितना महत्वपूर्ण है। ये अलग बात है कि सुप्रीम कोर्ट की इस व्याख्या का ज्यादा विश्लेषण नहीं हुआ। जबकि इस फैसले से भारतीय लोकतंत्र के कई खास पहलुओं पर भी बात की जा सकती थी।
फैसले से एक बात साफ हुई है कि पारदर्शिता और जवाबदेही किसी भी तरह से किसी की स्वतंत्रता में बाधक नहीं हो सकती। इस फैसले ने यह भी याद दिलाया कि लोकतंत्र में लोक सर्वोपरि है। लोक यानी नागरिकों के सामने सरकारी कामकाज पारदर्शी होना चाहिए।
फैसले का असर दूर तक होगा। इस कानून को सरकारी कामकाज में अड़चन मानने वालों को भारी झटका लगा है। वरना ऐसा माहौल बनाने की कोशिश होने लगी थी कि इस कानून का दुरूपयोग ज्यादा हो रहा है। ज्यादा कहने की जरूरत नहीं कि कुछ सूचनाओं को जनहित और देशहित के खिलाफ बताकर गोपनीय बनाए रखने के तर्क भी दिए जाते हैं। विशेष मामलों में यह तर्क सही भी हो सकता है लेकिन इसकी आड़ में जरूरी सूचनाओं के छुपाव की भी उतनी ही गुंजाइश बनती है। बहरहाल परम निरापद तो कोई भी प्रावधान नहीं होता। फिर भी इतना तय है कि इस कानून को सरकारी कामकाज में अड़चन मानने वालों के हौसले पस्त पड़ेंगे। उससे भी बड़ी बात यह कि अब इस कानून को और ज्यादा गंभीरता से लिए जाने का माहौल बनेगा।
फैसले का आगा पीछा देखा जाता तो चर्चा यह भी होती कि अदालत ने नागरिकों को कितनी अहमियत दी। राजनीतिक भाषा में लोकतंत्र का निर्माता ही नागरिक है। इस नाते वह ही संप्रभु है। लेकिन भारतीय लोकतंत्र में  उसकी संप्रभुता उसके बनाए कानून तक ही है। उसके प्रतिनिधि उसकी आंकाक्षा और हित में कानून बनाते हैं।  इन्ही कानूनों से सभी बंधे होते हैं। इस तरह से अपनी राजव्यवस्था में कानून ही संप्रभु है। यानी यह कहना गलत होगा कि कुछ नागरिक अपने रवैए से सरकारी कामकाज में अड़चन डाल सकते हैं।  किसी भी कानून बनने की प्रकिया में सबसे पहले यही इंतजाम सोचा जाता है जिससे कानून का बेजा इस्तेमाल न हो सके। सूचना के अधिकार का कानून इतना मामूली नहीं कि कुछ अवांछित तत्व इसका बेजा फायदा उठा ले जाएं। वैसे चलन यही है कि बेजा फायदा उठाने की कूवत ताकतवरों में ही होती है और सरकारी ओहदेदारों की ताकत कौन नहीं जानता। अपनी जवाबदेही से बचने की ताकत तो वे सबसे पहले हासिल करते हैं। लोकसेवकों की इसी ताकत से निपटने के लिए नागरिकों के लिए यह कानून रूपी हथियार बनाया गया था।
यह कानून सन 2005 में बना था। यानी अब से 14 साल पहले नागरिकों के सामने लोक सेवकों को जबाबदेह बनाने के मकसद से यह बना कानून था। और वाकई इसका असर इतना जबर्दस्त हुआ कि तब से अब तक तमाम सरकारें और अपनी नौकरशाही को चौकन्ना होना पड़ा कि कहीं कोई सवाल न पूछ ले। और इसीलिए दिन पर दिन आरटीआई नामके इस कानून के दुर्गणों की चर्चा बढ़ाई जा रही थी। लेकिन अदालत ने कह दिया है कि इस कानून से तो हम  भी बंधे हैं और सही बंधे हैं। सुप्रीम कोर्ट के फैसले से कानून से अंसंतुष्टों को भारी झटका लगा है।
सरकारी कामकाज में स्वतंत्रता के सवाल का जवाब भी इस फैसले में बिल्कुल साफ-साफ हैं? वैसे एक सवाल पूछा जा सकता है कि सरकारी लोग जवाब न देने की स्वतंत्रता चाहते क्यों हैं? बात को गहराई में जाकर देखा जाएगा तो स्वतंत्रता और स्वच्छंदता के बीच फर्क करने की बात उठेगी। जवाबदेही न हो तो स्वच्छंदता बढ़ती है। भ्रष्टाचार होता है।
फैसले का एक पहलू पारदर्शिता को लेकर है। इसी दशक में  देश में जब भ्रष्टाचार के खिलाफ गदर हुआ था तब पारदर्शिता पर ज्यादा बात नहीं हुई थी बल्कि एक नए प्रकार की पुलिस यानी लोकपाल की मांग हुई थी। बस लोकपाल के आगे एक विशेषण लगा था जन यानी जन लोकपाल की मांग की जा रही थी। क्या वह जन लोकपाल लोक सेवक से इतर कुछ हो सकता था। बहरहाल लोकपाल जब भी अपने वास्तविक स्वरूप में आएगा उसके सामने भी पारदर्शिता और जवाबदेही का मसला आना तय है। उसे भी सूचना के अधिकार से संपन्न नागरिकों के सवालों के जवाब देना ही पड़ेंगे। वह जवाब देने से बच भी कैसे सकता है? आखिर वह लोकसेवक ही होगा, उसे बताना पड़ेगा कि वह भ्रष्टाचार की किन किन शिकायतों पर कितनों से जांच कर रहा है और सवाल पूछे जाने के दिन तक अपनी जांच कहां तक की?

कुलमिलाकर भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में नागरिकों के पास आज तक जो भी अधिकार हैं उनमें सूचना का अधिकार अहम बनता जा रहा है। अपना सर्वोच्च न्यायालय अगर इसी तरह के फैसले करता रहा तो वह लोकतंत्र को मजबूत करने का जरूरी काम भी करता रहेगा।

Monday, November 11, 2019

श्रीराम मन्दिर आंदोलन के प्रणेता याद आते हैं

आज हम हिन्दुओं के सदियों पुराने ज़ख्मों पर मरहम लगा है इस ऐतिहासिक अवसर पर उन हज़ारों सन्तों   भक्तों को हमारी भावभीनी श्र्द्धांजली जिन्होंने पिछली सदियों में भगवान श्रीराम की जन्मभूमि की मुक्ति के लिए संघर्ष करते हुए अपने प्राणों का बलिदान किया। 

उल्लास के इस इस अवसर पर राम जन्मभूमि मुक्ति के लिए इस वर्तमान आंदोलन को शुरू करने में तीन प्रमुख हस्तियों के योगदान को विशेष रूप से याद करना आवश्यक है  

इस क़तार में सबसे आगे खड़े हैं ; स्वर्गीय श्री दाऊ दयाल खन्ना जी, जो मुरादाबाद से लम्बे समय तक विधायक और श्री चन्द्रभान गुप्ता की सरकार में स्वास्थ्य मंत्री रहे। उन्होंने सबसे पहले 1983 में एक विस्तृत तार्किक आलेख तय्यार करके तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी को प्रस्तुत किया। जिसमें अयोध्या, काशी और मथुरा को अवैध रूप से बनी मस्जिदों से मुक्त करके भव्य मंदिर बनाने को  हिंदू समाज को सौंपे जाने की माँग की थी। 

इंदिरा जी ने इस पर विशेष ध्यान नहीं दिया तब खन्ना जी ने श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति समिति बना कर इस आंदोलन की शुरुआत 1983 में की और अपने जीवन के अंत तक  कांग्रेसी रहते हुए ही इस आंदोलन से जुड़े रहे जल्दी ही विहिप और बाद में भाजपा  और संघ भी इस आंदोलन से पूरी ऊर्जा के साथ जुड़ गए  

दूसरे महान व्यक्ति जिनके ऐतिहासिक योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता, वो थे प्रातः स्मरणीय विरक्त संत ‘राम जन्मभूमि मुक्ति समिति’ के ‘मार्गदर्शक मंडलके अध्यक्ष श्रद्धेय स्वामी वामदेव जी महाराज। जिन्होंने साधुओं की अपनी विशाल विरक्त मंडली के साथ पूरे भारत के कोने कोने में जाकर सभी साधु संतों को श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन से जोड़ने का ऐतिहासिक कार्य किया। उनके संदर्भ में एक हृदय विदारक घटना का उल्लेख करना चाहूँगा जिसकी जानकारी देश में दो चार संतों के अलावा किसी को नहीं है। 

जब अक्तूबर 30,1990 को कार सेवा करने बड़ी श्रद्धा से देश के कोने कोने से अयोध्या पहुँचे लाखों निहत्थे कारसेवकों पर पुलिस ने फ़ाइरिंग करके सैंकड़ों को शहीद कर दिया था तो उस भयानक रात अयोध्या में मौत का सन्नाटा था। गलियों में जहां तहाँ भक्तों के शव बिखरे पड़े थे। ऐसे आतंक के माहौल में आंदोलन के सभी नेता जहां तहाँ छिपे थे। 

पर एक देवता जो सारी रात अकेला उन लाशों के बीच लाठी लेकर घूमता रहा , वो थे बूढ़े, अशक्त और अस्वस्थ श्रद्धेय स्वामी वामदेव जी महाराज। ब्रहम्मुहूर्त में जब वे आश्रम में नहीं दिखे तो घबराहट में साथ के साधुओं ने उनको खोजना शुरू किया तो स्वामी जी गली में लाठी लिये खड़े मिले चौंककर सबने पूछा महाराज ! आप यहाँ क्या कर रहे हैं ?उनका उत्तर सुनकर निश्चय ही आपके  नेत्र सजल हो जाएँगे। वे बोले , “भगवानमैं रात भर इन शहीदों के शवों की रक्षा करता रहा , जिससे गली के कुत्ते इन भक्तों के पवित्र शवों को अपना ग्रास बना सकें 

तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने स्वामी वामदेव जी से तब कहा था, “आप विहिप को छोड़ दीजिए, मैं कल ही आपको राम जन्मभूमि दे दूंगा! “स्वामी जी ने कहाआप लोकसभा मे आज ये घोषणा कीजिए, मैं कल ही विहिप छोड़ दूंगा।” 

नरसिंह राव जी ने एक बार उनसे कहा “आप सुरक्षा गार्ड ले लें।स्वामी जी बोले “गर्भ मे जिसने परीक्षित की रक्षा की थी, वे ही मेरा रक्षक है“। अयोध्या में ढाँचा गिरने के बाद वे सीधे हरिद्वार आए ,उनका कमरा तैयार नहीं था, तो वे मौनी बाबा के तखत पर ही लेट गए। बाबा ने पूछा महाराजआपका काम  अधूरा रह गया मंदिर कब बनेगा ? “ स्वामी वामदेव जी का उत्तर था, “मेरे तीन संकल्प थे; 1. जन्मभूमि से पराधीनता का चिन्ह मिटे। 2. भगवा वस्त्रधारी और श्वेतवस्त्रधारी संप्रदाय के भेद को भूलकर एक मंच पर  जायँ। 3. देश  का हिंदू जाग जाय। राम कृपा  से तीनों संकल्प पूरे हुए, अब मंदिर कब बनेगा ये रामलला जाने।रामलला ने आज ये भी पूरा कर दिया। स्वामी वामदेव जी का चित्र कार सेवकों के हुए नरसंहार की टीवी रिपोर्ट जो हमने 1990 में अयोध्या में बनाई थी उसे कालचक्र को यूटूब (Kalchakra Vol. 3) पर देखा जा सकता है। 

इस क्रम में तीसरा नाम श्री अशोक सिंघल जी का है। जो श्री दाऊ दयाल खन्ना जी से मिलने मुरादाबाद  में उनके घर गए और उनके इस आंदोलन को समर्थन देने का वायदा किया और फिर जीवन के अंत तक श्रीराम मंदिर के लिए लड़ते रहे। 

आज ये तीनों विभूतियाँ निश्चित रूप से भगवान श्री राम के नित्य निवास ‘साकेतधाम’ के पार्षद हैं और वहीं आकाश से इस निर्णय को एकमत से देने वाले सर्वोच्च न्यायालय के सभी न्यायाधीशों, विशेषकर न्यायमूर्ति श्री रंजन गोगोई और उनके मुसलमान साथी न्यायमूर्ति श्री अब्दुल नज़ीर साहब को आशीर्वाद दे रहे हैं। इस हर्षोल्लास की घड़ी में हम इन तीनों महान विभूतियों सहित ही उन सभी दिव्य भक्तों के श्रीचरणों में अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं, जिन्होंने किसी भी रूप में भगवान श्रीराम की जन्मभूमि मुक्ति के इस आंदोलन में थोड़ा सा भी योगदान किया।