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Monday, November 18, 2019

सूचना के अधिकार पर सर्वोच्च न्यायालय की मोहर

सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का दफतर भी सूचना के अधिकार कानून के दायरे में है। यह बात खुद सुप्रीम कोर्ट ने कह दी है। इससे एक बार फिर पक्का हो गया है कि यह कानून कितना महत्वपूर्ण है। ये अलग बात है कि सुप्रीम कोर्ट की इस व्याख्या का ज्यादा विश्लेषण नहीं हुआ। जबकि इस फैसले से भारतीय लोकतंत्र के कई खास पहलुओं पर भी बात की जा सकती थी।
फैसले से एक बात साफ हुई है कि पारदर्शिता और जवाबदेही किसी भी तरह से किसी की स्वतंत्रता में बाधक नहीं हो सकती। इस फैसले ने यह भी याद दिलाया कि लोकतंत्र में लोक सर्वोपरि है। लोक यानी नागरिकों के सामने सरकारी कामकाज पारदर्शी होना चाहिए।
फैसले का असर दूर तक होगा। इस कानून को सरकारी कामकाज में अड़चन मानने वालों को भारी झटका लगा है। वरना ऐसा माहौल बनाने की कोशिश होने लगी थी कि इस कानून का दुरूपयोग ज्यादा हो रहा है। ज्यादा कहने की जरूरत नहीं कि कुछ सूचनाओं को जनहित और देशहित के खिलाफ बताकर गोपनीय बनाए रखने के तर्क भी दिए जाते हैं। विशेष मामलों में यह तर्क सही भी हो सकता है लेकिन इसकी आड़ में जरूरी सूचनाओं के छुपाव की भी उतनी ही गुंजाइश बनती है। बहरहाल परम निरापद तो कोई भी प्रावधान नहीं होता। फिर भी इतना तय है कि इस कानून को सरकारी कामकाज में अड़चन मानने वालों के हौसले पस्त पड़ेंगे। उससे भी बड़ी बात यह कि अब इस कानून को और ज्यादा गंभीरता से लिए जाने का माहौल बनेगा।
फैसले का आगा पीछा देखा जाता तो चर्चा यह भी होती कि अदालत ने नागरिकों को कितनी अहमियत दी। राजनीतिक भाषा में लोकतंत्र का निर्माता ही नागरिक है। इस नाते वह ही संप्रभु है। लेकिन भारतीय लोकतंत्र में  उसकी संप्रभुता उसके बनाए कानून तक ही है। उसके प्रतिनिधि उसकी आंकाक्षा और हित में कानून बनाते हैं।  इन्ही कानूनों से सभी बंधे होते हैं। इस तरह से अपनी राजव्यवस्था में कानून ही संप्रभु है। यानी यह कहना गलत होगा कि कुछ नागरिक अपने रवैए से सरकारी कामकाज में अड़चन डाल सकते हैं।  किसी भी कानून बनने की प्रकिया में सबसे पहले यही इंतजाम सोचा जाता है जिससे कानून का बेजा इस्तेमाल न हो सके। सूचना के अधिकार का कानून इतना मामूली नहीं कि कुछ अवांछित तत्व इसका बेजा फायदा उठा ले जाएं। वैसे चलन यही है कि बेजा फायदा उठाने की कूवत ताकतवरों में ही होती है और सरकारी ओहदेदारों की ताकत कौन नहीं जानता। अपनी जवाबदेही से बचने की ताकत तो वे सबसे पहले हासिल करते हैं। लोकसेवकों की इसी ताकत से निपटने के लिए नागरिकों के लिए यह कानून रूपी हथियार बनाया गया था।
यह कानून सन 2005 में बना था। यानी अब से 14 साल पहले नागरिकों के सामने लोक सेवकों को जबाबदेह बनाने के मकसद से यह बना कानून था। और वाकई इसका असर इतना जबर्दस्त हुआ कि तब से अब तक तमाम सरकारें और अपनी नौकरशाही को चौकन्ना होना पड़ा कि कहीं कोई सवाल न पूछ ले। और इसीलिए दिन पर दिन आरटीआई नामके इस कानून के दुर्गणों की चर्चा बढ़ाई जा रही थी। लेकिन अदालत ने कह दिया है कि इस कानून से तो हम  भी बंधे हैं और सही बंधे हैं। सुप्रीम कोर्ट के फैसले से कानून से अंसंतुष्टों को भारी झटका लगा है।
सरकारी कामकाज में स्वतंत्रता के सवाल का जवाब भी इस फैसले में बिल्कुल साफ-साफ हैं? वैसे एक सवाल पूछा जा सकता है कि सरकारी लोग जवाब न देने की स्वतंत्रता चाहते क्यों हैं? बात को गहराई में जाकर देखा जाएगा तो स्वतंत्रता और स्वच्छंदता के बीच फर्क करने की बात उठेगी। जवाबदेही न हो तो स्वच्छंदता बढ़ती है। भ्रष्टाचार होता है।
फैसले का एक पहलू पारदर्शिता को लेकर है। इसी दशक में  देश में जब भ्रष्टाचार के खिलाफ गदर हुआ था तब पारदर्शिता पर ज्यादा बात नहीं हुई थी बल्कि एक नए प्रकार की पुलिस यानी लोकपाल की मांग हुई थी। बस लोकपाल के आगे एक विशेषण लगा था जन यानी जन लोकपाल की मांग की जा रही थी। क्या वह जन लोकपाल लोक सेवक से इतर कुछ हो सकता था। बहरहाल लोकपाल जब भी अपने वास्तविक स्वरूप में आएगा उसके सामने भी पारदर्शिता और जवाबदेही का मसला आना तय है। उसे भी सूचना के अधिकार से संपन्न नागरिकों के सवालों के जवाब देना ही पड़ेंगे। वह जवाब देने से बच भी कैसे सकता है? आखिर वह लोकसेवक ही होगा, उसे बताना पड़ेगा कि वह भ्रष्टाचार की किन किन शिकायतों पर कितनों से जांच कर रहा है और सवाल पूछे जाने के दिन तक अपनी जांच कहां तक की?

कुलमिलाकर भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में नागरिकों के पास आज तक जो भी अधिकार हैं उनमें सूचना का अधिकार अहम बनता जा रहा है। अपना सर्वोच्च न्यायालय अगर इसी तरह के फैसले करता रहा तो वह लोकतंत्र को मजबूत करने का जरूरी काम भी करता रहेगा।