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Monday, January 20, 2020

अमित शाह का बढ़ता ग्राफ

सीएए, एनआरसी और एनपीआर को लेकर जो भी प्रतिक्रिया देश में हो रही है, जो धरने और प्रदर्शन हो रहे हैं, उनका प्रभाव केवल मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों में है। जो हिंदू इन आन्दोलन से जुड़े हैं, वो या तो विपक्षी दलों से संबंधित हैं या धर्मनिरपेक्ष विचारधारा वाले है। बहुसंख्यक हिंदू समाज चाहे शहरों में रहता है या गाँवों में, गृहमंत्री अमित शाह के निर्णयओं से अभिभूत है क्योंकि उसे लगता कि सरदार पटेल के बाद देश में पहली बार एक ऐसा गृहमंत्री आया है जो अपने निर्णय दमदारी के साथ लेता और उन्हें लागू करता है ।जिस पर उसके विरोध का कोई फर्क नहीं पड़ता। 

पिछले कुछ महीनों में जिस तरह के निर्णंय अमित भाई शाह ने लिये है, उनसे एक संदेश साफ़ गया है कि मौजूदा सरकार, हिंदूओं के मन में पिछले 70 सालों से जो सवाल उठ रहे थे, उनके जबाव देने को तैयार है। फिर चाहे वो कश्मीर में धारा 370 हटाने का सवाल हो या नागरिकता का मामला हो या तीन तलाक का मामला हो या समान नागरिक कानून बनाने का मामला हो। हर मामले में अमित शाह के नेतृत्व में जो निर्णंय लिये जा रहे है और जिन पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की स्वीकृति की मोहर लगी है, वो वही  हैं जो अब तक आम हिंदू के मन में घुटे रहते थे। उनका सवाल था कि जब हमारा देश धर्मनिरपेक्ष है तो मुसलमानों के लिए अलग कानून क्यों ? अल्पसंख्यकों के लिए अलग मान्यता क्यों? कश्मीर अगर भारत का अभिन्न अंग है तो वहां विशेष राज्य का दर्जा क्यों? वहां के नागरिकों को विशेष सुविधाऐं क्यों? 

इसी तरह के सवाल थे कि जब पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिंदूओं की आबादी लगातार घट रही है, तो हिंदूओं के लिए भारत सरकार कुछ क्यों नहीं करती ? इन सारे सवालों का ग़ुबार हर हिंदु के मन में भरा था, उसको बड़ी तेजी से निकालने का काम अब अमित शाह कर रहे हैं। ये सही है कि अमित शाह के काम करने का तरीका कुछ लोगों  को कुछ हद तक अधिनायकवादी लग सकता है। लेकिन जिस तरह वो अपने तर्को को लोकसभा की बहसों में पेश करते हैं और जिस तरह कानूनी जानकारों को भी अपने तर्कों से निरूत्तर कर देते हैं, उससे ये लगता है कि वे जल्दीबाजी में या बिना कुछ सोचे-समझे ये कदम नहीं उठा रहे हैं । बल्कि उन्होंने अपने हर कदम के पहले पूरा चिंतन किया है और उसको संविधान के दायरे में लाकर लागू करने की रणनीति बनाई है, ताकि उसके रास्ते में कोई रुकावट आए। 

अगर हम आजाद भारत के इतिहास पर नजर डालें तो जैसा मैंने कई बार सोशल मीडिया पर भी लिखा है कि नक्सलवाद जैसी आतिवादी विचारधारा का जन्म बंगाल की वामपंथी दमनकारी नीतियों के विरूद्ध हुआ था। जो भी सरकार केंद्र या प्रांत में होती है, जब तक उसका विरोध प्रखर नहीं होता तब तक वो उसे बर्दाश्त कर लेती है। लेकिन देखने में आया है कि जब-जब विरोध प्रखर होता है और सत्ता में बैठा मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री या जो दल है वो मजबूत होता है तो उसकी प्रतिक्रिया प्रायः हिसंक होती है। इसके अपवाद बहुत कम मिलते हैं। जो लोग आज भारतीय जनता पार्टी की सरकार पर आतिवादी होने का आरोप लगा रहे हैं, उनको इस बात पर भी विचार करना चाहिए क्या पिछली सरकारों में ऐसी घटनाऐं नहीं हुई थी? मसलन जब बोफोर्स विवाद चल रहा था तब 1987 में इण्डियन एक्सप्रेसके पत्रकारों पर तेजाब किसने और क्यों फिकवाया था? ये बहुत ही गंभीर मामला था। लेकिन उसे आज हम भूल जाते हैं। 

इसी के साथ एक दूसरा विषय ये भी है कि जो योग्यता के सवाल को लेकर जैसे जवाहरलाल नेहरू विवि. में ही प्रश्न उठाये गये कि कुलपति के द्वारा अयोग्य लोगों की भर्तियां की जा रही है। क्या वामपंथी ये कह सकते हैं कि जब उनका प्रभाव था तब क्या सारी भर्तियां योग्यता के आधार पर ही हुई थी? तब क्या वामपंथियों ने अयोग्य लोगों की भर्तियां नहीं करी? 

इसी तरह एक प्रश्न और सामान्य भारतीय के मन में आता है वो ये कि आज बहुत बड़ी तादाद में मुसलमान सड़कों पर तिरंगा झण्डा लहरा रहे हैं और
जनगणमन गा रहे हैं और उन्हें इस बात की भी खुशी है कि बहुत सारे हिंदू भी उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर ये लड़ाई लड़ रहे हैं। पर क्या ये एकजुटता है वो हमेशा रहने वाली है? अगर हमेशा रहने वाली है, तो इसका अतीत क्या है ? कश्मीर में जब हिंदूओं को, खासकर जब कश्मीरी पण्डितों को आतंकित करके रातो-रात निकाला गया, पूरी कश्मीरी घाटी को हिंदूओं से खाली करवा लिया गया, उस वक्त इस तरह की एकजुटता क्यों नहीं दिखी? हिंदू और मुस्लिम एक साथ कश्मीरी पण्डितों के लिए सड़कों पर पिछले 30 सालों में कितनी बार निकले ? जिस वक्त श्रीनगर के लाल चौक  पर रोज़ तिरंगे झण्डे जलाऐ जा रहे थे, उस वक्त कितने मुसलमानों ने शेष भारत में सड़कों पर उतर कर इसका विरोध किया कि ये हमारा राष्ट्रीय ध्वज है, इसे न जलाया जाऐ? कितनी बार ऐसा हुआ है कि मोहर्रम के ताजिए या रामलीला की शोभायात्रा में बड़े-बड़े साम्प्रदायिक दंगे हुए हैं। ये सही कि दंगे भड़काने का काम राजनैतिक दल और स्वार्थीतत्व करते आऐ हैं। लेकिन समाज के स्तर पर अगर दोनों में इतनी सहानुभूति और समझ है तो फिर उसका प्रदर्शन सामान्य समय पर देखने को क्यों नहीं मिलता? इसलिए ऐसा लगता है क्योंकि इस समय मुसलमान असुरक्षित हैं महसूस कर रहे हैं इसलिए उनका देशप्रेम झलक रहा है।

भारत ही नहीं दुनिया के तमाम देशों में बसे हुए हिंदुओं का ये कहना है कि जब दुनिया में मुसलमानों के 58 देश हैं तो एक अकेला भारत हिंदू राष्ट्र क्यों न बने ? दुनिया के सबसे पुराने धर्म का एक भी देश दुनिया में नहीं है। क्योंकि हिंदू धर्म स्वभाव से ही उदारवादी होता है, इसलिए भारत में इतने सारे धर्म पनपते चले गये। वे ये प्रश्न भी करते हैं कि भारत में गैर हिंदूओं को जो छूट मिली है, वो क्या किसी मुसलमान देश में हिंदूओं को मिल सकती है ? 

इसके साथ ही एक भावना जो विश्व में फैल रही है, वो ये कि मुसलमान जिस देश में भी जाते हैं, वहां अपने धर्म का प्रभाव बढ़ाने मे ंजुट जाते हैं। जिससे समाज में अशान्ति पैदा होती है। इसलिए पश्चिम के देश ही नहीं बल्कि साम्यवादी चीन तक में मुसलमानों पर सरकार की पाबंदियाँ बढ़ाई जा रही हैं। इसलिए मुसलमानों के समझदार और उदारवादी वर्ग को आत्मचिंतन करना चाहिए कि ऐसा क्यों हो रहा है और इसे कैसे रोका जाऐ। तुर्की और इंडोनेशिया उदारवादी इस्लाम के बेहतरीन नमूने हैं। 

जहाँ तक धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए बल प्रदर्शन का आरोप है तो यह बात इसाई धर्म पर भी लागू होती है। जिसने मध्य युग में तलवार के जोर पर बाईबल का प्रचार किया और अपने उपनिवेशों पर तमाम अत्याचार किये। केवल हिंदू, बौद्ध, सिक्ख और जैन धर्म ही ऐसे है, जो भारत में जन्में और जिनका प्रचार-प्रसार अहिंसक तरीके से अपने दर्शन की गुणवत्ता के कारण हुआ। बावजूद इसके गत कुछ शताब्दियों में हिंदू धर्म का विधर्मियों ने जमकर मजाक उड़ाया और उसकी मान्यताओं को बिना परखे नकार दिया। हिंदू मन तो आहत हुआ ही समाज पर भी इसका दुष्प्रभाव पड़ा। अमित शाह की नीतियाँ इसीलिए दुनियाभर के हिंदूओं को प्रभावित कर रही है, क्योंकि उन्हें लगता है कि अंततः अब भारत हिंदू राष्ट्र बनेगा।

Monday, December 23, 2019

क्या युवाओं को राजनीति करनी चाहिए?

जब-जब छात्र राजनैतिक व्यवस्था के विरूद्ध सड़क पर उतरते हैं, तब-तब ये सवाल उठता है कि क्या छात्रों को राजनीति करनी चाहिए? इस सवाल के जबाव अपनी-अपनी दृष्टि से हर समुदाय देता है । जो राजनैतिक दल सत्ता में होते हैं, वे छात्र आन्दोलन की भर्त्सना  करते हैं। उसे हतोत्साहित करते हैं और जब छात्र काबू में नहीं आते, तो उनका दमन करते हैं। फिर वो चाहे अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ स्वतंत्रता आन्दोलन में कूंदने वाले छात्र हों या 70 के दशक में गुजरात के नवनिर्माण आन्दोलन से शुरू होकर जयप्रकाश नारायण के संपूर्णं क्रांति के आव्हान पर कूंदने वाले छात्र हों, जिन्होने इंदिरा गांधी की सत्ता पलट दी थी या फिर अन्ना हजारे के आन्दोलन में कूंदने वाले छात्र हों। 

रोचक बात ये है कि जो दल सत्ता में आकर छात्रों का दमन करते हैं, वही दल जब विपक्ष में होते हैं, तो छात्र आन्दोलनों को हवा देकर ही अपनी राजनैतिक रोटियां सेंकते हैं। इसमें कोई दल अपवाद नहीं हैं। अगर शिक्षा संस्थानों और अभिभावकों की दृष्टि से देखा जाऐ, तो भी दो मत हैं। जो संस्थान या अभिभावक चाहते हैं कि उनके निर्देशन में युवा केवल पढ़ाई पर ध्यान दें, डिग्री हासिल करें और नौकरी करे, वे नहीं चाहते कि उनके छात्र किसी भी तरह की राजनीति में हिस्सा ले। 

मगर एक दूसरा वर्ग उन शिक्षकों और अभिभावकों का है, जो अपने छात्रों में पूर्णं विश्वास रखते हैं और जानते हैं कि चाहे वे छात्र राजनीति में कितना ही हिस्सा क्यों न लें, उन्हें अपने भविष्य को लेकर पूरी स्पष्टता है । इसलिए वे पढ़ाई की कीमत पर आन्दोलन नहीं करेंगे। ऐसे संस्थान और अभिभावक छात्रों को रचनात्मक राजनीति करने से नहीं रोकते।

अगर निष्पक्ष मूल्यांकन करें, तो हम पाऐंगे कि जो छात्र केवल पढ़ाई पर ध्यान देते हैं और रट्टू तोते की तरह इम्तेहान पास करते जाते हैं, उनके व्यक्तित्व का संूपर्णं विकास नहीं होता। प्रायः ऐसे नौजवानें में समाजिक सारोकार भी नहीं होते। उनका व्यक्तित्व एकांगी हो जाता है और जीवन के संघर्षों में वे उतनी मजबूती से नहीं खड़े हो पाते, जितना कि वे छात्र खड़े होते हैं, जिन्होंने शिक्षा के साथ सामाजिक सरोकार को बनाऐ रखा हो। 

जो छात्र विज्ञान, शोध या तकनीकी के क्षेत्र में जाते हैं, उनकी बात दूसरी है। उनका ध्यान अपने विषय पर ही केंद्रित रहता है और वे अपने संपूर्णं अंगों को कछुऐ की तरह समेटकर एक ही दिशा में लगातार काम करते जाते हैं।

अपने जीवन में मैंने भी अलग-अलग तरह माहौल में अनुभव प्राप्त किये हैं। जब तक मैं कॉलेज में पढ़तो था, तो मेरा व्यक्तित्व दो  धुरियों में बटां था। मेरे पिता जो एक बड़े शिक्षाविद् थे, उनके विचार यही थे कि मैं पढ़ू और नौकरी करूं। जबकि मेरी मां जोकि संस्कृत की विद्वान थी और मथुरा के रमणरेती वाले महाराज श्रद्धेय गुरू शरणनानंद जी की लखनऊ वि0वि0 की सहपाठी थीं, वे छात्र जीवन से ही गांधीवादी विचारधारा और सामाजिक सरोकारों को लेकर बहुत सक्रिय रहीं थीं। उनका ही प्रभाव मुझ पर ज्यादा पड़ा और 18 वर्ष की आयु में एक स्वयंसेवक के रूप में पिछड़े गाँवों में सेवा कार्य करने घर छोड़कर चला गया। 1974 के उस दौर में मैंने गाँव की गरीबी और बदहाली में जीवन के अनूठे अनुभव प्राप्त किये। उसका ही परिणाम है कि आजतक मैं धन कमाने की दौड़ में न पड़कर समाज, राष्ट्र या सनातन धर्म के विषयों पर अपनी ऊर्जा पूरी निष्ठा से लगाता रहा हूं। अगर इसे अपने मुंह मियाँ  मिट्ठू न माना जाऐ, तो देश में जो लोग मुझे जानते हैं, वो ये भी जानते हैं कि मैंने प्रभु कृपा भारत में कई बार इतिहास रचा है। ये निर्भीकता और समाज के प्रति समर्पण का ये भाव इसीलिए आया क्योंकि मैंने पढ़ाई के साथ समाज का भी अध्ययन जारी रखा। अन्यथा मैं आज किसी तंत्र की नौकरी में जीवन बिताकर खाली बैठा होता। जैसा आईसीएस रहे श्री जेसी माथुर ने सेवानिवृृत्त होने के बाद एक सुप्रसिद्ध बौद्धिक पत्रिका दिनमानमें एक श्रृंखला लिखी थी । जिसका मूल था कि मैं आईसीएस में रहते हुए, एक मशीन का पुर्जा था, जिसका न दिल था, न दिमाग था। कल का आईसीएस ही आज का आईएएस है। पिछले 35 वर्षों में सैंकड़ों आईएएस अधिकारियों से संपर्क रहा है और मैं दावे से कह सकता हूं कि वही आईएसएस अधिकारी जीवन में कुछ ठोस और रचनात्मक कार्य कर पाते हैं, जो अपनी नौकरी के मायाजाल के बाहर, समाज से जुड़कर सहज जीवन जीते हैं और अपनी संवेदनशीलता को मरने नहीं देते। बाकी तो पूरी जिंदगी अच्छी पोस्टिंग और प्रमोशन के चक्कर में ही काट देते हैं। इसके कुछ अपवाद हो सकते हैं। पर आमतौर पर यही अनुभव रहा है। 

इसलिए मैं इस बात का समर्थक हूं कि छात्रों को राजनीति में सक्रिय रूप से भाग लेना चाहिए। फिर वो चाहे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्य हों, किसी समाजवादी आन्दोलन के सदस्य हों, किसी वामपंथी आन्दोलन के सदस्य हों या किसी गांधीवादी आन्दोलन के सदस्य हों। जो भी हो  उन्हें इस प्रक्रिया से बहुत कुछ सीखने को मिलता है। प्रांतीय और केंद्र सरकार का ये दायित्व है कि वे छात्र राजनीति पर तब तक अंकुश न लगायें, जब तक कि वह हिंसात्मक या विध्वंसात्मक न हो। ऐसी छात्र राजनीति समाज की घुटन को सेफ्टी वाल्वके रूप में बाहर निकालती है और ये राज सत्ता के हित में ही होता है।