Monday, July 31, 2023

महिलाऐं वीभत्स हिंसा की शिकार क्यों?


मणिपुर की घटना ने देश विदेश के सभ्य समाज को झँकझोड़ दिया है। दो महिलाओं को निर्वस्त्र करके उनसे छेड़छाड़ करते हुए वहशी मर्दों की भीड़ ने जिस तरह उनकी परेड करवायी, उससे इस वीडियो को देखने वाले दहल गये। सामंती व्यवस्थाओं में और मध्य युग में ग़ुलामों महिलाओं के साथ जो व्यवहार होता था ये उसका एक ट्रेलर था। मणिपुर के मुख्यमंत्री ने भी स्वीकारा कि ऐसी सौ से ज़्यादा घटनाएँ वहाँ पिछले दो महीनों में हुई हैं। राज्य और केंद्र की सरकार मूक दर्शक बनी तमाशा देखती रही।
 



एक तरफ़ देश के मर्दों की ये हरकतें हैं तो दूसरी तरफ़ इस देश के राजनैतिक दल महिलाओं को राजनीति में उनके प्रतिशत के अनुपात में आरक्षण देने को तैयार नहीं हैं। जबकि देश के हर हिस्से में महिलाओं के उपर पाश्विकता की हद तक कामुक तत्वों के हिंसक हमले बढ़ते जा रहे हैं। जब देश की राजदधानी दिल्ली में ही सड़क चलती लड़कियों को दिन-दहाड़े शोहदे उठाकर ले जाते हैं और बलात्कार व हत्या करके फैंक देते हैं, तो देश के दूरस्थ इलाकों में महिलाओं पर क्या बीत रही होगी, इसका अन्दाजा शायद राष्ट्रीय महिला आयोग को भी नहीं है। आश्चर्य की बात तो यह है कि जिन राज्यों की मुख्यमंत्री महिलाऐं हैं, उन राज्यों की महिलाऐं भी सुरक्षित नहीं। इसकी क्या वजह है?



महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ने वाली गुड़गाँव की अमीना शेरवानी का कहना है कि पूरे वैश्विक समाज में शुरू से महिलाओं को सम्पत्ति के रूप में देखा गया। उनका कन्यादान किया गया या मेहर की रकम बांधकर निकाहनामा कर लिया गया। कुछ जनजातिय समाज हैं जहाँ महिलाओं को बराबर या पुरूषों से ज्यादा अधिकार प्राप्त हैं। माना जाता रहा है कि बचपन में महिला पिता के संरक्षण में रहेगी। विवाह के बाद पति के और वैधव्य के बाद पुत्र के। यानि उसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होगा। यह बात दूसरी है कि आधुनिक महिलाऐं इन सभी मान्यताओं को तोड़ चुकी हैं या तोड़ती जा रही हैं। लेकिन उनकी तादाद पूरी आबादी की तुलना में नगण्य है।


बहुत से लोग मानते हैं कि जिस तरह की अभद्रता, अश्लीलता, कामुकता व हिंसा टी.वी. और सिनेमा के परदे पर दिखायी जा रही है, उससे समाज का तेजी से पतन हो रहा है। आज का युवावर्ग इनसे प्रेरणा लेकर सड़कों पर फिल्मी रोमांस के नुस्खे आजमाता है। जिसमें महिलाओं के साथ कामुक अत्याचार शामिल है। यह बात कुछ हद तक सही है कि दृश्य, श्रृव्य माध्यम का व्यक्ति के मनोविज्ञान पर गहरा प्रभाव पड़ता है। पर ऐसा नहीं है कि जबसे मनोरंजन के यह माध्यम लोकप्रिय हुए हैं, तबसे ही महिलाऐं कामुक हमलों का शिकार होने लगी हों। पूरा मध्ययुगीन इतिहास इस बात का गवाह है कि अनवरत युद्धरत राजे-महाराजाओं और सामंतों ने महिला को लूट में मिले सामान की तरह देखा और भोगा। द्रौपदी के पाँच पति तो अपवाद हैं। जिसके पीछे आध्यात्मिक रहस्य भी छिपा है। पर ऐसे पुरूष तो लाखों हुए हैं, जिन्होंने एक से कहीं ज्यादा पत्नियों और स्त्रीयों को भोगा। युद्ध जीतने के बाद दूसरे राजा की पत्नियों और हरम की महिलाओं को अपने हरम में शामिल करना राजाओं या शहंशाहों के लिए गर्व की बात रही।



नारी मुक्ति के लिए अपने को प्रगतिशील मानने वाले पश्चिमी समाज की भी मानसिकता कुछ भिन्न नहीं। न्यू यॉर्क में रहने वाली मेरी एक महिला पत्रकार मित्र ने कुछ वर्ष पहले दुनिया भर के प्रमुख देशों में महिलाओं की सामाजिक स्थिति पर एक शोधपूर्ण रिपोर्ट प्रकाशित की थी। इस शोध के दौरान उन्हें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि नारी मुक्ति की घोर वकालत करने वाली यूरोप की महिलाऐं भाषण चाहें जितना दें, पर पति या पुरूष वर्ग के आगे घुटने टेकने में उन्हें कोई संकोच नहीं है। वे शिकायत करती हैं कि उनके पति उन्हें रसोईये, घर साफ करने वाली, बच्चों की आया, कपड़े धोने वाली और बिस्तर पर मनोरंजन देने वाली वस्तु के रूप में समझते और व्यवहार करते हैं। ये कहते हुए वे आँखें भर लाती हैं। पर जब उनसे पूछा गया कि आप इस बंधन से मुक्त होकर स्वतंत्र जीवन क्यों नहीं जीना चाहतीं? तो वे तपाक से उत्तर देती हैं कि हम जैसी भी हैं, सन्तुष्ट हैं, आप हमारे सुखी जीवन में खलल क्यों डालना चाहते हैं? ऐसे विरोधाभासी वक्तव्य से यह लगता है कि पढ़ी-लिखी महिलाऐं भी गुलामी की सदियों पुरानी मानसिकता से मुक्त नहीं हो पायी हैं। मतलब ये माना जा सकता है कि महिलाऐं खुद ही अपने स्वतंत्र और मजबूत अस्तित्व के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं हैं। उन्हें हमेशा सहारे और सुरक्षा की जरूरत होती है। तभी तो किसी शराबी, कबाबी और जुआरी पति को भी वे छोड़ना नहीं चाहतीं। चाहें कितना भी दुख क्यों न झेलना पड़े। फिर पुरूष अगर उन्हें उपभोग की वस्तु माने तो क्या सारा दोष पुरूष समाज पर ही डालना उचित होगा?



इस सबसे इतर एक भारत का सनातन सिद्धांत भी है। जो यह याद दिलाता है कि पति की सेवा, बच्चों का भरण-पोषण और शिक्षण इतने महत्वपूर्ण कार्य हैं, जिन्हें एक महिला से बेहतर कोई नहीं कर सकता। जिस घर की महिला अपने पारिवारिक दायित्वों का कुशलता और खुले ह्रदय से वहन करती है, उसे न तो व्यवसाय करने की आवश्यकता है और न ही कहीं और भटकने की। ऐसी महिलाऐं घर पर रहकर तीन पीढ़ियों की परवरिश करती हैं। सब उनसे सन्तुष्ट और सुखी रहते हैं। फिर क्या आवश्यकता है कि कोई महिला देहरी के बाहर पाँव रखे? जब घर के भीतर रहेगी तो अपने बच्चों का भविष्य बेहतर बनायेगी। क्योंकि उन्हें वह सब ज्ञान और अनुभव देगी जो उसने वर्षों के तप के बाद हासिल किया है।


आज जब देश में हर मुद्दे पर बहस छिड़ जाना आम बात हो गयी है। दर्जनों टी.वी. चैनल एक से ही सवाल पर घण्टों बहस करते हैं। तो क्यों न इस सवाल पर भी देश में एक बहस छेड़ी जाए कि महिलाऐं कामुक अपराधिक हिंसा का शिकार हैं या उसका कारण? इस प्रश्न का उत्तर समाधान की दिशा में सहायता करेगा। यह बहस इसलिए भी जरूरी है कि हम एक तरफ दुनिया के तेजी से विकसित हो रही अर्थव्यवस्था का दावा करते हैं और दूसरी ओर हमारी महिलाऐं मुध्ययुग से भी ज्यादा वीभत्स अपराधों और हवस का शिकार बन रही हैं।

Monday, July 24, 2023

बज गयी 2024 की रणभेरी


पक्ष और विपक्ष अपने-अपने हाथी, घोड़े, रथ और पैदल तैयार करने में जुट गये हैं। दिल्ली और बैंगलुरु में दोनों पक्षों ने अपना अपना कुनबा जोड़ा है। जहां नए बने संगठन ‘इंडिया’ में 25 दल शामिल हुए हैं वहीं एनडीए 39 दलों के साथ आने का दावा कर रहा है। अगर इन दावों की गहराई में पड़ताल करें तो बड़ी रोचक तस्वीर सामने आती है। 


पिछले चुनाव में एनडीए में अब शामिल हुए इन 39 दलों को मिले वोट जोड़ें तो इस गठबंधन को देश भर में 23 से 24 करोड़ के बीच वोट मिले थे। जबकि ‘इंडिया’ के मौजूदा गठबंधन को 26 करोड़ वोट मिले थे। पर ये वोट इतने सारे दलों में आपसी मुक़ाबले के कारण बंट गये। जिससे इनकी हार हुई। अगर ये गठबंधन ईडी, सीबीआई व आईटी की धमकियों के बावजूद एकजुट बना रहता है और मुक़ाबला आमने-सामने का होता है तो जो परिणाम आयेंगे वो स्पष्ट हैं। 


दूसरा पक्ष ये है कि जहां एनडीए आज 60 करोड़ भारतीयों पर राज कर रही है वहीं ‘इंडिया’ संगठन 80 करोड़ भारतीयों पर आज राज कर रहा है और इसके शासित राज्य भी एनडीए से कहीं ज्यादा हैं। 



जहां तक परिवारवाद का आरोप है तो दोनों संगठनों में परिवारवाद प्रबल और समान है। अंतर ये है कि जहां एनडीए में शामिल 39 दलों में परिवारवादी नेताओं का कोई जनाधार नहीं है। उनमें से ज़्यादातर दल ऐसे हैं जिनमें एक भी विधायक तक नहीं है। जबकि ‘इंडिया’ संगठन में जो परिवारवाद है उसके सदस्य दशकों तक राज्यों का शासन चलाने के अनुभवी और बड़े जनाधार वाले नेता हैं। जहां बीजेपी के नेताओं ने शुरू में दावा किया था कि वो कांग्रेस मुक्त भारत बनायेंगे वहाँ आज एनडीए स्वयं ही कांग्रेसयुक्त संगठन बन चुका है। जिसमें कई केंद्रीय मंत्री व मुख्यमंत्री वो हैं जो कांग्रेस के स्थापित नेता थे पर ईडी, सीबीआई की धमकियों से डरकर बीजेपी में शामिल हुए हैं।


आने वाले चुनाव में जहां ‘इंडिया’ संगठन को टिकट बाँटने में कम दिक़्क़त आएगी क्योंकि उनके सब दावेदार जनाधार वाले हैं और कई चुनाव जीत चुके हैं। वे वहीं से लें टिकट। अलबत्ता उन्हें अपने अहम और महत्वाकांक्षा पर अंकुश लगाना होगा। जबकि एनडीए में शामिल ज़्यादातर दल ऐसे हैं जो आजतक एक विधायक का चुनाव भी नहीं जीते पर अब लोकसभा के लिये ये सभी अपनी औक़ात से ज्यादा टिकट माँगेंगे। तब बीजेपी के सामने बड़ी चुनौती खड़ी हो जाएगी। 



बीजेपी का जो इतिहास रहा है कि शिव सेना जैसे जितने भी दलों ने उसका साथ दिया उन सबको बीजेपी ने या तो अपमानित किया या उनको हड़प ही गयी। ऐसे में अबकी बार फिर से एनडीए में शामिल हुए दल हमेशा अपना अस्तित्व खोने के डर से ग्रस्त रहेंगे। उन्हें इस बात का भी सामना करना पड़ेगा कि आरएसएस उन्हें अपने रंग में रंगने का भरपूर प्रयास करेगा। कुल मिलाकर अगर देखा जाए तो ‘इंडिया’ संगठन के बनने से बीजेपी और एनडीए संगठन के सामने बहुत बड़ी चुनौती खड़ी हो गयी है। जिसको देखकर अब 2024 का चुनाव बहुत रोचक होने जा रहा है।


जिस तरह भाजपा को विपक्ष के ‘इंडिया’ नाम के संगठन से आपत्ति हो रही है उसका असल कारण विपक्ष की एकजुटता है। वरना जब दक्षिण भारत के राज्य तेलंगाना की एक क्षेत्रीय पार्टी ने अपना नाम बदल कर उसे ‘भारत राष्ट्र समिति’ कर दिया तो भाजपा या एनडीए के किसी भी सहयोगी दल ने इस पर आपत्ति नहीं जताई। इस विपक्षी एकजुटता को भाजपा आगामी लोकसभा चुनावों में एक गंभीर चुनौती मान रही है। 


जब 2014 में मोदी जी लोकसभा चुनावी मैदान में उतरे थे तब ऐसी कोई भी चुनौती उनके सामने नहीं थी। ‘इंडिया’ संगठन बनने के बाद इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि विपक्षी दल ना सिर्फ़ एकजुट होते दिखाई दे रहे हैं बल्कि एनडीए के ख़िलाफ़ युद्ध करने को चुनावी बिगुल बजा रहे  हैं। 



भाजपा के कुछ नेता ‘इंडिया’ संगठन के अंग्रेज़ी नाम को लेकर भी काफ़ी असहज दिखाई दिये हैं। इतना असहज कि इंडिया नाम को अंग्रेजों की देन बता कर उसका विरोध भी कर रहे हैं। उन्होंने अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर से भी इंडिया को हटा कर भारत रख दिया है। विपक्ष ने इस पर चुटकी लेते हुए कहा कि यदि इंडिया नाम से इतनी आपत्ति है तो क्या सरकार द्वारा चलाई जाने वाली उन सभी योजनाओं के नाम भी बदले जाएँगे जहां ‘इंडिया’ का उपयोग किया गया है? मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया, स्किल इंडिया व स्टैंड अप इंडिया आदि। क्या भाजपा अपने सोशल मीडिया हैंडल का नाम BJP4India को भी बदलेगी? यदि अन्य राजनैतिक पार्टियों के नाम को खंगाला जाए तो आपको ऐसी कई पार्टियाँ मिलेंगी जिनके नाम में भारत, भारतीय, इंडिया, इण्डियन शब्द अवश्य मिलेगा। तो फिर इस बेतुके विवाद को क्यों खड़ा किया जा रहा है? 


असल में भाजपा और एनडीए को जिस बात से अधिक परेशानी है, वो विपक्षी दलों का एक ऐसा ऐलान है जिसका सामना भाजपा को आने वाले लोकसभा चुनावों में करना पड़ेगा। ग़ौरतलब है कि विपक्षी नेताओं ने इस बात की घोषणा कर दी है कि वो आगामी लोकसभा चुनावों में भाजपा और एनडीए के हर एक चुनावी प्रत्याशी के ख़िलाफ़ ‘इंडिया’ संगठन अपने सभी दलों का समर्थित एक प्रत्याशी ही उतारेंगे जो उस संसदीय क्षेत्र में काफ़ी लोकप्रिय होगा। ज़ाहिर सी बात है कि इससे विपक्षी दलों में बंटने वाले वोट एकजुट हो जाएँगे और भाजपा को काफ़ी नुक़सान हो सकता है। 

      

आगामी महीनों में चार राज्यों में विधान सभा चुनाव होने जा रहे हैं। उनके परिणाम देश की दिशा तय करेंगे। उसके बाद भी लोक सभा चुनाव में जहां बीजेपी के नेता हिंदू मुसलमान के नाम पर ध्रुवीकरण करवाने की हर संभव कोशिश करेंगे वहीं ‘इंडिया’ संगठन बेरोज़गारी, महंगाई, दलितों पर अत्याचार और समाज में बँटवारा कराने के आरोप लगाकर बीजेपी को कठघरे में खड़ा करेगा। विपक्ष मोदी जी से 2014 में किए गए वायदों के पूरा न होने पर भी पर सवाल करेगा। जबकि बीजेपी भारत को विश्व गुरु बनाने जैसे नारों से मतदाताओं को लुभाने की कोशिश करेगी। अब देखना ये होगा कि मतदाता किसकी तरफ़ झुकता है।

Monday, July 17, 2023

ईडी: कार्यपालिका पर न्यायपालिका की नज़र


प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के मौजूदा निदेशक संजय कुमार मिश्रा के कार्यकाल विस्तार को सर्वोच्च न्यायालय ने अवैध ठहराया है। क्योंकि उनको तीन बार जो सेवा विस्तार दिया गया वो सर्वोच्च न्यायालय के 1997 के आदेश, ‘विनीत नारायण बनाम भारत सरकार, सीवीसी एक्ट, दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टेब्लिशमेंट एक्ट व कॉमन कॉज़’ के फ़ैसले के विरुद्ध था। इन सब फ़ैसलों के अनुसार ईडी निदेशक का कार्यकाल केवल दो वर्ष का ही होना चाहिए। इस तरह लगातार सेवा विस्तार देने का उद्देश्य क्या था? इस सवाल के जवाब में भारत सरकार का पक्ष यह था कि श्री मिश्रा ‘वित्तीय कार्रवाई कार्य बल’ (एफ़एटीएफ़) में भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं इसलिए इनको सेवा विस्तार दिया जा रहा है। जबकि एफ़एटीएफ़ की वेबसाइट पर ईडी निदेशक का कोई कोई उल्लेख नहीं है। इस पर न्यायाधीशों की टिप्पणी थी कि क्या भारत में कोई दूसरा व्यक्ति इतना योग्य नहीं है जो ये काम कर सके? 



संजय कुमार मिश्रा की कार्य प्रणाली पर लगातार उँगलियाँ उठती रहीं हैं। उन्होंने जितने नोटिस भेजे, छापे डाले, गिरफ़्तारियाँ की या संपत्तियाँ ज़ब्त कीं वो सब विपक्ष के नेताओं के ख़िलाफ़ थीं। जबकि सत्तापक्ष के किसी नेता, विधायक, सांसद व मंत्री के ख़िलाफ़ कोई करवाई नहीं की। इससे भी ज़्यादा विवाद का विषय यह था कि विपक्ष के जिन नेताओं ने ईडी की ऐसी करवाई से डर कर भाजपा का दामन थाम लिया, उनके विरुद्ध आगे की करवाई फ़ौरन रोक दी गई। ये निहायत अनैतिक कृत्य था। जिसका विपक्षी नेताओं ने तो विरोध किया ही, देश-विदेश में भी ग़लत संदेश गया। सोशल मीडिया पर भाजपा को ‘वाशिंग पाउडर’ कह कर मज़ाक़ बनाया गया। अगर श्री मिश्रा निष्पक्ष व्यवहार करते तो भी उनके कार्यकाल का विस्तार अवैध ही था, पर फिर इतनी उँगलियाँ नहीं उठतीं। इन्हीं सब कारणों से सुप्रीम कोर्ट ने उनके सेवा विस्तार को अवैध करार दिया और भारत सरकार को निर्देश दिया कि वो 31 जुलाई 2023 तक ईडी के नये निदेशक को नियुक्त कर दें। इसे देश-विदेश में एक बड़ा फ़ैसला माना गया है। हालाँकि सेवा विस्तार के सरकारी अध्यादेश को निर्धारित प्रक्रिया के तहत पालन करने की छूट भी भारत सरकार को दी गई। मनमाने ढंग से अब सरकार ये सेवा विस्तार नहीं दे सकती। 



सर्वोच्च न्यायालय के इस फ़ैसले का देश की नौकरशाही ने बहुत स्वागत किया है। उनकी इस भावना का वैध कारण भी है। कोई भी व्यक्ति जब आईएएस, आईपीएस या आईआरएस की नौकरी शुरू करता है तो उसे इस बात उम्मीद होती है कि अपने सेवा काल के अंत में, वरिष्ठता के क्रम से, अगर संभव हुआ तो वो सर्वोच्च पद तक पहुँचेगा। परंतु जब एक ही व्यक्ति को इस तरह बार-बार सेवा विस्तार दिया जाता है तो उसके बाद के बैच के अधिकारी ऐसे पदों पर पहुँचने से वंचित रह जाते हैं। जिससे पूरी नौकरशाही में हताशा फैलती है। यह सही है कि ऐसे महत्वपूर्ण पदों पर किस व्यक्ति को तैनात करना है, ये फ़ैसला प्रधान मंत्री की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय नियुक्ति समिति करती है। पर इसके लिए भी कुछ नियम और प्रक्रिया निर्धारित हैं। जैसे इस समिति को विचारार्थ संभावित उम्मीदवारों की जो सूची भेजी जाती है उसे केंद्रीय सतर्कता आयोग छान-बीन करके तैयार करता है। लेकिन हर सरकार अपने प्रति वफादार अफ़सरों को तैनात करने की लालसा में कभी-कभी इन नियमों की अवहेलना करने का प्रयास करती है। इसी तरह के संभावित हस्तक्षेप को रोकने के लिए दिसंबर 1997 में जैन हवाला कांड के मशहूर फ़ैसले में विस्तृत निर्देश दिये गये थे। 



इन निर्देशों की अवहेलना, जैसे अब मोदी सरकार ने की है वैसे ही 2014 में मनमोहन सिंह सरकार ने भी की थी। जब उसने तमिलनाडु की पुलिस महानिदेशक अर्चना रामासुंदरम को पिछले दरवाज़े से ला कर सीबीआई का विशेष निदेशक नियुक्त कर दिया था। इस बार की ही तरह 2014 में भी मैंने इस अवैध नियुक्ति को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी। मेरी उस याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने अर्चना रामासुंदरम की नियुक्ति को ख़ारिज कर दिया था। 


उधर गृह मंत्री अमित शाह ने ईडी वाले मामले में फ़ैसला आते ही ट्विटर पर बयान दिया कि विपक्षी दल ख़ुशी न मनाएँ क्योंकि भ्रष्टाचार के विरुद्ध ईडी की मुहिम जारी रहेगी। उनका ये बयान स्वागत योग्य है यदि ईडी की ये मुहिम बिना भेद-भाव के सत्तापक्ष और विपक्ष के संदेहास्पद लोगों के ख़िलाफ़ जारी रहती है। जहां तक मेरा प्रश्न है मेरा कभी कोई राजनैतिक उद्देश्य नहीं रहता। चूँकि सीबीआई, सीवीसी, ईडी आदि को अधिकतम स्वायत्तता दिलवाने में मेरी भी अहम भूमिका रही थी। इसलिए जब भी कोई सरकार ऐसे मामलों में क़ानून के विरुद्ध कुछ करती है तो मैं उसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती देना अपना कर्तव्य समझता हूँ।



सर्वोच्च न्यायालय के इस फ़ैसले से उत्साहित हो कर देश के मीडिया में एक बहस चल पड़ी है कि अगर सर्वोच्च न्यायालय ने संजय कुमार मिश्रा के कार्यकाल के विस्तार को अवैध माना है तो श्री मिश्रा द्वारा इस दौरान लिये गये सभी निर्णय भी अवैध क्यों न माने जाएँ? इस तरह के सुझाव मुझे भी देश भर से मिल रहे हैं कि मैं इस मामले में फिर से सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाऊँ। फ़िलहाल मुझे इसकी ज़रूरत महसूस नहीं हो रही। कारण, सर्वोच्च न्यायालय के ‘विनीत नारायण बनाम भारत सरकार’ फ़ैसले में पहले से ही इस बात का सुझाव है कि ईडी व सीबीआई के कार्यकलापों की एक नोडल एजेंसी द्वारा हर महीने समीक्षा की जाएगी। इस समिति की अध्यक्षता, भारत के गृह सचिव करेंगे। जिनके अलावा इसमें सीबीडीटी के सदस्य (इन्वेस्टीगेशन), महानिदेशक राजस्व इंटेलिजेंस, ईडी व सीबीआई के निदेशक रहेंगे, विशेषकर जिन मामलों में नेताओं और अफ़सरों के आपराधिक गठजोड़ के आरोप हों। ये नोडल एजेंसी हर महीने ऐसे मामलों का मूल्यांकन करेगी। अगर सर्वोच्च न्यायालय के इस सुझाव को सरकार अहमियत देती है तो ऐसे विवाद खड़े ही नहीं होंगे। ईडी और सीबीआई दो सबसे महत्वपूर्ण जाँच एजेंसियाँ हैं जिनकी साख धूमिल नहीं होनी चाहिए। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हर सरकार इन एजेंसियों का दुरुपयोग करने की कोशिश करती हैं। पर इससे सरकार और ये एजेंसियाँ नाहक विवादों में घिरते रहते हैं और हर अगली सरकार फिर पिछली सरकार के विरुद्ध बदले की भावना से काम करती है, जो नहीं होना चाहिए।
    

Monday, July 10, 2023

दलितों का अपमान कब तक?



आज से 32 वर्ष पूर्व 1991 में अपने इसी मध्य प्रदेश के सागर जिले के एक छोटे से गांव में एक आदिवासी दलित के मंदिर प्रवेश करने पर गांव के सवर्ण ने उसके मुंह पर पेशाब कर दिया था। इस घटना पर श्याम बेनेगल ने फिल्म समर बनाई थी। आज 32 वर्ष बाद भी कुछ नहीं बदला। मध्य प्रदेश के सीधी ज़िले की शर्मनाक घटना एक झलक मात्र है। ऊँचीं जाती के दबंग का एक दलित पर सरेआम मूत्र विसर्जन करना तो दलितों के अपमान का बहुत छोटा उदाहरण है। अपने देश में महानगरों को छोड़ कर शायद ही कोई ऐसा प्रांत होगा जहां दलितों का अपमान, उनकी उपेक्षा या उन पर अत्याचार न होते हों। मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने तुरंत कड़ी दण्डात्मक कारवाई कर के सीधी ज़िले के दबंग प्रवेश शुक्ला को तो सबक़ सिखा दिया पर उससे उन लोगों पर कोई असर नहीं पड़ेगा जो अपनी जाति या राजनैतिक रसूख़ के चलते सदियों से दलितों पर अत्याचार करते आए हैं। सोशल मीडिया पर तो ऐसी खबर कभी-कभी ही वायरल होती है। पर ऐसी घटनाएँ चौबीस घंटे पूरे देश में कहीं न कहीं होती रहती हैं। जिनका कभी संज्ञान भी नहीं लिया जाता। 



देश की बात करने से पहले मैं अपना अनुभव साझा करना चाहूँगा। मेरा परिवार सनातन धर्म में दृढ़ आस्था रखता है। हम आचरण से शुद्ध रह कर धार्मिक कार्यों में रत ब्राह्मणों का पूरा सम्मान करते हैं। पर हमारे परिवार में इतनी मानवीय संवेदना भी है कि हम दलितों के साथ भी समान व्यवहार करते हैं। इस कारण हमें बीस बरस पहले एक विचित्र परिस्थिति का सामना करना पड़ा। हमारे वृंदावन आवास में हमारी माँ की सेवा के लिए जो कर्मचारी तैनात था वो नारायण नाम का बृजवासी जाटव था। मेरी माँ धर्म निष्ठ व संस्कृत की विद्वान होते हुए भी नारायण से हर तरह की सेवा लेती थीं। जैसे पूजा या भोजन की तैयारी। उनके इस आचरण से वृंदावन के हमारे शुभचिंतक कुछ ब्राह्मण परहेज़ करते थे। जब वे हमारे घर कोई अनुष्ठान संपन्न कराने आते तो हमारे घर का जल भी नहीं पीते थे। ऐसा कई वर्ष तक चला। न उनके आग्रह पर हमने नारायण को हटाया और न ही ब्राह्मणों के सम्मान में कोई कमी आने दी। पर इस तरह यह विरोधाभासी स्थिति तब तक चलती रही जब तक नारायण नौकरी छोड़ कर अपने गाँव चला नहीं गया। उसके बाद ही उन ब्राह्मणों ने हमारे घर का भोजन और जल स्वीकार करना शुरू किया। 



जो बुद्धिजीवी ब्राह्मणवादी व्यवस्था की कटु आलोचना करते हैं वो हमारी भी आलोचना करेंगे यह कहकर कि हमने दलितों के प्रति ऐसा भाव रखने वाले ब्राह्मणों का सम्मान क्यों किया? जो ब्राह्मणवादी व्यवस्था को सनातन धर्म का अभिन्न अंग मानते हैं वे इस बात की आलोचना करेंगे कि हमारी माँ ने एक दलित को रसोई और पूजा घर में प्रवेश क्यों करने दिया? दोनों की आलोचना का मेरे पास कोई उत्तर नहीं है। पर इतना मैं अवश्य कहना चाहूँगा कि लगभग आठ वर्षों तक यही व्यवस्था हमारे वृंदावन आवास पर चलती रही और इससे कोई तनावपूर्ण परिस्थिति पैदा नहीं हुई। शायद इसलिए कि हमने दोनों मान्यताओं के बीच संतुलन बना कर रखा।


अगर देश के स्तर पर बात करें तो हमारे प्रातः स्मरणीय पुरी शंकराचार्य मानवीय दृष्टिकोण रखते हुए भी सनातन धर्म के कर्म कांडों को जन्म से ब्राह्मणों का ही एकाधिकार मानते हैं। दूसरी तरफ़ गौड़ीय संप्रदाय के समर्थक श्री चैतन्य महाप्रभु ने धर्म और जाति की सीमाओं को लांघ कर, शुद्ध भक्ति से, वैष्णव धर्म की आचार संहिता का पालन करने वाले हर मनुष्य को सामाजिक अनुक्रम में ऊपर उठने का मार्ग प्रशस्त किया। उनका भाव था ‘हरि को भेजे सो हरि का होय’। इसी का परिणाम है कि गौड़ीय संप्रदाय या इस्कॉन में कृष्ण भक्ति करने वाले हर जाति, धर्म व देश से आकर शामिल हो गये। जिसकी कट्टर ब्राह्मणवादी कटु आलोचना करते हैं। 


इसी तरह लगभग पाँच सौ वर्ष पूर्व महाप्रभु बल्लभाचार्य जी के और स्वामी हरिदास जी के शिष्यों में मुसलमान तक भक्त थे। एक हज़ार वर्ष पहले रामानुजाचार्य जी ने जो संप्रदाय चलाया उसमें भी ब्राह्मण जाति श्रेष्ठता और कड़े नियमों के मामले में कोई समझौता नहीं किया गया। उनकी जीवन लीला में एक प्रसंग आता है जब उनके एक शिष्य ने बाढ़ से घिरा होने के कारण किसी दलित के घर से भिक्षा में कच्ची सामग्री ले ली। जिससे रामानुजाचार्य जी बहुत दुखी हुए। तब उस शिष्य ने प्रायश्चित में अपने प्राण त्याग दिये। पिछले वर्ष हैदराबाद के निकट श्रद्धेय संत श्री चिन्नाजियर स्वामी ने रामानुजाचार्य जी की एक विशाल प्रतिमा की स्थापना की है जो आकार में विश्व की दूसरी सबसे बड़ी बैठी प्रतिमा है। इस तीर्थ स्थली का नाम स्वामी जी ने ‘समता स्थल’ रखा है। यानी यहाँ किसी से जाति के आधार पर भेद-भाव नहीं होगा।    


ये तो रहा धार्मिक आस्था से जुड़े लोगों का आचार-विचार। पर भारत का बहुसंख्यक समाज ऐसी आस्थाओं से बंधा हुआ नहीं है। भारतीय समाज में जातिवाद की जड़ें बहुत गहरी हैं, विशेषकर गाँव में, जहां दलितों और पिछड़ी जाति के लोगों से भेद-भावपूर्ण व्यवहार किया जाता है। स्वयं को ऊँची जाति का मानने वाले इन समाजों को बराबरी का दर्जा देने को क़तई तैयार नहीं हैं। अगर कोई इन सीमाओं को तोड़ने का प्रयास करता है तो उसे गंभीर परिणाम भुगतने पड़ते हैं। पुलिस का रवैया भी इस भावना से काफ़ी प्रभावित रहता है। इसलिए दलितों को न्याय नहीं मिल पाता। परिस्थिति वहाँ और भी विकट हो जाती है जहां ख़ुद को ऊँची जाती का मानने वाले लोगों के पास धन या सत्ता का बल भी होता है। ऐसे में उनका अहंकार  सातवें आसमान पर चढ़ कर बोलता है और वे दलितों को अमानवीयता की हद तक जा कर प्रताड़ित करते हैं। प्रवेश शुक्ला के मामले में शिवराज सिंह चौहान ने जो किया वो अगर पहले दिन से किया होता तो मध्य प्रदेश में दलितों पर पिछले वर्षों में जो हज़ारों अत्याचार हुए हैं वो न हुए होते, जैसा कि विपक्ष के नेता कमल नाथ का आरोप है। अगर हर नेता, मंत्री या मुख्य मंत्री दलितों पर अत्याचार करने वालों के ख़िलाफ़ कड़ी कारवाई करने लगे तो हालत सुधर सकती है। हालाँकि पारस्परिक समाजिक व्यवहार में समरसता लाना अभी दूर की कौड़ी है।


समाज के इस अभिशाप को भारत की रेल, बस और हवाई यातायात व्यवस्था ने काफ़ी हद तक तोड़ा है। इन यात्राओं के दौरान आमतौर पर कोई भी यात्री भोजन बेचने या परोसने वाले से उसकी जाति नहीं पूछता। इसी तरह सरकारी नौकरियों में आरक्षण और औद्योगीकरण ने भी समाज के इन दक़ियानूसी नियमों को काफ़ी हद तक तोड़ा है। मेरे जैसे लोगों के  सामने द्वन्द इस बात का है कि सनातन धर्म में पूरी निष्ठा और आस्था रखते हुए भी कैसे इस अभिशाप को समाप्त किया जा सकता है?  

Monday, July 3, 2023

हाथी मेरे साथी


बचपन से हम विशालकाय हाथियों को देख कर उत्साहित और आह्लादित होते रहे हैं। काज़ीरंगा, जिम कोर्बेट, पेरियार जैसे जंगलों में हाथी पर चढ़ कर हम सब वन्य जीवन देखने का लुत्फ़ उठाते आये
  हैं। जयपुर में आमेर का क़िला देखने भी लोग हाथी पर चढ़ कर जाते हैं। सर्कस में रिंग मास्टर के कोड़े पर आज्ञाकारी बच्चे की तरह बड़े-बड़े हाथियों के करतब करते देख बच्चे-बूढ़े दंग रह जाते हैं। धनी लोगों के बेटों की बारात में हाथियों को सजा-धजा कर निकाला जाता है। मध्य युग में हाथियों की  युद्ध में बड़ी भूमिका होती थी। देश के तमाम धर्म स्थलों में और कुछ शौक़ीन ज़मीदाराना लोगों के घरों में भी पालतू हाथी होते हैं। दक्षिण भारत के गुरुवयूर मंदिर में 60 हाथी हैं जो पूजा अर्चना में भाग लेते हैं। 


आजतक मैं भी सामान्य लोगों की तरह गजराज के इन विभिन्न रूपों और रंगों को देख कर प्रसन्न होता था। पर पिछले हफ़्ते मेरी यह प्रसन्नता दो घंटे में काफ़ूर हो गई जब मैं मथुरा के ‘हाथी संरक्षण केंद्र’ को देखने पहली बार गया। यहाँ लगभग 30 हाथी हैं, जिन्हें अमानवीय अत्याचारों से छुड़ा कर देश भर से यहाँ लाया गया है। ये भारत का अकेला ‘हाथी संरक्षण केंद्र’ है, जहां जा कर हाथियों के विषय में ऐसी जानकारियाँ मिली जिनका आपको या हमें रत्तीभर अंदाज़ा नहीं है। ये जानकारियाँ हमें शिवम् ने दी, जो कि बीटेक, एमटेक करने के बाद, वन्य जीवन संरक्षण के काम में जुटे हैं। 



क्या कभी आपने सोचा कि जो गजराज अपनी सूँड़ से टनों वज़न उठा लेता है, जंगल का राजा कहलाए जाने वाला शेर भी उसके सामने ठहर नहीं पाता, जो एक धक्के में मकान तक गिरा सकता है, वो इतना कमज़ोर और आज्ञाकारी कैसे हो जाता है कि महावत के अंकुश की नोक के प्रहार से डर कर एक बालक की तरह कहना मानने लगता है? आप कहेंगे कि ये उसको दिये गये प्रशिक्षण का कमाल है। बस, यहीं असली पेंच है। शिवम् बताते हैं कि दरअसल ये प्रशिक्षण नहीं बल्कि यातना है जो गजराज के स्वाभिमान को इस सीमा तक तोड़ देती है कि वो अपने बल को भी भूल जाता है। 



उसके प्रशिक्षण के दौरान उसके पैरों में लोहे की कांटेदार मोटी-मोटी ज़ंजीरें बांधी जाती हैं कि वो अगर ज़रा भी हिले-डुले तो उसके पैरों में गहरे ज़ख़्म हो जाते हैं, जिनसे खून बहता है। इस ज़ंजीर का इतना भय हाथी के मन में बैठ जाता है कि भविष्य में अगर उसकी एक टांग को साधारण रस्सी से एक कच्चे पेड़ से भी बांध दिया जाए तो वह बंधन मुक्त होने की कोशिश भी नहीं करता और सारी ज़िंदगी इसी तरह मलिक के अहाते में बंधा रहता है। 


एक हाथी औसतन 250 किलो रोज़ खाता है। इसलिए वो दिन भर खाता रहता है। लेकिन उसका पाचन तंत्र इस तरह बना है कि वो जो खाता है उसका आधा ही पचा पता है। शेष आधा वो मल द्वार से निकाल देता है। हाथी के इस मल में तमाम तरह के बीज होते हैं। इसलिए जंगल में जहां-जहां हाथी अपना मल गिराता है, वहाँ-वहाँ स्वतः पेड़-पौधे उगने लगते हैं। इस तरह हाथी जंगल को हरा-भरा बनाने में भी मदद करता है, जिससे प्रकृति का संतुलन भी बना रहता है।


जब हाथी को लालची इंसान द्वारा पैसा कमाने के लिए पालतू बनाया जाता है तो उसे भूखा रख कर तड़पाया जाता है, जिससे बाद में वो भोजन के लालच में, मलिक के जा-बेज़ा सभी आदेशों का पालन करे। सामाजिक, धार्मिक या राजनीतिक समारोहों में जोते जाने वाले हाथियों को बंधुआ मज़दूर की तरह घंटों प्यासा रखा जाता है। उसे तपती धूप में, कंक्रीट या तारकोल की आग उगलती सड़कों पर घंटों चलाया जाता है। कई बार जानबूझकर अंकुश की नोक से उसकी आँखें फोड़ दी जाती हैं। इस तरह भूखे-प्यासे, घायल और अंधे हाथियों से मनमानी सेवाएँ ली जाती हैं। प्रायः इनका कोई इलाज भी नहीं कराया जाता। प्रशिक्षण के नाम पर इन यातना शिविरों में रहते हुए ये हाथी अपना भोजन तलाशने की स्वाभाविक क्षमता भूल जाते हैं और पूरी तरह अपने मलिक की दया पर निर्भर हो जाते हैं। अक्सर आपने हाथी को सजा-धजा कर साधु के वेश में भिक्षा माँगते हुए लोगों को देखा होगा। भिक्षा माँगने के लिए प्रशिक्षित ये सब हाथी प्रायः अंधे कर दिये जाते हैं। 


एशियाई प्रजाति के दुनिया भर में लगभग साठ हज़ार हाथी हैं, जिनमें से लगभग 22-23 हज़ार हाथी भारत के जंगलों में पाए जाते हैं। जबकि ग़ुलामी की ज़िंदगी जी रहे हाथियों की भारत में संख्या लगभग 1500 है। ये हाथी कभी भी अपना स्वाभाविक जीवन नहीं जी सकते क्योंकि इनका बचपन इनसे छीन लिया गया है। ऐसे सभी हाथियों को बंधन मुक्त करके अगर संरक्षण केंद्रों में रखा जाए तो एक हाथी पर लगभग डेढ़ लाख रुपये महीने खर्च होते हैं। मथुरा के ‘हाथी संरक्षण केंद्र’ को दिल्ली में रह रहे एक दक्षिण भारतीय दंपत्ति ने 2009 में शुरू किया था। इस केंद्र को अब देश-विदेश के दान दाताओं से आर्थिक सहयोग मिलता है। वैसे 22-23 हज़ार हाथियों की संख्या सुन कर आप उत्साहित बिलकुल न हों, क्योंकि लालची इंसानों ने ‘हाथी दांत’ और आर्थिक लाभ के लिए भारत के हाथियों पर इतने ज़ुल्म ढाए हैं कि इनकी संख्या, पिछले सौ सालों में पाँच लाख से घट कर इतनी सी रह गई है। 


मथुरा के ‘हाथी संरक्षण केंद्र’ में मिली इस अभूतपूर्व जानकारी और हृदय विदारक अनुभव के बाद मैंने और मेरे परिवार की तीन पीढ़ियों ने यह संकल्प लिया कि अब हम कभी हाथी कि सवारी नहीं करेंगे। वहाँ से विदा होते समय शिवम् ने यही अपील हमसे की और कहा कि आप देशवासियों को और ख़ासकर बच्चों को ये बताने का प्रयास करें कि अगर हाथियों को मनोरंजन का साधन न मान कर जंगलों में स्वतंत्र रहने दिया जाए तो इससे देश में जंगलों को बचाने में भी मदद मिलेगी। जिसकी ‘ग्लोबल वार्मिंग’ के इस दौर में बहुत ज़रूरत है। स्कूल के बच्चों को अगर हाथियों की दुर्दशा के बारे में उपरोक्त जानकारियाँ बचपन से ही दी जाएँ तो भविष्य में हाथी संरक्षण का बड़ा काम हो सकता है। यह विडंबना ही है जिन गजराज को आस्थावान हिंदू गणेश का स्वरूप मानते हैं उन पर वे व अन्य धर्मों के लोग, ऐसे अत्याचार क्यों करते हैं या क्यों होने देते हैं?