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Monday, October 7, 2024

क्या गाय का दूध पीना बंद कर दें?


अमरीका में हमारे एक शुभचिंतक सतीश जी है। जिन्होंने मुंबई आईआईटी से पढ़ाई करके अमरीका में अपार धन कमाया। पर वे अत्यंत धार्मिक हैं और शास्त्रों में पारंगत हैं। उन्होंने गौवंश की सेवा के लिए ब्रज की एक गौशाला को 800 करोड़ रुपये दान दिया था। पर अब वो ग़ोरस (दूध, दहीं, छाछ, मक्खन, पनीर आदि) के दैनिक जीवन में उपभोग के घोर विरोधी हो गये हैं और उस गौशाला को भी दान देना बंद कर दिया है। पिछले हफ़्ते मेरी उनसे बीस बरस बाद टेलीफोन पर बात हुई तो उन्होंने मुझसे ज़ोर देकर कहा कि मैं और मेरा परिवार गोरस का उपभोग तुरंत बंद कर दें और ‘वीगन’ बन जाएँ। आज दुनिया में करोड़ों लोग ऐसे हैं जो वीगन बन चुके हैं। यानी वो पशु आधारित किसी भी खाद्य पदार्थ का सेवन नहीं करते। मतलब डेरी और मीट उत्पाद उनके भोजन से दूर जा चुके हैं। 



मैं सतीश जी के जीवन की पवित्रता, आध्यात्मिक ज्ञान, संस्कृत में संभाषण करने की क्षमता और धर्मार्थ कार्यों में उदारता से दान देने की प्रवृत्ति का सम्मान करता हूँ। पर उनकी यह सलाह मेरे गले नहीं उतरी। मुरलीधर गोपाल के भक्त हम सब ब्रजवासी गोरस को अपने दैनिक जीवन से भला कैसे दूर कर सकते हैं? कल्पना कीजिए कि आपको गर्म दूध, ठंडी लस्सी, पेड़े, गोघृत में चुपड़ी रोटी और नामक जीरे की छौंक लगी छाछ या मलाईदार क़ुल्फ़ी के सेवन से अगर अचानक वंचित कर दिया जाए तो हम ब्रजवासी जल बिन मछली की तरह तड़प जाएँगे। हम ही क्यों, बाहर से श्री वृंदावन बिहारी के दर्शन करने आने वाले करोड़ों भक्त, दर्शन करने के बाद सबसे पहले कुल्हड़ की लस्सी और वृंदावन के पेड़ों पर ही तो टूट कर पड़ते हैं। अगर उन्हें ये ही नहीं मिलेगा और ठाकुर जी की प्रसादी माखन मिश्री नहीं मिलेगी तो क्या ब्रज आने का उनका उत्साह आधा नहीं रह जाएगा? 



पर सतीश जी का तर्क भी बहुत वज़नदार है। उन्होंने मुझे सलाह दी कि मैं ओटीटी प्लेटफार्म पर जा कर एक फ़िल्म ‘माँ का दूध’ अवश्य देखूँ। ये ढाई घंटे की फ़िल्म बहुत गहन शोध और मेहनत से बनाई गई है। इसे देखने वाले का कलेजा काँप उठेगा। सबसे बड़ी बात यह है कि इस फ़िल्म को देखने से पता चलता है कि दूध के नाम पर अपने को शाकाहारी और सात्विक मानने वाले हम लोग भी, जाने-अनजाने ही पशु हिंसा के भयंकर पाप कर्म में लिप्त हो रहे हैं। ये फ़िल्म हम सब की आँखें खोल देती है, ये बता कर कि हम पढ़े-लिखे लोग भी किस तरह अपनी अज्ञानता के कारण अपने भोजन में नित्य ज़हर खा रहे हैं। आज महामारी की तरह फैलता कैंसर रोग इसका एक प्रमाण है। 


मैंने सतीश जी के कहने पर अभी गोरस का प्रयोग बंद नहीं किया है। पर फ़िल्म देखने के बाद मैंने उनसे कहा कि उनकी बात में बहुत वज़न है। पर ये भी कहा कि सदियों का अभ्यास क्षणों में आसानी से छोड़ा नहीं जाता। 


यहाँ आपके मन में प्रश्न उठेगा कि गोरस और शाकाहार करने वाले लोग पशु हत्या के पाप में कैसे लिप्त हो सकते हैं? इस फ़िल्म को देखने से पता चलता है कि दूध के लालच में बिना दूध देने वाली करोड़ों गायों और उनके बछड़ों को रोज़ क़त्ल किया जा रहा है और उनके मांस का व्यापार अन्य देशों की तुलना में तपोभूमि भारत में सबसे ज़्यादा हो रहा है। 



जब भगवान श्रीकृष्ण-बलराम गायों को चराते थे तब  भारत की अर्थव्यवस्था गोवंश और कृषि पर आधारित थी। गऊ माता के दूध, गोबर और मूत्र से हमारा शरीर व पर्यावरण पुष्ट होता था और बैल कृषि के काम आते थे। दूध न देने वाली बूढ़ी गाय और हल में न जुत सकने वाले बैल कसाईखाने को नहीं बेचे जाते थे। बल्कि परिवार के बुजुर्गों  की तरह उनकी घर पर ही आजीवन सेवा होती थी। उनकी मृत्यु पर परिवार में ऐसे ही शोक मनाया जाता था जैसे कि परिवार के मुखिया के मरने पर मनाया जाता है। 


पिछले दशकों में आधुनिक खेती के नाम पर खनिज, उर्वरक, कीटनाशक, डीज़ल ट्रेक्टर और अन्य आधुनिक उपकरणों को भारतीय किसानों पर क्रमशः थोप दिया गया। नतीजतन किसान की  भूमि उर्वरता, उसके परिवार का स्वास्थ्य, उसकी आर्थिक स्थिति और उसके परिवेश पर ग्रहण लग गया। इस तथाकथित विकसित कृषि ने उसे कहीं का न छोड़ा। ये मत सोचियेगा कि इस सबका असर केवल किसानों के परिवार पर ही पड़ा है। बल्कि आप और हम भी इस दुश्चक्र में फँस कर स्वस्थ जीवन जीने की संभावना से हर दिन दूर होते जा रहे हैं। 


क्या आप जानते हैं कि भारत में रोज़ाना मात्र 14 करोड़ लीटर दूध का उत्पादन होता है। जबकि भारत में हर दिन 64 करोड़ लीटर दूध और उससे बने पदार्थों की खपत होती है।ये खपत 50 करोड़ लीटर नक़ली सिंथेटिक दूध बनाकर ही पूरी की जाती है। गोपाल की लीलाभूमि ब्रज तक में नक़ली दूध का कारोबार खुलेआम धड़ल्ले से लिया जा रहा है। कोई रोकने-टोकने वाला नहीं है। इस तरह दूध के नाम पर हम सब अपने परिवार को ज़हर खिला रहे हैं। 


मूल प्रश्न पर लौटें, गौ रस पान से हिंसा कैसे होती है? जब केवल दूध की चाहत है तो दूध देना बंद करने वाली गायों को कसाईखाने में कटने के लिए भेज दिया जाता है। इसी तरह जब खेती में बैल की जगह ट्रेक्टर जुतने लगे तो बछड़े और बैल का धड़ल्ले से उपयोग मांस के व्यापार के लिए होने लगा है। इस तरह उनके हत्या के लिए हम सब भी अपराधी हैं। इस गंभीर विषय को पूरी तरह समझने के लिए आप ‘माँ का दूध’ फ़िल्म ज़रूर देखियेगा। ये गंभीर चर्चा हम आगे भी जारी रखेंगे। मैंने सतीश जी को यह आश्वासन दिया है कि इस गंभीर विषय पर मैं अभी और शोध करूँगा और इस समस्या के हल का अपने जीवन में हम क्या विकल्प सोच सकते हैं इस पर भी अनुभवी लोगों से प्रश्न पूछूँगा, तभी कोई निर्णय ले पाने की स्थिति में पहुँच पाऊँगा। पाठक भी इस विषय पर गहरी जाँच करें। 

Monday, July 3, 2023

हाथी मेरे साथी


बचपन से हम विशालकाय हाथियों को देख कर उत्साहित और आह्लादित होते रहे हैं। काज़ीरंगा, जिम कोर्बेट, पेरियार जैसे जंगलों में हाथी पर चढ़ कर हम सब वन्य जीवन देखने का लुत्फ़ उठाते आये
  हैं। जयपुर में आमेर का क़िला देखने भी लोग हाथी पर चढ़ कर जाते हैं। सर्कस में रिंग मास्टर के कोड़े पर आज्ञाकारी बच्चे की तरह बड़े-बड़े हाथियों के करतब करते देख बच्चे-बूढ़े दंग रह जाते हैं। धनी लोगों के बेटों की बारात में हाथियों को सजा-धजा कर निकाला जाता है। मध्य युग में हाथियों की  युद्ध में बड़ी भूमिका होती थी। देश के तमाम धर्म स्थलों में और कुछ शौक़ीन ज़मीदाराना लोगों के घरों में भी पालतू हाथी होते हैं। दक्षिण भारत के गुरुवयूर मंदिर में 60 हाथी हैं जो पूजा अर्चना में भाग लेते हैं। 


आजतक मैं भी सामान्य लोगों की तरह गजराज के इन विभिन्न रूपों और रंगों को देख कर प्रसन्न होता था। पर पिछले हफ़्ते मेरी यह प्रसन्नता दो घंटे में काफ़ूर हो गई जब मैं मथुरा के ‘हाथी संरक्षण केंद्र’ को देखने पहली बार गया। यहाँ लगभग 30 हाथी हैं, जिन्हें अमानवीय अत्याचारों से छुड़ा कर देश भर से यहाँ लाया गया है। ये भारत का अकेला ‘हाथी संरक्षण केंद्र’ है, जहां जा कर हाथियों के विषय में ऐसी जानकारियाँ मिली जिनका आपको या हमें रत्तीभर अंदाज़ा नहीं है। ये जानकारियाँ हमें शिवम् ने दी, जो कि बीटेक, एमटेक करने के बाद, वन्य जीवन संरक्षण के काम में जुटे हैं। 



क्या कभी आपने सोचा कि जो गजराज अपनी सूँड़ से टनों वज़न उठा लेता है, जंगल का राजा कहलाए जाने वाला शेर भी उसके सामने ठहर नहीं पाता, जो एक धक्के में मकान तक गिरा सकता है, वो इतना कमज़ोर और आज्ञाकारी कैसे हो जाता है कि महावत के अंकुश की नोक के प्रहार से डर कर एक बालक की तरह कहना मानने लगता है? आप कहेंगे कि ये उसको दिये गये प्रशिक्षण का कमाल है। बस, यहीं असली पेंच है। शिवम् बताते हैं कि दरअसल ये प्रशिक्षण नहीं बल्कि यातना है जो गजराज के स्वाभिमान को इस सीमा तक तोड़ देती है कि वो अपने बल को भी भूल जाता है। 



उसके प्रशिक्षण के दौरान उसके पैरों में लोहे की कांटेदार मोटी-मोटी ज़ंजीरें बांधी जाती हैं कि वो अगर ज़रा भी हिले-डुले तो उसके पैरों में गहरे ज़ख़्म हो जाते हैं, जिनसे खून बहता है। इस ज़ंजीर का इतना भय हाथी के मन में बैठ जाता है कि भविष्य में अगर उसकी एक टांग को साधारण रस्सी से एक कच्चे पेड़ से भी बांध दिया जाए तो वह बंधन मुक्त होने की कोशिश भी नहीं करता और सारी ज़िंदगी इसी तरह मलिक के अहाते में बंधा रहता है। 


एक हाथी औसतन 250 किलो रोज़ खाता है। इसलिए वो दिन भर खाता रहता है। लेकिन उसका पाचन तंत्र इस तरह बना है कि वो जो खाता है उसका आधा ही पचा पता है। शेष आधा वो मल द्वार से निकाल देता है। हाथी के इस मल में तमाम तरह के बीज होते हैं। इसलिए जंगल में जहां-जहां हाथी अपना मल गिराता है, वहाँ-वहाँ स्वतः पेड़-पौधे उगने लगते हैं। इस तरह हाथी जंगल को हरा-भरा बनाने में भी मदद करता है, जिससे प्रकृति का संतुलन भी बना रहता है।


जब हाथी को लालची इंसान द्वारा पैसा कमाने के लिए पालतू बनाया जाता है तो उसे भूखा रख कर तड़पाया जाता है, जिससे बाद में वो भोजन के लालच में, मलिक के जा-बेज़ा सभी आदेशों का पालन करे। सामाजिक, धार्मिक या राजनीतिक समारोहों में जोते जाने वाले हाथियों को बंधुआ मज़दूर की तरह घंटों प्यासा रखा जाता है। उसे तपती धूप में, कंक्रीट या तारकोल की आग उगलती सड़कों पर घंटों चलाया जाता है। कई बार जानबूझकर अंकुश की नोक से उसकी आँखें फोड़ दी जाती हैं। इस तरह भूखे-प्यासे, घायल और अंधे हाथियों से मनमानी सेवाएँ ली जाती हैं। प्रायः इनका कोई इलाज भी नहीं कराया जाता। प्रशिक्षण के नाम पर इन यातना शिविरों में रहते हुए ये हाथी अपना भोजन तलाशने की स्वाभाविक क्षमता भूल जाते हैं और पूरी तरह अपने मलिक की दया पर निर्भर हो जाते हैं। अक्सर आपने हाथी को सजा-धजा कर साधु के वेश में भिक्षा माँगते हुए लोगों को देखा होगा। भिक्षा माँगने के लिए प्रशिक्षित ये सब हाथी प्रायः अंधे कर दिये जाते हैं। 


एशियाई प्रजाति के दुनिया भर में लगभग साठ हज़ार हाथी हैं, जिनमें से लगभग 22-23 हज़ार हाथी भारत के जंगलों में पाए जाते हैं। जबकि ग़ुलामी की ज़िंदगी जी रहे हाथियों की भारत में संख्या लगभग 1500 है। ये हाथी कभी भी अपना स्वाभाविक जीवन नहीं जी सकते क्योंकि इनका बचपन इनसे छीन लिया गया है। ऐसे सभी हाथियों को बंधन मुक्त करके अगर संरक्षण केंद्रों में रखा जाए तो एक हाथी पर लगभग डेढ़ लाख रुपये महीने खर्च होते हैं। मथुरा के ‘हाथी संरक्षण केंद्र’ को दिल्ली में रह रहे एक दक्षिण भारतीय दंपत्ति ने 2009 में शुरू किया था। इस केंद्र को अब देश-विदेश के दान दाताओं से आर्थिक सहयोग मिलता है। वैसे 22-23 हज़ार हाथियों की संख्या सुन कर आप उत्साहित बिलकुल न हों, क्योंकि लालची इंसानों ने ‘हाथी दांत’ और आर्थिक लाभ के लिए भारत के हाथियों पर इतने ज़ुल्म ढाए हैं कि इनकी संख्या, पिछले सौ सालों में पाँच लाख से घट कर इतनी सी रह गई है। 


मथुरा के ‘हाथी संरक्षण केंद्र’ में मिली इस अभूतपूर्व जानकारी और हृदय विदारक अनुभव के बाद मैंने और मेरे परिवार की तीन पीढ़ियों ने यह संकल्प लिया कि अब हम कभी हाथी कि सवारी नहीं करेंगे। वहाँ से विदा होते समय शिवम् ने यही अपील हमसे की और कहा कि आप देशवासियों को और ख़ासकर बच्चों को ये बताने का प्रयास करें कि अगर हाथियों को मनोरंजन का साधन न मान कर जंगलों में स्वतंत्र रहने दिया जाए तो इससे देश में जंगलों को बचाने में भी मदद मिलेगी। जिसकी ‘ग्लोबल वार्मिंग’ के इस दौर में बहुत ज़रूरत है। स्कूल के बच्चों को अगर हाथियों की दुर्दशा के बारे में उपरोक्त जानकारियाँ बचपन से ही दी जाएँ तो भविष्य में हाथी संरक्षण का बड़ा काम हो सकता है। यह विडंबना ही है जिन गजराज को आस्थावान हिंदू गणेश का स्वरूप मानते हैं उन पर वे व अन्य धर्मों के लोग, ऐसे अत्याचार क्यों करते हैं या क्यों होने देते हैं?