श्री नरेंद्र मोदी भारत के अकेले ऐसे प्रधान मंत्री हैं जिन्होंने जब पहली बार प्रधान मंत्री के रूप में संसद में प्रवेश किया तो उसकी सीढ़ियों पर माथा टेक कर प्रणाम किया। यह भावुक दृश्य देख कर देश विदेश में बैठा हर भारतीय गद गद हो गया था। श्री मोदी ने दुनिया की सबसे बड़ी लोकतंत्र के संसद को मंदिर मानते हुए यह भाव प्रस्तुत किया। स्पष्ट है कि संसदीय परम्पराओं के लिए उनके माँ में पूर्ण सम्मान है। वैसे भारत में लोकतंत्र की परम्परा केवल अंग्रेजों की देन नहीं है। ईसा से छह सदी पूर्व सारे भारत में सैंकड़ों गणराज्य थे जहां समाज के प्रतिनिधि इसी तरह खुली सार्वजनिक चर्चा के द्वारा अपने गणराज्यों का संचालन करते थे। मध्य युग के राजतंत्र में भी जो राजा चरित्रवान थे और जिनके हृदय में जनता के लिए स्नेह था और जनता को अपनी संतान समझते थे, वे आम आदमी की भी बात को बड़ी गम्भीरता से सुनते और उसका निदान करते थे।
भारत की मौजूदा संसद की प्रक्रिया में कई देशों के लोकतांत्रिक शिष्टाचार का सम्मिश्रण है। जिसमें सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच सार्थक संवाद से क़ानून बनते हैं और समस्याओं के हल भी निकलते हैं।
हर संसदीय क्षेत्र के लाखों मत्तदाता टीवी पर ये देखने को उत्सुक रहते हैं कि उनके सांसद ने संसद में क्या बोला। संवाद की इस प्रक्रिया में शालीन नौक-झौंक और टीका-टिप्पणी का आनंद भी दोनो पक्ष लेते हैं। विपक्ष, जो सत्तापक्ष को कटघरे में खड़ा करता है और सत्तापक्ष, जो मुस्कुरा कर इन हमलों को झेलता है और अपनी बारी आने पर हर प्रश्न का जवाब देश के सामने रखता है। कोई किसी का बुरा नहीं मानता।
लोकसभा के सत्रों में ऐसी अनेक रोचक घटनाएँ हुई हैं, जैसे समाजवादी नेता डा राम मनोहर लोहिया जब प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू पर तीखे हमले करते थे तो लगता था कि दोनों में भारी दुश्मनी है। पर भोजन अवकाश में जब नेहरू जी सदन के बाहर निकलते तो लोहिया जी के कंधे पर हाथ रख कर कहते,
“लोहिया तुमने गाली तो बहुत दे दी अब मेरे घर चलो दोनों लंच साथ करेंगे
”। जब-जब देश पर संकट आया तो जो भी विपक्ष में था उसने सरकार का खुल कर साथ दिया। सरकारों की भी कोशिश रहती है कि संसद के हर सत्र से पहले विपक्षी दलों के नेताओं के साथ विचार विमर्श करके ख़ास मुद्दों पर सहमति बना लें।
शून्य काल सदन के सत्र का वह समय होता है जब सांसदों को सरकार से सीधे प्रश्न करने की छूट होती है। यही सदन का सबसे रोचक समय होता है। क्योंकि जो बात अन्य माध्यमों से सरकार तक नहीं पहुँच पाती, वह शून्य काल में पहुँच जाती है। फिर उन कमियों को सुधारना सरकार की ज़िम्मेदारी होती है। इसलिए संसद के सत्र में शून्य काल का स्थगन नहीं होना चाहिए। जैसा इस बार किया जा रहा है। ऐसा नहीं है कि कोरोना के कारण इस तरह के संवाद की परिस्थिति न हो। अगर सत्र चल रहा है तो शून्य काल भी चल ही सकता है।
आज के दौर में जिस तरह मीडिया ने अपनी भूमिका का पतन किया है उससे आम जनता की बात सत्ता तक पहुँचना मुश्किल हो गया है। ऐसे में जनता में घुटन और आक्रोश बढ़ता है। जिससे हानि सत्तापक्ष की ही होती है। सुशांत सिंह राजपूत एक होनहार युवक था। उसकी हत्या या आत्महत्या की जाँच ईमानदारी से होनी चाहिए और जो कोई भी दोषी हो उसे सजा मिलनी चाहिए। पर क्या 135 करोड़ भारतवासियों के लिए आज यही सबसे बड़ा सवाल है? करोड़ों की बेरोजगारी, 40 साल में सबसे नीचे गिरती हुई जीडीपी और जनता के स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास आदि के शाश्वत प्रश्न क्या इतने गौड़ हो गए हैं कि उन पर कोई चर्चा की आवश्यकता ही नहीं है। सुशांत सिंह राजपूत की मौत की गुत्थी सुलझते ही क्या इन सारी समस्याओं का हल एक रात में हो जाएगा?
लोकतंत्र में बस संसद ही तो है जहां जनता के वैध प्रतिनिधि सवाल पूछते है। सवालों के जरिए ही जनता का दुख-दर्द कहा जाता है। जवाबों से पता चलता है कि जनता की समस्याओं से सरकार का सरोकार कितना है। सरकार की जवाबदेही दिखाने के लिए संसद के अलावा और कोई जगह हो भी क्या सकती है? हालांकि कहने को तो कोई कह सकता है कि किसी को कुछ जानना हो तो वह सूचना के अधिकार के तहत जानकारी मांग सकता है। लेकिन प्रशासकों की जवाबदेही की हालत सबके सामने उजागर है। सूचना देने में हीलाहवाली और आनाकानी इतनी ज्यादा बढ़ती जा रही है कि आम जनता को यह तरीका थकाउ लगने लगा है। यानी संसद में प्रश्नकाल ही इकलौती कारगर व्यवस्था है। एकदम पारदर्शी भी है।
बेशक देश इस समय चौतरफा संकटों की चपेट में है। अर्थव्यवस्था हो या महामारी से निपटने के इंतजाम हों या सीमा पर बढ़ते संकट हों, इतने सारे सवाल खड़े हो गए हैं कि जनता में बेचैनी और दुविधाएं बढ़ रही है। देश के कारोबारी माहौल पर ये दुविधाएं खासा असर डालती हैं। जबकि संसद में उठे सवालों का जवाब देकर बहुतेरी दुविधाएं खुद ब खुद खत्म हो जाती हैं।
इतना ही नहीं, संसद में प्रश्नकाल सरकार के लिए भी एक अच्छा मौका होता है। खासतौर पर जनता के भीतर विश्वास पैदा करने में जिस तरह मंत्रालयों के बड़े अफसर और प्रवक्ता नाकाम हो रहे हैं वैसे में संसद में सत्तारूढ दल ही मोर्चा संभाल पाता है। संसद की कार्यवाही को मीडिया में अच्छी खासी जगह मिलती है। सरकार अपने जवाबों के जरिए जैसा प्रचार चाहे मीडिया में प्रचार भी करवा सकती है। सरकार को सवालों से डरना नहीं चाहिए यानी उसे आपदा नहीं मानना चाहिए बल्कि प्रश्नकाल को वह अवसर में बदल सकती है।