Monday, August 17, 2020

बॉलीवुड का बदलता ट्रेंड

पिछले कुछ बरसों से बॉलीवुड में एक नया ट्रेंड चला है। समकालीन लोगों की जीवनियों पर आधारित फ़िल्में बनाने का। पिछले हफ़्ते रिलीज़ हुई ‘गुंजन सक्सेना-द कारगिल गर्ल’ एक ऐसी ही फ़िल्म है जो भारतीय वायु सेना की पाइलट गुंजन सक्सेना के जीवन पर आधारित है। 

गुंजन सक्सेना वो जांबाज़ पाइलट हैं जिन्होंने कारगिल युद्ध में बहुत सूझबूझ और हिम्मत का परिचय दिया। इस युद्ध के दौरान श्रीनगर बेस केम्प से उन्होंने 40 बार कारगिल के लिए उड़ानें भरीं। सीमा पर लड़ रही भारतीय फ़ौज को रसद पहुँचाने और गोले बारूद के बीच से घायलों को निकाल कर लाने की ज़िम्मेदारी उन्हें दी गई थी। जिसे उन्होंने बखूबी अंजाम दिया और सिद्ध कर दिया कि महिलाएँ बहादुरी में किसी मर्द से पीछे नहीं होतीं। 


हालाँकि पूरी तरह मर्दों द्वारा संचालित वायु सेना में पाइलट के रूप में गुंजन सक्सेना की ‘एंट्री’ आसान नहीं थी। उन्हें समकक्ष पाइलटों की भारी उपेक्षा और उनसे अपमान सहना पड़ा। पर वे डटी रहीं और एक सफल लड़ाकू पाइलट के रूप में नाम कमाया। फ़िल्मी पर्दे पर भी इस भूमिका को जाह्नवी कपूर ने बहुत ख़ूबसूरती से निभाया है। 


इससे पहले भी बॉक्सिंग चैम्पीयन मेरी क़ौम, धावक मिल्खा सिंह, क्रिकेटर महेंद्र सिंह धोनी, कुश्ती के लिए मशहूर हुई फोगट बहनें और विश्वविख्यात गणितज्ञ शकुंतला देवी आदि समकालीन सितारों पर पिछले वर्षों में बेहतरीन फ़िल्में आई हैं। 


इससे पहले के दौर में ऐतिहासिक विभूतियों जैसे सरदार भगत सिंह, महात्मा गांधी, सरदार पटेल, सुभाष चंद्र बोस या और पहले के दौर के नायक छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप आदि या फिर अलग अलग प्रांतों में समाज को दिशा और शांति देने वाले संत जैसे मीरा बाई, संत तुकाराम, संत नामदेव आदि पर भी फ़िल्में बनती रहीं हैं। इससे और भी पहले के दौर में पौराणिक चरित्रों पर भी बहुत फ़िल्में बनी हैं। जैसे भक्त प्रह्लाद, भक्त ध्रुव व सूरदास आदि। 


दरअसल, सितारे केवल वही नहीं होते जो फ़िल्म के पर्दे पर दिखायी देते हैं। नायक केवल वही नहीं होते जो युद्ध जीतते हैं। बल्कि हर वो व्यक्ति जो अपने कार्य क्षेत्र में अपनी मेहनत, लगन और निष्ठा से छाप छोड़ता है वह जनता की दृष्टि में सितारा ही होता है। चाहें वो खेल में हो, समाजसेवा में हो, साहित्य या पत्रकारिता में हो या कला  व संगीत में हो, ऐसे ‘रियल लाइफ़ हीरो’ की ज़िंदगी के हर पहलू को जानने की जिज्ञासा आम लोगों में हमेशा रहती है। उनका कहाँ जन्म हुआ, वो कैसे इस क्षेत्र में आए, उन्होंने कितना और कैसे संघर्ष किया और फिर उन्हें कब और कैसी कामयाबी मिली। ऐसी जीवन गाथा सुनना और सुनाना दोनों ही आनंददायक होते हैं। इसलिए यह फ़िल्में प्रायः सफल होती हैं। 


सितारा चाहे बीते जमाने का हो या आजके जमाने का, उसकी उपलब्धियाँ हर एक के लिए प्रेरणादायक होती है, विशेषकर नई पीढ़ी के लिए। इसलिए बॉलीवुड के उन निर्माताओं के हम आभारी हैं, जो नाच, हिंसा, इश्क़ जैसे घिसे पिटे ढर्रे से बाहर निकल कर ऐसे नए प्रयोग कर रहे हैं। शुरू में शायद यह जोखिम भरा प्रयास रहा हो क्योंकि अगर फ़िल्म बॉक्स ऑफ़िस पर सफल न हो तो वह उस फ़िल्म के निर्माण से जुड़े हर महत्वपूर्ण व्यक्ति को बड़ा झटका दे देती हैं। लेकिन जबसे नेटफलिक्स जैसे प्लैट्फ़ॉर्म वजूद में आए हैं तब से यह जोखिम भी ख़त्म हो गया है। क्योंकि अब बिना टिकट ख़रीदे ही या बिना थीएटर तक जाए ही, घर बैठे बैठे करोड़ों दर्शक दुनिया के हर कोने में अपनी सुविधा से इन फ़िल्मों देख सकते हैं। इसलिए यह और भी ज़रूरी हो जाता है की किसी के ‘बायोपिक’ (जीवनी) पर फ़िल्म बनाने वाले जहां तक सम्भव हो, फ़िल्म को तथ्यात्मक ही बनाएँ । उसमें नाटकीयता न आने दें। हम जानते हैं कि अपनी प्रेमिका के आगे पीछे बैक्ग्राउंड संगीत के साथ बाग बगीचों में दौड़ दौड़ कर प्रेम का इज़हार  कभी कोई नहीं करता। प्रेम प्रदर्शन का यह तरीक़ा बॉलीवुड ने ही ईजाद किया और आजतक ढो रहा है। आम जीवन में प्रेमी और प्रेमिका बिलकुल ही सामान्य तरीक़े से केवल बातचीत में ही प्रेम का इज़हार करते हैं। इसलिए जब मिल्खा सिंह को अपनी प्रेमिका के साथ गीत गाते दिखाया गया तो वह किसी के गले नहीं उतरा। फ़िल्म में बिना वजह गाने ठूसने से वो अनावशयक रूप से लम्बी है । फिर भी दर्शक टिका रहा क्योंकि मिल्खा सिंह की जीवनी में बहुत आकर्षण था। 


बॉलीवुड में आए इस नए ट्रेंड के साथ दर्शकों की भी पसंद बदल रही है। टेलिविज़न के आने से पहले नाटक और फ़िल्में ही आम जनता के मनोरंजन का मुख्य स्रोत होते थे। टेलिविज़न के आने के बाद, ख़ासकर निजी चैनलों के आने के बाद मनोरंजन के स्रोतों का भारी विस्तार हुआ है। अब हर व्यक्ति अपनी रुचि के अनुसार अपने मनोरंजन के लिए अनेक तरह के कार्यक्रम देख सकता है। ऐसे में बॉलीवुड के लिए भी ये बाध्यता नहीं है कि वो केवल मनोरंजन को ही लक्ष्य बना कर फ़िल्में बनाए। मनोरंजन के अलावा, सूचना देना और शिक्षित करना भी इनका दायित्व  होता है। जिसे निभाने में बॉलीवुड काफ़ी पीछे रहा है। 


लेकिन इन बदली हुई परिस्थितियों में आम दर्शक भी बहुत जागरूक हो गया है। उसे इतिहास, धर्म, संस्कृति या ‘रियल लाइफ़ हीरोज़’ की जीवनी पर आधारित फ़िल्में देखना अच्छा लगता है।


समकालीन हीरो पर फ़िल्म बनाने का एक और बड़ा लाभ यह है कि हम उस व्यक्ति को उसके जीवन काल में ही वो प्रसिद्धि दे सकते हैं जिसका वो हक़दार है। किंतु हर क्षेत्र में व्याप्त राजनीति, भाई भतीजावाद, लिंगभेद या भ्रष्टाचार के चलते वह इस यश को पाने से वांछित रह जाता है। आज भी देश के हर प्रांत में व हर क्षेत्र में ऐसे तमाम लोग हैं जिनकी जीवनी पर अगर फ़िल्में बनें तो समाज का बहुत बड़ा लाभ होगा। आशा की जानी चाहिए कि बॉलीवुड इस दिशा में और भी उत्साह से आगे बढ़ेगा।

Saturday, August 15, 2020

भारतीय गणतंत्र की अफ़सरशाहीः भ्रम और हक़ीक़त

आज़ादी के पहले देश की अफ़सरशाही को अंग्रेज हुक्मरानों के लिए काम करना पड़ता था। आज़ादी के बाद उन्हें आम जनता की सेवा करनी चाहिए थी। मध्य प्रदेश में तैनात एक आईएएस अधिकारी दीपाली रस्तोगी का हाल में एक अंग्रेज़ी अख़बार में छपा लेख नौकरशाही की हक़ीक़त बयान करता है। उसी लेख के बिंदुओं को ज्यों का त्यों प्रस्तुत करना पाठकों को अच्छा भी लगेगा और सोचने पर मजबूर भी करेगा। दीपाली लिखती हैं कि, “हम आईएएस में सेवा करने के लिए आते हैं पर हम शायद ही कभी सेवक की तरह बर्ताव करते हैं। हमें अकूत धन और विशाल मानव संसाधन सौंपे जाते हैं, जबकि इसे सम्भालने की योग्यता हममें नहीं होती क्योंकि हमें वैसा प्रशिक्षण ही नहीं दिया जाता। 

हम अपने बारे में, अपनी “बुद्धिमता” के बारे में और अपने “अनुभव” के बारे में बहुत ऊँची राय रखते हैं और सोचते हैं कि लोग इसीलिए हमारा सम्मान करते हैं। जबकि असलियत यह है कि लोग हमारे आगे इसलिए समर्पण करते हैं क्योंकि हमें फ़ायदा पहुँचाने या नुक़सान करने की ताक़त दी गई है। पिछले दशकों में हमने एक आदत डाल ली है कि हम बड़ी तादाद में ख़ैरात बाँटने के अभ्यस्त हो गाए हैं, चाहें वह वस्तु के रूप में हो या विचारों के रूप में। असलियत यह है कि जो हम बाँटते हैं वो हमारा नहीं होता। 

हमें वेतन और सुविधाएँ इसलिए मिलती हैं कि हम अपने काम को कुशलता से करें और ‘सिस्टम’ विकसित करें। सच्चाई यह है कि हम कुप्रबंध और अराजकता फैला कर पनपते हैं क्योंकि ऐसा करने से हम कुछ को फ़ायदा पहुँचाने के लिए चुन सकते हैं और बाक़ी की उपेक्षा कर सकते हैं। हमें भारतीय गणतंत्र का ‘स्टील फ्रेम’ माना जाता है। सच्चाई यह है कि हममें दूरदृष्टि ही नहीं होती। हम अपने राजनैतिक आकाओं की इच्छा के अनुसार औचक निर्णय लेते हैं। 

हम पूरी प्रशासनिक व्यवस्था का अपनी जागीर की तरह अपने फ़ायदे में या अपने चहेते लोगों के फ़ायदे में शोषण करते हैं। हम काफ़ी ढोंगी हैं क्योंकि हम यह सब करते हुए यह दावा करते हैं कि हम लोगों की ‘मदद’ कर रहे हैं। हम जानते हैं कि अगर हम ऐसी व्यवस्था बनाएँ जिसमें हर व्यक्ति आसानी से हमारी सेवाओं का लाभ ले सके, तो हम फ़ालतू हो जाएँगे। इसलिए हम अव्यवस्था को चलने देते हैं। 

हम अपने कार्यक्षेत्र को अनावश्यक विस्तार देते जाते हैं। बिना इस बात की चिंता किए कि हमारे द्वारा बनाई गई व्यवस्था में कुशलता है कि नहीं। सबसे ख़राब बात यह है कि हम बहुत दिखावटी, दूसरों को परेशान करने वाले और बिगड़ैल लोगों का समूह हैं। बावजूद इसके हम यह कहने में संकोच नहीं करते कि हम इस देश की जनता के लिए काम करते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि इस देश से हमें कोई लेना देना नहीं है क्योंकि हमारे बच्चे विदेशों में पड़ते हैं और हमने जो भी सुख सुविधाएँ, इस व्यवस्था में मिल सकती हैं उन्हें अपने लिए जुटा कर अपने सुखी जीवन का प्रबंध कर लिया है। हमें आम जनता के लिए कोई सहानुभूति नहीं होती हालाँकि हम सही प्रकार का शोर मचाने के लिए सतर्क रहते हैं।

अगर इस देश में न्याय किया जाता तो हम बहुत पहले ही लुप्त हो जाते। पर हम इतने ज़्यादा ताक़तवर हैं कि हम अपने अस्तित्व को कभी समाप्त नहीं होने देते। क्योंकि हम भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी हैं।” यह लिखते हुए मुझे गर्व है कि दीपाली मेरी छोटी ममेरी बहन है जो हमेशा जनहित में काम करती है और अपने स्वार्थ के लिए कोई समझौता नहीं करती। 

Monday, August 10, 2020

राम मंदिर से राम राज तक

जो यश सरदार पटेल ने सोमनाथ मंदिर निर्माण करवा कर या जगमोहन ने वैष्णो देवी श्राईन बोर्ड बना कर अर्जित किया था, उससे कहीं ज़्यादा यश आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने श्री राम मंदिर के निर्माण की आधारशिला रख कर अर्जित कर लिया। क्योंकि अयोध्या, मथुरा और काशी पर मौजूद मस्जिदें दुनिया के हिंदू बाहुल्य देश की जन भावनाओं पर नासूर की तरह रहीं हैं। इसलिए आज वहाँ मंदिर निर्माण का सपना साकार होते देख दुनिया भर के हिंदुओं में हर्ष है।

कुछ मोदी आलोचकों का आरोप है कि धर्म निरपेक्ष सम्विधान की शपथ खाने वाले प्रधानमंत्री ने मंदिर के भूमिपूजन में जा कर उसका उल्लघन किया है। उनका यह भी आरोप है कि तत्कालीन मुख्य  न्यायाधीश रंजन गोगोई से मंदिर के पक्ष में निर्णय एक ‘डील’ के तहत हुआ। जिसमें गोगोई को राज्य सभा में भेज दिया गया। 

इन आलोचकों को मैं बताना चाहूँगा कि 1989 में मैंने एक बार दिल्ली के दबंग कांग्रेसी नेता एच.के.एल. भगत से पूछा था कि आपके किस गुण के कारण आपकी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से इतनी निकटता थी ? उनका जवाब सुनकर 33 वर्ष का मैं युवा पत्रकार धक्क रह गया था। जवाब था, मैं इंदिरा जी के लिए न्यायपालिका को मैनेज करने का काम करता था। इसके 20 वर्ष बाद जब मैंने भारत के पदासीन मुख्य न्यायाधीशों के घोटाले खोले तो सारा खेल समझ में आ गया। इसलिए इसमें नया कुछ भी नहीं है। 

वैसे भी क़ानून जनता के हित के लिए होते है, जनता क़ानून के लिए नहीं होती। मोदी जी ने बहुसंख्यक समाज की सदियों पुरानी पीड़ा को समझा और साम, दाम, दण्ड, भेद की नीति अपनाकर प्रबल इच्छा शक्ति का प्रमाण दिया। जिससे  निश्चय ही हिंदू समाज अभिभूत है। अगर यह कहा जाए कि मोदी का लक्ष्य मंदिर को राजनैतिक रूप से भुनाना  है, तो इसमें भी कौन सी नई बात है। सभी राजनैतिक दल वोटों पर निगाह रख कर ही तो अपना एजेंडा बनाते हैं। मैं तो कहूँगा कि अगर मोदी जी इसी माहौल में मथुरा और काशी को भी मुक्त करा दें तो सदियों की पीड़ा से हिंदू समाज को राहत मिलेगी।   

5 अगस्त को अयोध्या में प्रधानमंत्री मोदी के भाषण में दो विशेष बात थीं। पहली; उन्होंने बिना किसी का नाम लिए ही बड़ी विनम्रता और दीनता के साथ उन सबका स्मरण किया जिन्होंने पिछले 500 वर्षों में राम मंदिर की मुक्ति के लिए कुछ भी योगदान किया था। दूसरी विशेषता; वे पूरी तरह राम भक्ति के रंग में रंगे हुए थे। उन्होंने भाजपा का राजनैतिक नारा ‘जय श्रीराम’ न लगा कर राम भक्तों में सदियों से प्रचलित ‘जय सियाराम’ का उदघोष  किया। इतना ही नहीं उनका उद्बोधन भगवान राम के जीवन, आदर्शों व रामचरित मानस के आध्यात्मिक ज्ञान पर आधारित था। पूरे भाषण का भाव भक्तिमय था। उन्होंने भगवान श्री राम को और उनके राम राज्य को हर भारतीय के लिए आदर्श बताया और उस पर चलने की प्रेरणा लेने को कहा। 

मोदी जी के इस भक्ति भाव का सम्मान करते हुए मैं अयोध्या के उस धोबी का स्मरण दिलाना चाहूँगा, जिसकी निराधार टिप्पणी को भी गम्भीरता से लेते हुए भगवान श्रीराम ने सीता माता का त्याग कर दिया था। ताकि समाज में लोकतांत्रिक मूल्यों का भी आदर हो। 

6 वर्ष बीत गए जब मोदी जी ने ब्रज विकास की मेरी प्रस्तुति को डेढ़ घंटा बैठ कर देखा और सराहा था। इन 6 वर्षों में मैंने अनेक लेखों, सोशल मीडिया और मोदी जी  के विश्वासपात्र अफ़सरों के माध्यम से बार-बार उनका ध्यान इस ओर आकर्षित करने का प्रयास किया है कि जिन पूर्ववर्ती सरकारों को वे हर भाषण में भ्रष्ट बताते हैं उन्हीं सरकारों के समय स्थापित हुए तौर तरीक़ों से आज भी तीर्थों के विकास के नाम पर जनता के धन की भारी बर्बादी और भ्रष्टाचार हो रहा है। इसके तमाम प्रमाण भी मैंने समय समय पर प्रकाशित किए। एक सनातनी हिंदू होने के कारण मेरी प्राथमिकता केवल ब्रज है। या यूँ कहें कि हमारी आस्था के सभी केंद्र हैं। हिंदूधर्म के प्रति आस्था जताने वाले राज में धर्मक्षेत्रों में ये लूट क्यों? 

1993 से हवाला कांड उजागर करके मैं दुनिया को सप्रमाण यह बता चुका हूँ कि भ्रष्टाचार के मामले में सभी दलों का एक सा हाल होता है। यह आज की व्यवस्था में भी सप्रमाण सिद्ध किया जा सकता है। पर मैं उस ओर न जा कर केवल धर्म क्षेत्र की ही बात करना चाहता हूँ। क्योंकि न सिर्फ़ मोदी जी ने बल्कि  सरसंघचालक डा मोहन भागवत जी ने और भाजपा ने लगातार भगवान राम के आदर्शों से प्रेरणा लेने का आवाहन किया है। 

इस संदर्भ में इन सभी महानुभावों को सम्बोधित करते हुए मैंने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को पिछले हफ़्ते सोशल मीडिया पर यह खुला पत्र भेजा है, आप जानते हैं कि दशरथ जी के देहांत के बाद भरत जी ननिहाल से अयोध्या लौटने पर विलाप करते हुए कहते हैं कि ‘अगर मैंने स्वप्न में भी भैय्या राम की जगह राजा बनने का सोचा हो तो मेरी वही दुर्गति हो जो ‘धर्मध्वजियों’ (जो धर्म का दोहन करते हैं) की होती है।’ यानि मुझे घोर नारकीय यातना मिले। धर्म के आवरण में अधर्म करने वालों को  बिना दंड दिये छोड़ देना अपने धर्म का स्वयं नाश करने जैसा है। 

आप जानते हैं कि सभी ब्रजवासियों, संतों व भक्तों द्वारा आजतक सराही जा रही ब्रज (मथुरा) की अभूतपूर्व सेवा जो द ब्रज फ़ाउंडेशन ने गत 18 वर्षों में की है, उसे विधर्मी औरंगज़ेब के तरीक़े से रोकने और नष्ट करने का घृणित कार्य गत 3 वर्षों में यूपी शासन में बैठे कुछ लोगों द्वारा, ‘उत्तर प्रदेश ब्रज तीर्थ विकास परिषद’ के साथ षड्यन्त्र करके, हम पर मिथ्या आरोप थोप कर किया गया, जिससे वे लोग ब्रज में धाम सेवा के नाम पर रोज़ाना ख़ूब घोटाले कर सकें और जगह- जगह गौशालाएँ हड़पने का काम बेरोकटोक कर सकें। जो ब्रज में धड़ल्ले से आज हो रहा है। ये सब कुछ जानकर भी आप मौन क्यों हैं ? 

हमारे विनम्र प्रयास से गोवर्धन (मथुरा) के अन्योर गाँव के संकर्षण कुंड का जीर्णोद्धार करके 34 फ़ीट ऊँचा व तिरुपति बाला जी से से लाकर चिन्नाजीयरस्वामी द्वारा 2017 में प्राणप्रतिष्ठित संकर्षण भगवान का (ब्रज का सबसे बड़ा) विग्रह आज इनके कारण 3 वर्षों से बिना सेवा पूजा के मल मूत्र के गंदे पानी में उपेक्षित खड़ा है। 

इन लोगों ने तो ईर्ष्यावश श्री राहुल बजाज और श्री अजय पीरामल जैसे दानदाताओं के नाम के व हमारे शिलालेख तक पुतवा दिये। जैसे भविष्य में कोई आने वाला प्रधानमंत्री अयोध्या में आपके ऐतिहासिक योगदान से ईर्ष्या करके वहाँ 5 अगस्त 2020 को लगे आपके नाम के शिलापट्ट को नष्ट कर दे, तो आपको कैसा लगेगा? 

हिंदू धर्म की तन मन धन से निस्वार्थ सेवा करने वालों से ये कैसा हिंदुत्ववादी व्यवहार है? आशा है आप इस लम्बित विषय पर कुछ करेंगे ? 

तो क्या ये माना जाए कि मोदी जी, भागवत जी और योगी जी अयोध्या के अपने उद्बोधन के तारतम्य में रामराज्य के मुझ ‘धोबी’ की भावना का सम्मान करते हुए, मथुरा, काशी, अयोध्या जैसे धर्मस्थलों के विकास और सौंदर्यकरण में चले आ रहे भ्रष्ट और संवेदनाशून्य ढ़र्रे से हट कर हमारे अनुभवजन्य ज्ञान को महत्व देंगे? रामराज्य की दिशा में यह एक छोटा पर महत्वपूर्ण कदम होगा। 

Monday, August 3, 2020

भारतीय राजनीति में ‘अमर सिंह’ बने रहेंगे

64 वर्ष की आयु में अमर सिंह का सिंगापुर में देहांत हो गया। अमर सिंह जैसे बहुत लोग भारतीय राजनीति में हैं पर उनकी खासियत यह थी कि वे खुद को राष्ट्रीय प्रसारण में भी दलाल घोषित करने में नहीं हिचकते थे। सिंधिया परिवार, भरतिया परिवार, अम्बानी परिवार, बच्चन परिवार या यादव परिवार में फूट डलवाने का श्रेय अमर सिंह को दिया जा सकता है। उन पर आरोप था कि वे इन सम्पन्न, मशहूर व ताकतवर परिवारों में कूटनीति से फूट डलवाते थे और एक भाई का दामन थाम कर दूसरे का काम करवाते थे। शायद इसमें अपना फ़ायदा भी उठाते हों। 


बड़ी तादाद में फ़िल्मी हिरोइनों को राजनीति में या राजनैतिक दायरों में महत्व दिलवाने का काम भी अमर सिंह बखूबी करते थे। इसको लेकर अनेक विवाद उठे और सर्वोच्च न्यायालय तक गए। उनकी महारथ इतनी थी कि केंद्र में भाजपा सरकार के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपयी तक अपने दल के नेताओं से ज़्यादा अमर सिंह को तरजीह देते थे। यह उस समय भाजपा के नेताओं में चिंता और चर्चा का विषय रहता था और इसी कॉलम में मैंने तब इस पर टिप्पणी भी की थी। 


सरकारें गिरने व बचाने में सांसदों व विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त करवाने में भी अमर सिंह की महत्वपूर्ण भूमिका रहती थी। पाठकों को अरुण जेटली के घर अमर सिंह की देर रात हुई वो गोपनीय बैठक याद होगी जो मीडिया की सक्रियता से चर्चा में आ गई थी। क्योंकि उस समय के राजनैतिक माहौल में दो विरोधी दलों के नेताओं का इस तरह मिलना बड़े विवाद का कारण बना था। 


पत्रकारिता में रहते हुए हम लोगों का हर क़िस्म के राजनेता से सम्पर्क हो ही जाता है। खबरों को जानने की उत्सुकता में ऐसे सम्पर्क महत्वपूर्ण स्रोत होते हैं। इस नाते अमर सिंह से मेरा भी ठीक-ठाक सम्पर्क था। पर 1995 में एक घटना ऐसी हुई जिसके बाद अमर सिंह ने मुझ से सम्बंध तो सौहार्दपूर्ण रखे पर यह समझ लिया कि मैं उनके मतलब का व्यक्ति नहीं हूँ। हालांकि यह भी उन्हीं की विशेषता थी। ‘जैन हवाला कांड’ में सर्वोच्च न्यायालय की सख़्ती के बाद सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय सक्रिय हुआ और अनेक दलों के बड़े राजनेताओं में हड़कम्प मच गया, तो अमर सिंह भी दूसरों की तरह करोड़ों रुपए की रिश्वत का प्रस्ताव लेकर मेरे पास आए ताकि मैं इस मुद्दे को छोड़ दूँ। मेरे रूखे और कड़े रवैए से वे हताश हो गए और बाद में जगह जगह कहते फिरे कि विनीत नारायण .…… (मूर्ख) हैं, 100 करोड़ रुपए मिलते और केंद्र में मंत्रिपद


जिन दिनों उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार थी तब वे ‘उत्तर प्रदेश विकास परिषद’ के अध्यक्ष थे। उस नाते मैंने उन्हें वृंदावन आने का न्योता दिया। क्योंकि तब मैं ब्रज सेवा में जुट गया था। सरकार व प्रशासन की मदद के बिना बड़े स्तर का कोई भी विकास कार्य आसानी से पूरा नहीं होता, उसमें बहुत बाधाएँ आती हैं, इसलिए मुझे लगा कि अमर सिंह को बुलाने से इन सेवा कार्यों में मदद मिलेगी। 


इस आयोजन के बाद मैं अमर सिंह से मिलने दिल्ली गया और कहा कि ब्रज (मथुरा) के विकास को लेकर मैंने कुछ ठोस योजनाएँ तैयार की हैं, उसमें आप मेरी मदद करें। अमर सिंह ने सत्कार तो पूरा किया पर टका सा जवाब दे दिया। आप अमिताभ बच्चन की तरह मेरी घनिष्ठ मित्र तो हैं नहीं। ‘हवाला कांड’ में मैं एक प्रस्ताव ले कर आपके पास आया था, पर आपने तो मुझे बैरंग लौटा दिया। तो अब आप मुझसे किसी मदद की उम्मीद कैसे कर सकते हैं? मैं समझता हूं कि अमर सिंह जैसी स्थिति में शायद ही कोई साफ-साफ ऐसे कहने की हिम्मत करेगा। यह खासियत उनमें ही थी। 


अमर सिंह की एक फ़ितरत थी वो पैसे वाले लोगों के या अपने मित्रों के बड़े से बड़े काम चुटकियों करवा देते थे। इसकी वो पहले कोई क़ीमत तय नहीं करते थे। जैसा कि प्रायः इस तरह की दलाली करने वाले लोग किया करते हैं। उनका सिद्धांत था कि ज़रूरत पर मदद करो और सामने वाले से ये अपेक्षा रखो कि इस मदद के बाद वो हमेशा हर तरह की मदद करने को तत्पर रहेगा। अगर कोई इसमें कोताही कर दे तो उसे सबक़ सिखाना भी अमर सिंह को आता था। इस कारण उनके कई मित्रों से विवाद भी बहुत गम्भीर हुए। पर वह अलग मामला है।  


अब यह राजनीति की स्तर है कि जो व्यक्ति सरेआम अपने को दलाल कहता था उसकी हर राजनैतिक दल को कभी न कभी ज़रूरत पड़ी। उत्तर प्रदेश के पिछले विधान सभा चुनाव में शिवपाल यादव और अखिलेश यादव के बीच जो सार्वजनिक लड़ाई हुई उसमें भी माना जाता है कि अमर सिंह ने यह सब भाजपा के इशारे पर किया। इस तरह वो पिछले तीन दशकों में भारतीय राजनीति में एक चर्चित चेहरा बने रहे। यह साधारण नहीं है कि सबकुछ सबको पता था फिर भी वे अपने काम या लक्ष्य में कामयाब थे। स्पष्ट है कि ईमानदारी के, पारदर्शिता के, जनता के प्रति जवाबदेही के दावे चाहे कोई भी दल करे पर सबको हर स्तर पर एक ‘अमर सिंह’की ज़रूरत होती है। ऐसे ‘अमर सिंह’ कांग्रेस के राज में भी खूब पनपे, जनता दल के राज में भी सफल रहे और भाजपा शासन में भी इनकी कमीं नहीं है। हां दलाली करने के स्वरूप और तरीक़ों में भले ही अंतर हो। सांसद और विधायक पहले भी ख़रीदे जाते थे और आज भी ख़रीदे जा रहे हैं। सरकारी ठेकों में पहले भी दलालों की भूमिका रहती थी और आज भी। 


ऐसे दलाल न तो जनता के हित में कभी कुछ करते हैं न तो देश के हित में कुछ करते हैं। वो जो कुछ भी करते हैं वो अपने या अपने दोस्तों के फ़ायदे के लिए ही करते हैं। फिर भी इन्हें राजनैतिक दल संसदीय लोकतंत्र के सर्वोच्च स्तर पर राज्य सभा का सदस्य बनवा देते हैं। उस राज्य सभा का जिसमें समाज के प्रतिष्ठित, अनुभवी, ज्ञानी और समर्पित लोगों को बैठ कर बहुजन हिताय गम्भीर चिंतन करना चाहिए। जबकि ऐसे लोगों को वहाँ अपना धंधा चलाने का अच्छा मौक़ा मिलता है। इसलिए जब तक हमारी राजनीति छलावे, झूठे वायदों, दोहरे चरित्र और जोड़-तोड़ से चलती रहेगी तब तक भारतीय राजनीति में ‘अमर सिंह’ कभी नहीं मरेंगे। उन्हें श्रद्धांजलि। 

Monday, July 27, 2020

पद्मनाभ स्वामी मन्दिर की गरिमा बची

पिछले हफ़्ते सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय ने तिरुवनंतपुरम के इस विश्वविख्यात मंदिर की गरिमा बचा दी। विश्व के सबसे बड़े ख़ज़ाने का स्वामी यह मंदिर पिछले 10 वर्षों से पूरी दुनिया के लिए कोतुहल बना हुआ था। क्योंकि इसके लॉकरों में कई लाख  करोड़ रुपए के हीरे जवाहरात और सोना चाँदी रखा है। पिछले 2500 वर्षों से जो कुछ चढ़ावा या धन यहाँ आया उसे त्रावणकोर के राज परिवार ने भगवान की सम्पत्ति मान कर संरक्षित रखा। उसका कोई दुरुपयोग निज लाभ के लिए नहीं किया। 


जबकि दूसरी तरफ़ केरल की साम्यवादी सरकार इस बेशुमार दौलत से केरल के गरीब लोगों के लिए स्कूल, अस्पताल आदि की व्यवस्था करना चाहती थी। इसलिए उसने इसके अधिग्रहण का प्रयास किया। चूँकि यह मंदिर त्रावणकोर रियासत के राजपरिवार है, जिसके पारिवारिक ट्रस्ट की सम्पत्ति यह मन्दिर है। उनका कहना था कि इस सम्पत्ति पर केवल ट्रस्टियों का हक है और किसी भी बाहरी व्यक्ति को इसके विषय में निर्णय लेने का कोई अधिकार नहीं है। राजपरिवार के समर्थन में खड़े लोग यह कहने में नहीं झिझकते कि इस राजपरिवार ने भगवान की सम्पत्ति की धूल तक अपने प्रयोग के लिए नहीं ली। ये नित्य पूजन के बाद, जब मन्दिर की देहरी से बाहर निकलते हैं, तो एक पारंपरिक लकड़ी से अपने पैर रगड़ते हैं, ताकि मन्दिर की धूल मन्दिर में ही रह जाए। इन लोगों का कहना है कि भगवान के निमित्त रखी गयी यह सम्पत्ति केवल भगवान की सेवा के लिए ही प्रयोग की जा सकती है। 


इन सबके अलावा हिन्दू धर्मावलंबियों की भी भावना यही है कि देश के किसी भी मन्दिर की सम्पत्ति पर नियन्त्रण करने का, किसी भी

राज्य या केन्द्र सरकार को कोई हक नहीं है। वे तर्क देते हैं कि जो सरकारें मुसलमानों, ईसाइयों, सिखों अन्य धर्मावलंबियों के धर्मस्थानों की सम्पत्ति का अधिग्रहण नहीं कर सकतीं, वे हिन्दुओं के मन्दिरों पर क्यों दांत गढ़ाती हैं? खासकर तब जबकि आकण्ठ भ्रष्टाचार में डूबी हुई सरकारें और नौकरशाह सरकारी धन का भी ठीक प्रबन्धन नहीं कर पाते हैं। 


यह विवाद सर्वोच्च न्यायालय तक गया, जिसने अपने फ़ैसले में केरल सरकार के दावे को ख़ारिज कर दिया और त्रावणकोर राज परिवार के दाव को सही माना। जिससे पूरे दुनिया के हिंदू धर्मावलंबियों ने राहत की साँस ली है। ये तो एक शुरुआत है देश अनेक मंदिरों की सम्पत्तिपर राजनैतिक दल और नौकरशाह अरसे से गिद्ध दृष्टि लगाए बैठे हैं। जिन राज्यों में धर्मनिरपेक्ष दलों की सरकारें हैं उन पर भाजपा मंदिरों के धन के दुरुपयोग का आरोप लगाती आई है और मंदिरों केअधिग्रहण का ज़ोर शोर से संघ, भाजपा विहिप विरोध करते आए हैं। जैसे आजकल तिरुपति बालाजी के मंदिर को लेकर आंध्र प्रदेश की रेड्डी  सरकार पर भाजपा का लगातार हमला हो रहा है, जो सही भी है और हम जैसे आस्थावान हिंदू इसका समर्थन भी करते हैं। पर हमारे लिए चिंता की बात यह है कि उत्तराखंड की भाजपा सरकार ने ही अनेक हिंदू मंदिरों का अधिग्रहण कर लिया है। और भाजपा अन्य राज्यों में भी यही करने की तैयारी में है। जिससे हिंदू धर्मावलंबियों में भारी आक्रोश है।   


दरअसल धार्मिक आस्था एक ऐसी चीज है जिसे कानून के दायरों से नियंत्रित नहीं किया जा सकता। आध्यात्म और धर्म की भावना रखने वाले, धर्मावलंबियों की भावनाओं को तो समझ सकते हैं और ही उनकी सम्पत्ति का ठीक प्रबन्धन कर सकते हैं। इसलिए जरूरी है कि जहाँ कहीं ऐसा विवाद हो, वहाँ उसी धर्म के मानने वाले समाज के प्रतिष्ठित और सम्पन्न लोगों की एक प्रबन्धकीय समिति का गठन अदालतोंको कर देना चाहिए। इस समिति के सदस्य बाहरी लोग हों और वे भी हों जिनकी आस्था उस देव विग्रह में हो। जब साधन सम्पन्न भक्त मिल बैठकर योजना बनाएंगे तो दैविक द्रव्य का बहुजन हिताय सार्थक उपयोग ही करेंगे। जैसे हर धर्म वाले अपने धर्म के प्रचार के साथ समाज की सेवा के भी कार्य करते हैं, उसी प्रकार से पद्मनाभ स्वामी जी के भक्तों की एक समिति का गठन होना चाहिए। जिसमें राजपरिवार के अलावा ऐसे लोग हों, जिनकी धार्मिक आस्था तो हो पर वे उस इलाके की विषमताओं को भी समझते हों। ऐसी समिति दैविक धन का धार्मिक कृत्यों समाज विकास के कृत्यों में प्रयोग कर सकती है। इससे उस धर्म के मानने वालों के मन में तो कोई अशांति होगी और कोई उत्तेजना। वे भी अच्छी भावना के साथ ऐसे कार्यों में जुड़ना पसन्द करेंगे। अब वे अपने धन का कितना प्रतिशत मन्दिर और अनुष्ठानों पर खर्च करते हैं और कितना विकास के कार्यों पर, यह उनके विवेक पर छोड़ना होगा। 


हाँ, इस समिति की पारदर्शिता और जबावदेही सुनिश्चित कर देनी चाहिए। ताकि घोटालों की गुंजाइश रहे। इस समिति पर निगरानी रखने के लिए उस समाज के सामान्य लोगों को लेकर विभिन्न निगरानी समितियों का गठन कर देना चाहिए। जिससे पाई-पाई पर जनता की निगाह बनी रहे। हिन्दू मन्दिरों का धन सरकार द्वारा हथियाना, हिन्दू समाज को स्वीकार्य नहीं होगा। अदालतों को हिन्दुओं की इस भावना का ख्याल रखना चाहिए। अभी तो एक पद्मनाभ मन्दिर का फ़ैसला आया है। देश में ऐसे हजारों मन्दिर हैं, जहाँ नित्य धन लक्ष्मी की वर्षा होती रहती है। पर इस धन का सदुपयोग नहीं हो पाता। आस्थावान समाज को आगे बढ़कर नई दिशा पकड़नी चाहिए और दैविक द्रव्य का उपयोग उस धर्म स्थान या धर्म नगरी या उस धर्म से जुड़े अन्य तीर्थस्थलों के जीर्णोद्धार और विकास पर करना चाहिए। जिससे भक्तों और तीर्थयात्रियों को सुखद अनुभूति हो। इससे धरोहरों की रक्षा भी होगी और आने वालों को प्रेरणा भी मिलेगी।