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Monday, August 17, 2020

बॉलीवुड का बदलता ट्रेंड

पिछले कुछ बरसों से बॉलीवुड में एक नया ट्रेंड चला है। समकालीन लोगों की जीवनियों पर आधारित फ़िल्में बनाने का। पिछले हफ़्ते रिलीज़ हुई ‘गुंजन सक्सेना-द कारगिल गर्ल’ एक ऐसी ही फ़िल्म है जो भारतीय वायु सेना की पाइलट गुंजन सक्सेना के जीवन पर आधारित है। 

गुंजन सक्सेना वो जांबाज़ पाइलट हैं जिन्होंने कारगिल युद्ध में बहुत सूझबूझ और हिम्मत का परिचय दिया। इस युद्ध के दौरान श्रीनगर बेस केम्प से उन्होंने 40 बार कारगिल के लिए उड़ानें भरीं। सीमा पर लड़ रही भारतीय फ़ौज को रसद पहुँचाने और गोले बारूद के बीच से घायलों को निकाल कर लाने की ज़िम्मेदारी उन्हें दी गई थी। जिसे उन्होंने बखूबी अंजाम दिया और सिद्ध कर दिया कि महिलाएँ बहादुरी में किसी मर्द से पीछे नहीं होतीं। 


हालाँकि पूरी तरह मर्दों द्वारा संचालित वायु सेना में पाइलट के रूप में गुंजन सक्सेना की ‘एंट्री’ आसान नहीं थी। उन्हें समकक्ष पाइलटों की भारी उपेक्षा और उनसे अपमान सहना पड़ा। पर वे डटी रहीं और एक सफल लड़ाकू पाइलट के रूप में नाम कमाया। फ़िल्मी पर्दे पर भी इस भूमिका को जाह्नवी कपूर ने बहुत ख़ूबसूरती से निभाया है। 


इससे पहले भी बॉक्सिंग चैम्पीयन मेरी क़ौम, धावक मिल्खा सिंह, क्रिकेटर महेंद्र सिंह धोनी, कुश्ती के लिए मशहूर हुई फोगट बहनें और विश्वविख्यात गणितज्ञ शकुंतला देवी आदि समकालीन सितारों पर पिछले वर्षों में बेहतरीन फ़िल्में आई हैं। 


इससे पहले के दौर में ऐतिहासिक विभूतियों जैसे सरदार भगत सिंह, महात्मा गांधी, सरदार पटेल, सुभाष चंद्र बोस या और पहले के दौर के नायक छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप आदि या फिर अलग अलग प्रांतों में समाज को दिशा और शांति देने वाले संत जैसे मीरा बाई, संत तुकाराम, संत नामदेव आदि पर भी फ़िल्में बनती रहीं हैं। इससे और भी पहले के दौर में पौराणिक चरित्रों पर भी बहुत फ़िल्में बनी हैं। जैसे भक्त प्रह्लाद, भक्त ध्रुव व सूरदास आदि। 


दरअसल, सितारे केवल वही नहीं होते जो फ़िल्म के पर्दे पर दिखायी देते हैं। नायक केवल वही नहीं होते जो युद्ध जीतते हैं। बल्कि हर वो व्यक्ति जो अपने कार्य क्षेत्र में अपनी मेहनत, लगन और निष्ठा से छाप छोड़ता है वह जनता की दृष्टि में सितारा ही होता है। चाहें वो खेल में हो, समाजसेवा में हो, साहित्य या पत्रकारिता में हो या कला  व संगीत में हो, ऐसे ‘रियल लाइफ़ हीरो’ की ज़िंदगी के हर पहलू को जानने की जिज्ञासा आम लोगों में हमेशा रहती है। उनका कहाँ जन्म हुआ, वो कैसे इस क्षेत्र में आए, उन्होंने कितना और कैसे संघर्ष किया और फिर उन्हें कब और कैसी कामयाबी मिली। ऐसी जीवन गाथा सुनना और सुनाना दोनों ही आनंददायक होते हैं। इसलिए यह फ़िल्में प्रायः सफल होती हैं। 


सितारा चाहे बीते जमाने का हो या आजके जमाने का, उसकी उपलब्धियाँ हर एक के लिए प्रेरणादायक होती है, विशेषकर नई पीढ़ी के लिए। इसलिए बॉलीवुड के उन निर्माताओं के हम आभारी हैं, जो नाच, हिंसा, इश्क़ जैसे घिसे पिटे ढर्रे से बाहर निकल कर ऐसे नए प्रयोग कर रहे हैं। शुरू में शायद यह जोखिम भरा प्रयास रहा हो क्योंकि अगर फ़िल्म बॉक्स ऑफ़िस पर सफल न हो तो वह उस फ़िल्म के निर्माण से जुड़े हर महत्वपूर्ण व्यक्ति को बड़ा झटका दे देती हैं। लेकिन जबसे नेटफलिक्स जैसे प्लैट्फ़ॉर्म वजूद में आए हैं तब से यह जोखिम भी ख़त्म हो गया है। क्योंकि अब बिना टिकट ख़रीदे ही या बिना थीएटर तक जाए ही, घर बैठे बैठे करोड़ों दर्शक दुनिया के हर कोने में अपनी सुविधा से इन फ़िल्मों देख सकते हैं। इसलिए यह और भी ज़रूरी हो जाता है की किसी के ‘बायोपिक’ (जीवनी) पर फ़िल्म बनाने वाले जहां तक सम्भव हो, फ़िल्म को तथ्यात्मक ही बनाएँ । उसमें नाटकीयता न आने दें। हम जानते हैं कि अपनी प्रेमिका के आगे पीछे बैक्ग्राउंड संगीत के साथ बाग बगीचों में दौड़ दौड़ कर प्रेम का इज़हार  कभी कोई नहीं करता। प्रेम प्रदर्शन का यह तरीक़ा बॉलीवुड ने ही ईजाद किया और आजतक ढो रहा है। आम जीवन में प्रेमी और प्रेमिका बिलकुल ही सामान्य तरीक़े से केवल बातचीत में ही प्रेम का इज़हार करते हैं। इसलिए जब मिल्खा सिंह को अपनी प्रेमिका के साथ गीत गाते दिखाया गया तो वह किसी के गले नहीं उतरा। फ़िल्म में बिना वजह गाने ठूसने से वो अनावशयक रूप से लम्बी है । फिर भी दर्शक टिका रहा क्योंकि मिल्खा सिंह की जीवनी में बहुत आकर्षण था। 


बॉलीवुड में आए इस नए ट्रेंड के साथ दर्शकों की भी पसंद बदल रही है। टेलिविज़न के आने से पहले नाटक और फ़िल्में ही आम जनता के मनोरंजन का मुख्य स्रोत होते थे। टेलिविज़न के आने के बाद, ख़ासकर निजी चैनलों के आने के बाद मनोरंजन के स्रोतों का भारी विस्तार हुआ है। अब हर व्यक्ति अपनी रुचि के अनुसार अपने मनोरंजन के लिए अनेक तरह के कार्यक्रम देख सकता है। ऐसे में बॉलीवुड के लिए भी ये बाध्यता नहीं है कि वो केवल मनोरंजन को ही लक्ष्य बना कर फ़िल्में बनाए। मनोरंजन के अलावा, सूचना देना और शिक्षित करना भी इनका दायित्व  होता है। जिसे निभाने में बॉलीवुड काफ़ी पीछे रहा है। 


लेकिन इन बदली हुई परिस्थितियों में आम दर्शक भी बहुत जागरूक हो गया है। उसे इतिहास, धर्म, संस्कृति या ‘रियल लाइफ़ हीरोज़’ की जीवनी पर आधारित फ़िल्में देखना अच्छा लगता है।


समकालीन हीरो पर फ़िल्म बनाने का एक और बड़ा लाभ यह है कि हम उस व्यक्ति को उसके जीवन काल में ही वो प्रसिद्धि दे सकते हैं जिसका वो हक़दार है। किंतु हर क्षेत्र में व्याप्त राजनीति, भाई भतीजावाद, लिंगभेद या भ्रष्टाचार के चलते वह इस यश को पाने से वांछित रह जाता है। आज भी देश के हर प्रांत में व हर क्षेत्र में ऐसे तमाम लोग हैं जिनकी जीवनी पर अगर फ़िल्में बनें तो समाज का बहुत बड़ा लाभ होगा। आशा की जानी चाहिए कि बॉलीवुड इस दिशा में और भी उत्साह से आगे बढ़ेगा।