योगी सरकार उ. प्र. की धर्मनगरियों को सजाना-संवारना चाहती है। स्वयं मुख्यमंत्री इस मामले में गहरी रूचि रखते हैं। उनकी हार्दिक इच्छा है कि उनके शासनकाल में मथुरा, वाराणसी, अयोध्या और चित्रकूट का विकास इस तरह हो कि यहां आने वाले श्रद्धालुओं को सुख मिले। इसके लिए वे सब कुछ करने को तैयार हैं। योगी जी ने पिछले कार्यकाल में इन धार्मिक शहरों के विकास के लिए उदारता से बड़ी मात्रा में धन आवंटित किया। पर क्या जितना पैसा लगा उससे वैसे परिणाम भी सामने आए? ईसा से तीन सदी पूर्व पूरे भारत पर राज करने वाले मगध सम्राट अशोक अपने अफ़सरों की दी सूचनाओं पर ही निर्भर नहीं रहते थे। बल्कि भेष बदल कर ज़मीनी हक़ीक़त का जायज़ा लेने प्रायः खुद निकलते थे। योगी जी अगर मथुरा, वृंदावन, अयोध्या व काशी आदि में इसी तरह भेष बदल कर स्थानीय निवासियों, संत गणों और तीर्थयात्रियों की राय लें तो उनको सही स्थिति का पता चलेगा।
धर्मनगरियों व ऐतिहासिक भवनों का जीर्णोंद्धार या सौन्दर्यीकरण एक बहुत ही जटिल प्रक्रिया है। जटिल इसलिए कि चुनौतियां अनंत है। लोगों की धार्मिक भावनाएं, पुरोहित समाज के पैतृक अधिकार, वहां आने वाले लाखों आम लोगों से लेकर मध्यम वर्गीय व अति धनी लोगों की अपेक्षाओं को पूरा करना बहुत कठिन होता है। सीमित स्थान और संसाधनों के बीच व्यापक व्यवस्थाऐं करना, इन नगरों की ट्रैफ़िक, सफ़ाई, कानून व्यवस्था और तीर्थयात्रियों की सुरक्षा को सुनिश्चति करना बड़ी चुनौतियाँ हैं।
इस सबके लिए जिस अनुभव, कलात्मक अभिरूचि व आध्यात्मिक चेतना की आवश्यक्ता होती है, प्रायः उसका प्रशासनिक व्यवस्था में अभाव होता है। सड़क, खड़ंजे, नालियां, फ्लाई ओवर जैसी आधारभूत संरचनाओं के निर्माण का अनुभव रखने वाला प्रशासन तंत्र इन नगरों के जीर्णोंद्धार और सौन्दर्यीकरण में वो बात नहीं ला सकता, जो इन्हें विश्वस्तरीय तीर्थस्थल बना दे। कारण यह है कि सड़क, खड़जे की मानसिकता से टैंडर निकालने वाले, डीपीआर बनाने वाले और ठेके देने वाले, इस दायरे के बाहर सोच ही नहीं पाते। अगर सोच पात होते तो आज तक इन शहरों में कुछ कर दिखाते। पिछले इतने दशकों में इन धर्मनगरियों में विकास प्राधिकरणों ने क्या एक भी इमारत ऐसी बनाई है, जिसे देखा-दिखाया जा सके? क्या इन प्राधिकरणों ने शहरों की वास्तुकला को आगे बढाया है या इन पुरातन शहरों में दियासलाई के डिब्बों जैसे भवन खड़े कर दिये हैं। जिनमें लाल पत्थर के होटल, गेस्ट हाउस, दुकानें आदि बनाए गए हैं। जिनसे न तो तीर्थ विकास हुआ है और न ही उस तीर्थ का सौंदर्यकरण ही हुआ है। नतीजतन ये सांस्कृतिक स्थल अपनी पहचान तेजी से खोते जा रहे हैं। ये निर्माण तो व्यापारी समाज हर धर्म नगरी या पर्यटक स्थल में स्वयं ही कर लेता है। उसमें जनता के कर का दिया हुआ सरकारी धन बर्बाद करने की क्या आवश्यकता है?
माना कि शहरीकरण की प्रक्रिया को रोका नहीं जा सकता। बढ़ती आबादी की मांग को भी पूरा करना होता है। मकान, दुकान, बाजार भी बनाने होते हैं, पर पुरातन नगरों की आत्मा को मारकर नहीं। अंदर से भवन कितना ही आधुनिक क्यों न हो, बाहर से उसका स्वरूप, उस शहर की वास्तुकला की पहचान को प्रदर्शित करने वाला होना चाहिए। भूटान एक ऐसा देश है, जहां एक भी भवन भूटान की बौद्ध संस्कृति के विपरीत नहीं बनाया जा सकता। चाहे होटल, दफ्तर, मकान, स्कूल, थाना, पेट्रोल पम्प या दुकान, कुछ भी हो। सबके खिड़की, दरवाजे और छज्जे बौद्ध विहारों के सांस्कृतिक स्वरूप को दर्शाते हैं। इससे न सिर्फ कलात्मकता बनीं रहती है, बल्कि ये और भी ज्यादा आकर्षक लगते हैं। दुनिया के तमाम पर्यटन वाले नगर, जैसे पिटर्सबर्ग (रूस), फ़्लोरेंस (इटली) या पेरिस (फ़्रांस) आदि इस बात का विशेष ध्यान रखते हैं। जबकि उ. प्र. में आज भी पुराने ढर्रे से सोचा और किया जा रहा है। फिर कैसे सुधरेगा इन नगरों का स्वरूप?
जुलाई 2017 में जब मैंने उ. प्र. के नए बने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी को उनके लखनऊ कार्यालय में मथुरा के तीर्थ विकास के बारे में ‘पावर पाइंट’ प्रस्तुति दी, तो मैंने उनसे स्पष्ट शब्दों में कहा कि महाराज! दो तरह का भ्रष्टाचार होता है, ‘करप्शन ऑफ डिजाईन’ व ‘करप्शन ऑफ इम्पलीमेंटेशन’। यानि नक्शे बनाने में भ्रष्टाचार और निर्माण करने में भ्रष्टाचार। निर्माण का भ्रष्टाचार तो भारतव्यापी है। बिना कमीशन लिए कोई सरकारी आदमी कागज बढ़ाना नहीं चाहता। पर डिजाईन का भ्रष्टाचार तो और भी गंभीर है। यानि तीर्थस्थलों के विकास की योजनाऐं बनाने में ही अगर सही समझ और अनुभवी लोगों की मदद नहीं ली जायेगी और उद्देश्य अवैध धन कमाना होगा, तो योजनाऐं ही नाहक महत्वाकांक्षी बनाई जायेंगी। गलत लोगों से नक्शे बनावाये जायेंगे और सत्ता के मद में डंडे के जोर पर योजनाऐं लागू करवाई जायेंगी। नतीजतन धर्मक्षेत्रों का विनाश होगा, विकास नहीं।
पिछले तीन दशकों में, इस तरह कितना व्यापक विनाश धर्मक्षेत्रों का किया गया है कि उसके दर्जनों उदाहरण दिये जा सकते हैं। फिर भी अनुभव से कुछ सीखा नहीं जा रहा। सारे निर्णय पुराने ढर्रे पर ही लिए जा रहे हैं, तो कैसे सजेंगी हमारी धर्मनगरियां? मैं तो इसी चिंता में घुलता जा रहा हूं। शोर मचाओ तो लोगों को बुरा लगता है और चुप होकर बैठो तो दम घुटता है कि अपनी आंखों के सामने, अपनी धार्मिक विरासत का विनाश कैसे हो जाने दें? योगी जी पैसे कमाने के लिए सत्ता में नहीं आये हैं। मगर समस्या यह है कि उन्हें सलाह देने वाले तो लोग वही हैं ना, जो इस पुराने ढर्रे के बाहर सोचने का प्रयास भी नहीं करते। इसलिए अपने दूसरे कार्यकाल में उन्हें राग-द्वेष से मुक्त हो कर नए तरीक़े से सोचना होगा।
चूंकि धर्मक्षेत्रों का विकास करना आजकल ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ का भी उद्देश्य हो गया है, इसलिए संघ नेतृत्व को भी चाहिए कि धर्मक्षेत्रों के विकास पर स्पष्ट नीति निधार्रित करने के लिए अनुभवी और चुने हुए लोगों की गोष्ठी बुलाए और उनकी राय लेकर नीति निर्धारण करवाये। नीतियों में क्रांतिकारी परिवर्तन किये बिना, वांछित सुधार आना असंभव है। फिर तो वही होगा कि ‘चौबे जी गये छब्बे बनने और दूबे बनके लौटे’। यही काम योगी जी को अपने स्तर पर भी करना चाहिए। पर इसमें भी एक खतरा है। जब कभी सरकारी स्तर पर ऐसा विचार-विमर्श करना होता है, तो निहित स्वार्थ सार्थक विचारों को दबवाने के लिए या उनका विरोध करवाने के लिए, सत्ता के दलालनुमा लोगों को समाजसेवी या विशेषज्ञ बताकर इन बैठकों में बुला लेते हैं और सही बात को आगे नहीं बढ़ने देते। इसलिए ऐसी गोष्ठी में केवल वे लोग ही आएं, जो स्वयंसिद्ध हैं, ढपोरशंखी नहीं। योगी जी अपने दूसरे कार्यकाल में ऐसे क्रांतिकारी और लकीर से हट कर नई सोच वाले कदम उठा पायेंगे या नहीं, ये तो वक्त ही बताएगा। अगर वो ऐसा कर पाते हैं तो उनकी उपलब्धियाँ पिछले कार्यकाल की तुलना में ज़्यादा सराहनीय होंगी। क्योंकि वे विश्व भर के धर्म प्रेमियों को इन तीर्थों की ओर आकर्षित कर पाएँगी। बनारस में एक कहावत मशहूर है ‘रांड, सांड, सीढ़ी, सन्यासी, इनसे बचें तो सेवें काशी’, अर्थात् पुराने मकड़ जाल से निकल कर ही होगा तीर्थों का सही विकास।