Monday, August 31, 2015

इन्द्राणी मुखर्जी: हमारी रोल मॉडल नहीं

ऐसी शोहरत, ग्लैमर व ताकत की चमक-दमक वाली दुनिया के सितारे भारतीय समाज के आदर्श नहीं हो सकते। क्योंकि इन्होंने जिस उपभोक्तावादी पाश्चात्य संस्कृति का रास्ता अपनाया है उससे भारतीय समाज की हजारों साल पुरानी परंपरांओं को भारी खतरा पैदा हो गया है। खासकर उच्च वर्ग और मध्यम वर्ग उन्हें अपना आदर्श मानकर फुहड़पन की भौडी संस्कृति को तेजी से अपनाता जा रहा है। फिर चाहे वो ताश के पत्तों की तरह पति या पत्नियां को बदलना हो, चाहे लिव-इन-रिश्ते में रहना हो या फिर मुक्त सैक्स का आनंद लेना हो। घर टूट रहे हैं। रिश्ते टूट रहें हैं। तनाव और घुटन बढ़ रही है। हत्याएं और आत्महत्याएं हो रही हैं। नशीली दवाओं का सेवन बढ़ रहा है। यह सब देन है टीवी सीरियलों, फिल्मों और पेज-3 संस्कृति की। जो जबरदस्ती हमारे घरों में घुसती जा रही है।

आधुनिक और मुक्त विचारों का हामी बुद्धिजीवी वर्ग इस संस्कृति पर किसी भी तरह के नियंत्रण को मानवाधिकारों का हनन मानता है। ऐसे प्रयासों को कट्टरवादी कह कर उसके विरोध में उठ खड़ा होता है। चूंकि इस वर्ग की पकड़ और पहुंच मीडिया में गहरी और व्यापक हैए इसलिए इनकी ही बात सुनी जाती है। जबकि बहुसंख्यक समाज आज भी इस संस्कृति से बचा हुआ है और इसे पसंद नहीं करता। लेकिन यह दुर्भाग्य है कि यह बुद्धिजीवी वर्ग आज हिन्दुस्तान के बहुसंख्यक वर्ग पर हावी होता जा रहा है। जिसका दुष्परिणाम हम सबके सामने इस रूप में आ रहा है। यह हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए अत्यंत घातक सिद्ध होगा।

मुक्त विचारों के समर्थक इन बुद्धिजीवियों से कोई पूछे कि इंद्राणी जैसी औरत को क्या कहेंगे ? जो अपनी बेटी की हत्या करती है, अपने पुराने पति के सहयोग से। नए पति से यह राज छुपाती है कि शीना उसकी बेटी थी और हत्या करके भी नए पति के साथ आराम से सामान्य जिंदगी जीती हैं। अपनी पिछली शादी से पैदा लड़की को, उसके बाप से अलग रखकर नए पति की दत्तक पुत्री बनवा देती है ताकि उसकी दौलत इस दत्तक पुत्री को मिल सके। इन्द्राणी अकेली नहीं हैं। ऐसी ताकतवर, मशहूर और हाई सोसायटी वाली महिलाएं देश की राजधानी दिल्ली से लेकर हर बड़े शहर के कुलीन माने जाने वाले समाज की ‘शोभा’ बढ़ाती हैं और तब तक गुलछर्रे उड़ाती हैं जब तक कोई हिम्मती उनका भांड़ा न फोड़ दे। पर हमारे कुलीन समाज को क्या हो गया है? ये समाज किस रास्ते पर बढ़ चला है ? कहां इस प्रकार के घिनौने कृत्यों पर विराम लगेगा, यह चिंतनीय है।

ऐसा नहीं है कि भारतीय समाज में अवैध संबंधों का इतिहास न रहा हो। वैदिक काल से आज तक ऐसे संबंधों के अनेक उदाहरण पुराणों तक में उल्लेखित हैं द्य पर उनका समाज में आदर्श की तरह यशगान नहीं किया जाता था। उन्हें सह लिया जाता थाए  महिमामंडित नहीं किया जाता था। अगर कड़ी शासन व्यवस्था हुई तो उन पर नियंत्रण भी किया जाता था।

लेकिन आज जो यह संस्कृति निर्लज्जता से साजिशन पनपाई जा रही है, इसके पीछे हैं वो बाजारू ताकतें जो अपने उत्पादनों को हमारे बाजारों में थोपने के लिए हमारी सामाजिक परिस्थिति को बदल देना चाहती हैं। जिसे हम आज आधुनिक मान रहे हैं द्य दरअसल यह संस्कृति पश्चिमी देशों में अपना खोखलापन सिद्ध कर चुकी है। इसलिए वहां के समाजों ने अब इस संस्कृतिक से काफी हद तक मुंह मोड़ लिया हैं और पारिवारिक बंधनों की ओर फिर से लौटने लगे हैं ।

जबकि हम हर आयातित चीज को अपनाने की भूख में अपने अस्तित्व की जड़ों पर कुल्हाड़ी चला रहे हैं। छोटे-छोटे काम ही हमें आगे चलकर बड़े पतन की ओर ले जाएंगे। आज भारत के किसी भी गांव, कस्बें में चले जाइएए फेरों बिना शादी हो जाएगी पर डीजे बिना नहीं होगी। डीजे में फटता कानफाडू शोर, अभद्र गानें और उनपर थिरकतें हमारे परिवारिजन शादी का सारा मजा किरकिरा कर देते हैं। न कोई बात सुनपाता है और न मंत्रों का उच्चारण। जबकि शादी जैसे पवित्र समारोह भारतीय संस्कृति और परंपरा के उन उच्च आदर्शों का नमूना है जिन्हें अपनाने आज बड़े-बड़े मशहूर गोरे लोग तक भारत आ रहे हैं।

पारंपरिक त्यौहार जिनका संबंध हमारे मौसम और कृषि से था उन्हें भूलकर हम वेलेनटाइन-डे जैसे वाहियात नए त्यौहारों को अपना कर अपनी जड़ों से कट रहे हैं। इकबाल ने कहा था, ‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा।‘ हजारों साल भारत ने विदेशी हमलों को झेला मगर हमारी संस्कृति की जड़े इतनी गहरी थी कि कोई उन्हें हिला नहीं पाया। पर बाजार की इस संस्कृति ने जो हमला किया है, उसने हमारे गांवों तक अपनी पकड़ बना ली है। इसे रोकना होगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को विरोधी लाख तानाशाह कहें, पर उन्हें ऐसी तानाशाही दिखानी होगी ताकि टीवी और इंटरनेट से ऐसी संस्कृति को रोकने का माहौल बन सके। इसलिए इस तरह के तथाकथित ग्लैमर, शोहरत और ताकत के बल पर अति महत्वाकांक्षी आधुनिक संस्कृति का पटाक्षेप हो सके द्य जो आने वाली हमारी पीढ़ियों के लिए जरूरी है।

Monday, August 10, 2015

राधे मैया की हो गई ‘राधे-राधे‘

मीडिया से घिरी और पुलिस वालों के फंदे में फंसी मुंबई की पांच सितारा राधे मां की अब ‘राधे-राधे’ हो गई। कैसी विड़बना है कि जिन भगवान श्रीकृष्ण की अंतरंगा शक्ति कृपामयी, करूणामयी श्री राधारानी के दर्शन देवताओं को भी दुर्लभ हैं। जिनके चरणाश्रय के लिए सकल ब्रह्मांड के संत और भक्त सदियों साधना करते हैं। जिनके चरणों के नख की कांति कोटि चंद्रमाओं को भी लजा देती है। जिनको आकर्षित करने के लिए हमारे प्यारे श्यामसुंदर ब्रज के वनों और कुंजों में फेरे लगाया करते हैं। उन राधारानी का ढ़ोग धरने की हिमाकत अगर संसारी जीव करें, तो उनकी यही दशा होगी, जो आज तथाकथित राधे मां की हो रही है। आज से 2 वर्ष पूर्व जब आसाराम बापू गिरफ्तार हुए थे, तो मैंने धर्म के धंधे पर एक लेख लिखा था। विड़बना देखिये कि आत्मघोषित राधे मां को पकड़े जाने के बाद वह लेख ज्यों का त्यों आज फिर प्रासंगिक हो गया है। उसके कुछ बिंदु यहां दोहरा रहा हूं।

दरअसल, धर्म का धंधा केवल भारत में चलता हो या केवल हिन्दू कथावाचक या महंत ही इसमें लिप्त हों यह सही नहीं है। तीन दिन तक मैं इटली के रोम नगर में ईसाईयों के सर्वोच्च आध्यात्मिक केन्द्र वेटिकन सिटी में पोप और आर्क बिशपों के आलीशान महल और वैभव के भंडार देखता रहा। एक क्षण को भी न तो आध्यात्मिक स्फूर्ति हुई और न ही कहीं भगवान के पुत्र माने जाने वाले यीशू मसीह के जीवन और आचरण से कोई संबध दिखाई दिया। कहां तो विरक्ति का जीवन जीने वाले यीशू मसीह और कहां उनके नाम पर असीम ऐश्वर्य में जीने वाले ईसाई धर्म गुरू ? पैगम्बर साहब हों या गुरू नानक देव, गौतम बुद्ध हो या महावीर स्वामी, गइया चराने वाले ब्रज के गोपाल कृष्ण हो या वनवास झेलने वाले भगवान राम, कैलाश पर्वत पर समाधिस्थ भोले शंकर हो या कुशा के आसन पर भजन करने वाले हनुमान जी सबका जीवन अत्यन्त सादगी और वैराग्य पूर्ण रहा है। पर धर्म के नाम पर धंधा करने वालों ने उनके आदर्शों को ग्रन्थों तक सीमित कर साम्राज्य खड़े कर लिए हैं। कोई धर्म इस रोग से अछूता नहीं। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि हर धर्म क्रमशः भौतिकता की ओर पतनशील हो जाता है।

संत वो है जिसके पास बैठने से हम जैसे गृहस्थ विषयी भोगियों की वासनाएं शान्त हो जाए, भौतिकता से विरक्ति होने लगे और प्रभु के श्री चरणों में अनुराग बढ़ने लगे। पर आज स्वंय को ‘संत‘ कहलाने वाले क्या इस मापदंड पर खरे उतरते हैं ? जो वास्तव में संत हैं उन्हें अपने नाम के आगे विशेषण लगाने की जरूरत नहीं पड़ती। क्या मीराबाई, रैदास, तुलसीदास, नानक देव, कबीरदास जैसे नाम से ही उनके संतत्व का परिचय नहीं मिलता ? इनमें से किसी ने अपने नाम के पहले जगतगुरू, महामंडलेश्वर, परमपूज्य, अवतारी पुरूष, श्री श्री 1008 जैसी उपाधियां नहीं लगाईं। पर इनका स्मरण करते ही स्वतः भक्ति जागृत होने लगती है। ऐसे संतों की हर धर्म में आज भी कमी नहीं है। पर वे टीवी पर अपनी महानता का विज्ञापन चलवाकर या लाखों रूपया देकर अपने प्रवचनों का प्रसारण नहीं करवाते। क्योंकि वे तो वास्तव में प्रभु मिलन के प्रयास में जुटे हैं ? हम सब जानते हैं कि घी का मतलब होता है गाय या किसी अन्य पशु के दूध से निकली चिकनाई । अब अगर किसी कम्पनी को सौ फीसदी शुद्ध घी कहकर अपना माल बेचना पड़े तो साफ जाहिर है कि उसका दावा सच्चाई से कोसों दूर है। क्योंकि जो घी शुद्ध होगा उसकी सुगन्ध ही उसका परिचय दे देगी। सच्चे संत तो भौतिकता से दूर रहकर सच्चे जिज्ञासुओं को आध्यात्मिक प्रगति का मार्ग बताते हैं। उन्हें तो हम जानते तक नहीं क्योंकि वे चाहते ही नहीं कि कोई उन्हें जाने। पर जो रोजाना टीवी, अखबारों और होर्डिगों पर पेप्सी कोला की तरह विज्ञापन करके अपने को संत, महामंडलेश्वर, जगद्गुरू या राधे मां कहलवाते हैं उनकी सच्चाई उनके साथ रहने से एक दिन में सामने आ जाती है। बशर्ते देखने वाले के पास आंख हों।

जैसे-जैसे आत्मघोषित धर्माचार्यो पर भौतिकता हावी होती जाती है, वैसे-वैसे उन्हें स्वंय पर विश्वास नहीं रहता इसलिए वे भांति-भांति के प्रत्यय और उपसर्ग लगाकर अपने नाम का श्रंगार करते हैं। नाम का ही नहीं तन का भी श्रंगार करते हैं। पोप के जरीदार गाउन हो या रत्न जटित तामझाम, भागवताचार्यो के राजसी वस्त्र और अलंकरण हों या उनके व्यास आसन की साज सज्जा, क्या इसका यीशू मसीह के सादा लिबास या शुकदेव जी के विरक्त स्वरूप से कोई सम्बन्ध है ? अगर नहीं तो ये लोग न तो अपने इष्ट के प्रति सच्चे हैं और न ही उस आध्यात्मिक ज्ञान के प्रति जिसे बांटने का ये दावा करते हैं ? हमने सच्चे संतों के श्रीमुख से सुना है कि जितने लोग आज हर धर्म के नाम पर विश्वभर में अपना साम्राज्य चला रहे हैं, अगर उनमें दस फीसदी भी ईमानदारी होती तो आज विश्व इतने संकट में न होता।

राधे मां कोई अपवाद नहीं है। वे उसी भौतिक चमक दमक के पीछे भागने वाली शब्दों की जादूगर हैं, जो शरणागत की भावनाओं का दोहन कर दिन दूनी और रात चैगुनी सम्पत्ति बढ़ाने की दौड़ में लगी रही हैं। जिनके जिस्म पर लदे करोड़ों रूपए के आभूषण, फिल्मी हिरोइनों की तरह चेहरे का मेकअप, विदेशी इत्रों की खुशबू, भड़काऊ या पाश्चात्य वेशभूषा और शास्त्र विरूद्ध आचरण देखने के बाद भी उनके अनुयायी क्यों हकीकत नहीं जान पाते। जब-जब आध्यात्मिक मार्ग पर चलने वालों का संबध ऐश्वर्य से जुड़ा है तब-तब उस धर्म का पतन हुआ है। इतिहास इसका साक्षी है। यह तो उस जनता को समझना है जो अपने जीवन के छोटे-छोटे कष्टों के निवारण की आशा में मृग- मरीचिका की तरह रेगिस्तान में दौड़ती है, कि कहीं जल मिल जाए और प्यास बुझ जाए। पर उसे निराशा ही हाथ लगती है। पुरानी कहावत है ‘पानी पीजे छान के, गुरू कीजे जान के‘।

Monday, August 3, 2015

हिंदू संस्कृति से इतना परहेज क्यों ?


याकूब मेमन की फांसी के बाद सुना है 25 हजार लोग उसके जनाजे में गए। ये वो लोग थे, जिनके शहर के वाशिंदों को 22 बरस पहले याकूब मेमन और उसके साथियों ने बिना वजह मौत के घाट उतार दिया था। दो-चार नहीं, दस-बीस नहीं, सैकड़ों लोगों के चिथड़े उड़ गए। उनमें हिंदू भी थे, मुसलमान भी थे, पारसी भी थे और दूसरे मजहब के लोग भी। इनका कोई कसूर नहीं था। बस, मुल्क के दुश्मनों, दहशतगर्दों और तस्करों ने ठान लिया कि हिंदुस्तान की हुकूमत को एक झटका देना है और इस तरह 1993 में मुंबई शहर में एक साथ दर्जनों जगह ब्लास्ट हुए। 
फिर भी इन हमलों के लिए दोषी याकूब मेनन की फांसी रूकवाने के लिए हिंदुस्तान के कई मशहूर लोगों ने तूफान खड़ा कर दिया। यहां तक कि सर्वोच्च अदालत को भी सुबह 3 बजे तक अदालत चलानी पड़ी। अपने को धर्मनिरपेक्ष मानने वाले लोग याकूब मेमन की तरफदारी में सिर्फ इसलिए कूद पड़े कि उन्हें मुसलमानों की सहानुभूति मिले या उनके वोट मिले। वैसे, हकीकत यह भी है कि इस तरह का बबेला मचाने वालों को खाड़ी के देशों से मोटी रकम पेशगी दी जाती है। जिससे वो अखबारों, टीवी चैनलों और दूसरे मंचों पर उन सवालों को उठाए, जिनके लिए उन्हें विदेशी हुकूमत पैसा देती है। ये बात बार-बार उठी कि जब सरबजीत जैसे किसी हिंदू या सिक्ख को पाकिस्तान में फांसी दी जाती है, तब इन धर्मनिरपेक्षवादियों का खून क्यों नहीं खोलता ? अगर यह लोग वास्तव में धर्मनिरपेक्ष हैं, तो इन्हें कश्मीर की घाटी से आतंकित करके निकाले गए हिंदूओं के लिए भी ऐसे ही चिल्लाना चाहिए था, पर, ये चुप रहे। 
    आज देश में बुद्धिजीवियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं व मीडियाकर्मियों जैसे शोर मचाने वाले लोग दो खेमों में बंटे हैं। एक तरफ वे लोग हैं, जो धर्मनिरपेक्षता का झंडा उठाकर आजाद भारत में 1947 से अपनी रोटियां सेंक रहे हैं, दूसरी तरफ वे लोग हैं, जिन्हें भारत की सनातन सांस्कृतिक पहचान को लेकर भारी उत्तेजना है। इन्हें लगता है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में जो सरकार बनी है, वो देश की अस्मिता और सांस्कृतिक विरासत को आगे बढ़ाएगी। पहले की तरह बहुसंख्यक समाज की भावनाओं और उनके मुद्दों को सांप्रदायिक कहकर दबाने की कोशिश नहीं करेगी। इसलिए लोगों में कुछ ज्यादा उत्साह है। इसमें मुश्किल तो हम जैसे लोगों की है। न तो हम धर्मनिरपेक्षवादियों की तरह खुद को हिंदू कहने से बचते हैं और न ही ‘गर्व से कहो कि हम हिंदू हैं’ कहने वालों की हर बात से सहमत हैं। हम तो वो कहते हैं, जो समाज के हित में हमें ठीक लगता है। इसलिए हमें सारे मुसलमान गद्दार नजर नहीं आते और हिंदू धर्म के सारे झंडाबरदार हमें हिंदू संस्कृति के रक्षक नहीं लगते। धर्म का व्यापार उधर भी खूब चमकता है और इधर भी खूब चमकता है। इसलिए लोगों को आध्यात्मिक ज्ञान देने की बजाय धर्म के ठेकेदार दूसरे धर्म वालों को दुश्मन बताकर अपना उल्लू सीधा करते हैं और सांप्रदायिकता भड़काते हैं। 
     पर, ऐसा नहीं है कि हर व्यक्ति इन खेमों में ही बंटा हो। आज ही वाट्सअप पर मैंने एक पाकिस्तानी विद्वान का इंटरव्यू देखा, जो स्वयं कनाडा में रहते हैं। पर उनकी ससुराल भारत के गुजरात प्रांत में है। ये सज्जन कह रहे थे कि पाकिस्तान के मुसलमान और हिंदुस्तान के मुसलमान अशिक्षा के कारण कठमुल्लों के पीछे चलकर अपना बेड़ागर्क कर रहे हैं। जबकि हिंदू धर्म इतना विशाल हृदय है कि उनके हर शहर में आप 4 बजे लाउडस्पीकर पर अजान लगाकर पूरे शहर को जगाते हैं, फिर भी वे विरोध नहीं करते। जबकि उनका कहना था कि ऐसी जुर्रत अगर पाकिस्तान के किसी शहर में कोई हिंदू कर बैठे, तो उसे मार-मार कर खत्म कर दिया जाएगा और शहर में दंगा हो जाएगा। उनका कहना था कि कश्मीर पर हमारा कोई हक नहीं है। अगर ऐतिहासिक हक की बात करें, तो लाहौर जैसे शहर, जिन्हें भगवान राम के पुत्रों ने बसाया था, को वापिस लेने की मांग भारत भी कर सकता है। पर, ये वाहियात ख्याल है। उन्होंने तो यहां तक कहा कि सिंधु नदी के इस पार रहने वाला हर आदमी हिंदुस्तानी है। चाहे वह पाकिस्तान में रहता हो, चाहे बांग्लादेश में। उनका यह जुमला तो मुझे बहुत ही जोरदार लगा कि ‘हमारे मुसलमान भाई बड़े भाई का कुर्ता और छोटे भाई का पाजामा पहनकर अपनी पहचान अलग रखते हैं और कार्टून नजर आते हैं।’ उनका मानना था कि हिंदुस्तान की पुरानी तहजीब हम सबकी जिंदगी का इतिहास है और उसे संजीदगी से समझना और उसका सम्मान करना चाहिए। अब ऐसी बात कोई मुसलमान भारत में क्यों नहीं करता, वह भी मीडिया पर। क्योंकि उसे डर है कि कोई कठमुल्ला फतवा जारी करके उसकी जान खतरे में डाल सकता है। इसलिए वह चुप रह जाने में ही अपनी भलाई समझता है। जिसका फायदा ऐसे धर्मांध छुठभइये नेता उठा लेते हैं, जो आवाम को लगातार हिंदूओं के खिलाफ भड़काकर समाज में वैमनस्यता और घृणा पैदा करते हैं। 
     हकीकत यह है कि भारतीय उपमहाद्वीप में रहने वाले किसी भी मुसलमान को खाड़ी के देशों में इज्जत की नजर से नहीं देखा जाता। उनका अलग नाम रख दिया गया है। फिर भी ये मुसलमान अपनी पहचान खाड़ी के देशों से जोड़ना चाहते हैं। अगर वे भारत के बहुसंख्यक हिंदू समाज की भावनाओं का सम्मान करना सीख लें, तो वे पाकिस्तान के मुसलमानों से कहीं ज्यादा आगे निकल जाएंगे। इसी तरह जरूरत इस बात की है कि हल्ला मचाने वाले धर्मनिरपेक्षता का सही मतलब समझें और समाज के हित में लिखते और बोलते वक्त ये ध्यान रखें कि धर्मनिरपेक्षता का मतलब अल्पसंख्यकवाद नहीं है। 

Monday, July 27, 2015

हृदय योजना से होगा प्राचीन नगरों का संरक्षण


    इस साल जनवरी में शहरी विकास मंत्री श्री वैकैया नायडू ने प्रधानमंत्री की चहेती योजना ‘हृदय’ की शुरुआत की। इस योजना का लक्ष्य भारत के पुरातन शहरों को सजा-संवारकर दुनिया के आगे प्रस्तुत करना है। जिससे भारत की आत्मा यानि यहां की सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण हो सके। इसीलिए अंग्रेजी में जो नाम रखा गया है, उसके प्रथम अक्षरों को मिलाकर ‘हृदय’ शब्द बनता है। 

     योजना का उद्देश्य बहुत ही प्रशंसनीय है, क्योंकि जागरूकता के अभाव में भारत की ऐतिहासिक धरोहरों को बहुत तेजी से नष्ट किया जा रहा है। विशेषकर पिछले दो दशकों में, जब से शहरी जमीन के दाम दिन दूने रात चैगने बढ़े हैं, तब से इन धरोहरों की तो शामत आ गई है। भूमाफिया इन्हें कौडि़यों के मोल खरीद लेते हैं और रातोंरात धूलधूसरित कर देते हैं। जो कुछ कलाकृतियां, भित्ति चित्र, पत्थर की नक्काशियां या लकड़ी पर कारीगरी का काम इन भवनों में जड़ा होता है, वह भी कबाड़ी के हाथ बेच दिया जाता है। यह ऐसा हृदयविदारक दृश्य है, जिसे देखकर हर कलाप्रेमी चीख उठेगा। पर भ्रष्ट नौकरशाही, नाकारा नगर पालिकाएं और संवेदनाहीन भूमाफिया के दिल पर कोई असर नहीं होता। 

    प्रधानमंत्री ने इस दर्द को समझा और देशभर में धरोहरों के प्रति जाग्रति पैदा करने के उद्देश्य से ‘हृदय’ योजना शुरू की। शुरू में इसमें केवल 12 पुराने शहर लिए गए हैं, जैसे-अमृतसर, अजमेर, वाराणसी, मथुरा, जगन्नाथपुरी आदि। बाद में इस सूची का और विस्तार किया जाएगा। अब इन शहरों की धरोहरों की रक्षा पर केवल पुरातत्व विभाग को ही ध्यान नहीं देना होगा, बल्कि समाज के अनेक वर्ग जो अपनी धरोहरों से प्रेम करते हैं, वे भी अब अपने शहर की धरोहरों को बचाने में सक्रिय हो जाएंगे। 

योजना का दूसरा पहलु है कि इन धरोहरों के आसपास के आधारभूत ढांचे को सुधारा जाए, जिससे देशी-विदेशी पर्यटक इन धरोहरों को देखने आ सकें। इस योजना की तीसरी खास बात यह है कि इसमें निर्णय लेने का अधिकार केवल नौकरशाही के हाथ में ही नहीं है, बल्कि काफी हद तक निर्णय लेने का काम उस क्षेत्र के अनुभवी लोगों पर छोड़ दिया गया है। इससे जीर्णोद्धार के काम में कलात्मकता और सजीवता आने की संभावना बढ़ गई है। पर ये काम इतना आसान नहीं है। 

    किसी भी पुराने शहर के बाजार में जाइए, तो आपको नक्काशीदार झरोखों से सजी दुकानें मिलेंगी। इन दुकानों की साज-सज्जा अगर प्राचीन तरीके से करवा दी जाए, तो ये बाजार अंतर्राष्ट्रीय पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र हो सकते हैं। इस योजना के तहत ऐसे तमाम पुरातन शहरों की धरोहरों को सजाने-संवारने का एक सामान्तर प्रयास किया जा सकता है। उससे ये बाजार बहुत ही आकर्षक बन जाएंगे। पर इस पहल में व्यापारियों को सहयोग देने के लिए आगे आना पड़ेगा। उनके प्रतिष्ठान अंदर से चाहें जैसे हों, पर बाहरी स्वरूप कलात्मक, पारंपरिक और एक-सा बनाना पड़ेगा। 

इस पूरे प्रयास में सबसे बड़ी तादाद पुरातन धरोहरों के ऊपर हजारों नाजायज कब्जों की है। ये लोग दशाब्दियों से यहां काबिज हैं और बिना किसी दस्तावेज के और बिना किसी अधिकार के इन संपत्तियों के ऊपर अवैध कब्जे जमाए बैठे हैं, उन्हें निकालना एक टेढ़ी खीर होगा। पर अगर जिला प्रशासन, प्रदेश शासन और केंद्र सरकार मिलकर कमर कस लें, तो छोटी सी जांच में यह स्पष्ट हो जाएगा कि ये लोग बिना किसी कानूनी अधिकार के अरबों की संपत्ति दबाए बैठे हैं और उसे बेच रहे हैं। 

जिनके पास कानूनी अधिकार न हों, उन्हें बेदखल करना जिला प्रशासन के लिए चुटकियों का खेल है। अगर ऐसा हो सका तो इन भवनों को संस्कृति और पर्यटन के विस्तार के लिए उपयोग में लाया जा सकेगा। तब इनकी वास्तुकला और शिल्पकला देखने आने वाले स्कूली बच्चों की तादाद बहुत बढ़ जाएगी। साथ ही इनका जीर्णोद्धार होने से इनकी आयु बढ़ जाएगी और इनके छत्र तले अनेक स्थानीय कलाओं के विस्तार और प्रदर्शन के माॅडल तैयार किए जा सकेंगे। 

हृदय स्कीम के तहत कुछ नौजवानों को रोजगार देने की भी बात है, जिन्हें प्रशिक्षित कर क्षेत्रीय पर्यटन के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका दी जा सके। 

समस्या उन राज्यों में ज्यादा है, जहां का राजनैतिक नेतृत्व हर तरह के काम में अपने चेले-चाटुकार घुसाकर आवंटित राशि का 70 फीसदी तक खाना चाहता है। इसका मतलब विकास के लिए मात्र 30 फीसदी धन बचा। इससे कैसा विकास हो सकता है, इसका पाठक अंदाजा लगा सकते हैं। 

दरअसल, हर पुरातन शहर के नागरिकों, कलाप्रेमियों, कलाकारों, समाज सुधारकों, वकीलों और पत्रकारों को साथ लेकर एक जनजाग्रति अभियान चलाना पड़ेगा। जिससे जनता हर निर्माणाधीन प्रोजेक्ट की निगरानी करने लगे। तभी कुछ सार्थक उपलब्धि हो पाएगी, वरना हृदय योजना अपने लक्ष्य प्राप्ति में गति नहीं पकड़ पाएगी। 

Monday, July 20, 2015

ज्योतिर्लिंग भीमाशंकर महाराष्ट्र में नहीं, असम में है

कभी-कभी इतिहास गुमनामी के अंधेरे में खो जाता है और नई परंपराएं इस तरह स्थापित हो जाती हैं कि लोग सच्चाई भूल जाते हैं। कुछ ऐसा ही किस्सा है भारत के द्वादश ज्योतिर्लिंग में से एक का, जिन्हें हम भीमाशंकर जी के नाम से जानते हैं और उनकी उपस्थिति महाराष्ट्र के पुणे नगर में मानकर उनके दर्शन और आराधना करने जाते हैं। यूं तो कण-कण में व्याप्त भगवान एक ही समय अनेक जगह प्रकट हो सकते हैं। उस तरह तो पुणे नगर के ज्योतिर्लिंग को भीमाशंकर मानने में कोई हर्ज नहीं है। पर ऐसी सभी मान्यताओं का आधार हमारे पुराण हैं। विदेशी या विधर्मी इन्हें एतिहासिक न मानें, मगर हर आस्थावान हिंदू पुराणों को सनातन धर्म का इतिहास मानता है। उस दृष्टि से हमें ज्योतिर्लिंगों की अधिकृत जानकारी के लिए श्री शिवपुराण का आश्रय लेना होगा।

पिछले हफ्ते जब मैं पूर्वोत्तर राज्यों के दौरे पर था, तो मेरे मेजबान मित्र ने भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग के विषय में अद्भुत जानकारी दी। उन्होंने बताया कि पौराणिक भीमाशंकर जी महाराष्ट्र में नहीं, बल्कि असम की राजधानी गोवाहटी की पहाड़ियों के बीच विराजते हैं। असम के वैष्णव धर्म प्रचारक श्री शंकरदेव की वैष्णव भक्ति की आंधी में असम के सभी शिवभक्तों को या तो वैष्णव बना लिया गया था या वे स्वयं ही असम छोड़कर भाग गए थे। इसलिए भीमाशंकर जी पिछली कुछ सदियों से गुमनामी के अंधेरे में खो गए। वे मुझे भीमाशंकर के दर्शन कराने ले गए। उनके साथ उनकी सुरक्षा में लगा असम पुलिस का लंबा-चैड़ा लाव-लश्कर था। हम लंबी पैदल यात्रा और कामरूप के मनोहारी पर्वतों और वनों के बीच चलते हुए एक निर्जन घाटी में पहुंचे। जहां शहरीकरण से अछूता प्राकृतिक वातावरण था, जो दिल को मोहित करने वाला था। वहां कोई आधुनिकता का प्रवेश नहीं था। हां, कभी सदियों पूर्व वहां स्थापित हुए किसी भव्य मंदिर के कुछ भगनावेश अवश्य इधर-उधर छितरे हुए थे। फिलहाल तो वहां केवल वनों की लकड़ियों से बनी रैलिंग, बैंचे और लता-वृक्षों की छाया थी। भोलेनाथ अपने भव्य रूप में पहाड़ी नदी के बीच में इस तरह विराजे हैं कि 24 घंटे उनका वहां जल से अभिषेक होता रहता है। वर्षा ऋतु में तो वे पूरी तरह नदी में डुबकी लगा लेते हैं। उनकी सेवा में लगे पुजारी ब्राह्मण नहीं हैं, बल्कि जनजातिय हैं। जो सैकड़ों वर्षों से भीमाशंकर महादेव की निष्ठा से चुपचाप पूजा-अर्चना करते रहते हैं। यहां काशी से लेकर देशभर से संत और शिवभक्त आकर साधना करते हैं। मगर अभी तक इस स्थान का कोई प्रचार प्रसार देश में नहीं हुआ है।

पुजारी जी ने बताया कि शिवपुराण के 20वें अध्याय में श्लोक संख्या 1 से 20 तक व 21वें अध्याय के श्लोक संख्या 1 से 54 तक भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग के प्रादुर्भाव की कथा बताई गई है। जिसके अनुसार ये ज्योतिर्लिंग कामरूप राज्य के इन पर्वतों के बीच यहीं स्थापित हैं। असम का ही पुराना नाम कामरूप था। दर्शन और अभिषेक करने के बाद मैंने आकर शिवपुराण के ये दोनों अध्याय पढ़े, तो मैं हतप्रभ रह गया। जैसा पुजारीजी ने बताया था, बिल्कुल वही वर्णन शिवपुराण में मिला। इसमें कहीं भी भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग के महाराष्ट्र में होने का कोई उल्लेख नहीं है। उदाहरण के तौर पर 20वें अध्याय के दूसरे श्लोक में कहा गया है कि -
कामरूपाभिधे देशे शंकरो लोककाम्यया।
अवतीर्णः स्वयं साक्षात्कल्याणसुखभाजनम्।।
इसी क्रम में भोलेनाथ के अवतीर्ण होने की संपूर्ण कथा के बाद 53वें श्लोक में कहा गया है कि -
भीमशंकरनामा त्वं भविता सर्वसाधकः।
एतल्लिंगम् सदा पूज्यं सर्वपद्विनिवारकरम्।।

आश्चर्य की बात है कि इतनी बड़ी खोज देश के मीडिया और शिवभक्तों से कैसे छिपी रह गई। हालांकि इस लेख को लिखते समय मेरी कलम कांप रही है। कारण ये कि लाखों वर्षों से प्रकृति की मनोरम गोद में शांति से भोलेनाथ जिस तरह गोवाहाटी के पर्वतों की घाटी में विराजे हैं, वह शांति इस लेख के बाद भंग हो जाएगी। फिर दौड़ पड़ेंगे टीवी चैनल और शिवभक्त देशभर से असली भीमाशंकर जी के दर्शन करने के लिए। बात फिर वहीं नहीं रूकेगी। फिर कोई वहां भव्य मंदिर का निर्माण करवाएगा। यात्रियों की भीड़ को संभालने के लिए खानपान, आवास आदि की व्यवस्थाएं की जाएंगी और व्यवसायिक गतिविधियों की तीव्रता एकदम बढ़ जाएगी। जिससे यहां का नैसर्गिक सौंदर्य कुछ वर्षों में ही समाप्त हो जाएगा।

पर, एक पत्रकार के जीवन में ऐसी दुविधा के क्षण अनेक बार आते हैं, जब उसे यह तय करना पड़ता है कि वह सूचना दे या दबा दे। चूंकि द्वादश ज्योतिर्लिंग सनातनधर्मियों विशेषकर शिवभक्तों के लिए विशेष महत्व रखते हैं, इसलिए श्रावण मास में शिवभक्तों को यह विनम्र भेंट इस आशा से सौंप रहा हूं कि गोवाहटी स्थित भीमाशंकर महादेव जी के दर्शन करने अवश्य जाएं। पर उस परिक्षेत्र का विकास करने से पूर्व उसके प्राकृतिक स्वरूप को किस तरह बचाया जा सके या उसका कम से कम विनाश हो, इसका ध्यान अवश्य रखा जाए।

Monday, July 13, 2015

पूर्वोत्तर राज्यों का पर्यटन विकास क्यों नहीं हो पा रहा ?



आजकल मैं पूर्वोत्तर राज्यों के दौरे पर आया हुआ हूं। मुझे यह देखकर अचम्भा हो रहा है कि स्विट्जरलैंड और कश्मीर को टक्कर देता पूर्वोत्तर राज्यों का प्राकृतिक सौंदर्य पर्यटन की दृष्टि से दुनिया के आगे क्यों नहीं परोसा जा रहा ? जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र जीवन के दौर में पूर्वोत्तर राज्यों के अनेक लड़के-लड़कियां हमारे साथ थे। जिनकी शिकायत थी कि मैदानी इलाकों में रहने वाले हम लोग उनके राज्यों की परवाह नहीं करते, उनके साथ सौतेला व्यवहार करते हैं।

पाठकों को याद होगा कि नागालैंड हो या मिजोरम या फिर असम की ब्रह्मपुत्र घाटी सबने जनाक्रोश का एक लंबा दौर देखा हैं। केंद्रीय सरकार, सशस्त्र बलों और हमारी सेनाओं को इन राज्यों में शांति बनाए रखने के लिए और अपनी सीमा की सुरक्षा के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी है। तब यही लगता था कि सारा अपराध दिल्ली में बैठे हुक्मरानों का है, इसीलिए लोग नाराज़ हैं | यह कुछ हद तक ही सही था | लेकिन यहां आकर जमीनी हकीकत कुछ और ही पता चली। 

अब मेघालय को ही लीजिए। गरीबी का नामोनिशान यहां नहीं है। इसका मतलब ये नहीं कि सभी संपन्न हैं। पर यह सही है कि बुनियादी जरूरतों के लिए परेशान होने वाला परिवार आपको ढूढ़े नहीं मिलेगा। शिलांग जैसी राजधानी या मेघालय के गांव और दूसरे शहर में कहीं एक भी भिखारी नजर नहीं आया। जानकार लोग बताते हैं कि कोयले व चूने की खानों और अपार वन संपदा के चलते मेघालय राज्य में प्रति एक हजार व्यक्ति के ऊपर  जितने करोड़पति हैं, उतने पूरे भारत में कहीं दूसरी जगह नहीं। यह तथ्य आंख खोलने वाला है। एक और उदाहरण रोचक होगा कि मेघालय के कुछ नौजवान भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयन होने के बावजूद केवल इसलिए नौकरी पर नहीं गए कि उन्हें अपना राज्य छोड़कर दूसरे राज्य में नहीं रहना था। जाहिर है, उनकी आर्थिक सुरक्षा मजबूत रही होगी, तभी उन्होंने ऐसा जोखिम भरा फैसला लिया। 

मेघालय बेहद खूबसूरत राज्य है। पर्यटन की दृष्टि से अपार संभावनाएं हैं। इस इलाके की खासी, गारो व जैंतियां तीनों जनजातियां सांस्कृतिक रूप से भी काफी सम्पन्न हैं। दूसरी तरफ पिछले 68 सालों में सरकार ने यहां आधारभूत ढांचा विकसित करने में कोई कमी नहीं छोड़ी। बढि़या सड़कें, जनसुविधाएं, पानी-बिजली की आपूर्ति, यह सब इतना व्यवस्थित है कि अगर कोई चाहे तो मेघालय के हर गांव को 'इको टूरिज्म विलेज' बना सकता है। अगर आज ऐसा नहीं है, तो इसका एक बड़ा कारण मेघालय के नौजवानों की हिंसक वृत्ति है। जातिगत अभिमान के चलते वे बाहरी व्यक्ति को पर्यटक के रूप में तो बर्दाश्त कर लेते हैं। पर अपने इलाके में न तो उसे रहने देना चाहते हैं, न कारोबार करने देना चाहते हैं। इसलिए बाहर से कोई विनियोग करने यहाँ नहीं आता। दूसरा बड़ा कारण यह है कि लोगों को धमकाना, उन्हें चाकू या पिस्टल दिखाना और उनसे पैसा उगाही करना या किसी बात पर अगर झगड़ा हो जाए, तो उस व्यक्ति को मार-मारकर बेदम कर देना या मार ही डालना इन लोगों के लिए कोई बड़ी बात नहीं है। जिसकी इन्हें कोई सजा भी नहीं मिलती | इसलिए व्यापारिक बुद्धि का आदमी यहां आकर विनियोग करने से घबराता है। कुल मिलाकर नुकसान देश का तो है ही, मेघालयवासियों का भी कम नहीं। पर उन्हें इसकी कोई परवाह नहीं, क्योंकि प्रकृति ने खनिजों और वन संपदा के अपार भंडार इन्हें सौंप दिए हैं। इनके इलाकों में सरकार का कानून नहीं चलता, बल्कि इनके कबिलाई प्रमुख की हुकुमत चलती है। उसने अगर कह दिया कि कोयले की ये खान मेरी हुई, तो कोई सरकार उसे रोक नहीं सकती। नतीजतन, जब घर बैठे खान, खनिज, जमीन और वन संपदा आपको मोटी कमाई दे रहे हों, तो आपको इससे ज्यादा म्हणत करने की क्या जरूरत है। इसलिए ये लोग नहीं चाहते कि कोई बाहर से आए और बड़े कारोबार की स्थापना करे। 

एक तरह से तो यह अच्छा ही है | क्योंकि शहरीकरण हमारे नैसर्गिक सौंदर्य को दानवीयता की हद तक जाकर बर्बाद कर रहा है। कोई रोकटोक नहीं है। आज देश का हरित क्षेत्र 3 फीसदी से भी कम रह गया है। जबकि आदमी को स्वस्थ रहने के लिए भू-भाग के 33 फीसदी पर हरियाली होनी चाहिए। अगर यहां भारी विनियोग होगा, तो प्रकृति का विनाश भी तेजी से होगा। 

चलो बड़े विकास की बात छोड़ भी दें, तो भी अपार संभावनाएं हैं। हम पर्यटन की आवश्यकता को समझे और उसके अनुरूप स्थानीय स्तर पर सुविधाओं का विस्तार करें। 


कमोबेश, यही स्थिति अन्य राज्यों की भी है। जहां नैसर्गिक सौंदर्य बिखरा हुआ है। पर वहां भी स्थानीय जनता के ऐसे रवैये के कारण वांछित विकास नहीं हो पा रहा है। आवश्यकता इस बात की है कि पूर्वोत्तर राज्यों के जो युवा पढ़-लिखकर राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल हो चुके हैं, वे अपने-अपने प्रांतों में जाग्रति लाएं और जनता की तरफ से भी विकास की मांग उठनी चाहिए। हां यह जरूर है कि यह विकास पर्यावरण और जनजातिय सांस्कृतिक अवशेषों को क्षति पहुंचाए बिना हो।  इसी में सबका भला है |

Monday, July 6, 2015

हवाला की याद दिलाता ललित मोदी कांड

ललित मोदी कांड का बवंडर थमने का नाम नहीं ले रहा है। संसद के मानसून सत्र में विपक्ष इस मामले को जोरदारी से उठाने के लिए कमर कसे है। हालांकि भाजपा ने अपनी तरफ से वसुंधरा राजे की बेगुनाही का हवाला देते हुए इस मामले को ठंडा कर दिया था और बात आई गई होने की हालत में पहुंच गई थी। लेकिन आडवाणी की छोटी सी टिप्पणी से इस कांड को जिंदा रहने के लिए कुछ सांसें और मिल गईं।
 आडवाणी ने इस कांड में सुषमा स्वराज और वसुंधरा राजे का नाम लेकर कुछ नहीं कहा, लेकिन राजनेताओं की विश्वसनीयता बरकरार रखने की बात कहते हुए हवाला कांड ने अपने इस्तीफे की याद दिलाई है। उनका कहना है कि बिना मांगे ही उन्होंने हवाला कांड में इसलिए इस्तीफा दे दिया था, ताकि जनता के बीच एक राजनेता की विश्वसनीयता को कोई चोट न पहुंचे।
 जिन्हें हवाला कांड याद होगा, उन्हें यह भी याद होगा कि देश की राजनीति में भूचाल लाने वाले उस कांड में बिना जांच हुए ही राजनेताओं को अदालत ने बरी करवा दिया था। हालांकि भारत के मुख्य न्यायाधीश ने इस मामले को लेते वक्त यह कहा था कि इस कांड में इतने सुबूत हैं कि अगर हम दोषियों को सजा न दिला पाए तो हमें देश की अदालतें बंद कर देनी चाहिए। यहां याद दिलाने की बात यह है कि जब आडवाणी और दूसरे दसियों नेता अपने-अपने इस्तीफे दे रहे थे, तब उनमें से किसी ने भी हवाला कांड की निष्पक्ष जांच करवाने की मांग नहीं की। आडवाणी ने भी हवाला कांड की जांच की मांग नहीं थी। जब वे सुबूतों को दबवाकर बरी हो गए, तो उन्होंने यह कहना शुरू कर दिया कि हम तो निर्दोष थे, हमें जान-बूझकर फंसाया गया है। इस तरह इतने बड़े कांड को सर्वोच्च न्यायालय में ले जाने की मेरी कोशिश पूरी तरह कामयाब नहीं रही। हां, इतना जरूर हुआ कि भारत के इतिहास में पहली बार 115 राजनेता और अफसर चार्जशीट हुए और उन्हें अपने पद छोड़ने पडे़।
 हवाला के अपने इस अनुभव के आधार पर ललित मोदी कांड की जांच की मांग उठायी जा सकती थी, लेकिन यहां गौर करने की बात यह है कि मीडिया जिस तरह खोजी पत्रकारिता कर रहा था, उसमें किसी को भी किसी भी क्षण नहीं लगा कि जांच-पड़ताल की बात उठा दे और अदालत के रास्ते पर चल पड़े। हो सकता है कि यह बात अब इसलिए न उठाई जाती हो कि न्यायालय के रास्ते ऐसे मामालों को सिल्टाने में यकीन कम होता जा रहा है। धारणा यह बन रही है कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की स्थिति कमोवेश एक जैसी होती जा रही है और फिर बड़े नेताओं या बड़े अधिकारियों के मामले में न्याय को अंजाम न पहुंचाने में हमेशा ही मुश्किल आती रही है। अपराधशास्त्री तो इस मुश्किल का इतिहास पिछली कई सदियों से बताते हैं। अपराधशास्त्र पाठ्यक्रम में श्वेतपोश अपराध शीर्षक से पढ़ाए जाने वाले इस विषय को बड़ी बारीकि से समझा जाता है।
 ललित कांड में वसुंधरा का मामला देखें, तो बात यहां आकर गुम हो गई कि वसुंधरा और सुषमा स्वराज ने प्रत्यक्ष रूप से ऐसा क्या किया कि भाजपा उन्हें हटाने को मजबूर हो जाए। दो हफ्ते तक मीडिया में इन दोनों नेताओं और उनके परिवारों के व्यक्तिगत और व्यापार संबंधों को लेकर तथ्य सामने आए और इन दो नेताओं की पार्टी यानि भाजपा के प्रवक्ताओं को मीडिया के सामने मुस्तैदी से बैठे रहना पड़ा - उससे जो छवि मटियामेट होती है, वह तो हो ही गई। हालांकि छवि बिगड़ने से जितनी रोकी जा सकती थी, वह भी रोकी गई। आखिर यही तय हुआ होगा कि इतनी देर बाद अब इस्तीफों से या उन्हें हटाए जाने का क्या फायदा। फायदा यानि राजनीति नफा-नुकसान।
 कुल मिलाकर हवाला कांड में जिस तरह सभी संबंधित नेताओं को फिर से जनता के बीच स्थापित होने में कोई ज्यादा देर नहीं लगी यानि ज्यादातर नेता जनता की अदालत से जीतकर आ गए। उसी तरह ललित मोदी कांड में हम क्यों न मानकर चलें कि सारी बातें आयी गई हो जाएंगी और फिर वसुंधरा के मामले में तो यह बिल्कुल साफ ही है कि वे विपक्ष की नेता थीं। बच्चा-बच्चा ललित मोदी से उनके पारिवारिक मेलजोल के बारे में जानता था। वसुंधरा चुनाव जीती और फिर से पूरे धड़ल्ले से मुख्यमंत्री बन गईं। उन्हें यह मानने में न पहले कोई हिचक थी और न आज कोई हिचक है कि ललित मोदी से उनका बहुत पुराने समय से पारिवारिक मेलजोल है। यानि जनता के बीच यह धारणा बनाने में वसुंधरा सफल रहीं कि ललित मोदी कांड कोई सनसनीखेज या अपराध या घोटाले का बड़ा मामला नहीं और फिर भाजपा के प्रवक्ताओं ने और पार्टी के बड़े नेताओं ने घंटे-दर-घंटे टीवी चैनलों में बैठकर इस कांड को सामान्य घटना साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अब ऐसे मुद्दे पर शोर मचाकर क्या हासिल किया जा सकता है। लोकतंत्र में सबसे बड़ा फैसला जनता का माना जाता है। अब अगर जनता ही वसुंधरा राजे को माफ कर देती हो और उन्हें दोबारा कुर्सी पर बैठने का अवसर देती है, तो फिर किसी को क्या गुरेज हो सकता है।