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Monday, January 25, 2021

भंगेड़ी नहीं, सरकार समझे भांग के फायदे


आम शहरी भांग को नशा मान कर हिकारत से देखता है। पर भोलेनाथ शंकर और भगवान श्री कृष्ण के बड़े भाई बलदाऊ जी के भक्त भांग का भोग लगा कर उसका प्रसाद पाते हैं। भांग से हमारे देश की गरीब जनता और अर्थव्यवस्था को कितना लाभ हो सकता है इसका नीति-निर्धारकों को शायद एहसास ही नहीं है। भांग एक अकेला ऐसा दैवीय पौधा है जिससे हमे भोज्य पदार्थ, कपड़ा, भवन और औषधि प्राप्त होती है। इसके औषधीय गुण वेदों से लेकर चरक संहिता तक में वर्णित है। भारत में भांग की खेती पर अंग्रेजी हुकूमत ने जो कुठाराघात किया था, उसकी मार हम आजतक झेल रहे हैं। जबकि चीन भांग पर आधारित उत्पादनों का निर्यात कर अरबों रुपए कमा रहा है। इजराइल, अमेरिका और कनाडा में भांग से बनी औषधि पर मोटा मुनाफा कमाया जा रहा है। आज इजराइल की भांग से सर्वश्रेष्ठ औषधीय कैनाबिस निकल रहा है जबकि हम इन दवाओं का 5000 साल से उपयोग कर रहे हैं। भांग के पौधे से 25000 तरह के उत्पाद बनते है जिसमें कपड़े से लेकर ईंट, दवा, प्रोटीन, एमिनो एसिड्स, कागज, प्लाईवुड, बायो फ्यूल और प्लास्टिक तक शामिल है। इसलिए भांग बिलियन डॉलर फसल है।

शिवप्रिया भांग, समुद्र मंथन के बाद शिव जी द्वारा विश्व को दिया गया प्रसाद है। भारत की शिवालिक पर्वतमालाओं से ही भांग पूरे विश्व मे फैली और भांग जिस-जिस देश मे गयी उस देश के हिसाब से उसने पिछली सदियों में अपने डीएनए में परिवर्तन किया। जिससे उसके औषधीय गुण बदलते चले गए, पर भारत मे उपलब्ध भांग आज भी अपने मूल वैदिक रूप में ही है। इससे औषधियां बनती हैं। भारत सरकार का आयुष मंत्रालय ही भांग से 400 तरह की औषधियां बनाने का लाइसेंस देता है।


उत्तराखंड राज्य की भांग नीति और एफ.एस.एस.ए.आई की भांग उत्पाद की लाइसेंस नीति में औपनिशिक मानसिकता से ग्रस्त अधिकारियों की गलती से हमारी देशी शिवप्रिया भांग, जिसे यजुर्वेद में विजया कहा गया है, उसे नष्ट करने की साजिश रची गयी है। जो राष्ट्रहित और हमारी सनातनी विचारधारा के खिलाफ है। यह नीति जीएम (आनुवंशिक परिवर्तित) बीज को प्रोत्साहित कर रही है, जो देश के लिए अति घातक है।

भारतीय भांग की कोई भी प्रजाति, उत्तराखंड सरकार और एफ.एस.एस.ए.आई की भांग नीति के मानकों को पूरा नहीं करती। जिससे भारत के भांग उत्पादक विदेशी भांग के बीज आयात आयात कर के बोने के लिए बाध्य हैं। मजबूरी में उन्हें जीएम बीज लगाने पड़ रहे हैं। अगर यह बीज भारत आया तो परागण करके हमारी सदियों पुरानी शुद्ध देशी भांग को नष्ट कर देगा। ऐसे ही बीजों से हमारी देसी भांग क्रॉस पोलिनेट हो रही है। अगले तीन वर्षों में हमारी औषधि युक्त भांग नष्ट हो जाएगी और खरपतवार रूपी विदेशी भांग भारत की नियति होगी।

प्रश्न है कि देशी भांग नष्ट क्यों होगी? अन्य पौधों की तरह भांग भी परागण करती है। दस  किलोमीटर तक नर पौधे का पराग हवा में उड़ कर मादा पौधे को निषेचित करता है। इस तरह भारत अपनी सर्वश्रेष्ठ भांग को अपने ही पैरों में कुल्हाड़ी मार कर नष्ट कर देगा। जैसे हमने अपनी देशी गाय को कृत्रिम गर्भाधान करवा कर उसकी शुद्ध नस्लों को खत्म कर दिया वैसे ही भांग का ये विदेशी पौधा हमारी देशी भांग को बर्बाद कर देगा।

गाय की पीढ़ी तो कम से कम चार साल में बदलती है। एक गाय के गर्भाधान के लिए एक इंजेक्शन जरूरी है, मतलब जितने इंजेक्शन उतनी गाय की अगली पीढ़ी वर्ण संकर होगी। पर भांग का एक पौधा दस किलोमीटर की भांग को निषेचित कर सकता है। भांग की एक पीढ़ी सिर्फ तीन महीने में बदल जाती है और भांग साल में तीन बार उगती है। जबकि गेंहू या चावल साल में एक बार ही पैदा होते हैं।


चूँकि गुणवत्ता की दृष्टि से हमारी भांग दुनिया की सर्वश्रेष्ठ भांग है, जिसको विदेशी कम्पनिया नष्ट कर अपने जीएम बीज बेच कर मोटा फायदा कमाना चाहती हैं। आयुर्वेद की फार्मोकोपिया में जिस भांग से दवा बनाने की विधियां है, वह देसी भांग है। विदेशी भांग से वही दवा बनाने पर हमारी आयुर्वेदिक दवाएं प्रभावी नहीं रहेगी जिससे हमारे आयुर्वेद को भी बहुत नुकसान होगा। जबकि देशी भांग को बचाने से हमारी जैव विविधता बचेगी। बेहतरीन भांग के उत्पादों के निर्माण से लघु व मध्यम उद्योग क्षेत्र, निर्यात, रोजगार और राजस्व बढ़ेंगे। हमारे उत्पाद के लाभ को विदेशी कम्पनियां प्रभावित नहीं कर पाएंगी।

जबकि भांग की देशी प्रजाति को बचा कर और विदेशी प्रजाति को भारत में आने से रोक कर ही सरकार की ‘किसानों की आय दो गुना’ करने की नीति, ‘वोकल फॉर लोकल’ और ‘लघु व मध्यम उद्योग क्षेत्र संवर्धन’ की नीति को साकार हो पाएगी। 

इसलिए सरकार को इस विषय पर देशी विशेषज्ञों का पैनल बना कर इस समस्या का तुरंत हल करना चाहिए। जिससे न सिर्फ देश में रोजगार बढ़ेगा बल्कि गाँवों से शहरों की ओर पलायन भी रुकेगा और केंद्र व राज्य सरकार के राजस्व में भारी वृद्धि होगी। हम भारत की श्रेष्ठ भांग का संरक्षण कर अंतर्राष्ट्रीय बाजार में चीन के एकाधिकार को भी समाप्त कर सकते हैं। भारत के नीति-निर्धारकों को ये नहीं भूलना चाहिए कि पिछले 74 सालों में हमने कृषि, बागवानी व दुग्ध उत्पादन के क्षेत्रों में भारत की समृद्ध वैदिक ज्ञान परम्परा की उपेक्षा की है। ज्यादा उत्पादन के लालच में हम बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के प्रभाव में अपनी गुणवत्ता और जीवनी शक्ति को लगातार खोते जा रहे हैं। आज कोरोना से जहां  यूरोप और अमरीका में लाखों मौत हो रही हैं वहीं भारत जीतने में इसलिए सफल रहा है क्योंकि हमारा भोजन और जीवन आज भी मूलतः वैदिक परम्पराओं से ही संचालित होता है। इसलिए शिवप्रिय भांग को बचाना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। 

Monday, July 20, 2015

ज्योतिर्लिंग भीमाशंकर महाराष्ट्र में नहीं, असम में है

कभी-कभी इतिहास गुमनामी के अंधेरे में खो जाता है और नई परंपराएं इस तरह स्थापित हो जाती हैं कि लोग सच्चाई भूल जाते हैं। कुछ ऐसा ही किस्सा है भारत के द्वादश ज्योतिर्लिंग में से एक का, जिन्हें हम भीमाशंकर जी के नाम से जानते हैं और उनकी उपस्थिति महाराष्ट्र के पुणे नगर में मानकर उनके दर्शन और आराधना करने जाते हैं। यूं तो कण-कण में व्याप्त भगवान एक ही समय अनेक जगह प्रकट हो सकते हैं। उस तरह तो पुणे नगर के ज्योतिर्लिंग को भीमाशंकर मानने में कोई हर्ज नहीं है। पर ऐसी सभी मान्यताओं का आधार हमारे पुराण हैं। विदेशी या विधर्मी इन्हें एतिहासिक न मानें, मगर हर आस्थावान हिंदू पुराणों को सनातन धर्म का इतिहास मानता है। उस दृष्टि से हमें ज्योतिर्लिंगों की अधिकृत जानकारी के लिए श्री शिवपुराण का आश्रय लेना होगा।

पिछले हफ्ते जब मैं पूर्वोत्तर राज्यों के दौरे पर था, तो मेरे मेजबान मित्र ने भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग के विषय में अद्भुत जानकारी दी। उन्होंने बताया कि पौराणिक भीमाशंकर जी महाराष्ट्र में नहीं, बल्कि असम की राजधानी गोवाहटी की पहाड़ियों के बीच विराजते हैं। असम के वैष्णव धर्म प्रचारक श्री शंकरदेव की वैष्णव भक्ति की आंधी में असम के सभी शिवभक्तों को या तो वैष्णव बना लिया गया था या वे स्वयं ही असम छोड़कर भाग गए थे। इसलिए भीमाशंकर जी पिछली कुछ सदियों से गुमनामी के अंधेरे में खो गए। वे मुझे भीमाशंकर के दर्शन कराने ले गए। उनके साथ उनकी सुरक्षा में लगा असम पुलिस का लंबा-चैड़ा लाव-लश्कर था। हम लंबी पैदल यात्रा और कामरूप के मनोहारी पर्वतों और वनों के बीच चलते हुए एक निर्जन घाटी में पहुंचे। जहां शहरीकरण से अछूता प्राकृतिक वातावरण था, जो दिल को मोहित करने वाला था। वहां कोई आधुनिकता का प्रवेश नहीं था। हां, कभी सदियों पूर्व वहां स्थापित हुए किसी भव्य मंदिर के कुछ भगनावेश अवश्य इधर-उधर छितरे हुए थे। फिलहाल तो वहां केवल वनों की लकड़ियों से बनी रैलिंग, बैंचे और लता-वृक्षों की छाया थी। भोलेनाथ अपने भव्य रूप में पहाड़ी नदी के बीच में इस तरह विराजे हैं कि 24 घंटे उनका वहां जल से अभिषेक होता रहता है। वर्षा ऋतु में तो वे पूरी तरह नदी में डुबकी लगा लेते हैं। उनकी सेवा में लगे पुजारी ब्राह्मण नहीं हैं, बल्कि जनजातिय हैं। जो सैकड़ों वर्षों से भीमाशंकर महादेव की निष्ठा से चुपचाप पूजा-अर्चना करते रहते हैं। यहां काशी से लेकर देशभर से संत और शिवभक्त आकर साधना करते हैं। मगर अभी तक इस स्थान का कोई प्रचार प्रसार देश में नहीं हुआ है।

पुजारी जी ने बताया कि शिवपुराण के 20वें अध्याय में श्लोक संख्या 1 से 20 तक व 21वें अध्याय के श्लोक संख्या 1 से 54 तक भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग के प्रादुर्भाव की कथा बताई गई है। जिसके अनुसार ये ज्योतिर्लिंग कामरूप राज्य के इन पर्वतों के बीच यहीं स्थापित हैं। असम का ही पुराना नाम कामरूप था। दर्शन और अभिषेक करने के बाद मैंने आकर शिवपुराण के ये दोनों अध्याय पढ़े, तो मैं हतप्रभ रह गया। जैसा पुजारीजी ने बताया था, बिल्कुल वही वर्णन शिवपुराण में मिला। इसमें कहीं भी भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग के महाराष्ट्र में होने का कोई उल्लेख नहीं है। उदाहरण के तौर पर 20वें अध्याय के दूसरे श्लोक में कहा गया है कि -
कामरूपाभिधे देशे शंकरो लोककाम्यया।
अवतीर्णः स्वयं साक्षात्कल्याणसुखभाजनम्।।
इसी क्रम में भोलेनाथ के अवतीर्ण होने की संपूर्ण कथा के बाद 53वें श्लोक में कहा गया है कि -
भीमशंकरनामा त्वं भविता सर्वसाधकः।
एतल्लिंगम् सदा पूज्यं सर्वपद्विनिवारकरम्।।

आश्चर्य की बात है कि इतनी बड़ी खोज देश के मीडिया और शिवभक्तों से कैसे छिपी रह गई। हालांकि इस लेख को लिखते समय मेरी कलम कांप रही है। कारण ये कि लाखों वर्षों से प्रकृति की मनोरम गोद में शांति से भोलेनाथ जिस तरह गोवाहाटी के पर्वतों की घाटी में विराजे हैं, वह शांति इस लेख के बाद भंग हो जाएगी। फिर दौड़ पड़ेंगे टीवी चैनल और शिवभक्त देशभर से असली भीमाशंकर जी के दर्शन करने के लिए। बात फिर वहीं नहीं रूकेगी। फिर कोई वहां भव्य मंदिर का निर्माण करवाएगा। यात्रियों की भीड़ को संभालने के लिए खानपान, आवास आदि की व्यवस्थाएं की जाएंगी और व्यवसायिक गतिविधियों की तीव्रता एकदम बढ़ जाएगी। जिससे यहां का नैसर्गिक सौंदर्य कुछ वर्षों में ही समाप्त हो जाएगा।

पर, एक पत्रकार के जीवन में ऐसी दुविधा के क्षण अनेक बार आते हैं, जब उसे यह तय करना पड़ता है कि वह सूचना दे या दबा दे। चूंकि द्वादश ज्योतिर्लिंग सनातनधर्मियों विशेषकर शिवभक्तों के लिए विशेष महत्व रखते हैं, इसलिए श्रावण मास में शिवभक्तों को यह विनम्र भेंट इस आशा से सौंप रहा हूं कि गोवाहटी स्थित भीमाशंकर महादेव जी के दर्शन करने अवश्य जाएं। पर उस परिक्षेत्र का विकास करने से पूर्व उसके प्राकृतिक स्वरूप को किस तरह बचाया जा सके या उसका कम से कम विनाश हो, इसका ध्यान अवश्य रखा जाए।