बहुत ना-नुकुर के बाद राहुल गांधी ने कांग्रेस की बागडोर संभालने का निर्णय ले लिया। कांग्रेसियों में उत्साह है कि अब नौजवानों को तरजीह मिलेगी। दूसरी तरफ कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी ने जयपुर के चिंतन शिविर में यह चिंता व्यक्त की है कि मध्यम वर्ग को राजनीति से बेरूखी होती जा रही है। सवाल उठता है कि क्या राहुल गांधी हमारी व्यवस्था की धारा मोड़ सकते हैं? 1984 में जब इन्दिरा गांधी की हत्या हुई तो अचानक ताज राजीव गांधी के सिर पर रख दिया गया। वे युवा थे, सरल और सीधे थे, इसलिए एक उम्मीद जगी कि कुछ नया होगा। उनके भाषण लिखने वालों ने उनसे कई ऐसे बयान दिलवा दिए जिससे देश में सन्देश गया कि अब तो भ्रष्टाचार और सरकारी निकम्मापन सहा नहीं जाऐगा। सबकुछ बदलेगा। बदला भी, लेकिन संचार और सूचना के क्षेत्र मंे। भ्रष्टाचार और प्रशासनिक व्यवस्था में कोई अंतर नहीं आया। बल्कि तेजी से गिरावट आयी।
अभी हाल ही का उदाहरण अखिलेश यादव का है। साईकिल चलाकर अखिलेश यादव ने उ0प्र0 के युवाओं का मन मोह लिया। लगा कि उ0प्र0 में नई बयार बहेगी। पर अभी नौ महीने बीते हैं आौर उनके पिता और सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव चार बार सार्वजनिक मंचों से कह चुके हैं कि उ0प्र0 की सरकार, मंत्री और अफसर ठीक काम नहीं कर रहे हैं।
दरअसल देश और प्रदेश की सरकारों में भारी घुन लग चुका है। कोई जादू की छड़ी दिखाई ननहीं देती, जो इन व्यवस्थाओं को रातों-रात सुधार दे। इसलिए यह कहना कि राहुल गांधी के मोर्चा संभालते ही कांग्रेस पार्टी का भविष्य उज्जवल हो गया, अभी लोगों के गले नहीं उतरेगा। वे जमीनी हकीकत में बदलाव देखकर ही फैसला करेंगे। तब तक राहुल गांधी को कड़ी मशक्कत करनी पड़ेगी।
पहली समस्या तो यह है कि वे पार्टी के उपाध्यक्ष भले ही बन गए हों, सरकार डा. मनमोहन सिंह की है। जिसमें अलग-अलग राय रखने वाले मंत्रियों के अलग-अलग गुट हैं। ये गुट एकजुट होकर राहुल गांधी के आदेशों का पालन करेंगे, ऐसा नहीं लगता। सामने जी-हुजूरी भले ही कर लें, पर पीछे से मनमानी करेंगे। ठीकरा फूटेगा राहुल गांधी के सिर। सहयोगी दलों के मंत्रियों के आचरण पर राहुल गांधी नियन्त्रण नहीं रख पाऐंगे। ऐसे में सरकार की छवि सुधारना सरल नहीं होगा।
दूसरी तरफ, अभी तक के अनुमान के अनुसार सीधा मुकाबला नरेन्द्र मोदी से होने जा रहा है। जिनकी रणनीति यह है कि जो करना है धड़ल्ले से करो, बड़े लोगों को फायदा पहुंचाओ। प्रचार ऐसा करो कि बड़े-बड़े मल्टीनेशनल भी फीके लगने लगें। यही उन्होंने पिछले चुनावों में किया भी। जबकि राहुल गांधी का व्यक्तित्व दूसरी तरीके का है। वे संजीदगी से समाज को समझना चाह रहे हैं। जमीनी हकीकत को जानने की कोशिश कर रहे हैं। विकास के मुद्दों पर भी काफी ध्यान दे रहे हैं। कुल मिलाकर राजनीति के एक गंभीर छात्र होने का प्रमाण दे रहे हैं। इसलिए आगामी चुनावी समर में राहुल गांधी की भूमिका को लेकर कोई आंकलन अभी नहीं किया जा सकता। वे जादू भी कर सकते हैं और चारों खाने चित भी गिर सकते हैं।
राहुल गांधी को अगर वास्तव में अपनी सरकार को जबावदेह बनाना है तो उन्हें प्रशासनिक व्यवस्था में सुधार में क्रांतिकारी कदम उठाने होंगे। इन कदमों को जानने के लिए उन्हें कोई नई खोज नहीं करवानी। काले धन, पुलिस व्यवस्था, न्यायायिक सुधार, कठोर भ्रष्टाचार विरोधी कानून जैसे अनेक मुद्दों पर एक से बढ़कर एक आयोगों की रिपोर्ट केन्द्र सरकार के दफतरों में धूल खा रही हैं। जिन्हें झाड़ पौंछकर फिर से पढ़ने की जरूरत है। समाधान मिल जाऐगा। इन समाधानों को लागू कराने के लिए राहुल गांधी को युवाओं के बीच देशव्यापी अभियान चलाना चाहिए। युवा जागरूक बनें और प्रशासनिक व्यवस्था को जबावदेह बनाऐं, तब जनता कांगे्रस से जुड़ेगी। वैसे भी जयपुर चिंतन शिविर में उनकी माताजी श्रीमती सोनिया गांधी ने यह चिंता व्यक्त की है कि मध्यम वर्ग राजनीति से कटता जा रहा है, जिसे मुख्यधारा में वापस लाने की जरूरत है।
हकीकत इसके विपरीत है। मध्यम वर्ग राजनीति से नहीं कट रहा, बल्कि अब तो वह बिना बुलाऐ सड़कों पर उतरने को तैयार रहता है। पिछले एक-ढेढ़ साल के आंदोलनों में मध्यम वर्ग की भूमिका प्रमुख रही है। मध्यम वर्ग ने धरने, प्रदर्शन, लाठी, गोली, आंसू गैस और पानी की मार सबको झेला है। पर उदासीनता का परिचय कहीं नहीं दिया।
दरअसल मध्यमवर्ग प्रशासनिक व्यवस्था की जबावदेही चाहता है, जो उसे नहीं मिल रही। इससे वो नाराज है। पर वह यह भी जानता है कि कोई एक राजनैतिक दल इसके लिए जिम्मेदार नहीं है। सभी दलों का एकसा हाल है। इसलिए उसका गुस्सा बढ़ता जा रहा है और वह तरह-तरह से बाहर सामने आ रहा है। राहुल गांधी हों या अखिलेश यादव या फिर किसी अन्य प्रांत के मुख्यमंत्री के वारिस युवा नेता, अब सबको इन सवालों की तरफ गंभीरता से विचार करना होगा। क्योंकि नारों से बहकने वाला मतदाता अब बहुत सजग हो गया है।