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Monday, December 2, 2013

तरूण तेजपाल कांड का संदेश

तहलका की संवाददाता के आरोपों पर पत्रिका के संस्थापक संपादक तरूण तेजपाल को बलात्कार के आरोप में गोवा की पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। क्रांइम ब्रांच की जांच के बाद यह तय होगा कि आरोपों में कितना दम हैं। अगर आरोप सिद्ध हो जाते हैं तो जाहिरन तरूण तेजपाल को अदालत से सजा मिलेगी।
इसलिए हम इस विवाद में नहीं पड़ना चाहते हैं पर यहां एक हादसे ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। जबसे महिला अत्याचार पर जागरूकता आई है और देश का महिला संगठन व मीडिया सक्रिय हुआ है तब से स्त्रियों को लेकर जो भी कानून बन रहे हैं उनसे समस्याओं का हल नहीं निकल रहा। अलबत्ता, शोर खूब मच रहा है। हमारा आशय यह बिलकुल नहीं है कि कानून न बने और महिलाओं को उनके हाल पर छोड़ दिया जाए। पर जिस भारत में नारी की पूजा होती रही हो, जहां नारियां शास्त्रार्थ किए हों, गणराज्य की राजनैतिक सभाओं में बराबरी का योगदान दिया हो और यहां तक कि कई बार देश में शासन भी किया हो, उस देश में नारी को अबला बताकर उसके शोषण की छूट कतई नहीं दी जा सकती। पर अगर कानून ही हर समस्या का हल होते तो अब तब यह समस्याएं समाप्त हो जानी चाहिए थी लेकिन असलियत कुछ और है।
देश में निर्भया कांड के बाद बलात्कार को लेकर जो कानून बना क्या उससे बलात्कार की दर में 1 फीसदी भी कमी आई है ? उत्तर है नहीं। इसी तरह दहेज उत्पीड़न के लिए बने दहेज कानून की भी दशा है। इस कानून के बनने के बावजूद न तो दहेज का मांगना और देना कम हुआ और ना ही दहेज के कारण बहुओं पर होने वाले अत्याचारों पर कोई कमी आई है। ठीक वैसे ही जैसे हम सब जानते हैं कि रिश्वत लेना और देना जुर्म है पर क्या इस कानून के कारण रिश्वत लेने और देने वालों की संख्या घटी है ?
जाहिर है सिर्फ कानून समस्या का हल नहीं हो सकते है। कानून का प्रभाव डराने या चेतावती देने तक सीमित होता है। किसी भी अपराध का कारण जाने बिना उसका समाधान कैसे हो सकता है ? यह तो वह बात हुई कि वायु में भारी प्रदूषण हो, लोग लगातार खांसते रहते हों और कानून बन जाए कि सार्वजनिक स्थलों पर खांसना बना है। कितनी हास्यादपद बात है।
ठीक ऐसे ही महिलाओं के प्रति जो अपराध होते हैं उनकी पृष्ठभूमि में है हमारी सामाजिक व्यवस्था, आर्थिक व्यवस्था, हमारी सांस्कृतिक विविधता और समाज में महिला सशक्तिकरण का अभाव। इन दृष्टिकोणों से समस्या को सुलझाए बिना आप महिलाओं के प्रति नित्य होने वाले करोडों अपराधों को नहीं रोक सकते, पर वह लंबी प्रक्रिया है। उसके लिए समाज को समर्पित सुधारक चाहिए। सार्थक शिक्षा चाहिए। आर्थिक प्रगति का उचित बटवारा चाहिए। पिछड़े समाजों में शिक्षा का प्रचार-प्रसार चाहिए। हर परिवार के कम से कम एक सदस्य को समुचित वेतन की रोजगार चाहिए, जिसमें उसका परिवार पल सके। बिना इन सब समाधानों को खोजे हुए केवल कानून अपने आप में कुछ खास नहीं कर सकता।
महिलाओं की रक्षा के लिए हाल के वर्षों में बने कानूनों से उनकी कितनी रक्षा हुई है, इसका तो अभी कोई अध्ययन चर्चा में नहीं आया। पर ऐसे कारण सैकड़ों हैं जब इन कानूनों का सहारा लेकर कुछ महिलाओं ने अपने निर्दोष पति, उसके मित्र या उसके परिजनों को नाहक थानों और अदालतों में घसीटा हो। असली दुःख पाने वाली महिलाएं तो शायद थानों तक पहुंच भी नहीं पातीं। पर इन कानूनों का सहारा लेकर पुरूष समाज को ब्लैकमेल करने वाली महिलाएं भी अब काफी तेजी से दिखाई देने लगी हैं। ऐसी महिलाएं झूठे मुकद्दमों में फंसा कर बहुत से लोगों का जीवन बर्बाद कर रही हैं पर उनकी रोकथाम की अभी कोई व्यवस्था नहीं हैं। इससे असामाजिक तत्वों का हौसला बढ़ता जा रहा है।
इसलिए देश के कर्णधारों को चाहिए कि वे महिलाओं के पक्ष में बने कानूनों पर पुर्नविचार करें। केवल महिला संगठनों के आंदालनों, मीडिया और संसद के शोर से प्रभावित होकर जो कानून बन गए हैं उनको कसौटी पर परखने की जरूरत है और आवश्यकता अनुसार बदलने की भी जरूरत है।
हम जानते हैं कि ऐसा मुददा छेड़ने पर कुछ महिला संगठन आक्रामक बयानबाजी कर सकते हैं पर उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि डंडे के जोर पर समाज नहीं बदला करते हैं। पीढ़ियां लग जाती हैं बदलाव लाने के लिए। बेहतर यह होगा कि वे इन सवालों पर बिना उत्तेजित हुए निष्पक्षता से पुर्नविचार करें। फिर खुद पहल करें और सरकार पर दबाव डाले जिससे इन कानूनों में सुधार हो सके। यह धीमी प्रक्रिया जरूर हैं पर इसके परिणाम दूरगामी और सार्थक होंगे।

Monday, April 22, 2013

क्यों संवेदनाशून्य है हमारी पुलिस ?

5 साल की गुड़िया के साथ दरिन्दों ने पाश्विकता से भी ज्यादा बड़ा जघन्य अपराध किया पर दिल्ली पुलि
स के सहायक आयुक्त ने 2 हजार रुपये देकर गुड़िया के माँ-बाप को टरकाने की कोशिश की । जब जनआक्रोश सड़कों पर उतर आया तो प्रदर्शनकारी महिला को थप्पड़ मारने से भी गुरेज नहीं किया। इतनी संवेदनशून्य क्यों हो गयी है हमारी पुलिस ? जब जनता के रक्षक ऐसा अमानवीय व्यवहार करें तो जनता किसकी शरण मे जायें ?
आज देश बलत्कार के सवाल पर उत्तेजित है। चैनलों और अखबारों मे इस मुद्दों पर गर्मजोशी मे बहसें चल रही हैं । पर यह सवाल कोई नहीं पूछ रहा कि बलात्कारी कौन हैं ? क्या ये सामान्य अपराधी हैं जो किसी आर्थिक लाभ की लालसा में कानून तोड़ रहे हैं या इनकी मानसिक स्थिति बिगड़ी हुई है। अपराध शास्त्र के अनुसार ये लोग मनोयौनिक अपराधी की श्रेणी में आते हैं। जिनकों ठीक करने  के लिए दो व्यवस्थायें हैं। पहली जब इन्हें अपराध करने के बाद जेल में सुधारा जाय और दूसरी इन्हें अपराध करने से पहले सुधारा जाय। आजादी के बाद हमने व्यवस्था बनाई थी कि हम अपराधी का उपचार करेगें। लेकिन गत 65 वर्षों में हम इसका भी कोई इतंजाम नही कर पाये। तमाम समितियों और आयोगों की सिफारिशें थी कि जेलों में दण्डशास्त्री हुआ करेगें। लेकिन आज तक इनकी नियुक्ति नहीं की गई। इनका काम भी जेलो मे रहने वाले पुलिसनुमा कर्मचारी ही कर रहे हैं । जब गिरफ्तार होकर जेल मे कैद होने वाले अपराधियों के उपचार की यह दशा है तो जेल के बाहर समाज मे रहने वाले ऐसे अपराधियों के सुधार का तो खुदा ही मालिक है। 1977 में जेलों से सजा पूरी करके छूटे लोगों का अध्ययन करने पर चैंकाने वाले तथ्य सामने आये हैं। जेलों मे रखकर अपराधियों के सुधार के जो दावे तब तक किये जा रहे थे, वे खोखलें सिद्ध हुए। इस स्थिति में आज तक कोई बदलाव नही आया है। ऐसा क्यों हुआ ? इसका एक ही जवाब मिलता है कि हमारे पास अपराधियों के उपचार (सुधार) में सक्षम व अनुभवी विशेषज्ञों का नितांत अभाव है। फिर कैसे घटेगी बलात्कार की घटनायें।
जब-जब देश में कानून व्यवस्था की हालत बिगड़ती हैं। तब-तब पुलिसवालें जनता के हमले का शिकार बनते हैं। सब ओर से एक ही मांग उठती है कि पुलिस नाकारा है, पर यह कोई नहीं पूछता कि राष्ट्रीय पुलिस आयोग की सिफारिशों का क्या हुआ ? क्यों हम आज भी आपिनवेशिक पुलिस व्यवस्था को ढ़़ो रहे हैं ? 30 वर्ष पहले इस आयोग की एक अहम सिफारिश थी कि पुलिस के प्रशिक्षण को प्रोफेशनल बनाया जाये। उन्हें अपराध शास्त्र जैसे विषय प्रोफेशनलों से सिखाये जायें। जबकि आज पुलिस प्रशिक्षण संस्थानों में जो लोग नवनियुक्त पुलिस अफसरों को ट्रेनिंग देते हैं, उन्हें खुद ही अपराध शास्त्र की जानकारी नहीं होती। अपराध के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और मनोवैज्ञानिक पक्ष को जाने बिना हम समाधान नहीं दे सकते। इसलिए पुलिस प्रशिक्षण के संस्थानों मे जाने वाले नौजवान अधिकारी अपने प्रशिक्षण मे रुचि नहीं लेते। भारतीय पुलिस सेवा का प्रोबेशनर तो आई. पी. एस. मे पास होते ही अपने को कानूनविद् मानने लगते हैं । उसकी इन पाठयक्रमों में कोई जिज्ञासा नहीं होती। हो भी कैसे जब उसे प्रशिक्षण देने वाले खुद ही अपराध शास्त्र के विभिन्न पहलूओं को नहीं जानते तो वे अपने प्रशिक्षणार्थियों को क्या सिखायेंगे ?
देश में अपराध शास्त्र के विशेषज्ञ थोक में नहीं मिलते। जो हैं उनकी कद्र नहीं की जाती। इंड़ियन इस्टीटयूट ऑफ क्रिमिनोलोजी एण्ड फोरेन्सिक साइंसिज दिल्ली में ऐसे विशेषज्ञों को एक व्याख्यान का मात्र एक हजार रुपया भुगतान किया जाता है। जबकि कार्पोरेट जगत में ऐसे विशेषज्ञों को लाखों रुपये का भुगतान मिलता है जो उनके अधिकारियों को ट्रेनिंग देते हैं। सी. बी. आई. ऐकेडमी का भी रिकार्ड भी कोई बहुत बेहतर नहीं है। जबकि अपराध शास्त्र एक इतना गंभीर विषय है कि अगर उसे ठीक से पढ़ाया जाये तो पुलिसकर्मी व अधिकारी अपना काम काफी संजीदगी से कर सकते हैं। वे एक ही अपराध के करने वालों की भिन्न-भिन्न मानसिकता की बारीकी तक समझ सकते हैं। वे अपराध से़ पीड़ित लोगों के साथ मानवीय व्यवहार करने को स्वतः पे्ररित हो सकते हैं। वे अपराधों की रोकथाम में प्रभावी हो सकते हैं । पर दुर्भाग्य से केन्द्र और राज्य सरकारों के गृह मंत्रायालयों ने इस तरफ आज तक ध्यान नहीं दिया। पुलिसकर्मियों के प्रशिक्षण के कार्यक्रम तो देश मे बहुत चलाये जाते हैं, बड़े अधिकारियों को लगातार विदेश भी सीखने के लिए भेजा जाता है, पर उनसे पुलिस वालों की मनोदशा व गुणवत्ता में कोई फर्क नहीं पड़ता।

Monday, January 7, 2013

इन हालातों में जनता क्या करे?

बलात्कार के खिलाफ उठा गुबार अभी थमा नहीं है। भ्रष्टाचार के विरूद्ध टीम अन्ना का आन्दोलन अपने चरम पर जाकर बिखर गया है, पर खत्म नहीं हुआ। पूरा ब्रज प्रदेश और देश के कृष्ण भक्त 1 मार्च, 2013 को वृन्दावन से दिल्ली तक पैदल कूच करने की तैयारी में जुटे हैं। इसलिए कि वे यमुना में शुद्ध यमुना जल देखना चाहते हैं। जबकि भगवान कृष्ण की कालिन्दी यमुना में आज यमुना जल नहीं दिल्लीवासियों का सीवर जल आ रहा है। कश्मीर के नौजवान वहाँ के सियासतदानों के भ्रष्टाचार से त्रस्त होकर लगातार बगावत का झण्डा बुलन्द कर रहे हैं। देश का हर शहर कूड़े के ढेर में बदलता जा रहा है। सरकारी दफ्तर गांधी जी का चित्र टांगकर भ्रष्टाचार का नंगा नाच रहे हैं। उद्योग जगत प्राकृतिक संसाधनों को बेदर्दी से लूटकर, सरकारी कर की चोरी करके और बैंकों के हजारों करोड़ के ऋण दबाकर अपने मुनाफे कई गुना बढ़ा रहे हैं और उन्हें बहुराष्ट्रीय बैंकों के मार्फत या हवाला के मार्फत विदेशों में लगा रहे हैं। जबकि हमारे राजनैतिक दल लोकतांत्रिक परंपराओं को धता बताकर वंशाधिकार की लड़ाई में जुटे हैं, फिर वो चाहें स्टालिन के विरोध में अलागिरी हों या बाल ठाकरे के बेटे-भतीजे हों या किसी और राज्य के मुख्यमंत्रियों के परिवार। ऐसा लगता है कि भारत में लोकतंत्र नहीं राजतंत्र है, जहाँ सत्ता पर राजवंश काबिज है।
ऐसे में देश की जनता क्या करे? हालात के मारे लोग कहाँ जाऐं? किसके कंधे पर सिर रखकर रोऐं? किससे फरियाद करें? क्या खामोश होकर घर बैठ जाऐं और देश की लूट व दुर्दशा का तांडव देखते रहें? क्या हालात से समझौते कर भ्रष्ट हो जाऐं? क्या शस्त्र उठाकर खूनी क्रांति करने वालों के पीछे चल पड़ें? या संविधान के ढांचे के भीतर लोकतांत्रिक तरीके से स्वार्थी ताकतों से लड़ें? दरअसल कोई भी आन्दोलन बहुत लम्बे समय तक नहीं चल सकता। लोगों का उत्साह जल्द ही भंग हो जाता है। साधनों का अभाव भी आड़े आता है। इसलिए कोई कितनी ही ताकत से हुंकार क्यों न भरे, कितने ही लाखों लोगों को लेकर सड़कों पर क्यों न उतरे, पर व्यवस्था का मकड़जाल ऐसा है कि ऐसी सब आवाजें अन्त में नक्कारखाने में तूती की तरह बजकर रह जाती हैं। आजादी की लड़ाई में यह शस्त्र इसलिए काम कर गए क्योंकि हमारे दुश्मन अंग्रेज हुक्मरान थे और नेता गांधी, सुभाषचंद बोस व भगत सिंह जैसे बलिदानी थे। पर अब यह हथियार भौंथरे हुए लगते हैं। क्योंकि इनका बार-बार प्रयोग होने से व्यवस्था इनकी आदी हो चुकी है। वह ऐसे आन्दोलनों को गुमराह करने और छिन्न-भिन्न करने में कोई कसर नहीं छोड़ती। इसलिए कुछ भी नहीं बदलता।
अगर हम सत्ता के लालच में लड़ने वाले विपक्षी दलों के भुलावे में आकर केन्द्र और राज्यों में सत्तारूढ़ दलों को गाली देने का, उनके खिलाफ एस.एम.एस. और ईमेल अभियान चलाने का और उनके खिलाफ प्रदर्शन करने का कार्यक्रम चलाते हैं, तो हम एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं। क्योंकि जिन्हें हम सत्ता से हटाना चाहते हैं, उन्हें हटाकर जो सत्ता में आऐंगे, वे किसी भी मामले में कम नहीं। हां, मीडिया पर शोर मचाकर और सड़कों पर आन्दोलन करके कुछ समय के लिए हमें यह भ्रम जरूर हो जाता है कि यह तो निर्णायक लड़ाई है, इसके बाद सुनहरी सुबह आएगी। जो कभी नहीं आती। आम आदमी पार्टी जैसा दल गठित कर बेहतर विकल्प देने का सपना पिछले साठ सालों में अनेकों क्रांतिकारी दिखा चुके हैं। या तो वे विकल्प दे ही नहीं पाते, या उनका विकल्प चुनावी शतरंज में परास्त हो जाता है या फिर वे भी साधनों के अभाव में उसी मकड़जाल में फंस जाते हैं, जिसके खिलाफ उनके आन्दोलन की बुनियाद रखी जाती है। इसका अर्थ यह नहीं कि कोई प्रयास ही न किया जाऐ। पर प्रयास अगर यथार्थ के धरातल से कटा होगा, तो उसमें ऊर्जा और साधन का अपव्यय तो होगा ही, समाज में हताशा और निराशा भी फैलेगी।
जे0पी0 आन्दोलन के समय से एक छात्र, आन्दोलनकारी और एक पत्रकार के नाते गत 38 वर्षों से मैं देश में ऐसी उथल-पुथल के कई दौर देख चुका हूँ। हर बार देशवासियों को निराशा हाथ लगी है। अब कितने प्रयोग हम और करें? किस पर भरोसा करें? कौन मसीहा है, जो हमें इस जंजाल से मुक्ति दिला देगा? बस यही है हमारी सब समस्या की जड़। जब तक हम मसीहा का इंतजार करते रहेंगे, इसी तरह लुटते-पिटते रहेंगे। सूचना के अधिकार से लेकर मीडिया तक आज संचार का इतना बड़ा जाल खड़ा हो गया है कि कोई भी सच्चाई लम्बे समय तक छिपाई नहीं जा सकती। गांव के विकास के लिए बनने वाली योजनाऐं और उनके लिए आवण्टित होने वाला धन, नगरों के रखरखाव के लिए प्रांतीय संसाधन, जेएनआरयूएम जैसी महत्वकांक्षी योजनाऐं और वल्र्ड बैंक की परियोजनाऐं, सबके बावजूद नगरवासी भी नारकीय जीवन जी रहेे हैं। केन्द्र के स्तर पर अब हजारों करोड़ के घोटालों के आरोप नहीं लगते। बात लाखों करोड़ तक जा पहुँची है। पर इस सबके लिए हमारी अपनी उदासीनता जिम्मेदार है।
अपना घर तो हम सब सजाते हैं, अपने बच्चों के भविष्य की भी चिंता करते हैं, पर घर के बाहर गली की गंदगी हो या हमारे गांव-शहर के लिए आवण्टित होने वाला धन, न तो उसकी हमें जानकारी होती है और न ही उसमें हमारी कोई रूचि। जबकि हम यह सब आज काफी सरलता से जान सकते हैं। धन आने के बाद भ्रष्टाचार की बात तो सब करते हैं, पर मेरा अनुभव तो अब यह बताता है कि भ्रष्टाचार की शुरूआत तो विकास योजनाओं की परिकल्पनाओं से ही शुरू हो जाती है। जानबूझकर ऐसी योजनाऐं बनाई जा रही हैं, जिनका जनता की मौजूदा समस्याओं से कोई नाता नहीं है। केवल और केवल पैसे को हड़पने के लिए इन योजनाओं को पास कराया जाता है। इसलिए योजना बनते वक्त से लेकर लागू होने तक, हर स्तर पर, हर जागरूक नागरिक को सतर्क रहना होगा।
अब हम मसीहाओं की आस छोड़ दें। केवल एक काम करें कि जहाँ तक हमारी समझ हो और क्षमता हो, वहाँ तक के क्षेत्र के विकास और रखरखाव के लिए आने वाली एक-एक पाई का हिसाब मांगने की ताकत जुटा लें। जब हम संगठित, निष्काम और निर्भय होंगे तो कोई प्रशासन हमें धमकाकर चुप नहीं कर पाएगा। यह लड़ाई गांधी के असहयोग आन्दोलन के ठीक विपरीत, सहयोग आन्दोलन की लड़ाई होगी। जिसमें हम सरकार के काम में सहयोग करेंगे पर पूरी पारदर्शिता की मांग के साथ। फिर हमें किसी लाठी का सामना नहीं करना पड़ेगा। धीरज रखें तो सफलता अवश्य मिलेगी।

Sunday, June 26, 2011

महिलाऐं वीभत्स हिंसा की शिकार क्यों?

Rajasthan Patrika 26 June
महिला आरक्षण विधेयक फिर खटाई में पड़ गया। इस देश के राजनैतिक दल महिलाओं को राजनीति में उनके प्रतिशत के अनुपात में आरक्षण देने को तैयार नहीं हैं। दूसरी तरफ देश के हर हिस्से में महिलाओं के उपर पाश्विकता की हद तक कामुक तत्वों के हिंसक हमले बढ़ते जा रहे हैं। जब देश की राजदधानी दिल्ली में ही सड़क चलती लड़कियों को दिन-दहाड़े शोहदे उठाकर ले जाते हैं और बलात्कार व हत्या करके फैंक देते हैं, तो देश के दूरस्थ इलाकों में महिलाओं पर क्या बीत रही होगी, इसका अन्दाजा शायद राष्टीय महिला आयोग को नहीं। आश्चर्य की बात तो यह है कि जिन राज्यों की मुख्यमंत्री महिलाऐं हैं, उन राज्यों की महिलाऐं भी सुरक्षित नहीं। इसकी क्या वजह है?

महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ने वाली गुड़गांँव की अमीना शेरवानी का कहना है कि पूरे वैश्विक समाज में शुरू से महिलाओं को सम्पत्ति के रूप में देखा गया। उनका कन्यादान किया गया या मेहर की रकम बांधकर निकाहनामा कर लिया गया। कुछ जनजातिय समाज हैं जहाँ महिलाओं को बराबर या पुरूषों से ज्यादा अधिकार प्राप्त हैं। माना जाता रहा है कि बचपन में महिला पिता के संरक्षण में रहेगी। विवाह के बाद पति के और वैधव्य के बाद पुत्र के। यानि उसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होगा। यह बात दूसरी है कि आधुनिक महिलाऐं इन सभी मान्यताओं को तोड़ चुकी हैं या तोड़ती जा रही हैं। लेकिन उनकी तादाद पूरी आबादी की तुलना में नगण्य है।

बहुत से लोग मानते हैं कि जिस तरह की अभद्रता, अश्लीलता, कामुकता व हिंसा टी.वी. और सिनेमा के परदे पर दिखायी जा रही है, उससे समाज का तेजी से पतन हो रहा है। आज का युवावर्ग इनसे प्रेरणा लेकर सड़कों पर फिल्मी रोमांस के नुस्खे आजमाता है। जिसमें महिलाओं के साथ कामुक अत्याचार शामिल है। यह बात कुछ हद तक सही है कि दृश्य, श्रृव्य माध्यम का व्यक्ति के मनोविज्ञान पर गहरा प्रभाव पड़ता है। पर ऐसा नहीं है कि जबसे मनोरंजन के यह माध्यम लोकप्रिय हुए हैं, तबसे ही महिलाऐं कामुक हमलों का शिकार होने लगी हों। पूरा मध्ययुगीन इतिहास इस बात का गवाह है कि अनवरत युद्धरत राजे-महाराजाओं और सामंतों ने महिला को लूट में मिले सामान की तरह देखा और भोगा। द्रोपदी के पाँच पति तो अपवाद हैं। जिसके पीछे आध्यात्मिक रहस्य भी छिपा है। पर ऐसे पुरूष तो लाखों हुए हैं, जिन्होंने एक से कहीं ज्यादा पत्नियों और स्त्रीयों को भोगा। युद्ध जीतने के बाद दूसरे राजा की पत्नियों और हरम की महिलाओं को अपने हरम में शामिल करना राजाओं या शहंशाहों के लिए गर्व की बात रही।

नारी मुक्ति के लिए अपने को प्रगतिशील मानने वाले पश्चिमी समाज की भी मानसिकता कुछ भिन्न नहीं। न्यूयाॅर्क में रहने वाली मेरी एक महिला पत्रकार मित्र ने कुछ वर्ष पहले दुनियाभर के प्रमुख देशों में महिलाओं की सामाजिक स्थिति पर एक शोधपूर्ण रिपोर्ट प्रकाशित की थी। इस शोध के दौरान उन्हें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि नारी मुक्ति की घोर वकालत करने वाली यूरोप की महिलाऐं भाषण चाहें जितना दें, पर पति या पुरूष वर्ग के आगे घुटने टेकने में उन्हें कोई संकोच नहीं है। वे शिकायत करती हैं कि उनके पति उन्हें रसोईये, घर साफ करने वाली, बच्चों की आया, कपड़े धोने वाली और बिस्तर पर मनोरंजन देने वाली वस्तु के रूप में समझते और व्यवहार करते हैं। ये कहते हुए वे आँखें भर लाती हैं। पर जब उनसे पूछा गया कि आप इस बंधन से मुक्त होकर स्वतंत्र जीवन क्यों नहीं जीना चाहतीं? तो वे तपाक से उत्तर देती हैं कि हम जैसी भी हैं, सन्तुष्ट हैं, आप हमारे सुखी जीवन में खलल क्यों डालना चाहते हैं? ऐसे विरोधाभाषी वक्तव्य से यह लगता है कि पढ़ी-लिखी महिलाऐं भी गुलामी की सदियों पुरानी मानसिकता से मुक्त नहीं हो पायी हैं। मतलब ये माना जा सकता है कि महिलाऐं खुद ही अपने स्वतंत्र और मजबूत अस्तित्व के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं हैं। उन्हें हमेशा सहारे और सुरक्षा की जरूरत होती है। तभी तो किसी कबाबी, शराबी और जुआरी पति को भी वे छोड़ना नहीं चाहतीं। चाहें कितना भी दुख क्यों न झेलना पड़े। फिर पुरूष अगर उन्हें उपभोग की वस्तु माने तो क्या सारा दोष पुरूष समाज पर ही डालना उचित होगा?

इस सबसे इतर एक भारत का सनातन सिद्धांत भी है। जो यह याद दिलाता है कि पति की सेवा, बच्चों का भरण-पोषण और शिक्षण इतने महत्वपूर्ण कार्य हैं, जिन्हें एक महिला से बेहतर कोई नहीं कर सकता। जिस घर की महिला अपने पारिवारिक दायित्वों का कुशलता और खुले ह्रदय से वहन करती है, उसे न तो व्यवसाय करने की आवश्यकता है और न ही कहीं और भटकने की। ऐसी महिलाऐं घर पर रहकर तीन पीढ़ियों की परवरिश करती हैं। सब उनसे सन्तुष्ट और सुखी रहते हैं। फिर क्या आवश्यकता है कि कोई महिला देहरी के बाहर पाँव रखे? जब घर के भीतर रहेगी तो अपने बच्चों का भविष्य बेहतर बनायेगी। क्योंकि उन्हें वह सब ज्ञान और अनुभव देगी जो उसने वर्षों के तप के बाद हासिल किया है।

आज जब देश में हर मुद्दे पर बहस छिड़ जाना आम बात हो गयी है। दर्जनों टी.वी. चैनल एक से ही सवाल पर घण्टों बहस करते हैं। तो क्यों न इस सवाल पर भी देश में एक बहस छेड़ी जाए कि महिलाऐं कामुक अपराधिक हिंसा का शिकार हैं या उसका कारण? इस प्रश्न का उत्तर समाधान की दिशा में सहायता करेगा। यह बहस इसलिए भी जरूरी है कि हम एकतरफ दुनिया के तेजी से विकसित हो रही अर्थव्यवस्था का दावा करते हैं और दूसरी ओर हमारी महिलाऐं मुध्ययुग से भी ज्यादा वीभत्स अपराधों और हवस का शिकार बन रही हैं।