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Monday, December 17, 2012

क्यों लगने लगे हैं पत्रकारों पर ब्लैकमेलिंग के आरोप

जबसे जी0टी0वी0 के दो सम्पादक जिंदल स्टील के मामले में ब्लैकमेलिंग के आरोप में तिहाड़ जेल भेजे गए हैं, तब से मीडिया दायरों में यह बहस चल पड़ी है कि क्या पत्रकारिता का स्तर इतना गिर गया है कि अब पत्रकारों को ब्लैकमेलिंग के आरोप में गिरफ्तार करने की नौबत भी आने लगी है? दरअसल ब्लैकमेलिंग और पत्रकारिता का सम्बन्ध ऐसा है कि जैसे उत्तरी धु्रव और दक्षिणी ध्रुव। ब्लैकमेलिंग एक अपराध है और पत्रकारिता एक मिशन। मिशनरी अपराधी नहीं हो सकता और अपराधी मिशनरी नहीं हो सकता। जिंदल और जीटीवी के मामले में कौन सही है और कौन गलत, इस विवाद में हम नहीं पड़ेंगे, क्योंकि यह पुलिस और न्यायालय के बीच का मामला है। पर यहाँ जानना जरूरी है कि पत्रकारों पर ब्लैकमेलिंग के आरोप क्यों लगने लगें है?
जब कोई पत्रकार किसी ऐसे व्यक्ति के खिलाफ सबूत इकट्ठे करता है जिसने कोई अनैतिक कार्य किया है और उन तथ्यों को जाँच के बाद सत्यापित कर लेता है, तब उसे उन्हें प्रकाशित या प्रसारित कर देना होता है। ऐसा न करके अगर कोई आरोपित व्यक्ति से मोल भाव करे कि तुम मुझे इतनी रकम दो तो मैं तुम्हारे खिलाफ इस खबर को दबा दूंगा, तो इसे ब्लैकमेलिंग कहा जाऐगा।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि ब्लैकमेलिंग का शिकार वही व्यक्ति, अफसर, नेता, धर्माचार्य या उद्योगपति होता है जो जाने-अनजाने कोई अनैतिक कार्य कर बैठता है। अपनी बदनामी और कानून की पकड़ से बचने के लिए वह ब्लैकमेलिंग का शिकार बन जाता है। मतलब यह हुआ कि इस प्रक्रिया में दोनों ही पक्ष अपराधी हो गए।
समाज है तो विसंगतियां भी होंगी ही। विसंगतियां हैं तो खबर भी बनेगी। जितना बड़ा आदमी होगा, उतनी बड़ी खबर होगी। पर पत्रकारिता का पेशा किसी के फटे में पैर देने का नहीं है बल्कि विसंगतियों को उजागर करते हुए या तो निष्पक्ष सूचना देने का है या एक कदम और आगे बढ़ें तो समाज को दिशा देने का है। ब्लैकमेलिंग का कतई नहीं।
फिर यह बात क्यों सामने आ रही है? आग है तभी तो धुंआ है। कस्बे से लेकर देश की राजधानी तक ऐसे अनेकों उदाहरण मिलेंगे, जहाँ पत्रकारों ने पत्रकारिता के पेशे का दुरूपयोग कर अपने वैभव का असीम विस्तार किया है। इसमें दो श्रेणियां हैं, एक वो जिन्हें अनैतिक आचरण करने वाले ताकतवर व्यक्ति ने रिश्वत का ऑफर देकर खरीद लिया। दूसरे वे जो ब्लैकमेलिंग का रास्ता अपनाकर अपनी दौलत बढ़ाते हैं। जिससे पूरा पेशा बदनाम हो रहा है। इन दोनों ही मामलों में ज्यादा जिम्मेदारी अखबार या टी0वी0 समूह के मालिक की होती है। जो मालिक निष्पक्ष और ईमानदार पत्रकारिता करवाना चाहते हैं, उनके प्रतिष्ठान में ऐसा पत्रकार टिक ही नहीं सकता। उसका पता लगते ही उसे निकाल दिया जाऐगा। पर आज मीडिया का ग्लैमर और ताकत अगर बढ़ी है तो हर मीडिया हाउस यह दावा नहीं कर सकता कि वह विशुद्ध पत्रकारिता के आधार पर अपने प्रतिष्ठान को जीवित रखे हुए है। सच्चाई तो यह है कि ज्यादातर ऐसे प्रतिष्ठान घाटे में चल रहे हैं। कोई उद्योगपति या निवेशक घाटा उठाकर किसी अखबार या टी0वी0 न्यूज का उत्पादन क्यों करेगा और कब तक करेगा? जाहिरन यहाँ घाटा तो कहीं और से मुनाफा। इसलिए ऐसे लोग भी इस पेशे में जमे हुए हैं।
दूसरा दबाव कुछ संपादकों का होता है। पहले संपादक पत्रकारिता के पेशे से आते थे और शुद्ध पत्रकारिता करते थे। अब कुछ संपादक कम्पनी के सी.ई.ओ. भी बना दिए जाते हैं। इसलिए संपादकीय बैठक में उनका ध्यान खबर की गुणवत्ता से ज्यादा इस बात पर होता है कि कम्पनी का मुनाफा कैसे बढ़े? मुनाफा बढ़ाने का तरीका अखबार का दाम बढ़ाना नहीं, बल्कि विज्ञापन बढ़ाना होता है। प्रायः विज्ञापन व्यवसायिक दृष्टिकोण से कम दिए जाते हैं और अखबार का मुँह बन्द करने के लिए ज्यादा। इसलिए संपादक संवाददाताओं से प्रायः ऐसी खबर करवाते हैं जिससे घबराकर विज्ञापनदाता उस प्रकाशन या चैनल को भारी भरकम विज्ञापन देने लगें। सतह पर यह कोई अपराध नहीं लगता, पर हकीकत यह है कि यह भी ब्लैकमेलिंग का एक साफ-सुथरा नमूना है। तीसरे स्तर की ब्लैकमेलिंग संवाददाताओं के स्तर पर छोटी-छोटी खबरों के बारे में सुनने में आती है। जब सम्पन्न लोगों से संवाददाता अपने पेशे की धमकी देकर चैथ वसूली करते हैं। इनमें भी दो श्रेणियां हैं। एक वे जिनका धंधा ही यह होता है, दूसरे वे जो हालात से मजबूर होते हैं। जब अखबार या चैनल मालिक संवाददाता को उसकी योग्यता और आवश्यकता से कहीं कम भुगतान करता है तो भौतिकता के दबाव में, समाज का माहौल देखते हुए उस पत्रकार को इस तरह पैसा कमाने का लोभ पैदा हो जाता है। लेकिन दूसरी तरह के वे होते हैं जिन्हें मुफ्त की कमाई करने में मजा आने लगता है। यह उनकी आवश्यकता नहीं होती, बल्कि व्यसन होता है।
सवाल यह है कि क्या मीडिया अन्य उद्योगों की तरह एक कमाई का धंधा है या लोकतंत्र का चैथा स्तम्भ? अगर मीडिया का व्यापार शुद्ध मुनाफे का कारोबार नहीं है तो कोई कितने दिन तक घाटा उठाकर अपने अखबार और टी0वी0 चैनल चला पाऐगा? जाहिरन वह राजनैतिक और औधोगिक संरक्षण लेकर ही चल पाता है। अभी तक देश में ऐसा कोई मॉडल बड़े स्तर पर सफल नहीं हुआ जब समाज ने सही, निष्पक्ष और निडरता से बटोरी गई खबरों को जानने के लिए किसी प्रिंट या टीवी मीडिया हाउस को सामूहिक रूप से ऐसा आर्थिक समर्थन दिया हो कि उस हाउस को किसी के भी आगे हाथ न फैलाना पड़े। अगर ऐसा होता है तो न तो पत्रकारिता की गरिमा गिरेगी और न ही देश के प्राकृतिक संसाधनों को लूटकर या जनता के पैसे को घोटालों के माध्यम से हड़पकर अकूत दौलत कमाने वाले उद्योगपति, नेता और अफसर निर्भय होकर विचरण कर पाऐंगे। तब जनता को सही खबर भी मिलेगी और उसकी ताकत भी बढ़ेगी। साथ ही सरकार हो या निजी क्षेत्र दोनों को जिम्मेदारी से पारदर्शी व्यवहार करना पड़ेगा। जब तक मौजूदा हालात बने रहते हैं, तब तक पत्रकारिता पेशे का एक अंग भी अनैतिक कृत्यों से बचा नहीं रह पाऐगा।
यह इस बात पर निर्भय करेगा कि इस पेशे को अपनाते वक्त उस व्यक्ति के सामने क्या लक्ष्य था? क्या हम पत्रकारिता के माध्यम से समाज को सजाने-संवारने के लिए उतरे हैं या बिना मेहनत की मोटी कमाई करने के लिए? पहली श्रेणी के पत्रकार धीरे-धीरे प्रगति करेंगे पर लम्बे समय तक सार्वजनिक जीवन में टिके रहेंगे। दूसरी श्रेणी के पत्रकार धन तो पहले दिन से कमा लेंगे, पर समाज में प्रतिष्ठा पाना उनसे कोसों दूर रहेगा। जब तक कोई स्पष्ट समाधान न मिले, तब तक हालात बदलने वाले नहीं हैं। देश की जनता और सरकार के लिए यह बहुत चिंता का विषय होना चाहिए कि लोकतंत्र का यह चैथा खम्बा इस तरह के आपराधिक आरोपों से बदनाम किया जा रहा है।