सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पटाखों पर
प्रतिबंध लगा दिया गया है और सिर्फ दो घंटे का समय दिया गया है, जिसमें पटाखें चलाऐ जा सकते हैं। इस आदेश को लेकर पटाखा
व्यवसाय से जुड़े हुए सभी व्यापारी परेशान हैं कि अब उनका व्यापार कैसे चलेगा? कुछ हिंदुओं ने भी यह हल्ला मचाया है कि हिंदू धर्म के
पर्वों में ही क्यों पाबंदी लगाई जाती है? मुसलमानों की ‘शब-ए-बारात’, ईसाईयों की ‘क्रिसमस’, या ‘न्यू इयर्स डे’ आदि में पटाखे छुड़ाने पर पाबंदी क्यों
नहीं लगाई जाती? जबकि आवश्यक्ता इस
बात की है कि भारत में पटाखों पर पूरी तरह से प्रतिबंध लग जाना चाहिए। क्योंकि देश
में पहले से पर्यावरण प्रदूषण की वजह से बुरा हाल हो रहा है और पटाखों से निकलने
वाली प्रदूषित गैस पर्यावरण को और अधिक नुकसान पहुंचाएगी।
‘आतिशबाजी’ सनातन धर्म के शब्दकोश में कोई शब्द नहीं है। यह
पश्चिम ऐशिया से आयातित है, क्योंकि गोला-बारूद
भी भारत में वहीं से ‘मध्ययुग’ में आया था। इसलिए दीपावली पर पटाखों को प्रतिबंधित
करके,
सर्वोच्च न्यायालय ने उचित निर्णंय लिया। हम सभी जानते हैं
कि पर्यावरण, स्वास्थ, सुरक्षा व सामाजिक कारणों से पटाखे हमारी जिंदगी में जहर
घोलते हैं। इनका निर्माण व प्रयोग सदा के लिए बंद होना चाहिए। यह बात पिछले 30 वर्षों से बार-बार उठती रही है।
हमारी सांस्कृतिक परंपरा में हर उत्सव
व त्यौहार, आनंद और पर्यावरण की
शुद्धि करने वाला होता है। दीपावली पर तेल या घी के दीपक जलाना, यज्ञ करके उसमें आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियां डालकर वातावरण को
शुद्ध करना, द्वार पर आम के
पत्तों के तोरण बांधना, केले के
स्तंभ लगाना, रंगोली बनाना, घर पर शुद्ध पकवान बनाना, मिल बैठकर मंगल गीत गाना, धर्म चर्चा करना, बालकों द्वारा भगवान की लीलाओं का मंचन करना, घर के बहीखातों में परिवार के सभी सदस्यों के हस्ताक्षर
लेकर,
समसामयिक अर्थव्यवस्था का रिकार्ड दर्ज करना जैसी
गतिविधियों में दशहरा-दीपावली के उत्सव आनंद से संपन्न होते आऐ हैं। जिनसे परिवार
और समाज में नई ऊर्जा का संचार होता है।
गनीमत है कि भारत के ग्रामों में अभी
बाजारू संस्कृति का वैसा व्यापक दुष्प्रभाव नहीं पड़ा, जैसा शहरों पर पड़ा है। अन्यथा सब चैपट हो जाता। ग्रामीण
अंचलों में आज भी त्यौहारों को मनाने में भारत की माटी का सोंधापन दीखता है। यह
स्थिति बदल रही है। जिसे ग्रामीण युवाओं को रोकना है।
बाजार के प्रभाव में आज हमने अपने सभी
पर्वों को विद्रूप और आक्रामक बना दिया है। अब उनको मनाना, अपनी आर्थिक सत्ता का प्रदर्शन करना और आसपास के वातावरण
में हलचल पैदा करने जैसा होता है। इसमें से सामूहिकता, प्रेम-सौहार्द और उत्सव के उत्साह जैसी भावना का लोप हो गया
है। रही सही कसर चीनी सामान ने पूरी कर दी। त्यौहार कोई भी हो, उसमें खपने वाली सामग्री साम्यवादी चीन से बनकर आ रही है।
उससे हमारे देश के रोजगार पर भारी विपरीत प्रभाव पड़ रहा है।
मिट्टी के बने दीऐ, मिट्टी के खिलौने, मिट्टी की बनी गूजरी व हटरी आदि आज भी हमारे घरों में
दीवाली की पूजा का अभिन्न अंग होते हैं, पर शहरीकरण की मार से बड़े शहरों में इनका उपयोग समाप्त होता
जा रहा है। अगर हम अपनी इस रीति को जीवित रखें, तो हमारे कुम्हार भाईयों की पेट पर लात नहीं पड़ेगी।
हम अपने बच्चों का जन्मदिन (हैपी बर्थ
डे) केक काटकर मनाते हैं। जिसका हमारी मान्यताओं और संस्कृति से कोई नाता नहीं है।
जबकि हमें उनका तिलक कर, आरती
उतार कर या आर्शीवाद या मंगलाचरण गायन कर उनका जन्मदिन मनाना चाहिए। अगर हम चाहते
हैं कि हमारी आने वाली पीढ़ियां अपनी भारतीय संस्कृति पर गर्व करे, परिवार में प्रेम को बढ़ाने वाली गतिविधियां हों, बच्चे बड़ों का सम्मान करें, तो हमें अपने समाज में पुनः पारंपरिक मूल्यों की स्थापना
करनी होगी। वो जीवन मूल्य, जिन्होंने
हमारी संस्कृति को हजारों साल तक बचाकर रखा, चाहे कितने ही तूफान आये। पश्चिमी देशों में जाकर बस गए, भारतीय परिवारों से पूछिऐ-जिन्होंने वहां की संस्कृति को
अपनाया,
उनके परिवारों का क्या हाल है और जिन्होंने वहां रहकर भी
भारतीय सामाजिक मूल्यों को अपने परिवार और बच्चों पर लागू किया। वे कितने सधे हुए, सुखी और संगठित है। तनाव, बिखराव तलाक, टूटन ये आधुनिक जीवन पद्धति के ‘प्रसाद’ है। इनसे बचना और
अपनी जड़ों से जुड़ना, यह भारत
के सनातनधर्मियों का मूलमंत्र होना चाहिए।
पिछले कुछ वर्षों से टेलीविजन चैनलों
पर साम्प्रदायिक मुद्दों को लेकर आऐ दिन तीखी झरपें होती रहती है। जिनका कोई अर्थ
नहीं होता। उनसे किसी भी सम्प्रदाय को कोई भी लाभ नहीं मिलता, केवल उत्तेजना बढ़ती है। जबकि हर धर्म और संस्कृति में कुछ
ऐसे जीवन मूल्य होते हैं, जिनका
यदि अनुपालन किया जाए, तो समाज
में सुख,
शांति और समरसता का विस्तार होगा। अगर हमारे टीवी एंकर और
उनकी शोध टीम ऐसे मुद्दों को चुनकर उन पर गंभीर और सार्थक बहस करवाऐं, तो समाज को दिशा मिलेगी। हर धर्म के मानने वालों को यह
स्वीकारना होगा कि दूसरों के धर्म में सब कुछ बुरा नहीं है और उनके धर्म में सब
कुछ श्रेष्ठ नहीं है। चूंकि हम हिंदू बहुसंख्यक हैं और सदियों से इस बात से पीड़ित
रहे हैं कि सत्ताओं ने कभी हमारे बुनियादी सिद्धांतों को समझने की कोशिश नहीं की।
या तो उन्हें दबाया गया या उनका उपहास किया गया या उन्हें अनिच्छा से सह लिया गया।
नये माहौल में इन सवालों पर खुलकर बहस होनी चाहिए थी। जो नहीं हो रही। निरर्थक
विषयों को उठाकर समाज में विष घोला जा रहा है। इसलिए इस दीपावली सब मिल बैठकर
सोचें,
कौन थे हम, क्या
हो गये और होंगे क्या अभी।