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Monday, March 4, 2019

मीडिया अपने गिरेबान में झांके


40 बरस पहले जब हमने टीवी पत्रकारिता शुरू की, तो हमने कुछ मूल सिद्धांतों को पकड़ा था। पहला: बिना प्रमाण के कुछ भी लिखना या बोलना नहीं है। दूसरा: किसी के दिए हुए तथ्यों को बिना खुद परखे उन पर विश्वास नहीं करना। तीसरा: अगर किसी के विरूद्ध कोई विषय उठाना है, तो उस व्यक्ति का उन बिंदुओं पर जबाब या वक्तव्य अवश्य लेना। चैथा:  सभी राजनैतिक दलों से बराबर दूरी बनाकर केवल जनता के हित में बात कहना। जिससे लोकतंत्र के चैथा खंभा होने का दायित्व हम ईमानदारी से निभा सकें। आज 63 बरस की उम्र में भी विनम्रता से कह सकता हूँ कि जहां तक संभव हुआ, अपनी पत्रकारिता को इन चार सिद्धांतों के इर्द-गिर्द ही रखा। ये जरूर है कि इसकी कीमत जीवन में चुकानी पड़ी। पर इसके कारण जीवनभर जो दर्शकों और पाठकों का सम्मान मिलता आया है, वह मेरे लिए किसी पद्मभूषण से कम नहीं है।

ऐसा इसलिए उल्लेख करना पड़ रहा है, क्योंकि पिछले कुछ वर्षों से देश के मीडिया का अधिकतर हिस्सा इस सिद्धांतों के विपरीत काम रहा है। ऐसा लगता है कि पत्रकारिता की सारी सीमाओं को लांघकर हमारे कुछ टीवी एंकर और संवाददाता एक राजनैतिक दल के जन संपर्क अधिकारी बन गए हैं। वे न तो तथ्यों की पड़ताल करते हैं, न व्यवस्था से सवाल करते हैं और न ही किसी पर आरोप लगाने से पहले उसको अपनी बात कहने का मौका देते हैं। इतना ही नहीं, अब तो अमरीका के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश की तरह वे ये कहने में भी संकोच नहीं करते कि जो मीडियाकर्मी या नेता या समाज के जागरूक लोग उनके पोषक राजनैतिक दल के साथ नहीं खड़े हैं, वे सब देशद्रोही हैं और जो साथ खड़े हैं, केवल वे ही देशभक्त हैं। मीडिया के पतन की यह पराकाष्ठा है। ऐेसे मीडियाकर्मी स्वयं अपने हाथों से अपनी कब्र खोद रहे हैं।

ताजा उदाहरण पुलवामा और पाक अधिकृत कश्मीर पर भारत के हवाई हमले का है। कितने मीडियाकर्मी सरकार से ये सवाल पूछ रहे हैं कि भारत की इंटेलीजेंस ब्यूरो, रॉ, गृह मंत्रालय, जम्मू कश्मीर पुलिस, मिल्ट्रिी इंटेलीजेंस व सीआरपीएफ के आला अफसरों की निगरानी के बावजूद ये कैसे संभव हुआ कि साढ़े तीन सौ किलो आरडीएक्स से लदे एक नागरिक वाहन ने सीआरपीएफ के कारवां पर हमला करके हमारे 44 जाँबाज सिपाहियों के परखच्चे उड़ा दिए। बेचारों को लड़कर अपनी बहादुरी दिखाने का भी मौका नहीं मिला। कितनी मांओं की गोद सूनी हो गई? कितनी युवतियां भरी जवानी में विधवा हो गई? कितने नौनिहाल अनाथ हो गए? मगर इन जवानों को शहीद का दर्जा भी नहीं मिला। इस भीषण दुर्घटना के लिए कौन जिम्मेदार है? हमारे देश की एनआईए ने अब तक क्या जांच की? कितने लोगों को इसके लिए पकड़ा? ये सब तथ्य जनता के सामने लाना मीडिया की जिम्मेदारी है। पर क्या ये टीवी चैनल अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं? या रंग-बिरंगे कपड़े पहनकर नौटंकीबाजों की तरह चिल्ला-चिल्लाकर युद्ध का उन्माद पैदा कर रहे हैं? आखिर किस लालच में ये अपना पत्रकारिता भूल बैठे हैं?

यही बात पाक अधिकृत कश्मीर पर हुए हवाई हमले के संदर्भ में भी लागू है। पहले दिन से मीडिया वालों ने शोर मचाया कि साढ़े तीन सौ आतंकवादी मारे गए। इन्होंने ये भी बताया कि महमूद अजहर के कौन-कौन से रिश्तेदार मारे गए। इन्होंने टीवी पर हवाई जहाजों से गिरते बम की वीडियो भी दिखाई। पर अगले ही दिन इनको बताना पड़ा कि ये वीडियो काल्पनिक थी। आज उस घटना को एक हफ्ता हो गया। साढ़े तीन सौ की बात छोड़िए, क्या साढ़े तीन लाशों की फोटो भी ये मीडिया वाले दिखा पाऐ ? जिनको मारने का दावा बढ़-चढ़कर किया जा रहा था। जब अंतर्राष्ट्रीय मीडिया मौके पर पहुंचा, तो उसने पाया कि हमारे हवाई हमले में कुछ पेड़ टूटे हैं, कुछ मकान दरके हैं और एक आदमी की सोते हुए मौत हुई है। अब किस पर यकीन करें? सारे देश को इंतजार है कि भारत का मीडिया साढ़े तीन सौ लाशों के प्रमाण प्रस्तुत करेगा। पर अभी तक उसके कोई आसार नजर नहीं आ रहे। प्रमाण तो दूर की बात रही, इन घटनाओ से जुड़े सार्थक प्रश्न तक पूछने की हिम्मत इन मीडियाकर्मियों को नहीं है। ऐसा लगता है कि अब हम खबर नहीं देख रहे बल्कि झूठ उगलने वाला प्रोपोगंडा देख रहे हैं। जिससे पूरे मीडिया जगत की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिह्न लग गया है।

तीसरी घटना हमारे मथुरा जिले की है। हमारे गांव जरेलिया का नौजवान पंकज सिंह श्रीनगर में हैलीकॉप्टर दुर्घटना मे शहीद हो गया। हम सब हजारों की तादात में उसकी शाहदत को प्रणाम करने उसके गांव पहुंचे और पांच घंटे तक वहां रहे। सैकड़ों तिरंगे वहां लहरा रहे थे। हजारों वाहन कतार में खड़े थे। सारा प्रशासन फौज और पुलिस मौजूद थी। जिले के सब नेता मौजूद थे। सैकड़ों गांवों की सरदारी मौजूद थी। वहां शहीद के सम्मान में गगन भेदी नारों से आकाश गूंज रहा था। इतनी बड़ी घटना हुई, पर किसी मीडिया चैनल ने इस खबर को प्रसारित नहीं किया। इस सब से शहीद पंकज सिंह के परिवार को ही नहीं, बल्कि लाखों ब्रजवासियों में भी भारी आक्रोश है। वे मुझसे प्रश्न पूछ रहे हैं कि आप खुद मीडियाकर्मी हैं, ये बताईये कि व्यर्थ की बातों पर चीखने-चिल्लाने वाले मीडिया चैनल एक शहीद की अन्त्येष्टि के इतने विशाल कार्यक्रम की क्या एक झलक भी अपने समाचारों में नहीं दिखा सकते थे। जिस शहादत में मोदी जी खड़े दिखाई दें क्या वही खबर होती है? अब इसका मैं उन्हें क्या जबाब दूँ? शर्म से सिर झुक जाता है, इन टीवी वालों की हरकतें देखकर। भगवान इन्हें सद्बुद्धि दें।

Monday, October 8, 2018

लद्दाख और श्रीनगर घाटी में अंतर

भारत का मुकुटमणि राज्य तीन हिस्सों में बंटा है- लेह लद्दाख, श्रीनगर की घाटी व आसापास का क्षेत्र और जम्मू। तीनों की संस्कृति और लोक-व्यवहार में भारी अंतर है। जबकि तीनों क्षेत्रों में एकसा ही नागरिक प्रशासन और सेना की मौजूदगी है। तीनों ही क्षेत्रों में आधारभूत ढांचे का विकास, आपातकालीन स्थितियों से निपटना और दुर्गम पहाड़ों के बीच क्षेत्र की सुरक्षा और नागरिक व्यवस्थाऐं सुनिश्चित करना, इन सब चुनौती भरे कार्यों में सेना की भूमिका रहती है।



जहां एक ओर कश्मीर की घाटी के लोग भारतीय सेना के साथ बहुत रूखा और आक्रामक रवैया अपनाते हैं, वहीं दूसरी ओर जम्मू में सेना और नागरिक आपसी सद्भभाव के साथ रहते हैं। लेकिन सबसे बढ़िया सेना की स्थिति लेह लद्दाख क्षेत्र में ही है। जहां के लोग सेना का आभार मानते हैं कि उसके आने से सड़कों व पुलों का जाल बिछ गया और अनेक सुविधाओं का विस्तार हुआ।



लेह लद्दाख की 80 फीसदी आबादी बौद्ध लोगों की है, शेष मुसलमान, थोड़े से ईसाई और हिंदू हैं। मूलतः लेख लद्दाख का इलाका शांति प्रिय रहा है। किंतु समय-समय पर पश्चिम से मुसलमान आक्रातांओं ने यहां की शांति भंग की है और अपने अधिकार जमाऐं हैं।



लेख लद्दाख के लोग भारतीय सेना से बेहद प्रेम करते हैं और उनका सम्मान करते हैं। उसका कारण यह है कि दुनिया के सबसे ऊँचे पठार और रेगिस्तान से भरा ये क्षेत्र इतना दुर्गम है कि यहां कुछ भी विकास करना ‘लोहे के चने चबाने’ जैसा है। ऊँचे-ऊँचे पर्वत जिन पर हरियाली के  नाम पर पेड़ तो क्या घास भी नहीं उगती, सूखे और खतरनाक हैं। इन पर जाड़ों में जमने वाली बर्फ कभी भी कहर बरपा सकती है। जोकि बड़े हिम खंडों के सरकने से और पहाड़ टूटकर गिरने से यातायात के लिए खतरा बन जाते हैं। तेज हवाओं के चलने के कारण यहां हैलीकाप्टर भी हमेशा बहुत सफल नहीं रहता।



ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों की श्रृंखला एक तरफ प्रकृति प्रेमियों को आकर्षित करती है, वहीं दूसरी तरफ आम पर्यटक को रोमांचित भी करती हैं। लद्दाख के लोग बहुत सरल स्वभाव के हैं, संतोषी हैं और कर्मठ भी। फिर भी यहां ज्यादा आर्थिक विकास नहीं हो पाया है। कारण यह है कि उन दुर्गम परिस्थतियों में उद्योग-व्यापार करना बहुत खर्चीला और जोखिम भरा होता है। वैसे भी जम्मू-कश्मीर राज्य में बाहरी प्रांत के लोगों को जमीन-जायदाद खरीदने की अनुमति नहीं है। लोग सामान्यतः अपने काम से काम रखते हैं। पर उन्हें एक शिकायत हम मैदान वालों से है।



आजकल भारी मात्रा में पर्यटक उत्तर-भारत से लेह लद्दाख जा रहे हैं। इनमें काफी बड़ी तादात ऐसे उत्साही लोगों की है, जो ये पूरी यात्रा मोटरसाईकिल पर ही करते हैं। हम मैदान के लोग उस साफ-सुथरे राज्य में अपना कूड़ा-करकट फैंककर चले आते हैं और इस तरह उस इलाके के पर्यावरण को नष्ट करने का काम करते हैं। अगर यही हाल रहा, तो आने वाले वर्षों में लेह लद्दाख के सुंदर पर्यटक स्थल कचड़े के ढेर में बदल जाऐंगे। इसके लिए केंद्र सरकार को अधिक सक्रिय होकर कुछ कदम उठाने चाहिए। जिससे इस सुंदर क्षेत्र का नैसर्गिक सौंदर्य नष्ट न हो।



लेह जाकर पता चला कि इस इलाके के पर्वतों में दुनियाभर की खनिज सम्पदा भरी पड़ी है। जिसका अभी तक कोई दोहन नहीं किया गया है। यहां मिलने वाले खनिज में ग्रेनाइट जैसे उपयोगी पत्थरों के अलावा भारी मात्रा में सोना, पन्ना, हीरा और यूरेनियम भरा पड़ा है। इसीलिए चीन हमेशा लेह लद्दाख पर अपनी गिद्ध दृष्टि बनाये रखता है। बताया गया कि जापान सरकार ने भारत सरकार को प्रस्ताव दिया था कि अगर उसे लेह लद्दाख में खनिज खोजने की अनुमति मिल जाऐ, तो वे पूरे लेह लद्दाख का आधारभूत ढांचा अपने खर्र्चे पर विकसित करने को तैयार है। पर भारत सरकार ने ऐसी अनुमति नहीं दी। भारत सरकार को चिंता है कि लेह लद्दाख के खनिज पर गिद्ध दृष्टि रखने वाले चीन से इस क्षेत्र की सीमाओं की सुरक्षा कैसे सुनिश्चित की जाऐ? क्योंकि आऐ दिन चीन की तरफ से घुसपैठिऐ इस क्षेत्र में घुसने की कोशिश करते रहते हैं। जिससे दोनों पक्षों के बीच झड़पैं भी होती रहती है।



जम्मू-कश्मीर की सरकार तमाम तरह के कर तो पर्यटकों से ले लेती है, पर उसकी तरफ से पूरे लेह लद्दाख में पर्यटकों की सुविधा के लिए कोई भी प्रयास नहीं किया जाता है। जबसे आमिर खान की फिल्म ‘थ्री इडियट’ की शूटिंग यहां हुई है, तबसे पर्यटकों के यहां आने की तादात बहुत बढ़ गई है। पर उस हिसाब से आधारभूत ढांचे का विस्तार नहीं हुआ। एक चीज जो चैंकाने वाली है, वो ये कि पूरे लेह लद्दाख में पर्यटन की दृष्टि से हजारों गाड़ियों और सामान ढोने वाले ट्रक रात-दिन दौड़ते हैं। इसके साथ ही होटल व्यवसाय द्वारा भारी मात्रा में जेनरेटरों का प्रयोग किया जाता है। पर पूरे इलाके में दूर-दूर तक कहीं भी कोई पैट्रोल-डीजल का स्टेशन दिखाई नहीं देता। स्थानीय लोगों ने बताया कि फौज की डिपो से करोड़ों रूपये का पैट्रोल और डीजल चोरी होकर खुलेआम कालाबाजार में बिकता है। क्या रक्षामंत्री श्रीमती निर्मला सीतारमन इस पर ध्यान देंगी?



लेह लद्दाख का युवा अब ये जागने लगा है और अपने हक की मांग कर रहा है। पर अभी हमारा ध्यान उधर नहीं है। अगर भारत सरकार ने उस पर ध्यान नहीं दिया, तो कश्मीर का आतंकवाद लेह लेद्दाख को भी अपनी चपेट में ले सकता है।

Monday, October 3, 2016

आतंकवाद से निपटने के लिए और क्या करें



छप्पन इंच का सीना रखने वाले भारत के लोकप्रिय प्रधान मंत्री नरेंद्र भाई मोदी ने वो कर दिखाया जिसका मुझे 23 बरस से इंतज़ार था | उन्होंने पाकिस्तान को  ही चुनौती नही दी बल्कि आतंकवाद से लड़ने की दृढ इच्छा शक्ति दिखाई है | जिसके लिए वे और उनके राष्ट्रीय सुरक्षा सलहाकार अजीत डोभाल दोनों बधाई के पात्र हैं | यहाँ याद दिलाना चाहूँगा कि 1993 में जब मैंने कश्मीर के आतंकवादी संगठन हिजबुल मुजाहिद्दीन को दुबई और लन्दन से आ रही अवैध आर्थिक मदद के खिलाफ हवाला काण्ड को उजागर कर सर्वोच्च न्यायलय में जनहित याचिका दायर की थी, तब किसी ने इस खतरनाक और लम्बी लड़ाई में साथ नहीं दिया | तब न तो आतंकवाद इतना बढ़ा था और न ही तब इसने अपने पैर दुनिया भर में पसारे थे | तब अगर देश के हुक्मरानों, सांसदों, जांच एजेंसियों और मीडिया ने आतंकवाद के खिलाफ इस लड़ाई में साथ दिया होता तो भारत को हजारों बेगुनाह और जांबाज़ सिपाहियों और अफसरों की क़ुरबानी नहीं देनी पड़ती | आज टीवी चैनलों पर जो एंकर परसन और विशेषज्ञ उत्साह में भर कर आतंकवाद के खिलाफ लम्बे चौड़े बयान दे रहे हैं वे 1993 से 1998 के दौर में अपने लेखों और वक्तव्यों को याद करें तो पायेंगे कि उन्होंने उस वक्त अपनी ज़िम्मेदारी का ईमानदारी से निर्वाह नहीं किया |

हवाला काण्ड उजागर करने के बाद से आज तक देश विदेश के सैंकड़ों मंचों पर, टीवी चैनलों पर और अखबारों में मैं इन सवालों को लगातार उठाता रहा हूँ | मुम्बई पर हुए आतंकी हमले के बाद देश के दो दर्जन बड़े उद्योगपतियों ने मुझे मुम्बई बुलाया था वे सब बुरी तरह भयभीत थे | जिस तरह आतंकवादियों ने ताज होटल से लेकर छत्रपति शिवाजी स्टेशन तक भारी नरसंहार किया उससे उनका विश्वास देश की पुलिस और सुरक्षा व्यवस्था पर से हिला हुआ था | वे मुझसे जानना चाहते थे कि देश में आतंकवाद पर कैसे काबू पाया जाय| जो बात तब मैंने उनके सामने रखी वही आज एक बार फिर दोहराने की जरूरत है | अंतर इतना है कि आज देश के भीतर और देश के बाहर श्री नरेंद्र मोदी को आतंकवाद से लड़ने में एक मजबूत नेतृत्व के रूप में देखा जा रहा है | साथ ही देशवासियों और दुनिया के तमाम देशों का आतंकवाद के विरुद्ध इकतरफा साझा जनमत है | ऐसे में प्रधान मंत्री अगर कोई ठोस कदम उठाते हैं तो उसका विरोध करने वालों को देशद्रोही समझा जायेगा और जनता ऐसे लोगों को सडकों पर उतर कर सबक सिखा देगी | हम सीमा पर लड़ने और जीतने की तय्यारी में जुटे रहें और देश के भीतर आईएसआई के एजेंट आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देते रहें तो यह लड़ाई नहीं जीती जा सकती | देश की ख़ुफ़िया एजेंसियों को इस बात की पुख्ता जानकारी है कि देश के 350 से ज्यादा शहरों और कस्बों की सघन बस्तियों में आरडीएक्स, मादक द्रव्यों और अवैध हथियारों का जखीरा जमा हुआ है जो आतंकवादियों के लिए रसद पहुँचाने का काम करता है | प्रधान मंत्री को चाहिए कि इसके खिलाफ एक ‘आपरेशन क्लीन स्टार’ या ‘अपराधमुक्त भारत अभियान’ की शुरुआत करें और पुलिस व अर्धसैनिक बलों को इस बात की खुली छूट दें जिससे वे इन बस्तियों में जाकर व्यापक तलाशी अभियान चलाएं और ऐसे सारे जखीरों को बाहर निकालें|

आतंकवाद को रसद पहुंचाने का दूसरा जरिया है हवाला कारोबार | वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के तालिबानी हमले के बाद से अमरीका ने इस तथ्य को समझा और हवाला कारोबार पर कड़ा नियन्त्रण कर लिया | नतीजतन तब से आज तक वहां आतंकवाद की कोई घटना नहीं हुई | जबकि भारत में पिछले 23 वर्षों से हम जैसे कुछ लोग लगातार हवाला कारोबार पर रोक लगाने की मांग करते आये हैं | पर ये भारत में बेरोकटोक जारी है | इस पर नियन्त्रण किये बिना आतंकवाद की श्वासनली को काटा नहीं जा सकता | तीसरा कदम संसद को उठाना है | ऐसे कानून बनाकर जिनके तहत आतंकवाद के आरोपित मुजरिमों पर विशेष अदालतों में मुकदमे चला कर 6 महीनों में सज़ा सुनाई जा सके | जिस दिन मोदी सरकार ये 3 कदम उठा लेगी उस दिन से भारत में आतंकवाद का बहुत हद तक सफाया हो जाएगा |

आज के माहौल में ऐसे कड़े कदम उठाना मोदी सरकार के लिए मुश्किल काम नहीं है | क्योंकि जनमत उसके पक्ष में है | आतंकवाद से पूरी दुनिया त्रस्त है | भारत में ही नहीं पाकिस्तान तक में आम जनता का जीवन आतंकवादियों ने खतरे में डाल दिया है | कौन जाने कब, कहाँ और कैसे आतंकवादी हमला हो जाय और बेकसूर लोगों की जानें चली जाएं | इसलिए हर समझदार नागरिक, चाहे किसी भी देश या धर्म का हो, आतंकवाद को समाप्त करना चाहता है | उसकी निगाहें अपने हुक्मरानों पर टिकी हैं | मोदी इस मामले में अपने गुणों के कारण सबसे आगे खड़े हैं | आतंकवाद से निपटने के लिए वे सीमा के पार या सीमा के भीतर जो भी करेंगे सब में जनता उनका साथ देगी |
जामवंत कहि सुन हनुमाना | का चुप साध रह्यो बलवाना ||

Sunday, April 22, 2012

सियाचिन में अमरीकी कूटनीति

अरूणाचल से लेकर कश्मीर तक की सीमाओं पर भारत को पाकिस्तान और चीन के मार्फत घेरने की अमरीका की कूटनीति का परिणाम है, पाकिस्तान के सेना प्रमुख अशफाक परवेज कयानी का ताजा बयान। देखने में यह बड़ा मनभावन लगता है। भारत के रक्षा राज्य मंत्री ने भी कूटनीतिक भाषा में इसका समर्थन किया है। 7 अप्रेल को सियाचीन में आए बर्फीले तूफान में पाकिस्तानी सेना ने अनेक सिपाही मारे गए। वहीं राहत कार्य देखने गए जनरल कयानी ने कहा कि पाकिस्तान और भारत दोनों को सियाचिन ग्लेशियर से फौजी जमावाड़ा हटा देना चाहिए। जिससे दुनिया के इस सबसे ऊँचे और जोखिम भरे रणक्षेत्र पर हो रहा खर्चा विकास कार्यों पर लग सके। दिल्ली ने भी इस बयान का स्वागत किया है। जबकि पाकिस्तान के अखबारों ने इस पर मिश्रित प्रतिक्रिया व्यक्त की है। सवाल है कि भारत और पाक के सम्बन्धों में मधुरता लाने के जो भी प्रयास अब तक दोनों देशों के चुने हुए नेताओं ने किए हैं, उनमें पलीता लगाने का काम पाकिस्तान का सैन्य नेतृत्व करता आया है। पाठकों को याद होगा कि जब भारत के गृहमंत्री पी0 चिदांबरम पाकिस्तान गए थे, तो हमने इसी कॉलम में लिखा था, ‘कयानी बिना वार्ता बेमानी’। कारण राजनैतिक निर्णयों को पाकिस्तान में तब तक लागू नहीं किया जा सकता जब तक उन्हें वहाँ की फौज और आई0एस0आई0 की स्वीकृति न मिले। फिर आज अचानक ऐसा क्या हो गया कि पाकिस्तान के जनरल की भाषा बदल गयी और वे मधुर सम्बन्धों और विकास की बात करने लगे?
दरअसल सियाचीन पर पाकिस्तान का कोई हक नहीं है। वहाँ घुसने की जबरदस्ती में पाकिस्तान लगातार मुँह की खाता रहा है। 20 हजार फुट ऊँचे बर्फ से ढके इन पर्वतों पर 1984, 1990, 95, 96, 99 में बार-बार पाकिस्तान की फौज ने कब्जा करने की कोशिश की और हर बार भारत की सेनाओं से मुँह की खाई। आज सियाचीन के ऊपरी हिस्सों पर भारत का आधिपत्य है। जबकि निचले हिस्सों पर पाकिस्तान की सेना तैनात है। सियाचीन में इस फौजी जमावड़े के कारण अब तक दोनों ओर के 2 हजार सैनिक खराब मौसम और छुटपुट युद्धों में मारे जा चुके हैं। उल्लेखनीय है कि दोनों देश अपनी-अपनी तरफ से इन संवेदनशील पहाड़ों पर देश और विदेशों के पर्वतारोही दलों को पर्वतारोहण की अनुमति देकर अपने आधिपत्य को प्रमाणित करने का अप्रत्यक्ष प्रयास करते रहे हैं। पाकिस्तान की तत्कालीन प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो भारत के प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम अपनी-अपनी तरफ से इन पहाड़ों का दौरा कर चुके हैं। जिसे विपरीत मौसम की परिस्थितियों के कारण उनका बहुत साहसभरा कदम माना गया।
भारत की पश्चिमी, उत्तरी और पूर्वी सीमाऐं पाकिस्तान, चीन, नेपाल, वर्मा व बांग्लादेश से जुड़ी हुई हैं। सामरिक दृष्टि से यह सीमाऐं काफी महत्व की हैं। खासकर अमरीका के लिए। क्योंकि यहाँ उसकी दखल से उसे दोहरा लाभ है। एक तरफ तो वह चीन की सीमाओं पर अपना दबाव बनाये रख सकता है और दूसरी तरफ यहीं से रूस के खिलाफ अपनी पकड़ बनाए रख सकता है। इसलिए अमरीकी कूटनीतिज्ञ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इन सीमा विवादों में भारी रूचि रखते हैं और इन विवादों का फायदा उठाने की फिराक में रहते हैं। अगर यह कहा जाए कि इन विवादों के पीछे अमरीका के अन्तर्राष्ट्रीय निहित स्वार्थ हैं, तो अतिश्योक्ति न होगी। इसलिए कयानी के ताजा बयान को बहुत महत्व देने की आवश्यकता नहीं है। अगर वास्तव में पाकिस्तान के सेना प्रमुख का हृदय परिवर्तन हो गया है, तो उन्हें भारत की पश्चिमी सीमाओं पर चले आ रहे अनावश्यक तनाव को कम करने की भी पहल करनी चाहिए। जिससे दोनों देशों के बीच नागरिक और व्यापारिक आदान-प्रदान सुगम हो सके। इसके साथ ही आई0एस0आई0 को नियन्त्रित करते हुए पाकिस्तान की भूमि पर पनप रहे आतंकवाद के अड्डों का सफाया करने की भी जोरदार पहल करनी चाहिए। पर ऐसा कुछ भी होने नहीं जा रहा। इसलिए कयानी के बयान का कोई गहरा मतलब निकालने की जरूरत नहीं है।
भारतीय उपमहाद्वीप के नागरिकों के लिए यह भारी दुख का विषय रहा है कि ब्रिटानी हुकूमत यहाँ से जाते-जाते मुल्क के दो टुकड़े करा गई। आजादी की लड़ाई में कंधे से कंधा मिलाकर लड़ने वाले हिन्दू और मुसलमानों के बीच हमेशा के लिए नफरत का जहर बो गई। जिसका खामियाजा दोनों देशों के आवाम और अर्थव्यवस्था को आज तक भुगतना पड़ा रहा है। दोनों देशों के बीच तनाव और सैनिक प्रतिस्पर्धा को बनाये रखना और बढ़ाते रहना विकसित देशों के हथियारों के सौदागरों के लिए भारी मुनाफे का सौदा है। सब जानते हैं कि अमरीका जैसे लोकतांत्रिक देश की भी विदेश नीति ऐसे ही निहित स्वार्थ नियन्त्रित करते हैं। इसीलिए लोकतंत्र की आड़ में अमरीकी सरकार और उसकी सी0आई0ए0 जैसी एजेंसी पूरे वैश्विक पटल पर शतरंज के खेल खेला करती है और दुनिया के देशों को मोहरों की तरह भिड़ाया करती है। कयानी के बयान को इसी परिपेक्ष्य में देखने की जरूरत है।