सारे भारत और विदेशों से लगभग पूरे वर्ष पर्यटक कुल्लु-मनाली (हिप्र) जाते
हैं। इत्तेफाक मेरा जाना पिछले हफ्ते 45 वर्ष बाद हुआ। 1974 में
कुल्लू-मनाली गया था। हसरत थी हिमाचल की गोद में बसे इन दो सुंदर पहाड़ी नगरों को
देखने की पर जाकर बहुत धक्का लगा।
कुल्लू और मनाली दोनों ही शहर बेतरतीब, अनियोजित, भौड़े और
अवैध शहरीकरण का भद्दा नमूना प्रस्तुत कर रहे थे। इस कदर निर्माण हुआ है कि इन
शहरों का प्राकृतिक सौंदर्य खत्म हो गया। कल-कल करती व्यास नदी के दो किनारे जो
कभी सुंदर वृक्षों से आच्छादित थे, आज होटलों और इमारतों भरे
हैं। जिनके पिछवाड़े की सब गंदगी व्यास नदी में जा रही है। पूरे इलाके में 'स्वच्छ भारत अभियान' का कोई प्रमाण नहीं दिखाई दिया।
जगह-जगह कूड़े के पहाड़, पहाड़ के ढलानों पर कूड़े के झरनेनुमा
एक बदनुमा दाग की तरह दिखाई देते हैं।
माना कि पूरे हिंदुस्तान में शहरीकरण पिछले चार दशकों में काफी तेजी से हुआ
है और कमोबेश इसी तरीके से हुआ है। पर कम से कम पर्यटक स्थलों को तो एक दूरदृष्टि
के साथ विकसित किया जा सकता था। हर शहर के लिए राज्य सरकारों ने विकास प्राधिकरण
बनाएं, जिनका काम शहरी विकास को नियोजित करना था। बजाय इसके
यह भ्रष्टाचार के अड्डे बन गए हैं। पैसे देकर कोई भी अवैध निर्माण स्वीकृत कराया
जा सकता है, फिर चाहे वह प्राकृतिक पर्यटक स्थल हों, ऐतिहासिक या फिर धार्मिक। सबकी दुर्गति एक जैसी हो रही है। जिसका जहां मन कर
रहा है, जैसा मन कर रहा है, वैसा
निर्माण अंधाधुंध कर रहा है। उसमें न तो कलात्मकता है और न ही स्थानीय वास्तुकला
की छाप। रेशम के कपड़ों पर टाट के पैबंद लगाए जा रहे हैं।
हिमाचल के तो सभी शहरों का यही हाल है, चाहे वो शिमला, विलासपुर
ह, मंडी या कांगड़ा हो सबका बेतरतीब विकास हो रहा है। वैसे तो
हिमाचल सरकार 'ग्रीन टैक्स' भी लेती है,
जिसका उद्देश्य हिमाचल के पर्यावरण की सुरक्षा करना है, पर ऐसा कोई प्रयास सरकार की तरफ से किया गया हो, नहीं
दिखाई देता।
नदियों और पहाड़ों के किनारे आधुनिक इंजीनियरिंग तकनीकि से कंक्रीट के बनाए गए बहुमंजिलीय
भवन पर्यावरण के लिए तो खतरा हैं ही, नागरिकों के जीवन के लिए भी खतरा हैं।
केदारनाथ की महाप्रलय हमारी आंखों से अभी ओझल नहीं हुई है। हिमाचल के शहरों को
देखकर यही आशंका प्रबल हुई कि कहीं किसी दिन केदारनाथ जैसी प्रलय का सामना
हिमाचलवासियों को न करना पड़े। हिमाचल में घर बनाने की पारंपरिक
तकनीकि सदियों पुरानी है। लकड़ी के लट्ठों के बीच पत्थर फंसाकर, उसमें मिट्टी का प्लास्टर लगा कर जो घर बनाए जाते थे, वो वहां के मौसम के अनुकुल थे। जाड़े में गरम और गरमी में ठंडे। इन मकानों
की खास बात यह है कि सैकड़ों सालों में आए बार बार भूचालों
में भी इनकी चूलें तक नहीं हिलीं। जबकि आधुनिक भवन भूकंप के हल्के से झटके से
भरभराकर गिर सकते हैं और गिरते हैं। इसके अलावा हिमाचल के लोग प्रायः मकान को
एक-दूसरे से सटाकर नहीं बनाते थे। हर मकान के चारों तरफ खुला इलाका होता था,
जिससे उसका सौंदर्य और भी बढ़ जाता था। पर आज जो निर्माण हो रहा है,
वो एक-दूसरे से सटाकर हो रहा है। इससे धरती पर दबाव तो बढ़ ही रहा है,
पर नागरिकों को भी प्रकृति प्रदत्त प्राकृतिक आनंद से वंचित रहना
पड़ता है। क्योंकि अब ये मकान दिल्ली के ओखला इलाके में
बने ऐसे ही अवैध निर्माणों का प्रतिबिंब हैं।
सवाल है कि मोटा वेतन लेने वाले सरकारी अधिकारी क्यों आंख बंद किए बैठे हैं? नेता भी कम दोषी नहीं,
जो अपने कार्यकर्ताओं को खुश करने के लिए हर तरह का अवैध निर्माण
प्रोत्साहित करते हैं।
ये सही है कि पर्यटन बढ़ने से हिमाचल के लोगों की आमदनी बहुत बढ़ी है। पर ऐसी
आमदनी का क्या लाभ, जो जीवन के नैसर्गिक सुख और सौंदर्य को छीन ले। कुल्लू और मनाली को देखकर
मुझे वही शेर याद आया कि ‘जिसे सदियों से संजों रखा था, उसे
अब भुलाने को दिल चाहता है...’।
ये तर्क ठीक नहीं आबादी या पर्यटन बढ़ने से यह नुकसान हुआ है। गत 34 वर्षों से कई बार यूरोप
के पर्वतीय पर्यटन क्षेत्र स्विट्जरलैंड जाने का मौका मिला है। पर इन 34 वर्षों में इस तरह की गिरावट का एक भी चिह्न देखने को वहां नहीं मिला। स्विट्जरलैंड
की सरकार हो या यूरोप के अन्य पर्यटन केंद्रों की सरकारें, अपने
प्राकृतिक और सांस्कृतिक वैभव को बिगड़ने नहीं देती। पर्यटन वहां भी खूब बढ़ रहा है,
पर नियोजित तरीके से उसको संभाला जाता है और धरोहरों और प्रकृति से
छेड़छाड़ की अनुमति किसी को नहीं है। हम ऐसा क्यों नहीं कर सकते ?
यह प्रश्न मैंने ब्रज के विकास के संदर्भ में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्रियों और
भारत के प्रधानमंत्रियों के समक्ष पिछले 15 वर्षों में अलग-अलग स्तर पर, अलग-अलग माध्यम से कई बार उठाया है कि ब्रज की सांस्कृतिक और प्राकृतिक विरासत
की अवहेलना करके उसे विकास के नाम पर विद्रूप किया जा रहा है। नवगठित 'ब्रज तीर्थ विकास परिषद् ' भी नई बोतल में पुरानी
शराब है। जो योजनाएं ये बना रहे हैं, उससे ब्रज ब्रज नहीं
रहेगा।
जरूरत इस बात की है कि भारत के तीर्थांटन और पर्यटन की दृष्टि से
महत्वपूर्णस्थलों के विकास की अवधारणा को एक राष्टव्यापी बहस के बाद ठोस मूर्त रूप
दिया जाए और उससे हटने की आजादी किसी को न हो। कम से कम भविष्य का विकास (?) विनाशकारी तो न हो।
क्या कोई हमारी बात सुनेगा या फिर भारत की महान धरोहरों का डंका पीट-पीटकर उन्हें
गंदी बस्तियों में परिवर्तित करता रहेगा ?
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