कभी-कभी पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता दिखाने वाले अतिउत्साह में कुछ ऐसे कदम उठा लेते हैं, जिससे लाभ की जगह नुकसान हो जाता है। वाराणसी में गंगा के किनारे दर्जनों ऐतिहासिक घाट हैं, जिन्हें कई सदियों पूर्व देश के विभिन्न अंचलों के राजा-महाराजाओं ने बनवाया था। इन घाटों की शोभा देखते ही बनती है, ये वाराणसी की पहचान हैं। दुनियाभर से पर्यटक 12 महीने वाराणसी आते हैं और इन घाटों को देखकर मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। दुनिया का कोई देश या नगर ऐसा नहीं, जहां किसी नदी के किनारे इतने भव्य, महलनुमा घाट बने हों। काल के प्रभाव से अब इन घाटों के अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया है। जिसके लिए एक तो उच्च न्यायालय का स्थगन आदेश और एक ‘कछुआ सेंचुरी’ जिम्मेदार है।
प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में गंगा के 87 घाट हैं। पिछले कई वर्षों से उच्च न्यायालय के आदेश के तहत इनका जीर्णोद्धार रूका हुआ है। इन ऐतिहासिक घाटों को खरीदकर उन्हें होटल बनाने या उन पर भवन निर्माण करने की होड़ से चिंतित कुछ पर्यावरणविद्ों ने जनहित याचिका के माध्यम से ये रोक लगवाई। किंतु इससे उन घाटों के अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया है, जिनकी संरचना काफी कमजोर पड़ चुकी है। अगर इनकी मरम्मत नहीं की गई, तो ये चरमराकर गिर सकते हैं। जो धरोहरों की दृष्टि से एक भारी क्षति होगी। जबसे नरेंद्र भाई मोदी ने वाराणसी को अपनाया, तबसे अनेक औद्योगिक घराने, सार्वजनिक उपक्रम व केंद्र सरकार के मंत्रालय वाराणसी को सजाने की मुहिम में जुट गए हैं। इसी क्रम में केंद्रीय सरकार के कुछ मंत्रालयों ने मिलकर उच्च न्यायालय से सीमित जीर्णोद्धार की अनुमति मांगी, जो सशर्त उन्हें मिल गई। अब कुछ घाटों पर जीर्णोद्धार का कार्य चालू है।
ये वास्तव में चिंता की बात है कि कुछ निजी उद्यमियों ने इनमें से कुछ घाटों को औने-पौने दामों में खरीदकर इन्हें हैरिटेज होटल के रूप में बदलना शुरू कर दिया है। ये होटल मालिक पुरातत्व महत्व के इन भवनों में बदलाव करने से भी नहीं चूकते। होटल की सीवर लाइन चुपचाप गंगा में खोल देते हैं। इससे घाटों पर विपरीत असर पड़ रहा है। पर इसके साथ ही जो दूसरी बड़ी समस्या है, वह है गंगा के उस पार बनाई गई ‘कछुआ सेंचुरी’। कछुओं को अभयदान देने की दृष्टि से गंगा के उस पार बालू के खनन पर लंबे समय से रोक लगी है। इसका उद्देश्य था कि इस क्षेत्र में कछुओं का जीवन सुरक्षित रहे और उनके कुनबे में वृद्धि हो, ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। गंगा का प्रदूषण हो या कोई अन्य कारण, ‘कछुआ सेंचुरी’ में कछुए दिखाई नहीं देते। बालू का खनन रोकने का नुकसान ये हुआ है कि गंगा के उस पार रेत के पहाड़ बनते जा रहे हैं, क्योंकि गंगा इस इलाके से वक्राकार स्थिति में आगे बढ़ती है। इसलिए उसके जलप्रवाह के साथ निरंतर आने वाली बालू यहां जमा होती जाती है।
रेत के इन पहाड़ों के कारण उस पार का गंगातल ऊंचा हो गया है। नतीजतन, जल का सारा प्रवाह घाटों की तरफ मुड़ गया है। सब जानते हैं कि जल की ताकत के सामने बड़ी-बड़ी इमारतें भी खड़ी नहीं रह पातीं। जापान और भारत के सुनामी इसके गवाह हैं। वाराणसी में गंगा के इस तरह बहने से बड़े वेग से आने वाला गंगाजल घाटों की नींव को काट रहा है। नतीजतन उनका आधार दरकता जा रहा है। काशीवासियों को चिंता है कि अगर इसका समाधान तुरंत नहीं खोजा गया, तो कभी भी भारी आपदा आ सकती है। केदारनाथ की जलप्रलय की तरह यहां भी गंगा इन ऐतिहासिक घाटों को लील सकती है। इस विषय में पुरातत्वविद्ों और नगर के जागरूक नागरिकों ने अनेक बार सरकार का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया है। पर अभी तक कोई सुनवाई नहीं हुई।
पिछले 3 महीनों से गंगा में हर साल की तरह भारी बाढ़ आई हुई है। घाटों की सीढ़ियां लगभग 2 महीने से पूरी तरह जलमग्न हैं। यह गंगा का वार्षिक चरित्र है। ऐसे में इन घाटों के लिए खतरा और भी बढ़ जाता है। आवश्यकता इस बात की है कि केंद्र सरकार और राज्य सरकार साझे रूप में कुछ निर्णय ले। जिनमें पहले तो ‘कछुआ सेंचुरी’ को समाप्त किया जाए और वहां बालू के खनन की अनुमति दी जाए। जिससे जल का दबाव घाटों की तरफ से घटकर गंगा के उस पार चला जाए। दूसरा इन घाटों के संरक्षण के लिए एक सुस्पष्ट नीति घोषित की जाए। जिसके तहत घाटों का मूलरूप सुरक्षित रखते हुए जीर्णोद्धार करने की अनुमति हो, लेकिन इनके व्यवसायिक दुरूपयोग पर पूरी रोक लगा दी जाए। तीसरा हर घाट को किसी औद्योगिक घराने या सार्वजनिक उपक्रम के जिम्मे सौंप दिया जाए, जो इसकी देखरेख करे और वहां जनसुविधाओं का व्यवस्थित संचालन करे। ऐसा करने से इन घाटों की रक्षा भी हो सकेगी और वाराणसी की यह दिव्य धरोहरें आने वाली सदियों में भी पर्यटकों और तीर्थयात्रियों को सुख प्रदान करती रहेंगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि प्रधानमंत्री कार्यालय इस विषय में कुछ पहल करेगा और काशीवासियों को इस संकट से उबारेगा।