Monday, February 25, 2013

महाकुम्भ की व्यवस्था सराहनीय

इलाहाबाद का कुम्भ अब अपने अंतिम दौर में है। इस बार कुम्भ की व्यवस्थाओं को लेकर हर ओर उ0प्र0 शासन की वाहवाही हो रही है। हालांकि भाजपा नेता डा0 मुरली मनोहर जोशी ने कुम्भ के लिए केन्द्र सरकार से मिले सैंकड़ों करोड़ के अनुदान के दुरूपयोग की जांच का मुद्दा उठाया है। इतने बड़े आयोजन में इस तरह का आरोप लगना कोई असामान्य बात नहीं है। अगर घोटाला हुआ होगा तो जांच भी होगी और जांच होगी तो कुछ तथ्य बाहर भी आयेंगे। अभी हम उस पचड़े में नहीं पड़ना चाहते।
व्यवस्था में खामियां देखने की आदत वाले लोग चाहें विपक्ष में हों या मीडिया में, सबने एक सुर से इलाहाबाद कुम्भ के आयोजन की खूब तारीफ की है। मौनी अमावस्या को रेलवे स्टेशन पर हुए हादसे को अगर एक अप्रत्याशित दुःखद घटना माना जाऐ तो बाकी सब मामलों में कुम्भ मेला अब तक पूरी तरह सफल रहा है। उ0प्र0 सरकार का आरोप है कि रेलवे स्टेशन का हादसा रेल मंत्रालय की लापरवाही से हुआ, जबकि रेल मंत्रालय इसके लिए मेला प्रशासन को जिम्मेदार ठहराता है। इसके अलावा कोई ऐसी महत्वपूर्ण घटना नहीं हुई जहाँ जान और माल की हानि हुई हो। यह तारीफ की बात है। वरना करोड़ों लोगों के जमावाड़े को अनुशासित और नियन्त्रित रखना एक बहुत बड़ी चुनौती थी। जिसके लिए मेला प्रभारी आजम खान, उ0प्र0 के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और उ0प्र0 के मुख्य सचिव जावेद उस्मानी विशेषरूप से बधाई के पात्र हैं। जिन्होंने रात-दिन बड़ी तत्परता से अपने अफसरों की टीम को निर्देश दिये और उनके काम पर निगरानी रखी।
इससे यह सिद्ध होता है कि कोई भी आयोजन क्यों न हो, अगर आयोजक कमर कस लें और संभावित समस्याओं के हल पहले ही ढूंड लें, तो इन सामाजिक उत्सवों और मेलों में कोई अप्रिय हादसे होए ही न। इसके लिए जरूरत होती है ऐसे अफसरों की टीम की, जिसे इस तरह के आयोजन का पूर्व अनुभव हो। जरूरत होती है ऐसी ट्रैफिक व्यवस्था की जो निर्बाध गति से चलता रहे। इसके साथ ही जरूरत होती है ऐसी एजेंसियों की जो मेलों में जमा होने वाले कूड़े-करकट और गन्दगी को आनन-फानन में साफ कर दे ताकि वहाँ गन्दगी न फैले और बीमारी फैलने की संभावना न रहे। इसके साथ ही शहर में जब करोड़ों लोग बाहर से आते हैं, तो फल सब्जी, दूध, राशन आदि की मांग अचानक हजारों गुना बढ़ जाती है। ऐसे में दुकानदार दाम बढ़ाकर तीर्थयात्रियों को निचोड़ने में कसर नहीं रखते। पर इतने बड़े आयोजन के बावजूद इलाहाबाद के कुम्भ के कारण इलाहाबाद शहर में कहीं कोई अभाव नहीं रहा और दाम भी बाजिव रहे।  इन सब मामलो में इस बार के कुंभ की व्यवस्थाओं की काफी तारीफ हुई है।
जहाँ एक तरफ प्रशासन ने कुम्भ मेले के आयोजन में कहीं कोई कसर नहीं छोड़ी, वहीं देश के नामी मठाधीशों ने अपने-अपने सम्प्रदाय के अखाड़े गाढ़कर कुंभ को काफी रंग-बिरंगा बना दिया। कुछ अखाड़े तो पाँच सितारा होटलों को भी मात कर रहे हैं। जहाँ सबसे ज्यादा विदेशी और अप्रवासी आकर ठहर रहे हैं। इतने विशाल आयोजन में बच्चों के अपहरण और महिलाओं के साथ अशोभनीय व्यवहार की काफी संभावना रहती है। लेकिन उ0प्र0 पुलिस की मुस्तैदी से ऐसी घटनाओं की यहाँ झलक देखने को नहीं मिली।
पिछले बारह सालों में देश का टी.वी. मीडिया कई गुना बढ़ गया है। इसलिए इस बार का विशेष आकर्षण यह रहा कि पचासों चैनलों ने रात-दिन इलाहाबाद कुम्भ के हर पल को खूब विस्तार से प्रस्तुत किया। इसका असर यह हुआ कि सीमांत भावना वाले वे लोग जो प्रायः ऐसे धार्मिक मेले उत्सवों में जाने से घबराते हैं, बड़ी तादाद में इलाहाबाद कुम्भ नहाने पहुँचे। खासकर युवाओं में इसका भारी क्रेज देखा गया। देश के कोने-कोने से युवा व अन्य लोग संगम पर डुबकी लगाने आये।
यह उल्लेख करना अनुचित न होगा कि देश के मन्दिरों व अन्य तीर्थस्थलों पर मेलों और पर्वों के समय बदइंतजामी के कारण अक्सर बड़ी-बड़ी दुर्घटनाऐं होती रहती हैं, जिनमें सैंकड़ों जाने चली जाती हैं। पर फिर भी स्थानीय प्रशासन कोई सबक नहीं सीखता। जिस तरह भारत सरकार ने आपदा प्रबन्धन बोर्ड़ बनाया है उसी तरह देश को एक उत्सव प्रबन्धन बोर्ड की भी जरूरत है। जिसमें ऐसे योग्य और अनुभवी अधिकारी विभिन्न राज्यों से बुलाकर तैनात किये जायें। यह बोर्ड मेले आयोजनों की आचार संहिता तैयार करें और कुछ मानक स्थापित करें। जिनकी अनुपालना करना हर जिले व राज्य में अनिवार्य किया जाये। इससे न सिर्फ हादसे होने से बचेंगे, बल्कि पूरे देश में उत्सवों के प्रबन्धन की कार्यक्षमता में गुणात्मक सुधार आयेगा। इसके साथ ही ऐसी परिस्थितियों में राज्य सरकारों को अनुभवहीन अधिकारियों के निर्णयों पर निर्भर रहना नहीं पड़ेगा। उनके पास हमेशा कुशल और अनुभवी सलाह मौजूद रहेगी। इसके साथ ही मेलों के आयोजन में काम आने वाले ढांचों को स्थायी, फोल्डिंग और व्यवहारिक बनाने की जरूरत है। जिससे साधनों का दुरूपयोग बचे और हर मेले के आयोजन में एक सुघड़ता दिखाई दे। फिलहाल इलाहाबाद कुंभ में भारी मात्रा में बांस, बल्ली और रस्सी का सहारा लिया गया है। जबकि इस सबके लिए प्री-फैब्रिकेटेड ढांचे तैयार किये जा सकते थे। कई दशकों से गणतंत्र दिवस की परेड की तैयार ऐसे ही बांस, बल्ली गाढ़कर की जाती थी। पर पिछले कुछ वर्षों से इसमें गुणात्मक परिवर्तन आया है। अब राजपथ पर लगने वाले स्टॉल प्री-फैब्रिकेटेड होते हैं। वे जल्दी लगते हैं। टिकाऊ और मजबूत होते हैं और जल्दी ही उन्हें समेटा जा सकता है। इससे पैसे की भी भारी बचत होगी।

Monday, February 18, 2013

अपनों ने मारा पोंटी को?

 
पोंटी चढ्डा और उनके भाई हरदीप चढ्डा के दोहरे हत्याकांड के लिए पुलिस ने आरोप पत्र दाखिल कर दिया है। जिनके अनुसार इन दोनों भाईयों की हत्या उनके अपने ही लोगों ने की है। जिनमें उनके विश्वसनीय सहयोगियों और सुरक्षाकर्मियों का नाम प्रमुखता से लिया गया है। यह बिल्कुल बॉलीवुड फिल्म की तरह की कहानी है। मुरादाबाद में चढ्डा परिवार ने अपनी कारोबारी जिन्दगी शुरू की, यह बात सन् 1967-68 के दौरान की होगी। हम भी उसी शहर में रहते थे। हम इस परिवार के बारे में जानते थे। मुरादाबाद के रामपुर रोड पर तब पोंटी चढ्डा के पिता ने अपनी पहली शराब की दुकान खोली थी। उसके कुछ दिन बाद चढ्डा टॉकिज के नाम से सिनेमाहॉल भी खोला। फिर ये शराब के कारोबार में घुस गये। देखते ही देखते पंजाब, हरियाणा, उ0प्र0, उत्तराखण्ड में इनका शराब का भारी कारोबार फैल गया। हाल के वर्षों में तो यह बात हर आदमी जानता था कि बसपा की सरकार हो या सपा की, पोंटी चढ्डा इन दोनों ही सरकारों के साथ हजारों करोड़ के कारोबार में शामिल था।
पर अंत में क्या मिला? जिस वैभव को जमा करने के लिए इस खानदान ने धरती और आकाश एक कर दिया, उसे भोगने से पहले इस खानदान के दो स्तंभ धराशायी हो गये। ऐसी कहानियां धर्म ग्रंथों से लेकर फिल्मों में बार-बार दोहराई जाती हैं। पर फिर भी हमें कोई सबक नहीं मिलता। बिना मेहनत किये अगर आसानी से हम धन, सम्पत्ति को दिन दूना और रात चैगुना करने का मौका मिले तो हममें से शायद बहुत कम होंगे जो इस लोभ से बच पायेंगे। आज की दुनिया का माहौल ऐसा बन गया है कि जिसके पास दौलत है, उसकी तूती बोलती है। फिर चाहें वो राजनीति में हो, उद्योग व्यापार में हो, धन के कारोबार में हो, नौकरशाही में हो या फिर मीडिया में। कोई नहीं पूछता कि तुमने इतना धन कैसे और कहां से कमाया? पैसे से समाज के लिए वे आदर्श समाप्त होते जा रहे हैं, जो कभी ‘सादा जीवन और उच्च विचार’ की प्रेरणा दिया करते थे। इसलिए चारों तरफ होड़ लगी है, किसी भी तरह ज्यादा से ज्यादा धन कमाने की। नैतिकता, समाज की संवेदनशीलता और समाज में अपनी छवि की परवाह किये बिना आदमी आगे बड़ रहा है। पहले एक हाजी मस्तान का नाम ऐसे उदाहरण के तौर पर लिया जाता था। आज हर शहर में हाजी मस्तानों की कतार लग गयी है। इसका सबसे ज्यादा बुरा असर नौजवानों पर पड़ रहा है। ये नये पनपते हाजी मस्तान अपने कारोबार में इन नौजवानों को प्रलोभन देकर खींच लेते हैं। फिर इनसे हर वो अवैध काम करवाते हैं जिसमें कभी भी पकड़े जाने या मारे जाने का खतरा होता है। इस तरह ये नौजवान अपराधियों की श्रेणी में आ जाते हैं। जिसका इनाम इनकी औकात से कई गुना ज्यादा मिलता है। शुरू में तो इनके घरवालों और परिजनों को आश्चर्य होता है कि अचानक उनका सपूत ऐसी मोटी कमाई किस धंधे में कर रहा है? पर जल्दी ही उसके रंग-ढंग से उन्हें संदेह होने लगता है। पर तब तक उन्हें भी मुफत की कमाई का मजा आने लगता है। इसलिए वे रोकते नहीं। एक दिन ऐसा भी आता है जब वही सपूत संगीन अपराध में पकड़ा जाता है या हत्या जैसे किसी जुर्म में शामिल होता है। पोंटी चढ्डा की हत्या के आरोपियों की भी ऐसी ही कहानी मिलेगी।
अब सवाल उठता है कि क्या पोंटी चढ्डा की हत्या के आरोपियों को सजा मिलने भर से समाज में ऐसे अपराधों के प्रति डर पैदा हो जायेगा? क्या इन लोगों को जल्दी सजा मिल पायेगी? क्या उस सजा से ऐसे अपराध होना बंद हो जायेंगे? उत्तर है, नहीं। तो फिर क्या किया जाये? अभी भारत की परिस्थितियां इतनी नहीं बिगड़ी हैं कि पानी सिर से गुजर जाये। छोटे कस्बों और देहातों का समाज अभी भी नैतिकता के मूल्यों से जुड़ा है। यह गंदगी तो महानगरीय संस्कृति के साथ उभरे उपभोक्तावाद ने पैदा की है। इसलिए पूरे देश के नेतृत्व को आत्ममंथन की जरूरत है।  अगर हम चाहते हैं कि समाज में शांति, नैतिकता और मेहनत के प्रति आस्था बनी रहे, तो हमें तेजी से पनप रही इन प्रवृत्तियों पर रोक लगानी होगी। अन्यथा हमारा समाज भी मैक्सिको के ड्रग माफिया जैसे नियन्त्रकों के हाथ में चला जायेगा और तब हम उसके सामने असहाय होंगे।
इसके लिए केवल सख्त कानून बनाने से ही काम नहीं चलेगा। मीडिया नीति भी बदलनी होगी। मनोवैज्ञानिकों और समाजशास्त्रियों की राय पर ध्यान देना होगा। धर्म गुरूओं को हीरे-जवाहरात और मुकुट मणियों के अलंकरण से मुक्त होकर गुरूनानक देव, कबीर और रैदास जैसे आचरण से समाज को सद्ज्ञान देना होगा। कुल मिलाकर समाज का हर वह व्यक्ति या वर्ग जो एशोआराम में डूबा है, उसे आत्ममंथन करना होगा। कहीं ऐसा तो नहीं कि कुछ का ऐशोआराम बाकी समाज के लिए अभिशाप बन जाये।

Monday, February 11, 2013

अफजल गुरू को फांसी और मीडिया की भूमिका

आखिरकार भारतीय संसद के ऊपर हमले के आरोपी अफजल गुरू को तिहाड़ जेल में फांसी दे दी गयी। इस घटना की जैसी सनसनी फैलनी चाहिए थी, वह नहीं फैली। हांलाकि टी0वी0 चैनलों ने इसकी पुरजोर कोशिश की। कारण यह कि मौहम्मद कसाब को मिली फांसी के बाद इस तरह की फांसी को लेकर लम्बे समय से चली आ रही उत्सुकता पहले ही खत्म हो चुकी थी। एक ही घटना पर बार-बार एक सी सनसनी नहीं पैदा की जा सकती। इसलिए जिन्होंने सोचा होगा कि इस तरह की फांसियों से अल्पसंख्यक समुदाय का एक वर्ग उत्तेजित होगा और बहुसंख्यक समुदाय का एक वर्ग इसका राजनैतिक लाभ उठायेगा, वे अपने मंसूबे में नाकामयाब रहे। क्योंकि दोनों ही वर्गों ने इसे एक अपराधी को मिलने वाली सामान्य सजा के रूप में लिया। कुछ राजनेताओं ने इसे देर से लिया गया सही निर्णय बताया। सही तो उन्हें इसलिए कहना पड़ा चूंकि वे इसकी मांग लम्बे समय से कर रहे थे। देर से लिया बताकर वे शायद सरकार की कमजोरी सिद्ध करना चाहते हैं। पर यह उनकी समझ की कमी है। अपराध का इतिहास बताता है कि फांसी से ज्यादा फांसी का डर आदमी को मार डालता है। मौहम्मद कसाब हो या अफजल गुरू, जब वे आतंकवादियों के षडयंत्र का हिस्सा बने, तो उनका दिमाग इस बात के लिए तैयार था कि घटना को अंजाम देते ही वे गोलियों का शिकार बन जाऐंगे। यानि वे मरने को तैयार थे। ऐसे में फौरन फांसी देकर कोई लाभ नहीं होता। उन्हें इतने समय तक जिंदा रखकर जो मानसिक यातना मिली होगी, उसने उन्हें हर पल मारा होगा। मरने के बाद तो आदमी को दुख और दर्द का कुछ पता ही नहीं चलता। पर मरने से पहले उसके दिल और दिमाग में अनेकों उतार-चढ़ाव आते हैं, जो उसे बुरी तरह हिला देते हैं। इसके साथ ही उन्हें लम्बे समय तक गिरफ्तार रखकर आतंकवादियों को यह संदेश दिया गया कि उनकी ऐसी गिरफ्तारी संभव है। इससे आतंकवाद का यह विषय लम्बे समय तक चर्चाओं में बना रहा। जिससे एक खास संदेश आतंकवादियों के बीच गया।
पर सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जब कभी कोई आतंकवादी या अण्डरवल्र्ड डान या कुख्यात अपराधी या डकैत मारा जाता है, तो मीडिया उसके मानवीय पक्षों को दिखाकर उसे नाहक शहादत देता है। इससे समाज का भारी अहित होता है। आतंकवादी घटनाऐं हों या माफिया आॅपरेशंस, इनका मकसद यही होता है कि सनसनी पैदा की जाये और उसकी चर्चा समाज में हो। ताकि लोगों में एक खौफ पैदा हो। इसलिए इस तरह के अपराधों से जुड़े लोग मीडिया के साथ अच्छा व्यवहार करते हैं। जिससे उन्हें यश मिले, चाहें वह अपयश ही क्यों न हो। फिर तो लोग उनके नाम से भी डरने लगते हैं। जब बन्दूक चलाये बिना फिरौती मिल जाये या रंगदारी मिल जाये तो बन्दूक चलाने की क्या जरूरत है। इसलिए मीडिया को इस विषय में आत्मचिंतन करना चाहिए। अफजल गुरू की फांसी के बाद जिस तरह के पुराने साक्षात्कार टी0वी0 चैनलों पर दिखाये गये, उससे नाहक अफजल गुरू के प्रति समाज के एक तबके का दिल जीतने की नाकाम कोशिश की गयी। इससे बचा जाये तो अच्छा है।
इस पूरे मामले में केन्द्रीय सरकार से एक भयंकर भूल हुई। जब उसके पास मौहम्मद कसाब जैसा अल्हड़, युवा, बेपढ़ालिखा, पाकिस्तानी आतंकवादी था और दूसरी तरफ अफजल गुरू जैसा पढ़ा-लिखा समझदार आतंकवादी था तो उसे इन दोनों के ऊपर अपराध शास्त्र विशेषज्ञों व मनोवैज्ञानिकों से गहन शोध करवाना चाहिए था। इससे आतंकवाद की मानसिकता को गहराई से समझने में सफलता मिलती। यह किसी से छुपा नहीं है कि आतंकवाद को लेकर अपराधशास्त्र के विशेषज्ञों से अभी तक कोई ठोस व उल्लेखनीय शोध नहीं करवाया गया है।
अफजल गुरू की फांसी का राजनैतिक लाभ किसी को मिलेगा या नहीं, यह हमारी चिंता का विषय नहीं है। पर इस बात की समझ जरूर विकसित होनी चाहिए कि आतंकवाद के सही कारण क्या हैं और क्या उनके निदान उपलब्ध हैं? अगर निदान उपलब्ध हैं तो उन्हें अपनाया क्यों नहीं जाता? ऐसे गंभीर विषयों पर समाज, संसद व मीडिया में लम्बी बहस की जरूरत है, जिससे हम इस समस्या से निजात पा सकें। पर देखने में यह आया है कि इन तीनों ही तबकों में इस तरह की कोई बात कभी नहीं होती। जहां होती है, वहां इकतरफा होती है। माक्र्सवादी विचारधारा के लोग आतंकवाद को आर्थिक व राजनैतिक व्यवस्था की विफलता का परिणाम बताते हैं। धर्मांन्धता के चश्मे से समाज को देखने की आदत रखने वाले इसे जिहाद बताते हैं और स्वंय को राष्ट्रवादी बताने वाले इसे तुष्टीकरण का परिणाम बताते हैं और ऐसे सुझाव देते हैं जो व्यवहारिक धरातल पर खरे नहीं उतरते। उनसे केवल भावनाऐं भड़कायी जा सकती हैं। हिंसा पैदा की जा सकती है। प्रतिशोध की ज्वाला भड़कायी जा सकती है। पर आतंकवाद का हल नहीं ढूंढा जा सकता। इसलिए निष्पक्ष और गहन अध्ययन व लंबी बहस की बेहद जरूरत है।

Monday, February 4, 2013

राज्यों में मजबूत लोकपाल गठित करने कि जरूरत

सत्यव्रत चतुर्वेदी की अध्यक्षता वाली संसदीय समिति ने जो प्रस्ताव सरकार को सौंपे, वे प्रशंसनीय हैं। फिर भी अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। लोकपाल के गठन और अधिकारों को लेकर जो कुछ इस समिति ने सुझाया है, वह काफी हद तक लोकतांत्रिक प्रक्रिया का एक मॉडल है, जिस पर संसद में आम सहमति होनी चाहिए। जहाँ तक लोकपाल के अधिकारों की बात है, उसे केवल मंत्रियों और राजनेताओं के भ्रष्टाचार की जांच करने का अधिकार दिया जाना चाहिए। अन्यथा उसका कार्यक्षेत्र इतना बढ़ जाऐगा कि लोकपाल एक कागजी शेर बनकर रह जाऐगा। इतना ही नहीं अगर सरकार के सभी कर्मचारियों को लोकपाल के अधीन किया जाता है, तो इसे कम से कम 6 लाख जांच अधिकारियों को नियुक्त करना पड़ेगा। जिनका चयन, उनकी ईमानदारी की परीक्षा और उनको दिए जाने वाला वेतन, यह इतने जटिल सवाल हैं कि इनका हल असंभव है। इसलिए टीम अन्ना की यह मांग उचित नहीं। पर टीम अन्ना की इस मांग का समर्थन किया जाना चाहिए कि अगर उच्च पदासीन मंत्रियों और राजनेताओं के भ्रष्टाचार की जांच के बाद लोकपाल को उनके विरूद्ध भ्रष्टाचार के समुचित प्रमाण मिलते हैं तो इन लोगों को मिलने वाली सजा के अलावा इनकी अवैध सम्पत्ति जब्त करने का अधिकार लोकपाल को मिलना चाहिए। तभी भ्रष्टाचारियों के मन में भय पैदा होगा।
लोकपाल और सीबीआई के संबन्धों पर जो सुझाव इस समिति ने दिए हैं, वे निश्चित रूप से एक कदम आगे बढ़ने वाले हैं, जिनका परीक्षण किया जाना चाहिए। अगर परिणाम उत्साहजनक आते हैं, तो इस दिशा में और भी प्रगति की जा सकती है। जहाँ तक सीबीआई को पूरी स्वायत्तता देने की बात है, ऐसा किसी भी दल की कोई सरकार कभी नहीं मानेगी। लेकिन सीबीआई को सीवीसी यानि केन्द्रीय सतर्कता आयोग के अधीन किया जाना चाहिए। अभी सीवीसी को केवल सीबीआई के कामकाज पर निगरानी रखने का अधिकार मिला है, जो नाकाफी है। सीबीआई अभी भी सरकार के सीधे आधीन है। सीबीआइ और सीवीसी दोनों को ही वित्तीय स्वायत्तता नहीं है। इसलिए वे सरकार के रहमो करम पर निर्भर रहती हैं। जब तक इन्हें वित्तीय स्वायत्तता नहीं मिलेगी, तब तक सरकार में बैठे अफसर चाहें जब इनकी कलाई मरोड़ते रहेंगे।
अब सवाल उठता है कि लोकपाल और सीवीसी के बीच कार्य का विभाजन किस तरह हो? जैसा कि हम शुरू से कहते आए हैं कि आदर्श स्थिति तो यह है कि लोकपाल केवल मंत्रियों और विधायिका के सदस्यों के भ्रष्ट आचरण की जांच करे और सीवीसी उच्च अधिकारियों से लेकर मझले स्तर तक के अधिकारियों के भ्रष्टाचार की जांच करे। इस तरह दोनों के कार्यक्षेत्र स्पष्टतः विभाजित रहेंगे। सी0बी0आई0 को इन दोनों ही संस्थाओं के आदेशानुसार मामला दर्ज करने, जांच करने, समय-समय पर जांच रिपोर्ट प्रस्तुत करने के प्रावधान किये जाऐं। जिससे लोकपाल व सी0वी0सी0 अपने-अपने कार्यक्षेत्र में मिलने वाली शिकायतों के अनुरूप सीबीआई को समुचित दिशानिर्देश दे सकें। इसके साथ ही लोकपाल की चयन समिति को ही सीवीसी के सदस्यों का भी चयन करने का अधिकार होना चाहिए। इस तरह प्रधानमंत्री, नेता प्रतिपक्ष, स्पीकर लोकसभा व भारत के मुख्य न्यायाधीश मिलकर लोकपाल और सीवीसी के सदस्यों का चयन करें। एक लोकतांत्रिक देश में इससे अच्छी परंपरा और क्या हो सकती है। हां, इसमें एक सुधार अवश्य करना चाहिए। जिन व्यक्तियों का भी नाम इस समिति के संज्ञान में चयन के लिए लाया जाता है, उन व्यक्तियों के नाम और क्रियाकलापों की सूची लोकपाल और सीवीसी की वेबसाइट पर डाली जाऐं और देश की जनता को यह न्यौता दिया जाए कि वह अगले निर्धारित समय सीमा के भीतर इन व्यक्तियों में से यदि किसी के विरूद्ध भी भ्रष्टाचार या अनैतिक आचरण के कोई प्रमाण हों, तो  चयन समिति के सामने प्रस्तुत करें। इससे चयन प्रक्रिया में और भी पारदर्शिता आयेगी। कम से कम उन लोगों के नाम तो कभी भी विचारार्थ नहीं आयेंगे, जिनके आचरण पर पहले कभी कोई विवाद उठ चुका है।
इस पूरी लड़ाई में जो असली मुद्दा खो रहा है, वह है आम जनता के सामने हर दिन आने वाले भ्रष्टाचार जनित संकट। राशन की दुकान, थाना बिजली, अस्पताल, परिवहन व स्थानीय प्रशासन, ये ऐसे विभाग हैं जिनसे आम जनता का रोज नाता पड़ता है। इन्हीं के भ्रष्टाचार से आम जनता ज्यादा दुखी है। लोकपाल बने या न बने, आम लोगों को कोई राहत मिलने वाली नहीं। उसके लिए तो लोकायुक्त ज्यादा महत्वपूर्ण है। क्योंकि केन्द्र का लगभग सारा पैसा राज्यों को जाता है। इसलिए उस पैसे के इस्तेमाल पर कड़ी नजर रखना जरूरी है। पर चतुर्वेदी समिति की सिफारिशों में लोकायुक्त का चयन और उसके अधिकार तय करने का जिम्मा राज्य सरकारों पर टाल दिया गया है। जाहिर है ऐसा क्षेत्रीय दलों के दबाव के कारण किया गया है। क्योंकि पिछले सत्र में क्षेत्रीय दलों ने लोकायुक्त थोपे जाने का भारी विरोध किया था। लोकायुक्त के गठन के मौजूदा कानून के बावजूद गुजरात जैसे कई राज्यों ने लोकायुक्त के गठन में भारी कोताही बरती है। इसलिए देशवासियों को चाहिए कि वे अपने-अपने प्रांतों की सरकारों पर दबाव बनाकर प्रांतों में सशक्त लोकायुक्त के गठन को सुनिश्चित करें। जिससे उनके दैनिक जीवन में आने वाले अवरोधों के अपराधी पकड़े जा सकें।
अंत में हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भ्रष्टाचार एक सामाजिक, आर्थिक, मनौवैज्ञानिक व आपराधिक आचरण है। जिसका समाधान केवल कानून और लोकपाल जैसी संस्थाओं के गठन से कभी भी नहीं निकाला जा सकता, जब तक कि समाज खुद उठकर खड़ा न हो और अपने व सत्ताधीशों के भ्रष्टाचार के विरूद्ध लगातार संघर्ष न करे। 

Monday, January 21, 2013

नेता ही नहीं नीति बदलनी चाहिए

बहुत ना-नुकुर के बाद राहुल गांधी ने कांग्रेस की बागडोर संभालने का निर्णय ले लिया। कांग्रेसियों में उत्साह है कि अब नौजवानों को तरजीह मिलेगी। दूसरी तरफ कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी ने जयपुर के चिंतन शिविर में यह चिंता व्यक्त की है कि मध्यम वर्ग को राजनीति से बेरूखी होती जा रही है। सवाल उठता है कि क्या राहुल गांधी हमारी व्यवस्था की धारा मोड़ सकते हैं? 1984 में जब इन्दिरा गांधी की हत्या हुई तो अचानक ताज राजीव गांधी के सिर पर रख दिया गया। वे युवा थे, सरल और सीधे थे, इसलिए एक उम्मीद जगी कि कुछ नया होगा। उनके भाषण लिखने वालों ने उनसे कई ऐसे बयान दिलवा दिए जिससे देश में सन्देश गया कि अब तो भ्रष्टाचार और सरकारी निकम्मापन सहा नहीं जाऐगा। सबकुछ बदलेगा। बदला भी, लेकिन संचार और सूचना के क्षेत्र मंे। भ्रष्टाचार और प्रशासनिक व्यवस्था में कोई अंतर नहीं आया। बल्कि तेजी से गिरावट आयी।
अभी हाल ही का उदाहरण अखिलेश यादव का है। साईकिल चलाकर अखिलेश यादव ने उ0प्र0 के युवाओं का मन मोह लिया। लगा कि उ0प्र0 में नई बयार बहेगी। पर अभी नौ महीने बीते हैं आौर उनके पिता और सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव चार बार सार्वजनिक मंचों से कह चुके हैं कि उ0प्र0 की सरकार, मंत्री और अफसर ठीक काम नहीं कर रहे हैं।
दरअसल देश और प्रदेश की सरकारों में भारी घुन लग चुका है। कोई जादू की छड़ी दिखाई ननहीं देती, जो इन व्यवस्थाओं को रातों-रात सुधार दे। इसलिए यह कहना कि राहुल गांधी के मोर्चा संभालते ही कांग्रेस पार्टी का भविष्य उज्जवल हो गया, अभी लोगों के गले नहीं उतरेगा। वे जमीनी हकीकत में बदलाव देखकर ही फैसला करेंगे। तब तक राहुल गांधी को कड़ी मशक्कत करनी पड़ेगी।
पहली समस्या तो यह है कि वे पार्टी के उपाध्यक्ष भले ही बन गए हों, सरकार डा. मनमोहन सिंह की है। जिसमें अलग-अलग राय रखने वाले मंत्रियों के अलग-अलग गुट हैं। ये गुट एकजुट होकर राहुल गांधी के आदेशों का पालन करेंगे, ऐसा नहीं लगता। सामने जी-हुजूरी भले ही कर लें, पर पीछे से मनमानी करेंगे। ठीकरा फूटेगा राहुल गांधी के सिर। सहयोगी दलों के मंत्रियों के आचरण पर राहुल गांधी नियन्त्रण नहीं रख पाऐंगे। ऐसे में सरकार की छवि सुधारना सरल नहीं होगा।
दूसरी तरफ, अभी तक के अनुमान के अनुसार सीधा मुकाबला नरेन्द्र मोदी से होने जा रहा है। जिनकी रणनीति यह है कि जो करना है धड़ल्ले से करो, बड़े लोगों को फायदा पहुंचाओ। प्रचार ऐसा करो कि बड़े-बड़े मल्टीनेशनल भी फीके लगने लगें। यही उन्होंने पिछले चुनावों में किया भी। जबकि राहुल गांधी का व्यक्तित्व दूसरी तरीके का है। वे संजीदगी से समाज को समझना चाह रहे हैं। जमीनी हकीकत को जानने की कोशिश कर रहे हैं। विकास के मुद्दों पर भी काफी ध्यान दे रहे हैं। कुल मिलाकर राजनीति के एक गंभीर छात्र होने का प्रमाण दे रहे हैं। इसलिए आगामी चुनावी समर में राहुल गांधी की भूमिका को लेकर कोई आंकलन अभी नहीं किया जा सकता। वे जादू भी कर सकते हैं और चारों खाने चित भी गिर सकते हैं।
राहुल गांधी को अगर वास्तव में अपनी सरकार को जबावदेह बनाना है तो उन्हें प्रशासनिक व्यवस्था में सुधार में क्रांतिकारी कदम उठाने होंगे। इन कदमों को जानने के लिए उन्हें कोई नई खोज नहीं करवानी। काले धन, पुलिस व्यवस्था, न्यायायिक सुधार, कठोर भ्रष्टाचार विरोधी कानून जैसे अनेक मुद्दों पर एक से बढ़कर एक आयोगों की रिपोर्ट केन्द्र सरकार के दफतरों में धूल खा रही हैं। जिन्हें झाड़ पौंछकर फिर से पढ़ने की जरूरत है। समाधान मिल जाऐगा। इन समाधानों को लागू कराने के लिए राहुल गांधी को युवाओं के बीच देशव्यापी अभियान चलाना चाहिए। युवा जागरूक बनें और प्रशासनिक व्यवस्था को जबावदेह बनाऐं, तब जनता कांगे्रस से जुड़ेगी। वैसे भी जयपुर चिंतन शिविर में उनकी माताजी श्रीमती सोनिया गांधी ने यह चिंता व्यक्त की है कि मध्यम वर्ग राजनीति से कटता जा रहा है, जिसे मुख्यधारा में वापस लाने की जरूरत है। 
हकीकत इसके विपरीत है। मध्यम वर्ग राजनीति से नहीं कट रहा, बल्कि अब तो वह बिना बुलाऐ सड़कों पर उतरने को तैयार रहता है। पिछले एक-ढेढ़ साल के आंदोलनों में मध्यम वर्ग की भूमिका प्रमुख रही है। मध्यम वर्ग ने धरने, प्रदर्शन, लाठी, गोली, आंसू गैस और पानी की मार सबको झेला है। पर उदासीनता का परिचय कहीं नहीं दिया।
दरअसल मध्यमवर्ग प्रशासनिक व्यवस्था की जबावदेही चाहता है, जो उसे नहीं मिल रही। इससे वो नाराज है। पर वह यह भी जानता है कि कोई एक राजनैतिक दल इसके लिए जिम्मेदार नहीं है। सभी दलों का एकसा हाल है। इसलिए उसका गुस्सा बढ़ता जा रहा है और वह तरह-तरह से बाहर सामने आ रहा है। राहुल गांधी हों या अखिलेश यादव या फिर किसी अन्य प्रांत के मुख्यमंत्री के वारिस युवा नेता, अब सबको इन सवालों की तरफ गंभीरता से विचार करना होगा। क्योंकि नारों से बहकने वाला मतदाता अब बहुत सजग हो गया है।

Monday, January 14, 2013

सिर्फ नारों से नहीं बनेगा उत्तम प्रदेश

पिछले दिनों कई मंचों पर उत्तर प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने बार-बार दोहराया है कि वे उत्तर प्रदेश को उत्तम प्रदेश बनाना चाहते हैं। पर क्या ऐसा होना सिर्फ नारों से सम्भव है?
उत्तर प्रदेश का प्रशासनिक तंत्र पिछले दो दशकों में बुरी तरह चरमरा गया था। जिसे मायावती ने अपने डण्डे के जोर पर नियन्त्रित करने की कोशिश की। उसका परिणाम यह हुआ कि प्रदेश की नौकरशाही बहनजी के आगे थरथर कांपती थी। इसका पूरा फायदा मायावती ने उठाया। अपनी महत्वकांक्षी योजनाओं को उन्होंने डण्डे के जोर पर समयबद्ध तरीके से पूरा करवा लिया। फिर चाहे वो अम्बेडकर पार्क हो, कांशीराम पार्क हों या उनकी अन्य वैचारिक योजनाऐं। लेकिन इसका अधिक लाभ आम जनता को नहीं मिला। क्योंकि नौकरशाही केवल उन्हीं कार्यक्रमों को प्राथमिकता देती थी, जिन पर बहनजी की नजर थी।
जबसे अखिलेश यादव ने सत्ता संभाली है, तब से स्थिति बदल गयी। नए विचारों के, ऊर्जावान और युवा अखिलेश ने प्रशासनिक तंत्र को शुरू से ही भयमुक्त कर दिया। उनका उद्देश्य रहा होगा कि ऐसा करने से सक्षम अधिकारी स्वतंत्रता से निर्णय ले सकेंगे। पर अभी तक इसके वांछित परिणाम सामने नहीं आये हैं। एक तो वैसे उत्तर प्रदेश में साधनों का अभाव है, दूसरा प्रशासन तंत्र अब हर तरह के नियन्त्रण और जबावदेही से मुक्त है। तीसरा उत्तर प्रदेश में सत्ता के चार केन्द्र बने हैं। नतीजतन नौकरशाही किसी एक केन्द्र की शरण लेकर बाकी को ठेंगा दिखा देती है। ऐसे में कैसे बनेगा उत्तम प्रदेश?
संसाधनों की कमी को दूर करने के लिए दो तरीके हैं। एक तो मौजूदा संसाधनों का प्रभावी तरीके से प्रयोग हो और दूसरा बाहर से संसाधनों को आमंत्रित किया जाऐ। जहाँ तक उपलब्ध साधनों के इस्तेमाल की बात है, उत्तर प्रदेश की नौकरशाही संसाधनों का दुरूपयोग करने में किसी से कम नहीं। फिर वो चाहे मायावती का शासन रहा हो या अखिलेश यादव का। विकास की जितनी भी योजनाऐं बन रही हैं, उन्हंे बनाने वाली वह निचले स्तर की नौकरशाही है, जिसे न तो स्थानीय मुद्दों की समझ है, न उसके पास आधुनिक ज्ञान व दृष्टि है और न ही कुछ अच्छा करके दिखाने की इच्छा। होता यह है कि मुख्यमंत्री कोई घोषणा करते हैं तो मुख्य सचिव सचिवों की बैठक बुला लेते हैं। सचिवों को लक्ष्य दे दिए जाते हैं। वे अपने अधीनस्थों से योजनाऐं बनवा लाते हैं और अगली बैठक में उन योजनाओं को पास करवा लेते हैं। इन योजनाओं को बनाते वक्त न तो स्थानीय जरूरतों पर ध्यान दिया जाता है और न ही इन सबसे होने वाले लाभ या नुकसान पर। एक लम्बी फेहरिस्त है जहाँ ऐसी सैंकड़ों करोड़ की योजनाऐं बन चुकी हैं और लागू भी हो चुकी हैं जिनमें सीमित साधनों की असीमित बर्बादी हो रही है। फिर वो चाहें पर्यटन विभाग की योजनाऐं हों, नगर विकास की हों, ग्रामीण विकास की हों या सड़क विभाग की। सबमें मूल भावना यही निहित रहती है कि इस योजना में कितना ज्यादा से ज्यादा माल उड़ाया जा सकता है।
जैसा हमने पहले कहा कि तमाम सख्ती के बावजूद मायावती की सरकार इस दुष्प्रवत्ति पर कोई अंकुश नहीं लगा पाई। इधर अखिलेश यादव की सरकार भी ऐसी मानसिकता से निपटने में अभी तक असफल रही है। स्वंय मुख्यमंत्री के अधीनस्थ विभागों में भी ऐसी योजनाओं पर धन आवण्टन हो रहा है, जिनसे कोई लाभ जनता को मिलने वाला नहीं है। पर बेचारे भोले-भाले मुख्यमंत्री शायद इस सबसे अनिभिज्ञ हैं या फिर उन्होंने अन्य सत्ता केन्द्रों के आगे हथियार डाल दिये हैं। दोनांे ही स्थिति में खामियाजा प्रदेश की जनता को भुगतना पड़ रहा है। देखते-देखते ऐसे ही पांच साल गुजर जाऐंगे और अगर यही हाल रहा तो तमाम बड़े दावों के बावजूद उत्तर प्रदेश उत्तम प्रदेश नहीं बन पाऐगा।
साधनों की कमी दूर करने का दूसरा तरीका है बाहर से विनियोग आकर्षित करना। बाहर यानि देश के अन्य राज्यों से या विदेशों से। विदेशी निवेश तो उत्तर प्रदेश में आने से रहा। क्योंकि उन्हें उत्तर प्रदेश की राजनैतिक परिस्थितियां रास नहीं आतीं। देशी उद्योगपति भी उत्तर प्रदेश में विनिवेश करने से घबराते हैं। जबकि दूसरी तरफ गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ‘वाइब्रेंट गुजरात’ का नारा देते हैं तो बड़े-बड़े निवेशकर्ता लाइन लगाकर भागे चले आते हैं। क्योंकि उन्हें नरेन्द्र मोदी की प्रशासनिक व्यवस्था पर भरोसा है। नरेन्द्र मोदी ने अपने प्रशासनिक तंत्र और अफसरशाही को यथासंभव पारदर्शी और जनता के प्रति जबावदेह बनाया है। अखिलेश यादव को भी उनका यह गुर सीखना होगा। ताकि वे अपने प्रशासन पर पकड़ मजबूत कर सकें और उसे जनता के प्रति जबावदेह बना सकें। ऐसा न कर पाने की स्थिति में देशी विनिवेशकर्ता भी उनके आव्हान को गंभीरता से नहीं लेंगे। फिर कैसे बनेगा उत्तम प्रदेश?
सारा दोष प्रशासन का ही नहीं, उत्तर प्रदेश की जनता का भी है। यहाँ की जनता जाति और धर्म के खेमों में बंटकर इतनी अदूरदृष्टि वाली हो गयी है कि उसे फौरी फायदा तो दिखाई देता है, पर दूरगामी फायदे या नुकसान को वह नहीं देख पाती। इसलिए अखिलेश यादव के सामने बड़ी चुनौतियां हैं। पर चुनाव प्रचार में जिस तरह उन्होंने युवाओं को उत्साहित किया, अगर इसी तरह अपने प्रशासनिक तंत्र को पारदर्शी और जनता के प्रति जबावदेह बनाते हैं, विकास योजनाओं को वास्तविकता के धरातल पर परखने के बाद ही लागू होने के लिए अनुमति देते हैं और प्रदेश के युवाओं को दलाली से बचकर शासन को जबावदेह बनाने के लिए सक्रिय करते हैं तो जरूर इस धारा को मोड़ा जा सकता है। पर उसके लिए प्रबल इच्छाशक्ति की आवश्यकता होगी। जिसके बिना नहीं बन सकेगा उत्तम प्रदेश।

Monday, January 7, 2013

इन हालातों में जनता क्या करे?

बलात्कार के खिलाफ उठा गुबार अभी थमा नहीं है। भ्रष्टाचार के विरूद्ध टीम अन्ना का आन्दोलन अपने चरम पर जाकर बिखर गया है, पर खत्म नहीं हुआ। पूरा ब्रज प्रदेश और देश के कृष्ण भक्त 1 मार्च, 2013 को वृन्दावन से दिल्ली तक पैदल कूच करने की तैयारी में जुटे हैं। इसलिए कि वे यमुना में शुद्ध यमुना जल देखना चाहते हैं। जबकि भगवान कृष्ण की कालिन्दी यमुना में आज यमुना जल नहीं दिल्लीवासियों का सीवर जल आ रहा है। कश्मीर के नौजवान वहाँ के सियासतदानों के भ्रष्टाचार से त्रस्त होकर लगातार बगावत का झण्डा बुलन्द कर रहे हैं। देश का हर शहर कूड़े के ढेर में बदलता जा रहा है। सरकारी दफ्तर गांधी जी का चित्र टांगकर भ्रष्टाचार का नंगा नाच रहे हैं। उद्योग जगत प्राकृतिक संसाधनों को बेदर्दी से लूटकर, सरकारी कर की चोरी करके और बैंकों के हजारों करोड़ के ऋण दबाकर अपने मुनाफे कई गुना बढ़ा रहे हैं और उन्हें बहुराष्ट्रीय बैंकों के मार्फत या हवाला के मार्फत विदेशों में लगा रहे हैं। जबकि हमारे राजनैतिक दल लोकतांत्रिक परंपराओं को धता बताकर वंशाधिकार की लड़ाई में जुटे हैं, फिर वो चाहें स्टालिन के विरोध में अलागिरी हों या बाल ठाकरे के बेटे-भतीजे हों या किसी और राज्य के मुख्यमंत्रियों के परिवार। ऐसा लगता है कि भारत में लोकतंत्र नहीं राजतंत्र है, जहाँ सत्ता पर राजवंश काबिज है।
ऐसे में देश की जनता क्या करे? हालात के मारे लोग कहाँ जाऐं? किसके कंधे पर सिर रखकर रोऐं? किससे फरियाद करें? क्या खामोश होकर घर बैठ जाऐं और देश की लूट व दुर्दशा का तांडव देखते रहें? क्या हालात से समझौते कर भ्रष्ट हो जाऐं? क्या शस्त्र उठाकर खूनी क्रांति करने वालों के पीछे चल पड़ें? या संविधान के ढांचे के भीतर लोकतांत्रिक तरीके से स्वार्थी ताकतों से लड़ें? दरअसल कोई भी आन्दोलन बहुत लम्बे समय तक नहीं चल सकता। लोगों का उत्साह जल्द ही भंग हो जाता है। साधनों का अभाव भी आड़े आता है। इसलिए कोई कितनी ही ताकत से हुंकार क्यों न भरे, कितने ही लाखों लोगों को लेकर सड़कों पर क्यों न उतरे, पर व्यवस्था का मकड़जाल ऐसा है कि ऐसी सब आवाजें अन्त में नक्कारखाने में तूती की तरह बजकर रह जाती हैं। आजादी की लड़ाई में यह शस्त्र इसलिए काम कर गए क्योंकि हमारे दुश्मन अंग्रेज हुक्मरान थे और नेता गांधी, सुभाषचंद बोस व भगत सिंह जैसे बलिदानी थे। पर अब यह हथियार भौंथरे हुए लगते हैं। क्योंकि इनका बार-बार प्रयोग होने से व्यवस्था इनकी आदी हो चुकी है। वह ऐसे आन्दोलनों को गुमराह करने और छिन्न-भिन्न करने में कोई कसर नहीं छोड़ती। इसलिए कुछ भी नहीं बदलता।
अगर हम सत्ता के लालच में लड़ने वाले विपक्षी दलों के भुलावे में आकर केन्द्र और राज्यों में सत्तारूढ़ दलों को गाली देने का, उनके खिलाफ एस.एम.एस. और ईमेल अभियान चलाने का और उनके खिलाफ प्रदर्शन करने का कार्यक्रम चलाते हैं, तो हम एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं। क्योंकि जिन्हें हम सत्ता से हटाना चाहते हैं, उन्हें हटाकर जो सत्ता में आऐंगे, वे किसी भी मामले में कम नहीं। हां, मीडिया पर शोर मचाकर और सड़कों पर आन्दोलन करके कुछ समय के लिए हमें यह भ्रम जरूर हो जाता है कि यह तो निर्णायक लड़ाई है, इसके बाद सुनहरी सुबह आएगी। जो कभी नहीं आती। आम आदमी पार्टी जैसा दल गठित कर बेहतर विकल्प देने का सपना पिछले साठ सालों में अनेकों क्रांतिकारी दिखा चुके हैं। या तो वे विकल्प दे ही नहीं पाते, या उनका विकल्प चुनावी शतरंज में परास्त हो जाता है या फिर वे भी साधनों के अभाव में उसी मकड़जाल में फंस जाते हैं, जिसके खिलाफ उनके आन्दोलन की बुनियाद रखी जाती है। इसका अर्थ यह नहीं कि कोई प्रयास ही न किया जाऐ। पर प्रयास अगर यथार्थ के धरातल से कटा होगा, तो उसमें ऊर्जा और साधन का अपव्यय तो होगा ही, समाज में हताशा और निराशा भी फैलेगी।
जे0पी0 आन्दोलन के समय से एक छात्र, आन्दोलनकारी और एक पत्रकार के नाते गत 38 वर्षों से मैं देश में ऐसी उथल-पुथल के कई दौर देख चुका हूँ। हर बार देशवासियों को निराशा हाथ लगी है। अब कितने प्रयोग हम और करें? किस पर भरोसा करें? कौन मसीहा है, जो हमें इस जंजाल से मुक्ति दिला देगा? बस यही है हमारी सब समस्या की जड़। जब तक हम मसीहा का इंतजार करते रहेंगे, इसी तरह लुटते-पिटते रहेंगे। सूचना के अधिकार से लेकर मीडिया तक आज संचार का इतना बड़ा जाल खड़ा हो गया है कि कोई भी सच्चाई लम्बे समय तक छिपाई नहीं जा सकती। गांव के विकास के लिए बनने वाली योजनाऐं और उनके लिए आवण्टित होने वाला धन, नगरों के रखरखाव के लिए प्रांतीय संसाधन, जेएनआरयूएम जैसी महत्वकांक्षी योजनाऐं और वल्र्ड बैंक की परियोजनाऐं, सबके बावजूद नगरवासी भी नारकीय जीवन जी रहेे हैं। केन्द्र के स्तर पर अब हजारों करोड़ के घोटालों के आरोप नहीं लगते। बात लाखों करोड़ तक जा पहुँची है। पर इस सबके लिए हमारी अपनी उदासीनता जिम्मेदार है।
अपना घर तो हम सब सजाते हैं, अपने बच्चों के भविष्य की भी चिंता करते हैं, पर घर के बाहर गली की गंदगी हो या हमारे गांव-शहर के लिए आवण्टित होने वाला धन, न तो उसकी हमें जानकारी होती है और न ही उसमें हमारी कोई रूचि। जबकि हम यह सब आज काफी सरलता से जान सकते हैं। धन आने के बाद भ्रष्टाचार की बात तो सब करते हैं, पर मेरा अनुभव तो अब यह बताता है कि भ्रष्टाचार की शुरूआत तो विकास योजनाओं की परिकल्पनाओं से ही शुरू हो जाती है। जानबूझकर ऐसी योजनाऐं बनाई जा रही हैं, जिनका जनता की मौजूदा समस्याओं से कोई नाता नहीं है। केवल और केवल पैसे को हड़पने के लिए इन योजनाओं को पास कराया जाता है। इसलिए योजना बनते वक्त से लेकर लागू होने तक, हर स्तर पर, हर जागरूक नागरिक को सतर्क रहना होगा।
अब हम मसीहाओं की आस छोड़ दें। केवल एक काम करें कि जहाँ तक हमारी समझ हो और क्षमता हो, वहाँ तक के क्षेत्र के विकास और रखरखाव के लिए आने वाली एक-एक पाई का हिसाब मांगने की ताकत जुटा लें। जब हम संगठित, निष्काम और निर्भय होंगे तो कोई प्रशासन हमें धमकाकर चुप नहीं कर पाएगा। यह लड़ाई गांधी के असहयोग आन्दोलन के ठीक विपरीत, सहयोग आन्दोलन की लड़ाई होगी। जिसमें हम सरकार के काम में सहयोग करेंगे पर पूरी पारदर्शिता की मांग के साथ। फिर हमें किसी लाठी का सामना नहीं करना पड़ेगा। धीरज रखें तो सफलता अवश्य मिलेगी।