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Monday, November 1, 2021

केरल में जीने का ये नायाब तरीक़ा


केरल के वायनाड का नाम चर्चा में तब आया था जब राहुल गांधी वहाँ से लोक सभा चुनाव लड़ने गए। इससे पहले मुझे वायनाड के बारे में कुछ पता नहीं था। इत्तेफ़ाक देखिए कि पिछला हफ़्ता हम दोनों ने वायनाड की पहाड़ियों पर बिताया। यूँ तो दुनिया के तमाम देशों में यात्रा करने या छुट्टियाँ बिताने का मौक़ा मिला है। पर वायनाड का यह अनुभव बिल्कुल अनूठा था। ख़ासकर इसलिए कि इस यात्रा ने ज़िंदगी जीने का एक नया तरीक़ा दिखाया। वायनाड की अलौकिक खबसूरती की चर्चा बाद में करूँगा, पहले इस नए अनुभव को साझा कर लूँ।

   

दिल्ली के प्रतिष्ठित मॉडर्न स्कूल में मेरी जीवन साथी मीता नारायण की एक सहपाठी रहीं सुजाता गुप्ता और उनके कुछ साथियों ने वायनाड के एक पहाड़ पर अपने आशियाने बनाए हैं। इसका नाम ‘इलामाला इस्टेट’ है। समुद्र तल से 3000 फूट ऊँचे पहाड़ पर सघन वन में रहने का यह अनूठा अन्दाज़ हर किसी को आह्लादित करता है। सात मित्रों की सात कौटेज बहुत कलात्मक रुचि से बनाई और सजाई गई है जिनके हर ओर सुंदर फूल और घने वृक्ष दिखाई देते हैं। किसी भी घर में भोजन नहीं पकता केवल चाय - कॉफ़ी बनाने की व्यवस्था है। सातों मित्रों ने पहाड़ की चोटी पर एक ‘लोंग हाउस’ बनाया है। जिसकी रसोई में पारम्परिक से लेकर आधुनिक तरीक़े तक से खाना पकाने की अनेक व्यवस्थाएँ हैं।

 


इस रसोई में 10-12 जने एक साथ भोजन पका सकते हैं। वहाँ का नियम यह है कि हर दिन भोजन पकवाने और खिलवाने का ज़िम्मा एक साथी का होता है। जिसके निर्देशन में रोज़ तीनों वक्त नाश्ता और खाना बनाया जाता है। चूँकि ये सातों सदस्य अलग-अलग प्रांतों से हैं इसलिए ‘इलामाला इस्टेट’ के भोजन कक्ष में हर दिन विविध व्यंजनों का स्वाद मिलता है। जहां सातों कौटेज के लोग दिन में तीन बार जमा होते हैं और भोजन के साथ विविध विषयों पर गम्भीर चर्चा या ‘इंडोर गेम्स’ का आनंद लेते हैं। इस ‘लोंग हाउस’ की बाल्कनी से चारों तरफ़ जहां भी निगाह जाती है 50-50 मील दूर तक घना जंगल और सुंदर पहाड़ हैं, जिनमें दिन भर बादल, बारिश, इंद्रधनुष अटखेलियाँ करते रहते हैं।

 

यहाँ चंदन, रोज़वुड, सुपारी, नारियल जैसे अनेक बहुमूल्य उत्पादों के हज़ारों वृक्ष हैं। यहाँ का वन्य जीवन भी कम रोमांचक नहीं। अक्सर हिरन आपके वरांडे में आकर खड़े हो जाते हैं। हिंसक पशु, कोबरा और जंगली हाथी भी यदा-कदा चक्कर लगा लेते हैं, जिनसे सावधानी बरतनी होती है। ‘लोंग हाउस’ में परिवार के मित्रों के ठहरने के लिए चार आधुनिक कक्ष भी हैं, जिनकी साज-सज्जा ‘ताज रिज़ॉर्टस’ से कम नहीं। पर यह व्यवस्था व्यावसायिक नहीं है, जहां किराया देकर ठहरा जा सके। सात दिन कैसे बीत गए, पता ही नहीं लगा। प्रकृति के इतना निकट इस अलौकिक वातावरण में शेष दुनिया से सम्पर्क रखने की इच्छा ही नहीं होती। हमारी उम्र के वरिष्ठ नागरिकों के लिए जीवन जीने का ये तरीक़ा बहुत सुखद और अदभुत है। जब आप एक दूसरे के साथ अपना जीवन इस तरह साझा कर लेते हैं कि फिर किसी और की ज़रूरत ही नहीं होती।

 

अनजाने प्रदेश में जहां बोली जाने वाली मलयालम भाषा कोई न जानता हो और स्थानीय लोग अंग्रेज़ी भी टूटी-फूटी बोलते हों, वहाँ उत्तर भारतीय लोगों का रहना कितना मुश्किल होगा? पर ऐसा नहीं है। ‘इलामाला इस्टेट’ के सभी कर्मचारी बेहद शालीन और काम के प्रति समर्पित हैं। हां केरल में व्याप्त कर्मचारी यूनियनों की संस्कृति के कारण कर्मचारियों से काम करवाने की शर्तें बिल्कुल साफ़ हैं। उनमें कोई ढील बर्दाश्त नहीं की जाती। पर जो बात सबसे ज़्यादा प्रभावित करती है वो ये, कि पूरा केरल बेहद अनुशासित राज्य है। जहां के लोग नियम और क़ानूनों का पूरी ज़िम्मेदारी से पालन करते हैं। जैसे शेष भारत में आपको शायद ही कोई दुकान ऐसी मिले जिसका सामान दुकान के बाहर फुटपाथ या सड़क पर फैला न हो। जबकी केरल में कैसी भी दुकान क्यों न हो, सड़क पर आपको कुछ भी रखा नहीं मिलेगा। सब कुछ दुकान के शटर के अंदर तक ही सीमित रहता है।

 

इसी तरह सड़क पर आप यह देख कर हैरान रह जाएँगे कि लोगों के घर के बाहर सड़क के किनारे एलपीजी के लाल सिलेंडर 24 घंटे पड़े रहते हैं और कोई उनकी चोरी नहीं करता। गैस की आपूर्ति वाली गाड़ी भरा सिलेंडर रख जाती है और ख़ाली सिलेंडर उठा कर ले जाती है। इसी तरह दूध के बड़े-बड़े कैन सड़क के किनारे रखे रहते हैं और दूधिया उन्हें उठा कर घर-घर दूध बाँट कर फिर सड़क पर रख देता है और दूध की गाड़ी ख़ाली कैन उठा लेती है और भरे छोड़ देती है। अड़ोस-पड़ोस के बीच विश्वास का रिश्ता इस कदर है कि दो घरों के बीच कोई बाउंड्री वॉल नहीं बनती। हर घर के चारों तरफ़ सुपारी या नारियल आदि के बड़े-बड़े पेड़ होते हैं। केरल में ज़्यादातर सड़कें घुमावदार हैं और केवल दो लेन की ही होती हैं। एक जाने की और एक आने की। पर उत्तर भारत की तरह कभी ट्रैफ़िक जाम की समस्या नहीं होती। क्योंकि सभी वाहन चालक एक सीधी क़तार में चलते हैं। कोई भी जल्दीबाज़ी में ओवरटेक करके सामने से आ रहे वाहनों का रास्ता नहीं रोकता। वायनाड में हिंदूओँ की आबादी आधी है, शेष मुसलमान और ईसाई हैं और सभी एक दूसरे के साथ हिल-मिल कर रहते हैं। इसलिए ‘इलामाला इस्टेट’ के हमारे इन मित्रों को अपने इलाक़े से 2000 मील दूर रहकर भी कोई दिक्कत नहीं होती।

 

वायनाड में बाणासुर बांध, प्राग ऐतिहासिक गुफाएँ, पहाड़ों पर सुंदर जल प्रपात, प्राचीन मंदिर और वाइल्ड लाइफ़ सेंचुरी जैसे अनेक पर्यटक स्थल भी हैं। पर यहाँ का सबसे बड़ा आकर्षण है यहाँ होने वाली चाय, कॉफ़ी और मसालों की खेती। जहां तक आपकी निगाह जाती है वहाँ तक आपको यही हरा-भरा दृश्य दिखाई देता है। पर इन बाग़ानों में काम करने के लिए श्रमिक बिहार, बंगाल और आसाम से बड़ी तादाद में यहाँ आते हैं। दक्षिणी केरल की तरह यहाँ गर्मी और मच्छरों का प्रकोप नहीं होता। बल्कि एक पहाड़ी ज़िला होने के कारण अप्रैल-मई छोड़ कर यहाँ का मौसम सुहावना ही रहता है। पर अभी तक वायनाड में पर्यटकों का आना सीमित मात्रा में ही होता है। क्योंकि इस ज़िले का विकास पर्यटन की दृष्टि से नहीं किया गया है। ऐसी जगह में जाकर वरिष्ठ नागरिकों का रहना और सामूहिक जीवन जीने के प्रयोग करना रोमांचक ही नहीं सुखद है। शेष भारत में भी जहां वरिष्ठ नागरिकों को अकेलापन लगता हो या उनके बच्चे उनका ध्यान रखने के लिए हर समय उपलब्ध न हों वहाँ भी इस तरह मिलजुलकर साथ रहने के प्रयोग किए जाने चाहिए, जिससे बुढ़ापा आनन्द से कट सके।