Monday, October 10, 2022

मुलायम सिंह यादव के लिए उमड़ा जन सैलाब



पिछले कुछ दिनों से उत्तर भारत के समाजवादियों का गुरुग्राम के मेदांता अस्पताल में हुजूम उमड़ रहा है। ये सब समाजवादी पार्टी के नेता और राम मनोहर लोहिया के शिष्य मुलायम सिंह यादव की गिरती सेहत से परेशान हैं। चूँकि अस्पताल में इस तरह की भीड़ को प्रवेश नहीं दिया जाता इसलिए ये सब चाहने वाले नई दिल्ली के पंडारा पार्क में समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव के घर के बाहर भीड़ लगाए हुए हैं। इस नाज़ुक मौक़े पर अखिलेश थके होने के बावजूद हर आनेवाले से मिल रहे हैं और उन्हें सांत्वना दे रहे हैं। सबसे ज़्यादा व्याकुल तो उत्तर प्रदेश के हज़ारों गावों के वो लोग हैं जो गुरुग्राम तक आ नहीं सकते इसलिए स्थानीय नेताओं के घर जमा हो कर उनसे बार-बार ‘नेताजी’ का हाल पूछ रहे हैं। ‘नेताजी’ की सेहत में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ है। इससे उनके प्रेमियों में हताशा फैली है। जैसा आमतौर पर किसी मशहूर हस्ती के चाहने वाले ऐसे समय में करते हैं वैसे ही ‘नेताजी’ के प्रेमी भी अपने-अपने धर्म और आस्था के अनुसार स्वास्थ्य की कामना लेकर धार्मिक अनुष्ठान या प्रार्थना कर रहे हैं। 


जो कुछ मैंने अभी तक लिखा उसमें नया कुछ भी नहीं है। ये सब समाचारों के माध्यम से सबको पता है। जब भी देश का कोई बड़ा और लोकप्रिय नेता गम्भीर रूप से बीमार होता है या उसका देहावसान होता है तब-तब उसके चाहने वालों की ऐसी ही प्रतिक्रिया होती है। फिर इस लेख को लिखने का उद्देश्य क्या है? दरअसल, आज राजनीति जिस दौर में पहुँच गई है उसमें ऐसी लोकप्रियता अब कुछ गिनें चुने नेताओं की ही बची है। वरना तो तमाम नेता ऐसे हैं कि जब वे दुनिया से जाते हैं तो लोगों की हमदर्दी का नहीं बल्कि टीका-टिप्पणी और आलोचना के शिकार बन जाते हैं। 



सब जानते हैं कि मुलायम सिंह यादव ज़मीन से उठे नेता हैं। इसलिए अपने हर कार्यकर्ता से उनका सीधा जुड़ाव रहा है। उनके समर्थक, उनके उदार व्यवहार की प्रशंसा करते नहीं थकते। लाखों लोगों को ‘नेताजी’ ने अपने पैरों पर खड़ा करने में मदद की। जबकि आम तौर पर सत्ता मिलते ही नेताओं के तेवर बदल जाते हैं और वे अपने कार्यकर्ताओं से मुह मोड़ लेते हैं। चालीस बरस की पत्रकारिता में मैंने राष्ट्रीय स्तर के दर्जनों बड़े नेताओं को बनते और बिगड़ते देखा है। ज़्यादातर की ऐसी दुर्गति होती है कि सत्ता से हटते ही मक्खी भी उनके घर नहीं फटकती। 


अलग-अलग अवसरों पर ‘नेताजी’ के साथ इन चार दशकों में बिताए अनेक लम्हे मुझे याद हैं जो उनके व्यक्तित्व का परिचय देते हैं। 1990 की बात है मैं कालचक्र विडीयो मैगज़ीन के लिए एक टीवी रिपोर्ट तैयार कर रहा था। जिसका शीर्षक था ‘अंग्रेज़ी बिना भी क्या जीना’। इस रिपोर्ट में हमारी कैमरा टीम, समाज के विभिन्न वर्गों से अंग्रेज़ी के पक्ष और विपक्ष में विचार रिकोर्ड कर रही थी। उन्हीं दिनों उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्य मंत्री ‘नेताजी’ हिंदी भाषा अपनाने पर बहुत ज़ोर दे रहे थे। उनका तर्क था कि अंग्रेज़ी हमें ग़ुलाम बनाती है। इसलिए सभी सरकारी कामकाज आम आदमी की भाषा में होने चाहिए। इसलिए अपनी टीवी रिपोर्ट को और दमदार बनाने के लिए मैं मुलायम सिंह का साक्षात्कार लेने  लखनऊ गया। उन्होंने अपने कार्यालय में कैमरे के सामने बड़ी बेबाक़ी से अपनी बात रखी। ये मुलाक़ात यहीं ख़त्म हो जानी चाहिए थी। पर उन्होंने मुझ से अपने घर ले चलकर भोजन करने का आग्रह किया। घर पहुँच कर किसी मेज़-कुर्सी पर नहीं बल्कि दो पलंगों पर ‘नेताजी’ और मैं आमने-सामने बैठ गए। तभी परिवार के किशोर बाल्टी, लोटा और तौलिया लेकर हाथ धुलने आए। ‘नेताजी’ ने उनसे कहा कि चाचा जी को प्रणाम करो और सब लड़कों ने अनुशासित बच्चों की तरह बेहिचक मेरे पैर छुए। दिल्ली के आधुनिक पत्रकारिता जगत में ये संस्कार कोई महत्व नहीं रखता। पर छोटे शहरों से आनेवाले हम सब लोग अपने बच्चों को ऐसे संस्कार देते हैं। क्योंकि हमारी सनातन संस्कृति में कहा गया है, ‘अतिथि देवो भव’। फिर पीतल की थालियों में कटोरी सज़ा कर पलंग पर ही सात्विक भोजन परोसा गया और फिर उसी तरह हाथ धुलवाए गए। ये सब कुछ इतना सहज भाव से हो रहा था फिर भी इसने मुझे बहुत प्रभावित किया। मुझे यह कहने में संकोच नहीं है कि यही संस्कार ‘नेताजी’ के सुपुत्र अखिलेश यादव ने उत्तराधिकार में पाए हैं। मेरा समाजवादी दल हो या कोई और राजनैतिक दल, किसी से भी सदस्यता का सम्बंध नहीं रहा। फिर भी अखिलेश यादव मेरा ही नहीं हर आनेवाले का ऐसा ही सम्मान करते हैं जैसा ‘नेताजी’ करते आए हैं। 2012-17 में जब वे उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री थे तब मथुरा की भाजपा सांसद हेमा मालिनी ने मुझ से कहा कि, अखिलेश बहुत अच्छे युवा हैं। मैं जो भी काम उनसे कहती हूँ वो फ़ौरन करवा देते हैं। जबकि आज तमाम नेता ऐसे हैं जो अपने विरोधी दलों के नेताओं को दुश्मन मानते हैं। 


‘नेताजी’ के साथ एक दूसरा संस्मरण और भी प्रेरक है। मेरे पिता 1988-91 में पूर्वांचल विश्वविद्यालय के कुलपति थे। जौनपुर में ‘नेताजी’ की एक विशाल जनसभा थी। ऊँचे मंच पर माइक के सामने ‘नेताजी’ के लिए केवल एक कुर्सी लगी थी। मेरे पिता नीचे बने वीआईपी घेरे में प्रथम पंक्ति में बैठे थे। ‘नेताजी’ हेलीकाप्टर से उतर कर सीधे मंच पर चढ़ गए। मालाएँ पहनते वक्त उन्होंने आयोजकों से पूछा कि कुलपति महोदय कहाँ हैं? ये आवाज़ माइक पर सुनाई दी। जब उन्हें पता चला कि मेरे पिता नीचे वीआईपी घेरे में बैठे हैं, तो उन्होंने आयोजकों को फटकारा कि, आपको शर्म नहीं आती। जनपद के सबसे बड़े शिक्षाविद को नीचे बिठा दिया। उन्हें ससम्मान ऊपर लाइए। पिताजी के मंच पर पहुँचने पर ‘नेताजी’ उन्हें माला पहनाई और अपने लिए लगी कुर्सी पर बिठा कर भाषण शुरू किया। यह देख कर सब गद-गद हो गए। 



तीसरा अनुभव तब हुआ जब भारत के मुख्य न्यायाधीश के ज़मीन घोटाले उजागर करने के बाद मैं भूमिगत था क्योंकि मुझ पर अदालत की अवमानना क़ानून का मुक़दमा चल रहा था। मैं देश के कई नेताओं से इस दौरान मिलकर न्यायिक सुधारों के लिए कुछ करने की माँग करता था। जब मैं ‘नेताजी’ से मिला तो वे बहुत विचलित हो गए और बोले, तुमने हवाला कांड से लेकर आजतक किसी को नहीं छोड़ा। सबको दुश्मन बना लिया है। अब ये सब छोड़ दो। मैं तुम्हें राजनैतिक रूप से स्थापित कर दूँगा। मैंने कहा, ‘घोड़ा घास से यारी करेगा तो खाएगा क्या? निर्भीक पत्रकारिता में तो ये होता ही है।’ 


एक अनुभव तो पाठकों को बहुत चौकाने वाला लगेगा। 1994 में लखनऊ के रविंद्रालय में पूरे उत्तर प्रदेश के अधिवक्ताओं के संघ को सम्बोधित करने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के दो न्यायधीश, उत्तर प्रदेश के राज्यपाल मोतीलाल वोरा, मुख्य मंत्री मुलायम सिंह यादव और मुझे आमंत्रित किया गया था। उस दिन अपने भाषण में मैंने ‘नेताजी’ के शासन पर कुछ तीखी टिप्पणियाँ की। जिस पर पूरे हॉल में तालियों की गड़गड़ाहट हो गई। पर ‘नेताजी’ ने बिलकुल बुरा नहीं माना। आज जैसे नेता होते तो मुझ से ज़िंदगी में दोबारा बात नहीं करते या मुझे कोई हानि ज़रूर पहुँचाते। पर ‘नेताजी’ के व्यवहार में कोई अंतर नहीं आया। उनके ऐसे व्यवहार के कारण ही आज सभी उनके शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की कामना कर रहे हैं।   

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