Monday, November 27, 2023

क्रिकेट की ये दीवानगी कहाँ ले जायेगी ?


23 साल के राहुल ने कोलकाता में आत्महत्या कर ली। वो क्रिकेट के विश्व कप में भारतीय टीम की हार का सदमा बर्दाश्त नहीं कर सका। ये तो एक उदाहरण है। देश के अन्य हिस्सों में दूसरे नौजवानों ने हार के सदमे को कैसे झेला इसका पूरा विवरण उपलब्ध नहीं है। यह सही है कि अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं में अपने देश की टीम के साथ देशवासियों की भावनाएँ जुड़ी होती हैं और इसलिए जब परिणाम आशा के विपरीत आते हैं तो उस खेल के चाहने वाले हताश हो जाते हैं। खेलों में हार जीत को लेकर अक्सर प्रशंसकों के बीच हाथापाई या हिंसा भी हो जाती है। इसके उदाहरण हैं, दक्षिणी अमरीका के देश जहां फुटबॉल के मैच अक्सर हिंसक झड़पों में बदल जाते हैं। यूरोप और अमरीका में भी लोकप्रिय खेलों के प्रशंसकों के बीच ऐसी वारदातें होती रहती हैं।
 

अंतर्राष्ट्रीय खेलों में इसकी संभावना कम रहती है क्योंकि वहाँ खेलने वाली टीमों में जो बाहर से आती हैं, उनके प्रशंसकों की संख्या गिनी-चुनी होती है। इसलिए वो किसी हिंसक झड़प में फँसने से बचते हैं। यहाँ हम पिछले हफ़्ते अहमदाबाद के नरेंद्र मोदी स्टेडियम में क्रिकेट विश्व कप के लिये खेले गये फाइनल मैच के प्रभाव की विस्तार से चर्चा करेंगे और सोचेंगे कि आख़िर क्यों राहुल ने एक खेल के पीछे अपनी जान दे दी। 



हमें प्राथमिक विद्यालयों से लेकर महाविद्यालयों तक शिक्षा के दौरान बार-बार ये बताया जाता है कि खेल, खेल की भावना से खेले जाते हैं। जिसमें हार और जीत इतनी महत्वपूर्ण नहीं होती जितना कि खेल के दौरान अपने कौशल का प्रदर्शन करना। जो खिलाड़ी हमेशा बढ़िया खेलते हैं वो सबके चहेते बन ही जाते हैं। जैसे विराट कोहली की बैटिंग की प्रशंसा जितनी भारत में होती है उतनी ही पाकिस्तान सहित अन्य देशों में भी होती है। ब्राज़ील का मशहूर फुटबॉल खिलाड़ी पेले पूरी दुनिया के फुटबॉल प्रेमियों का हीरो था। चिंता की बात यह है कि पैसे की हवस ने आज खेलों को भी एक उद्योग बना दिया है और खिलाड़ियों को इन उद्योगपतियों का ग़ुलाम। इस मामले में भारत में क्रिकेट पहले नंबर पर है। जिसे खिलाड़ी या खेलों के विशेषज्ञ नहीं बल्कि सत्ताधीश और पैसे की हवस रखने वाले नियंत्रित करते हैं। इसलिए क्रिकेट को इतना ज़्यादा बढ़ावा दिया जाता है। खेल के नाम पर अरबों-खरबों के वारे-न्यारे किए जाते हैं। कौन नहीं जानता कि क्रिकेट मैच के लिये सटोरिये लार टपकाए बैठे रहते हैं।बार-बार इस तरह के मामले उछले हैं जब क्रिकेट के सट्टे या मैच फिक्सिंग के आरोपों में क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के सदस्यों पर भी छींटे पड़े हैं। हमारे देश में बड़े-बड़े घोटालों की जाँच तो कभी तार्किक परिणीति तक पहुँचती ही नहीं है। केवल अख़बारों की सुर्ख़ियाँ और राजनैतिक लाभ का सामान बन कर रह जाती है। 



पिछले हफ़्ते की घटना को ही लीजिए। सवा लाख दर्शकों की क्षमता वाले स्टेडियम में प्रवेश पाने के लिए टिकटों की जमकर काला बाज़ारी हुई, ऐसे आरोप लग रहे हैं। अहमदाबाद के होटल वालों ने कमरों के किराए दस गुना बढ़ा दिये 5,000 रुपये रोज़ का कमरा 50,000 रुपये पर उठा। यही हाल हवाई यात्रा की टिकटों का भी रहा। कुल मिलाकर इस एक मैच से अरबों-खरबों का कारोबार हो गया। ये सारा मुनाफ़ा मुख्यतः अहमदाबाद के व्यापारियों की जेब में गया। उधर खिलाड़ियों को, चाहे जीतें या हारें, जो शोहरत मिलती है उसका फ़ायदा उन्हें तो मिलता ही है। बड़ी-बड़ी कंपनियाँ उन खिलाड़ियों को दिखाकर विज्ञापन बना कर मोटा लाभ कमा लेती हैं। इस सारे मायाजाल में घाटे में तो आम दर्शक रहता है। जो बाज़ार की शक्तियों के प्रभाव में इस मायाजाल का शिकार बन जाता है। कुछ देर के मनोरंजन के लिए वो अपना क़ीमती समय और धन गँवा बैठता है। उसकी हालत वैसी ही होती है जैसी ‘न ख़ुदा ही मिला, न बिसाले सनम। न इधर के रहे, न उधर के रहे।’ इस तरह के खेल से न तो उसका शरीर मज़बूत होता है और न ही दिमाग़। इसके मुक़ाबले तो फुटबॉल, हॉकी, बैडमिंटन, वॉलीबॉल जैसे खेल कहीं ज़्यादा सार्थक हैं। जिनको खेलने वालों को भी खूब श्रम करना पड़ता है और उनसे प्रेरणा लेकर अपने गाँव क़स्बे में इन खेलों को खेलने वाले युवाओं की सेहत बनती है। क्रिकेट के मुक़ाबले ये खेल काफ़ी सस्ते भी हैं। 


जब हम हर बात में अपने औपनिवेशिक शासक रहे अंग्रेजों की आलोचना करते हैं। यहाँ तक कि उनके रखे नाम ‘इंडिया’ की जगह 75 वर्ष बाद अपने देश को ‘भारत’ कह कर पहचनवाना चाहते हैं, तो हम अंग्रेजों के इस औपनिवेशिक खेल क्रिकेट के पीछे इतने दीवाने क्यों हैं? 


यह दावा किया जाता है कि भारत और कुछ  राज्यों की सत्ता हिंदुत्ववादी है। तो यहाँ एक स्वाभाविक प्रश्न खड़ा होता है कि हिंदुत्ववादी सरकारों ने अपने शासन के इन वर्षों में सनातनी संस्कृति के प्राचीन खेलों को कितना बढ़ावा दिया और अगर नहीं तो क्यों नहीं? मल्लयुद्ध, कबड्डी, कुश्ती, तीरंदाज़ी, घुड़सवारी, नौका दौड़, मल्लखम्ब जैसे खेलों की लागत भी न के बराबर होती है और इनसे युवाओं में शक्ति और बुद्धि का भी संचार होता है। यह बात अहमदाबाद के हेमेंद्रचार्य संस्कृत गुरुकुलम ने सिद्ध कर दी है। उनके विद्यार्थी बाज़ारीकरण की शक्तियों से प्रभावित हुए बिना शुद्ध सनातन संस्कृति पर आधारित शिक्षा और ऐसे पारंपरिक खेलों का प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे हैं। इसलिए वे भारत के किसी भी आधुनिक सुप्रसिद्ध विद्यालय के छात्रों के मुक़ाबले हर क्षेत्र में कहीं ज़्यादा आगे हैं। 


इस देश में क्रिकेट प्रेमियों की तादाद बहुत ज़्यादा है। क्रिकेट मैच के दौरान देश की धमनियों में रक्त रुक जाता है। आश्चर्य होता है यह देख कर कि जिन्हें इस खेल का क, ख, ग, भी नहीं पता वे भी इस खेल के दीवाने हुए रहते हैं। अपने काम और व्यवसाय से ध्यान हटा कर मैच का स्कोर जानने के लिये उत्सुक रहते हैं। ऐसे तमाम लोगों को मेरे ये विचार गले नहीं उतरेंगे। किंतु यदि वे इन बिंदुओं पर गंभीरता से विचार करें तो पायेंगे कि उनमें इस खेल के प्रति आकर्षण का कारण उनकी स्वाभाविक उत्सुकता नहीं है, बल्कि वे बाज़ारीकरण की शक्तियों के शिकार बन चुके हैं। यह ठीक ऐसे ही है जैसे काले रंग का शीतल पेय जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। जिसके उत्पादन का फार्मूला गोपनीय रखा गया है और माना जाता है कि उसमें सैक्रीन, रासायनिक रंग, पेट्रोलियम जेली और कार्बन डाइआक्साइड मिली होती है, जो सब हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। पर अंतर्राष्ट्रीय विज्ञापन के प्रभाव से हम इन शीतल पेयों को गर्व से पीते हैं। जबकि हम जानते हैं कि दूध, छाछ, फलों के रस या नारियल पानी इन काले-पीले शीतल पेयों से कहीं ज़्यादा स्वास्थ्यवर्धक होता है। यही हाल हमारे क्रिकेट प्रेमियों का भी है जिनके दिमाग़ को बाज़ार की शक्तियों ने सम्मोहित कर लिया है। इसलिये कोलकाता के युवा राहुल की आत्महत्या ने मुझे ये लेख लिखने पर बाध्य किया। आपका क्या विचार है? 

Monday, November 20, 2023

लुप्त हो रहीं हैं भारतीय भाषाएँ


हम लोग जो ख़ुद को पढ़ा-लिखा समझते हैं कितने ही मामलों में हम कितने अनपढ़ हैं इसका एहसास तब होता है जब हम किसी विद्वान को सुनते हैं। ऐसा ही अनुभव पिछले हफ़्ते हुआ जब बड़ौदा से आए प्रोफेसर गणेश एन देवी का व्याख्यान सुना। प्रो देवी के व्याख्यान आजकल दुनिया के हर देश में बड़े चाव से सुने जा रहे हैं। उनका विषय है भाषाओं की विविधता और उस पर मंडराता संकट। इस विषय पर उन्होंने दशकों शोध किया है। भाषा, संस्कृति और जनजातीय जीवन पर वे 90 से ज़्यादा पुस्तकें लिख चुके हैं। भाषाओं पर उनके गहरे शोध का निचोड़ यह है कि भारत सहित दुनिया भर में क्षेत्रीय भाषाएँ बहुत तेज़ी से लुप्त होती जा रही हैं। इससे लोकतंत्र पर ख़तरा मंडरा रहा है। कारण भाषाओं की विविधता और उससे जुड़े समाज और पर्यावरण की विविधता से लोग सशक्त होते हैं। पर जब उनकी भाषा ही छिन जाती है तो उनके संसाधन, उनकी पहचान और उनकी लोकतांत्रिक ताक़त भी छिन जाती है। यह एक गंभीर विषय है जिसे पाठक ध्यान देकर पढ़ें तो उन्हें हैरानी होगी। 



प्रो देवी ने बताया कि भारत के पिछले सत्तर हज़ार वर्ष के इतिहास में जब-जब हमारी भाषा बदली तब-तब भारत का नवनिर्माण हुआ। नई संस्कृति, नया धर्म, नये रीति रिवाज और नया राजनैतिक ढाँचा बनता रहा और कुछ सदियों के बाद बिगड़ता रहा है। पुरानी कहावत है कि ‘कोस-कोस पर पानी बदले, चार कोस पर वाणी’ इस कहावत का अर्थ है कि लगभग हर डेढ़ किलोमीटर पर पानी के स्वाद में बदलाव आ जाता है और लगभग साढ़े छह किलोमीटर पर भाषा बदल जाती है। भारत का कुल क्षेत्रफल बत्तीस लाख सत्तासी हज़ार दो सौ तिरसठ वर्ग कि. मी. है। इस हिसाब से भारत में लगभग पाँच लाख प्रकार की बोलियाँ बोली जातीं थीं। जो 2011 के भाषाई सर्वेक्षण में घट कर लगभग 1369 ही रह गई हैं। यही हाल रहा तो हमारी भाषाएँ घट कर 2031 तक 500, 2041 तक 200 और 2051 तक केवल 100 रह जाएँगी। इससे हमारे जीवन पर क्या संकट आने वाला है ये आप आगे पढ़ने पर जान जाएँगे। 



इन आँकड़ों से भाषाई विविधता का पता चलता है। आप अपने इर्द-गिर्द ही अगर देखें तो आप पायेंगे कि आपके रिश्तेदार जो भिन्न-भिन्न शहरों, क़स्बों या गाँवों से आते हैं उनकी भाषा में ही समानता नहीं होती। उदाहरण के तौर पर उत्तर भारत का लोकप्रिय व्यंजन पराँठा कितने नामों से जाना जाता है? कोई इसे ‘परौठा’ कहता है, कोई ‘परामटा’, कोई ‘परौंठी’, कोई ‘परोटा’ आदि। आप कह सकते हैं कि क्या फ़र्क़ पड़ता है, कुछ भी कह लो। जी नहीं, प्रो देवी बताते हैं कि हर शब्द जिसका स्थानीय लोग प्रयोग करते हैं, उसका एक सांस्कृतिक संदर्भ होता है। उसकी उत्पत्ति कैसे हुई और उसको किस संदर्भ में प्रयोग में लाया जा सकता है। हर स्थानीय भाषा अपने परिवेश से जुड़ी होती है। मसलन उस इलाक़े के पेड़-पौधों, फूल-पत्तियों, फल-सब्ज़ियों, नदी, नालों और पोखरों, पशु-पक्षियों, त्योहारों-पर्वों, आभूषणों, परिधानों, ऋतुओं, फसलों, देवी-देवताओं, लोक कथाओं के समावेश से उस इलाक़े की भाषा पनपती है। जिसे केवल उस सांस्कृतिक परिवेश में ही समझा जा सकता है। हमारे ब्रज में एक शब्द आम प्रचलन में है, ‘अर्राना’। आप इसका क्या अर्थ समझे? इसका प्रयोग उस परिस्थिति के लिए होता हैं जब कोई व्यक्ति या तो जबरन आपके घर में प्रवेश करे या पारस्परिक वार्ता में आप पर हावी होने की कोशिश करे। 



इन स्थानीय भाषाओं के कारण उस क्षेत्र के रहने वालों की एक पहचान बनती है। जिसका उन्हें गर्व होता है। एक सी भाषा बोलने वालों के बीच स्वाभाविक रूप से एक अघोषित संगठन होता है। जो उन्हें राजनैतिक शक्ति प्रदान करता है। अनेक समूहों की इस भावना और इस शक्ति के कारण ही लोकतंत्र मज़बूत होता है। कहा जाता रहा है कि भारत सांस्कृतिक और भौगोलिक विविधताओं का देश है। इसलिए एक देश, एक भाषा, एक सरकार और एक मुद्रा जैसे वैश्विक नारे जो आजकल पश्चिमी देशों के नेताओं द्वारा प्रचारित किए जा रहे हैं, लोकतंत्र के लिए बहुत ख़तरनाक हैं। ये प्रवृत्ति भारत जैसे देशों की विविधताओं को नष्ट करने वाली है। इस प्रवृत्ति की परिणीति तानाशाही में होती है। जब हर नागरिक अपने मूलभूत अधिकारों को गँवा बैठता है और मानसिक ग़ुलामी का जीवन जीने को मजबूर होता है। 



प्रो देवी ने बताया कि भारत के समुद्रतटीय क्षेत्रों को आजतक सभी सरकारों ने विवेकहीनता का परिचय देते हुए व्यावसायिक उपयोग के लिए खोल दिया। नतीजा यह हुआ कि वहाँ सदियों से रहने वाले मछुआरों की बस्तियाँ उजड़ गईं। उनकी जगह होटलों और व्यापारिक प्रतिष्ठानों ने ले ली। इस तरह इन मछुआरों द्वारा बोली जाने वाली 200 भाषाएँ हमेशा के लिए लुप्त हो गईं। इनके साथ ही इन भाषाओं के लोक गीत और मुहावरे भी ग़ायब हो गये। जिनमें सदियों से संचित अनुभवों का व्यावहारिक ज्ञान छिपा था। अपनी जड़ों से उजड़ कर काम की तलाश में ये मछुआरे देश के विभिन्न अंचलों में फैल गए और अब मज़दूरी करके पेट पाल रहे हैं। 


जब उनका समुदाय ही बिखर गया तो वे अपनी भाषा में किससे  बात करेंगे? अगर समुद्र तट पर रहते, जहां का मौसम और पर्यावरण उनके जीवन का अभिन्न अंग था तो वे संगठित भी रहते। संगठित रहते तो अपने हक़ के लिए लड़ते भी और राजनैतिक प्रक्रिया में उनकी भूमिका भी होती। पर आज वे असंगठित हो कर न सिर्फ़ अपने जीविका के आधार को खो बैठे, बल्कि अपनी संस्कृति, अपनी पहचान, अपनी दिनचर्या, अपना मनोरंजन और अपना राजनैतिक अधिकार भी खो बैठे। आज ये उन मछुआरों के साथ हुआ, यही आज देश के वनवासियों के साथ भी हो रहा है और कल ये हम शहरी लोगों के साथ भी होने जा रहा है। क्योंकि डिजिटल मीडिया की भाषा पूरी दुनिया में एक हो गई है। हमारी भी भाषा इस बाढ़ में डूब रही है। आज भाषा गई, कल हमारी पहचान भी चली जाएगी। क्योंकि हमें विश्व नागरिक बनने का सपना दिखाया जा रहा है। जिसके बाद हमारे लोकतांत्रिक अधिकार भी छिन जाएँगे और हम उन मछुआरों की तरह बेघर और बेदर होकर एक रोबोट की तरह ज़िंदगी जीने को मजबूर होंगे। क्या हमें ऐसी ग़ुलामी की ज़िन्दगी स्वीकार्य है? अगर नहीं तो हमें अपनी-अपनी भाषाओं को बचाने के लिए जागरूक होना होगा।      

Tuesday, November 14, 2023

‘ट्वेल्थ फेल’ से युवाओं को सबक़


बात 1984 की है, मैं इंग्लैंड के ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालयों में व्याख्यान दे कर यूरोप में घूम रहा था। तब मेरी उम्र 28 बरस थी। बर्लिन यूनिवर्सिटी के परिसर में कुछ युवा छात्र छात्राओं से बातचीत के दौरान मैंने उनके भविष्य की योजनाओं के विषय में पूछा। सबने अलग-अलग क्षेत्रों में अपनी रुचि बताई। एक जर्मन लड़की कुछ नहीं बोली। तो मैंने उससे भी वही प्रश्न किया। इससे पहले कि वो कुछ कह पाती उसके बाक़ी साथियों ने उसका मज़ाक़ उड़ाते हुए कहा, शी इज़ फिट टू बी ए सिविल सर्वेंट। अर्थात् ये सरकारी अफ़सर बनने के लायक़ है। तब भारतीय युवाओं और पश्चिमी युवाओं की सोच में कितना भारी अंतर था। जहां एक तरफ़ भारत के, विशेषकर आर्थिक रूप से पिछड़े राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा आदि के युवा सरकारी नौकरी के लिए बेताब रहते थे और आज भी रहते हैं। वहीं पश्चिमी समाज में सरकारी नौकरी में वही जाते हैं जिनकी बौद्धिक क्षमता कम होती है। 



भारत के जिन राज्यों में रोज़गार के वैकल्पिक अवसर उपलब्ध थे, वहाँ के युवाओं की सोच भी कुछ-कुछ पश्चिमी युवाओं जैसी थी। मसलन गुजरात के युवा व्यापार में, महाराष्ट्र के युवा वित्तीय संस्थाओं में, दक्षिण भारत के युवा प्रोफेशनल कोर्स में, हरियाणा और पंजाब के युवा कृषि आदि में आगे बढ़ते थे। पिछले कुछ वर्षों से भारत में बेरोज़गारी तेज़ी से बढ़ी है। जबकि दूसरी तरफ़ कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की भरमार हो गई है। नतीजतन तमाम डिग्रियाँ बटोरे करोड़ों नौजवान नौकरी की तलाश में दर-दर भटक रहे हैं। सरकारी संस्थाएँ नौकरी के लुभावने विज्ञापन देकर इन करोड़ों नौजवानों से मोटी रक़म परीक्षा शुल्क के नाम पर वसूल लेती हैं। फिर परीक्षाओं में घोटाले और पेपर लीक होने जैसे कांड बार-बार होते रहते हैं। जिससे इन युवाओं की ज़िंदगी के स्वर्णिम वर्ष और इनके निर्धन माता-पिता की गाढ़ी कमाई भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती है। कोई बिरले होते हैं जो इस अंतहीन अंधेरी गुफा में अपने लिए प्रकाश की किरण खोज लेते हैं। उनका संघर्ष प्रेरणास्पद तो होता है पर वह एक औसत युवा के लिए दूर की कौड़ी होती है। ठीक वैसे ही जैसे किसी ज़माने में लाखों युवा देश भर से भाग कर हीरो बनने मुंबई जाते थे पर दो-चार की ही क़िस्मत चमकती थी। मनोरंजन के साथ गहरा संदेश देने में माहिर विधु विनोद चोपड़ा की नई फ़िल्म ‘ट्वेल्थ फेल’ एक ऐसे ही नौजवान की ज़िंदगी पर आधारित है जिसने चंबल के बीहड़ में निर्धन परिवार में जन्म लेकर, तमाम बाधाओं को झेलते हुए, केवल अपनी प्रबल इच्छा शक्ति से आईपीएस बन कर दिखाया। इस फ़िल्म का ये मुख्य पात्र मनोज कुमार शर्मा आजकल मुंबई बड़ा पुलिस अधिकारी है। 



इस फ़िल्म में ऐसे संघर्षशील लाखों नौजवानों की ज़िंदगी का सजीव प्रदर्शन किया गया है। जिसे देख कर हम जैसे मध्यम वर्गीय लोग अंदर तक हिल जाते हैं। मध्यम वर्ग के बच्चे तमाम सुख-सुविधाओं के बावजूद चाह कर भी जो हासिल नहीं कर पाते उसे कुछ मज़दूरों के बच्चे अपनी कड़ी मेहनत और लगन से हासिल करके पूरे समाज को आश्चर्यचकित कर देते हैं। पहले इलाहाबाद विश्वविद्यालय आईएएस या आईपीएस की नौकरी में जाने का प्रवेश द्वार हुआ करता था। पिछले चार दशकों से दिल्ली विश्वविद्यालय व जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय इसके प्रवेश द्वार बन गये हैं। उत्तरी दिल्ली का मुखर्जी नगर इसका बड़ा केंद्र है। पिछले साढ़े चार दशकों से मैं दिल्ली में रहते हुए कभी मुखर्जी नगर नहीं गया था। केवल सुना था कि वो कोचिंग संस्थानों का मछली बाज़ार है। विधु विनोद चोपड़ा ने अपनी पैनी नज़र से मुखर्जी नगर की जो हक़ीक़त पेश की है वह न सिर्फ़ युवाओं के लिए बल्कि उनके माता पिता के लिए भी आँखें खोल देने वाली है। हो सकता है कि चोपड़ा का उद्देश्य फ़िल्म की कैच लाइन री-स्टार्ट से युवाओं को प्रेरित करना हो। पर मेरी नज़र में उन्होंने इससे भी बड़ा काम किया है। देश के दूर-दराज इलाक़ों में रहने वाले मेहनतकश परिवारों को प्रतियोगी परीक्षाओं की नंगी हक़ीक़त दिखा दी है। वे सचेत हो जाएँ और अपने नौ-निहालों के कोरे आश्वासनों से प्रभावित हो कर अपना घर लुटा न बैठें। 


इस संदर्भ में मैं अपने दो व्यक्तिगत अनुभव पाठकों के हित में साझा करना चाहूँगा। मेरे वृंदावन आवास पर चित्रकूट के जनजातीय इलाक़े का एक कर्मचारी मेरी माँ से एक लाख रुपया क़र्ज़ माँग रहा था। उद्देश्य था अपने भतीजे को आईआईटी की कोचिंग के लिए कोटा (राजस्थान) भेजना। सामाजिक सेवा में  सदा से रुचि रखने वाली मेरी माँ उसे ये रक़म देने को तैयार थीं। पर इससे पहले उन्होंने उस लड़के का इंटरव्यू लेना चाहा। जिससे यह पता चला कि उसका मानसिक स्तर साधारण पढ़ाई के योग्य भी नहीं था। माँ ने समझाया कि इसे कोटा भेज कर पैसा बरबाद मत करो। इसे कोई हुनर सिखवा दो। इस पर वो कर्मचारी बहुत नाराज़ हो गया और बोला, आप बड़े लोग नहीं चाहते कि हमारे बच्चे आईआईटी में पढ़ें। इसके बाद उसने कहीं और से क़र्ज़ लेकर उस लड़के को कोटा भेज दिया। दो साल बाद दो लाख रुपये बर्बाद करके वो लड़का बैरंग लौट आया। आजकल वो वृंदावन में बिजली मरम्मत का काम करता है। 


दूसरा अनुभव बिहार के चार लड़कों के साथ हुआ। इनमें से तीन हमारे संस्थान में दो दशकों से कर्मचारी  हैं। तीनों बड़े मेहनती हैं। चौथा भाई आईपीएस बनने बिहार से रायपुर (छत्तीसगढ़) चला गया। चार बरस तक तीनों भाई दिन-रात मेहनत करके उसकी हर माँग पूरी करते रहे। अपने बच्चों का पेट काट कर उस पर लाखों रुपया खर्च किया। वो लगातार इन्हें झूठे आश्वासन देता रहा। एक बार इन भाइयों ने मुझ से पैसा माँगा। ये कह कर कि हमारा भाई आईपीएस में चुन लिया गया है और अब ट्रेनिंग के लिए लंदन जायेगा। मैंने सुनकर माथा पीट लिया। उनसे उस भाई का फ़ोन नंबर माँगा और उससे तीखे सवाल पूछे तो वो घबरा गया और उसने स्वीकारा कि पिछले चार बरसों से वो अपने तीनों भाइयों को मूर्ख बना रहा था। 


मैं विधु विनोद चोपड़ा की इस फ़िल्म को इसीलिए ज़्यादा उपयोगी मानता हूँ कि जहां एक तरफ़ ये मनोज शर्मा की ज़िंदगी से प्रेरणा लेने का संदेश देती है, वहीं प्रतियोगी परीक्षाओं की इस भयावयता को बिना लाग-लपेट के ज्यों-का-त्यों सामने रख देती है। जिससे युवा और उनके माता-पिता दोनों सचेत हो जाएँ। इसलिए इस फ़िल्म को हर शहर और गाँव के हर स्कूल में दिखाया जाना चाहिए। चाहे ये काम सरकार करे या स्वयंसेवी संस्थाएँ। ‘ट्वेल्थ फेल’ फ़िल्म की पूरी टीम को इस उपलब्धि के लिए बधाई।    

Monday, November 6, 2023

संसद में सवाल पूछने के लिए पैसे लेने का आरोप नया नहीं है


संसद में सवाल पूछने के मामले को पैसे और लॉगइन शेयर करने का मामला बनाकर कुछ दिन खबरें तो छपवाई जा सकती हैं पर यह मामला नया नहीं है और ज्यादा नहीं चलेगा। इसमें कुछ होना भी नहीं है। इंडियन एक्सप्रेस में मेरे सहयोगी रहे ए सूर्यप्रकाश, जो बाद में प्रसार भारती के प्रमुख भी बने ने पैसे लेकर संसद में सवाल पूछने का मामला बहुत पहले उठाया था । तब मैंने कालचक्र के अंग्रेजी संस्करण में उस लेख को छापा था, संसद में सवाल बिकते हैं। यह 1997 का मामला है। 


ज़्यादातर सांसंदों के कॉरपोरेट से संबंध होते हैं और कॉरपोरेट के लॉबिइस्ट भी होते हैं। इसमें वे कुछ गलत नहीं मानते और ना ही इसे रोका जा सकता है। इलेक्टोरल बॉण्ड की पारदर्शिता से बचने का सरकार का यहीं संकोच है। इसलिये सांसदों का संबंध कॉरपोरेट से रहेगा ही। अगर गहन जाँच की जाय तो ऐसा आरोप किसी पर भी लगाये जा सकते हैं।



ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ भारत में होता है। दुनिया भर के देशों में यह किसी ने किसी तरह होता ही है। ऐसे में महुआ मोइत्रा का मामला बेकार ही बड़ा बनाया जा रहा है और इसमें सांसदों की नैतिकता का मामला उठेगा और जैसा महुआ मोइत्रा ने कहा है एथिक्स कमेटी का काम था सांसदों के लिए कोड ऑफ कंडक्ट बनाना जो बना ही नहीं है। यही हाल संसद में सवाल पूछने या दर्ज अथवा पोस्ट करने के लिए यूजरआईडी, पासवर्ड शेयर करने का भी है। महुआ ने कहा है कि ऐसे कोई नियम नहीं है जबकि व्यक्ति विशेष के उपयोग के लिए जारी सरकारी यूजर आईडी औऱ पासवर्ड साझा करने पर सवाल उठाये ही जा सकते हैं।


दूसरी ओर, महुआ कह रही हैं कि यह सब आम है। ज्यादातर सासंदों के लिए यह सब काम दूसरे लोग करते हैं। उनके मामले में ओटीपी उनके फोन पर आता है इसलिए कुछ गलत नहीं है। कुल मिलाकर, विवाद हो तो रहा है पर मुद्दा इस लायक नहीं है और इसमें सांसदों का ही नहीं, एथिक्स कमेटी का व्यवहार भी सार्वजनक हो रहा है। यह अलग बात है कि सभी अखबारों में सब कुछ नहीं छप रहा है। लेकिन बहुत कुछ सार्वजनिक हो चुका है और फायदा कोई नहीं है। महुआ मोइत्रा ने यह भी कहा है कि सांसद दानिश अली की शिकायत पर सांसद रमेश विधूड़ी को भी बुलाया गया था पर वे राजस्थान चुनाव में व्यस्त हैं। इसलिए उन्हें फिलहाल छोड़ दिया गया है।



दूसरी ओर महुआ मोइत्रा ने दुर्गा पूजा के कारण चुनाव क्षेत्र में व्यस्त होने की दलील दी और पांच नवंबर के बाद की तारीख मांगी थी तो भी उन्हें 2 नवंबर की तारीख दी गई और विवाद हो गया। मूल कारण नैतिकता या एथिक्स का ही है। महुआ मोइत्रा के मामले में समिति समय बढ़ाने पर भी एकमत नहीं थी। अब लगभग सब कुछ सार्वजनिक होने और एथिक्स कमेटी में मतभेद तथा उसपर लगे आरोपों के बावजूद एथिक्स कमेटी के अध्यक्ष विनोद सोनकर ने कहा है कि विवाद खड़ा करने वाले कमेटी को काम नहीं करने देना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि विवाद हो जिससे कार्य प्रभावित हो, मगर ऐसा नहीं होगा। कमेटी अपना काम करेगी और स्पीकर को जल्द रिपोर्ट सौंपेगी। आप समझ सकते हैं कि इस मामले में रिपोर्ट की जल्दी क्यों है और रमेश विधूड़ी को छूट क्यों है। 



जाहिर है कि यह मामला पूरी तरह उन्हें परेशान करने का है और मीडिया में लीक करके तथा महुआ के आरोपों को जगह नहीं मिलने से यह बाकायदा साबित हो चला है। यह अलग बात है कि भारत की आम महिला निजी तस्वीरें सार्वजनिक किये जाने से ही परेशान हो जाती फिर भी महुआ ने सबका मुकाबला किया है और अपनी बात भी सार्वजनिक तौर पर कहती रही हैं। इसमें चैनल विशेष के लिए इंटरव्यू मांगने वाले से यह कहना शामिल है कि इंटरव्यू इसी शर्त पर दूंगी कि मुझे हीरे का वह नेकलेस दिया जाए जिसकी तस्वीर आप मेरे नाम के साथ चमकाते रहे हैं। यह इंटरव्यू की कीमत है। जाओ अपने बॉस को शब्दशः कह दो। बाद में उन्होंने इस चैट को खुद ही सार्वजनिक कर दिया।


सामान्य समझ की बात है कि पैसे लेकर सवाल पूछने का आरोप तब तक साबित नहीं होगा जब तक इस बात के लिखित सबूत नहीं होंगे कि पैसे सवाल पूछने के लिए दिये लिये जा रहे हैं। जाहिर है, ऐसा होना नहीं है। आम तौर पर अगर ऐसा कोई दस्तावेज हो भी तो रिश्वत लेने वाले के साथ देने वाला भी फंसेगा और वायदा माफ गवाह बनाये जाने की गारंटी सवाल पूछने के लिए पैसे देते समय तो नहीं ही होगी। इसलिए ना लेने वाला और ना देने वाला ऐसा दस्तावेज बनाएगा। यही नहीं, सहेली को उपहार देना भी रिश्वत नहीं हो सकता है और उपहार को भी कोई रिश्वत के रूप में दर्ज नहीं करेगा।


वैसे महुआ का कहना है कैश यानी नकद कहां है? कब, कहां, किसने, किसे दिया और क्या सबूत है। यही नहीं, स्वेच्छा से आरोपों के समर्थन में जारी किये गये शपथ पत्र में नकद देने का जिक्र ही नहीं है। इसके अलावा, नकद दिया-लिया गया इसे साबित करने का काम देने वाले को करना है, पैसे नहीं मिले हैं यह साबित करने की जरूरत नहीं है। यह इसलिए भी जरूरी है कि किसी को पैसे देने का आरोप तो कोई भी लगा सकता है कि दिये हैं। पी चिदंबरम के मामले में भी यही हुआ था और तब भी आरोप लगाने वाले को वायदा माफ गवाह बनाया गया था।


संजय सिंह के मामले में भी ऐसा ही हुया है। दस साल में एक ही तरीके से तीन दलों के तीन मुखर विरोधियों को निपटाने का यह तरीका भी विचारणीय है। फिर भी मामला चल रहा है और अखबारों तथा मीडिया में इतनी जगह पा रहा है तो इसीलिए कि महुआ सरकार के निशाने पर हैं। ऐप्पल का अलर्ट इसी संदर्भ में हो सकता है और यह कोशिश चल रही हो कि आरोप लगाने के लिए सूचनाएं कौन देता है। अलर्ट में राज्य प्रायोजित महत्वपूर्ण है और उसका संबंध पेगासस से लगता है।