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Monday, November 27, 2023

क्रिकेट की ये दीवानगी कहाँ ले जायेगी ?


23 साल के राहुल ने कोलकाता में आत्महत्या कर ली। वो क्रिकेट के विश्व कप में भारतीय टीम की हार का सदमा बर्दाश्त नहीं कर सका। ये तो एक उदाहरण है। देश के अन्य हिस्सों में दूसरे नौजवानों ने हार के सदमे को कैसे झेला इसका पूरा विवरण उपलब्ध नहीं है। यह सही है कि अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं में अपने देश की टीम के साथ देशवासियों की भावनाएँ जुड़ी होती हैं और इसलिए जब परिणाम आशा के विपरीत आते हैं तो उस खेल के चाहने वाले हताश हो जाते हैं। खेलों में हार जीत को लेकर अक्सर प्रशंसकों के बीच हाथापाई या हिंसा भी हो जाती है। इसके उदाहरण हैं, दक्षिणी अमरीका के देश जहां फुटबॉल के मैच अक्सर हिंसक झड़पों में बदल जाते हैं। यूरोप और अमरीका में भी लोकप्रिय खेलों के प्रशंसकों के बीच ऐसी वारदातें होती रहती हैं।
 

अंतर्राष्ट्रीय खेलों में इसकी संभावना कम रहती है क्योंकि वहाँ खेलने वाली टीमों में जो बाहर से आती हैं, उनके प्रशंसकों की संख्या गिनी-चुनी होती है। इसलिए वो किसी हिंसक झड़प में फँसने से बचते हैं। यहाँ हम पिछले हफ़्ते अहमदाबाद के नरेंद्र मोदी स्टेडियम में क्रिकेट विश्व कप के लिये खेले गये फाइनल मैच के प्रभाव की विस्तार से चर्चा करेंगे और सोचेंगे कि आख़िर क्यों राहुल ने एक खेल के पीछे अपनी जान दे दी। 



हमें प्राथमिक विद्यालयों से लेकर महाविद्यालयों तक शिक्षा के दौरान बार-बार ये बताया जाता है कि खेल, खेल की भावना से खेले जाते हैं। जिसमें हार और जीत इतनी महत्वपूर्ण नहीं होती जितना कि खेल के दौरान अपने कौशल का प्रदर्शन करना। जो खिलाड़ी हमेशा बढ़िया खेलते हैं वो सबके चहेते बन ही जाते हैं। जैसे विराट कोहली की बैटिंग की प्रशंसा जितनी भारत में होती है उतनी ही पाकिस्तान सहित अन्य देशों में भी होती है। ब्राज़ील का मशहूर फुटबॉल खिलाड़ी पेले पूरी दुनिया के फुटबॉल प्रेमियों का हीरो था। चिंता की बात यह है कि पैसे की हवस ने आज खेलों को भी एक उद्योग बना दिया है और खिलाड़ियों को इन उद्योगपतियों का ग़ुलाम। इस मामले में भारत में क्रिकेट पहले नंबर पर है। जिसे खिलाड़ी या खेलों के विशेषज्ञ नहीं बल्कि सत्ताधीश और पैसे की हवस रखने वाले नियंत्रित करते हैं। इसलिए क्रिकेट को इतना ज़्यादा बढ़ावा दिया जाता है। खेल के नाम पर अरबों-खरबों के वारे-न्यारे किए जाते हैं। कौन नहीं जानता कि क्रिकेट मैच के लिये सटोरिये लार टपकाए बैठे रहते हैं।बार-बार इस तरह के मामले उछले हैं जब क्रिकेट के सट्टे या मैच फिक्सिंग के आरोपों में क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के सदस्यों पर भी छींटे पड़े हैं। हमारे देश में बड़े-बड़े घोटालों की जाँच तो कभी तार्किक परिणीति तक पहुँचती ही नहीं है। केवल अख़बारों की सुर्ख़ियाँ और राजनैतिक लाभ का सामान बन कर रह जाती है। 



पिछले हफ़्ते की घटना को ही लीजिए। सवा लाख दर्शकों की क्षमता वाले स्टेडियम में प्रवेश पाने के लिए टिकटों की जमकर काला बाज़ारी हुई, ऐसे आरोप लग रहे हैं। अहमदाबाद के होटल वालों ने कमरों के किराए दस गुना बढ़ा दिये 5,000 रुपये रोज़ का कमरा 50,000 रुपये पर उठा। यही हाल हवाई यात्रा की टिकटों का भी रहा। कुल मिलाकर इस एक मैच से अरबों-खरबों का कारोबार हो गया। ये सारा मुनाफ़ा मुख्यतः अहमदाबाद के व्यापारियों की जेब में गया। उधर खिलाड़ियों को, चाहे जीतें या हारें, जो शोहरत मिलती है उसका फ़ायदा उन्हें तो मिलता ही है। बड़ी-बड़ी कंपनियाँ उन खिलाड़ियों को दिखाकर विज्ञापन बना कर मोटा लाभ कमा लेती हैं। इस सारे मायाजाल में घाटे में तो आम दर्शक रहता है। जो बाज़ार की शक्तियों के प्रभाव में इस मायाजाल का शिकार बन जाता है। कुछ देर के मनोरंजन के लिए वो अपना क़ीमती समय और धन गँवा बैठता है। उसकी हालत वैसी ही होती है जैसी ‘न ख़ुदा ही मिला, न बिसाले सनम। न इधर के रहे, न उधर के रहे।’ इस तरह के खेल से न तो उसका शरीर मज़बूत होता है और न ही दिमाग़। इसके मुक़ाबले तो फुटबॉल, हॉकी, बैडमिंटन, वॉलीबॉल जैसे खेल कहीं ज़्यादा सार्थक हैं। जिनको खेलने वालों को भी खूब श्रम करना पड़ता है और उनसे प्रेरणा लेकर अपने गाँव क़स्बे में इन खेलों को खेलने वाले युवाओं की सेहत बनती है। क्रिकेट के मुक़ाबले ये खेल काफ़ी सस्ते भी हैं। 


जब हम हर बात में अपने औपनिवेशिक शासक रहे अंग्रेजों की आलोचना करते हैं। यहाँ तक कि उनके रखे नाम ‘इंडिया’ की जगह 75 वर्ष बाद अपने देश को ‘भारत’ कह कर पहचनवाना चाहते हैं, तो हम अंग्रेजों के इस औपनिवेशिक खेल क्रिकेट के पीछे इतने दीवाने क्यों हैं? 


यह दावा किया जाता है कि भारत और कुछ  राज्यों की सत्ता हिंदुत्ववादी है। तो यहाँ एक स्वाभाविक प्रश्न खड़ा होता है कि हिंदुत्ववादी सरकारों ने अपने शासन के इन वर्षों में सनातनी संस्कृति के प्राचीन खेलों को कितना बढ़ावा दिया और अगर नहीं तो क्यों नहीं? मल्लयुद्ध, कबड्डी, कुश्ती, तीरंदाज़ी, घुड़सवारी, नौका दौड़, मल्लखम्ब जैसे खेलों की लागत भी न के बराबर होती है और इनसे युवाओं में शक्ति और बुद्धि का भी संचार होता है। यह बात अहमदाबाद के हेमेंद्रचार्य संस्कृत गुरुकुलम ने सिद्ध कर दी है। उनके विद्यार्थी बाज़ारीकरण की शक्तियों से प्रभावित हुए बिना शुद्ध सनातन संस्कृति पर आधारित शिक्षा और ऐसे पारंपरिक खेलों का प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे हैं। इसलिए वे भारत के किसी भी आधुनिक सुप्रसिद्ध विद्यालय के छात्रों के मुक़ाबले हर क्षेत्र में कहीं ज़्यादा आगे हैं। 


इस देश में क्रिकेट प्रेमियों की तादाद बहुत ज़्यादा है। क्रिकेट मैच के दौरान देश की धमनियों में रक्त रुक जाता है। आश्चर्य होता है यह देख कर कि जिन्हें इस खेल का क, ख, ग, भी नहीं पता वे भी इस खेल के दीवाने हुए रहते हैं। अपने काम और व्यवसाय से ध्यान हटा कर मैच का स्कोर जानने के लिये उत्सुक रहते हैं। ऐसे तमाम लोगों को मेरे ये विचार गले नहीं उतरेंगे। किंतु यदि वे इन बिंदुओं पर गंभीरता से विचार करें तो पायेंगे कि उनमें इस खेल के प्रति आकर्षण का कारण उनकी स्वाभाविक उत्सुकता नहीं है, बल्कि वे बाज़ारीकरण की शक्तियों के शिकार बन चुके हैं। यह ठीक ऐसे ही है जैसे काले रंग का शीतल पेय जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। जिसके उत्पादन का फार्मूला गोपनीय रखा गया है और माना जाता है कि उसमें सैक्रीन, रासायनिक रंग, पेट्रोलियम जेली और कार्बन डाइआक्साइड मिली होती है, जो सब हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। पर अंतर्राष्ट्रीय विज्ञापन के प्रभाव से हम इन शीतल पेयों को गर्व से पीते हैं। जबकि हम जानते हैं कि दूध, छाछ, फलों के रस या नारियल पानी इन काले-पीले शीतल पेयों से कहीं ज़्यादा स्वास्थ्यवर्धक होता है। यही हाल हमारे क्रिकेट प्रेमियों का भी है जिनके दिमाग़ को बाज़ार की शक्तियों ने सम्मोहित कर लिया है। इसलिये कोलकाता के युवा राहुल की आत्महत्या ने मुझे ये लेख लिखने पर बाध्य किया। आपका क्या विचार है? 

Monday, January 18, 2021

देवदूत थे कमल मोरारका



74 वर्ष की आयु में सूर्य के उत्तरायण में प्रवेश करते ही एक दीर्घ श्वास छोड़ कर इस नश्वर संसार से परलोक गमन कर गए कमल मोरारका। देश भर में हज़ारों साहित्यकार, कलाकार, समाजसेवी, पत्रकार, राजनेता व अन्य सैकड़ों लोग हैं, जो उन्हें इंसान नहीं फरिश्ता मानते हैं। आज उनके यूँ अचानक चले जाने से वे सब गमगीन हैं। भारत का कोई तीर्थ स्थल नहीं जहां उन्होंने सनातन धर्म की सेवा में उदारता से दान न दिया हो।


वे चंद्रशेखर सरकार के प्रधानमंत्री कार्यालय के मंत्री भी रहे और लम्बे समय तक क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के उपाध्यक्ष भी रहे। ब्रज क्षेत्र में कुंडों के जीर्णोद्धार में, राजस्थान, हिमाचल व अन्य राज्यों  में जैविक कृषि के प्रसार में, दिल्ली में अनेक साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिविधियों के संरक्षण में, समाजवादी विचारधारा के लोगों को उनकी गतिविधियाँ चलाने में, नवलगढ़ में हवेलियों के संरक्षण में, वाइल्ड लाइफ़ फ़ोटोग्राफ़ी में, कई मीडिया प्रकाशनों को चलाने में और समकालीन राजनीति पर बेबाक़ी से अपने विचारों को व्यक्त करने में उनकी पूरे देश में अलग ही पहचान थी। 


‘देनहार कोई और है, देत रहत दिन रैन। लोग भरम मो पे करें, या सों नीचे नैन।।’ इस भावना को पूरी तरह चरितार्थ करने वाले कमल मोरारका की जिंदगी से जुडे़ ऐसे सैकड़ों किस्से हैं, जिन्हें उन्होंने कभी नहीं सुनाया, पर वो लोग सुनाते हैं, जिनकी इन्होंने मदद की। ये किस्सा सुनकर शायद आप यकीन न करें। पर है सच। मुंबई के मशहूर उद्योगपति कमल मोरारका अपने मित्रों के सहित स्वीट्जरलैंड के शहर जेनेवा के पांच सितारा होटल से चैक आउट कर चुके थे। सीधे एयरर्पोट जाने की तैयारी थी। तीन घंटे बाद मुंबई की फ्लाइट से लौटना था। तभी उनके निजी सचिव का मुंबई दफ्तर से फोन आया। जिसे सुनकर ये सज्जन अचानक अपनी पत्नी और मित्रों की ओर मुड़े और बोले, ‘आप सब लोग जाईए। मैं देर रात की फ्लाइट से आउंगा’। इस तरह अचानक उनका ये फैसला सुनकर सब चैंक गये। उनसे इसकी वजह पूछी, तो उन्होंने बताया कि, ‘अभी मेरे दफ्तर में कोई महिला आई है, जिसका पति कैंसर से पीड़ित है। उसे एक मंहगे इंजैक्शन की जरूरत है। जो यहीं जेनेवा में मिलता है। मैं वो इंजैक्शन लेकर कल सुबह तक मुबई आ जाउंगा। परिवार और साथी असमंजस्य में पड़ गये, बोले इंजेक्शन कोरियर से आ जायेगा, आप तो साथ चलिए। उनका जबाव था, ‘उस आदमी की जान बचाना मेरे वक्त से ज्यादा कीमती है’।


मोरारका जी का गोवा में भी एक बड़ा बंगला है। जिसके सामने एक स्थानीय नौजवान चाय का ढाबा चलाता था। वे हर क्रिसमस की छुट्ट्यिों में गोवा जाते थे। जितनी बार ये कोठी में घुसते और निकलते, वो ढाबे वाला दूर से इन्हें हाथ हिलाकर अभिवादन करता। दोनों का बस इतना ही परिचय था। एक साल बाद जब ये छुट्ट्यिों में गोवा पहंचे तो दूर से देखा कि ढाबा बंद है। इनके बंगले के चैकीदार ने बताया कि ढाबे वाला कई महीनों से बीमार है और अस्पताल में पड़ा है। इन्होंने फौरन उसकी खैर-खबर ली और मुंबई में उसके पुख्ता और बढ़िया इलाज का इंतेजाम किया।


भगवान की इच्छा, पहले मामले में उस आदमी की जान बच गई। वो दोनों पति-पत्नी एक दिन इनका धन्यवाद करने इनके दफ्तर पहुंचे। स्वागत अधिकारी ने इन्हें फोन पर बताया कि ये दो पति-पत्नी आपको धन्यवाद करने आये हैं। इनका जबाव था कि, ‘उनसे कहो कि मेरा नहीं, ईश्वर का धन्यवाद करें‘ और ये उनसे नहीं मिले। गोवा वाले मामले में, ढाबे वाला आदमी, बढ़िया इलाज के बावजूद मर गया। जब इन्हें पता चला, तो उसकी विधवा से पुछवाया कि हम तुम्हारी क्या मदद कर सकते हैं। उसने बताया कि मेरे पति दो लाख रूपये का कर्जा छोड़ गये हैं। अगर कर्जा पट जाये, तो मैं ढाबा चलाकर अपनी गुजर-बसर कर लूंगी। उसकी ये मुराद पूरी हुई। वो भी बंगले में आकर धन्यवाद करना चाहती थी। इन्होंने उसे भी वही जबाव भिजवा दिया कि मेरा नहीं भगवान का धन्यवाद करो। इसे कहते हैं, ‘नेकी कर, दरिया में डाल’।


दरअसल भारत के पूंजीवाद और पश्चिम के पूंजीवाद में यही बुनियादी अंतर है। पश्चिमी सभ्यता में धन कमाया जाता है, मौज-मस्ती, सैर-सपाटे और ऐश्वर्य प्रदर्शन के लिए। जबकि भारत का पारंपरिक वैश्य समाज ‘सादा जीवन, उच्च विचार के सिद्धांत को मानता आया है। वो दिन-रात मेहनत करता रहा और धन जोड़ता रहा है। पर उसका रहन-सहन और खान-पान बिलकुल साधारण होता था। वो खर्च करता तो सम्पत्ति खरीदने में या सोने-चांदी में। इसीलिए भारत हमेशा से सोने की चिड़िया रहा है। दुनिया की आर्थिक मंदी के दौर भी भारत की अर्थव्यवस्था को झकझोर नहीं पाये। जबकि उपभोक्तावादी पश्चिमी संस्कृति में क्रेडिट कार्ड की डिजिटल इकॉनौमी ने कई बार अपने समाजों को भारी आर्थिक संकट में डाला है। 


अमरिका सहित ये तमाम देश आज खरबों रूपये के विदेशी कर्ज में डूबे हैं। वे सही मायने में चार्वाक के अनुयायी हैं, ‘जब तक जियो सुख से जियो, ऋण मांगकर भी पीना पड़े तो भी घी पियो‘। यही कारण है कि डिजिटल अर्थव्यवस्था की नीतियों को भारत का पारंपरिक समाज स्वीकार करने में अभी हिचक रहा है। उसे डर है कि अगर हमारी हजारों साल की परंपरा को तोड़कर हम इस नई व्यवस्था को अपना लेंगे, तो हम अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक माफियाओं के जाल में फंस जायेंगे। अब ये तो वक्त ही बतायेगा कि लोग बदलते हैं, कि नीतियां।


हम बात कर रहे थे, इंसानी फरिश्तों की। आधुनिकता के दौर में मानवीय संवेदनशीलता भी छिन्न-भिन्न हो जाती है। ऐसे में किसी साधन संपन्न व्यक्ति से मानवीय संवेदनाओं की अपेक्षा करना, काफी मुश्किल हो जाता है। जबकि नई व्यवस्था में सामाजिक सारोकार के हर मुद्दे पर बिना बड़ी कीमत के राहत मुहैया नहीं होती। इससे समाज में हताशा फैलती है। संरक्षण की पुरानी व्यवस्था रही नहीं और नई उनकी हैसियत के बाहर है। ऐसे में इंसानी फरिश्ते ही लोगों के काम आते हैं, पर उनकी तादाद अब उंगलियों पर गिनी जा सकती है। कमल मोरारका एक ऐसी शख्सियत थे, जिनकी जितनी तारीफ की जाये कम है। बहुत याद आएँगे वे।