पिछले हफ्ते उत्तर प्रदेश के अखबारों में खबर छपी कि ताजमहल की दरारों में भद्दी तरीके से प्लास्टर आ¡फ पेरिस भरकर लीपापोती की जा रही है। उसके फर्शों पर पान की पीक के दाग हैं और तमाम दावों के बावजूद उसका रंग पीला पड़ रहा है। इस खबर के छपते ही राष्ट्रकुल खेलों की तैयारी में जुटे देश के कर्णधारों में हड़कम्प मचा और आनन-फानन में एक मोटी रकम ताज की सफाई के लिए पुरातत्व विभाग में आवण्टित कर दी गई। ऐसी हड़बड़ाहट और फौरी कार्यवाहियों से धरोहरों की रक्षा नहीं हुआ करती। धरोहरों की रक्षा और उनकी प्रस्तुति करने के लिए जिस जज्बे और समझ की जरूरत है, वह हमारे हाकिमों में नहीं है। पर हाकिमों की क्या कहें, जनता भी धरोहरों की कीमत नहीं समझती। तभी तो उनकी इतनी दुर्दशा है।
बचपन से सुनते आये थे कि ‘‘यूनान, मिस्त्र और रोमा सब मिट गये जहाँ से, कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी’’। अल्लामा इकबाल की यह नज्म हर हिन्दुस्तानी की जुबान पर है। बेशक हमारी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत विश्व में अनूठी है और उसमें निरन्तरता है। जबकि पश्चिमी देशों की संस्कृति भौतिकतावादी होने के कारण इतनी गहराई तक नहीं गयी है। पर रूहानियत को छोड़ दें और सांस्कृतिक अवशेषों की बात करें तो शायद हमारा यह दावा सही नहीं बैठेगा।
पिछले हफ्ते रोमन साम्राज्य की भूमि इटली के तीन शहरों में दो-दो, तीन-तीन दिन रहा। फ्लोरेंस, वेनिस व रोम में जो धरोहरों की रक्षा, संरक्षण, प्रस्तुतिकरण, व्यवसायिकरण देखा, वह हैरतअंगेज था। रोम में इक्कीस सौ साल पुराना स्टेडियम है जिसे कोलोजियम कहते हैं। यह कोलोजियम 187 मीटर लम्बा और 155 मीटर चैड़ा है, जिसमें 80 मेहराबें हैं। जिसमें दर्शकों के बैठने की 19 पंक्तियाँ हैं और एक बार में लगभग 40 हजार दर्शक बैठकर खेलों का आनन्द ले सकते हैं। कोलोजियम के महत्व और इतिहास को किसी भी बेवसाईट पर देखा जा सकता है। जो बात यहाँ महत्वपूर्ण है, वह यह है कि इस धरोहर को इटली के लोगों ने बड़ी नफासत से सहेज कर रखा है। इसमें प्रवेश के लिए बारह सौ रूपये की टिकट है। आ¡डियो गाईड है, जिन्हें कान पर लगाकर आप स्टेडियम के किसी भी कोने पर खड़े होकर उसके इतिहास की कमेंट्री सुन सकते हैं। यह तो एक उदाहरण है। पूरे इटली और फ्रांस में ऐसे हजारों उदाहरण हैं जहाँ ऐतिहासिक भवनों, चित्रों, मूर्तियों, फव्वारों, पुलों, फर्नीचर, सजावट का साजो-सामान बड़े करीने से सजाकर रखा गया है। दो हजार से पाँच सौ साल पुरानी इन धरोहरों की चमक-दमक देखकर लगता नहीं कि ये इतनी पुरानी हैं। इतना ही नहीं, इन देशों के आम नागरिक अपनी इन धरोहरों की बड़ाई करते और उन पर गर्व करते थकते नहीं हैं। दुनियाभर का सैलानी मीलों लम्बी कतार में खड़े होकर इन धरोहरों को देखने आता है और दाँतो तले उँगली दबा लेता है। इन सैलानियों के कारण इन देशों में खूब पैसा आता है।
दूसरी तरफ हम हिन्दुस्तानी हैं, जो सारे जहाँ से अच्छा होने का दावा तो करते हैं, पर धरोहरों को तोड़कर उन पर मकान बनाने, काॅलोनी काटने, व्यवसायिक भवन खड़ा करने में कोई कोताही नहीं बरतते। जो ऐतिहासिक इमारत सदियों की मार झेले खड़ी होती है, वह भूमाफिया की कृपा से शुक्रवार के दिन से सोमवार की सुबह तक धूल में मिल जाती है। क्योंकि शनिवार को प्रायः अदालतें बन्द होती हैं। इसलिए स्थगन प्रस्ताव आना सम्भव नहीं होता। ब्रज क्षेत्र में ऐसा विनाश हर दिन गत् 7 वर्षों से देख रहा हूँ। एक टीस मन में उठती है। पर बहुत कुछ कर नहीं पाता। क्योंकि एक-एक इमारत को बचाने के लिए महीनों संघर्ष करना पड़ता है। लोग भण्डारों और फूल बंगलों पर तो लाखों लुटा देते हैं। भागवत कथाओं के पण्डाल करोड़ों में बनवाते हैं। पर भगवत लीलाभूमि में व्यापार की सम्भावनाऐं तलाशते रहते हैं। भगवान की लीलास्थलियों को लीलने को तैयार रहते हैं। इनके जीर्णोद्धार के लिए उनके मन में न कभी विचार आता है, न वे कोई प्रयास करते हैं। वृन्दावन में तो ऐसे श्रीमन्त महन्त हैं जो वृन्दावन की रक्षा का वर्षों से झण्डा बुलन्द किये हैं, पर एक वर्गफुट धरोहर भी बचा नहीं पाये। इतना ही नहीं स्वंय धरोहरों पर कब्जा कर अपने लिए महल बना लिए। साधन सम्पन्न भक्त ऐसे महंतों के आगे उनकी भव्यता देख नतमस्तक हो जाते हैं। जिन्हें बरगला कर ये निरर्थक कामों में और अपने वैभव को बढ़ाने में पैसा बर्बाद करवाते रहते हैं। अगर वृन्दावन की इतनी ही चिन्ता है तो उन्हें सभी धरोहर भवनों को खाली करवाकर उनका जीर्णोद्धार करवाना चाहिए और उनमें ब्रज की संस्कृति व साहित्य और चित्रों की प्रदर्शनियाँ और कार्यक्रम आयोजित किये जाने चाहिऐं।
ब्रज ही क्यों दिल्ली के हौजखास जैसे ऐतिहासिक भवन में पुरातत्व विभाग के नियमों की धज्जियाँ उड़ाकर और इन भवनों से छेड़-छाड़ कर ऐसे व्यवसायिक प्रतिष्ठान चलाये जा रहे हैं, जिनका इन भवनों के इतिहास से कोई लेना-देना नहीं है। कमोबेश यही हालत देश की बाकी धरोहरों की भी हो रही है। राष्ट्रकुल खेलों की तैयारी की हड़बड़ी में देश की राजधानी के निकटवर्ती क्षेत्रों में धरोहरों के संरक्षण का जो कार्य अब रात-दिन किया जा रहा है, वह तसल्ली से, सुनियोजित तरीके से, समय से क्यों नहीं किया जा सकता था? इस तरह हड़बड़ी में किये जा रहे कार्यों में गुणवत्ता को सुनिश्चित करना असम्भव होगा। भवन छोड़, भारत की सांस्कृतिक और आर्थिक विरासत की प्राणदायिनी धरोहर गंगा और जमुना तक को हम नहीं बचा पाये।
पुरातत्व विभाग तो धरोहरों की ठीक सूची तक नहीं बनाता है। उनका व्यापक लेखा-जोखा तक उसके पास नहीं है। संरक्षण के लिए धन अभाव का रोना हमेशा रोया जाता है। पर उनका डाॅक्यूमेंटेशन करना और उनके संरक्षण के लिए स्थानीय जनता को प्रेरित करना और उसके साथ साझी समितियाँ बनाकर जीर्णोद्धार और संरक्षण के प्रयास करना तो सम्भव हो ही सकता है। अब जबकि भारत में पर्यटन कई नई ऊँचाईयाँ छू रहा है, जैसे सांस्कृति पर्यटन, मेडिकल पर्यटन, व्यापारिक पर्यटन, धार्मिक पर्यटन आदि, तब इस बात पर गहरा चिन्तन और मंथन किया जाना चाहिए कि अपनी धरोहरों को बचाने, सजाने और उन्हें पर्यटन के बाजार में सुसंस्कृत रूप में प्रस्तुत करने के लिए हमे क्या करना चाहिए? वर्ना भविष्य में हम अपनी सांस्कृतिक धरोहरों के अवशेषों को देखने से वंचित रह जायेंगे।
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