Monday, May 2, 2011

लोकपाल विधेयक पर सिविल सोसाइटी में सहमति नहीं


 Amar Ujala 02-05-2011
पिछले हफ्ते अरविन्द केजरीवाल, स्वामी अग्निवेश व किरण बेदी ने देश के कुछ खास लोगों को दिल्ली बुलाकर प्रस्तावित लोकपाल विधेयक पर खुली चर्चा की। इस चर्चा से यह स्पष्ट हुआ कि विधेयक के मौजूदा प्रारूप को लेकर सिविल सोसाइटी में भारी मतभेद हैं।

प्रस्तावित विधेयक में नेताओं और अफसरों के विरूद्ध तो कड़े प्रावधान हैं, लेकिन समिति यह भूल रही है कि भ्रष्टाचार की ताली एक हाथ से नहीं बजती। भ्रष्टाचार बढ़ाने में सबसे बड़ा हाथ, बड़े औद्योगिक घरानों का देखा गया है। जो चुनाव में 500 करोड़ रूपया देकर अगले 5 सालों में 5 हजार करोड़ रूपये का मुनाफा कमाते हैं। जब तक यह व्यवस्था नहीं बदलेगी, तब तक राजनैतिक भ्रष्टाचार खत्म नहीं हो सकता। ऐसे उद्योगपतियों को पकड़ने के लिए लोकपाल विधेयक में कोई प्रावधान फिलहाल नहीं हैं।

इस बैठक में मैंने याद दिलाया कि लोकपाल तो जब बनेगा, जाँच करेगा और सजा दिलवायेगा, तब तक दो साल और लग जायेंगे; पर जैन हवाला काण्ड में हमने 1996 में ही देश के दर्जनों मंत्रियों, राज्यपालों, मुख्यमंत्रियों व बड़े अधिकारियों को भ्रष्टाचार के मामले में चार्जशीट करवाया था। बाद के वर्षों में दूसरे घोटालों में जयललिता, लालू यादव, सुखराम, मधु कोढ़ा, ए.राजा और सुरेश कलमाड़ी तक, बड़े से बड़े राजनेता बिना लोकपाल के ही मौजूदा कानूनों के तहत पकड़े जा चुके हैं। अगर इन्हें सजा नहीं मिली तो हमें सी.बी.आई. की जाँच प्रक्रिया में आने वाली रूकावटों को दूर करना चाहिए। केन्द्रीय सतर्कता आयोग की स्वायत्ता सुनिश्चित करनी चाहिए। एकदम से सारी पुरानी व्यवस्थाओं को खारिज करके नई काल्पनिक व्यवस्था खड़ी करना, जिसकी सफलता अभी परखी जानी है, बुद्धिमानी नहीं होगी।

अनेक वक्ताओं ने कहा कि यद्यपि न्यायपालिका में भारी भ्रष्टाचार है, फिर भी न्यायपालिका को लोकपाल के अधीन लाना सही नहीं होगा। न्यायपालिका की जबावदेही सुनिश्चित करने की अलग व्यवस्था बनानी चाहिए। क्योंकि उसकी कार्यप्रणाली और कार्यपालिका की कार्यप्रणाली में मूलभूत अन्तर होता है। जिसके लिए न्यायपालजैसी कोई व्यवस्था रची जा सकती है।

प्रस्तावित लोकपाल को केवल राजनेताओं के आचरण पर निगाह रखने का काम दिया जाना चाहिए। इस तरह अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था में जो चैक व बैलेंसकी व्यवस्था है, वह बनी रहेगी। सबसे बड़ा सवाल तो ईमानदार लोकपाल को ढूंढकर लाने का है। जब सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ही भ्रष्ट आचरण करते रहे हों तो यह काम बहुत मुश्किल हो जाता है। ऐसे में अगर लोकपाल को न्यायपालिका, कार्यपालिका व विधायिका तीनों के ऊपर निगरानी रखने का अधिकार दे दिया तो भ्रष्ट लोकपाल पूरे देश का कबाड़ा कर देगा। फिर कहीं बचने का रास्ता नहीं मिलेगा।

इसके साथ ही यह भी देखने में आया है कि स्वंयसेवी संस्थाऐं (एन.जी.ओ.) जो विदेशी आर्थिक मदद लेती हैं, उसमें भी बड़े घोटाले होते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाऐं भी भारत में बड़े घोटाले कर रही हैं। तो ऐसे सभी मामलों को जाँच के दायरे में लेना चाहिए। इस पर विधेयक में अभी तक कोई प्रावधान नहीं है।

भ्रष्टाचार से आम हिन्दुस्तानी दुखी है और इससे निज़ात चाहता है। इसलिए अन्ना का अनशन शहरी मध्यम वर्ग के आक्रोश की अभिव्यक्ति बन गया। पर इसके साथ ही इस आन्दोलन से जुड़े कुछ अहम सवाल भी उठ रहे हैं। पहला तो यह कि भूषण पिता-पुत्र अनैतिक आचरण के अनेक विवादों में घिरे हैं। फिर भी उन्हें अन्ना समिति से हटा नहीं रहे हैं। उस समिति से, जो भ्रष्टाचार से निपटने का कानून बनाने जा रही है। उल्लेखनीय है कि मुख्य सतर्कता आयुक्तपी.जे. थाॅमस की नियुक्ति को चेतावनी देने वाली प्रशांत भूषण की ही जनहित याचिका में तर्क था कि ऐसे संवेदनशील पद पर बैठने वाले का आचरण संदेह से परेहोना चाहिए। अलबŸाा प्रशांत ने अदालत में जिरह करते वक्त यह कहा था कि, ‘‘मैं जानता हूँ कि थाॅमस भ्रष्ट नहीं हैं।’’ पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त श्री लिंग्दोह ने भी थाॅमस को सच्चरित्र बताया था। फिर भी सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि यदि जनता को संदेह है तो थाॅमस को जाना पड़ेगा।

वही प्रशांत भूषण, थाॅमस से जो अपेक्षा रखते थे, उसे अपने ऊपर लागू नहीं करना चाहते। जब दोनों पिता-पुत्र के आचरण पर इतने सारे सवाल खड़े हो गये हैं, तो सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले की भावना के अनुरूप इन दोनों को लोकपाल विधेयक बनाने वाली समिति से हट जाना चाहिए। पर विडम्बना देखिए कि न तो वे खुद हटना चाहते हैं और न ही उनके साथी उन्हें हटा रहे हैं। एक अंग्रेजी टी.वी. चैनल पर बहस के दौरान जस्टिस हेगडे़ और भारत के पूर्व महाअधिवक्ता सोली सोराबजी ने मुझसे कहा कि भूषण का आचरण नहीं, उनकी कार्यक्षमता देखनी चाहिए।मेरा जबाव था कि जिस व्यक्ति के चरित्र पर संदेह हो, उससे पारदर्शी कानून बनाने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है?

फिलहाल इस बहस को अगर यहीं छोड़ दें तो सवाल उठता है कि इस वाली सिविल सोसाइटीने परदे के पीछे बैठकर जल्दबाजी में सारे फैसले कैसे ले लिए। देश को न्यायविदों के नाम सुझाने का 24 घण्टे का भी समय नहीं दिया। पिता-पुत्र को ले लिया और विवाद खड़ा कर दिया। सर्वेंट आॅफ इण्डिया सोसाइटी व ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ताओं का आरोप है कि इस समिति के सदस्यों ने लोकपाल विधेयकपर उनका अर्से से चल रहा आन्दोलन यह कहकर बन्द करवा दिया कि इस मुद्दे पर सब मिलकर लड़ेंगे। फिर उनकों ठेंगा दिखा दिया। उधर बाबा रामदेव का भी आरोप है कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध सारी हवा उन्होंने बनाई, इन लोगों को मंच, आस्था टी.वी. चैनल पर कवरेज और इनकी सभाओं में अपने समर्थक भेजकर भारी भीड़ जुटाई। पर अन्ना हजारे के धरने के शुरू होते ही, इन्होंने बाबा से भी पल्ला झाड़ लिया। बाबा इससे आहत हैं और आगे की लड़ाई वे इन्हें बिना साथ लिये लड़ना चाहते हैं।

समिति के प्रवक्ताओं का यह कहना कि इस विधेयक को इन पिता-पुत्र के अलावा कोई नहीं तैयार कर सकता, बड़ा हास्यास्पद लगता है। 121 करोड़ के मुल्क में क्या दो न्यायविद् भी ऐसे नहीं हैं जो इस कानून को बनाने में मदद कर सकें? हजारों हैं जो इनसे कहीं बढि़या और प्रभावी लोकपाल विधेयक तैयार कर सकते हैं। पर समिति की नीयत साफ नज़र नहीं आती और वह दूसरों पर आरोप लगा रही है कि उसके खिलाफ षडयंत्र रचा जा रहा है। पाठक जानते हैं कि हम पिछले कितने वर्षों से उन षडयंत्रों के बारे में लिखते आ रहे हैं जो निहित स्वार्थ भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़े जा रहे संघर्षों को पटरी पर से उतारने के लिए रचते हैं। इसमें हमने भूषण पिता-पुत्रों और रामजेठमलानी की भूमिका का भी उल्लेख कई बार किया है। हमारा सी.डी. विवाद से कोई लेना-देना नहीं है। क्योंकि हम अन्ना हज़ारे की माँग का पूरा समर्थन करते हैं और चाहते हैं कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध कड़े कानून बनें। पर इस तरह नासमझी से और रहस्यमयी तरीके से नहीं, जैसा आज हो रहा है।

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