नोएडा के आरूषि हत्या कांड की जांच उत्तर प्रदेश पुलिस ने जिस तरह की गलतियां की हैं उन्हें लापरवाही नही माना जा सकता। साफ लगता है कि शुरूआती जांच में पुलिस ने हत्यारों को बचाने की कोशिश की। अखबारों में और टीवी चैनलों पर अनेक तथ्य सामने आ चुके हैं जिनसे इस आरोप की पुष्टि होती है। नोएडा के थानेदार ने आरूषि के कमरे में दीवार पर लगे खून के निशान और उसके सिर के बाल का नमूना क्यों नहीं लिया। आरूषि के माता पिता के असमान्य व्यवहार पर पुलिस ने कोई जांच क्यों नहीं की। पुलिस ने आरूषि का पोस्टमार्टम परंपरा से हटकर जल्दीबाजी में क्यों करवाया। जांच टीम ने घटना स्थल से ऊपर जा रहे जीने की रेलिंग पर और छत के दरवाजे पर लगे खून के निशान क्यों नहीं देखे। ऐसे तमाम कारण है जो ये सिद्ध करते हैं कि पुलिस ने जांच के नाम पर नाटक किया।
ऐसा पहली बार नही हुआ। निठारी कांड ने भी उ. प्र. पुलिस की ऐसी ही मिली भगत सामने आयी थी। आमतौर पर महत्वपूर्ण लोगों या पैसे वाले लोगों से जुड़े अपराधों में उप्र.पुलिस अक्सर अपराधियों को संरक्षण देने का काम करती आयी है। लखनऊ में मशहूरबैडमिंटन खिलाड़ी सैयद मोदी की हत्या की जांच में भी इसी तरह पुलिस ने सबूतों को मिटाने का काम किया। अपराधियों की स्वाकारोक्ति के बाद भी उन्हें सजा नहीं मिल
पायी। क्योंकि उनके विरुद्ध सबूतों को पुलिस ने ही गायब कर दिया था।
फूलन देवी की हत्या दिल्ली के पौश इलाके अशोक रोड स्थित अपनी कोठी के पास हुई। फूलन देवी के सुरक्षा गार्डों ने न तो उसे बचाने की कोशिश की और न हीं हत्यारों को पकड़ने की। दिल्ली पुलिस के आला अधिकारी दावा करते हैं कि दिल्ली में सुरक्षा के तीन अभेद घेरे हैं। कोई अपराधी अगर अपराध करके भागता है तो उसे इन घेरों में तुरंत पकड़ा जा सकता है। फिर क्या वजह थी कि फूलन देवी के हत्यारे इन तीनों सुरक्षा घेरों को आसानी से पार करके दिल्ली की सरहदों के बाहर निकल गये। इतना ही काफी नही था जब हत्यारे को पश्चिमी उ. प्र. से पकड़ कर लाया गया और ऐशिया की सबसे बड़ी और सुरक्षित मानी जाने वाली तिहाड़ जेल में कैद करके रखा गया तो आश्चर्य देखिए कि हत्यारे के मित्र फर्जी वारंट दिखाकर उसे तिहाड़ जेल से छुड़ा ले गये।
जैन हवाला कांड में 1991 में सीबीआई ने छापा डाला और मार्च 1995 तक जैन बंधु स्वतंत्र घूमते रहे। जनहित याचिका की सुनवायी के दौरान जब सीबीआई ने सर्वोच्च अदालत में झूठा शपथ पत्र दाखिल किया कि जैन बंधु फरार है और उनको ढ़ूंढने के लिए नोटिस चस्पा किये गये हैं तो जनहित याचिकाकर्ता ने अदालत को दिल्ली के प्रतिष्ठित अंगे्रजी दैनिक के पहले पेज पर छपी एक प्रमुख खबर दिखाई जिसमें लिखा था कि गत सप्ताह जैन बंधुओं ने अपने फार्म हाऊस पर एक शानदार दावत की जिसमे कई नामी हस्तियां मौजूद थीं। ये कैसे हो सकता है कि खुलेआम शानदार दावतें देने वाले व्यक्ति को ढूंढने में सीबीआई तो नाकाम रही और पत्रकारों को उनके क्रिया कलापों की जानकारी सहजता से उपलब्ध थी। साफ जाहिर है कि सीबीआई ने इस कांड में ऐसी ही तमाम साजिशें करके अपराधियों को निकल भागने के दर्जनों मौके दिये। जिनका प्रमाण सर्वोच्च न्यायालय की केस फाइल में दर्ज है। ठीक ऐसे ही बोफोर्स से लेकर स्टैंप घोटाले तक की जांच में होता आया है।
उत्तर पूर्वी राज्य के एक बड़े नेता के सपूत ने एक शिक्षक की बेटी के साथ बलात्कार कर उसे झील में फेंक दिया। उसे डूब कर मरा बता दिया गया। जब विरोधी दलों ने शोर मचाया तो जांच सीबीआई को सौंपी गयी। मजे की बात यह है कि इस हत्या की जांच भी हो गयी। पर उस अभागी लड़की के विसरा के नमूनों की सील तक नहीं टूटी। यानी बिना कीकात के रिपोर्ट बना दी गयी। ये सपूत सबूत के अभाव में बरी हो गया। सारे देश में खोजने चले तो ऐसे हजारों उदाहरण मिलेगें जहां पुलिस जांच में जानबूझ कर निकम्मापन करती हैं। ज्यादातर मामले न तो प्रकाश में आते हैं और न ही मीडिया की उन पर नजर पड़ती है।
दरअसल राज्यों की पुलिस का बहुत तेजी से राजनैतिककरण हुआ है। आज उत्तर प्रदेश में ऊपर से नीचे तक पुलिस राजनैतिक दलों के बीच बट गयी है। कम्प्यूटर में बाकायदा बसपा व सपा से जुड़े पुलिस अधिकारियों और सिपाहियों की सूचियां दर्ज हैं। जिन्हें ध्यान में रखकर ही उनकी तैनाती की जाती है। ऐसे मे पुलिस से सही और निष्पक्ष जांच की उम्मीद करना मूर्खता होगी।
आज पुलिस व्यवस्था का राजनैतिककरण समाज के लिए बहुत घातक होता जा रहा है। इसे रोकने के ठोस प्रयास किये जाने चाहिए। ऐसे दर्जनों सुझाव है जिन पर अमल किया जा सकता है। बशर्तें कि राज्यों के मुख्यमंत्री और केन्द्र की सरकार पुलिस व्यवस्था में सुधार कर इसे प्रभावशाली, निष्पक्ष और जनउपयोगी बनाना चाहें। जरूरत इस बात की है कि सर्वोच्च न्यायालय और प्रांतों के उच्च न्यायालयों के अधीन आपराधिक जांच के लिए योग्य पुलिसकर्मियों की इकाइयां गठित की जायें। जो अदालत के निर्देश पर निडर होकर जांच करें। उन्हें सत्तारूढ़ दलों की नाराजगी का डर न हों। ये ऐजेंसियां महत्वपूर्ण मामलों की समयबद्ध जांच करें और निडर होकर अपनी जांच अदालत को सौंप दें। तभी अपराधी पकड़े जाऐंगे। वरना अपराधी ही नहीं आतंकवादी भी छूटते रहेंगे और जनता तबाह होती रहेगी क्यों आज तो हमारी पुलिस काफी निकम्मी हो चुकी है। एक शेर माकूल रहेगा- रात का अंदेशा था, लुट गए उजाले में।
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