Monday, February 21, 2022

जीयर स्वामी: युगपुरुष आज भी जन्म लेते हैं


गत
2 फ़रवरी से सारे भारत के सनातनधर्मियों का ध्यान हैदराबाद हवाई अड्डे के पास स्थित रामानुज सम्प्रदाय के अति सम्मानित संत श्री श्री श्री त्रिदंडी चिन्ना जीयर स्वामी के आश्रम पर केंद्रित है। जहां उन्होंने एक इतिहास रचा है। लगभग 100 एकड़ में फैले परिसर में जीयर स्वामी जी ने श्री रामानुजाचार्या की 216 फुट ऊँची प्रतिमा की स्थापना की है। इसमें श्री रामानुजाचार्या जी बैठी हुई मुद्रा में हैं। 150 किलो सोने की पालिश पंच धातुओं से बनी बैठी मुद्रा में यह विश्व की दूसरी सबसे बड़ी मूर्ति है। इसी मुद्रा में इससे ऊँची मूर्ति थाईलैंड में भगवान बुद्ध की है।14 फ़रवरी तक चलने वाले इस महोत्सव में सारे भारत से भक्त और संतगण तो दर्शनार्थ आए ही, साथ ही भारत के राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति प्रधान मंत्री भी इस प्रभावशाली विग्रह के दर्शन करके जा चुके हैं।   



जीयर
 स्वामी ने इस मूर्ति कोस्टैच्यू ऑफ इक्वालिटीका नाम दिया है, यानीसमता मूर्ति इस महोत्सव में दो दिन के लिए पुण्य लाभ प्राप्त करने मैं भी हैदराबाद गया। क्योंकि जीयर स्वामी का हम पर विशेष अनुग्रह रहा है। उनके ही आशीर्वाद से मथुरा के गोवर्धन क्षेत्र में हमनेसंकर्षण कुंडका जीर्णोद्धार किया था और उन्ही के द्वारा वहाँ 34 फुट ऊँची काले ग्रेनाइट की संकर्षण भगवान की मूर्ति स्थापित की गई थी। जिसे जीयर स्वामी ने ब्रज फ़ाउंडेशनके लिए तिरुपति बालाजी में बनवाया (तराशा) था। पर 2017 में योगी आदित्यनाथ सरकार ने सत्ता में आते ही नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। जिसका ब्रजवासियों को ही नहीं बल्कि जीयर स्वामी जी को भी भारी दुःख है।


पंचधातुसे बनीस्टैच्यू ऑफ इक्वालिटीभक्ति काल के संत रामानुजाचार्य की 1000 वीं जयंती (1017-2017) समारोह यानी श्री रामानुज सहस्राब्दि समारोह का हिस्सा है। इसमें सोना, चांदी, तांबा, पीतल और जस्ता का एक संयोजन है, लोहा नहीं डाला गया है। यह मूर्ति 54-फुट ऊंचे आधार भवन पर स्थापित है, जिसका नामभद्र वेदीहै। इस परिसर में वैदिक डिजिटल पुस्तकालय और अनुसंधान केंद्र, प्राचीन भारतीय ग्रंथागार, एक थिएटर एक शैक्षिक दीर्घा है, जो यहाँ आने वाले दर्शनार्थियों को सदियों तक संत रामानुजाचार्य जी के जीवन शिक्षाओं के विषय में व्यापक जानकारी देगी। श्री रामानुजाचार्य जी ने लिंग, नस्ल, जाति या पंथ की परवाह किए बिना सबको आध्यात्मिक चेतना और ज्ञान प्रदान किया था और उन्होंने सबके बीच समानता का संदेश दिया था। इसीलिए इस प्रतिमा का नामस्टैच्यू ऑफ इक्वालिटीरखा गया है।


मुख्य प्रतिमा के चारों तरफ़ चार कोनों में 27-27 मंदिरों के चार समूह हैं। दक्षिण भारत की स्थापत्य कला से निर्मित ये 108 मंदिर पूरे भारत में स्थित 108 दिव्य देशों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इनमें स्थापित भगवान के विग्रह उन्हीं दिव्य देशों में हुई भगवान या भक्तों की लीलाओं से संबंधित हैं। इन मंदिरों में 15 फ़रवरी से 250 पुजारी नियमित सेवा-पूजा कर रहे हैं। यह अपने आप में एक अद्भुत अनुभव है। पूरे भारत में शायद ऐसा कोई दूसरा धर्मस्थल होगा जहां 108 मंदिरों में, विधि विधान से, एक ही समय पर एक साथ पूजा की जाती हो। 


रामानुजाचार्य स्वामी के इस विग्रह को बनवाने में जीयर स्वामी को वर्षों काफ़ी परिश्रम करना पड़ा। वे चाहते थे कि यह विग्रह अगले 1000 साल तक भक्तों पर अनुग्रह करता रहे। इस स्तर की कारीगरी करने वाले विशेषज्ञ उन्हें भारत में नहीं, चीन में मिले। फिर वहीं इसका निर्माण हुआ और मूर्ति के 1500 भागों को चीन से लाकर हैदराबाद में जोड़ा गया। जिसके ऊपर फिर सोने की पालिश की गई। उल्लेखनीय है कि भारत सरकार ने इस मूर्ति के आयात पर आयात शुल्क तक माफ़ नहीं किया। यह भी उल्लेखनीय है कि इस मेगा इवेंट में आरएसएस और भाजपा के बड़े-बड़े नेता अपने हिंदुत्व को चमकाने में जुटे रहे। जबकि इन दोनों ही संगठनों ने इस ऐतिहासिक परियोजना के निर्माण में लेश मात्र भी सहयोग नहीं दिया है। फिर भी दुनिया भर में प्रचार ऐसे किया जा रहा है कि मानो यह भी हिंदुत्व की सरकार की कोई बड़ी उपलब्धि हो। इस 1000 करोड़ रुपय के प्रोजेक्ट में भारी मात्रा में आर्थिक प्रशासनिक सहयोग हैदराबाद के मशहूर उद्योगपति डॉ रामेश्वर राव और तेलंगाना के मुख्य मंत्री श्री के चंद्रशेखर राव ने किया, क्योंकि दोनों ही जीयर स्वामी के दीक्षित शिष्य हैं। हास्यादपद बात यह है कि भाजपा संघ परिवार केसीआर को मुस्लिम परस्त बताते हैं। जबकि वे जीयर स्वामी के आदेशों के आगे दण्डवत रहते हैं। 


इतने महत्वाकांशी लक्ष्य का संकल्प लेना, उसकी योजना बनाना, उसके लिए संसाधन जुटाना और उसके क्रियांवन के लिए वर्षों रात-दिन जुटे रहना, बहुत चुनौतीपूर्ण कार्य था। इस असंभव कार्य को श्री श्री श्री त्रिदंडी चिन्ना जीयर स्वामी ने अपने तप बल से पूरा कर दिखाया और आधुनिक भारत में एक इतिहास की रचना की। जिस समय जीयर स्वामी अनेक संत गणों, बाबा रामदेव और मुझे 108 दिव्य देशों का दर्शन करवा रहे थे, तो बाबा रामदेव और मैं यह आश्चर्य कर रहे थे कि धरती पर चटाई बिछा कर सोने वाले, स्वयं पकाई हुई खिचड़ी खाने वाले और 24 में से 22 घंटे भजन, प्रवचन और इस परियोजना के निर्माण के निर्देश देने वाले जीयर स्वामी कोई साधारण मानव नहीं, युग पुरुष हैं। जिन्हें श्री रामानुजाचार्य जी ने अपना शक्तिवेश अवतार बना कर भेजा है। 


जिनकी कृपा से आंध्र प्रदेश, तेलांगना, पुड्डुचेरि और तमिलनाडू ही नहीं, बल्कि दुनिया भर के वैष्णव लाभान्वित हो रहे हैं।जीयर स्वामी के प्रशंसकों में कई जातियों धर्मों के लोग भी हैं। जिनमें हैदराबाद के मुसलमान नकसलवादी तक शामिल हैं। जीयर स्वामी जी अपने परिकरों सहित दो बार मेरे वृंदावन आवास पर ठहर कर हमें संत सेवा का सुख प्रदान कर चुके हैं। पहली बार 2012 में वे डॉ रामेशवर राव परिवार आंध्र प्रदेश के सैंकड़ों भक्तों के साथ तब आए थे, जब पौराणिक संकर्षण कुंड (गोवर्धन) दुर्गंधयुक्त, भयावह स्थिति में, दशकों से उपेक्षित पड़ा था। जिसके जीर्णोद्धार का श्रीगणेश जीयर स्वामी ने ही किया था। दूसरी बार 2017 में फिर उसी तरह बड़े लाव-लश्कर के साथ पधार कर जीयर स्वामी ने ब्रज फ़ाउंडेशन द्वारा नवनिर्मित संकर्षण कुंड का लोकार्पण किया था। कुंड की भव्यता देख कर स्वामीजी सैंकड़ों संतगणों हज़ारों भक्तों ने इसेअकल्पनीय और चमत्कृतकरने वाला बताया था। जिसे ईर्ष्यावश योगी सरकार ने तहस-नहस कर दिया। यही अंतर है सच्चे संत और संत बनने का दिखावा करने वालों के बीच। संत और भक्त प्रभु की सेवा में निष्काम भाव से जुटे रहते हैं, पर जो धर्म का ध्वज उठाते हैं वे तो ईमानदारी से धर्म की सेवा करते हैं और ही उसे अपने राजनैतिक लाभ के लिए भुनाने में संकोच करते हैं। आज हिंदू समाज को तय करना है कि वो वैदिक परम्पराओं में पले-बढ़े दीक्षित अधिकृत त्यागी संतों के मार्ग पर चल कर अपनी आध्यात्मिक चेतना का विस्तार करेगा और भारतीय संस्कृति की सच्चे अर्थों में सेवा करेगा या राजनैतिक स्वार्थों के लिए सनातनी मूल्यों का बलिदान करने वालों के भ्रम जाल में फँस कर आने वाली पीढ़ियों कोकॉक्टेल हिंदुत्वका विष सौंप कर जाएगा। हज़ारों साल से वैदिक संस्कृति सनातन धर्म इसीलिए टिका रहा है, क्योंकि हमारे संतों और आचार्यों ने शास्त्रीय ज्ञान को ज्यों का त्यों पालन किया, उसमें अपने मनोधर्म का घाल-मेल करके प्रदूषित नहीं किया। 

Monday, February 14, 2022

अलविदा राहुल दादा !


भारतीय उद्योग जगत का आज एक स्तंभ ढह गया। राहुल बजाज केवल उद्योगपति नहीं बल्कि एक विचारक, देशभक्त और समाजिक सरोकार रखने वाले गहरे व्यक्तित्व के धनी थे। देशभक्ति उन्हें अपने दादा जमुनालाल 
बजाज से विरासत में मिली थी। आज के दौर में ये कल्पना करना भी नामुमकिन है कि कोई इतना बड़ा उद्योगपति, केंद्र की सरकार और उसकी नीतियों पर इतना खुल कर बोल सके, जैसा राहुल दादा हमेशा बोला करते थे। 

उनके दादा जमुनालाल बजाज जी महात्मा गांधी के सहयोगी और बड़े राष्ट्रभक्त थे। उनकी दादी ने भरी जवानी में गांधी जी के कहने से घर का सारा सोना और चांदी के बर्तन बेचकर, आजादी की लड़ाई के लिए दे दिये थे। दोनों ने जीवनभर मोटा खादी का कपड़ा पहना। ऐसे संस्कारों में पल-बढ कर और देश-विदेश में उच्च शिक्षा प्राप्तकर राहुल दादा ने बजाज आटो को नई ऊँचाई तक पहुंचाया। हमारी पीढी के लोगों को अच्छी तरह याद होगा कि उस जमाने के कोटा लाईसेंस राज में बजाज का एक स्कूटर बुक कराने के बाद दसियों वर्ष इंतजार करना पड़ता था।



एक बार राहुल दादा ने मुझे बताया कि अरूण पुरी उनके पास ‘इंडिया टुडे’ पत्रिका की परिकल्पना लेकर आये, तो उन्होंने बिना प्रोडक्ट देखे, अगले 10 वर्ष के लिए इंडिया टुडे का पिछला पेज विज्ञापन के लिए बुक कर दिया। उनके उद्योगपति मित्रों ने मजाक उड़ाया कि पत्रिका बाजार में आयी नहीं और तुमने इतना बड़ा वायदा कर दिया। आदमी और विचारों की परख करने की क्षमता रखने वाले राहुल बजाज ने यह सिद्ध कर दिया कि उनके मित्र गलत थे। क्योंकि तब से आज तक विज्ञापन के लिए वह पिछला पेज किसी को नहीं मिला। आज भी उस पर ‘बजाज ऑटो’ का विज्ञापन छपता है।


1989 में जब मैंने देश की पहली स्वतंत्र हिंदी टीवी समाचार ‘कालचक्र वीडियों मैग्जीन’ शुरू की, तो मैनें राहुल दादा से उसमें विज्ञापन देने को कहा। उन्होंने इंडिया टुडे का उदाहरण देकर मेरी पूरी वीडियो मैग्जीन को स्पोंसर करने का प्रस्ताव दिया। जिसे मैंने विनम्रता से यह कहकर अस्वीकार कर दिया कि, मैं किसी एक उद्योगपति घराने के अधीन रहकर, पत्रकारिता नहीं करना चाहता। उन्होंने इसका बुरा नहीं माना।


तमाम दूसरे उद्योगपतियों से भिन्न राहुल बजाज को देश के सवालों में गहरी रूचि रहती थी। उनके मित्रों में उनकी उम्र के, हमारी उम्र के और आज के नौजवान सभी शामिल हैं। जिन्हें वे एक-एक करके भोजन पर बुलाते थे और उनसे तमाम बड़े सवालों पर चर्चा करते थे। वरना आमतौर पर ऐसे उद्योगपति ही मिलते हैं, जो हर पत्रकार को दलाल बनाने के लिए उत्सुक रहते हैं, ताकि उसके संपर्कों का लाभ उठाकर व्यवसायिक फायदा लिया जा सके। लेकिन राहुल बजाज ने आजतक ऐसी कोई कोशिश किसी के साथ नहीं की। इसीलिए उनसे बात करना, एक सुखद अनुभूति होती थी।


कई बार पैसे वाले लोग अपनी आलोचना नहीं झेल पाते। वे केवल अपनी प्रशंसा सुनना चाहते हैं। 1993 में जब मैंने हवाला कांड उजागर किया, तो राहुल दादा से फोन पर बात हो रही थी। वो ये मानने को तैयार नहीं थे कि कोई इतनी भी निष्पक्ष पत्रकारिता कर सकता है कि एक ही रिर्पोट में सभी राजनैतिक दलों के बड़े नेताओं का पर्दाफाश कर दे। मैंने उनसे कहा कि मेरी राष्ट्रभक्ति का प्रमाण मेरी यह रिपोर्ट है, ‘हर्षद से बड़ा घोटाला- सीबीआई ने दबा डाला’। मैंने जान जोखिम डालकर, पूरी राजनैतिक व्यवस्था से अकेले युद्ध छेड़ दिया है। वे फिर भी तर्क करते रहे, तो खीजकर मैंने कहा कि आप तो रहने दीजिए। बैंकों का हजारों करोड़ रूपया दबाकर बैठे उद्योगपति तो मौज कर रहे हैं और किसान छोटे-छोटे कर्जे न दे पाने के  कारण आत्महत्या कर रहे हैं। आप उनके खिलाफ जोरदारी से बोलकर दिखाऐं, तब पता चले, आप में कितनी हिम्मत है। उन्होंने हंसकर मेरी बात सुनी और कुछ ही दिनों बाद अखबारों में मैंने पढ़ा कि राहुल बजाज ने मुंबई के कुछ बड़े उद्योगपतियों को साथ लेकर उद्योग और व्यापार में नैतिकता लाने के लिए एक ‘बाम्बे क्लब’ नाम का समूह गठित किया।


यूं तो राहुल दादा से मेरा दूर का रिश्ता भी है, पर मेरी पहली मुलाकात एक युवा पत्रकार के रूप में आज से 35 वर्ष पहले दिल्ली में हुई थी। मैं जनसत्ता अखबार के लिए उनका इंटरव्यू लेना चाहता था, पर वे उसके लिए तैयार न थे। उनसे हुई केवल अनौपचारिक बातचीत को जब अगले दिन मैंने एक औपचारिक साक्षात्कार के रूप में छाप दिया, तो उनका पूना से फोन आया। बोले अभी दिल्ली के हवाई जहाज में अटल बिहारी वाजपेयी मेरे साथ आए और वे तुम्हारे कालम को पढ़कर उसकी चर्चा मुझसे कर रहे थे। राहुल दादा इस बात पर हैरान थे कि बिना टेप रिकार्ड किये, कोई कैसे एक घंटे की बातचीत को शब्दशः याद रख सकता है। तब से हाल तक हम अनेक बार मिलते रहे और देश के राजनैतिक हालात पर खुल कर घंटों चर्चा करते रहे। युवा उद्योगपतियों के लिए राहुल बजाज का जीवन अनुकरणीय है। 


2002 से जब मैंने ब्रज सेवा के कार्य में ज़्यादा रुचि लेना शुरू किया तो उन्हें समय-समय पर वहाँ होने वाले कार्यों के बारे में भी बताता था। जिसे वे काफ़ी रुचि से सुनते और सलाह भी देते। ब्रज सजाने में कई लीला स्थलियों में उनके परिवार द्वारा हमें आर्थिक योगदान भी मिलता रहता था। उनके जाने से उद्योग जगत के एक युग का अंत हो गया है। ईश्वर से प्रार्थना है कि वे उन्हें अपने श्री चरणों में जगह दे और बजाज समूह को उनके द्वारा दिखाए गए मार्ग पर चलने की ताक़त दे। 

Monday, February 7, 2022

बजट इतना फीका क्यों?


आपको याद होगा कि आठ साल पहले तक जब आम बजट पेश किया जाता था तो सारे देश में एक उत्सुकता का माहौल होता था। देश के आर्थिक सर्वेक्षण की रिपोर्ट तो बजट के काफ़ी पहले आ जाती थी जिससे देश की आर्थिक सेहत का अंदाज़ा लग जाता था। फिर शुरू होता था उद्योगपतियों, व्यापारियों, व्यवसाइयों व अर्थशास्त्रियों का वित्त मंत्री से संभावित बजट को लेकर वार्ताओं का दौर।
 

जिस दिन वित्त मंत्री लोक सभा में बजट प्रस्तुत करते थे उस दिन शहरों में सामान्य गति थम सी जाती थी। उद्योगपतियों और व्यापारियों के अलावा कर सलाहकार टीवी के पर्दे से चिपके रहते थे। यहाँ तक कि मध्यमवर्गीय और नौकरी पेश लोग भी इस उम्मीद में वित्त मंत्री का बजट भाषण सुनते थे कि शायद उन्हें भी कुछ राहत मिल जाए। बजट प्रस्तुति के साथ ही मीडिया में कई दिनों तक बजट का विश्लेषण किया जाता था, जिसे गम्भीर विषय होते हुए भी लोगों को सुनने में रुचि होती थी। जब से केंद्र में भाजपा की सरकार आई है तब से बजट को लेकर देश भर में पहले जैसा न तो उत्साह दिखाई देता है और न उत्सुकता। इसका मूल कारण है संवाद हीनता। 



ऐसा नहीं है कि पिछली सरकारों में लोगों की हर माँग और सुझावों का उस वर्ष के बजट में समावेश होता हो। पर मौजूदा सरकार ने तो इस परम्परा को ही तिलांजलि दे दी है। नोटबंदी व कृषि क़ानून अचानक बिना संवाद के जिस तरह देश पर सौंपे गए उससे देश की अर्थव्यवस्था और सामाजिक सौहार्द का भारी नुक़सान हुआ। जिसका ख़ामियाज़ा देशवासी आज तक भुगत रहे हैं। नीतियों को बुलडोज़र की तरह थोपने और ‘डबल इंजन की सरकार’ जैसे दावे करने का कोई सकारात्मक परिणाम अभी तक सामने नहीं आया है। हां इससे देश में अराजकता, तनाव व असुरक्षा ज़रूर बढ़ी है जो किसी सभ्य समाज और भारत जैसे सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए एक अच्छा लक्षण नहीं है। 


चूँकि आम बजट पर चर्चा करने की एक रस्म चली आ रही है तो हम भी यहाँ निर्मला सीतारमण द्वारा प्रस्तुत बजट का विश्लेषण कर लेते हैं। इस बार के बजट को लेकर मिली-जुली प्रतिक्रियाएँ आई हैं। कुछ लोग इसे एक साधारण बजट कह रहे हैं वहीं कुछ लोग इसमें की गई घोषणाओं को चुनावों से पहले की राजनैतिक घोषणाएँ मान रहे हैं।   


मशहूर अर्थशास्त्री डॉ अरुण कुमार के एक विश्लेषण में दिए गए आँकड़ों की मानें तो वित्तीय वर्ष 2021-22 के बजट में कुल 39.44 लाख करोड़ रुपये खर्च हुए, जबकि 2020-21 का संशोधित अनुमान के अनुसार यह 37.7 लाख करोड़ रुपये का था। इस आँकड़े से यह सिद्ध होता है कि जिस 5.5 फीसदी के हिसाब से महंगाई बढ़ी, उस हिसाब से खर्च नहीं बढ़ा। इसका मतलब यह है कि अगर खर्च वास्तविक अर्थ में नहीं बढ़ा, तो बाजार में मांग कैसे बढ़ी? अगर पूंजीगत व्यय की बात करें तो उस मद में भी इस साल का संशोधित अनुमान 6.3 लाख करोड़ रुपये था। परंतु आंकड़े बताते हैं कि नवंबर 2021 तक 2.5 लाख करोड़ रुपये भी खर्च नहीं हुए। इसलिए, यह समझ नहीं आता कि नवंबर 2021 के बाद के चार महीने में बचे हुए करीब चार लाख करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे? डॉ कुमार के अनुसार अगले साल 7.5 लाख करोड़ रुपये खर्च करने की बात भी अतिशयोक्ति सी प्रतीत होती है। जबकि विकास की गति बरकरार रखने के लिए कुल खर्च को महंगाई के अनुपात में बढ़ाने की जरूरत थी।  


डॉ कुमार ने अपने विश्लेषण में यह भी कहा कि सरकार को ऐसे क्षेत्र में भी अपने खर्च बढ़ाने चाहिए थे, जहां से रोजगार पैदा होने की ज़्यादा उम्मीद होते। जैसे कि ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना में खर्च बढ़ता तो बेहतर होता। सोचने वाली बात यह है कि इस बार के बजट में इस मद में अगले वर्ष लगभग  73 हजार करोड़ रुपये खर्च करने की घोषणा की गई है, जबकि वर्तमान वर्ष में 98 हजार करोड़ खर्च किए जाएंगे। इसी तरह, सब्सिडी में भी कटौती की गई है। 2021-22 के संशोधित अनुमान में 1.40 लाख करोड़ रुपये खाद सब्सिडी देने की बात की गई थी। परंतु 2022-23 के बजट में इसे भी घटाकर 1.05 लाख करोड़ रुपये कर दिया गया है। वहीं खाद्य सब्सिडी को भी बजट में घटाकर 2.06 लाख करोड़ कर दिया गया है। डॉ कुमार इसे उचित नहीं मानते, क्योंकि देश के गरीबों के हाथ में अभी पैसा देना जरूरी है।


बजट के बाद से ही सोशल मीडिया में बजट को लेकर वित्त मंत्री का काफ़ी मज़ाक़ उड़ाया गया है।  असल में वित्त मंत्री द्वारा की गई घोषणाओं में काफ़ी बातें विरोधाभासी दिखाई दी। जैसे कि उन्होंने एक ओर पर्यावरण को बचाने के लिए घोषणा की वहीं शहरीकरण को बढ़ावा देने की भी बात कह डाली। बजट में सरकार ने कहा है कि भारतीय रिजर्व बैंक डिजिटल करेंसी शुरू करेगा। एक ओर सरकार ने क्रिप्टो करेंसी को हतोत्साहित करने का प्रावधान तो किया है, लेकिन उस पर प्रतिबंध नहीं लगाए हैं। 


बजट में आम आदमी की चिंता प्रत्यक्ष कर या अप्रत्यक्ष करों की दरों से जुड़ी रहती है। इस बार के बजट में तमाम आंकड़ों के बावजूद यह नहीं बताया गया कि इन करों में कोई बदलाव न करने से कर संग्रह पर क्या असर होगा? महंगाई और महामारी से जूझते हुए आम आदमी को इस उलझे हुए बजट में कुछ विशेष नज़र नहीं आया है। आम आदमी को यह उम्मीद थी कि पेट्रोलियम पदार्थों को जीएसटी के दायरें में रखा जाएगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। जिस तरह हीरे पर कर में छूट दी गई है उससे तो यह लगता है कि उद्योगपतियों को सारी सुविधाएं हैं, लेकिन जनता को टैक्स की जंजीर में जकड़ दिया गया हैं। वहीं किसान नेताओं के अनुसार इस बजट में किसानों के लिये भी कुछ विशेष नहीं हैं। देश का व्यापारी वर्ग भी इस बजट से निराश हैं।


जिस तरह बड़ी योजनाओं के लिए इस बजट में पैसे बढ़ाए गए हैं और दावा किया जा रहा है कि इनका अनुमानित लाभ आने वाले 3 वर्ष में मिलेगा, उससे तो यह लगता है कि सरकार के इस बजट में अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए किसी त्वरित वित्तीय प्रावधान नहीं है। उसी तरह 30 लाख नए रोजगार बनाने की बात कही गई है, लेकिन यह रोजगार कैसे बनेंगे? इसका कोई रोडमैप नहीं है। चुनावों से पहले इस बजट में जनता के लिए यह बजट मुंगेरीलाल के हसीन सपने जैसा ही दिखाई दे रहा है। अब देखना यह है कि इस बजट का  चुनावों के परिणाम पर क्या असर होता है?

Monday, January 31, 2022

बेरोज़गार युवा और सरकारी तंत्र


पिछले दिनों बिहार और उत्तर प्रदेश में युवकों द्वारा रेलवे भर्ती बोर्ड की नॉन टेक्निकल पॉपुलर कैटेगरी (आरआरबी-एनटीपीसी) परीक्षा प्रक्रिया में कथित अनियमितताओं को लेकर उग्र प्रदर्शन हुए। सरकार ने छात्रों द्वारा रेल रोकने से लेकर रेल में आग लगाने जैसे प्रदर्शन की न सिर्फ़ निंदा की है बल्कि छात्रों पर बर्बरता से लाठियाँ भी चलाई। सोशल मीडिया पर इस लाठी चार्ज के विडीयो भी खूब वाइरल हुए। इस बवाल के बाद से विपक्ष इस मामले को लेकर एकजुट होता दिखाई दिया और न सिर्फ़ छात्रों के समर्थन में उतरा बल्कि केंद्र पर जमकर हमला भी बोला।
 


इसी दौरान बिहार के एक छात्र ने एक चैनल को दिए इंटरव्यू में कुछ बुनियादी सवाल उठाए हैं। चुनावों के मौसम में इन सवालों से केंद्र सरकार को काफ़ी दिक्कत आ सकती है। आज के दौर में अगर ‘मेनस्ट्रीम मीडिया’ किन्ही कारणों से ऐसे सवालों को जनता तक नहीं पहुँचती है तो इसका मतलब यह नहीं है कि जनता तक वह सवाल पहुँच नहीं पाएँगे। सोशल मीडिया पर यह इंटरव्यू काफ़ी देखा जा रहा है।       



इस विडियो में छात्र द्वारा रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव के एक बयान का ज़िक्र है जहां वो कहते हैं कि 1.27 करोड़ छात्रों ने भर्ती के लिए आवेदन दिए हैं तो परीक्षा कैसे हो सकती है? इस बयान पर सवाल उठाते हुए छात्रों ने पूछा कि, आप ने कहा है कि पिछली सरकारों के मुक़ाबले आपके शासन काल में ज़्यादा फ़ॉर्म भरे गये यानी कि आपकी नीतियों के चलते बेरोज़गारी बढ़ी है। इंटरव्यू के दौरान छात्र ने एक ऐसी बात कह दी जो सभी युवकों को छू गई। उस छात्र ने कहा कि, परीक्षा की तैयारी के दिनों में कभी-कभी ऐस भी हुआ जब घर से पैसा समय पे नहीं आता था तो हम लोग गर्म पानी पी कर सो जाते थे। अगर छात्र इतनी कठिन परिस्थितियों में रह कर नौकरी पाने की उम्मीद में परीक्षा की तैयारी कर रहे थे, और जब परीक्षा में धांधली की खबर मिलती है तो छात्र क्या करें? कैसे अपने ग़ुस्से को रोकें? सरकार को क्यों न कोसें? 


छात्रों के उग्र होने के सवाल पर छात्रों ने यह बताया कि 14 जनवरी को आए नतीजों का 10 दिनों तक विभिन्न डिजिटल माध्यमों से लगभग एक करोड़ बार विरोध किया गया। जब सरकार के पास कोई जवाब नहीं बचा तो डिजिटल विरोध के ‘हैश-टैग’ को बैन कर दिया गया। इसके बाद छात्र सड़कों पर उतरे और निहत्थे छात्रों पर सरकारी तंत्र ने लाठियाँ भांजी। किसान आंदोलन के बाद सरकार को सोचना चाहिए कि छात्रों की माँग को देखते हुए उनके प्रतिनिधि से बात कर कोई हाल ज़रूर निकाल सकता था। अगर युवाओं को सरकारी नौकरी मिलने की भी उम्मीद नहीं होगी तो हार कर उन्हें निजी क्षेत्र में जाना पड़ेगा और निजी क्षेत्र की मनमानी का सामना करना पड़ेगा। 


उल्लेखनीय है कि दक्षिण एशिया के देशों में अनौपचारिक रोज़गार के मामले में भारत सबसे ऊपर है। जिसका मतलब हुआ कि हमारे देश में करोड़ों मज़दूर कम मज़दूरी पर, बेहद मुश्किल हालातों में काम करने पर मजबूर हैं, जहां इन्हें अपने बुनियादी हक़ भी प्राप्त नहीं हैं। इन्हें नौकरी देने वाले जब चाहे रखें, जब चाहें निकाल दें। क्योंकि इनका ट्रेड यूनीयनों में भी कोई प्रतिनिधित्व नहीं होता। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के अनुसार भारत में 53.5 करोड़ मज़दूरों में से 39.8 करोड़ मज़दूर अत्यंत दयनीय अवस्था में काम करते हैं। जिनकी दैनिक आमदनी 200 रुपय से भी कम होती है। इसलिए मोदी सरकार के सामने दो बड़ी चुनौतियाँ हैं। पहली; शहरों में रोज़गार के अवसर कैसे बढ़ाए जाएं? क्योंकि पिछले 7 वर्षों में बेरोज़गारी का फ़ीसदी लगातार बढ़ता गया है। दूसरा; शहरी मज़दूरों की आमदनी कैसे बढ़ाएँ, जिससे उन्हें अमानवीय स्थित से बाहर निकाला जा सके।


इसके लिए तीन काम करने होंगे। भारत में शहरीकरण का विस्तार देखते हुए, शहरी रोज़गार बढ़ाने के लिए स्थानीय सरकारों के साथ समन्वय करके नीतियाँ बनानी होंगी। इससे यह लाभ भी होगा कि शहरीकरण से जो बेतरतीब विकास और गंदी बस्तियों का सृजन होता है उसको रोका जा सकेगा। इसके लिए स्थानीय शासन को अधिक संसाधन देने होंगे। दूसरा; स्थानीय स्तर पर रोज़गार सृजन वाली विकासात्मक नीतियाँ लागू करनी होंगी। तीसरा; शहरी मूलभूत ढाँचे पर ध्यान देना होगा जिससे स्थानीय अर्थव्यवस्था भी सुधरे। चौथा; देखा यह गया है, कि विकास के लिए आवंटित धन का लाभ शहरी मज़दूरों तक कभी नहीं पहुँच पाता और ऊपर के लोगों में अटक कर रह जाता है। इसलिए नगर पालिकाओं में विकास के नाम पर ख़रीदी जा रही भारी मशीनों की जगह अगर मानव श्रम आधारित शहरीकरण को प्रोत्साहित किया जाएगा तो शहरों में रोज़गार बढ़ेगा। पाँचवाँ; शहरी रोज़गार योजनाओं को स्वास्थ्य और सफ़ाई जैसे क्षेत्र में तेज़ी से विकास करके बढ़ाया जा सकता है। क्योंकि हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था की आज यह हालत नहीं है कि वो प्रवासी मज़दूरों को रोज़गार दे सके। अगर होती तो वे गाँव छोड़ कर शहर नहीं गए होते। 


मौजूदा हालात में यह सोचना कि पढ़े-लिखे युवाओं के लिए एक ऐसी योजना लानी पड़ेगी जिससे इनको भी रोज़गार मिल जाए। पर ऐसा करने से करोड़ों बेरोज़गारों का एक छोटा सा अंश ही संभल पाएगा। जबकि बेरोज़गारों में ज़्यादा तादाद उन नौजवानों की है जो आज देश में बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ लेकर भी बेरोज़गार हैं। उनका आक्रोश इतना बढ़ चुका है और सरकारी तंत्र द्वारा नौकरी के बजाए लाठियों ने आग में घी का काम किया है। कुछ वर्ष पहले सोशल मीडिया पर एक व्यापक अभियान चला कर देश के बेरोज़गार नौजवानों ने प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिवस को ही ‘बेरोज़गारी दिवस’ के रूप में मनाया था। उस समय इसी कॉलम में मैंने कहा था कि ये एक ख़तरनाक शुरुआत है जिसे केवल वायदों से नहीं, बल्कि बड़ी संख्या में शिक्षित रोज़गार उपलब्ध कराकर ही रोका जा सकता है। मोदी जी ने 2014 के अपने चुनावी अभियान के दौरान प्रतिवर्ष 2 करोड़ नए रोज़गार सृजन का अपना वायदा अगर निभाया होता तो आज ये हालात पैदा न होते जिसमें देश के रेल मंत्री को ही यह मानना पड़ा की पिछली सरकार के मुक़ाबले इस सरकार में ज़्यादा फ़ॉर्म भरे गए। इसका सीधा सा मतलब यह है कि पिछली सरकारों के मुक़ाबले बेरोज़गारी काफ़ी बढ़ी है। 

Monday, January 24, 2022

पर्यावरण मंत्रालय द्वारा ‘राज्यों को प्रोत्साहन’ !


पिछले दिनों केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने एक विवादास्पद कदम में, "पर्यावरण मंजूरी देने में दक्षता और समय सीमा" के आधार पर राज्यों को रैंकिंग देकर "प्रोत्साहन" देने का फैसला किया है।


इस फ़ैसले के अनुसार, जो भी राज्य किसी भी परियोजना के लिए राज्य पर्यावरण प्रभाव आकलन प्राधिकरण (एसईआईएए) के से पर्यावरण मंजूरी जल्द से जलद लेगा उस राज्य को सर्वोत्तम स्थान दिया जाएगा। एसईआईएए कम से कम समय में परियोजनाओं को पर्यावरण मंजूरी देता है और इसके द्वारा दी गई मंज़ूरी उच्च मानकों द्वारा की जाती है।  



ईसी (पर्यावरण मंजूरी) के अनुदान में दक्षता और समयसीमा के आधार पर राज्यों को स्टार-रेटिंग प्रणाली के माध्यम से प्रोत्साहित करने का निर्णय लिया गया है। मंत्रालय ने पिछले हफ़्ते जारी एक आदेश में कहा, यह मान्यता और प्रोत्साहन के साथ-साथ जहां आवश्यक हो, सुधार के लिए भी है।


यदि एक एसईआईएए को मंजूरी देने में औसतन 80 दिन से कम समय लगता है तो उसे 2 अंक मिलेंगे। यदि उसे मंजूरी देने में 105 दिन से कम समय लगता है तो 1 अंक। उसी तरह 105-120 दिनों के लिए 0.5; और 120 से अधिक दिनों के लिए 0 अंक मिलेंगे।


ग़ौरतलब है कि राज्य प्राधिकरण प्रस्तावित परियोजनाओं के लिए अधिकांश पर्यावरणीय प्रभाव आकलन करते हैं। जबकि प्रमुख 'श्रेणी ए' की परियोजनाओं को केंद्र द्वारा मंजूरी दी जाती है। बड़ी परियोजनाओं को छोड़कर शेष, खनन, थर्मल प्लांट, नदी घाटी और बुनियादी परियोजनाओं सहित, राज्य निकायों के दायरे में ही आते हैं।


इसके साथ ही, 100 दिनों से अधिक समय से लंबित पर्यावरण संशोधन प्रस्तावों के निपटारे के लिए भी, एसईआईएए को अंक दिए जाएँगे। 90 प्रतिशत से अधिक मंजूरी के लिए 1 अंक मिलेगा; 80-90 प्रतिशत निकासी के लिए 0.5; और 80 प्रतिशत से कम के लिए शून्य अंक।


इस फ़ैसले में यह भी कहा गया है की एसईआईएए द्वारा मंजूरी देने के लिए कम पर्यावरणीय विवरण मांगने पर भी राज्य के अधिकारियों को पुरस्कृत किया जाएगा। यदि ईडीएस (आवश्यक विवरण) मामलों का प्रतिशत 10 प्रतिशत से कम है, तो एसईआईएए को 1 अंक मिलेगा; अगर यह 20 प्रतिशत है, तो उन्हें 0.5 मिलेगा; और अगर यह 30 प्रतिशत से अधिक है, तो उन्हें 0 अंक मिलेगा। 


5 दिनों से कम समय में प्रस्ताव स्वीकार करने पर एसईआईएए को 1 अंक मिलेगा; 5-7 दिनों के लिए 0.5; और 7 दिनों से अधिक के लिए 0 अंक दिए जाएँगे। 


इस रेटिंग प्रणाली शिकायतों के निपटान को भी ध्यान में रखा गया है। इसके तहत यदि सभी शिकायतों का निवारण किया जाता है तो 1 अंक; यदि 50% शिकायतों का निवारण किया जाता है तो 0.5; और 50%से कम के लिए 0 अंक।


इन मापदंडों के आधार पर, यदि कोई एसईआईएए 7 से अधिक अंक प्राप्त करता है, तो उसे 5-स्टार (उच्चतम रैंकिंग) के रूप में स्थान दिया जाएगा। राज्य के अधिकारियों को भी उनके संचयी स्कोर के आधार पर 5,4,3,2 और 1-स्टार के रूप में स्थान दिया जा सकता है। इसी तरह यदि कोई भी एसईआईएए जिसे कुल 3 से कम अंक प्राप्त होते हैं उसे कोई स्टार नहीं मिलेगा। 


दरअसल, मंत्रालय का यह निर्णय पिछले साल 13 नवंबर को कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता में हुई एक बैठक की पृष्ठभूमि में लिया गया है। जिसमें विशेष रूप से "कारोबार करने में आसानी" को सक्षम करने के लिए की गई कार्रवाई का मुद्दा उठाया गया था। जिसके तहत मंजूरी के अनुसार लगने वाले समय के आधार पर राज्यों की ‘रैंकिंग’ की जाएगी।


पर्यावरणविदों ने, इस कदम की आलोचना करते हुए, चेतावनी दी है कि राज्य के अधिकारी, जिनका कार्य पर्यावरण की सुरक्षा सुनिश्चित करना है, अब राज्य की रैंकिंग बढ़ाने के लिए परियोजनाओं को बिना पर्यावरण की सुरक्षा सुनिश्चित किए हुए तेजी से पूरा करने के लिए "प्रतिस्पर्धा" करेंगे। एसईआईएए बुनियादी ढांचे, विकासात्मक और औद्योगिक परियोजनाओं के एक बड़े हिस्से के लिए पर्यावरणीय मंजूरी प्रदान करने के लिए जिम्मेदार होते हैं। उनका मुख्य उद्देश्य पर्यावरण और लोगों पर प्रस्तावित परियोजना के प्रभाव का आकलन करना और इस प्रभाव को कम करने का प्रयास करना है। 


दिल्ली के पर्यावरण वकील ऋत्विक दत्ता के अख़बार को दिए बयान के अनुसार यह आदेश बिल्कुल बेतुका है। जिस गति से परियोजनाओं को मंजूरी दी जाती है, उसके अनुसार पर्यावरण की रक्षा के लिए ज़िम्मेदार संस्था को आप कैसे ग्रेड दे सकते हैं? मंजूरी के लिए समय सीमा को वैसे भी 75 दिनों तक लाया गया था, जो चिंता का विषय था, और पर्यावरण की कीमत पर परियोजनाओं को मंजूरी देने के स्पष्ट उद्देश्य से किया गया था। उन्होंने यह भी कहा कि भारत में, सबसे बड़ी परियोजनाओं को पर्यावरण मंत्रालय द्वारा श्रेणी ए के तहत पर्यावरण मंजूरी दी जाती है। एसईआईएए, मुख्य रूप से निर्माण परियोजनाओं के लिए, देश भर में 90 प्रतिशत से अधिक मंजूरी देते हैं। विश्व बैंक ने खुद व्यापार करने में आसानी के सिद्धांत को खारिज कर दिया है, यह स्वीकार करते हुए कि यह काम नहीं करता है। यह आदेश किसी वन अधिकारी को यह बताने जैसा है कि वह जितना ज़्यादा जंगल में जाएगा, उसे उतने ही कम अंक मिलेंगे। यह पर्यावरण कानून के हर प्रावधान का उल्लंघन करता है। 


दरअसल इस तरह के आत्मघाती विकास के पीछे बहुत सारे निहित स्वार्थ कार्य करते हैं जिनमें राजनेता, अफ़सर और निर्माण कम्पनियाँ प्रमुख हैं। क्योंकि इनके लिए आर्थिक मुनाफ़ा ही सर्वोच्च प्राथमिकता होता है। जितनी महंगी परियोजना, जितनी जल्दी मंज़ूरी, उतना ही ज़्यादा कमीशन। यह कोई नयी बात नहीं है। मुंशी प्रेमचंद अपनी कहानी ‘नमक का दरोग़ा’ में इस तथ्य को 100 वर्ष पहले ही रेखांकित कर गए हैं। पर कुछ काम ऐसे होते हैं जिनमें आर्थिक लाभ की उपेक्षा कर व्यापक जनहित को महत्व देना होता है। पर्यावरण एक ऐसा ही मामला है जो देश की राजनैतिक सीमाओं के पार जाकर भी मानव समाज को प्रभावित करता है। इसीलिए आजकल ‘ग्लोबल वार्मिंग’ को लेकर सभी देश चिंतित हैं। अब सोचना यह है कि पर्यावरण मंत्रालय के इस नए आदेश से राज्यों को प्रोत्साहन मिलेगा या पर्यावरण का विनाश होगा।

Monday, January 17, 2022

योगी क्यों हुए अलोकप्रिय?


जिस तरह से उत्तर प्रदेश के नेता भाजपा छोड़ समाजवादी पार्टी की तरफ़ दौड़ रहे है उसे साधारण भगदड़ नहीं कहा जा सकता। इसका नुक़सान देश की सबसे शक्तिशाली पार्टी को हो रहा है जो केंद्र और राज्य में सरकार चला रही है। उत्तर प्रदेश में इस ‘डबल इंजन’ की सरकार का चेहरा बने योगी आदित्यनाथ की अलोकप्रियता ही इस पतन का कारण है। 





भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को भी यह समझ नहीं आ रहा कि उतर प्रदेश के चुनावों से ठीक पहले ऐसा क्यों हो रहा है? क्या योगी जी की कुछ कठोर नीतियाँ इसका कारण हैं? क्या उत्तर प्रदेश में दिल्ली हाई कमान के जासूस इस भगदड़ का अनुमान लगाने में नाकामयाब रहे? भाजपा और संघ का विशाल नेटवर्क भी इस सबका अनुमान नहीं लगा सका? क्या कारण है कि भाजपा के पास इतना बड़ा संगठन और तमाम संसाधन भी इन नेताओं का पलायन नहीं रोक पाए? क्या भाजपा ने इस बात का विश्वास कर लिया था कि जो नेता पिछड़ी जातियों से आए हैं वो उनके साथ लम्बे समय तक रहेंगे और पिछले पाँच सालों में योगी जी के कठोर रवैए से आहत नहीं होंगे?


दरअसल शुरू से योगी का रवैया उनकी ‘ठोको’ नीति के अनुरूप दम्भी और अतिआत्मविश्वास से भरा हुआ रहा है। जिसमें उनके चुनिंदा कुछ नौकरशाहों की भूमिका भी बहुत बड़ा कारण रही है। इस बात को इसी कॉलम में शुरू से मैंने कई बार रेखांकित किया। बार-बार योगी जी को सलाह भी दी कि कान और आँख खोल कर रखें और सही और ग़लत का निर्णय लेने के लिए अपने विवेक और अपने स्वतंत्र सूचना तंत्र का सहारा लें। सत्ता के मद में योगी कहाँ सुनने वाले थे। उनके चाटुकार अफ़सर उनसे बड़े-बड़े आयोजनों में फ़ीते कटवाते रहे और खुद चाँदी काटते रहे। 


जिस तरह से योगी सरकार ने पिछले पाँच सालों में उत्तर प्रदेश में अहम मुद्दों की परवाह किए बिना केवल हिंदुत्व के एजेंडे को ही सबसे ऊपर रखा शायद वह भी एक कारण रहा। मिसाल के तौर पर अयोध्या में पाँच लाख दिये जलाने के अगले ही दिन जिस तरह की तस्वीरें सामने आईं जहां लोग दियों के तेल को समेट रहे थे उससे यह बात तो साफ़ है लोग बढ़ती हुई महंगाई और युवा बेरोज़गारी से परेशान थे। लम्बे समय तक चले किसान आंदोलन ने सरकार की नीतियों उत्तर प्रदेश के किसानों के सामने बेनक़ाब कर दिया और किसानों ने भी सरकार का विरोध करना शुरू कर दिया। 


जिस तरह से उत्तर प्रदेश के कई छोटे दलों के नेता जो 2017 में भाजपा से जुड़े थे उन्हें जब योगी सरकार में मंत्री या अन्य पद मिले तो उन्हें लगा कि सरकार में उनकी सुनवाई भी होगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उन्हें केवल शो-पीस बना कर रखा गया। जब पानी सर से ऊपर चला गया और उनकी कहीं सुनवाई न हुई तो उन्होंने भाजपा का साथ छोड़ना ही बेहतर समझा। भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को इसका आभास शायद इसलिए नहीं हुआ क्योंकि उन्होंने सोचा कि किसी भी नेता के लिए सरकार में रुतबा और पद छोड़ना इतना आसान नहीं होता। इसलिए शीर्ष नेतृत्व ने भी उनकी शिकायतों को अनसुना कर दिया।


योगी सरकार के नौकरशाहों ने जिस तरह मीडिया को बड़े-बड़े विज्ञापन देकर असली मुद्दों से परे रखा वो भी एक बड़ा कारण रहा। ज़्यादातर मीडिया ने भी इन नौकरशाहों की बात सुनकर जनता के बीच दुष्प्रचार फैलाया और जनता को गुमराह करने का भी काम किया। फिर वो चाहे ज़ेवर हवाई अड्डे के विज्ञापन में चीन के हवाई अड्डे की तस्वीर हो या फिर बंगाल के फ़्लाईओवर की तस्वीर। इस तरह के झूठे विज्ञापनों से योगी सरकार की काफ़ी किरकिरी हुई। ग़नीमत है सोशल मीडिया ने इस सब की पोल खोल दी और जनता को भी समझ में आने लगा कि विज्ञापन की आड़ में क्या चल रहा है।


2017 से ही योगी और उनकी ‘टीम इलेवन’ ही सरकार चला रही थी। किसी भी विधायक की कहीं भी कोई सुनवाई नहीं थी। इतना ही नहीं योगी मंत्रीमंडल के एक मंत्री तो ऐसे हैं जो अपनी इच्छा से किसी अधिकारी नियुक्ति या निलम्बन भी नहीं करवा सकते थे। एक चर्चा तो यह भी आम हो चुकी है कि यदि किसी विधायक को दो किलोमीटर की सड़क भी बनवानी पड़ती थी तो उसे यह कह कर डाँट दिया जाता था कि ‘क्या सड़क बनवाने में कमीशन कमाना चाहते हो?’ इतना ही नहीं यदि किसी विधायक को कुछ काम करवाना होता था तो वह इस ‘टीम इलेवन’ के बैचमेट से कहलवाता था तब जा कर शायद वो काम होता। वो विधायक तो जन प्रतिनिधि केवल नाम का ही था। 


उत्तर प्रदेश में योगी सरकार की सफलता या विफलता के बारे में सरकारी तंत्र के अलावा संघ का एक बड़ा तंत्र है जो ज़मीनी हक़ीक़त का पता लगाता है। परंतु उत्तर प्रदेश में संघ के इस तंत्र का एक बड़ा हिस्सा वैश्य और ब्राह्मण समाज से आता है। पिछड़ी जातियों से बहुत कम लोग इस तंत्र का हिस्सा हैं। इसलिए पिछड़ी जातियों की पीड़ा संघ के शीर्ष नेतृत्व तक पहुँची ही नहीं। सवर्णों के प्रतिनिधियों ने संघ के शीर्ष नेतृत्व को योगी सरकार की बढ़ाई कर उन्हें असलियत से दूर रखा। संघ के नेतृत्व यह तो नज़र आया कि 2017 की उत्तर प्रदेश की सरकार में पिछड़ी जातियों के मंत्री व विधायक तो बड़ी मात्रा में हैं परंतु प्रचारक नहीं। यदि ऐसा होता तो संघ अपनी कमर कस लेता और शायद इस भगदड़ की नौबत न आती। इसके साथ ही जातिगत जनगणना पर जो यू टर्न भाजपा सरकार ने लिया है उसने आग में घी डालने का काम किया है। 


योगी जी तो भगवा धारण कर इतना भी नहीं समझे कि वो अब एक मठ के मठाधीश नहीं बल्कि सूबे के मुख्य मंत्री हैं। भगवा धारी या साधु तो अहंकार में रह सकते हैं। लेकिन एक मुख्य मंत्री को तो हर तरह के व्यक्ति से मुख़ातिब होना पड़ता है। फिर वो चाहे मीडिया हो, उनके अपने मंत्री मंडल के सदस्य हों, विधायक हों, केंद्र द्वारा भेजे गए विशेष दूत हों या फिर आम जनता। अगर आप सभी को अपने मठ का सहायक समझ कर उससे अपशब्द कहेंगे या उनको अहमियत नहीं देंगे तो इसका फल भी आपको भोगना पड़ेगा। अब देखना यह है कि आने वाली 10 मार्च को योगी जी को उत्तर प्रदेश की जनता कौनसा फल अर्पित करेगी।