Monday, July 27, 2020

पद्मनाभ स्वामी मन्दिर की गरिमा बची

पिछले हफ़्ते सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय ने तिरुवनंतपुरम के इस विश्वविख्यात मंदिर की गरिमा बचा दी। विश्व के सबसे बड़े ख़ज़ाने का स्वामी यह मंदिर पिछले 10 वर्षों से पूरी दुनिया के लिए कोतुहल बना हुआ था। क्योंकि इसके लॉकरों में कई लाख  करोड़ रुपए के हीरे जवाहरात और सोना चाँदी रखा है। पिछले 2500 वर्षों से जो कुछ चढ़ावा या धन यहाँ आया उसे त्रावणकोर के राज परिवार ने भगवान की सम्पत्ति मान कर संरक्षित रखा। उसका कोई दुरुपयोग निज लाभ के लिए नहीं किया। 


जबकि दूसरी तरफ़ केरल की साम्यवादी सरकार इस बेशुमार दौलत से केरल के गरीब लोगों के लिए स्कूल, अस्पताल आदि की व्यवस्था करना चाहती थी। इसलिए उसने इसके अधिग्रहण का प्रयास किया। चूँकि यह मंदिर त्रावणकोर रियासत के राजपरिवार है, जिसके पारिवारिक ट्रस्ट की सम्पत्ति यह मन्दिर है। उनका कहना था कि इस सम्पत्ति पर केवल ट्रस्टियों का हक है और किसी भी बाहरी व्यक्ति को इसके विषय में निर्णय लेने का कोई अधिकार नहीं है। राजपरिवार के समर्थन में खड़े लोग यह कहने में नहीं झिझकते कि इस राजपरिवार ने भगवान की सम्पत्ति की धूल तक अपने प्रयोग के लिए नहीं ली। ये नित्य पूजन के बाद, जब मन्दिर की देहरी से बाहर निकलते हैं, तो एक पारंपरिक लकड़ी से अपने पैर रगड़ते हैं, ताकि मन्दिर की धूल मन्दिर में ही रह जाए। इन लोगों का कहना है कि भगवान के निमित्त रखी गयी यह सम्पत्ति केवल भगवान की सेवा के लिए ही प्रयोग की जा सकती है। 


इन सबके अलावा हिन्दू धर्मावलंबियों की भी भावना यही है कि देश के किसी भी मन्दिर की सम्पत्ति पर नियन्त्रण करने का, किसी भी

राज्य या केन्द्र सरकार को कोई हक नहीं है। वे तर्क देते हैं कि जो सरकारें मुसलमानों, ईसाइयों, सिखों अन्य धर्मावलंबियों के धर्मस्थानों की सम्पत्ति का अधिग्रहण नहीं कर सकतीं, वे हिन्दुओं के मन्दिरों पर क्यों दांत गढ़ाती हैं? खासकर तब जबकि आकण्ठ भ्रष्टाचार में डूबी हुई सरकारें और नौकरशाह सरकारी धन का भी ठीक प्रबन्धन नहीं कर पाते हैं। 


यह विवाद सर्वोच्च न्यायालय तक गया, जिसने अपने फ़ैसले में केरल सरकार के दावे को ख़ारिज कर दिया और त्रावणकोर राज परिवार के दाव को सही माना। जिससे पूरे दुनिया के हिंदू धर्मावलंबियों ने राहत की साँस ली है। ये तो एक शुरुआत है देश अनेक मंदिरों की सम्पत्तिपर राजनैतिक दल और नौकरशाह अरसे से गिद्ध दृष्टि लगाए बैठे हैं। जिन राज्यों में धर्मनिरपेक्ष दलों की सरकारें हैं उन पर भाजपा मंदिरों के धन के दुरुपयोग का आरोप लगाती आई है और मंदिरों केअधिग्रहण का ज़ोर शोर से संघ, भाजपा विहिप विरोध करते आए हैं। जैसे आजकल तिरुपति बालाजी के मंदिर को लेकर आंध्र प्रदेश की रेड्डी  सरकार पर भाजपा का लगातार हमला हो रहा है, जो सही भी है और हम जैसे आस्थावान हिंदू इसका समर्थन भी करते हैं। पर हमारे लिए चिंता की बात यह है कि उत्तराखंड की भाजपा सरकार ने ही अनेक हिंदू मंदिरों का अधिग्रहण कर लिया है। और भाजपा अन्य राज्यों में भी यही करने की तैयारी में है। जिससे हिंदू धर्मावलंबियों में भारी आक्रोश है।   


दरअसल धार्मिक आस्था एक ऐसी चीज है जिसे कानून के दायरों से नियंत्रित नहीं किया जा सकता। आध्यात्म और धर्म की भावना रखने वाले, धर्मावलंबियों की भावनाओं को तो समझ सकते हैं और ही उनकी सम्पत्ति का ठीक प्रबन्धन कर सकते हैं। इसलिए जरूरी है कि जहाँ कहीं ऐसा विवाद हो, वहाँ उसी धर्म के मानने वाले समाज के प्रतिष्ठित और सम्पन्न लोगों की एक प्रबन्धकीय समिति का गठन अदालतोंको कर देना चाहिए। इस समिति के सदस्य बाहरी लोग हों और वे भी हों जिनकी आस्था उस देव विग्रह में हो। जब साधन सम्पन्न भक्त मिल बैठकर योजना बनाएंगे तो दैविक द्रव्य का बहुजन हिताय सार्थक उपयोग ही करेंगे। जैसे हर धर्म वाले अपने धर्म के प्रचार के साथ समाज की सेवा के भी कार्य करते हैं, उसी प्रकार से पद्मनाभ स्वामी जी के भक्तों की एक समिति का गठन होना चाहिए। जिसमें राजपरिवार के अलावा ऐसे लोग हों, जिनकी धार्मिक आस्था तो हो पर वे उस इलाके की विषमताओं को भी समझते हों। ऐसी समिति दैविक धन का धार्मिक कृत्यों समाज विकास के कृत्यों में प्रयोग कर सकती है। इससे उस धर्म के मानने वालों के मन में तो कोई अशांति होगी और कोई उत्तेजना। वे भी अच्छी भावना के साथ ऐसे कार्यों में जुड़ना पसन्द करेंगे। अब वे अपने धन का कितना प्रतिशत मन्दिर और अनुष्ठानों पर खर्च करते हैं और कितना विकास के कार्यों पर, यह उनके विवेक पर छोड़ना होगा। 


हाँ, इस समिति की पारदर्शिता और जबावदेही सुनिश्चित कर देनी चाहिए। ताकि घोटालों की गुंजाइश रहे। इस समिति पर निगरानी रखने के लिए उस समाज के सामान्य लोगों को लेकर विभिन्न निगरानी समितियों का गठन कर देना चाहिए। जिससे पाई-पाई पर जनता की निगाह बनी रहे। हिन्दू मन्दिरों का धन सरकार द्वारा हथियाना, हिन्दू समाज को स्वीकार्य नहीं होगा। अदालतों को हिन्दुओं की इस भावना का ख्याल रखना चाहिए। अभी तो एक पद्मनाभ मन्दिर का फ़ैसला आया है। देश में ऐसे हजारों मन्दिर हैं, जहाँ नित्य धन लक्ष्मी की वर्षा होती रहती है। पर इस धन का सदुपयोग नहीं हो पाता। आस्थावान समाज को आगे बढ़कर नई दिशा पकड़नी चाहिए और दैविक द्रव्य का उपयोग उस धर्म स्थान या धर्म नगरी या उस धर्म से जुड़े अन्य तीर्थस्थलों के जीर्णोद्धार और विकास पर करना चाहिए। जिससे भक्तों और तीर्थयात्रियों को सुखद अनुभूति हो। इससे धरोहरों की रक्षा भी होगी और आने वालों को प्रेरणा भी मिलेगी।

Monday, July 20, 2020

योगी महाराज की सुरक्षा से खिलवाड़ क्यों?

मौत तो किसी की भी, कहीं भी और कभी भी आ सकती है। पर इसका मतलब ये नहीं कि शेर के मुह में हाथ दे दिया जाए। भगवान श्रीकृष्ण गीता दसवें अध्याय में अर्जुन से कहते हैं:

‘तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।

ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।।’ 

अर्जुन मैं ही सबको बुद्धि देता हूँ।

जिसका प्रयोग हमें करना चाहिए, इसलिए जान बूझकर किसी की ज़िंदगी से खिलवाड़ नहीं करना चाहिए। विशेषकर उत्तर प्रदेश जैसे राज्य के युवा एवं सशक्त मुख्यमंत्री की ज़िन्दगी से। 


बहुत पुरानी बात नहीं है जब कांग्रेस के वरिष्ठ नेता माधव राव सिंधिया, लोक सभा के स्पीकर रहे बालयोगी, आंध्र प्रदेश के मुख्य मंत्री रेड्डी और 1980 में संजय गांधी विमान हादसे में अकाल मृत्यु को प्राप्त हो गए। चिंता की बात यह है कि ये दुर्घटनाएँ ख़राब मौसम के कारण नहीं हुई थी। बल्कि ये दुर्घटनाएँ विमान चालकों की ग़लतियों से या विमान में ख़राबी से हुई थीं। 


देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के ताक़तवर मुख्यमंत्री की आयु मात्र 48 वर्ष है। अभी उन्हें राजनीति में और भी बहुत मंज़िलें हासिल करनी हैं। बावजूद इसके उन्हें दी जा रही सरकारी वायु सेवा में इतनी लापरवाही बरती जा रही है कि आश्चर्य है कि अभी तक वे किसी हादसे के शिकार नहीं हुए? शायद ये उनकी साधना और तप का बल है, वरना उत्तर प्रदेश के उड्डयन विभाग व केंद्र सरकार के नागरिक विमानन निदेशालय ने योगी जी ज़िंदगी से खिलवाड़ करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इसी कॉलम में दो हफ़्ते पहले हम उत्तर प्रदेश सरकार की नागरिक उड्डयन सेवाओं के ऑपरेशन मैनेजर के कुछ काले कारनामों का ज़िक्र कर चुके हैं।


दिल्ली के कालचक्र ब्युरो के शोर मचाने के बाद कैप्टन प्रज्ञेश मिश्रा नाम के इस ऑपरेशन मैनेजर का प्रवेश किसी भी हवाई अड्डे पर वर्जित हो गया है। जहाज उड़ाने का उसका लाईसेंस भी फ़िलहाल डीजीसीए से सस्पेंड हो गया है। मुख्यमंत्री कार्यालय और आवास पर उसका प्रवेश भी प्रतिबंधित कर दिया गया है। प्रवर्तन निदेशालय भी उसकी अकूत दौलत और 200 से भी अधिक फ़र्ज़ी कम्पनियों पर निगाह रखे हुए है। 


पर उसके कुकृत्यों को देखते हुए ये सब बहुत सतही कार्यवाही है। उत्तर प्रदेश शासन के जो ताक़तवर मंत्री और अफ़सर उसके साथ अपनी अवैध कमाई को ठिकाने लगाने में आज तक जुटे थे, वो ही उसे आज भी बचाने में लगे हैं। क्योंकि प्रज्ञेश मिश्रा की ईमानदार जाँच का मतलब उत्तर प्रदेश शासन में वर्षों से व्याप्त भारी भ्रष्टाचार के क़िले का ढहना होगा। तो ये लोग क्यों कोई जाँच होने देंगे? जबकि योगी जी हर जनसभा में कहते हैं कि वे भ्रष्टाचार बर्दाश्त नहीं करते?


जैसे आज तक ये लोग योगी जी को गुमराह करके कैप्टन मिश्रा को पलकों पर बिठाये थे और इसकी कम्पनियों में अपनी काली कमाई लगा रहे थे, वैसे ही आज भी योगी जी को बहका रहे हैं कि ‘हमने मीडिया मेंनेज कर लिया है, अब कोई चिंता की बात नहीं।’ पर शायद उन्हें ये नहीं पता कि आपराधिक गतिविधियों के सबूत कुछ समय के लिए ही दबाये जा सकते हैं, पर हमेशा के लिये नष्ट नहीं किए जा सकते। अगले चुनाव के समय या अन्य किसी ख़ास मौक़े पर ये सब सबूत जनता के सामने आकार बड़ा बवाल खड़ा कर सकते हैं। जिसकी फ़िक्र योगी जी को ही करनी होगी।     


हवाई जहाज़ उड़ाने की एक शर्त ये होती है कि हर पाइलट और क्रू मेम्बर को हर वर्ष अपनी ‘सेफ़्टी एंड इमर्जन्सी प्रोसीजरस ट्रेनिंग एंड चेकिंग’ करवानी होती है। जिससे हवाई जहाज़ चलाने और उड़ान के समय उसकी व्यवस्था करने वाला हर व्यक्ति किसी भी आपात स्थिति के लिए चौकन्ना और प्रशिक्षित रहे। ऐसा ‘नागर विमानन महानिदेशालय’ की नियमावली 9.4, डीजीसीए सीएआर सेक्शन 8 सिरीज़ एफ पार्ट VII में स्पष्ट लिखा है। योगी जी के लिए चिंता की बात यह होनी चाहिए कि कैप्टन प्रज्ञेश मिश्रा बिना इस नियम का पालन किए बी-200 जहाज़ धड़ल्ले से उड़ता रहा है। ऐसा उल्लंघन केवल खुद प्रज्ञेश मिश्रा ही नहीं बल्कि ऑपरेशन मैनेजर होने के बावजूद उत्तर प्रदेश के दो अन्य पाइलटों से भी करवाता रहा है और इस तरह मुख्यमंत्री व अन्य अतिवशिष्ठ व्यक्तियों की ज़िंदगी को ख़तरे में डालता रहा है। 


आश्चर्य है कि डीजीसीए के अधिकारी भी इतने संगीन उल्लंघन पर चुप बैठे रहे? ज़ाहिर है कि यह चुप्पी बिना क़ीमत दिए तो ख़रीदी नहीं जा सकती। इसका प्रमाण है कि 30 दिसम्बर 2019 को डीजीसीए की जो टीम जाँच करने लखनऊ गई थी उसने मिश्रा व अन्य पाइलटों के इस गम्भीर उल्लंघन को जान बूझकर अनदेखा किया। क्या डीजीसीए के मौजूदा निदेशक अरुण कुमार को अपनी इस टीम से इस लापरवाही या भ्रष्टाचार पर ये जवाब-तलब नहीं करना चाहिए?       


इसी तरह हर पाइलट को अपना मेडिकल लाइसेन्स का भी हर वर्ष नवीनीकरण करवाना होता है। जिससे अगर उसके शरीर, दृष्टि या निर्णय लेने की क्षमता में कोई गिरावट आई हो तो उसे जहाज़ उड़ाने से रोका जा सकता है। पर कैप्टन मिश्रा बिना मेडिकल लाइसेन्स के नवीनीकरण के  बी-200 जहाज़ धड़ल्ले से उड़ता रहा। यह हम पहले ही बता चुके हैं कि कोई पाइलट हेलिकॉप्टर और हवाई जहाज़ दोनो नहीं उड़ा सकता। क्योंकि दोनो की एरोडायनामिक्स अलग अलग हैं। पर प्रज्ञेश मिश्रा इस नियम की भी धज्जियाँ उड़ा कर दोनो क़िस्म के वीआईपी जहाज़ और हेलिकॉप्टर उड़ाता रहा है, जिससे मुख्यमंत्री उसके क़ब्ज़े में ही रहे और वो इसका फ़ायदा उठाकर अपनी अवैध कमाई का मायाजाल लगातार बढ़ाता रहे। 


नई दिल्ली के खोजी पत्रकार रजनीश कपूर ने कैप्टन प्रज्ञेश मिश्रा की 200 से भी अधिक फ़र्ज़ी कम्पनियों में से 28 कम्पनियों और उनके संदेहास्पद निदेशकों के नाम सोशल मीडिया पर उजागर कर दिए हैं और योगी जी से इनकी जाँच कराने की अपील कई बार की है। इस आश्वासन के साथ, कि अगर यह जाँच ईमानदारी से होती है तो कालचक्र ब्यूरो उत्तर प्रदेश शासन को इस महाघोटाले से जुड़े और सैंकड़ों दस्तावेज भी देगा। आश्चर्य है कि योगी महाराज ने अभी तक इस पर कोई सख़्त कार्यवाही क्यों नहीं की ? लगता है कैप्टन मिश्रा के संरक्षक उत्तर प्रदेश शासन के कई वरिष्ठ अधिकारी योगी महाराज को इस मामले में अभी भी गुमराह कर रहे हैं। 1990 में एक बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने कहा था कि नौकरशाही घोड़े के समान होती है सवार अपनी ताक़त से उसे जिधर चाहे मोड़ सकता है।पर यहाँ तो उलटा ही नजारा देखने को मिल रहा है। देखें आगे क्या होता है ?

Monday, July 13, 2020

पुलिसवालों की पीड़ा समझिए

कानपुर में जिस तरह विकास दुबे ने 8 पुलिसवालों की निर्मम हत्या की उससे प्रदेश की ही नहीं देश भर के पुलिसकर्मियों में आक्रोश है। इस पूरे घटनाक्रम में उत्तर प्रदेश शासन के कुछ वरिष्ठ  अधिकारियों और नेताओं की भूमिका पर तमाम सवाल उठ रहे हैं। जिन्होंने इस जघन्य कांड के पहले और बाद भी विकास दुबे की मदद की। अभी बहुत सारे तथ्य सामने आने बाक़ी हैं जिन्हें दबाने के उद्देश्य से ही विकास दुबे को मारा गया। 


इसी संदर्भ में पुलिसवालों की तरफ़ से ये विचरोतेजक पोस्ट सोशल मीडिया पर आई है। 

मैं पुलिस हूँ...

मैं जानता था कि फूलन देवी ने नरसंहार किया है। मैं जानता था कि शाहबुद्दीन ने चंद्रशेखर प्रसाद के तीन बेटों को मारा है। मैं जानता था कि कुलदीप सेंगर का चरित्र ठीक नही है और उसने दुराचार किया है। मैं जानता था कि मलखान सिंह बिशनोई ने भँवरी देवी को मारा है। मैं जानता हूँ की दिल्ली के दंगो में अमानतुल्लाह खान ने लोगों को भड़काया। मैं जानता हूँ कि सैयद अली शाह गिलानी, यासीन मालिक, मीरवाज उमर फारूक आंतंकवादियो का साथ देते हैं।  लेकिन संविधान ने बोला की चुप ये सभी नेता है इनके बॉडीगार्ड बनो में बना क्यूँकि मैं पुलिस हूँ। आपको भी पता था की इशरत जहाँ, तुलसी प्रजापति आतंकवादी थे लेकिन फिर भी आपने हमारे वंजारा साहेब को कई सालों तक जेल में रखा। मैं चुप रहा क्योंकि में पुलिस हूँ। कुछ सालों पहले हमने विकास दुबे जिसने एक नेता का ख़ून किया था को आपके सामने प्रस्तुत किया था लेकिन गवाह के अभाव में आपने उसे छोड़ दिया था, मैं चुप रहा क्योंकि में पुलिस हूँ।


लेकिन माईलॉर्ड विकास दुबे ने इस बार ठाकुरों को नही, चंद्रशेखर के बच्चों को नही, भँवरी देवी को नही किसी नेता को नही मेरे अपने 8 पुलिस वालों की बेरहमी से हत्या की थी, उसको आपके पास लाते तो देर से ही सही लेकिन आप मुझे उसका बॉडीगार्ड बनने पर ज़रूर मजबूर करते इसी उधेड़बुन और डर से मैंने रात भर उज्जैन से लेकर कानपुर तक गाड़ी चलायी और कब नींद आ गयी पता ही नही चला और ऐक्सिडेंट हो गया और उसके बाद की घटना सभी को मालूम है। 


माईलॉर्ड कभी सोचिएगा की अमेरिका जैसे सम्पन्न और आधुनिक देश में पाँच सालों में पुलिस ने 5511 अपराधियों का एंकाउंटर किया वहीं हमारे विशाल जनसंख्या वाले देश में पिछले पाँच साल में 824 एंकाउंटर हुए और सभी पुलिस वालों की जाँच चल रही है।  


माईलॉर्ड मैं यह नही कह रहा हूँ की एंकाउंटर सही है लेकिन बड़े बड़े वकीलों द्वारा अपराधियों को बचाना फिर उनका राजनीति में आना और फिर आपके द्वारा हमें उनकी सुरक्षा में लगाना अब बंद होना चाहिये, सच कह रहा हूँ अब थकने लगे हैं हम, संविधान जो कई दशकों पहले लिखा गया था उसमें अब कुछ बदलाव की आवश्यकता है यदि बदलाव नही हुए तो ऐसी घटनाएँ होती रहेंगी और हम और आप कुछ दिन हाय तौबा करने के बाद चुप हो जाएँगे।


मूल में जाइए और रोग को जड़ से ख़त्म कीजिए, रोग हमारी क़ानून प्रणाली में है जिसे सही करने की आवश्यकता है अन्यथा देर सवेर ऐसी घटनाएं को सुनने के लिए तैयार रहिये 


पुलिस को स्वायत्ता दीजिए। हमें इन नेताओं के चंगुल से बचाइये ताकि देश और समाज अपने आप को सुरक्षित महसूस कर सके।


प्रार्थी 

नेताओं की कठपुतली 

हिंदुस्तान की पुलिस


यह बड़े दुख और चिंता की बात है कि कोई भी राजनैतिक दल पुलिस व्यवस्था के मौजूदा स्वरूप में बदलाव नहीं करना चाहता। इसलिए न सिर्फ पुलिस आयोगों और समितियों की सिफारिशों की उपेक्षा कर दी जाती है बल्कि आजादी के 73 साल बाद भी आज देश औपनिवेशिक मानसिकता वाले संविधान विरोधी पुलिस कानून को ढो रहा है। इसलिए इस कानून में आमूलचूल परिवर्तन होना परम आवश्यक है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की पुलिस को जनोन्मुख होना ही पड़ेगा। पर राजनेता ऐसा होने दें तब न। 


आज हर सत्ताधीश राजनेता पुलिस को अपनी निजी जायदाद समझता है। नेताजी की सुरक्षा, उनके चारो ओर कमांडो फौज का घेरा, उनके पारिवारिक उत्सवों में मेहमानों की गाडि़यों का नियंत्रण, तो ऐसे वाहियात काम है ही जिनमें इस देश की ज्यादातर पुलिस का, ज्यादातर समय जाया होता है। इतना ही नहीं अपने मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए या उन्हें नियंत्रित करने के लिए पुलिस का दुरूपयोग अपने कार्यकर्ताओं और चमचों के अपराधों को छिपाने में भी किया जाता है। स्थानीय पुलिस को स्थानीय नेताओं से इसलिए भय लगाता है क्योंकि वे जरा सी बात पर नाराज होकर उस पुलिस अधिकारी या पुलिसकर्मी का तबादला करवाने की धमकी देते हैं और इस पर भी सहयोग न करने वाले पुलिस अधिकारी का तबादला करवा देते हैं। इसका नतीजा ये हुआ है कि अब निचले स्तर के पुलिसकर्मियों के बीच तेजी से जातिवाद फैलता जा रहा है। अपनी जाति के लोगों को संरक्षण देना और अपनी जाति के नेताओं के जा-बेजा हुक्मों को मानते जाना आज प्रांतीय पुलिस के लिए आम बात हो गई है। खामियाजा भुगत रही है वह जनता जिसके वोटों से ये राजनेता चुने जाते हैं। किसी शहर के बुजुर्ग और प्रतिष्ठित आदमी को भी इस बात का भरोसा नहीं होता कि अगर नौबत आ जाए तो पुलिस से उनका सामना सम्माननीय स्थिति में हो पाएगा। एक तरफ तो हम आधुनिकरण की बात करते हैं और जरा-जरा बात पर सलाह लेने पश्चिमी देशों की तरफ भागते हैं और दूसरी तरफ हम उनकी पुलिस व्यवस्था से कुछ भी सीखने को तैयार नहीं हैं। वहां पुलिस जनता की रक्षक होती है, भक्षक नहीं। लंदन की भीड़ भरी सड़क पर अक्सर पुलिसकर्मियों को बूढ़े लोगों को सड़क पार करवाते हुए देखा जा सकता है। पश्चिम की पुलिस ने तमाम मानवीय क्रिया कलापो से वहां की जनता का विश्वास जीत रखा है। जबकि हमारे यहां यह स्वप्न जैसा लगेगा।


पुलिस आयोग की सिफारिश से लेकर आज तक बनी समितियों की सिफारिशों को इस तरह समझा जा सकता है; पुलिस जनता के प्रति जवाबदेह हो। पुलिस की कार्यप्रणाली पर लगातार निगाह रखी जाए। उनके प्रशिक्षण और काम की दशा पर गंभीरता से ध्यान दिया जाए। उनका दुरूपयोग रोका जाए। उनका राजनीतिकरण रोका जाए। उन पर राजनीतिक नियंत्रण समाप्त किया जाए। उनकी जवाबदेही निर्धारित करने के कड़े मापदंड हों। पुलिस महानिदेशकों का चुनाव केवल राजनैतिक निर्णयों से प्रभावित न हों बल्कि उसमें न्यायपालिका और समाज के प्रतिष्ठित लोगों का भी प्रतिनिधित्व हो। इस बात की आवश्यकता महसूस की गई कि पुलिस में तबादलों की व्यवस्था पारदर्शी हो। उसके कामकाज पर नजर रखने के लिए निष्पक्ष लोगों की अलग समितियां हों। पुलिस में भर्ती की प्रक्रिया में व्यापक सुधार किया जाए ताकि योग्य और अनुभवी लोग इसमें आ सकें। आज की तरह नहीं जब सिफारिश करवा कर या रिश्वत देकर अयोग्य लोग भी पुलिस में भर्ती हो जाते हैं। जो सिपाही या इन्सपेक्टर मोटी घुस देकर पुलिस की नौकरी प्राप्त करेगा उससे ईमानदार रहने की उम्मीद कैसे की जा सकती है ? पुलिस जनता का विश्वास जीते। उसकी मददगार बनें। अपराधों की जांच बिना राजनैतिक दखलंदाज़ी के और बिना पक्षपात के फुर्ती से करे। लगभग ऐसा कहना हर समिति की रिपोर्ट का रहा है। पर लाख टके का सवाल यह है कि क्या हो यह तो सब जानते हैं, पर हो कैसे ये कोई नहीं जानता। राजनैतिक इच्छाशक्ति के बिना कोई भी सुधार सफल नहीं हो सकता।

Monday, July 6, 2020

कैसे जाने मीडिया ईमानदार है?

पत्रकारिता के पाठ्यक्रम में पहले दिन से पढ़ाया जाता है कि पत्रकारिता के तीन उद्देश्य होते हैं; सूचना देना, शिक्षा देना व मनोरंजन करना। हर पत्रकार चाहे वो प्रिंट मीडिया का हो या टीवी मीडिया का ये बात अच्छी तरह जानता है। पर आम पाठकों और दर्शकों को इसकी सही जानकारी नहीं होती। इस लेख को पढ़ने के बाद, आप आज से ही एक विशेषज्ञ की तरह ये परीक्षण कर पाएँगे जो टीवी चैनल आप देखते हैं या जो अख़बार आप पढ़ते हैं वह पत्रकारिता के उद्देश्य पूरे कर रहा है या पत्रकारिता के आवरण में कुछ और कर रहा है। 


पहले समझ लें की सूचना, शिक्षा और मनोरंजन का सही अर्थ क्या है। मीडिया का काम आपको सूचना देना है। सूचना वो हो जो आपसे छिपाई जा रही हो। उसे खोज कर निकालना और आप तक पहुँचाना होता है। साफ़ ज़ाहिर है कि सरकार की घोषणाएँ, मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और प्रधान मंत्रियों के वक्तव्य और उन पर बहस इस श्रेणी में नहीं आते। उन्हें जनता तक पहुँचाने का काम सरकार का दूरदर्शन, उसकी समाचार एजेंसियाँ और प्रेस सूचना विभाग रात दिन करता है। इसे सूचना की जगह प्रौपोगैंडा कहा जाता है। जनता के लिए महत्वपूर्ण बात यह है कि मीडिया आपको बताए कि जो दावे और घोषणाएँ की जा रही हैं, उनमें कितनी ईमानदारी है ? क्या उनको पूरा करने की क्षमता और साधन सरकार के पास हैं? इससे पहले मौजूदा या पिछली सरकारों ने इसी तरह की घोषणाएँ कितनी ही बार कीं और क्या उन्हें पूरा किया गया? मीडिया आपको यह भी बता सकता है कि इन योजनाओं का घोषित लक्ष्य क्या है और पर्दे के पीछे छिपा हुआ लक्ष्य क्या है। कहीं जनसेवा के नाम पर किसी बड़े औद्योगिक घराने को बड़ा मुनाफ़ा कमाने के लिए तो यह नहीं किया जा रहा। अब आप खुद ही तय कर लीजिए, कि कितने टीवी चैनल और अख़बार आपके हित में ऐसी सूचनाएँ निडरता से देते हैं या सरकार के चाटुकार बनकर उनकी घोषणाओं और बयानबाज़ी पर बल्लियाँ उछलते हैं और नक़ली बहसें करवा कर सत्तारूढ़ दलों की चाटुकारिता करते हैं। मतलब ये कि ऐसे सब चैनल और अख़बार आपको खबरों के नाम पर सूचना नहीं दे रहे। यानी ये पत्रकारिता नहीं कर रहे। 


ये दूसरी बात है की इस तरह की भांडगिरी करने वालों को सरकारें बड़े विज्ञापन, नागरिक अलंकरण, राज्यसभा की सदस्यता या अन्य ओहदे देकर उपकृत करती है।

 

शिक्षा का तात्पर्य है कि मीडिया लोकतंत्र का चौथा खंबा होने के नाते आपके समवैधानिक अधिकारों की जानकारी आपको लगातार देता रहे और उनपर होने वाले किसी भी आघात पर आपको जागृत करता रहे। जहां तक बात पर्यावरण, भूगोल, इतिहास, वित्त जैसे विषयों की है, तो ये सब शिक्षा तो आपको विभिन्न स्तरों पर शिक्षा संस्थानों में मिलती ही है। यहाँ मीडिया का काम यह है कि क्षेत्रों में जो कुछ घट रहा है और उसका प्रभाव आपके जीवन में कैसा पड़ रहा है, उन विषयों को अपने विशेष समवाददाताओं या उस क्षेत्र के विशेषज्ञों के माध्यम से आप तक सूचना पहुँचाए। यह कहा जा सकता है कि इस मामले में मीडिया काफ़ी हद तक सजग है और आपको सही सूचना दे रहा है। मगर जो मुख्य शिक्षा लोकतांत्रिक अधिकारों या दमन के विरुद्ध दी जानी चाहिए उस काम में हमारे देश का बहुसंख्यक मीडिया विफल रहा है।           


जहां तक मनोरंजन की बात है, तो मीडिया में मनोरंजन देने का काम करने के लिए फ़िल्म, नाटक, साहित्य, संगीत व कला जैसे क्षेत्रों की अपनी संरचनाएँ हैं , जो आम जनता का मनोरंजन करती हैं। जिस संदर्भ  में यहाँ बात की जा रही है उसमें वैसे मनोरंजन का दायरा बहुत सीमित होता है। हालाँकि आजकल असली मुद्दों से ध्यान हटाने के लिए मीडिया कई तरह के हल्के फुलके मनोरंजन, समाचारों के साथ दिखाने लगा है। पर उसमें गुणवत्ता का अभाव होता है। प्रायः यह मनोरंजन काफ़ी फूहड़ होता है। जिससे उस मीडिया हाउस की गरिमा कम होती है। इस संदर्भ में ऐसा माना जाता है कि खेलकूद, साहित्य, संस्कृति और फ़िल्मों आदि के बारे में समाचार देकर मनोरंजन का दायित्व  पूरा किया जा सकता है। 


1987 की बात है, मैं एक राष्ट्रीय हिन्दी दैनिक में समवाददाता था और स्वास्थ्य मंत्रालय पर भी ख़बर देना मेरा दायित्व था। एक दिन मुझे दिल्ली पाँच सितारा ताज होटल में देश की प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं पर एक राष्ट्रीय सम्मेलन को कवर करने जाना था। जिसका उद्घघाटन तत्कालीन केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री मोती लाल वोरा कर रहे थे। सारा दिन सम्मेलन में बैठने के बाद मैंने पाँच कॉलम की जो खबर लिखी, उसकी पहली लाइन ये थी कि ‘देश के ग़रीबों के स्वास्थ्य पर चिंता जताने के लिए आज एक राष्ट्रीय सम्मेलन दिल्ली के पाँच सितारा होटल में सम्पन्न हुआ’ उसके बाद क़रीब 12 पैराग्राफ़ में, 12 प्रांतों से आए ग्रामीण स्वास्थ्य सेवकों की समस्याओं को लिखा।अंतिम पैराग्राफ़ में मैंने एक लाइन लिखी, ‘सम्मेलन का उद्टन करते हुए केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री मोती लाल वोरा ने कहा, सन 2000 तक हम देश में सबको स्वास्थ्य सेवाएँ प्रदान कर देंगे।’ ज़ाहिर है कि सामान्य रिपोर्टिंग से यह प्रारूप बिल्कुल अलग था। आप अपने अख़बार उठा कर देख लीजिए इस तरह की ख़बर में तीन चौथाई जगह मंत्रियों के भाषण को दी जाती है। जब मुझसे सम्पादक ने पूछा कि मैंने मंत्री के भाषण को ज़्यादा जगह क्यों नहीं दी ? तो मेरा उत्तर था कि मंत्री महोदय तो ये दावा देश के विभिन्न प्रांतों में आए दिन करते ही रहते हैं और वो छपता भी रहता है, उसमें नई बात क्या है? नई बात मेरे लिए यह थी कि मुझे एक ही जगह बैठ कर देश भर के प्राथमिक स्वास्थ्य सेवकों से उनकी दिक़्क़तें जानने का मौक़ा मिला, जिसे मैं बिना इन राज्यों में जाए कभी जान ही नहीं पाता। इस पर सम्पादक महोदय भी हंस दिए और उन्होंने रिपोर्ट की तारिफ़ भी की।