Monday, January 25, 2016

पेट्रोल के दाम घटते क्यों नहीं ?

 जब से तेल निर्यातक देशों ने कच्चे तेल के प्रति बैरल दाम पिछले वर्ष के मुकाबले लगभग आधे कर दिए हैं, तब से दुनियाभर में पेट्रोल और डीजल के दाम में भारी गिरावट आयी है। पाकिस्तान में पेट्रोल 26 रूपये लीटर है। जबकि बांग्लादेश में 22 रूपये, क्यूबा में 19 रूपये, इटली में 14 रूपये, नेपाल में 34 रूपये, वर्मा में 30 रूपये, अफगानिस्तान में 26 रूपये, लंका में 34 रूपये और भारत में 68 रूपये लीटर है। यानि अपने पड़ोस के देशों से ढ़ाई गुने दाम पर भारतवासी पेट्रोल खरीदने पर मजबूर हैं। ये 68 रूपये का तोड़ इस तरह है कि इसमें से 1 लीटर पेट्रोल की लागत होती कुल 16.50 रूपये, जिस पर केंद्रीय कर हैं 11.80 फीसदी। उत्पादन शुल्क है 9.75 फीसदी। वैट है 4 फीसदी और बिक्री कर है 8 फीसदी। इस सब को जोड़ लें, तो भी 1 लीटर पेट्रोल की कीमत बनती है, मात्र 50.05 पैसे। फिर भारतवासियों से हर लीटर पर यह 18 रूपये अतिरिक्त क्यों वसूले जा रहे हैं? इसका जवाब देने को कोई तैयार नहीं है। इस तरह अरबों खरबों रूपया हर महीने केंद्र सरकार के खजाने में जा रहा है। 
 
पिछली सरकार को लेकर भ्रष्टाचार के जो बड़े-बड़े आरोप थे, उनमें अगर कुछ तथ्य था, तो यह माना जा सकता है कि यूपीए सरकार सरकारी खजाना खाली करके चली गई। अब मोदी सरकार के सामने कोई विकल्प नहीं, सिवाय इसके कि वह पेट्रोल पर अतिरिक्त कर लगाकर अपनी आमदनी इकट्ठा करे। मोदी सरकार यह कह सकती है कि देश के विकास के लिए आधारभूत संरचनाएं, मसलन हाईवेज, फ्लाईओवर और दूसरी बुनियादी सेवाओं का विस्तार करना है, जो बिना अतिरिक्त आमदनी किए नहीं किया जा सकता। इसलिए पेट्रोल पर कर लगाकर सरकार अपनी विकास योजनाओं के लिए धन जुटा रही है। 
 
सरकार की मंशा ठीक हो सकती है। पर देश की सामाजिक और आर्थिक दशा की नब्ज पर उंगली रखने वाले विद्वान उससे सहमत नहीं है। उनका कहना है कि बुलेट ट्रेन और स्मार्ट सिटी जैसी महत्वाकांक्षी और मोटी रकम खर्च करने वाली योजनाओं से न तो गरीबी दूर होगी, न देशभर में रोजगार का सृजन होगा और न ही व्यापार में बढ़ोत्तरी होगी। चीन इसका जीता-जागता उदाहरण है। जिसने अपने पुराने नगरों को तोड़-तोड़कर अति आधुनिक नए नगर बसा दिए। उनमें हाईवे और माॅल जैसी सारी सुविधाएं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सर्वश्रेष्ठ दर्जे की बनाई गईं। पर जिस गति से चीन का आधुनिकरण हुआ, उस गति से वहां की आमजनता की आमदनी नहीं बढ़ी। नतीजा यह है कि चीन की तरक्की कागजी बनकर रह गई। पिछले 6 महीने में जिस तेजी से चीन की अर्थव्यवस्था का पतन हुआ है, उससे पूरी दुनिया को झटका लगा है। फिर भी अगर भारत सबक न ले और अपने गांवों की बुनियादी समस्याओं को दूर किए बिना बड़ी छलांग लगाने की जुगत में रहे, तो मुंह की खानी पड़ सकती है। 
 
एक तरफ तो हालत यह है कि आज हर गांव में बेरोजगारी बरकरार है या बढ़ी है। हमने ग्रामीण युवाओं को पारंपरिक व्यवसायों से दूर कर दिया। उन्हें ऐसी शिक्षा दी कि न तो शहर के लायक रहे और न गांव के। मात्र 15 कुटीर उद्योग ऐसे हैं, जिन्हें अगर ग्रामीण स्तर पर उत्पादन के लिए आरक्षित कर दिया जाए और उन उत्पादनों का बढ़े कारखानों में निर्माण न हो, तो 2 साल में बेरोजगारी तेजी से खत्म हो सकती है। पर इसके लिए जैसी क्रांतिकारी सोच चाहिए, वो न तो एनडीए सरकार के पास है और न ही गांधी के नाम पर शासन चलाने वाली यूपीए सरकार के पास थी। 
 
उधर रोजगार एवं प्रशिक्षण के महानिदेशक का कहना है कि भारतीय खाद्य निगम में अनाज की बोरी ढ़ोने वाले कर्मचारी को साढ़े चार लाख रूपया महीना पगार मिल रही है, जो कि भारत के राष्ट्रपति के वेतन से भी कई गुना ज्यादा है। 7वें वेतन आयोग में सरकार की ऐसी तमाम नीतियों की ओर संकेत किया है, जहां सरकार का सीधा हाथ नहीं जानता कि सरकार का बायां हाथ क्या कर रहा है। एक ही विभाग में मंत्रालय कहता है कि 2.10 लाख लोग तनख्वाह ले रहे हैं, जबकि वित्त मंत्रालय के अनुसार इस विभाग में मात्र 19 हजार कर्मचारी हैं। कहीं ऐसा तो नहीं है कि पिछली सरकार के समय से ही अरबों रूपये बेनामी कर्मचारियों के नाम से वर्षों से उड़ाए जा रहे हों और किसी को कानोंकान खबर भी न हो। कुल मिलाकर जरूरत धरातल पर उतरने की है। यह सब देखकर लगता है कि भारत की आर्थिक स्थिति इतनी बुरी नहीं कि आमआदमी को अपना जीवनयापन करना कठिन लगे। पर जाहिर है कि पुरानी व्यवस्थाओं के कारण काफी कुछ अभी भी पटरी नहीं आया है। जिसका खामियाजा आमजनता भुगत रही है। 

Monday, January 18, 2016

अमित जोगी, छत्तीसगढ़ और स्टिंग ऑपरेशन

    हाल ही के दिनों में छत्तीसगढ़ में वरिष्ठ कांग्रेसी नेता अजीत जोगी के सुपुत्र अमित जोगी के एक राजनैतिक स्टिंग ऑपरेशन में शामिल होने से बवाल मचा हुआ है। देश की राजनीति में स्टिंग ऑपरेशन राजनैतिक लड़ाई में एक शस्त्र बनता जा रहा है। जबकि इसकी खोज खोजी पत्रकारिता के एक औजार के रूप में हुई थी। जब देश में निजी टीवी चैनल नहीं थे, मात्र दूरदर्शन था, जो सरकारी प्रचारतंत्र का हिस्सा था। उस समय टीवी पर स्टिंग ऑपरेशन जैसी विधा का कोई नाम तक नहीं जानता था। उस समय 1989 में हमने भारत में पहली बार स्वतंत्र हिंदी टीवी पत्रकारिता की नींव डाली। कालचक्र वीडियो मैग्जीन में हर महीने खोजी रिपोर्ट तैयार कर हम देशभर की वीडियो लाइब्रेरियों के माध्यम से दर्शकों तक पहुंचा देते थे। जिन्हें उस वक्त की याद है, उन्हें खूब याद होगा कि कालचक्र ने टीवी पत्रकारिता के क्षेत्र में क्रांति कर दी थी। इसी समय हमने भारत में पहली बार स्टिंग ऑपरेशन की भी शुरूआत की। जिस पर तीखी प्रतिक्रियाएं आयीं। बड़े-बड़े अखबारों में हमारे पक्ष या विपक्ष में संपादकीय लिखे गए। देश में कई जगह इस पर गोष्ठियां हुईं और सेंसर बोर्ड से हमारा गला घोंटने की कोशिशें की गईं।

उस समय दिल्ली के पत्रकारों की भी आधी जमात हमारे खिलाफ थी, जिन्हें लगता था कि हमारी इस विधा से उनके आका राजनेता कभी भी बेनकाब हो सकते हैं। ऐसे सभी हमलों का जवाब देने के लिए 1990 के शुरू में दिल्ली के प्रेस क्लब में मैंने एक संवाददाता सम्मेलन बुलाया। जिसमें लगभग 250 पत्रकारों ने शिरकत की और हम पर सवालों की छड़ी लगा दी। पर हम टस से मस नहीं हुए। हमारा ध्येय स्पष्ट था। हम स्टिंग ऑपरेशन के माध्यम से समाज की बुराइयों को उजागर करना चाहते थे। हमने ऐसा किया भी। पूरे देश ने देखा और माना। लेकिन बाद के दौर में जब निजी टीवी चैनलों की भरमार हो गई। टीआरपी के लिए जद्दोजहद होने लगी। चैनल चलाना आर्थिक रूप से भारी घाटे का काम हो गया, तो वही स्टिंग ऑपरेशन, जिसका लक्ष्य स्वस्थ पत्रकारिता करना और समाज की मदद करना था, ब्लैकमेलिंग का माध्यम बन गया।

    मैं किसी खास पत्रकार या किसी टीवी चैनल पर आक्षेप नहीं कर रहा। पर जो मैं कहने जा रहा हूं, उससे आप सभी पाठक सहमत होंगे। वह यह कि जितने स्टिंग ऑपरेशन आज आपको टीवी चैनलों पर दिखाई देते हैं, उनमें से बहुत थोड़े ऐसे होते हैं, जिनका उद्देश्य वास्तव में जनहित होता है। दरअसल, बहुत सारे स्टिंग ऑपरेशन तो कभी सामने दिखाए ही नहीं जाते। क्योंकि जिनके विरूद्ध यह आॅपरेशन किए जाते हैं, उनसे मोटी रकम लेकर इन्हें दबा दिया जाता है। जाहिरन इनका उद्देश्य पत्रकारिता करना नहीं, बल्कि पत्रकारिता के नाम पर ब्लैकमेलिंग करना होता है।

    जो स्टिंग ऑपरेशन दिखाए भी जाते हैं, वे हमेशा निष्पक्ष नहीं होते। उनके पीछे किसी राजनैतिक दल या व्यक्ति का निहित स्वार्थ छिपा होता है। जो उस पत्रकार या टीवी चैनल को अच्छी खासी रकम देकर अपने हित में खड़ा कर देता है। ताकि उसकी लड़ाई को जनहित की लड़ाई का आवरण पहनाया जा सके। ऐसा स्टिंग ऑपरेशन करने वाले जिस मुद्दे पर किसी खास राजनैतिक दल को अपना शिकार बनाते हैं। पर जब उनके राजनैतिक आकाओं के ऐसे ही कारनामे सामने आते हैं, तो वही पत्रकार स्टिंग ऑपरेशन करना तो दूर, उसकी चर्चा तक करने से बचते हैं। यह कोई पत्रकारिता नहीं हुई, ये तो सीधी-सीधी कुछ लोगों के हितों की लड़ाई हुई, जो पत्रकारिता के नाम पर की जाती है।

    कई बार यह बहस होती है कि आज जब स्टिंग ऑपरेशन एक सामान्य सी बात हो गया है, तो इसे कानूनी जामा पहनाया जाना चाहिए। मतलब ये कि स्टिंग ऑपरेशन करने के कुछ नियम और निर्देश बनाए जाने चाहिए। जिसके तहत स्टिंग ऑपरेशन किया जाय। इसको करने से पहले कुछ निष्पक्ष लोगों की समिति हो, जो उस रिपोर्ट के मसौदे को देखकर स्टिंग ऑपरेशन करने की छूट दे या न दे। इस तरह का आत्मानुशासन हर टीवी चैनल को अपनाना चाहिए, अन्यथा एक वक्त ऐसा आएगा कि जबकि अदालत ही स्टिंग ऑपरेशन पर प्रतिबंध लगा देगी।

    पहली बात तो ये कि स्टिंग ऑपरेशन केवल जनहित में किया जाए, किसी राजनैतिक दल या व्यक्ति के हित में नहीं। दूसरा जिसके खिलाफ स्टिंग ऑपरेशन किया जाता है, उसे बाद में बिना छिपे कैमरे के सामने लाना भी लाजमी होता है। उससे उन्हीं सवालों को दोबारा कैमरे के सामने पूछना चाहिए, जिन्हें छिपे कैमरे से रिकॉर्ड किया गया था। ताकि उसकी यह शिकायत न रहे कि मुझे सफाई देने का मौका नहीं दिया गया। अगर पत्रकारिता की सीमा में रहकर व्यापक जनहित में स्टिंग ऑपरेशन किया जाए, तो इसे गलत नहीं मानना चाहिए। पर जैसा कि हमने पहले कहा कि ब्लैकमेलिंग या निहित स्वार्थों के आपसी झगडेा निपटाने के लिए इसे हथियार की तरह इस्तेमाल करना सही नहीं है। इससे पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लग जाते हैं।

Monday, January 4, 2016

पाकिस्तानी क्यों बना हिंदुस्तानी ?

प्रसिद्ध गायक अदनान सामी 1 जनवरी को पाकिस्तान की नागरिकता छोड़कर भारत के नागरिक बन गए। यह अपने आप में एक महत्वपूर्ण घटना है और उन सब लोगों के मुंह पर तमाचा है, जो भारत में असहिष्णुता का हल्ला मचाए हुए थे। जिनमें फिल्मी सितारे शाहरूख खान से लेकर सत्ता के गलियारों से खैरात बटोरने वाले कितने ही नामी कलाकार, साहित्यकार और सामाजिक कार्यकर्ता शामिल थे। जिन्होंने अपने राजनैतिक आकाओं के इशारे पर बिहार चुनाव से पहले इतना तूफान मचाया कि लगा भारत में कोई मुसलमान सुरक्षित ही नहीं है। जबकि अगर ऐसा होता तो एक मशहूर गायक साधन संपन्न पाकिस्तानी अदनान सामी पाकिस्तान की अपनी नागरिकता छोड़कर भारत का नागरिक क्यों बनता ? साफ जाहिर है कि भारत में उनको पाकिस्तान से ज्यादा सुरक्षा, अमन, चैन, शोहरत और पैसा मिल रहा है। कोई अपना वतन छोड़कर दूसरे वतन में दो ही स्थितियों में पनाह लेता है। पहला तो जब उसके मुल्क में हालात रहने के काबिल न हों और दूसरा तब जब दूसरे मुल्क में हालात और आगे बढ़ने के अवसर अपने मुल्क से ज्यादा बेहतर हों, जैसे तमाम एशियाई लोग अमेरिका की नागरिकता ले लेते हैं। जाहिर है कि अपनी जिंदगी का दो तिहाई से ज्यादा हिस्सा पाकिस्तान में ऐश-ओ-आराम के साथ गुजार चुके अदनान सामी को पाकिस्तानी बने रहने में कोई तकलीफ नहीं थी। वहां भी उनको इज्जत और शोहरत मिल रही थी। फिर भी उन्होंने हिंदुस्तान को अपना घर बनाया और नागरिकता का आवेदन दिया, तो इसलिए कि हिंदुस्तान के हालात और यहां आगे बढ़ने का मौका उन्हें पाकिस्तान से बेहतर लगा।

 अब हर उस हिंदुस्तानी से सवाल पूछना चाहिए, जिसने अवार्ड लौटाने से लेकर तमाम तरह के प्रदर्शन और बयानबाजियां करके भारत की छवि पूरी दुनिया में खराब करने की हरकत की। उनसे पूछना चाहिए कि बिहार चुनाव के पहले देश के हालात में ऐसा क्या हो गया था कि शाहरूख खान जैसे राजसी जीवन जीने वाले को भी हिंदुस्तान में रहना खतरनाक लगने लगा था ? बिहार चुनाव के बाद अचानक ये सारे मेढ़क खामोश क्यों हो गए ? हिंदुस्तान के हालात में ऐसा क्या बदल गया कि अब इन्हें हिंदुस्तान फिर से रहने लायक लगने लगा है ? क्योंकि अब न तो असहिष्णुता के नाम पर कोई बयान आ रहा है, न कोई प्रदर्शन हो रहा है और न ही कोई अवार्ड लौटाए जा रहे हैं।


हमने इस कालम में तब भी लिखा था और आज फिर दोहरा रहे हैं कि जिन लोगों ने ऐसा शोर मचाया, उनके जीवन को भारत में कोई खतरा नहीं था। बस उन्हें तो अपने राजनैतिक आकाओं का हुक्म बजाना था। उन आकाओं का, जिन्होंने इन लोगों को अपने वक्त में तमाम फायदों और तमगो से नवाजा था। इसलिए नहीं कि ये अपने क्षेत्र के अव्वल दर्जे के लोग थे। इनसे भी ज्यादा काबिल और हुनरमंद लोगों की देश में एक लंबी फेहरिस्त तब भी मौजूद थी और आज भी मौजूद है। पर उन्हें कभी कोई अवार्ड नहीं दिया गया, क्योंकि उन्होंने अपने हुनर को बढ़ाने में जिंदगी खपा दी, पर सत्ताधीशों के तलवे नहीं चाटे। अक्सर ऐसे अवार्ड तो तलवा चाटने वालों को ही मिला करते हैं और जब इतने सालों तक आकाओं के रहमो-करम पर पर ऐश लूटा हो, तो उनकी राजनैतिक मजबूरी के वक्त ‘फर्ज चुकाना’ तो इनके लिए जायज था। इसीलिए नाहक शोर मचाया गया। हिंदुस्तान से ज्यादा सहिष्णुता दुनिया के किसी देश में आज भी नहीं मिलती। गंगा-जमुनी तहजीब का ये वो देश है, जो पिछले 2 हजार साल से दुनिया के हर कोने से आकर यहां बसने वालों को इज्जत से जीने के हक देता आया है। उन्हें न सिर्फ उनके मजहब को मानने और उसका खुला प्रदर्शन करने की छूट देता है, बल्कि उन्हें यहां अपने धर्म का प्रचार करने से भी नहीं रोका जाता। इन अवार्ड लौटाने वालों से पूछो कि मस्जिदों के ऊपर सुबह 5 बजे लाउडस्पीकर जिस तरह से गैरमुस्लिम इलाकों में नमाज का शोर मचाते हैं, वैसा क्या गैरमुसलमान किसी भी मुसलमानी देश में कहीं भी कर सकते हैं ?

 अदनान सामी ने भारत की नागरिकता लेते हुए इस बात को पुरजोर तरीके से कहा कि भारत से ज्यादा सहिष्णु देश कोई दूसरा नहीं है। इस बात के लिए प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी की सरकार को बधाई दी जानी चाहिए कि उन्होंने एक ऐसे पाकिस्तानी को भारत की नागरिकता दी, जिसकी परवरिश पाकिस्तान की फौज के उस आलाअफसर के घर हुई, जिसने भारत-पाक युद्ध में भारत की सेना को अच्छी खासी क्षति पहुंचाई थी। जाहिर है कि अदनान की परवरिश भारत विरोधी माहौल में हुई होगी, जैसे कि आज हर पाकिस्तानी बच्चे की होती है। पर जब वो बड़ा होता है और बिना कठमुल्ले दबाव के खुली नजर से हिंदुस्तानी की तरफ देखता है, तो उसे एहसास होता है कि हिंदुस्तान के खिलाफ जो जहर उसे घुट्टी में पिलाया गया, उसमें कोई हकीकत नहीं थी, वह झूठ का अंबार था। अब जबकि भारत के प्रधानमंत्री ने अचानक लाहौर जाकर भारत की सहृदयता का एक और परिचय दिया है, तो कम से कम भारत के मुसलमानों को तो इस बात का बीड़ा उठा ही लेना चाहिए कि असहिष्णुता की बात करने वालों को आईना दिखा दें, ताकि फिर कोई भारत की छवि खराब करने की देशद्रोही हरकत न सके।
 

Monday, December 28, 2015

प्रधानमंत्री, आडवाणीजी और हवाला कांड

 पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अरूण जेटली से संबंधित भ्रष्टाचार के आरोपों को यह कहकर खारिज कर दिया कि जेटली भी उसी तरह इन आरोपों से मुक्त हो जाएंगे, जैसे आडवाणीजी हवाला कांड में मुक्त हो गए थे। प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि आडवाणी जी को कांग्रेसियों ने हवाला कांड में फंसाया था। शायद प्रधानमंत्रीजी को ब्रिफिंग देने वालों ने ठीक तथ्य नहीं बताए, वरना वे ऐसा न कहते। यह इतफाक है कि 16 जनवरी, 1996 को भारत के इतिहास में पहली बार दर्जनों केंद्रीय मंत्री (कांग्रेस), विपक्ष के नेता (भाजपा, जनता दल आदि) व आला अफसर जैन हवाला कांड में सीबीआई द्वारा आरोपित हुए थे और उन्हें अपने पदों से इस्तीफे देने पड़े थे। अगले 2 हफ्तों में इस ऐतिहासिक घटना को पूरे 20 वर्ष हो जाएंगे।

इस दौरान भ्रष्टाचार, आतंकवाद और हवाला कारोबार घटने की बजाय कई गुना बढ़ा है। इसलिए 16 जनवरी, 2016 को पूरे देश में यह चिंतन होना चाहिए कि आखिर सीबीआई व अदालतों के बावजूद ऐसा क्यों हो रहा है ? रही बात आडवाणी जी के आरोपमुक्त होने की, तो उन्हें किन हालातों में आरोपमुक्त किया गया, यह बात उस समय से ऐसे मामलों पर निगाह रखने वाले राजनेता, पत्रकार, वकील और अधिकारी सब जानते हैं। नई पीढ़ी के लिए भी इसे जानना मुश्किल नहीं है। www.vineetnarain.net बेवसाइट पर जाकर मेरी हिंदी पुस्तक ‘भ्रष्टाचार, आतंकवाद और हवाला कारोबार’ पढ़ी जा सकती है। जिसमें इस कांड को लेकर सर्वोच्च न्यायपालिका तक के अनैतिक आचरण का सप्रमाण खुलासा किया गया है। फिर भी कुछ बिंदु यहां याद दिलाना उचित रहेगा। हवाला कांड को अपनी कालचक्र वीडियो मैग्जीन के माध्यम से (उन दिनों निजी टीवी चैनल नहीं थे) उजागर करने का जोखिम 1993 में मैंने ही उठाया था और पूरी व्यवस्था के विरूद्ध अकेले शंखनाद कर किया था। इसमें सबसे ज्यादा तो कांग्रेस के केंद्रीय मंत्री, राज्यों के मुख्यमंत्री व राज्यपाल आरोपित हुए थे, तो फिर ये कांग्रेस का षडयंत्र कैसे हो सकता है ?

 आडवाणीजी उन दिनों लोकसभा में विपक्ष के नेता थे। अगर यह षडयंत्र था, तो उन्होंने 1993 से 1996 के बीच (जब यह केस चलता रहा) लोकसभा में इस पर आवाज क्यों नहीं उठाई ? इससे पहले बोफोर्स को लेकर तो वे बहुत आक्रामक रहे थे। हवाला कांड तो कश्मीर के हिजबुल मुजाहिद्दीन नामक आतंकवादी संगठन के दुबई और लंदन से आने वाले अवैध धन के हवाला कारोबार से जुड़ा मामला था। फिर आडवाणीजी ने देशद्रोह के इस कांड की ईमानदारी से जांच करवाने की मांग कभी क्यों नहीं की ? 1997 और 1999 में मैंने सार्वजनिक रूप से दो प्रश्नावलियां जारी की थीं, जिन्हें उक्त पुस्तक में भी पढ़ा जा सकता है। इन प्रश्नावलियों में मैंने आडवाणीजी से देशद्रोह के इस कांड पर खतरनाक चुप्पी साधने की वजह पूछी थी। जिनका उत्तर उन्होंने आजतक नहीं दिया। यह बात दूसरी है कि उन्हीं के सहयोगी और हवाला कांड में आरोपित हुए दिल्ली के तत्कालीन मुख्यमंत्री मदनलाल खुराना ने खुलकर स्वीकार किया था कि यह पैसा उन्होंने और आडवाणीजी ने सुरेंद्र जैन से चुनावों के लिए लिया। आज की चुनावी व्यवस्था ही ऐसी है कि अगर आप मोटा पैसा नहीं खर्च कर सकते तो आप चुनाव नहीं जीत सकते। अगर आडवाणीजी भी यह बात सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर लेते, तो उनको इतना सबकुछ न झेलना पड़ता। दूसरी तरफ देवीलाल, शरद यादव और राजेश पाइलट ने सार्वजनिक रूप से यह मान लिया था कि उनके नाम के आगे जैन बंधुओं के खातों में जो रकम लिखी है, वह सही है और उन्होंने जैन बंधुओं से यह ली थी। इस तरह जैन डायरी (अवैध खाते) की विश्वसनीयता भी स्थापित हो जाती है, क्योंकि उसमें वही दर्ज है, जो वास्तव में लेन-देन हुआ।

 इस केस का एक रोचक पहलु और भी है। जरा-जरा सी बात पर संसद को हफ्तों न चलने देने वाले सांसद हर घोटाले पर जमकर शोर मचाते रहे हैं। पर, हवाला कांड को लेकर किसी भी दल ने आजतक कोई आंदोलन नहीं चलाया और न ही संसद में हंगामा किया। क्योंकि जब हर बड़े दल के नेता इस कांड में शामिल हैं, तो कौन किसके खिलाफ शोर मचाता ? इसलिए हवाला कांड आजतक उजागर हुए सभी घोटालों से अलग और बड़ा है। क्योंकि इसमें देश के महत्वपूर्ण राजनेता शामिल रहे हैं।

 इस केस का एक और रोचक पहलु यह है कि 1993 में जब मैंने इस मामले को लेकर सीबीआई की निष्क्रियता के विरूद्ध सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर की थी, तब मुख्य न्यायाधीश जे.एस. वर्मा ने इसी जैन डायरी की महत्ता बताते हुए कहा था कि, ‘ये इतने बड़े सुबूत हैं कि अगर इसके बावजूद हम आरोपियों को सजा न दे पाएं, तो हमें देश की अदालतें बंद कर देनी चाहिए।’ पर जब 1996 में जस्टिस जेएस वर्मा को आरोपियों द्वारा प्रभावित कर लिया गया, तो वही अदालत कहने लगी कि इस केस में कोई सुबूत ही नहीं है। क्योंकि जस्टिस वर्मा के जैन बंधुओं से मुकदमे के दौरान हुए मेलजोल का भी खुलासा मैंने 1997 में किया था और जस्टिम वर्मा को यह मानना पड़ा कि मेरे आरोप सही थे और वे उस व्यक्ति से मिलते रहे थे। 

 कुल मिलाकर यह मामला बहुत गंभीर है। क्योंकि यह राष्ट्र की सुरक्षा और आतंकवाद से जुड़ा है, फिर भी इसकी आजतक जांच नहीं हुई। आज भी हर नेता इसका नाम लेने से बचता है। इसी से इसकी महत्ता सिद्ध होती है। उपरोक्त तथ्यों को जानने के बाद और मेरी पुस्तक आॅनलाइन पढ़ने के बाद आप खुद ही फैसला कर लेंगे कि आडवाणजी न तो किसी षडयंत्र में फंसाए गए थे और न ही उनको नैतिक रूप से आरोपमुक्त किया गया था। आशा है कि प्रधानमंत्रीजी अपनी भूल सुधार करेंगे। इतना ही नहीं भ्रष्टाचार के विरूद्ध युद्ध लड़ने की शपथ लेकर इस पद पर आरूढ़ हुए मोदीजी से देश की अपेक्षा है कि जैन हवाला कांड की ईमानदार जांच के आदेश दें, ताकि दूध का दूध और पानी का पानी सामने आ जाए। आपराधिक मामलों में जब तक केस पूरी तरह बंद न हो जाए, दोबारा खोला जा सकता है। जैन हवाला केस आजतक ईमानदार जांच का इंतजार कर रहा है।
 

Thursday, December 24, 2015

Was Hawala Case a conspiracy against Advani ji


Was Hawala Case a conspiracy against Advani ji
as he has told the nation and party workers ?

 Questions unanswered by Mr. Advani  since April 1997.......
 
Respected Advani ji,

Ever since you have been chargesheeted in the Jain Hawala Case, you have been branding it as a mere conspiracy against you. On being discharged by the Delhi High Court on April 8th 1997, you celebrated it like a moral victory. I am surprised how a leader of your stature can mislead the nation and his followers by concealing facts.

Don't you know that Hawala case is connected with the funding of Hijbul-Mujahideen in Kashmir ? You know that in March 1991, two Muslim youths were caught red-handed with several lacs of rupees in their possession.

This money was being sent to the militants in Jammu and Kashmir. On their tip off the Delhi Police and the CBI raided several 'Hawala' operators and subsequently the Jain brothers. A huge recovery of cash, gold bars, foreign exchange and several incriminating documents were seized in these raids. Yet CBI hushed up the investigation under political pressure.


1.    Do you feel that the police should not have raided the Hawala operators?

2.    Do you think that these youths should not have been booked under the provisions of TADA even when they were channelising the funds to the militants of Kashmir?

3.    Do you call it a conspiracy to safeguard national interest ?

4.    You know that once CBI came to know about the involvement of a number of top politicians with the Jain brothers, the entire investigation was put in cold storage? Was it a conspiracy against you or against the nation ?

5.    When everybody who matters in Indian politics is allegedly involved in the Hawala case then who did conspiracy against whom ?

6.    You know very well that whatever pretention of investigation CBI did, it did so after our petition was favorably taken up by the Hon'ble Judges of the SC? Then whom are you blaming for the conspiracy ? Us or the SC Judges?

7.    Why were you so scared of facing the Kalchakra's TV cameras in Aug. 1993, when in the past you had always welcomed us ? We were to ask you only two questions a) Do you know the Jain brothers ? b)Have you taken so much money from them ? If you had nothing to hide, you could have easily answered our questions.

8.    You were chargesheeted in Jan.1996 while your name started appearing in Hawala case since July 1993, if it was a conspiracy why didn't you raise an alarm during this long period ? Were you presuming that nothing will happen, no one will be caught so why trouble the trouble unless it troubles you ? Should it not be termed as a conspiracy of silence by you and your party ?

9.    Knowing fully well that it was case of treachery with the nation, yet why did you not raise any voice in the parliament or outside demanding a thorough probe into the matter ? As a leader of opposition was it moral on your part ? If not, then how it is your moral victory ?

10. Does your heart bleed for the Hindu refugees living in camps at Jammu? If yes why didn't it bother you to find out the roots of Hawala funding?

11. Was it moral for Mr. Ram Jethmalani to betray us and change side to protect your interest ? Was it moral for you to make him a Law Minister, by denying this opportunity to several of your senior party colleagues, when he was not even a member of your party ? What was the understanding ? That he will help you to get out of the Hawala case ? Otherwise how is it that such a brilliant legal brain did such an illegal act of making contemptuous statement? As a law minister he said that he would file an affidavit to say that you were innocent. This amounts to tampering with the process of law. With such immoral acts do you still call it a 'moral victory'?

12. You know that CBI filed false information in the SC to protect the politicians. CBI told lie that it was 'vigorously pursuing the investigation' while it had done nothing. It further told lies that Jains were absconding while they were throwing parties in Delhi. CBI told lies that it could not identify currencies of 50 unknown denomination seized from Jains. What a joke ? CBI underplayed the facts before the Delhi HC. It is a case based on repeated lies to protect the powerful politicians like you, yet how do you call it a victory of 'truth over untruth'?

13. Anyway now you feel 'relieved from the burden'. Do you now have the moral courage to demand honest probe into the Hawala case and punitive action against the officials of CBI who shamelessly connived with the accused? Can you explain the nation why you don't want thorough probe in Hawala, while you had shaken the whole nation demanding probe in the BOFORS case?

14. Finally, you do realise that your and your party's phenomenal rise in 1990 had been due to the mercy of Ayodhyapati Bhagwan Shri Ram. He can make or unmake our lives. Do you have the moral courage to swear by touching the lotus feet of Shri Ram Lala at Shri Ram Janmabhoomi and declare publicly that it was a conspiracy against you and you had accepted no money from the Jain brothers?


With respectful regards

Vineet Narain
April 1997

 
(It is surprising that these questions were not asked by TV interviewers when Advaniji brushed aside the allegations, why ?)


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Please Answer Mr.Home Minister Why Advani ji is avoiding these questions ?

 16 December 1999

Respected Advani ji,

Your enthusiasm to find the truth of BOFORS scam is worth appreciating. What impresses us is the persistence with which you and your close associates have been after this scam since 1987. You and your party has shown similar enthusiasm in the Fodder Scam and is all set to exploit this issue in the forth coming assembly elections of Bihar. In all fairness should you not show the same enthusiasm in finding the truth about the Jain Hawala scam ? The recent blast in the Pooja Express and repeated attacks on army camps in Kashmir are lethal blows on Indian state by the militants, who are flourishing without any check.

This is not the first time I am communicating with you. During the past 6 years I have been asking you some questions related to the Jain Hawala Case through my letters, Kalchakra newspapers, public and press statements and so on. It is unfortunate that you being such a senior and respected leader of the country have been avoiding all of them. If this was not enough you very easily branded the Jain Hawala case as a mere conspiracy against you, when you were chargesheeted in this case on 16th Jan1996. When you were let off by the Delhi High Court on 8th April 1997, you called it your "moral victory", "a victory of truth over untruth" and so on. It was then I had released a set of questions for you to answer, but you preferred to ignore them. Instead of respecting the democratic traditions of public accountability you directed your entire man power to launch a world wide misinformation campaign on Hawala case. In several public meetings in India and abroad I had to face some of your campaigners who were very hostile towards me for having "unnecessarily dragged" your name into this case. By God's grace I was able to satisfy them with logical explanations and correct information. On the contrary I have yet to receive your answers to my questions.

Let me tell you that this attitude of yours proved fatal for the country. The militants felt more secured than ever before. They realised that the ruling elite of India are really not interested in curbing their activities. They could see that all the concern Indian political leaders show for the growing militancy is nothing more than lip service. Their confidence grew so much that they could dare to plant a bomb in your public meeting at Coimbatoore. By God's grace you narrowly escaped, however, several innocent people of the town had to lay their lives in that gruesome blast.

Since the militants are gaining in strength day by day, they could dare to enter the army establishments in Kashmir and killed several of our officers. From across the border they are throwing open challenge to Indian state. They have already established a vast network in this country. It has become an alarming situation.

The people cannot be left at their mercy. You know that the Jain Hawala case is one major case related to the funding of militancy in India, which has yet not been properly investigated. Even the former Chief Justice of India, who monitored this case said on 28th August 1998 that CBI failed to properly investigate the Hawala case otherwise the politicians would not have been let off.

I am sure by now you must have read my book on this case. It explains how shamelessly and systematically the entire Hawala probe was scuttled by the ruling elite of this country.

In light of the above facts and the material published in this newspaper, don't you think that this case needs to be probed by a team of efficient and honest police officials ?

Don't you think that your continuation as the Union Home Minister will seal the possibility of honest probe into this significant case ?

Please do not think that we have an agenda to chase you on this issue. On the contrary we feel that you are a strong leader with a vision and we have some hopes from you for this nation, that is why we want you to have the moral courage to come-out openly and share the truth with the nation as several other Hawala payees including your cabinet colleague Mr. Sharad Yadav did. You know that the President of USA, Mr. Bill Clinton had no ego problem in accepting that he had lied and actually had relations with Monica Lewinsky.

People of USA forgave him thereafter. Will you do that respected Advani Ji and will also request the PM to ensure proper investigation in this case ?

Your well wisher

Vineet Narain
16 December 1999

Monday, December 21, 2015

सरकार का काम नहीं मंदिर चलाना

वृंदावन के बांकेबिहारी मंदिर के सरकारी अधिग्रहण की खबर से वृंदावन उबाल पर है। 500 वर्ष पुराने बांकेबिहार मंदिर पर आश्रित गोस्वामियों के परिवार, संतगण और वृंदावन वासी मंदिर का उत्तर प्रदेशा शासन द्वारा अधिग्रहण किए जाने के खिलाफ धरने-प्रदर्शन और आंदोलन कर रहे हैं। पिछले 3 दर्शकों से यह मंदिर ब्रज का सर्वाधिक लोकप्रिय मंदिर है। जिसके दर्शन करने हर कृष्णभक्त एक-न-एक बार वृंदावन अवश्य आता है। संकरी गलियों और मध्युगीन भवन के कारण मंदिर पहुँचने का मार्ग और इसका प्रांगण हमेशा भीड़ से भरा रहता है। जिसके कारण काफी अव्यवस्थाएं फैली रहती है। यही कारण है कि व्यवस्थित  रूप से सार्वजनिक स्थलों पर जाने के अभ्यस्त लोग यहां की अव्यवस्थाएं देखकर उखड़ जाते हैं। ऐसे ही बहुत से लोगों की मांग पर उ.प्र. शासन ने इस मंदिर को व मिर्जापुर के विन्ध्यावासिनी मंदिर को सरकारी नियंत्रण में लेने का फैसला किया है। जिसका काफी विरोध हो रहा है।

मंदिर की व्यवस्था सुधरे, दर्शनार्थियों को कोई असुविधा न हो व चढ़ावे के पैसे का सदुपयोग हो, ऐसा कौन नहीं चाहेगा ? पर सवाल है कि क्या अव्यवस्थाएं सरकारी उपक्रमों में नहीं होती? जितने भी सरकारी उपक्रम चलाए जा रहे हैं, चाहे वह राज्य सरकार के हों या केन्द्र सरकार के प्रायः घाटे में ही रहते हैं। कारण उनको चलाने वाले सरकारी अधिकारी और नेता भ्रष्ट आचरण कर इन उपक्रमों का जमकर दोहन करते हैं। तो कैसे माना जाए कि मंदिरों का अधिग्रहण होने के बाद वही अधिकारी रातो-रात राजा हरीशचन्द्र के अनुयायी बन जाएंगे ? यह संभव नहीं है। पिछले दिनों आंध्र प्रदेश के राज्यपाल जोकि तिरूपति बालाजी ट्रस्ट के अध्यक्ष थे, अपनी पीड़ा मुझसे हैदराबाद के राजभवन में व्यक्त करते हुए कह रहे थे कि भगवान के काम में भी ये लोग भ्रष्टाचार करते हैं, यह देखकर बहुत दुःख होता है। वे स्वयं बड़े भक्त हैं और राजभवन से कई किलोमीटर दूर नंगे पांव पैदल चल कर दर्शन करने जाते हैं।

हो सकता है कि उ.प्र. सरकार की इच्छा वाकई बिहारी जी मंदिर और बिन्ध्यावासिनी मंदिर की दशा सुधारने की हो पर जनता यह सवाल करती है कि सीवर, सड़क, पानी, बिजली, यातायात और प्रदूषण जैसी विकराल समस्याओं के हल तो कोई सरकार दे नहीं पाती फिर मंदिरों में घुस कर कौन सा करतब दिखाना चाहती है ? लोगों को इस बात पर भी नाराजगी है कि हिन्दुओं के धर्मस्थालों के ही अधिग्रहण की बात क्यों की जाती है? अन्य धर्मों के स्थलों पर सरकार की निगाह क्यों नहीं जाती ? चाहे वह मस्जिद हो या चर्च। दक्षिण भारत में मंदिरों का अधिग्रहण करके सरकारों ने उसके धन का अन्य धर्मावलंबियों के लिए उपयोग किया है, इससे हिन्दू समाज में भारी आक्रोश है।

बेहतर तो यह होगा कि मंदिरों का अधिग्रहण करने की बजाय सभी धर्मों के धर्मस्थलों के प्रबंधन की एक सर्वमान्य रूपरेखा बना दी जाए। जिसमें उस धर्म स्थल के रख-रखाव की बात हो, यात्रियों की सुविधाओं की बात हो, उस धर्म के अन्य धर्मस्थलों के जीर्णोंद्धार की बात हो और उस धर्म के मानने वाले निर्धन लोगों की सेवा करने के व्यवहारिक नियम बनाए जाएं। साथ ही उस मंदिर पर आश्रित सेवायतों के रखरखाव के भी नियम बना दिए जाएं जिससे उनके परिवार भी सुख से जी सकें। इसके साथ ही धर्मस्थलों की आय का एक निर्धारित फीसदी भविष्य निधि के रूप में जमा करा दिए जाएं। इस फार्मूले पर सभी धर्म के लोगों को अमल करना अनिवार्य हो। इसमें कोई अपवाद न रहे। जो धर्म स्थल इस नियम का पालन न करे उसके अधिग्रहण की भूमिका तो बनाई जा सकती हैं पर जो धर्मस्थल इस नियमावली को पालन करने के लिए तैयार हो उसे छेड़ने की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि मंदिरों के साथ उनके उत्सवों और सेवापूजा की सदियों पुरानी जो परंपरा है उसे कोई सरकारी मुलाजिम नहीं निभा सकता। इसलिए भी मंदिरों का अधिग्रहण नहीं होना चाहिए।

आज से 12 वर्ष पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मा. न्यायाधीशों के अनुरोध पर मैं 2 वर्ष तक बांकेबिहार मंदिर वृंदावन का अवैतनिक रिसीवर रहा था। उस दौरान मंदिर की व्यवस्थाओं का गहराई से देखने और समझने का मौका मिला। जितना बन पड़ा उसमें सुधार करने की कोशिश की। जिसे सभी ने सराहा। पर जो सुधार करना चाहता था उस पासंग भी नहीं कर पाया क्योंकि गोस्वामीगणों के बीच यह विवाद, मुकद्दमेबाजी और आक्रामक रवैए ने कोई बड़ा सुधार होने नहीं दिया। हार कर मैंने बिहारीजी और दानघाटी गोवर्द्धन मंदिर के रिसीवर पद से इस्तीफा दे दिया। मेरा मन स्पष्ट था कि मुझे ब्रज में भगवान के लीलास्थालीयों के जीर्णोद्धार का काम करना है और मंदिरों की राजनीति या उनके प्रबंधन मंे नहीं उलझना है। आज भी मैं इसी बात पर कायम हूं। इसलिए बांकेबिहारी मंदिर के इस विवाद में मेरी कोई रूची नहीं है। पर जनता की भावना की हरेक को कद्र करना चाहिए। यह सही है कि मंदिर का अधिग्रहण होने से वृंदावन के समाज को बहुत तकलीफ होगी। पर दूसरी तरफ मंदिर की व्यवस्था में सुधार भी उतना ही जरूरी है। जिस पर संतों, गोस्वामीगणों को मिल-बैठकर समाधान खोजना चाहिए। गोस्वामियों को चाहिए कि मंदिर की व्यवस्थाओं का फार्मूला तैयार करें और उन सुधारों को फौरन लागू करके दिखाएं और तब सरकार को यह सोचने पर मजबूर करें कि मंदिर का अधिग्रहण करके वह क्या हासिल करना चाहती है। तब इस अधिग्रहण विरोधी आंदोलन की धार और भी तेज होगी
 

Monday, December 14, 2015

गोडसे ने नहीं की महात्मा गांधी की हत्या

 दुनिया यही मानती है कि नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या की। पर भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं कि आत्मा अजर अमर है। इसे शस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि जला नहीं सकती, जल गला नहीं सकता और वायु सुखा नहीं सकती। इस दृष्टि से महात्मा गांधी की आत्मा भी अजर अमर है। असली हत्या तो उनके विचारों की की गई और ये काम आजादी मिलते ही शुरू हो गया।
 
 जिस अखबार में आप यह लेख पढ़ रहे हैं, वो अखबार आपकी मात्र भाषा का है। अगर ये अंग्रेजी में होता तो क्या आप इसे पढ़ते ? भारत के कितने लोग अंग्रेजी लिख-पढ़ सकते हैं। पर विड़बना देखिए कि हमारी शिक्षा से लेकर न्याय पालिका तक, प्रशासन से लेकर स्वास्थ्य सेवाओं तक सब ओर अंग्रेजी का बोलबाला है। जबकि इस भाषा को समझने वाले देश में 2 फीसदी लोग भी नहीं हैं और यही 2 फीसदी लोग भारत के संसाधनों पर सबसे ज्यादा कब्जा जमाकर बैठे हैं, सबसे ज्यादा मौज भी इन्हीं को मिल रही है। शेष भारतवासियों का हक छीनकर ये पनप रहे हैं। पर आम भारतवासियों की आवाज इनके कानों तक नहीं पहुंचती। उनका दर्द इनके सीने में नहीं उठता। इन्हंे तो हर वक्त अपनी और अपने कुनबे की तरक्की की चिंता रहती है और हर तिगड़म लगाकर ये विकास का सारा फल हजम कर जाते हैं। इसका एक मात्र कारण यह है कि हमने गांधीजी के विचारों की हत्या कर दी। वे नहीं चाहते थे कि अंग्रेजों के जाने के बाद अंग्रेजी एक दिन भी हिंदुस्तानियों पर हावी हो, क्योंकि वे इसे गुलाम बनाने की भाषा मानते थे।
 
 इस लेख में आगे कुछ और बताने से ज्यादा जरूरी होगा कि हम जानें कि मातृभाषा के लिए और अंग्रेजी के विरूद्ध गांधीजी के क्या विचार थे और फिर देखें कि क्या आज उनकी भविष्यवाणी सच साबित हो रही है ? अगर हां तो फिर उस गलती को दूर करने की तरफ सोचना होगा।
 
अंग्रेजी शिक्षा के खिलाफ गांधीजी ने कहा, ‘‘करोड़ों लोगों को अंग्रेजी शिक्षण देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है। मैकाले ने जिस शिक्षण की नींव डाली, वह सचमुच गुलामी की नींव थी। ....अंग्रेजी शिक्षण स्वीकार करके हमने जनता को गुलाम बनाया है। अंग्रेजी शिक्षण से दंभ, द्वेष, अत्याचार आदि बड़े हैं। अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त लोगों ने जनता को ठगने और परेशान करने में कोई कसर नहीं रखी। भारत को गुलाम बनाने वाले तो हम अंग्रेजी जानने वाले लोग ही हैं।’’ वे आगे कहते हैं कि “यदि मैं तानाशाह होता तो आज ही विदेशी भाषा में शिक्षा देना बंद कर देता। सारे अध्यापकों को स्वदेशी भाषाएं अपनाने को मजबूर कर देता। जो आनाकानी करते उन्हें बर्खास्त कर देता।”
 
भागलपुर शहर में छात्रों के एक सम्मेलन में भाषण करते हुए उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा है ‘‘मातृभाषा का अनादर मां के अनादर के बराबर है। जो मातृभाषा का अपमान करता है, वह स्वदेश भक्त कहलाने लायक नहीं है। बहुत से लोग ऐसा कहते सुने जाते हैं कि ‘हमारी भाषा में ऐसे शब्द नहीं जिनमें हमारे ऊंचे विचार प्रकट किये जा सकें। किन्तु यह कोई भाषा का दोष नहीं। भाषा को बनाना और बढ़ाना हमारा अपना ही कर्तव्य है। एक समय ऐसा था जब अंग्रेजी भाषा की भी यही हालत थी। अंग्रेजी का विकास इसलिए हुआ कि अंग्रेज आगे बढ़े और उन्होंने भाषा की उन्नति की। यदि हम मातृभाषा की उन्नति नहीं कर सके और हमारा यह सिद्धान्त रहे कि अंग्रेजी के जरिये ही हम अपने ऊँचे विचार प्रकट कर सकते हैं और उनका विकास कर सकते हैं, तो इसमें जरा भी शक नहीं कि हम सदा के लिए गुलाम बने रहेंगे। जब तक हमारी मातृभाषा में हमारे सारे विचार प्रकट करने की शक्ति नहीं आ जाती और जब तक वैज्ञानिक विषय मातृभाषा में नहीं समझाये जा सकते, तब तक राष्ट्र को नया ज्ञान नहीं मिल सकेगा।’’
 
एक अवसर पर गांधीजी ने विदेशी भाषा द्वारा दी जाने वाली शिक्षा से होने वाली हानियों का उल्लेख करते हुए कहा है ‘‘माँ के दूध के साथ जो संस्कार और मीठे शब्द मिलते हैं, उनके और पाठशाला के बीच जो मेल होना चाहिए, वह विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा देने में टूट जाता है। इसके अतिरिक्त विदेशी भाषा द्वारा शिक्षा देने से अन्य हानियां भी होती है। शिक्षित वर्ग और सामान्य जनता के बीच में अन्तर पड़ गया है। हम जनसाधरण को नहीं पहचानते, जनसाधरण हमें नहीं जानता। वे हमें साहब समझते हैं और हमसे डरते हैं। यदि यही स्थिति अधिक समय तक रही तो एक दिन लार्ड कर्जन का यह आरोप सही हो जाएगा कि शिक्षित वर्ग जनसाधारण का प्रतिनिधि नहीं है।’’
 
उन्होंने यह भी कहा कि, “मुझे लगता है कि जब हमारी संसद बनेगी तब हमें फौजदारी कानून में एक धारा जुड़वाने का आन्दोलन करना पड़ेगा। यदि दो व्यक्ति भारत की एक भाषा जानते हों और इस पर भी उनमें से कोई दूसरे को अंग्रेजी में पत्र लिखे या एक-दुसरे से अंग्रेजी में बोले तो उसे कम से कम छः महीने की सख्त सजा दी जायेगी।’’
 
साफ जाहिर है कि गांधीजी को भारत की असलियत की गहरी समझ थी। वे जानते थे कि अगर भारत में आर्थिक विकास और शिक्षा का काम गांवों की बहुसंख्यक आबादी को केंद्र में रखकर किया जाए, तभी भारत का सही विकास हो पाएगा। अन्यथा चंद लोग तो मजे करेंगे और बहुसंख्यक आबादी बर्बाद होगी। यही आज हो रहा है। असहिष्णुता हिंदू और मुसलमान के बीच में नहीं, बल्कि 2 फीसदी अंग्रेजीदां वर्ग और 98 फीसदी आम हिंदुस्तानी के बीच है। जिसे दूर करने के लिए अपनी भाषा नीति को बदलना होगा। क्या संसद इस पर विचार करेगी ?