Monday, August 15, 2016

कश्मीर की घाटी में तूफान: मीडिया की विफलता

कश्मीर की घाटी में जो बवाल हो रहा है, उसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार केंद्र सरकार की नाकारा मीडिया पाॅलिसी है। आज हालत ये है कि कश्मीर की घाटी में उपद्रव का संचालन पूरे तरीके से पाकिस्तान की आईएसआई के हाथ में है। जो सीमापार से गत 20 वर्षों में कश्मीरी युवाओं की ब्रेन वाॅशिंग करने में सफल रही है। आज यहां 10 साल के बच्चे के सिर पर जाली वाली टाॅपी और हाथ में पत्थर है। निशाने पर भारत की फौज। वही फौज, जिसने श्रीनगर की बाढ़ में सबसे ज्यादा राहत पहुंचाने का काम किया। तब न तो आईएसआई काम आयी और न ही पाकिस्तान की फौज। आज कश्मीर में भारत विरोधी माहौल बनाने का काम वहां का बुद्धिजीवी वर्ग, मीडिया, वकील, सामाजिक कार्यकर्ता और राजनेता कर रहे हैं। इन सबका एक ही नारा है - आज़ादी।

कोई इनसे यह नहीं पूछता कि किससे आज़ादी और कैसी आज़ादी ? जबकि हकीकत यह है कि कश्मीर के लोगों को भारतवासियों और पाकिस्तानियों से भी ज़्यादा आज़ादी मिली हुई है। भारत के किसी भी नागरिक को कश्मीर में संपत्ति खरीदने का अधिकार नहीं है। जबकि कश्मीर का कोई भी व्यक्ति हिंदुस्तान के किसी भी कोने में संपत्ति खरीद सकता है। नौकरी और व्यापार कर सकता है। यही कारण है कि चाहें गोवा के समुद्री तट हों या हिंदू और ईसाइयों के समुद्र तट पर बसे दर्जनों पारंपरिक नगर हों, हर ओर आपको कश्मीरी नौजवानों के एम्पोरियम नज़र आएंगे। देश की राजधानी दिल्ली से लेकर पूरे भारत में कश्मीरी खूब आर्थिक तरक्की कर रहे हैं। इज़्ज़त से जी रहे हैं। सरकारी नौकरियों एवं उच्च पदों पर तैनाती पा रहे हैं। इसके बावजूद खुलेआम भारत को गाली देते हैं।

जबकि दूसरी ओर पाकिस्तान में तबाही मची है। आपस में मारकाट हो रही है। सरकार विफल है। आर्थिक प्रगति का नाम नहीं है। पाकिस्तानी टीवी चैनलों पर वहां के अनेक बुद्धिजीवी यह कहते नहीं थकते कि पाकिस्तान किस मुंह से कश्मीर की बात करता है। जबकि वह खुद पूर्वी बंगाल को संभाल कर नहीं रख पाया। उसकी जगह बांग्लादेश बन गया। आज बलूचिस्तान बगावत का झंडा ऊंचा किए है और पाकिस्तान से आजादी चाहता है। हिंदुस्तान से गए हर मुसलमान को आज भी पाकिस्तान में मुजाहिर कह कर हिकारत से देखा जाता है। दुनिया का ऐसा कौन-सा मुल्क होगा, जो आपको तमाम रियायतें और सस्ती रसद दे और फिर भी आपसे गाली खाए।

पर ये बात कश्मीरियों को बताने वाला कोई नहीं। वहां का मीडिया बढ़ा-चढ़ाकर असंतोष की खबरें देता है। देश के टीवी चैनल भी कश्मीर की सड़कों पर बंद दुकानें और पसरा सन्नाटा दिखाते हैं। वहां खड़ी फौज के ट्रक और जवान दिखाते हैं। जबकि हकीकत यह है कि ये बंद का नाटक दोपहर तक ही चलता है। शाम होते ही घाटी के सारे लोग मस्ती करने डल झील, पार्कों और सैरगाहों पर निकल जाते हैं। खूब मौज-मस्ती करते हैं। सारे बाजार शाम को खुल जाते हैं। पर इसकी खबर कोई टीवी चैनल या अखबार नहीं दिखाता। न कोई ऐसी खबरें छापता और दिखाता है, जिससे कश्मीरियों को पाक अधिकृत कश्मीर या पाकिस्तान में हो रही बर्बादी की जानकारी मिले।

भारत सरकार ने फौज के स्तर पर तो कश्मीर में मोर्चा संभाला हुआ है, लेकिन मनोवैज्ञानिक युद्ध में सरकार बुरी तरह विफल हो रही है। भारत सरकार से अगर पूछो कि कश्मीर में आपकी प्रचार नीति क्या है, तो बोलेगी कि हमने दूरदर्शन को 500 करोड़ रूपए का स्पेशल कश्मीर पैकेज दे दिया है। ये कोई नहीं पूछता कि उस दूरदर्शन को देखता कौन है ?

मनोवैज्ञानिक लड़ाई जीतने के तमाम दूसरे तरीके हो सकते थे, जिन पर दिल्ली में कोई बात नहीं होती। सबसे तकलीफ की बात यह है कि कंेद्र सरकार का कोई भी कार्यालय कश्मीर में सक्रिय नहीं है। वेतन और भत्ते सब ले रहे हैं, पर अपनी ड्यूटी को अंजाम नहीं दे रहे। इससे उन लोगों को भारी क्षोभ है, जो इन विपरीत परिस्थितियों में वहां तैनात हैं और अपना मनोबल बनाए हुए हैं।

    आए दिन सत्तारूढ़ दल भाजपा और अन्य दलों के माध्यम से तमाम मुल्ला, मुसलमान नौजवान, बुद्धिजीवी और सामाजिक कार्यकर्ता प्रेस विज्ञप्तियां जारी करते हैं और अपने फोटो छपवाते हैं, जिनमें भारत के साथ एकजुटता दिखाई जाती है। ये लोग पाकिस्तान की बदहाली का जिक्र करना भी नहीं भूलते। यहां तक कि आग उगलने वाला मुस्लिम नेता और सांसद डा.असुद्दीन औवेसी तक पाकिस्तान में जाकर खुलेआम यह कहते हैं कि पाकिस्तान भारत के मुसलमानों के मामले में दखलंदाजी करना बंद कर दे और अपने मुल्क के हालात संभाले। क्यों नहीं ऐसे सारे मुसलमानों को भारत सरकार बड़ी तादाद में कश्मीर की घाटी में भेजती है ? जिससे ये वहां जाकर आवाम को अपनी खुशहाली और पाकिस्तान के मुसलमानों की बदहाली पर खुलकर जानकारी दें। जिससे कश्मीरियों को यकीन आए कि ये प्रचार भारत सरकार या हिंदू नेता नहीं कर रहे, बल्कि खुद उनके ही धर्मावलंबी उन्हें हकीकत बताने आए हैं।

    हाल ही के दिनों में प्रधानमंत्री मोदी ने एक बढ़िया काम किया है। उन्होंने जोरदार बयान दिया है कि कश्मीर की घाटी की बात नहीं, भारत तो अब आजाद पाक अधिकृत कश्मीर की आजादी की बात करेगा। आज तक किसी प्रधानमंत्री ने इस बात को इतनी जोरदारी से नहीं उठाया था। जबकि कानूनी स्थिति यह है कि कश्मीर का क्या हो, वो तो भविष्य की बात है। पर कश्मीर के एक बड़े भाग पर पाकिस्तान नाजायज कब्जा किए बैठा है। वहां का आवाम रात-दिन पाकिस्तान से आजादी के नारे लगा रहा है। ऐसे में भारत को हर मंच पर एक ही मांग उठानी चाहिए कि पाकिस्तान को कश्मीर से बाहर खदेड़ा जाए। चुनौती मुश्किल है। पिछली सरकारों ने कश्मीर की नीति में देश को लुटवाया ज्यादा है, पर अब भी देर नहीं हुई। सही समझ और कड़े इरादे से इस समस्या से निपटा जा सकता है।

Monday, August 1, 2016

वेतन आयोग या विनाश आयोग

    मोदी सरकार ने सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू कर सरकारी कर्मचारियों को बड़ी सौगात सौंप दी। ये बात दूसरी है कि सरकारी कर्मचारियों का एक ना एक वर्ग हमेशा ऐसा होता है, जिसे कितना भी मिल जाए, कभी संतुष्ट नहीं होता। पर असलियत यह है कि वेतन आयोग की सिफारिशें लागू करके जहां एक तरफ सरकार अपने कर्मचारियों को खुश करती है, वहीं इसके कारण समाज में भारी हताशा और निराशा फैलती है। जिसका सीधा असर लोगों की कार्यक्षमता पर पड़ता है। 

    यह सर्वविदित है कि सरकारी कर्मचारियों में कुछ अपवादों को छोड़कर ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार व्याप्त है। चाहें भारत का कोई भी हिस्सा क्यों न हो, इनके भ्रष्टाचार से आपको पूरा समाज त्रस्त मिलेगा। इसके अलावा सरकारी कर्मचारियों की कार्यकुशलता, निर्णय लेने की क्षमता, जोखिम उठाने की क्षमता, कार्य के प्रति समर्पण, आचरण में ईमानदारी को लेकर तमाम सवाल खड़े हैं। यह स्थापित सत्य है कि निजी क्षेत्र के कर्मचारी, चाहे वे चपरासी हों या कंपनी के प्रबंध निदेशक, सब रात-दिन कड़ी मेहनत करते हैं, लक्ष्य प्राप्ति के लिए प्रतिस्पर्धा की भावना से जूझते हैं। उन्हें अवकाश भी सीमित मिलता है और वे सरकारी क्षेत्र के कर्मचारियों से ज्यादा घंटे कार्य करते हैं। सरकारी कर्मचारियों के मुकाबले बहुत कम छुट्टी लेते हैं और लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सदैव तनाव में रहते हैं। उन्हें प्रायः मेडीकल, हाउसिंग, एलटीसी, यातायात और पेंशन जैसी कोई सुविधा नहीं मिलती। 

ऐसे में यह स्वाभाविक है कि वे अपने जीवन की तुलना सरकारी कर्मचारियों से करते हैं। उन्हें इस बात पर भारी नाराजगी होती है कि निठ्ल्ले और भ्रष्ट लोग तो बिना कुछ किए सभी ऐशो-आराम और नौकरी में तरक्कियां लेने का मजा लूटते हैं। जबकि इतना काम करके भी इन्हें कभी भी नौकरी से निकाले जाने का डर बना रहता है। 

    इसलिए जब वेतन आयोग के कहने पर सरकार अपने कर्मचारियों की तनख्वाहें एवं भत्ते बढ़ाती है, तो उससे समाज में भारी असंतुलन पैदा हो जाता है। जब अच्छे काम करने वाले को कोई तरक्की न मिले और निकम्मे व भ्रष्ट अधिकारियों को तरक्की और छुट्टी दोनों मिले, तो स्वाभाविक है कि सामान्य जन के मन में क्षोभ उत्पन्न होगा। इससे उनकी कार्यक्षमता घटेगी। उदाहरण के तौर पर दिल्ली जैसे शहर में एक सरकारी कार ड्राइवर को आराम से 30-35 हजार रूपए महीने तनख्वाह मिलती है। जबकि निजी क्षेत्र के ड्राइवरों को मात्र 10-15 हजार रूपए महीने। जबकि उन्हें 24 घंटे ड्यूटी पर रहता होता है। ऐसे माहौल में यह स्वाभाविक है कि देशभर के नौजवानों की रूचि सरकारी नौकरी पाने की तरफ ज्यादा होती है व मुकाबले निजी क्षेत्र में जाने की। नतीजतन सरकारी नौकरी का बाजार महंगा होता जाता है। एक चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी की नियुक्ति में भी 10-10 लाख रूपए तक की रिश्वत चलती है। गरीब कहां से लाए इतना पैसा ? 

    मोदीजी से हमेशा क्रांतिवारी और ठोस निर्णय लेने की अपेक्षा की जाती रही है। ये जो सवाल हमने यहां उठाया है, उसे हम मोदीजी से पूछना चाहते हैं कि एक-सा काम करने वालों की आमदनी में इतना भारी अंतर क्यों रखा जाए ? या तो वेतन आयोग की सिफारिशों को कूड़ेदान में फेंका जाए, ताकि कुछ क्रांतिवारी नीतियां लागू की जा सकें। जिससे निजी क्षेत्र के कर्मठ हिंदुस्तानियों को उत्साह मिले और दोनों वर्गों के बीच आय का अंतर इतना ज्यादा न हो। ये कठिन निर्णय होंगे। पर आज नही ंतो कल मोदीजी को ऐसे कठोर निर्णय लेने पड़ेंगे। 

    समय आ गया है कि मोदीजी निजी क्षेत्र के योगदान को देखें, परखें और ऐसी नीतियां बनाएं, जिससे उद्यमियों को प्रोत्साहन मिले। सरकारी वजीफों या अनुदान जैसी सहायता के लिए वे सरकार का मुंह न देखें। अपने संसाधन, योग्यता और अनुभव के आधार पर तेजी से आगे बढ़ें और देश को बढ़ाएं। 

    आज से 15 वर्ष पहले जब अमेरिका में मंदी छायी हुई थी, तो वहां के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने अपने देश के युवाओं से एक जोरदार अपील की थी। उसका मूल मंत्र ये था कि कोई व्यक्ति सरकारी नौकरी के भरोसे न बैठा रहे और अपने-अपने उद्यम खड़े कर आत्मनिर्भर बने। क्लिंटन ने अपने युवाओं का आह्वान किया था कि आप छोटा सा भी काम अपने घर से शुरू करें, तो आपको सफलता मिलेगी और आपकी आर्थिक जरूरतें पूरी होंगी। क्योंकि सरकार सबको नौकरी नहीं दे सकती। इस अपील का असर हुआ और अमेरिका में आर्थिकवृद्धि की लहर फिर से शुरू हो गई। ऐसा ही कुछ भारत के विकास का भी माॅडल होना चाहिए। जिससे योग्य और क्षमतावान लोग अपनी ऊर्जा का पूरा सदुपयोग कर सकें, तभी देश महान बनेगा।

Monday, July 25, 2016

दुनिया का सुखी देश कैसे बने

    पिछले हफ्ते मैं भूटान में था। चीन और भारत से घिरा ये हिमालय का राजतंत्र दुनिया का सबसे सुखी देश है। जैसे दुनिया के बाकी देश अपनी प्रगति का प्रमाण सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) को मानते हैं, वैसे ही भूटान की सरकार अपने देश में खुशहाली के स्तर को विकास का पैमाना मानती है। सुना ही था कि भूटान दुनिया का सबसे सुखी देश है। पर जाकर देखने में यह सिद्ध हो गया कि वाकई भूटान की जनता बहुत सुखी और संतुष्ट है। पूरे भूटान में कानून और व्यवस्था की समस्या नगण्य है। न कोई अपराध करता है, न कोई केस दर्ज होता है और न ही कोई मुकद्मे चलते हैं। निचली अदालत से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक वकील और जज अधिकतम समय खाली बैठे रहते हैं। 

ऐसा नहीं है कि भूटान का हर नागरिक बहुत संपन्न हो। पर बुनियादी सुविधाएं सबको उपलब्ध हैं। यहां आपको एक भी भिखारी नहीं मिलेगा। अधिकतम लोग कृषि व्यवसाय जुड़े हैं और जो थोड़े बहुत सर्विस सैक्टर में है, वे भी अपनी आमदनी और जीवनस्तर से पूरी तरह संतुष्ट हैं। 

    लोगों की कोई महत्वाकांक्षाएं नहीं हैं। वे अपने राजा से बेहद प्यार करते हैं। राजा भी कमाल का है। 33 वर्ष की अल्पायु में उसे हर वक्त अपनी जनता की चिंता रहती है। ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों पर, जहां कार जाने का कोई रास्ता न हो, उन पहाड़ों पर चढ़कर युवा राजा दूर-दूर के गांवों में जनता का हाल जानने निकलता है। लोगों को रियायती दर या बिना ब्याज के आर्थिक मदद करवाता है। 

    भूटान में कोई औद्योगिक उत्पादन नहीं होता। हर चीज भारत, चीन या थाईलैंड से वहां जाती है। वहां की सरकार प्रदूषण को लेकर बहुत गंभीर है। इसलिए कड़े कानून बनाए गए हैं। नतीजतन वहां का पर्यावरण स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभप्रद है। लोगों का खानापीना भी बहुत सादा है। दिन में तीन बार चावल और उसके साथ पनीर और मक्खन में छुकीं हुई बड़ी-बड़ी हरी मिर्च, ये वहां का मुख्य खाना है। पूरा देश बुद्ध भगवान का अनुयायी है। हर ओर एक से एक सुंदर बौद्ध विहार में हैं। जिनमें हजारों साल की परंपराएं और कलाकृतियां संरक्षित हैं। किसी दूसरे धर्म को यहां प्रचार करने की छूट नहीं है, इसलिए न तो यहां मंदिर हैं, न मस्जिद, न चर्च। 

विदेशी नागरिकों को 3 वर्ष से ज्यादा भूटान में रहकर काम करने का परमिट नहीं मिलता। इतना ही नहीं, पर्यटन के लिए आने वाले विदेशियों को इस बात का प्रमाण देना होता है कि वे प्रतिदिन लगभग 17.5 हजार रूपया खर्च करेंगे, तब उन्हें वीजा मिलता है। इसलिए बहुत विदेशी नहीं आते। दक्षिण एशिया के देशों पर खर्चे का ये नियम लागू नहीं होता, इसलिए भारत, बांग्लादेश आदि के पर्यटक यहां सबसे ज्यादा मात्रा में आते हैं। भूटान की जनता इस बात से चिंतित है कि आने वाले पर्यटकों को भूटान के परिवेश की चिंता नहीं होती। जहां भूटान एक साफ-सुथरा देश है, वहीं बाहर से आने वाले पर्यटक जहां मन होता है कूड़ा फेंककर चले जाते हैं। इससे जगह-जगह प्राकृतिक सुंदरता खतरे में पड़ जाती है। 

    एक और बड़ी रोचक बात यह है कि मकान बनाने के लिए किसी को खुली छूट नहीं है। हर मकान का नक्शा सरकार से पास कराना होता है। सरकार का नियम है कि हर मकान का बाहरी स्वरूप भूटान की सांस्कृतिक विरासत के अनुरूप हो, यानि खिड़कियां दरवाजे और छज्जे, सब पर बुद्ध धर्म के चित्र अंकित होने चाहिए। इस तरह हर मकान अपने आपमें एक कलाकृति जैसा दिखाई देता है। जब हम अपने अनुभवों को याद करते हैं, तो पाते हैं कि नक्शे पास करने की बाध्यता विकास प्राधिकरणों ने भारत में भी कर रखी है। पर रिश्वत खिलाकर हर तरह का नक्शा पास करवाया जा सकता है। यही कारण है कि भारत के पारंपरिक शहरों में भी बेढंगे और मनमाने निर्माण धड़ल्ले से हो रहे हैं। जिससे इन शहरों का कलात्मक स्वरूप तेजी से नष्ट होता जा रहा है। 

    भूटान की 7 दिन की यात्रा से यह बात स्पष्ट हुई कि अगर राजा ईमानदार हो, दूरदर्शी हो, कलाप्रेमी हो, धर्मभीरू हो और समाज के प्रति संवेदनशील हो, तो प्रजा निश्चित रूप से सुखी होती है। पुरानी कहावत है ‘यथा राजा तथा प्रजा’। यह भी समझ में आया कि अगर कानून का पालन अक्षरशः किया जाए, तो समाज में बहुत तरह की समस्याएं पैदा नहीं होती। जबकि अपने देश में राजा के रूप में जो विधायक, सांसद या मंत्री हैं, उनमें से अधिकतर का चरित्र और आचरण कैसा है, यह बताने की जरूरत नहीं। जहां अपराधी और लुटेरे राजा बन जाते हों, वहां की प्रजा दुखी क्यों न होगी ? 

एक बात यह भी समझ में आयी कि बड़ी-बड़ी गाड़ियां, बड़े-बड़े मकान और आधुनिकता के तमाम साजो-सामान जोड़कर खुशी नहीं हासिल की जा सकती। जो खुशी एक किसान को अपना खेत जोतकर या अपने पशुओं की सेवा करके सहजता से प्राप्त होती है, उसका अंशभर भी उन लोगों को नहीं मिलता, जो अरबों-खरबों का व्यापार करते हैं और कृत्रिम जीवन जीते हैं। कुल मिलाकर माना जाए, तो सादा जीवन उच्च विचार और धर्म आधारित जीवन ही भूटान की पहचान है। जबकि यह सिद्धांत भारत के वैदिक ऋषियों ने प्रतिपादित किए थे, पर हम उन्हें भूल गए हैं। आज विकास की अंधी दौड़ में अपनी जल, जंगल, जमीन, हवा, पानी और खाद्यान्न सबको जहरीला बनाते जा रहे हैं। भूटान से हमें बहुत कुछ सीखने की जरूरत है।

Monday, July 18, 2016

कश्मीर नीति बदलनी होगी

कश्मीर के हालात जिस तरह बिगड़ रहे हैं, उससे ये नहीं लगता कि केन्द्र सरकार की कश्मीर नीति अपने ठीक रास्ते पर है। इसमें शक नहीं है कि कश्मीर की आम जनता तरक्की और रोजगार चाहती है और अमन चैन से जीना चाहती है। पर आतंकवादियों, पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आई.एस.आई. और अलगाववाद का समर्थन करने वाले घाटी के नेता हर वक्त माहौल बिगाड़ने में जुटे रहते है। यही लोग है जो आतंकवादियों के मारे जाने पर उन्हें शहादत का दर्जा दे देते हैं और फिर अवाम को भड़काकर सड़कों पर उतार देते है। घाटी का अमन चैन और कारोबार सब गड्ढे में चले जाते है। आवाम की जिन्दगी मंे मुश्किलें बढ़ जाती है। पर इन सबका ऐसे हालातों में कारोबार खूब जोर से चलता है। इन्हें विदेशों से हर तरह की आर्थिक मदद मिलती है। इनकी जेबें गहरी होती जाती है और इसलिए यह कभी नहीं चाहते है कि कश्मीर की घाटी में अमन चैन कायम हो। और आवाम तरक्की रहे। 

मुश्किल यह है कि इन मुट्ठी भर लोगों ने ऐसा हऊआ खड़ा कर रखा है कि आम जनता इन्हें रोक नहीं पाती। सब डरते है कि अगर हमने मुंह खोला तो अगला निशाना हम पर ही होगा। इसलिए सब चुपचाप इनकी हैवानियत और जुल्मों को बर्दाश्त करते रहते है। जरूरत इस बात की है कि केन्द्र सरकार कश्मीर के मामले में अब ढिलाई छोड़ दें और अपनी नीति में बदलाव करें। सीधे और कड़े कदम उठायें। मसलन घाटी के आवाम को 3 हिस्सों में बांट दिया जाय। जो आतंकवादी हैं उनको उनकी ही भाषा में जवाब दिया जाय। घाटी के जो नेता  आतंकवाद और अलगाववाद का समर्थन करते हैं जैसे हुर्रियत के नेता उनके साथ कोई हमदर्दी न दिखाई जायें। क्योंकि भारत सरकार इनका इलाज करवाती है, इन्हें इज्जत देती हैं और ये दिल्ली आकर दिल्ली आकर पाकिस्तान के राजदूत से मिलते है और आई.एस.आई. से मोटी रकम हासिल करके हिन्दुस्तान के खिलाफ जहर उगलते है, घाटी में जाकर आग लगाते है। सरकार क्यों ऐसे नेताओं की मिजाजकुर्सी करती है। क्यूं इन्हें सरकारी दामाद की तरह रखा जाता है ? ऐसे लोगों से केन्द्रीय सरकार को वही बर्ताव करना पड़ेगा जो किसी जमाने में पं. जवाहरलाल नेहरू ने शेख अब्दुल्ला के साथ किया था। इन्हें पकड़कर नजरबंद कर देना चाहिए और इनकी बात आवाम तक किसी सूरत में नहीं पहुंचनी चाहिए। तीसरी श्रेणी आम जनता यानि आवाम की है। जिसके लिए रोजी-रोटी कमाना भी मुश्किल होता है। ऐसे लोगों के साथ सरकार को मुरव्वत करनी चाहिए। उनकी आर्थिक मदद करनी चाहिए। अगर ऐसे लोग किसी देश विरोधी आंदोलन में उतरते हैं, तो उसके पीछे आर्थिक कारण ज्यादा होता है वैचारिक कम। उन्हें पैसा देकर आतंकवाद बढ़ाने के लिए उकसाया जाता है। अगर सरकार इस पर काबू पा ले और आई.एस.आई. का पैसा आम जनता तक न पहुंचने पाये तो काफी हद तक कश्मीर के हालात सुधर सकते है। 

अब तक केन्द्र सरकार की नीति कश्मीर घाटी को लेकर काफी ढुलमुल रही है। लेकिन नरेन्द्र मोदी से लोगों को उम्मीद थी कि वे आकर पुरानी नीति बदलेंगे और सख्त नीति अपनाकर कश्मीर के हालात सुधार देंगे। पर मोदी सरकार की कश्मीर नीति कांग्रेस सरकार की नीति से कुछ ज्यादा फर्क नहीं रही है। इसीलिए अब मोदी को अपनी कश्मीर नीति में बदलाव लाने की जरूरत है। 

अगर नरेन्द्र मोदी यह नहीं कर पायें तो यह उनकी बहुत बड़ी विफलता होगी। क्योंकि चुनाव से पहले कश्मीर नीति को लेकर उनके जो तेवर थे उनसे जनता को लगता था कि प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने के बाद वे मजबूत और क्रान्तिकारी कदम उठायेंगे। मगर ऐसा नहीं हुआ है। इससे कश्मीर में शान्ति की उम्मीद रखने वालों को भारी निराशा हो रही है। उधर पाकिस्तान भी गिरगिट की तरह रंग बदलता है। वही नवाज शरीफ जो मोदी से भाई-भाई का रिश्ता बढ़ाने उनके शपथ-ग्रहण समारोह में आये थे। वे आज मोदी को गोधरा कांड के लिए फिर से दोष दे रहे है। मतलब हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और। ऐसे में बिना लाग-लपेट के, पुरानी नीति को त्यागकर, कश्मीर के प्रति सही और सख्त नीति अपनानी चाहिए। इसके साथ ही अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय को यह बताने से चूंकना नहीं चाहिए कि पाकिस्तान कश्मीर में आतंकवाद फैला रहा है। जिससे उसे अलग-थलग किया जा सकें। अमरीका और यूरोप को भी यह बताना होगा कि अगर तुम वाकई आतंकवाद से त्रस्त हो और इससे निजात पाना चाहते हो, तो तुम्हें पाकिस्तान का साथ छोड़कर भारत का साथ देना चाहिए। जिससे सब मिलकर आतंकवाद का सफाया कर सकें।

Monday, July 11, 2016

कौन विफल कर रहा है स्वच्छ भारत अभियान को?

पुरानी कहावत है कि जब खीर खा लो तो चावल अच्छे नहीं लगते| यूँ तो हमें अपने चारों तरफ गन्दगी का साम्राज्य देखने की आदत पड़ गयी है| इसलिए हमारा ध्यान भी उधर नहीं जाता | पर हर बार यूरोप या अमरीका से लौट कर जब कोई भारत आता है तो उसे सबसे पहले भारत के शहरों में गन्दगी देख कर झटका लगता है | पिछले हफ्ते अमरीका से लौटते ही मुझे काम से मुरादाबाद, लखनऊ और वाराणसी जाना पड़ा | तीनों शहरों में गन्दगी के अम्बार लगे पड़े हैं | जबकि पीतल की क्लाकृतियों के निर्यात के कारण मुरादाबाद एक धनीमानी शहर है | लखनऊ उत्तर प्रदेश की राजधानी है और वाराणसी प्रधान मंत्री का संसदीय क्षेत्र | पर तीनों ही शहरों में, सरकारी इलाकों को छोड़ कर बाकी सारे ही शहर एक ही बारिश में नारकीय स्थिति को पहुँच गये हैं | प्रधान मंत्री के स्वच्छता अभियान के पोस्टर तो आपको हर सरकारी इमारत में लगे मिल जायेंगे पर इस अभियान को सफल बनाने की ओर किसी का ध्यान नहीं है | न तो सरकारी मुलाज़िमों का और न ही हम और आप जैसे आम नागरिकों का|

हमारी दशा तो उस मछुआरिन जैसी हो गई है जो एक रात बाज़ार से घर लौटते समय तेज़ बारिश के कारण रास्ते में अपनी मालिन सहेली के घर रुक गई | पर फूलों की खुशबु के कारण उसे रात को नींद नहीं आ रही थी, सो उसने अपना मछली का टोकरा अपने मुह पर ओढ़ लिया | टोकरे की बदबू सूंघ कर उसे गहरी नींद आ गयी | हमें घर से निकलते ही कूड़े के अम्बार दिखाई देते हैं पर हम उसको अनदेखा कर के चले जाते हैं | जबकि अगर हम सब इस बात की चिंता करने लगें कि अपने घर के आसपास कूड़ा जमा नहीं होने देंगे | कूड़े को व्यकितगत या सामूहिक प्रयास से उसे उठवाने की कोशिश करेंगे, तो कोई वजह नहीं है कि धीरे-धीरे न सिर्फ हमारे पड़ोसी बल्कि नगर पालिका के कर्मचारी भी अपनी ड्यूटी ज़िम्मेदारी से करने लगेंगे | 

हममें से कितने लोग हैं जो कार, बस या रेल में सफर करते समय अपने खानपान का कूड़ा डालने के लिए अपने साथ एक कूड़े का थैला लेकर चलते हैं ? जबकि नागरिक चेतना वाले समाजों में यह आम रिवाज़ है कि लोग अपना कूड़ा अपने थैले में भरते हैं और गंतव्य आने पर उसे कूड़ेदान में डाल देते हैं| हमें तो यात्रा के समय अपने इर्द गिर्द हर किस्म का कूड़ा फ़ैलाने में कोई संकोच नहीं होता | ज़रा सोचिये जब आप ट्रेन या हवाई जहाज के टायलेट में जाएं और वो गन्दा पड़ा हो तो आपको कितनी तकलीफ होती है ? फिर भी हम लोग यह नहीं करते कि जिस कमरे में रहे या जिस वाहन में यात्रा करें उसे साफ़ छोड़ें | 

1982 की एक घटना याद आती है | अपनी शादी के बाद हम तमिलनाडु में ऊटी नाम के हिल स्टेशन पर गए | होटल के कमरे से जब निकलने लगे तो मेरी पत्नी मीता ने कमरे की सफाई शुरू कर दी | मुझे अचम्भा हुआ कि हम तो अब जा रहे हैं | ये काम तो होटल के स्टाफ का है, तुम क्यों कर रही हो ? उन्होंने अंग्रेजी में जवाब दिया, “लीव द रूम ऐज़ यू वुड लाईक टू हैव इट” यानी कमरे को ऐसा छोड़ो जैसा कि आप उसे पाना चाहते हो | तब से आज तक मेरी ये आदत है कि होटल का कमरा हो, सरकारी अतिथिग्रह का हो या किसी मेज़बान का, मैं उसे यथासंभव पूरी तरह साफ़ करके ही निकलता हूँ | 

स्वच्छता अभियान के प्रारम्भ में बहुत सारे लोगों, मशहूर हस्तियों, सरकारी अधिकारीयों, मंत्रियों और नेताओं ने झाड़ू उठा कर सफाई करने की रस्म अदायगी की थी | झाड़ू ले कर फोटो छपवाने की होड़ सी लग गयी थी | यह देख कर बड़ा अच्छा लगा था कि मोदी जी ने महात्मा गाँधी के बाद पहली बार सफाई जैसे काम को इतना सम्मान जनक बना दिया कि झाड़ू उठाना भी प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गया| पर चार दिन की चांदनी फिर अँधेरी रात | इन महानुभावों की छोड़ हर रैली में मोदी-मोदी चिल्लाने वाले प्रधान मंत्री की भाजपा के कार्यकर्ता तक आपको कहीं भी स्वच्छ भारत अभियान चलते नहीं दिख रहे हैं | 

आपको याद होगा कि लाल बहादुर शास्त्री जी ने अन्न संकट के दौरान हर सोमवार की शाम न सिर्फ भोजन करना छोड़ा बल्कि प्रधान मंत्री निवास में हल बैल लेकर खेती करना भी शुरू कर दिया था| मुझे लगता है कि इस देश में हम सब को लगातार धक्के की आदत पड़ गई है| इसलिए प्रधान मंत्री को हफ्ते में एक निर्धारित दिन राजधानी के सबसे गंदे इलाके में, बिना किसी पूर्व घोषणा के, अचानक जाकर झाड़ू लगानी चाहिए | इसके दो लाभ होंगे, एक तो पूरे देश में हर हफ्ते एक सकारात्मक खबर बनेगी, जिसका काफी असर आम जनता पर पड़ेगा | दूसरा झाड़ू पार्टी के नौटंकीबाज़ मुख्य मंत्री केजरीवाल की उर्जा फ़ालतू ब्यानबाजी से हटकर सकारात्मक कार्यों में लगेगी | क्योंकि शायद मुकाबले में वो सातों दिन झाड़ू लेकर निकल पड़ें| अगर उस निर्धारित दिन मोदी जी भारत के किसी अन्य नगर में हों तो वे वहां भी अपना नियम जारी रखें | जिससे हर जगह हड़कंप रहेगा | 

जिन लोगों ने स्वच्छता अभियान के प्रारम्भ में मोदी जी की यह कह कर आलोचना की थी कि प्रधान मंत्री के पास इतने बड़े काम हैं, ये झाड़ू लगाने की फुर्सत कहाँ से मिल गयी | उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि सफाई कि वृत्ति केवल अपने चारों ओर के कूड़ा उठाने तक सीमित नहीं रहेगी | इससे हमारे दिमागों और विचारों की भी सफाई होगी | जिसकी आज हमें बहुत ज़रुरत है |

Monday, July 4, 2016

हम शहरी हैं या जंगली

बरसात शुरू ही नहीं कि हर शहर के गली मोहल्लों में पानी जमा होना शुरू हो गया| अभी तो आगास है अगर मौसम विभाग का अनुमान ठीक रहा तो इस साल मूसलाधार वर्ष होगी और देश कि ज्यादातर आबादी गंदे पानी के तालाबों के बीच नारकीय जीवन जीने पर मजबूर होगी | हर साल की यही कहानी है |

इसके तीन कारण हैं, पहला कोलोनाइज़रों द्वारा बिना सही योजनाओं के कॉलोनियां बनाना और प्रशासन का आँख मीच कर उनका सहयोग करना | चाहे सड़क, नाली, सीवर कि कोई व्यवस्था हो या न हो | दूसरा सीवर और नालियों में ठोस कचरे का जमा होना क्योंकि स्थानीय निकाय अपनी ज़िम्मेदारी पूरी नहीं करते | तीसरा हर साल दो साल में सड़कों की ऊँचाई बढाते जाना | जिससे अगल बगल के मकानों का तल हमेशा नीचा होता जाता है और यही पानी भराव का मुख्य कारण बनता है |

इस तीसरे बिंदु पर हम आज ज्यादा चर्चा करेंगे | क्योंकि पहले दो बिन्दुंओं पर तो चर्चा होती ही रहती है और पूरी बरसात हर मीडिया पर होती रहेगी | पर हर दो बरस में सड़क का ऊंचा होना समझ में नहीं आता | केवल इसीलिए कि जितनी मोटी सड़क बिछाई जायेगी उतना ही ज्यादा मुनाफा ठेकेदारों और सरकारी इंजीनियरों का होगा | जबकि अगर पहली बार में ही सड़क की गुणवत्ता ठीक हो तो उसे बार बार बनाने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी | जहाँ थोड़े बहुत पैच वर्क से काम चल सकता हो वहां भी नई सड़क बिछा दी जाती है | बिना इस बात का लिहाज़ किये कि सड़क के दोनों ओर मकान बनाने वालों की इतनी हैसियत नहीं होती कि वो हर दो साल में अपने मकान का फर्श ऊँचा करा लें | 

अभी मैं तीन हफ्ते का अमरीका का दौरा कर के लौटा हूँ | वहां मैं 32 वर्षों में कई बार जा चुका हूँ | वहां अलग अलग शहरों में सैंकड़ों मित्र और रिश्तेदार रहते हैं जिनके घर मैं सन 1984 से जा रहा हूँ | इतने लम्बे कालक्रम में एक बार भी ऐसा नहीं हुआ कि किसी शहर की, किसी कालोनी की, कोई सड़क कभी ऊंची हुई हो या कोई मकान का फर्श अचानक सड़क से नीचा हो गया हो | 32 वर्ष की ही बात क्यों करे | 100 साल पहले बने मकानों में भी ऐसी समस्या कभी नहीं हुई | न तो सड़क का स्तर ऊँचा हुआ और न तो मकान का फर्श नीचा हुआ | तो हमारे इंजीनियरों की अक्ल पर क्या पत्थर पड़ गए हैं कि वो इतनी छोटी सी बात नहीं समझते | या समझते हैं पर रिश्वत की हवस में करोड़ों देशवासियों की जिंदगी में हर दो चार वर्षों में मुश्किल खड़ी कर देते हैं | 

इस समस्या का एक समाधान हो सकता है | इस लेख को पढ़ने वाले चाहे भारत के किसी भी प्रांत व नगर में क्यों न रहते हों, अगर इस समस्या से जूझ रहे हों तो संगठित हो कर सम्बंधित विभाग के अधिकारीयों से सवाल जवाब करें | उन्हें ये लेख पढ़वाएं, उनसे ऐसी वाहियात योजना बनाने का करण पूछें और अगर वे संतुष्ट न कर पाएं तो उन पर सामूहिक दबाव डालें कि वे अपनी इस भूल को सुधारें और आपके इलाके की सड़क का स्तर घटा कर उतना ही करें जो कि आपको प्लाट या मकान आवंटित करते समय दिखाया गया था | इस लड़ाई में शुरू में समस्याएं आएँगी | क्योंकि लोग ऐसे हैं कि तकलीफ सहेंगे, सरकार को कोसेंगे पर हक मांगने के लिए संगठित नहीं होंगे | ऐसे में उन्हें समझाना पड़ेगा कि नाहक तकलीफ सहने और हर दो तीन साल में अपने घर के स्तर को उठाने के खर्चे से अगर बचना है तो अपने घर के सामने की सड़क की लगातार बढती ऊँचाई को उसके मूल स्तर तक लाने के लिए संघर्ष तो करना ही पड़ेगा |

दरअसल सरकार को कोसने से ज्यादा हम सब शहरियों को आत्मविश्लेषण करने की जरूरत है | आज नागरिक जीवन में, विशेषकर शहरों में जो ढेर सारी समस्याएं पनप रही हैं उनकी जड़ में छिपी है हमारी कमजोरी, उदासीनता और चरित्र का दोहरापन | हम सब अपनी समस्याओं के लिए प्रशासन को दोष देते हैं | पर क्या कभी सोचते हैं कि इन समस्याओं को पैदा करने या बढ़ाने में हमारी क्या भूमिका है ? अवैध कब्जे करना, मानकों से अधिक निर्माण करना, भवन की हवा पानी की चिंता किये बिना निर्माण करना, कुछ ऐसे काम हैं जिसके लिए सरकारी अफसरों के भ्रष्ट आचरण से ज्यादा हम ज़िम्मेदार हैं | क्योंकि हमारा रवैय्या आत्मकेंद्रित है | सामूहिक जीवन जीने की कला जो हमें पूर्वजों से ग्रामीण जीवन में मिली थी उसे शहरों में आकर हम भूल चुके हैं | कहने को हम शहरी हैं लेकिन व्यवाहर हमारा जंगलियों जैसा है | जिस तरह शहरों की आबादी बढ़ रही है और संसाधनों का टोटा पड़ रहा है, समस्याएं घटेंगी नहीं बढेंगी ही | इसिलिय हमें अपनी सोच और रवैय्या बदलना होगा |

Monday, June 27, 2016

अच्छे मानसून के बावजूद कितने निश्चिंत हैं हम ?

देश में मानसून की स्थिति पर नजर रखने वालों का ध्यान लगता है कि कहीं और लगा है। हर साल मौसम विभाग भी बहुत चैकस दिखता था। लेकिन इस बार मानसून आने के एक महीने पहले जो पूर्वानुमान मौसम विभाग ने बताए थे उसके बाद वह अपनी साप्ताहिक विज्ञप्ति जारी करने के अलावा ज्यादा कुछ बता नहीं पा रहा है। उसकी साप्ताहिक विज्ञप्तियों को देखें तो इस मानसून में अब तक औसत बारिश औसत से दस फीसद कम हुई है। जबकि मानसून के चार महीनों का अनुमान नौ फीसद ज्यादा बारिश होने का लगा था।

मानसून की अबतक की स्थिति का विश्लेषण करें तो दो अंदेशे पैदा हो गए हैं। एक यह कि अगर पूरे मानसून का अनुमान सही होने पर विश्वास करके चलें तो अब बाकी के दिनों में भारी बारिश का अंदेशा है और अगर अब तक के आंकड़ों के हिसाब से मानसून के मिजाज का अंदाजा लगाएं तो इस बार लगातार तीसरे साल  बारिश औसत से  कम होने का डर भी है।

अगर बारिश का अनुमान सही निकला तो आज की स्थिति यह है कि देश में एक साथ ज्यादा पानी गिरने से बाढ़ की आशंका सिर पर आकर खड़ी हो गई है। विशेषज्ञ जल विज्ञानी के के जैन के मुताबिक देश में सूखे पड़ने की आवृत्ति बढ़ रही है। आंकड़े बता रहे हैं कि पहले जहां 16 साल में एक बार सूखा पड़ता था वहां पिछले तीन दशकों से हर सोलह साल में तीन बार सूखा पड़ने लगा है। विशेषज्ञों की इस बात पर गौर करने का समय आ गया है कि बदलते हालात में हमें बारिश के पानी को बाकी के आठ महीनों के लिए रोक कर रखने के फौरन ही अतिरिक्त प्रबंध करने होंगे।

उधर इन विशेषज्ञों का यह अध्ययन भी ध्यान देने लायक हो गया है कि देश में जल संचयन या जल भंडारण की क्षमता बढ़ाने से हम बाढ़ की समस्या पर भी काबू पा लेंगे। अभी जो ज्यादा बारिश होने से अतिरिक्त पानी बाढ़ की तबाही मचाता हुआ वापस समुद्र में जाता है वह देश की 32 करोड़ हैक्टेयर जमीन पर जहां तहां कुंडों और पोखरों में जमा होकर नदियों को उफनने से रोक देगा और यही पानी सिंचाई की जरूरतों के दिनों में भी काम आने लगेगा। इससे बड़ी शर्मिंदगी की बात क्या हो सकती है कि किसी देश में उसी साल बाढ़ आए और उसी साल सूखा भी पड़ने लगे। सन् 2016 का यह साल इस जल कुप्रबंधन का जीता जागता उदाहरण बनने वाला है। हद की बात यह है कि वर्षा के सटीक अनुमान लगाने में सक्षम होने के बाद हमारी यह स्थिति है।

यह साल इस मायने में भी हमारी पोल खोलने जा रहा है कि अगर बाढ़ के हालात बने तो जानमाल का भारी नुकसान होगा। और अगर वर्षा का अनुमान गलत निकला, यानी पानी कम गिरा तो लगातार तीसरे साल सूखे के हालात को भुगतना पड़ेगा। तीसरी स्थिति सामान्य बारिश की बनती है। यह भी सुखद स्थिति का आश्वासन नहीं दे रही है। इसका तर्क यह है कि देश की आबादी हर साल दो करोड़ की रफ्तार से बढ़ रही है। यानी हमें हर साल डेढ़ फीसद ज्यादा पानी का प्रबंध करना ही करना है।

जल विज्ञानी बताते हैं कि अभी हमारी जल संचयन क्षमता सिर्फ 253 घन किलोमीटर पानी को रोककर रखने की है। यह पानी खेती की कुल जमीन में से आधे खेतों तक को सींचने के लिए पर्याप्त नहीं है। दूसरे शब्दों में कहें तो खेती लायक देश की आधी से जयादा जमीन पर बारिश के भरोसे ही खेती हो रही है। जलवायु परिवर्तन के कारण हो या अपने जल कुप्रबंध के कारण हो या फिर बढ़ती आबादी के कारण हो, यह बात सामने दिखने लगी है कि जरूरत के दिनों में पानी कम पड़ने लगा है।

भले ही अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों के लिहाज से भारत आज जल विपन्न देशों की श्रेणी में आ गया हो, लेकिन आंकड़े बता रहे है कि अभी भी हमारे पास पांच सौ घन किलोमीटर पानी रोकने की गुंजाइश बाकी है। यानी हम अपनी जल भंडारण क्षमता दुगनी करने लायक अभी भी हैं। बस दिक्कत यही है कि जल परियोजनाओं पर खर्चा बहुत होता है। मोटा अनुमान है कि जल के संकट से उबरने के लिए कम से कम एकमुश्त पांच लाख करोड़ का निवेश चाहिए। इससे कम में अब काम इसलिए नहीं हो सकता, क्योंकि फुटकर-फुटकर जो काम हम इस समय कर रहे हैं वह तो बढ़ती आबादी की न्यूनतम जरूरत पूरी करने के लिए भी नाकाफी है।

इन तथ्यों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि इस बार मौसम विभाग की भविष्यवाणी सही निकलने के बाबजूद हम देश में पर्याप्त अनाज, दालों और दूसरे कृषि उत्पादन को लेकर निश्चिंत नहीं हैं। कृषि प्रधान देश में जहां दो तिहाई आबादी आज भी कृषि क्षेत्र पर निर्भर हो, वहां देश की मुख्य नीति अगर कृषि को केंद्र में रखकर न हो तो आने वाले दिनों में संकट को कौन रोक सकता है ?