पूर्वोत्तर राज्य के एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी, जो कि कट्टर हिंदूवादी विचारधारा के हैं, ने बिहार चुनाव परिणाम पर फोन करके खुशी जाहिर की। पर फिर फौरन ही फोन आया कि यह खुशी बहुत दुखभरी है। यही विरोधाभास सारी भाजपा में दिखाई दे रहा है। यूं तो लोकतंत्र में चुनावी हार-जीत सामान्य बात है। पर बिहार चुनाव में प्रधानमंत्री ने जितनी रूचि ली, उसके अनुरूप परिणाम न आने पर हिंदूवादियों का खुशी मनाना सोचने पर मजबूर करता है। इसके कारण में जाने की जरूरत है। दरअसल, नरेंद्र भाई मोदी ने पिछले कुछ वर्षों में अपने दमदार वक्तव्यों में इतनी उम्मीद जगा दी थी कि हर आदमी सोच बैठा कि लोकसभा का चुनाव जीतकर मोदी के हाथ में अल्लादीन का चिराग आ गया। जबकि हकीकत इसके काफी विपरीत है। प्रधानमंत्री चाहकर भी बहुत कुछ नहीं कर सकते। क्योंकि बहुमत न होने के कारण उनके हाथ राज्यसभा में बंधे हैं। वे कोई कड़ा कानून नहीं ला सकते। दूसरी ओर संघीय ढांचा होने के कारण जनहित के जितने भी कार्यक्रम या नीतियां बनती हैं, उनका क्रियान्वयन करना प्रांतीय सरकार की जिम्मेदारी होती है। ऐसे में जिन राज्यों में भाजपा की सरकार नहीं है, वहां मोदी कुछ भी नहीं कर सकते और न जबर्दस्ती करवा सकते। राज्य सरकारों की कमियों का ठीकरा प्रधानमंत्री पर फोड़ना उचित नहीं। पर इसका मतलब यह नहीं कि मोदी जो कुछ कर रहे हैं, वो ठीक है। उन्होंने देशभक्तों को अभी तक कोई ऐसा संकेत नहीं दिया, जिससे लगे कि भारत अपनी सनातन सांस्कृतिक विरासत के अनुरूप विकसित होने जा रहा है। इसके विपरीत मोदी के वक्तव्यों से यह संदेश गया है कि वे अमेरिका के विकास माॅडल से भारी प्रभावित हैं। जिसका आम जनता के मन में कोई सम्मान नहीं है। वे इस माॅडल को शोषक और समाज में असंतुलन पैदा करने वाला मानते हैं, इसलिए उन्हें मोदी से बड़े बदलाव की उम्मीद थी। जो उन्हें आज देखने को नहीं मिल रहा।
उदाहरण के तौर पर पश्चिमी शिक्षा पद्धति के प्रभाव में हम जैसे करोड़ों विद्यार्थियों से बचपन में जीव विज्ञान की कक्षा में केंचुए और मेढ़क कटवाए गए। उद्देश्य था हमें डाक्टर बनाना। डाक्टर तो हममें से आधा फीसदी भी नहीं बने, पर इन वर्षों में देशभर के करोड़ों विद्यार्थियों ने इन निरीह प्राणियों की थोक में हत्याएं कीं। जबकि एक किसान जानता है कि ये जानवर उसकी भूमि को उपजाऊ और पोला बनाने में कितने सहायक होते हैं। इस तरह पश्चिमी शिक्षा माडल ने हमारे पर्यावरण के संतुलन को बिगाड़ने के ऐसे अनेकों काम किए, जिनका हमारे जीवन में कोई उपयोग नहीं। इसके बदले अगर हमें योग, ध्यान और आयुर्वेद सिखा देते, तो हम सबको आज स्वस्थ जीवन जीने की कला आ जाती।
समस्या यह है कि ये बात इंदिरा गांधी के योगगुरू धीरेंद्र ब्रह्मचारी कहें, तो उसे सांप्रदायिकता नहीं कहा जाता। पर यही बात अगर बाबा रामदेव कहें, तो उनके भाजपा के प्रति झुकाव को देखकर उन्हें सांप्रदायिक करार दे दिया जाता है। सोचने वाली बात यह है कि योग, ध्यान और आयुर्वेद को आज पूरी दुनिया श्रद्धा से अपना रही है, तो भारत के आत्मघोषित धर्मनिरपेक्ष लोग इससे क्यों परहेज करते हैं ? दरअसल, भारत की सनातन संस्कृति में स्वास्थ्य, समाज, पर्यावरण, शिक्षा, नीति, शासन जैसे सवालों पर जितनी वैज्ञानिक और लाभप्रद जानकारी उपलब्ध है, उतनी दुनिया के किसी प्राचीन साहित्य में नहीं। पर हमारी संस्कृति हमारे ही देश में उपेक्षा का शिकार हो रही है। पहले एक हजार वर्ष आतताइयों ने इसे कुचला और फिर धर्मनिरपेक्षता के नाम पर इसका मजाक उड़ाया गया। आजादी के बाद की सरकारों ने भी इन सवालों पर देशज ज्ञान और परंपरा को महत्व नहीं दिया। नतीजतन भारत का तेजी से पश्चिमीकरण हुआ।
नरेंद्र मोदी ने पहली बार अपने को देश के सामने एक सशक्त हिंदूनेता के रूप में प्रस्तुत किया और बावजूद इसके चुनाव जीत लिया। इसलिए राष्ट्रवादियों और धर्मप्रेमियों को ऐसा लगने लगा था कि अब मोदी के कुशल और मजबूत नेतृत्व में देश की बड़ी समस्याओं के स्थाई समाधान निकलेंगे। जिसके लिए जरूरत थी विस्तृत कार्य योजना की। मोदीजी ने स्वच्छता अभियान जैसी कई दर्जन घोषणाएं तो कर दीं, पर वो कैसे पूरी होंगी, इस पर कुछ सोचा नहीं जा रहा है।
जरूरत इस बात की है कि पूरे भारत के विद्वान एक साथ बैठकर इन सभी सवालों पर और इनसे जुड़ी समस्याओं पर गंभीरता से मंथन करें। शोध करें और समाधान प्रस्तुत करें। ऐसे समाधान जो सुलभ हों, निर्धन के लिए उन्हें पाना मुश्किल न हो। इस तरह राष्ट्र की हर महत्वपूर्ण नीति की सार्थकता और समाज के लिए उपयोगिता पर कुछेक बड़ी बैठकें या कार्यशालाएं होनी चाहिए। जहां इन सवालों पर विभिन्न पृष्ठभूमि के विद्वान व्यापक चिंतन और बहस करें और ठोस समाधान प्रस्तुत करें। इससे दो लाभ होंगे। एक तो प्रधानमंत्री मोदी को अपने नारों के समर्थन में ठोस सुझाव मिल जाएंगे और दूसरा जो तमाम लोग देशभर में इस उम्मीद में बैठे हैं कि राष्ट्र निर्माण में उनकी भी भागीदारी हो, उन्हें रचनात्मक काम मिल जाएगा। उन्हें राष्ट्र की मुख्यधारा से मिलकर चलने का मौका मिलेगा। इससे विरोध भी शांत होगा और मोदीजी को कुछ कर दिखाने का मौका मिलेगा। वरना तो बिहार के नतीजों से बमबम हुए लालू यादव लालटेन लेकर मोदीजी का मखौल उड़ाने का कोई मौका नहीं छोड़ेंगे।
उदाहरण के तौर पर पश्चिमी शिक्षा पद्धति के प्रभाव में हम जैसे करोड़ों विद्यार्थियों से बचपन में जीव विज्ञान की कक्षा में केंचुए और मेढ़क कटवाए गए। उद्देश्य था हमें डाक्टर बनाना। डाक्टर तो हममें से आधा फीसदी भी नहीं बने, पर इन वर्षों में देशभर के करोड़ों विद्यार्थियों ने इन निरीह प्राणियों की थोक में हत्याएं कीं। जबकि एक किसान जानता है कि ये जानवर उसकी भूमि को उपजाऊ और पोला बनाने में कितने सहायक होते हैं। इस तरह पश्चिमी शिक्षा माडल ने हमारे पर्यावरण के संतुलन को बिगाड़ने के ऐसे अनेकों काम किए, जिनका हमारे जीवन में कोई उपयोग नहीं। इसके बदले अगर हमें योग, ध्यान और आयुर्वेद सिखा देते, तो हम सबको आज स्वस्थ जीवन जीने की कला आ जाती।
समस्या यह है कि ये बात इंदिरा गांधी के योगगुरू धीरेंद्र ब्रह्मचारी कहें, तो उसे सांप्रदायिकता नहीं कहा जाता। पर यही बात अगर बाबा रामदेव कहें, तो उनके भाजपा के प्रति झुकाव को देखकर उन्हें सांप्रदायिक करार दे दिया जाता है। सोचने वाली बात यह है कि योग, ध्यान और आयुर्वेद को आज पूरी दुनिया श्रद्धा से अपना रही है, तो भारत के आत्मघोषित धर्मनिरपेक्ष लोग इससे क्यों परहेज करते हैं ? दरअसल, भारत की सनातन संस्कृति में स्वास्थ्य, समाज, पर्यावरण, शिक्षा, नीति, शासन जैसे सवालों पर जितनी वैज्ञानिक और लाभप्रद जानकारी उपलब्ध है, उतनी दुनिया के किसी प्राचीन साहित्य में नहीं। पर हमारी संस्कृति हमारे ही देश में उपेक्षा का शिकार हो रही है। पहले एक हजार वर्ष आतताइयों ने इसे कुचला और फिर धर्मनिरपेक्षता के नाम पर इसका मजाक उड़ाया गया। आजादी के बाद की सरकारों ने भी इन सवालों पर देशज ज्ञान और परंपरा को महत्व नहीं दिया। नतीजतन भारत का तेजी से पश्चिमीकरण हुआ।
नरेंद्र मोदी ने पहली बार अपने को देश के सामने एक सशक्त हिंदूनेता के रूप में प्रस्तुत किया और बावजूद इसके चुनाव जीत लिया। इसलिए राष्ट्रवादियों और धर्मप्रेमियों को ऐसा लगने लगा था कि अब मोदी के कुशल और मजबूत नेतृत्व में देश की बड़ी समस्याओं के स्थाई समाधान निकलेंगे। जिसके लिए जरूरत थी विस्तृत कार्य योजना की। मोदीजी ने स्वच्छता अभियान जैसी कई दर्जन घोषणाएं तो कर दीं, पर वो कैसे पूरी होंगी, इस पर कुछ सोचा नहीं जा रहा है।
जरूरत इस बात की है कि पूरे भारत के विद्वान एक साथ बैठकर इन सभी सवालों पर और इनसे जुड़ी समस्याओं पर गंभीरता से मंथन करें। शोध करें और समाधान प्रस्तुत करें। ऐसे समाधान जो सुलभ हों, निर्धन के लिए उन्हें पाना मुश्किल न हो। इस तरह राष्ट्र की हर महत्वपूर्ण नीति की सार्थकता और समाज के लिए उपयोगिता पर कुछेक बड़ी बैठकें या कार्यशालाएं होनी चाहिए। जहां इन सवालों पर विभिन्न पृष्ठभूमि के विद्वान व्यापक चिंतन और बहस करें और ठोस समाधान प्रस्तुत करें। इससे दो लाभ होंगे। एक तो प्रधानमंत्री मोदी को अपने नारों के समर्थन में ठोस सुझाव मिल जाएंगे और दूसरा जो तमाम लोग देशभर में इस उम्मीद में बैठे हैं कि राष्ट्र निर्माण में उनकी भी भागीदारी हो, उन्हें रचनात्मक काम मिल जाएगा। उन्हें राष्ट्र की मुख्यधारा से मिलकर चलने का मौका मिलेगा। इससे विरोध भी शांत होगा और मोदीजी को कुछ कर दिखाने का मौका मिलेगा। वरना तो बिहार के नतीजों से बमबम हुए लालू यादव लालटेन लेकर मोदीजी का मखौल उड़ाने का कोई मौका नहीं छोड़ेंगे।